ब्रह्मसूत्र
ब्रह्मसूत्र वेदान्त दर्शन का आधारभूत ग्रन्थ है । इसके रचयिता महर्षि बादरायण हैं । इसे वेदान्त सूत्र, उत्तर मीमांसा सूत्र, शारीरिक सूत्र और भिक्षु सूत्र आदि नामों से जाना जाता है । इस पर अनेक आचार्यों ने भाष्य भी लिखे हैं । ब्रह्मसूत्र में उपनिषदों के दार्शनिक और अध्यात्मिक विचारों को सार रूप में एकीकृत किया गया है ।
वेदान्त को तर्क पूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने के कारण इसे न्याय प्रस्थान भी कहा जाता है । इसमें माना गया है कि ब्रह्म एक लाक्षणिक सत्य है । ब्रह्म को किसी मूर्त रूप में हम नहीं देख सकते हैं । ब्रह्म को बोध कराने के लिए सूत्रकार द्वारा जिस सूत्र का निरूपण किया गया है वह ही ब्रह्मसूत्र है ।
यहीं यह समझ लेना ठीक होगा की ‘सूत्र’ क्या है ? “थोड़े शब्दों में असंदिग्ध बात को जिसके अन्दर पुनुरुक्ति न हो और कोई दोष न हो ।” जब ऐसे सूत्र और वाक्यों को प्रयोग किया जाता है तो उन्हें सूत्र कहते हैं ।
ब्रह्मसूत्र, वेदान्त या उपनिषद को समझने के लिए हमारे पास कुछ आधार भूत स्पष्टता होनी चाहिए । वेद एक प्रमाण है । उपनिषद भी एक प्रमाण है । ऐसे प्रमाण की एक निरदृष्टि वस्तु होती है , जैसे आँख एक प्रमाण है । कान एक प्रमाण है । आँख का काम देखना है और कान का काम सुनना है । अत: आँख का काम कान नहीं कर सकता और कान का काम आँख नहीं कर सकती ।
श्रुति एक प्रमाण है जिसको समझने के लिए इन्द्रियां सामर्थ्य नहीं हैं । इसमें थोड़े से शब्दों में परब्रह्म के स्वरुप का सांगोपांग निरूपण किया गया है, इसलिए इसका नाम ब्रह्मसूत्र है ।
उत्तर भाग की श्रुतियों में उपासना एवं ज्ञानकाण्ड है ; इन दोनों की मीमांसा करने वाले वेदान्त -दर्शन या ब्रह्म सूत्र को ‘उत्तर मीमांसा ‘ भी कहते हैं ।
दर्शनों में इनका स्थान सबसे ऊँचा है ; क्योंकि इसमें जीव के परम प्राप्य एवं चरम पुरुषार्थ का प्रतिपादन किया गया है । प्रायः सभी सम्प्रदायों के आचार्यों नें ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे हैं ।
ब्रह्म सूत्र में चार अध्याय हैं जिनके नाम क्रमश: समन्वय, अविरोध, साधन और फलाध्याय बताया गया है ।
प्रत्येक अध्याय के चार पाद हैं । कुल मिलाकर इसमें 555 सूत्र हैं ।
ब्रह्मसूत्र में शोक निवृति के लिए इन चारों अध्यायों में एकत्व की बात कही गई है । व्यास जी कहते है की सारा संसार ब्रह्ममय होने के कारण उपनिषद में जो विषय आए हैं, वह भी ब्रह्ममय हैं ।
ब्रह्मसूत्र में इस बात का प्रतिपादन किया गया है की निर्गुण निराकार ब्रह्म को बिना सगुन साकार स्वरुप की कल्पना के समझा नहीं जा सकता है ।
पहला समन्वय अध्याय
पहला पाद - प्रथम पाद में ब्रह्म का प्रमाणों द्वारा प्रतिपादन किया गया है । इस पाद में बताया गया है की आनंद , विज्ञान ,आकाश, प्राण ,ज्योति तथा गायत्री नाम आदि जैसे शब्दों से श्रुति में परम ब्रह्म का ही वर्णन है ।
दूसरा पाद - इस पाद में वेदान्त वाक्यों में परम ब्रह्म का निरूपण किया गया है ।
तीसरा पाद- तीसरे पाद में जहाँ ब्रह्म को अक्षर और ॐ से प्रतिपादित क्या गया है, वहीं ज्योति और आकाश को भी ब्रह्म का वाचक बताया गया है ।
चौथा पाद - इस पाद में अव्यक्त शब्द पर विचार किया गया है ।
दूसरा अविरोध अध्याय
पहलापाद- प्रथम पाद में ब्रह्म कारणवाद के विरुद्ध उठाई हुई शंका का समाधान किया जाता है । साथ ही जीव और उनके कर्मों की अनादि सत्ता का प्रतिपादन किया बताया गया है ।
दूसरा पाद - इस पाद में सांख्य मत प्रधान कारणवाद का खंडन किया गया है । साथ ही पंचरात्री की चर्चा भी है ।
तीसरा पाद- इस पाद में ब्रह्म और जीव की चर्चा है ।
चौथा पाद - चौथे पाद में इन्द्रियों की उत्पत्ति पञ्चभूत से नहीं परमात्मा से होती है का प्रतिपादन किया गया है । इसी तरह प्राण की उत्पत्ति भी ब्रह्म से ही होती है बताया गया है ।
तीसरा साधन अध्याय
पहलापाद- इस पाद में जीव और आत्मा का वर्णन है ।
दूसरा पाद - इस पाद में स्वप्न को माया मात्र और शुभ -अशुभ का सूचक बताया गया है । कर्मों का फल परमात्मा ही देता है, कर्म नहीं ।
तीसरा पाद - इस पाद में वेदान्त वर्णित समस्त ब्रह्म विद्याओं के एकता की चर्चा है ।
चौथा पाद - इस पाद में बताया गया है की ज्ञान से ही परम पुरुषार्थ की सिद्धि होती है ।
चौथा फलाध्याय
पहलापाद- इस पाद में ब्रह्म विद्या में निरंतर अभ्यास की आवश्यकता बताई गई है । प्रारब्ध का भोग नाश होने पर ज्ञानी को ब्रह्म की प्राप्ति होती है ।
दूसरा पाद - इस पाद में उत्क्रमण काल में वाणी की अन्य इन्द्रियों के साथ- मन की प्राण में और प्राण की जीवात्मा में स्थिति का कथन है ।
तीसरा पाद - इस पाद में विभिन्न लोकों का प्रतिपादन है ।
चौथा पाद - इस पाद में ब्रह्म लोक में पहुँचने वाले उपासकों की तीन गतियों का वर्णन है ।
ब्रह्म सूत्र जिसे वेदान्त दर्शन भी कहते हैं, इसके पहले अध्याय का पहला पाद ‘अथतो ब्रह्म जिज्ञासा’ से प्रारम्भ होता है । यह सम्पूर्ण ग्रन्थ सूत्र रूप में बद्ध है । इसके अंतिम अध्याय के अंतिम पाद का समापन ‘ अनावृति: शब्दादनावृत्ति:शब्दात’ से होती है ।
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