Saturday, 8 June 2024

कौन हैं राम

 

कौन हैं राम

मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधे: पूर्णेन्दुमानन्ददं

वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।

मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्व:सम्भवं शङ्करं

वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनं श्रीरामभूपप्रियम्।। १।।

सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं

पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्।

राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं

सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे।। २।।

              श्री रामचरित मानस के तृतीय सोपान, जिसे अरण्यकाण्ड कहते हैं में पहले तुलसीदास जी शंकर जी की वन्दना करते हुये कहते हैं कि वे धर्मरूपी वृक्ष के मूल हैं, विवेकरूपी समुद्र को आनन्द देने वाले पूर्ण चन्द्रमा के समान है, वैराग्यरूपी कमल के विकास के लिये जो सूर्य के समान है, पापरूपी घोर अंधकार को मिटाने वाले तथा तीनों तापों- दैहिक, दैविक भौतिक को हरने वाले मोह रूपी बादलों को हरने के लिये जो आकाश में उत्पन्न पवन के समान है, साथ ही जो ब्रह्मा जी के आत्मज हैं, कलंक नाशक और श्रीरामचन्द्र के प्रिय हैं, ऐसे शिव की मैं वन्दना करता हूँ।

              तुलसीदास जी जब इस बात को लिख रहे हैं तो स्पष्ट होता है कि शंकर धर्म के मूल हैं तो विवेक प्रदाता और वैराग्यदाता भी। वे पाप, ताप और आसक्ति को हरने वाले और संसार के रचयिता ब्रह्मा के आत्मज और राम को प्रिय हैं। परन्तु तुलसी को यह बात ध्यान में है कि यदि शंकर को राम प्रिय हैं तो राम को भी शंकर उतने ही प्रिय हैं। इसलिये वे दूसरे छन्द में राम की स्तुति करते हुये राम को जलयुक्त मेघ के समान सुन्दर, श्याम और आनन्द घन कहते हैं। तुलसी के राम पीत वस्त्रधारी हैं, हाथ में धनुष बाण हैं तो कमर में तरकश सुशोभित है। कमल के समान सुन्दर विशाल नेत्र, जिनके मस्तक पर जटाजूट है, ऐसे अत्यंत सुन्दर सीता और लक्ष्मण सहित मार्ग में जाते हुये राम की मैं वन्दना करता हूँ।

              तुलसीदास राम की वन्दना करते हुये उस पृष्ठभूमि को भी स्थापित करते हैं जहाँ से राम अयोध्या और मिथिलावासियों को विदा करते हुये राज्य संचालन के लिये भरत को अधिकार प्रदत्त कर अपनी पादुका देकर आगे की यात्रा प्रारम्भ कराते देते हैं। पार्वती से शंकर जी कहते हैं, हे पार्वती राम के गुण गूढ़ हैं, पण्डित और मुनि जैसे-जैसे उनको समझते हैं वैसे-वैसे वो वैराग्य को प्राप्त होते जाते हैं। शंकर के माध्यम से तुलसी यह भी बताने का प्रयत्न करते हैं कि भगवान से विमुख और धर्म से हीन व्यक्ति महामूढ़ होता है और सदा मोह ग्रस्त रहता है।

              यहाँ से राम की कथा आगे बढ़ती है। आज राम अयोध्या के संकट से मुक्त हैं । वे संभवत: अन्दर से प्रसन्न भी हैं क्योंकि उन्होंने गुरु और ससुर जनक तथा माताओं की उपस्थिति में भरत को वह भार सौंप दिया, जिसकी पीड़ा को लेकर वे बिलखते पिता को छोडक़र वन के प्रस्थान किये थे। इसीलिये तो राम आज अपने हाथों से विभिन्न प्रकार के सुन्दर फूलों को चुनकर सीता के लिये आभूषण बनाते हैं। वे स्वच्छ शिला पर बैठी सीता को बड़े ही आदर और स्नेह से हाथ से बनाये हुये फूलों के गहनों को उनको पहनाते हैं। यह वन में राम का सीता के लिये सम्बल है।

               ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ लक्ष्मण अनुपस्थित हैं, संभवत: वे कहीं आसपास पहरा दे रहे होंगे। तभी एक घटना घटती है- इन्द्र का पुत्र जयंत कौवे का रूप धारण करके प्रसन्नवदना सीता के चरण (पैर) में चोंच मारकर घायल कर देता है। तुलसी कहते हैं यह उसी तरह की घटना है जैसे मंदबुद्धि चींटी समुद्र की थाह लेना चाह रही हो। यहाँ पर मूढ़ जयंत भी राम के बल की परीक्षा लेना चाहता है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि राम सीता को लेकर के भविष्य की घटनाओं का संकेत हैं । राम का सरकण्डे के सींक से जयंत को लक्ष्य करके बाण का संधान करना उस भेद का प्रकृतिकरण भी है कि राम के द्रोही को संसार में कोई सुरक्षा नहीं दे सकता ।  इसलिये तुलसी आगे बताते हैं कि जयंत अपने पिता के पास जाता है उसको वहाँ शरण नहीं मिलती। वह ब्रह्मलोक, शिवलोक होता हुआ अंत में निराश होकर नारद के पास जाता है । नारद उसे पुन: राम की शरण में जाने का मंत्र बताते हैं।

              दो बातें बड़ी स्पष्ट हैं राम का द्रोही कोई नहीं बनना चाहता और राम इतने उदार हैं कि उनकी प्रियतमा सीता के पैर को घायल करने वाला इन्द्र का पुत्र भी राम की शरण में दंड के रूप में एक आँख को गँवाकर अभय प्राप्त करता है। देश काल के हिसाब से यदि विचार किया जाए तो जयंत इन्द्र का पुत्र अर्थात् राजा का बिगड़ैल बेटा है और वह परम शक्ति सम्पन्न राम को वनवासी समझकर उद्दण्डता कर बैठता है। अर्थात् राजा का पुत्र सदा ही निरंकुश और सामान्य जीवन बिताने वाले वनवासियों के साथ किसी भी प्रकार की उद्दण्डता करने का साहस कर सकता है। संभवत: जहाँ राम की करुणा को उजागर करना चाहते हैं और यह भी बताना चाहते हैं कि वन में रहने वाले राम उन हजारों-हजारों वनवासियों के प्रतिनिधि हैं जो अपनी अस्मिता को किसी सामर्थ्यवान राजपुत्र के हाथों खेलने नहीं देते। इतना ही नहीं उसकी सहायता के लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिव जैसे छत्रप भी अनैतिकता का संरक्षण नहीं करते। मैं इसको इसलिये भी कहता हूँ कि तुलसी स्वयं इस बात को आगे लिखते हैं-

रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किये श्रुति सुधा समाना।।

              इस घटना के कारण सम्भवत: राम के वहाँ निवास की सूचना जयंत की इस घटना के कारण से सर्वत्र फैल जाती है और राम को यह लगता है कि अब यहाँ पर लोग आकर के उनसे मिलना-जुलना प्रारंभ करेंगे। तभी राम के मन की बात तुलसी लिखते हैं- बहुरि राम अस मन अनुमाना। होईंहि भीर सबहिं मोहि जाना।।इसलिये राम तत्काल वहाँ से मुनियों से विदा लेकर आगे बढ़ जाते हैं। यहाँ और एक नया प्रसंग खुलता है । राम अत्रि के आश्रम पहुँचते हैं। तुलसी लिखते हैं-

पुलकित गात अत्रि उठि धाये। 

देखि राम आतुर चलि आये।।

करत दण्डवत मुनि उर लाये। 

पेम वारि दौ जन अन्हवाये।।

              अद्भुत दृश्य है ।  ये मुनि राम को देखकर दौड़ रहे हैं और राम दौड़ कर आ रहे मुनि को देखकर दौड़ पड़ते हैं। दोनों भाइयों को लपेटकर प्रेमाश्रु से मुनि को नहला देते हैं। तुलसी इस अवसर का लाभ उठाकर राम की शोभा का वर्णन अत्रि मुनि के मुख से कुछ इस प्रकार करते हैं-

नमामि भक्त वत्सलं ।कृपालु शील कोमलं ॥

भजामि ते पदांबुजं ।अकामिनां स्वधामदं ॥

निकाम श्याम सुंदरं ।भवाम्बुनाथ मंदरं ॥

प्रफुल्ल कंज लोचनं ।मदादि दोष मोचनं ॥

प्रलंब बाहु विक्रमं ।प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥

निषंग चाप सायकं ।धरं त्रिलोक नायकं ॥

दिनेश वंश मंडनं ।महेश चाप खंडनं ॥

मुनींद्र संत रंजनं ।सुरारि वृन्द भंजनं ॥

मनोज वैरि वंदितं ।अजादि देव सेवितं ॥

विशुद्ध बोध विग्रहं ।समस्त दूषणापहं ॥

नमामि इंदिरा पतिं ।सुखाकरं सतां गतिं ॥

भजे सशक्ति सानुजं ।शची पति प्रियानुजं ॥

त्वदंघ्रि मूल ये नराः ।भजंति हीन मत्सराः ॥

पतंति नो भवार्णवे ।वितर्क वीचि संकुले ॥

विविक्त वासिनः सदा ।भजंति मुक्तये मुदा ॥

निरस्य इंद्रियादिकं ।प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥

तमेकमद्भुतं प्रभुं ।निरीहमीश्वरं विभुं ॥

जगद्गुरुं च शाश्वतं ।तुरीयमेव केवलं ॥

भजामि भाव वल्लभं ।कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥

स्वभक्त कल्प पादपं ।समं सुसेव्यमन्वहं ॥

अनूप रूप भूपतिं ।नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥

     प्रसीद मे नमामि ते ।पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥

              हे राम ! चरण कमलों में भक्ति दें । दुनिया तुम्हारे स्वागत को आतुर है ।

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