तुम कहती हो चुप रहता हूँ
सब सुनता हूँ सब सहता हूँ
कलियों सा कोमल लगता हूँ
चन्दन सा शीतल रहता हूँ
पर सोचो चाहे कुछ भी तुम
अंत:सलिला सा सब में बहता हूँ
कुछ हँस लेता हूँ कुछ गा लेता हूँ
इससे सब का मन बहला देता हूँ
किंचित-सा रस उन सबसे लेता हूँ
अपना सरबस उन सब को देता हूँ
पर सोचो चाहे कुछ भी तुम
विषपान करूँ पर अमृत ही देता हूँ
पहले भी कुछ बोला करता था
अब भी कुछ बोला करता हूँ
तब शब्दसहित बोला करता था
अब शब्दरहित बोला करता हूँ
पर सोचो चाहे कुछ भी तुम
अन्त्यज की पीड़ा ही बोला करता हूँ
शब्दों का मौन कहाँ जाता
हंशी सितारों की वह लता
चन्द्र रश्मि बन झर जाता
घिरी घटाओं में बिजली बन
वर्षा संग धारा में बह जाता
पर सोचो चाहे कुछ भी तुम
पनिहारिन गागर डोला करता हूँ
“तूफान नहीं मलयज बन बिखरो
दावानल आगोश भरो पल ठहरो
सिसकी शिशु-वन की सुन लो
सबल कलम से कंटक चुन लो”
पर सोचो चाहे कुछ भी तुम
तुम्हारे इन संकल्पों को ही पूरा करता हूँ
१२/५/१८
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