आपका यह पक्ष भी सत्य है, क्योंकि आयुर्वेद के मतानुसार योग निरोगी काया को रोगमुक्त रखने का उपाय है। किंतु इसके कारण रोगी निरोगी नहीं होता उसे अपेक्षित औषधि लेनी ही होगी। सुषेण योगी थे किंतु अपेक्षित चिकित्सा करते थे। लक्ष्मण हों या मेघनाथ उपचार से ही ठीक होते हैं।
लेकिन योग आत्मा अर्थात चेतन तत्व को परमात्मा अर्थात पराचेतन तत्व से जोड़ने की प्रक्रिया है। अष्टांग योग शरीर,मन बुद्धि,चित, अहंकार को सात्विक बनाता है। योग यम, नियम के उपांगों के पालन से प्रारंभ होत है और समाधि में समाप्त होता है ।
इसमें पंच कोशों की अद्भुत भूमिका होती है। अन्नमय कोष में जीने वाला पंच प्राणों और उनके पांच उप प्राणों के माध्यम से मनोमय कोष तक की यात्रा करता है।
यहां तक अष्टांग योग के बहिरंग यम,नियम,आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार की भूमिका रहती है। अंतरंग धारणा, ध्यान और समाधि साधक को आध्यात्मिक क्षेत्र में अर्थात आनंद मय कोष में प्रवेश कराती है।
और तब यही से 'युज' की यात्रा प्रारम्भ होती है। जो नितांत आध्यात्मिक यात्रा है। यह यात्रा अष्ट सिद्धियों और नो निधियों के द्वार को पार कर दसवें द्वार अर्थात् ब्रह्मरंध से प्रकाश को प्रकाश में एकात्म करती है।
योग जो आज बताया जा रहा है वह उसका बहिरंग है। फिर भी जो हो रहा है उसे नकारना आवश्यक नहीं है।
सादर
Very analytical artical on Yog
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteयोग की अद्भुत शक्ति । बढ़िया ब्लॉग।
ReplyDeleteधन्यवाद
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