Friday, 28 June 2024

maadhavi माधवी महाभारत

 

 

उपन्यास कर्म से तपोवन तक की भाषा, शैली, संवाद, पात्र पर समीक्षकों ने विस्तार से चर्चा की है। उस पर मुझे कोई टिप्पणी नहीं करना है।

यहां कथा वस्तु और लेखिका के प्रश्नों पर मैं बात करूंगा, जो सामान्य पाठक के साथ साहित्यकार के लिए भी बहुत आवश्यक हैं।

यहां बता दूं भीष्म साहनी का माधवी और वीणा सिन्हा का 'पथ प्रज्ञा ' पहले से काफी चर्चा में हैं। किंतु भीष्म साहनी ने 'उपवन' के मार्मिक'  प्रसंग को नहीं छुआ तो वीणा सिन्हा ने भी भाषा की सांस्कृतिक संरचना में ठीक सर्जनात्मक उपयोग नहीं कर सकीं। माधवी पर तमिल में भी एक उपन्यास 'नित्यकन्नि' (नित्यकन्या) है।

महाभारत के उद्योग पर्व के अन्तर्गत १० उपपर्व हैं और इसमें कुल १९६ अध्याय हैं । 196 अध्यायों में से अध्याय 106 से 123 के बीच माधवी औत गालव की अंतरंगता की कथा आती है जो इस उपन्यास का आधार है ऐसा लेखिका का कथन है।


वे लिखती हैं माधवी को लिखते हुए मैं स्त्री को जी रही थी। अनदेखे पहलुओं को जी रही थी, उसके दुर्भाग्य को जी रही थी।

 लेखिका ने बताया कि कथा का सूत्र गालव की उस योजना में मिलता है जहां गालव माधवी को तीन-तीन राजाओं के पास एक एक साल के लिए रखतें हैं। अंत तक गालव और माधवी अन्तरंग हो गए और उनके शारीरिक सम्बन्ध हो गए। 

लेखिका ने ययाति के बारे में लिखा कि उन्हें श्राप था की युवा अवस्था में वे वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाए और उन्होंने पुरु से जवानी मांग ली (लेखिका को पुरु की अपने पिता के प्रति जवानी दान करने  की त्याग और दानशीलता की वृति क्यों नजर नहीं आई ? वह यह भी कैसे भूल गईं की माधवी यहाँ दायित्व निर्वहन करनेवाली, कर्तव्य परायण, त्यागी और सेवाभावी नारी है । 

 और उन्हें ययाति की पुत्री का अपने पिता की इक्षा पालन के लिए गालव के साथ जाना अन्याय लगा? 

उन्हें माधवी की यह बात तो याद है की उसे चिर कुमारी का वरदान प्राप्त है किन्तु यह विस्मरण हो गया की उसे तीन यशस्वी राजकुमार भी इस संसार को देने का वरदान प्राप्त था !) 

महाभारत की ऐसी तमाम कथाओं, घटनाओं और प्रसंगों के हर बार नए अर्थ खुलते हैं। दुर्वासा का कुंवारी कुन्ती को वरदान स्वरूप मंत्र क्यों देते हैं? औचित्य बहुत बाद में पांडु की मृत्यु के बाद समझ आता है। अम्बिका,अंबालिका से व्यास का विनियोग?

लेखिका ने यह तो कह दिया की विश्वमित्र कामांध थे और उन्होंने तप से काम को नहीं जीता किन्तु वह भूल गई की गालव उनका ही शिष्य था जो अपने गुरु की आज्ञा के लिए संसार की लोक उपेक्षा की परवाह किये बिना ८०० घोड़ों की प्राप्ति के लिए माधवी को ययाति की इस युक्ति को स्वीकार करता है ?

यद्यपि इसका एक समाधान शांति पर्व में (227/31) में मिलता है-

न विद्या न तपो दानं न मित्राणि न बांधवा।

शक्नुवन्ति परित्रातु नरं कालेन पीड़ितम्।।

काल की मार में उक्त कोई बात काम नहीं आती।

 जब उपन्यासकार वरदान और श्राप को स्वीकार करता है तब उसे दैवी विधान क्यों स्मरण नहीं रहता की युग में यह होना ही था?

     खैर, जिस महाभारत से यह कथानक उठाया गया है उसमें तो ऐसे अनेक प्रसंग बार-बार आये हैं। माना जाता है जो ज्ञान महाभारत में नहीं है, वो ज्ञान संसार में कहीं नहीं है। महाभारत में जीवन से जुड़ी कई बातें हैं जो हमें आधुनिक जीवन में भी काम आ सकती है। 

महाभारत युद्ध के बाद शांति पर्व में भीष्म ने युधिष्ठिर को जो ज्ञान दिया उसे आज भी राजनीति और सामाजिक मामलों का सबसे बेहतर ज्ञान माना जाता है । 

वस्तुत: काल कभी खण्डों में नहीं जीता वह निरंतर चलता है और उसमें पात्र आते हैं और अपनी लीला करके चले जाते हैं , इतिहास की इन्ही घटनाओं से कल्पना कर साहित्यकार साहित्य की रचना करता है ।

 किन्तु जब अतीत की घटनाओं को चक्रीय काल की निरंतरता में वर्तमान को तलाशा जाता है तब यह आवश्यक हो जाता है की उसके यथार्थ को अपने कल्पना में लेते समय तत्कालीन यथार्थ में भी कुछ कल्पना रही होगी विस्मरण नहीं किया जा सकता।

    लेखिका को ययाति पर क्रोध है की उसने अपनी पुत्री को एक जवान गालव को सौप दिया और उसकों तीन-तीन राज्यों को पुत्र देने के लिए बाध्य किया। 


और यहाँ एक विशेष बात यह है की लेखिका को यह बात तो बुरी लगी कि  ययाति अपने ख्याति के लिए अपनी पुत्री का जीवन नष्ट कर दिया और यह भी कह दिया की बेचारी माधवी को कभी न तो पुराणों में स्थान मिलेगा और न इतिहास में याद किया जाएगा। 

अब लेखिका अपने ही विचार या दृष्टिकोण पर चिंतन करें की यदि माधवी को पुराणों ने भुला दिया होता और इतिहास न स्मरण रखता तो उन्हें आप कैसे उपन्यास का केंद्र बिंदु बनाते। 

दूसरी बात आपको देह का समर्पण याद है किन्तु तीन-तीन बड़े इतिहास पुरुषों की माता होने का जो गौरव माधवी को इतिहास और महाभारत जैसे गर्न्थों में प्राप्त है, क्या वह केवल स्त्री के शोषण का विषय बन सकता है? क्या वेदव्यास जैसा ऋषि केवल काम वासना और स्वच्छंद यौनाचार को बताने के लिए उस गालव को पात्र बनाया है जो ऋषि परम्परा में आते हैं।

वस्तुत भारतीय ज्ञान परम्परा पर कलम चलाने के पहले उसके पक्ष को समझना होगा । वेदव्यास जैसा ऋषि माधवी और गालव को महाभारत में लाता ही इसलिए है की इतिहास उनका ऋणी रहे न की उनके वासना में स्वयं गोता लगाये और पाठकों के मन मस्तिष्क को भी कुंठित करे।

      लेखिका का मन इसलिए उद्वेलित है की माधवी अपनी पीड़ा का प्रतिकार क्यों नहीं कराती ? मैं पूछना चाहता हूं की क्या माधवी एक सामान्य स्त्री है ? क्या वह किसी विशिष्ट जीवन दर्शन , अप्सरा की कन्या (अप्सरा देवलोक की नृत्यांगनायें हैं। इनमें से प्रमुख हैं उर्वशी,रम्भा और मेनका आदि कुल 11 अप्सराये हैं ।) की प्रतिनिधि नहीं है ? 

शब्दों के साथ खेलना साहित्यकार का काम है किन्तु शब्द के कुल गोत्र को समझे बिना नहीं।  लेखिका ने स्वकथन में लिखा है कि विश्वमित्र गुरु ही नहीं, एक ऐसे तपस्वी थे जो काम को जीत नहीं पाए । कामंधता में ही उन्होंने अप्सरा मेनका से सम्बन्ध बनाए और माधवी को भी प्रेरित किया ! 

मैं समझता हूँ की लेखिका की यह सबसे बड़ी कमजोरी है की उन्होंने दर्शन की भूमि को अपने लौकिक चिंतन में ढालने का प्रयास किया।  

क्या लेखिका के अनुसार इस बात को माना जाये की हर्यश्च, उशीनर और दिविदास ने अपनी काम वासना के लिए माधवी का उपयोग किया या चक्रवर्ती राजाओं  का जन्म  कारण था ? क्या शिवी के हम भुला सकते हैं ।

भारत को समझाने के लिए भारत का दृष्टिकोण चाहिए । भारतीय वांग्मय में वेद,श्रुतियां , महाभारत, रामायण आदि स्वत: प्रमाण हैं। जैसे आंख स्वत: प्रमाण है, कान स्वत: प्रमाण है।आंख का काम कान नहीं कर सकता और न ही कान का काम आंख।

ययाति यदि एक पिता है तो वे एक विशिष्ट जीवन के प्रतिनिधि भी हैं।एक और हम गालव को ऋषि कहते है , ययाति को राजा कहते हैं , माधवी को वरदानी कन्या मानते हैं तो उसके बीच हमारी दैहिक पाश्यत्य विमर्श की सोच कहाँ से जागृत हो उठती है।

      भारत के जीवन दर्शन को देखेंगे तो पाएंगे की यहाँ सदा से हर व्यक्ति दो जीवन एक साथ जीते हैं एक - भौतिक जीवन , दूसरा अध्यात्मिक जीवन। भगवान् श्रीकृष्ण ने उसी महभारत के अंश श्री मद भगवद गीता में कहा है ।-

लेखिक के कुछ प्रश्न हैं - क्या तप स्वार्थ सीद्धि के लिए किया जाता है ? यदि हाँ तो सतयुग में ताप को क्यों उत्कृष्ट कहा गया है ? क्यों तपस्वियों का पेट उनके शिष्यों की भिक्षा वृति से भरा गया ? क्यों तपस्या ने काम पर विजय नहीं पाई ? 


बड़े महत्वपूर्ण प्रश्न हैं (किन्तु न समझी के )। इसके लिए मैं लेखिका से अनुरोध करूँगा की थोड़ा भारतीय ज्ञान परम्परा को अवश्य पढ़ें । 

आज योग का बड़ा नाम है । उसमें अष्टांग योग का भी । उसके दूसरे अंग नियम -  में पञ्च बातें कही गई हैं  - शौच, संतोष , तप , स्वाध्याय, और इश्वर प्रणिधान । 

तप को उसी महाभारत (गीता ) में तीन प्रकार से बताया गया है - शरीर तप, मन और वाणी का तप । 

श्रीमाद्भाग्वद गीता में तेरहवें अध्याय में सातवें से ग्यारहवें श्लोक तक जो ज्ञान के बीस साधनों का वर्णन आया है, उनमें भी शारीरिक तप के तीन लक्षण- शौच, आर्जव और अहिंसा तथा मानसिक तपके दो लक्षण- मौन और आत्मविनिग्रह आये हैं।

 ऐसे ही सोलहवें अध्याय में पहले से तीसरे श्लोक तक जो दैवी सम्पत्ति के छब्बीस लक्षण बताये गये हैं, उनमें भी शारीरिक तप के तीन लक्षण -शौच, अहिंसा और आर्जव तथा वाचिक तप के दो लक्षण- सत्य और स्वाध्याय आये हैं। 

इन्ही सब को एक साथ  17/17-18-19 में   श्रद्धया परया तप्तम् - शरीर, वाणी और मन के  तप को इस प्रकार बताया गया है-

 देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌ ।ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥

 ईश्वर, ब्राह्मण, गुरु, माता, पिता के समान पूज्यनीय व्यक्तियों का पूजन करना, आचरण की शुद्धता, मन की शुद्धता, इन्द्रियों के विषयों के प्रति अनासक्ति और मन, वाणी और शरीर से किसी को भी कष्ट न पहुँचाना, शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है। 

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌ । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्‍मयं तप उच्यते ॥-किसी को भी कष्ट न पहुँचाने वाले शब्द बोलना, सत्य वोलना, प्रिय लगने वाले हितकारी शब्द वोलना और वेद-शास्त्रों का उच्चारण द्वारा अध्यन करना, वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है। 

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ 

   तुलसी बाबा ने तो तप को सृष्टि का आधार ही बताया है तो हम अपने ऋषियों , मुनियों और महापुरुषों के जीवन के निमित्त को बिना समझे कैसे कह सकते हैं की तप निजी स्वार्थ के लिए किया जाता है ?

 यदि हम माधवी के साथ जितने भी पात्र जुड़े हैं उनके जीवन को देखें तो क्या किसी का जीवन व्यक्तिगत हित के लिए है ?

 अन्यथा यदि लोक हित न होता तो क्या ययाति जैसा पिता अपनी पुत्री को ऐसे ही गालव को समर्पित कर देता ?

 क्या कभी हमें ८०० धोड़ो के निमित्त को समझाने का प्रयास किया ? 

दूसरा सतयुग में ही नहीं हर युग में तप को उत्कृष्ट कहा गया है चाहे द्वापर हो या क्रित्युग या कलयुग ।

दुर्वाषा की तपस्या क्या क्रोध के कारण निर्मूल हो जाएगी ? परशुराम की तपस्या को फिर क्या मानेगें ? तात्पर्य यह की तप को सीमित अर्थ में देखना उचित नहीं है   

    जहाँ तक तपस्वियों के पेट भरने का प्रश्न है उसके पीछे का कारण शिष्य को समाज से जोड़ने , उसके सुख दुःख को समझने का एक मार्ग था। वह  प्रशिक्षण का एक अंग था , अन्यथा चक्रवर्ती राजा के पुत्र राम को गुरु की सेवा नहीं करनी पड़ती । 

यदि भिक्षा वृति नहीं होती तो शंकराचार्य जैसा आचार्य आप के पास नहीं होता।

 जहाँ तक तपस्या और काम का सम्बन्ध है उसे ठीक से समझाने की आवश्यकता है । काम और काम वासना में अंतर है । दूसरा निमित्त से संतानोपत्ति वासना का अंग नहीं हो सकती । 

अन्यथा जिस महाभारत की कथा को लेकर आप उपन्यास लिख रही है वह महाभारत ही नहीं होता। पंडू और कौरब ही नहीं होते, व्यास ही नहीं होते ।

 इसलिए भारतीय पौराणिक आख्यानों पर कलम चलाने के पहले अपने को तमाम वसनाओं, कुंठाओं से अपने को ऊपर रखना होगा ।

तपस्या करके ही तपस्या , आत्मसमर्पण, बलिदान की सार्थकता को समझा जा सकता है और उसके प्रश्नों के उत्तर को पाया जा सकता है ।


 हमें बुलाने और सुनने के लिए धन्यवाद।

 

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