Wednesday, 26 June 2024

महर्षि पतंजलि का योग सूत्र

 

योग सूत्र: योग सूत्र महर्षि पतंजलि द्वारा रचित है । यह ग्रंथ सूत्रों के रूप में लिखा गया है । सूत्र-शैली भारत की प्राचीन दुर्लभ शैली है, जिसमें विषय को बहुत संक्षिप्त शब्दों में प्रस्तुत किया जाता है । यह चार पदों में- समाधि ,साधन, विभूति और कैवल्य में विभक्त है । इस ग्रंथ में महर्षि पतंजलि ने यथार्थ रूप में योग के आवश्यक आदर्शों और सिद्धांतों को प्रस्तुत किया है । समाधि पाद में 51, साधन पाद में 55, विभूति पद में 55 और कैवल्य पाद में 34 सूत्र हैं । कुल मिलाकर सम्पूर्ण योग सूत्र 195 सूत्रों में उपलब्ध होता है ।विषय की दृष्टि से चारों अध्यायों की विषय वस्तु को संक्षिप्त रूप से कुछ इस प्रकार समझ सकते हैं-

              (1) समाधि पाद- समाधि पाद के अन्तर्गत, समाधि से सम्बन्धित मुख्य-मुख्य विषयों को लिया गया है । इस अध्याय में सर्वप्रथम योग की परिभाषा बताई गयी है, जो कि चित्त की वृत्तियों का सभी प्रकार से निरुद्ध होने की स्थिति का नाम है । यहां पर भाष्यों के अन्तर्गत यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि यह योग समाधि है । समाधि के आगे दो भेद- सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात बताए गए हैं । दोनों ही प्रकार की समाधियों के अन्तर भेदों को भी विस्तार से बताया गया है । समाधि की स्थिति को प्राप्त करने के साधनों के विषय में भी विस्तार से चर्चा की गयी है । समाधिपाद- में यह बतलाया गया है कि योग के उद्देश्य और लक्षण क्या हैं और उसका साधन किस प्रकार होता है। (2) साधनपाद- साधनपाद में क्लेश, कर्मविपाक और कर्मफल आदि का विवेचन है। (3) विभूतिपाद-विभूतिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के अंग क्या हैं, उसका परिणाम क्या होता है और उसके द्वारा अणिमा, महिमा आदि अष्ट सिद्धियों की किस प्रकार प्राप्ति होती है। (4)  कैवल्यपाद- कैवल्यपाद में कैवल्य या मोक्ष का विवेचन किया गया है

सांख्य योग दर्शन का मत यह है कि मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं, और उसे कर्म के फलों के अनुसार जन्म लेकर आयु व्यतीत करनी पड़ती है तथा भोग भोगना पड़ता है। 

       पतंजलि ने इन सबसे बचने और मोक्ष प्राप्त करने का उपाय योग बतलाया है और कहा है कि क्रमशः योग के अंगों का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ईश्वर के संबंध में पतंजलि का मत है कि वह नित्यमुक्त, एक, अद्वितीय और तीनों कालों से अतीत है और देवताओं तथा ऋषियों आदि को उसी से ज्ञान प्राप्त होता है। योगदर्शन में संसार को दुःखमय और हेय माना गया है । पुरुष या जीवात्मा के मोक्ष के लिये वे योग को ही एकमात्र उपाय मानते हैं । पतंजलि ने चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, निरुद्ध और एकाग्र ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ मानी है, जिनका नाम उन्होंने 'चित्तभूमि' रखा है। उन्होंने कहा है कि आरंभ की तीन चित्तभूमियों में योग नहीं हो सकता, केवल अंतिम दो में हो सकता है। इन दो भूमियों में संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ये दो प्रकार के योग हो सकते हैं । जिस अवस्था में ध्येय का रूप प्रत्यक्ष रहता हो, उसे संप्रज्ञात कहते हैं । यह योग पाँच प्रकार के क्लेशों का नाश करने वाला है। असंप्रज्ञात उस अवस्था को कहते हैं, जिसमें किसी प्रकार की वृत्ति का उदय नहीं होता अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रह जाता, संस्कार मात्र बचा रहता है । यही योग की चरम भूमि मानी जाती है और इसकी सिद्धि हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है।

             योगसाधन के उपाय में यह बतलाया गया है कि पहले किसी स्थूल विषय का आधार लेकर, उसके उपरांत किसी सूक्ष्म वस्तु को लेकर और अंत में सब विषयों का परित्याग करके चलना चाहिए और अपना चित्त स्थिर करना चाहिए । चित्त की वृत्तियों को रोकने के जो उपाय बतलाए गए हैं, वह इस प्रकार हैं- अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का प्रणिधान, प्राणायाम और समाधि विषयों से विरक्ति आदि । यह भी कहा गया है कि जो लोग योग का अभ्यास करते हैं, उनमें अनेक प्रकार की विलक्षण शक्तियाँ आ जाती है, जिन्हें 'विभूति' या सिद्धि कहते हैं।  यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठों योग के अंग कहे गए हैं, और योगसिद्धि  के लिये इन आठों अंगों का साधन आवश्यक और अनिवार्य कहा गया है । इनमें से प्रत्येक के अंतर्गत कई बातें हैं । कहा गया है जो व्यक्ति योग के ये आठो अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से छूट जाता है, अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है और अंत में कैवल्य (मुक्ति) का भागी बनता है । सृष्टितत्व आदि के संबंध में योग का भी प्रायः वही मत है जो सांख्य का है, इससे सांख्य को 'ज्ञानयोग' और योग को 'कर्मयोग' भी कहते हैं ।

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