Friday, 30 October 2020

बिन

भारत का केन्द्रीय भाव धर्म की स्थापना है। धर्म को व्यवहार में पंथ और मत उतारते हैं। मत और पंथ प्रत्येक देश के अलग होते हैं। इससे यह तो साफ है कि इस युग का  आंठवा न तो मार्क्स था न सामी पंथों के प्रर्वतक।   

आंठवा स्वत्व और मूल्य की बात करता है तो सर्वजन हिताय की भी। साधुता की रक्षा भी तो दुष्टवृत्तियों का विनाश भी। किन्तु साथ में वह परोपकार को पुण्य और पाप को ही पीड़ा कहता है। हां शर्त अद्भुत है ’धर्मसंस्थापनार्थाय’ सब कुछ जायज है। 

लेकिन यह उस काल की बात है जब सामी पंथ तो थे किन्तु आज के सामी पंथों से भिन्न। त्रेता पुरुष के जाने के बाद जैन की अंहिसा और बुद्ध की करुणा इनको आप्लावित नहीं कर सकी। शंकर का ’ब्रह्म सत्यम् जग्न्मिथ्या जीवे ब्रहमेति नापर।’ भी पयाप्त नहीं हो सका।

 तो क्या धर्म की स्थापना के मापदण्ड बदलने पड़ेंगे ? क्या सभी धर्मों को छोड़कर मेरे शरण में आ की परिभाषा को बदलना पड़ेगा? 

क्या सत्ता नहीं लोक के गौरव की बात को फिर सामने लानी पडे़गी। मानवता में जाति, वर्ण, पूजा-पंथ, लोक हितैषी मान्यताओं को छति पहुंचाए बिना मानवता की सेवा को उद्यत होना पडे़गा।

 भारत-संघ यह कार्य अपनी पूरी क्षमता और दूरदृष्टि के साथ कर भी रहा है। बस परिवर्तन को सकारात्मक भाव से तथा नायक के विश्वास के साथ देखना होगा। जन मन को बदलना होगा। सहिष्णुता कायरता न बन जाये,सजग और चौकन्ना रहना होगा।

आने वाला 2025 बहुत महत्वपूर्ण है। उसमें हमें परिवर्तन की आभा उसी तरह स्पष्ट दिख रही है जैसे भगवान भास्कर के आने के पूर्व भगवामय आकाश। 

आज उसी भगवा को फिर से लहरा कर 
त्रेता के धनुष और द्वापर के चक्र को आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश के माध्यम से
लोकव्यापी बनाना है। तभी भविष्य की भूमिका साकार होगी।

 बिना भगवा बोध के शिशिर का मार्तण्ड भी ऊष्मा नहीं दे पायेगा। आइये आज भगवामय होंने का पूरा प्रयत्न करें। 
 



 
 

Monday, 19 October 2020

वर्णमाला

 आज के छात्रों को भी नहीं पता होगा कि भारतीय भाषाओं की वर्णमाला विज्ञान से भरी है। वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर तार्किक है और सटीक गणना के साथ क्रमिक रूप से रखा गया है। इस तरह का वैज्ञानिक दृष्टिकोण अन्य विदेशी भाषाओं की वर्णमाला में शामिल नहीं है। जैसे देखे*


*क ख ग घ ड़* - पांच के इस समूह को "कण्ठव्य" *कंठवय* कहा जाता है क्योंकि इस का उच्चारण करते समय कंठ से ध्वनि निकलती है। उच्चारण का प्रयास करें।

*च छ ज झ ञ* - इन पाँचों को "तालव्य" *तालु* कहा जाता है क्योंकि इसका उच्चारण करते समय जीभ तालू महसूस करेगी। उच्चारण का प्रयास करें।

*ट ठ ड ढ ण*  - इन पांचों को "मूर्धन्य" *मुर्धन्य* कहा जाता है क्योंकि इसका उच्चारण करते समय जीभ मुर्धन्य (ऊपर उठी हुई) महसूस करेगी। उच्चारण का प्रयास करें।

*त थ द ध न* - पांच के इस समूह को *दन्तवय* कहा जाता है क्योंकि यह उच्चारण करते समय जीभ दांतों को छूती है। उच्चारण का प्रयास करें।

*प फ ब भ म* - पांच के इस समूह को कहा जाता है *ओष्ठव्य* क्योंकि दोनों होठ इस उच्चारण के लिए मिलते हैं। उच्चारण का प्रयास करें।

दुनिया की किसी भी अन्य भाषा में ऐसा वैज्ञानिक दृष्टिकोण है? हमें अपनी भारतीय भाषा के लिए गर्व की आवश्यकता है, लेकिन साथ ही हमें यह भी बताना चाहिए कि दुनिया को क्यों और कैसे बताएं।

Tuesday, 13 October 2020

म.प्र. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की साहित्य साधना में प्रकृति

           सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की साहित्य साधना में प्रकृति

  स्वतंत्रोत्तर भारत में राजनीतिक चेतना कई स्तरों पर हमारे सामने उभर कर आई। आर्थिक विषमता, धार्मिक पाखंडवाद, झूठा सेक्युलिरिज्म साथ ही सामाजिक और वैयक्तिक चेतना की छटपटाहट एवं उससे संघर्ष करने की प्रवृति हिन्दी काव्य में देखी जा सकती है। स्पष्टत: समसामयिक परिस्थितियों में व्यक्ति और सत्ता राजनीति का एक-दूसरे से गहरा सम्बन्ध हो गया है। समाज के नैतिक पतन से समस्त व्यवस्था और  राजनीति अछूती नहीं रही। लिहाजा, राजनीतिक अवमूल्यन, सत्ता-संघर्ष, स्वार्थ और पद-लिप्सा जैसे कुत्सित मनोवृत्तियों ंका तेजी से विकास हुआ है। आज का आम आदमी इस भ्रष्ट सत्ता एवं व्यवस्था की जकड़ से मुक्त होने की कोशिश कर रहा है पर उसकी स्थिति त्रिशंकु जैसी हो गयी है। ऐसे में सहज ही प्रश्न उठता है कि इस परिस्थिति में रचनाकार का दायित्व क्या है? उनकी रचनाएं स्वान्त:सुखाय थी या सर्वजन सुखाय। 

तुलसीदास जैसा साहित्यकार, भक्त, कवि जब रामचरित मानस को स्वान्त:सुखाय कहता है तो उसका अर्थ क्या है?  गोस्वामी तुलसीदास जब स्वान्त:सुखाय की बात करते हैं तो उनके काव्य में लोकमंगल है। अत: स्वान्त:सुखाय आत्मकेन्द्रित होने के लिये नहीं। जब सब 'सिया राम मय सब जग जानी' को अर्थात राष्ट्र रूपी देवता को समर्पित होता है तो वहीं स्वान्त:सुखाय सर्वजनसुखाय बन जाता है। तुलसी कहते हैं- 'क्या वरनौ छवि आपकी भले बने हो नाथ। तुलसी मस्तक तब नवै धनुष वाण लै हाथ।।' यह स्वान्त:सुखाय तब सर्वजनहिताय में बदल जाता है जब वे कहते हैं- 'सियाराम मय सब जग जानी। करऊं प्रणाम जोर जुग पानी।' इसका दूसरा कारण तुलसी का कवि के साथ भक्त होना अर्थात आध्यात्मिक जीवन होना भी है।

    सर्वेश्वर दयाल जी ने कहानी, कविता और नाटक तीनों  प्रकार की रचनाएं की। यहां हम उनकी काव्यगत यात्रा पर विचार करेंगे और यहीं पर देखेंगे कि उनकी रचना स्वान्त:सुखाय है या सर्वजनहिताय। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना व्यक्तिगत संवेदना को लोक संवेदना बनाते हैं। उनकी व्यक्तिगत चाह देखें- 'मैं नहीं चाहता' शीर्षक में वे कहते  हैं- 'सड़े हुए फलों की पेटियों की तरह/बाजार में एक भीड़ के बीच मरने की अपेक्षा/एकान्त में किसी सूने वृक्ष के नीचे/गिर कर सूख जाना बेहतर है।' 

    सर्वेश्वरदयाल जी के ऊपर विचार करते समय कुछ रचनाओं को छोडक़र उनकी जिन रचनाओं को आधार बनाया गया है उसमें 'प्रतिनिधि कविताएं-राजकमल प्रकाशन से है। और उसका कारण पुस्तक के सम्पादक: प्रयाग शुक्ल का यह लेख है- 'सुधी पाठकों को एक बात और बताना चाहूंगा। इस संकलन की कविताएं सर्वेश्वर जी की पहली किताब 'काठ की घंटियां' से लेकर उनके अन्तिम कविता संग्रह 'खूटियों पर टंगे लोग'  तक से ली गयी है। इस तरह यह उनकी कविताओं का केवल प्रतिनिधि संग्रह ही नहीं है, ऐसा संग्रह भी है जो उनकी काव्ययात्रा के लगभग हर चरण से हमें परिचित करायेगा।

बात को स्पष्टता से समझने के लिए 'प्रतिनिधि कविताएं- राजकमल प्रकाशन के पीछे सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के ऊपर दी टिप्पणी को यहां उद्धृत करना उचित होगा- "समकालीन हिन्दी कविता की व्यापक जनवादी चेतना और प्रगतिशील जीवन-मूल्यों के सन्दर्भ में सर्वेश्वर एक ऐसे कवि के रूप में सुपरिचित हैं जिनकी रचनाएं पाठकों से बराबर धडक़ता हुआ रिश्ता बनाए हुए हैं। उनकी कविताएं नयी कविता की उहा और आत्मग्रस्तता से बड़ी हद तक मुक्त रही हैं। इस संग्रह में उनके समूचे काव्य-कृतित्व से महत्वपूर्ण कविताएं संकलित की गयी हैं। जिन्दगी के बड़े सरोकारों से जुड़ी उनकी कविताएं उन शक्तियों की खिलाफत करती हैं जो उसे किसी भी स्तर पर कुरूप करने के लिए जिम्मेदार हैं। वे घेरों से बाहर के कवि हैं। उनकी कविताओं में हिन्दी कविता का लोकोन्मुख जातीय संस्कार घनीभूत रूप में मौजूद है और उन्हें न तो राजनीतिक-सामाजिक परिस्थियों से काटकर देखा जा सकता है और न कवि के अपने आत्मसंघर्ष को नकारकर। वस्तुत: दु:ख और गहन मानवीय करुणा से प्रेरित संघर्षशीलता, उदात्त सौन्दर्यबोध, मधुर भावनाओं के संधि संस्पर्श की छन्दाछन्द विभिन्न मुद्राएं इन कविताओं को व्यापक अर्थ में मूल्यवान बनाती हैं। 

रचनाकार की पृष्ठिभूमि: रचनाकार की कृति पर उसके पारिवारिक वातावरण, समसामयिक परिवेश और युगीन स्थिति का प्रभाव दिखाई देता है। अत: आवश्यक है कि थोड़ा सा इस पृष्ठभूमि को भी देख लिया जाय। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जीवन भी हर सामान्य व्यक्ति की तरह संघर्षशील रहा। उन्होंने भी अपने जीवन में अनेक उतार-चढ़ावों को देखा और अनुभव किया। आजीवन उन्होंने भागदौड़, स्थानान्तरण, पद-त्याग, पारिवारिक जिम्मेदारी और साहित्यिक रुचि का जो अनुभव प्राप्त किया, कमोवेश उसे ही अपनी रचनाओं द्वारा सम्प्रेषित किया। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना मूलत: कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार और पत्रकार रहे। उनका जन्म 15 सितम्बर, 1927 में बस्ती -उत्तरप्रदेश के पिकोरा गांव में हुआ। माता श्रीमती सौभाग्यवती सक्सेना शासकीय हाई स्कूल में शिक्षक तथा पिता व्यवसायी थे। प्रारम्भिक शिक्षा गांव में तथा बाद में 1942 में एंग्लों संस्कृत हाई स्कूल, बस्ती; तथा 1944 क्वीन्स कालेज, वाराणसी से इंटरमीडियेट तथा प्रयाग विश्वविद्यालय से एम. ए. हिन्दी में पास की। आजीविका के लिए आध्यापक, क्लर्क, आकाशवाणी में सहायक प्रोडूसर, 'दिनमान' के उप-सम्पादक और 'पराग' के सम्पादक रहे।

  साहित्यिक जीवन का आरम्भ कविता से हुआ। 'तीसरा सप्तक में कविताएं संकलित हुईं। 'प्रतीक और अन्य पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे, 'दिनमान के चरचे और चरखे स्तम्भ में वर्षों मर्मभेदी लेखन-कार्य। कला, साहित्य, संस्कृति और राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हिस्सेदारी। कविता के अतिरिक्त बालोपयोगी साहित्य में महत्वपूर्ण लेखन किया साथ ही अनेक भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद। 1965 में भारतीय सांस्कृतिक मण्डल के प्रतिनिधि के रूप में नेपाल तथा 1972 में सोवियत लेखक संघ के निमन्त्रण पर पुश्किन काव्य समारोह में सम्मिलित हुए। 24 सितम्बर,1983 को आकस्मिक निधन।

बचपन से ही साहित्यिक, सांस्कृतिक वातावरण प्राप्त होने से साहित्य सृजन की अभिरुचि पैदा हुई। परिवार आर्यसमाजी था सामान्य पूजापाठ में अभिरुचि भले ही न रही हो पर राष्ट्रप्रेम के गीत गाना, सुनना उनके लिए आकर्षण का विषय था। उनकी प्रमुख रचनाएं- 'काठ की घंण्टिया','बांस का पुल,'एक सूनी नाव','गर्म हवाएं.

 कविता संग्रह- ,उड़े हुए रंग. उपन्यास -सोया हुआ जल,'पागल कुत्तों का मसीहा ;लघु उपन्यास; 'अंधेरे-पर-अंधेरा ;कहानी संग्रह; 'बकरी ;नाटक;'भों-भों: खों-खों, 'लाख की नाक ;बालोपयोगी नाटक- 'बतूता का जूता, 'महंगू की टाई ;बालोपयोगी कविताएं; 'कुछ रंग कुछ गंन्ध ;यात्रा-वृतान्त तथा 'शमशेर, नेपाली कविताएं सम्पादित।

अपने व्यक्तित्व की खोज में प्रयोगशील कवि आत्मान्वेषण और आतमोंपलब्धि की दिशा में उन्मुख हुआ था। परम्परा से इन तत्वों को आत्मसात करती हुई नयी कविता यथार्थ के प्रति नयी दृष्टि और नये मूल्यों के अन्वेषण की ललक लेकर आगे बढ़ी। यथार्थ के प्रति बदलती दृष्टि से प्रयोगशील कविता अपने पूर्ववर्ती काव्य से अलग पहचान बनाती हुई भी चली थी। यथार्थ के उद्देेश्यगत रूप, यथार्थोन्मुखी आदर्श और भावावेश से काव्य को उबारकर उसने व्यक्ति और युगजीवन के प्रति लगाव तथा संदर्भ का परचिय दिया था। बदलते हुए भाव-बोध के अनुरूप उसने शिल्प का संधान किया। नयी कविता के ये लक्षण सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के काव्य से भली भांति पहचाने जा सकते हैं। उनकी कविताओं में तत्कालीन परिस्थितियों की झलक मिलती है जिनमें यथार्थ ही यथार्थ है।

  सर्वेश्वर के काव्य का प्रारंभ 'काठ की घंटिया' 1949 से 1957 स्वच्छंद मनोभाव के छूटने से होता है। कवि की यह स्वच्छंद भावना युग-यथार्थ से टकराकर अवसाद, वीरान जंगल, जवानी के चिटकते छिलके और दर्द का महासागर है। 'अक्सर एक व्यथा में' दर्द, अवसाद और निराशा का भाव व्यंजित हुआ है- 'अक्सर एक हंसी/ठंडी हवा-सी चलती है,/अक्सर एक दृष्टि/कनटोप-सा लगती है, /अक्सर एक बात/पर्वत-सी खड़ी होती है,/अक्सर एक खामोशी/मुझे कपड़े पहनाती है।/मैं जहां होता हूं/वहां से चल पड़ता हूं,/अक्सर एक व्यथा/या़त्रा बन जाती है।

युग जीवन के संदर्भ में सर्वेश्वर ने अपने युग के विघटन, दर्द, पीड़ा, अनास्था, विवशता, विजडि़त स्थितियों और अकेलेपन का गहरा तथा तीखा अनुभव किया है। 'शांतिमयी तुम हो' में कवि कहता है: -'दर्द के महासागर से कहो,/सामने मेरे न नाचो, /मैं अकेला हूं।

'बांस के पुल' में यह स्वर और भी सघन बनकर आया है। इसमें कवि का स्वच्छंद मनोभाव युग यथार्थ से सम्पृक्त होकर आत्मनिर्वासन, परायेपन के अहसास और मूल्यबोध के रूप में व्यक्त हुआ है। 'सांझ होते ही, 'दर्द किससे कहूं', 'बीत गया यूं दिन बसंत का, 'सर्पमुख के सम्मुख तथा 'अंत में, ये भावनायें फिर से व्यक्त हुई हैं:-'अब मैं कुछ नहीं चाहता/ सुनना चाहता हूं/ एक समर्थ सच्ची आवाज/ यदि काहीं हो।/अन्यथा/ इसके पूर्व कि/ मेरा हर कथन/ हर मंथन/ हर अभिव्यक्ति/ शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए,/उस अनन्त मौन में समा जाना चाहता हूं/ जो मृत्यु है।'

ये भाव स्वच्छंद कल्पनाओं और महत्वाकंक्षाओं के साथ युग यथार्थ के टकराने से जन्में हैं। 'एक सूनी नाव' में एक सूनी नाव की पहली कविता अक्सर एक व्यथ्या में सर्वेश्वर ने लिखा है- 'मैं जहां होता हूं,/वहां से चल पड़ती है,/अक्सर एक व्यथा,/यात्रा बन जाती है।'

सर्वेश्वर की काव्य यात्रा व्यथा के ताने बाने से अधिक बुनी है। 'एक सूनी नाव में कवि की स्वच्छन्द चेतना फिर से सिर उठाती है या अवसाद को ढोती हुई चलती है-'चांद आकाश में/ बड़े सुनहरे मकड़े की तरह/ धीरे-धीेरे गर्व से रेंगता आता है/ या नीला जांधियां पहने।7

'काठ की घंटियां', में यह स्वर धीमा या 'बांस के पुल' में तीव्र हो गया है। जीवन के यथार्थ की विषमता से जन्मा अवसाद अनुभव की तटस्थ व्यंजना के स्थान पर जब स्वच्छंद भाव में पुन: रूपांतरित हो जाता है, तब इसे कवि की प्रकृति  संबंधी कविताओं में देखा जा सकता है। जहां रोमांटिक मनोभाव और युग यथार्थ में यह टकराहट नहीं है, वहां स्वच्छंद मनोभाव कविता को केन्द्रीय स्वर बन गया है। 'सुबह का गीत्य, भयह भी क्या रात', 'तुम कहो्, 'चांद की नीं, और 'प्रेम नदी के तीर'  में यह स्वच्छंद मनोभाव पूरे उभार के साथ अभिव्यक्त हुआ है। 

व्यक्तित्व की खोज और उसको सार्थक बनाने की छटपटाहट सर्वेश्वर की प्रारंभिक कविता में प्रखर रूप में मिलती है, 'पंख दो' में कवि का कथन है:-'पंख दो, पंख दो, अरे मेरे पंख दो,/ और कब तक इस सुलगती डाल पर/ बैठा रहूं निरुपाय।'

सर्वेश्वर परिवेश के बहुआयामी यथार्थ के अनुभवों के माध्याम से व्यक्तित्व की सार्थकता खोजते हैं। व्यक्तित्व का यह अन्वेषण कवि को व्यष्टि से समष्टि तक ले जाता है, जहां उसका व्यक्तित्व अधिक उदार और व्यापक हो जाता है। जैसे 'आत्मसाक्षात्कार, 'नये वर्ष पर',, में यह व्यक्तित्व व्यापक और उदात्त भाव-भूमि से संयुक्त होकर सामाजिक चेतना से संवेदित हुआ है।

ग्राम्य प्रकृति के मोहक चित्र समसामयिकता का दायित्व और जन जीवन के गहरे लगाव को व्यक्त करने में सर्वेश्वर नई कवितावादियों में उल्लेखनीय हैं। 'सावन का गीत',, 'चरवाहों का युगल गान 'गांव की शाम और 'मेरे भीतर की कोयल', 'तुम्हारा मन का सफर' में लोक सम्पृक्ति और ग्राम्य प्रकृति के मोहक चित्र अंकित हुए हैं-'मेरे भीतर कहीं/एक कोयल पागल हो गयी है।.....कहां से लाऊं एक घनी फलों से लदी अमराई'..वह नहीं रहेगी।/ मेरे भीतर की यह पागल कोयल/तब मुझे पागल कर जायेगी।'

लोकगीतों के साथ लोक-भाषा के शब्द जैसे निवोली, भुइयां, ओठंगी, उतानी, करेजवा, कजरी, फुलगंदवा, बिछिया, भूमर, मुंदरी, तरकी, अजोरिया आदि का सुंदर एवं सार्थक प्रयोग किया हैं प्रकृति कें सुंदर ओर संश्लिष्ट बिम्बों, नये उपमानों एवं प्रतीकों से संगुम्फित सांगरूपकों के माध्यम से सर्वेश्वर अपने को, अपने अनुभवों और रचनात्मक कौशल को व्यक्त करते हैं। 'भोर, संध्या का भय, और 'कल राम में अभिव्यक्ति का यह सौंदर्य पूरी तरह उभरा है।

  सर्वेश्वर नये मूल्यों की खोज में आधुनिकता को साथ लेकर चले हैं। युग की समस्याओं के प्रति जागरुक रहकर वे समसामयिकता को व्यंजित करते हैं। विरोधाभासों, विसंगतियों और मूल्यों के विपयर्य पर वे साहस के साथ तीखें व्यंग्य करते हैं। युद्ध, शांति, स्वतंत्रता, प्रतिबद्धता, पूंजीवाद और साम्यवाद को उन्होंने युग-बोध के स्तर से उठाकर, नये प्रतीकों के माध्याम से रचनात्मक अनुभवों के रूप में व्यक्त किया है। पीस पैगोड़ा, कलाकार और सिपाही, बेबी का टैंक, आरे की चिडिय़ा, सिपाहियों का गीत, खाली जेबें, पागल कुत्ते, बासी कविताएं आदि में युद्ध, मतवाद और हिंसक प्रवृत्तियों के विरोधी स्वरों को नये प्रतीकों के माध्यम से संयोजित किया गया है। पीस पैगोड़ा में यह विरोध व्यंग्यपरक हो गया है- 'और इस बार यदि फिर, पीस पैगोड़ा बनाना पड़े/ तो बौद्ध भिक्षुओं के गैरिक वसनों को न भूलना/ क्योंकि उन ढीले चोगों के नीचे/बड़ी-बड़ी आटोमेटिक राइफलें तक/ आसानी से छिपायी जा सकती हैं।।'

  सर्वेश्वर ने भाव-बोध के अनुरूप भाषा का संधान किया है। प्रारंभ में छायावादी शब्दावली और उर्दू के शब्दों का प्रयोग मिलता है, किन्तु धीरे-धीरे उससे निजात पाकर काव्यानुभवों को व्यक्त करने में समर्थ भाषा अपनाने में सफल हुए हैं। नये प्रकृति, प्रतीकों और बिम्बों की ललक 'बांस का पुल' में पुन: उभरी है। 'अपनी बिटिया के लिये दो कविताएं' में प्रकृति का बाल उपकरणों के साथ सुंदर संयोजन हुआ है-भपेड़ों के झुन/बजने लगे;/लुढक़ती आ रही है/सूरज की लाल गेंद।/उठ मेरी बेटी, सुबह हो गयी।' 11 

सांझ एक चित्र, 'जाड़े की सुबह', 'एक प्रतीक्षा', 'जाड़े की धूप', 'आये महंत बसंत', मेें नये बिम्बों और प्रतीकों का सौंदर्य कवि की स्वच्छंदचेतना को सघनता से मूर्त करता है-'आये महंत बसंत।/ मखमल के झूल पड़े हाथी-सा टीला/ बैठे किंशुक छत्र लगा बांध पाग पीला,/ चंवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनन्त। आये महनत बसंत।

ग्राम्य-प्रकृति और लोक-जीवन से गहरा लगाव इन कविताओं में पहले की अपेक्षा अधिक दीप्त होकर आया है। दृश्य, स्पर्श और गंध के बिम्बों तथा रंग-बोध का अनूठा संसार खुलने लगता है। सर्वेश्वर ने मानवीय व्यापारों को प्रकृति के माध्याम से सुंदर ढंग से व्यक्त किया है:- 'अगहनी मुरैठा बांधे' विश्वेश्वर का चरवाहा,/ठाकुर छोर की कच्ची दीवार से/पीठ टिकाए बैठा/धूप सेंक रहा है/सुबह/दमकते सोने से रंग वाली/एक अल्हड़  किशोरी/तुल के रंग की साड़ी पहने/रंग-बिरंगी मूंज की डलिया बन रही है।

  नयी सभ्यता और बुद्धिजीवियों के बनावटीपन, दोगलेपन, धूर्तताओं पर कवि गहरी चोट करता हुआ चलता है। 'भेडिय़ा' की कविता में व्यंग्य देखें-'भेडिय़ा फिर आयेंगे।/ अचानक/तममें से ही कोई एक दिन/भेडिय़ा बन जायेग/उसका वंश बढऩे लगेगा।.... इतिहास के जंगल में/हर बार भेडिय़ा मांद से निकाला जायेगा।/ आमी साहस से, एक होकर/ मशाल लिये खड़ा होगा। इतिहा जिंदा रहेगा/ और तुम भी/ और भेडिय़ा भी।' 

सर्वेश्वर की सोच जब अनुभवों से संयुक्त होती है, तब उनका रचनात्मक अनुभव विशिष्टता के साथ व्यक्त होता है। लगता है अपनी काव्ययात्रा की एक सीमा के बाद सर्वेश्वर दुविधाग्रस्त हो जाते हैं। आत्मबोध और युग यथार्थ की टकराहट से बचने की कोई राह उन्हें दिखायी नहीं पड़ती। विसंगतियों को खोलते-छीलते अवश्य हैं पर उनके कोई विकल्प नहीं खोज पाते हैं। इस दुविधा में वे निजी ढंग के उपमानों और बिम्बों के माध्यम से अपने अनुभवों को बार-बार मांजते रहते हैं या प्रतीकों का सहारा लेकर युग की विसंगतियों पर चोट करके  संतुष्ट हो जाते हैं। गोबरैले कविता में देखें- भयह क्या हुआ/ देखते-देखते/ चारों तरफ गोबरैले छा गए।/ जितनी विष्ठा/उतनी निष्ठा। कितनी तेजी से/यहां हर कोई रच रहा है/ एक गोल मटोल संसार।.. पच्चीस वर्षों से लगातार/यही देखते-देखते/लगता है हम सब/ गोबरैलों में बदल गये हैं।' 

  सर्वेश्वर विसंगतियों की तह में जाकर उनके कारणों को खोजने का प्रयत्न नहीं करते। इसी कारण से वे अपनी समूची ग्राम्य संवेदना, जनजीवन से लगाव, मूल्यों की  खेाज, पहचान की छटपटाहट, अस्तित्व की सार्थकता और नये शिल्प के संधान के बावजूद आगे बढऩे का आभास नहीं दे पाते हैं। यही उनकी उपलब्धियां, उनकी सीमाएं बन जाती हैं।

सर्वेश्वर की काव्य-चेतना में आस्था और विश्वास के स्वर क्षीण और विरले हैं तथा व्यथा के स्वर सघन और स्फीत हैं। 'एक सूनी नाम कवि की्य निराशा के भाव- 'अब मैं कवि नहीं रहा,/एक काला झंडा हूं/ तिरपन करोड़ भौंहों के बीच।/मातम में/खड़ी है मेरी कविता।'

यह कविता कवि के बदलते मिजाज एवं लहजे का सूचक बन जाती है। सनझ् 60 के बाद हिन्दी कविता में युग यथार्थ और राजनीतिक विसंगतियों से सीधी टकराहट व्यक्त हो रही थी। उसे काव्यानुभव के स्तर पर युग कवियों ने ही नहीं, नयी कविता के जाने पहचाने कवियों ने भी व्यक्त किया था। इस समय की अव्यवस्था शासन की असफलता, लंबे-चौड़े नारों, योजनाओं और वक्तव्यों का खोखलापन जाहिर हो चुका था। सर्वेश्वर ने भी उसका अहसास किया था- भढोल की लय धीमी होती जा रही है/ धीरे-धीरे एक क्रांति यात्रा/शव-यात्रा में बदल रही है/सड़ांध फैल रही है/नक्शे पर देश के/ और आंखों मेंं प्यार के/ सीमांत धुंधले पड़ते  जा रहे हैं/और हम चूहों से देख रहे हैं।'

 'गरीबी हटाओं' कविता एक राजनैतिक सोच, सरकारी योजनाओं पर गहरा कटाक्ष है- गरीबी हटाबो सुनते ही/कब्रिस्तानेां की ओर लपके/और मुर्दों पर पड़ी वे चादरे उतारने लगे/जो गंदी और पुरानी थी/फिर वे नयी चादरें लेने चले गये/जब लौटकर आये/तो मुर्दों की जगह गिद्ध बैठे थे।'

  सर्वेश्वर को राजनीतिक विसंगतियों का तीखा अहसास था। 'कुआनो नदी्य की अधिकांश कविताओं में यह अहसास बार-बार उभरा है किन्तु जन-भावनाओं को उभारने के लिये सर्वेश्वर सक्रिय भागीदार नहीं बनते। जरा देर में खौलते और जरा देर में ठंडे पड़ते नजर आते हैं। राजनीतिक-विसंगतियों को उघारते और छीलते हुए भी सर्वेश्वर किसी विचारधारा से प्रतिबद्ध नहीं हैं। लोहिया के प्रति अपनी आस्था और विश्वास को उन्होंने कई कविताओं में अवश्य व्यक्त किया है, किन्तु उन्हें लोहियावादी नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार भखूंटियों पर टंगे लोग्य की कुछ कविताएं ऐसी हैं जिससे लोग उन्हें वामपंथी पक्षधरता का कवि मानते हैं   लेकिन इसी संग्रह में भमृत्यु-दंड्य और भपोस्टमार्टम्य की रिपोर्ट कविताओं में हिंसा और वामपंथी चेतना दोनों को नकरा है। 

  सर्वेश्वर की काव्य यात्रा में कुछ ऐसे बिन्दु हैं जो बार-बार कवि चेतना को उत्पेरित करते हैं। कवि का दर्द, अकेलापन, और निरर्थकता का अहसास जो प्रारंभिक कविताओं में व्यक्त हुआ था वह कवि चेतना को भखुंटियों पर टंगे लोग्य तक मथता रहा है। किन्तु बाद में इन बिन्दुओं से बंधा हुआ कवि छुटकारे का प्रयत्न करता है। सब कुछ कह लेने के बाद कविता में सक्सेना जी की व्यक्ति से समष्टि की यात्रा दिखाई देती है- 'वह मुझसे या मेरे युग से ऊपर है,/वह भावी मानव की थाती है, भू पर है,/बर्बरता में भी देवत्व की कड़ी है वह,/इसीलिए ध्वंस और नाश से बड़ी है वह,/अन्तराल है वह नया सूर्य उगा लेती है,/नये लोक, नयी सृष्टि, नये स्वप्न देती है,/वह मेरी कृति है/पर मैं उसकी अनुकृति 

हूं /तुम उसको मत वाणी देना।। '  

नयी कविता में कवि की अलग पहचान का बनना वस्तुत: उनकी छटपटाहट, और उसके अभिव्यक्ति के लिए नए रूपकों, बिम्बों का सहारा है। कवि अन्त में आस्थावादी और राष्ट्र की मूल चेतना की ओर ही बढ़ता दिखाई देता है। इसलिए कहा जा सकता है कि वस्तुत: सर्वेश्वरदयाल सक्सेना मूलत: प्रकृति, ग्राम्य-जीवन तथा सांस्कृतिक पृष्ठिभूमि में जुड़े रहकर अपनी सामाजिक, राजनैतिक कमजोरियों को संस्कृति और परंपरा के माध्यम दूर करने का प्रयत्न करते हैं।



कबीर की कविता का प्रदेय

  कबीर की कविता का प्रदेय

डॉ. उमेश कुमार सिंह


प्रत्येक राष्ट्र का अपना इतिहास होता है। इतिहास वर्तमान को प्रभावित करता है, कारण इतिहास पूरा का पूरा बीतता नहीं। उसकी सत्ता हमें प्रभावित करती है। इतिहास हमारा जीवन रस होता है साथ ही वर्तमान भी इतिहास को प्रभावित करता है। 

यह सत्य है कि रचनाकार एक निश्चित परिवेश में जीता है। उसके जीवन का निर्माण उसके राष्ट्र और उसकी संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज आदि पर निर्भर करती हैं किन्तु यह भी सत्य है कि कबीर जैसे रचनाकार का व्यक्तित्व उसे राष्ट्र और उसकी सीमाओं, काल और उसके युग से खींचकर जहां वैश्विक बनाती है, वही उसकी रचना कालजयी बनती है,जो मानवीय संवेदनाओं को निरन्तर काल के साथ परिष्कृत और संवर्धित करती चलती है। कबीर जैसे रचनाकार की यही सार्थकता है। अत: तथ्यों के आधार पर यह देखना आवश्यक है कि कबीर और उनके काव्य का प्रदेय क्या था और आज भी कितना समीचीन है। 

कबीर के समय भारतवर्ष पर इस्लामी देशों के अनेक आक्रमण हो चुके थे, और मुहम्मद गोरी के पश्चात हिन्दू राज-सत्ता छिन्न-भिन्न हो गई थी। हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के सामने युद्धरत खड़े रहते थे। डॉं. पीताम्बर दास बड़थ्वाल ने लिखा है-भभ15वीं शताब्दी में भारत में आध्यात्मिकता की धारा निगुर्ण सम्प्रदाय से होकर प्रवाहित हुईं आध्यात्म चिन्तन धारा को यह गहन एवं नवीन स्वरूप प्रदान करने के मूल में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा अन्य कारण थे। इस प्रकार कबीर, नानक, दादू, प्राणनाथ, मलूकदास, पलटू, साहिब आदि सन्तों द्वारा प्रवर्तित निर्गुण सम्प्रदाय द्वारा तत्कलीन युग की आवश्यकताओं की पूर्ति हुई।्य्य 1 कहा भी गया है कि -भभक्ती द्राविड़ उपजी लाए रामानन्द। परगट किया कबीर ने, सप्त दीप-नवखण्ड।्य2

  कबीर के साथ एक विसंगति बनाई गयी। कबीर ने कहा है- भझीनी-झीनी बीनी चदरिया।्य3 आप स्वीकर करेंगे कि यह बात कबीर ही कह सकते हैं। कारण स्पष्ट है रचनाकार जब अपने कर्म के साथ एकात्म होता है तब सृजन की प्रक्रिया दिखाई देती है। कबीर प्रत्येक लौकिक और अलौकिक वस्तु को जुलाहे के साथ देखते हैं; उनके लिए ईश्वर भी एक बुनकर है। उनके अनुभवों का ताना भक्ति का बाना बन कर सामने आता है। क्या इसी कारण कबीर को रहस्यवादी बना देना उचित हैघ् क्या कबीर सचमुच रहस्यवादी थेघ् आचार्य विष्णुकांत शास्त्री कहते हैं- भभकबीर के पूरे साहित्य में कही भी रहस्यवाद शब्द नहीं है। कबीर का रहस्यवाद पश्चिम की देन है। रवीन्द्रनाथ ने कबीर की तलाश की, रवीन्द्रनाथ को कबीर का परिचय क्षितिज मोहन सेन ने कराया। रवीन्द्रनाथ ब्रहझ्म समाज से प्रभावित थे। ब्रहझ्म समाज ईसाईयत से प्रभावित था। कबीर रवीन्द्र के कारण रहस्यवादी हो गए।.....बाद में रामकुमार वर्मा के कारण भावनात्मक रहस्यवाद और साधनात्मक रहस्यवाद आया।  भअव्यक्त्य की उपासना रहस्य कवि का जन्मदाता है। ्य्य 4

कबीरदास हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में हैं, वह तत्व की बात कहने वाले कवि माने जाते हैं। कबीर का काव्य हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है। कबीर कहते हैं- भतू बाम्हन मैं कासी का जुलाहा, बुझउ मोर गियाना।्य5 इसी तरह अन्य स्थान पर कहा- भकहत कबीर कर गह तोरी, सूतहि सूत मिलाए कोरी। अथवा जाति जुलाहा नाम कबीरा, बन बन फिरौं उदासी।।्य 6 कबीर ने छुआछूत, जाति-पांति आदि को कहा किंतु यह आज बहुत उछालकर कहा जा रहा है, यह स्वीकार योग्य है किन्तु यह कबीर का प्रदाय नहीं।

चरखा कबीर का जीवनयापन का साधन है और पूजा की वस्तु भी। उनकी दृष्टि में जीवन के कर्म से धर्म अलग नहीं है। उनके कवि-कर्म और जीवन-धर्म में अदझ्भुत साम्य है। कारीगर कबीर के जीवन की कला ही उनकी कविता बन गई। स्पष्ट है कि रचनाकार समाज में रहता हुआ युग की धारा को उसी तरह अनुभव करता है जिस तरह अन्य लोग। जितना बड़ा रचनाकार होगा उसका अपने रचना पर उतना ही प्रभाव और अधिकार दिखाई देता है। वह समाज का प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ समाज को दिशा-निर्देश करते हुए अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करता है। साहित्यकार की रचना में उसके समय की आत्मा बोलती है, उसकी आस्था व उसके विश्वास परिलक्षित होते हैं। और वह रचना उस काल का सच्चा दर्पण होती है और यही दर्पण आज का समय बन कर देखने वाले को अपना चेहरा दिखाता है। देखने वाला व्यक्ति हो, राष्ट्र हो या विश्व। कबीर के अनुसार समाज में व्यक्ति का स्वरूप वीभत्स हो गया था। घमण्ड, मिथ्याभिमान, दुराचार, पाखण्ड, पारस्परिक अविश्वास, विषय-वासना आदि के कारण सब दु:खी थे। निर्धन वर्ग सर्वथा उपेक्षित था- भनिर्धन आदर कोई न देई। लाख जतन करै ओहिचित न घरेई।। जो निरधन सरधन कै जाई।  आगे बैठा पीठ फिराई।।्य गरीबों का जीवन दूभर हो गया था- भनित उठि कोरि गागरिया लै लीपत जनम गयो।्य 7

डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है- भभसामन्ती व्यवस्था में धरती पर सामन्तों का अधिकार था तो धर्म पर उन्हीं के समर्थक पुरोहितों का। संतों ने धर्म पर से पुरोहितों का इजारा तोड़ा। खास तौर से जुलाहों, कारीगरों, गरीब किसानों और अछूतों को सांस लेने का मौका मिला, यह विश्वास मिला कि पुरोहितों और शास्त्रों के बिना भी उनका काम चल सकता है।्य्य 8

मनुष्य आज सब प्रकार के भौतिक सुख साधनों से सम्पन्न है, फिर भी वह दु:खी दिखता है, आखिर क्योंघ् पुरातन काल के मानवों की घटना पढऩे-सुनने पर लगता है कि वे जंगलों में रहकर कंदमूल खाकर जिन्दगी भर, अभावग्रस्तता की जिन्दगी बिताकर भी संतुष्ट और सुखी रहते थे। इस रहस्य को समझना हो तो उस तह तक जाना होगा जहां मनुष्य की विचार-शक्ति और उसके चिन्तन वैभव का वास होता है। हम जिस युग में जी रहे हैं वह वैज्ञानिक प्रगति के अंतिम सोपान का युग है। किंतु मनुष्य बावजूद इसके सब प्रकार से क्लांत, अशांति, दु:ख, उदिझ्ग्न्ता से भरा है। यह स्थिति कोई कबीर के जमाने तक अथवा भारत तक ही सीमित नहीं थी बल्कि यह स्थिति पश्चिम में भी थी तभी तो आज के मनुष्य की दशा का चित्रण इलियट के इस कथन से होता है। ऐसा माना जाता है कि अंग्रेजी कवि इलियट अपने प्रत्येक जन्म दिन पर काले व भददे कपड़े पहनकर शोक मनाया करते थे और कहते थे- भभअच्छा होता यह जीवन मुझे न मिलता, मैं दुनिया में न आता।्य्य9 किन्तु इसके विपरीत कबीर के समर्थक हैं, अन्धें कवि मिल्टन वे कहते है-भभभगवान का लाख-लाख शुक्र है कि उसने मुझे जीने का अमूल्य वरदान दिया।्य्य10 जीवन को समझना और उसे गौरव के साथ जीना, जन इस भाव और भाषा को समझे यही कबीर का प्रदेय है।


भक्ति काव्य हिन्दी भाषा के काव्यत्व का उत्कर्ष है। कुछ लोगों का मानना है कि आज कि समकालीन हिन्दी आलोचना ने कबीर को अध्यात्म प्रेमी विदेशियों तथा उनके देशी सहयोगियों को सौंप दिया है। किन्तु क्या यह सत्य हैघ् क्या भारतीय जीवन दर्शन को अध्यात्म से अलग कर देखा जा सकता है। जन कवि के अन्दर भी तो वही भारतीय आत्मा है जो अध्यात्म के बिना जिंदा नहीं रह सकती। वर्तमान में जब हम कबीर की उपादेयता पर विचार करते हैं तो हमारे सामने उनके काव्य की उत्कृष्ट उपादेयता अध्यात्म ही सामने आती है। वे बाहझ्याडम्बर के विरोधी थे न कि धर्म के। वस्तुत: नसमझी के कारण धर्म आज झगड़े का, हिंसा का कारण बन गया है। युग ने न तो कबीर की भाषा का, न धर्म का और न ही अध्यात्म का सही अर्थ समझा। परिणामत: हम आज कबीर को यह कह कर नकारने का प्रयत्न करते हैं कि कबीर अध्यात्म तक सीमित हैं। क्या बिना अध्यात्म के हम जीवन का विचार कर सकते हैंघ् ध्यान रहे यह बात उन पर लागू नहीं होती जो पूरी तरह भौतिकता से ग्रस्त हैं जिन्हें या तो लौकिकता या पारलौकिकता ;अभ्युदय और नि:श्रेयसद्ध का धर्म और अध्यात्म का या तो बोध ही नहीं है या तथाकथित सेक्युलर हैं। धर्म का अर्थ भौतिक कर्मकाण्ड नहीं। हम जिसे धर्म समझते हैं वास्तव में तो वह संप्रदाय की आचार-संहिता है। आचार-संहिता जब आचरण को प्रभावित करने लगे तो वह निरर्थक हो जाती है और क्लेष का कारण बनती है। धर्म ज्ञानेन्द्रियों का विषय नहीं चिति का विषय है। इसीलिए जब हम मनुष्यता की बात करते हैं तो वह धर्म की बात होती है। धर्म संस्कारों का नियामक होता है। जब हम विश्व के प्राणी मात्र की, चर-अचर के एकात्मकता की बात करते हैं तो वह अध्यात्म होता है। अध्यात्म आत्मा की खुराक है। योग का मार्ग है। सम्प्रदायों का अंतिम छोर यदि धर्म है तो धर्म का अंतिम छोर अध्यातम है। जहां से धर्म समाप्त होता है वहां से अध्यात्म प्रारंभ होता है। कबीर का बाहझ्याडम्बर का विरोध भी धर्म का विरोध नहीं संप्रदायिकता आधारित कर्मकाण्ड का विरोध है। इसीलिए सही मायने में जब कबीर को हम देखते हैं तो वह प्राणीमात्र की चिंता करने के कारण धर्माचरण की बात करते हैं और अध्यात्म में जीते हैं। धर्म मानव से मानव को नहीं बांटता बल्कि मानव को प्राणिमात्र से जोड़ता है अन्यथा वे हिन्दुओं और मुसलमानों के कर्मकाण्ड को क्यों नकारते। वस्तुत: कबीर लोक अर्थात जन के धर्म की चिन्ता करते हैं। सही मायने में लोकद्र्रष्टा बनकर। राम ही कबीर के अध्यात्म हैं। 

कबीर शास्त्रीय धर्म की बार-बार आलोचना करते हैं, वह चाहे वेद-पुराण के सहारे चलने वाला हो या कुरान के सहारे। किन्तु इसका अभिप्राय यह कतई नहीं कि कबीर वेद का खण्डन करते हैं। ध्यान रखना चाहिए वेद के चार भाग हैं- संहिता, आरण्यक, मीमांसा और उपनिषद। पहले तीन कर्मकाण्ड आधारित हैं जबकि चौथा कबीर का अभीष्ट है। कबीर लोक-वेद के साथ थे अर्थात वेद के तीन हिस्सों की परवाह कर रहे थे या यू भी कह सकते हैं कि तब तक प्रथम तीन के बाहझ्याडम्बर बन चुके विकृत कर्मकाण्ड को नकार नहीं रहे थे। लेकिन जब गुरु ने उन्हें अद्वैत का उपदेश दिया कबीर वेद के चौथे पायदान पर पहुंच जाते हैं। भ कबीर पीछे जाय था, लोक-वेद के साथ। आगे था गुरू मिला, दीपक दीया हाथ।्य 11 तभी तो कहा- भलोक जानि न भूलो भाई।्य 12 चाहे उस पर पंण्डितों-पुरोहितों का प्रभुत्व हो या मुल्लाओं का कब्जा। कबीर मन के निर्मलता की बात करते हैं- भमन ऐसा निर्मल भया, जैसे गंगा नीर। पीछे पीछे हरि हरि फिरे कहत कबीर कबीर।ं्य 13  कबीर के प्रदेय को समझने के लिए कबीर की शब्दावली को समझना ठीक होगा। हजारी प्रसाद द्विवेदी उन्हें जब वाणी का डिक्टेटर कहते हैं तो वैसे थोड़े ही कहते हैं। उसके पीछे कबीर के द्वारा प्रयुक्त शब्दों की शक्ति है। कुछ शब्दों को यहां अगर देखें तो उनके सच्चे लोकसुधारक, लोक जागरणकर्ता कवि की भावना उजागर होती है। साधो, संत, अवधू, पांडे, पंण्डित, मुल्ला, काजी, जोगी, जैसे सम्बोधन केवल शब्द नहीं है, इसमें कबीर की पूरी प्रोक्ति निर्भर करती है। भाईत्रसामान्य जन का सम्बोधन है। साधक त्रजो जग गया।, साधो त्रजो बीच यात्रा में है।, अवधूत्रजो सब कुछ छोड़ा हुआ है जिसे गुरु की भी चाह नहीं।, संत त्रजो पूर्णता को पहुंचा हुआ है। जोगी त्र उपहास हेतु।, पांडे, पण्डित, मुल्ला, काजी त्र यहां कबीर का आक्रोश है। ब्रहझ्म त्र जो सम्पूर्ण, सर्वज्ञ, सर्वस्व है। साधो त्र नि:शब्दता की साधना है, नाद है। वस्तुत: यह कुछ ऐसे उदाहरण है जो कबीर को समझने में सहायक हैं। हम आप इसे खारिज नहीं कर सकते। कबीर स्वयं भाषा के प्रति कितने सजग थे, वे कहते हैं- भसंस्कीरत है कूप-जल भाषा बहता नीर।्य 14

  लेकिन कबीर यह भी जानते हैं कि समाज में लोकधर्म के नाम पर वह भ्रमजाल भी फैला होता है जिसे लोकाचार कहा जाता है। वह कई बार शास्त्रोक्त व्यवहार  होता है। इसीलिए कबीर लोकाचार की भी आलोचना करते हैं- भताथैं कहिये लोकोचार, वेद कतेब कधैं व्यौहार।्य 15 वे आंख मूंदकर सामान्यजन में प्रचलित विश्वासों को स्वीकर नहीं करते, उन्हें सजग आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं। कबीर के सामने यह लोकविश्वास था कि जो काशी में मरेगा वह मोक्ष पायेगा और मगहर में मरने वाला अगले जन्म में गदहा होगा। इस लोकविश्वास को मानने का अर्थ था भक्ति का निरादर। भलोकामति का भोरा रे। जो कासी तन तजै कबीरा, तो रामहि कहा निहोरा रे।।्य 16

कबीर यह नहीं मानते कि जो लोकधर्म के नाम पर चल रहा है वह सब सत्य है, इसीलिए कहते हैं- भलोक जानि न भूलो भाई।्य कबीर शास्त्रीय ज्ञान के बोझ से मुक्त हैं। कबीर जिस लोकधर्म का विकास कर रहे थे उसका मुख्य लक्ष्य था मनुष्य सत्य या मनुष्यत्व का विकास। कबीर कहते हैं- भपुष्पे ब्रहमा पाती विष्णु, फूले महादेवा। भूली मालिन पाती तोड़े करती किसकी सेवा।।्य 17 यह सच्चा धर्म और अध्यात्म की प्रथम सीढ़ी है तथा आज के पर्यावरण का औचित्य। धर्म इसलिए की पर्यावरण का संरक्षण है और अध्यात्म इसलिए कि जीव मात्र की एकात्मता है। तभी तो आचार्य शुक्ल जी ने कहा कि- भकबीर ने मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में आत्मगौरव का भाव जगाया।्य 17 

कबीर की शैली प्रश्नावली की शैली है। कबीर की प्रश्न करने की प्रवृत्ति अपने काल के कवियों में सर्वश्रेष्ठ थी। कबीर के प्रश्न जितने सरल और बेलाग हैं उतने ही तीखे और तिलमिला देने वाले। वे कभी-कभी सुकरात की तरह अज्ञानी बनकर प्रश्न करते हैं और ज्ञानियों की पोल खोल देते हैं। प्रश्न की प्रवृत्ति ही कबीर की कविता में व्यंग्य को विशिष्ट सामाजिक कला बनाती है। वही प्रवृत्ति पाठकों को प्रश्न पूछने की प्रेरणा और निर्भीक दृष्टि भी देती है। कबीर केवल प्रश्न नहीं करते। यदि वे ऐसा करते तो आज के कवियों की भांति विरोध और असहमति के कवि रह जाते। यही कारण है कि कबीर आज भी प्रासंगिक हैं। कबीर की सामाजिक सजगता असहमति और विरोध से आगे बढक़र समाज में मनुष्यत्व की भावना को विकसित करने और मनुष्य सत्य की प्रतिष्ठा करने के लक्ष्य को सामने रखती है। समाज में मानवीय भावों और मानवोचित गुणों के प्रसार के लिए मनुष्य विरोधी भावों को हटाना आवश्यक होता है इसीलिए कबीर ईष्या, क्रूरता, कामुकता, कपट, अहंकार, पाखण्ड आदि की आलोचना करते हैं और प्रेम करुणा, दया, उदारता, अहिंसा, समता आदि मानवीय मूल्यों और गुणों को लोकधर्म बनाने पर जोर देते हैं। वे बुद्ध की भांति भअप्प दीपो भव्य की बात करते हैं। जब चारों ओर पाखण्ड का राज्य विस्तार पा रहा हों तब आज भअप्प दीपो भव्य की  कितनी आवश्यकता है, इसे आप स्वयं बोध कर सकते हैं। वस्तुत: कबीर के लोकजागरण का यही अभीष्ट है।

मैं यहां पुन: कहना चाहंूगा कि कबीर के लोकधर्म में व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्कर्ष को अधिक महत्व मिलता है क्योंकि कबीर जानते हैं कि सच्ची मनुष्यता का उदभव केन्द्र आध्यात्मिकता है। वे जब अपने लिए- धूत, अवधूत, रजपूत और जुलाहा की बात करते हैं तब उनका लोक और धर्म दूसरे कवियों की तुलना में भिन्न है और वह आध्यात्म के रूप में प्रकट होता है। कबीर के आदर्श- सनक, सनन्दन, शुकदेव, व्यास, जयदेव, नामदेव थे। कबीर का मूल प्रदेय राम से जुडक़र है, राम से जुड़े होने के कारण सब समान हैं; पण्डित को फटकार वेद के कारण हैं। वेद का विरोध कबीर में नहीं  हैं। कबीर जिस ब्रहम की उपासना करते हैं, वेद उस परमपुरुष का नि:स्वास है। कबीर ऋषि है। ऋषि मंत्रद्रष्टा हैं, पुरोहित नहीं। कबीर का साखी शब्द संस्कृत के साक्षी शब्द से आया है। जिसका अर्थ है गवाही। आंखों से देखी। भमैं कहता आंखनि की देखी, तू कहता कागज की लेखी।्य18 कबीर की साधना अनुभवगत है जो निर्भय और निडर बनाती है, जो हमें उपनिषद से जोड़ती है। भक्ति पंचायती नहीं होती, वह एकान्तिक होती है। भराम मोरा पीय मोरा राम की बहुरिया्य अथवा भन मै देखूं और को न तोहि देखन देउं।्य19 कबीर ने अपने इष्ट पर सारे गुणों का आरोपण किया। पति-पत्नी का सम्बन्ध सभी सम्बन्धों का समाहार है। कबीर सत, रज, तम को अस्वीकार करते हुए ऋषि के सामान दिव्यगुणों को ग्रहण करते हैं। इसीलिए जैसा मैंने ऊपर कहा है- कबीर के राम का सौन्दर्य भअव्यक्त्य का सौन्दर्य है। कबीर का मार्ग ऋषि परंपरा का है न कि पुरोहित परम्परा का कारण पुरोहित की मर्यादा कर्म-काण्डों से बंधी है। पुरोहित स्वार्थी होता है।

संक्षेप में कुछ तथ्यों को अपने आचार्यों के मत से कबीर की कथनी के साथ पुष्ट करें-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल मानते हैं कि-भकबीर की साधना भक्ति की साधना है। कबीर ज्ञानी भक्त हैं। उनका सहजयोग और कुछ नहीं राम नाम की ही साधना है।्य 20 कबीर सभी मतों के सार तत्व को ग्रहण करते हैं। वे जीवन को निरर्थक नहीं होने देना चाहते। वे कहते हैं- भसाधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय।्य 21 कबीर हिन्दू और मुसलमान दोनों के बीच भेदभाव नहीं मानते। इसलिए दोनों के बीच फैले बाहझ्याडम्बर का उन्होंने विरोध किया- भजो तू बाहमन बहमनि जाया। आन द्वार से काहे नहि आया।्य आगे कहते हैं- भएक जोति से सब उतपना, का बामन का सूद्रा।्य22 मुसलमानों पर कटाक्ष-भदिन में रोजा रहत है रात हनत है गाय। यह तो खून वह बंदगी कैसे खुदा रिझाय।्य23 अथवा अजान और हज, काबा, रोजा, नमाज, अजान, सुनीति, मसीति आदि की ओर तर्क पूर्ण व्यवहार करने की बात कही।भकंकड़ पत्थर जोरि कर मस्जिद लई बनाय। ता चढि़ मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।्य24 कबीर की भक्ति निगुर्ण की भक्ति है-भदसरथ सुत तिहु लोक बखाना।राम नाम को मरम है आना।्य25

कबीरदास आडम्बरी योगियों का ही विरोध करते हैं गोरख नाथ जैसे योगियों का नहीं। वे गोरखनाथ को आदर के साथ याद करते हैं- भसाधों गोरखनाथ ज्यां अमर भये कलिमांहि।्य 26 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भक्तिकाव्य को लोकधर्म की अभिव्यक्ति मानते हैं और रामविलास शर्मा उसे लोकजागरण का काव्य कहते हैं। हजारी प्रसाद जी लोकधर्म को भक्ति आंदोलन की जन्मभूमि मानते हैं, लेकिन उनकी लोकधर्म की धारणा शुक्ल जी से भिन्न है। आचार्य द्विवेदी लोकधर्म के मूल में कबीरदास की सामाजिक-सांस्कृति दृष्टि मानते हैं। 

वस्तुत: कबीर का सम्पूर्ण काव्य लोक से कुछ परिवर्तन की अपेक्षा रखता है। वह उसमे एक विशेष प्रकार का जीवन-धर्म जीने की दृष्टि देना चाहता है। सार रूप में कहें तो वे इस प्रकार हैं- करणी कथनी में एकता, चित और मन की शुद्धता, साधकों की सारग्राहिता, मध्यमार्ग की प्रतिष्ठा, अद्वैत, लोकमार्ग और पण्डित मार्ग का संज्ञान, हिन्दू और मुसलमान, सुख और दु:ख के बीच सामंजस्य, समस्त बाहझ्याचार व्यर्थ है अत: आंतरिक साधना, ईश्वर के प्रति पूरा समर्पण, कामिनी कंचन का त्याग, ईश्वरीय समन्वय, मतवादों से शुद्ध स्नेह की प्राप्ति, अवतार नहीं नाम महिमा, गुरु का महत्व इत्यादि। उन्होंने कहा- भजाके मन विश्वास है, सदा गुरु है संग। कोटि काल झकझोरहीं, तउ न हो चित भंग।्य 27 वस्तुत: यही कबीर का प्रदेय है।

संदर्भ: 1. हिन्दी साहित्य का इतिहास-रामचन्द्र शुक्ल, 2.कबीर-हजारीप्रसाद, 3.कबीर-पीताम्बरदास, 4. कबीर ग्रंथावली-श्यामसुन्दर दास, 5. कबीर आलोचनात्मक अध्ययन: डॉ.राजेश्वर चतुर्वेदी, 6. कबीर की विचारधारा: गोविन्द त्रिगुणायत, 7. कबीर का रहस्यवाद: डॉ. रामकुमार वर्मा, 8. कबीर के पद: क्षितिज मोहन सेन

  


कबीर

                          कबीर 

        निगुर्ण मार्ग में कबीर कीे सबसे महत्वपूर्ण देन है- भक्ति का प्रेम मूलत: भक्तियोग है। कबीरदास हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में हैं वह तत्व की बात कहने वाले कवि माने जाते हैं। कबीर का काव्य हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है। ‘कबीर चरित्र बोध’ का निम्नलिखित दोहा कबीर पंथियों में विषेष प्रचलित है- 


                चौदह सौ पचपन साल गए,चन्द्रकार एक ठाट ठए।

                जेठ सुदी बरसाइत को, पूरनमासी प्रकट भए।।

                घन गरजे दामिनि दकमे,बूंँदे बरसें झर लाग गए।

                लहर तालाब में कमल खिलिहैं तहँ कबीर भानु परकास भए।


  इसी दोहे के आधार पर अधिकांष विद्वान कबीर का जन्म जेष्ठ मास संवत् 1455 मानतेे हैं। इसी तरह मृत्युकाल के संबंध में भी एक दोहा मान्य है-

                   संवत् पन्द्रह सौ पछत्तर,किए मगहर को गौन।

                   माघ सुदी एकादसी,रलो पौन में पौन।।

  कबीर की जाति जुलाहा है। नीमा और नीरू ने उनका पालन पोषण किया था। कबीर कहते हैं- ‘तू बाम्हन मैं कासी का जुलहा,बुझउ मोर गियाना।’ इसी तरह अन्य स्थान पर कहा- कहत कबीर कर गह तोरी,सूतहि सूत मिलाए कोरी।। अथवा जाति जुलाहा नाम कबीरा। बन बन फिरौं उदासी।। कबीर की पत्नी का नाम ‘लोई  था। कबीर का पुत्र कमाल था। उसे सांसारिकता में डूबे देख कबीर निराष हैं - 

                बूड़ा बंस कबीर का,उपजियो पूत कमाल।

               हरि का सुमिरन छांडि़ के,भरि लै आया माल। 

  उनकी पुत्री का नाम कमली था। कबीर के गुरु रामानन्द थे। कबीर की षिक्षा के संबंध में उन्हीं का कथन है- मसि कागद छुओ नहिं, कलम धरी नहिं हाथ।’ किन्तु षिक्षा देष-विदेष में पर्यटन एवं सत्संगों द्वारा प्राप्त,वह बहुश्रुत थे। 

 कबीर के समय भारतवर्ष पर इस्लामी देषों के अनेक आक्रमण हो चुके थे, और मुहम्मद गोरी के पष्चात हिन्दू राज-सत्ता छिन्न-भिन्न हो गई थी। हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के सामने युद्ध रत खड़े रहते थे। डॉ पीताम्बर दास बड़थ्वाल ने लिखा है- ‘‘15वी षताब्दी में भारत आध्यात्मिकता की धारा निर्गुण सम्प्रदाय में होकर प्रवाहित हुई। आध्यात्म चिन्तन धारा को यह गहन एवं नवीन स्वरूप प्रदान करने के मूल में राजनीतिक सामाजिक,धार्मिक तथा अन्य कारण थे। इस प्रकार कबीर,नानक,दादू,प्राणनाथ,मलूकदास,पलटू,साहिब आदि सन्तों द्वारा प्रवर्तित निर्गुण सम्प्रदाय द्वारा तत्कलीन युग की आवष्यकाओं की पूर्ति हुई।’’ 

 कबीर के अनुसार समाज में व्यक्ति का स्वरूप वीभत्स हो गया था। घमण्ड, मिथ्याभिमान,दुराचार,पाखण्ड,पारस्परिक अविष्वास,विषयवासना आदि के कारण सब दु:खी थे। निर्धन वर्ग सर्वथा उपक्षित था।-

          निर्धन आदर कोई न देई। लाख जतन करै ओहिचित न घरेई।

          जो निरधन सरधन कै जाई। आगे बैठा पीठ फिराई।

 गरीबों का जीवन दूभर हो गया था- नित उठि कोरी गागरिया लै लीपत जनम गयो- इत्यादि।

  कबीर के समय प्रमुख रूप से निम्न विचार धाराएँ चल रही थी-1. मुसलमानी एकेष्वरवाद धारा जिसको षासन का सहयोग और राज्य का आश्रय प्राप्त था।

2. सूफी प्रेमानुयायी धारा 3.नाथों की हठयोगी-धारा 4. सहजयोगी निर्गुण मत की ज्ञानाश्रयी धारा 5. वैष्णव भक्ति की धारा 6. षैव और षाक्तों के तंत्राचार की धारा।

कबीर के ऊपर लगभग सभी तत्कालीन विचार धाराओं का प्रभाव रहा।  

 ’’कबीर का ज्ञान पक्ष तो रहस्य और ग्राह्य की भावना से विकृत मिलेगा पर सूफियों से जो प्रेम तत्व उन्होंने लिया,वह सूफियों के यहाँ चाहे कामवासना ग्रस्त हो,पर निर्गुण पंथ में अविकृत रहा’’ - आचार्य रामचन्द्र षुक्ल।

डॉ हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि,‘‘कबीरदास का अवधूत नाथपंथी सिद्ध योगी है।.....कबीर दास के मत से ‘नाथ’ ...परब्रह्म है। नाथ पंथी द्वैताद्वैत विलक्षणतम तत्ववाद का समर्थन करते हैं। कबीर का इनसे सीधा सम्बन्ध है।’’

‘‘कबीर की साधना भक्ति की साधना है। कबीर ज्ञानी भक्त हैं। उनका सहजयोग और कुछ नहीं राम नाम की ही साधना है।’’ -आचार्य रामचन्द्र षुक्ल।

कबीर सभी मतों के सार तत्व को ग्रहण करते हैं। वे कहते हैं- 

                   साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय ।

                सार सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय।। 

कबीर हिन्दू और मुसलमान दोनों के बीच कोई भेद नहीं मानते इसलिए दोनों के बीच फैले बाह्याडम्बर का उन्होंने विरोध किय। वे कहते हैं-‘जो तू बाह्मन ब्राह्मनि जाया,आन राह ह्वै क्यों नहीं आया।’ आगे कहते हैं-’एक जोति से सब जब उतपना,का बामन का सूद्रा।’ मुसलमानों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं- ’दिन में रोजा रखत है रात हनत हैं गाय। यह तो खून वह बन्दगी कैसे खुषी खुदाय।’’ अजान और हज,काबा,रोजा,नमाज,अजान,सुनीति,मसीति आदि की ओर तर्क पूर्ण व्यवहार करने की बात कहीं। ‘‘कंकड़ पत्थर जोरि कर मस्जिद लई बनाय। ता चढि़ मुल्ल बाँग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।

  सूफीमत और कबीर- सूफियों के प्रेमवाद की मुख्य विषेषताएंँ इस प्रकार हैं- 1.इनकी भक्ति भावना का स्वरूप भारतीय माधुर्य प्रधान भक्ति-भावना के समान है। सूफी मत में साधक स्वयं को पुरुष और परमात्मा को नारी मानकर चलता है,जबकि भारतीय पद्धति इसके विपरीत है। कबीर ने भारतीय पद्धति का आलम्बन किया है पर सूफी प्रेम पद्धति को अपनाया। भारतीय प्रेम पद्धति में व्यक्ति विषेष की आराधना वर्जित है,जबकि सूफी इसे (इष्के मिजाजी) परमात्मा के प्रति प्रेम (इष्के हकीकी) का प्रथम सोपान मानते हैं। भारतीय पद्धति में प्रेम में श्रद्धा का समावेष आवष्यक है वह ‘भक्ति’ की कोटि तक पहुँच जाता है। सूफी प्रकृति में अपने प्रियतम की झलक देखते हैं। कबीर ने भी ऐसा किया है।

सूफियों के नियोग में उग्रभागों की प्रधानता रहती है, वहाँ तड़प और हाहाकार का प्राधान्य रहता है। कबीर भारतीय पद्धति के अनुसार षांँत एवं स्थिर बने रहते हैं। फिर भी सूफियों के प्रेमवाद का कबीर पर प्रभाव है- ‘‘कबीर बादल प्रेम का,हम पर बरसा आइ। अन्तर भीगी आत्मा,हरी भई बनराइ।’’ 

यद्यपि सुफियों की पारिभाषिक षब्दावली का जो प्रयोग कबीर ने किया है उससे कोई गम्भीर निष्कर्ष निकालना एक कठिन कार्य है।

कबीर का मतवाद- 1. करणी और कथनी की एकता पर विषेष बल। 2. चित्त और मन की षुद्धता। 3. साधका को सारग्राही होना चाहिए। 4.कबीर ने ‘मध्यमार्ग’ की प्रतिष्ठा की। कबीर ने द्वैत और अद्वैत, लोकमार्ग और पण्डित मार्ग,हिन्दू और मुसलामान,सुख और दुख के बीच का मार्ग खोजा। 5. समस्त बाह्याचार व्यर्थ हैं,इनका आतरिक साधना से कोई सम्बन्ध नहीं है। 6.ईष्वर पर पूरा समर्पण। 7.कामिनी कंचन का त्याग। 8.कबीर ज्ञानी भक्त थे उन्होंने ईष्वर की अनन्य भक्ति का उपदेष दिया है। इनके ‘मतवाद’ से षुद्ध स्नेह या भक्ति की प्राप्ति ही जीवन का चरम फल होना चाहिए। 9.कबीर को अवतार की भावना स्वीकार नहीं किन्तु राम-नाम की महिमा पर सर्वाधिक जोर दिया है। 10.गुरु का महत्व, यथा- जाके मन विष्वास है,सदा गुरु है संग। कोटि काल झकझोरहीं,तऊ न हो चित भंग।

कबीर का ब्रह्म निगुर्ण है-इस भावना के अनुरूप उनका ब्रह्म ‘गुनप्रतीत’, ‘गुणबिहून’,‘निरगुन’,‘निराकार’ है- ‘अलख निरंजन लखै न कोई। निरभै निराकार है सोई।। सुनि अस्थूल रूप नहिं रेखा। दृष्टि अदृष्टि छिप्यो नहिं रेखा। कबीर ने जिस ब्रह्म का निरूपन किया वह वेदान्त का ब्रह्म है। उनकी राम भावना भारतीय ब्रह्म भावना के निकट है। वे कहते हैं- राम गुन न्यारो न्यारे। अबुझा लोग कहाँ ते बूझै,बूझनहार बिचारो। 

कुल मिलाकर कबीर की साधना निर्गुण है जिसमें निम्न तत्व पाये जाते हैं - ईष्वर को निर्गुण माना। समाज में आपसी भाई-चारे की बात की। बाह्याडम्बर का विरोध किया। गुरु की महिमा का प्रतिपादन। ईष्वर के प्रति माधुर्य भाव की व्यंजना। विरह की मार्मिक अनुभूति। वैष्णवी अहिंसा का प्रभाव। लौकिक प्रेम की अपेक्षा पारलौकिक प्रेम पर जोर। 

भक्ती द्राविड़ ऊपजी लाए रामानन्द।

परगट किया कबीर ने,सप्त दीप-नवखण्ड।


14 सितम्बर को हिन्दी दिवस क्यों मनाते हैं?

  

14 सितम्बर को हिन्दी दिवस क्यों मनाते हैं?

हिन्दी दिवस एक बार फिर हमारे सम्मुख है। हम हिन्दी दिवस मनाने की बात करते हैं, क्यों? हिन्दी तो एक शाश्वत भाषा है। उसका कोई जन्म दिन कैसे हो सकता है? परन्तु 14 सितम्बर यह याद दिलाता है कि स्वतंत्रता के बाद हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिलाने के लिए संविधान सभा में जमकर बहस हुई थी और मजे की बात यह थी कि हिन्दी के पक्षधर भी अपने तर्क अंग्रेजी में दे रहे थे।

संविधान सभा में हिन्दी को लेकर 12 सितम्बर,1949 को 4 बजे सायं से बहस शुरु हुई और 14 सितम्बर, 1949 को  समाप्त हुई। बहस प्रारंभ होने के पहले संविधान सभा के  अध्यक्ष और देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अंग्रेजी में एक संक्षिप्त भाषण दिया जिसमें उन्होंने कहा भाषा को लेकर संविधान सभा के निर्णय को सभी को मान्य करना चाहिए। भाषा संबंधी अनुच्छेदों पर उन्हें लगभग तीन सौ या उससे अधिक संशोधन मिले। 14सितम्बर सायं बहस के बाद संविधान का तत्कालीन भाग 14 (क) और वर्तमान भाग 17 संविधान का भाग बन गया। तब राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने कहा, अंग्रेजी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है। इससे हमारे संबंध घनिष्ट होंगे क्योंकि हमारी परंपराएँ, सभ्यताएं और संस्कृति एक हैं। यदि हम इस भाषा को स्वीकार नहीं करते तो इस देश में बहुत सी भाषाओं का प्रयोग होता और वे प्रांत पृथक हो जाते और वे फिर किसी एक भाषा को स्वीकार नहीं करते।’

इस प्रकार 14 सितम्बर भारतीय इतिहास में हिन्दी दिवस के रूप में दर्ज हो गया। संवैधानिक दृष्टि से भारत की राजभाषा हिन्दी और सह राजभाषा अंग्रेजी है किन्तु व्यवहार में हिन्दी की स्थिति विचारणीय है।

13 सितम्बर 1949 को प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भाषा संबंधी बहस में भाग लेते हुए कहा था,- किसी विदेशी भाषा से राष्ट्र महान नहीं बन सकता। क्योंकि कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं बन सकती। भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, एक ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिन्दी को अपनाना चाहिए।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बहस में भाग लेते हुए हिन्दी भाषा और देवनागरी को राजभाषा के रूप में सर्मथन किया और भारतीय अंकों के अन्तर्राष्ट्रीय अंकों को मान्यता देने के लिए अपील की। उन्होंने निर्णय को एतिहासिक बताते हुए कहा-‘‘इस अवसर के अनुरूप निर्णय करंे और अपनी मातृभूमि में राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में वास्तविक योग दें।’’ उन्होंने कहा कि अनेकता में एकता ही भारतीय जीवन की विशेषता रही है। उन्होंने कहा कि हम हिन्दी को इसलिए स्वीकार कर रहे हैं कि इस भाषा के बोलनेवालों की संख्या अन्य किसी भाषा के बोलने बालों की संख्या से अधिक है- उस समय लगभग 32 करोड़ में से 14 करोड़ (सन् 1949 में) लोग हिन्दी भाषा-भाषी थे। उन्होंने अपने भाषण में बल दिया कि अंग्रेजी को हमें ‘उत्तरोत्तर हटाते जाना होगा’। उन्होंने कहा,-‘‘स्वतंत्र भारत के लोगों के प्रतिनिधियों का कर्तव्य होगा कि वे इस संबंध में निर्णय करें कि हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को उत्तरोत्तर किस प्रकार प्रयोग में लाया जाय और अंग्रेजी को किस प्रकार त्यागा जाए।’’

हिन्दी की बिडंबना है कि हिन्दी तो केवल उन लोगों की कार्यभाषा है जिनको या तो अंग्रेजी आती नहीं या फिर कुछ पढ़े लिखे लोग जिनको हिन्दी से कुछ ज्यादा ही मोह है और ऐसे लोगों को सिरफिरे,पिछड़े या बेवकूफ की संज्ञा से सम्मानित कर दिया जाता है। आज कुछ सरकारी या पूरा गैर सरकारी काम अंग्रेजी में ही होता है। दुकानों वगैरह की नाम पट्टिका, होटलों-रेस्टारेन्टों को तो हमने उनके मीनू (सामनों की सूची) के साथ यथावत स्वीकार कर लिया है। न्यायालय के निर्णय से लेकर अनेक महत्वपूर्ण संसद की बहसे अंग्रेजी में होती हैं जिसे देश का आम नागरिक देख-सुन सकता है पर समझ नहीं सकता। जब कि दुनिया के  सभी विकसित राष्ट्रों का काम उनकी अपनी राष्ट्रभाषा में होता है।

बी.बी.सी. के पूर्व संवाददाता मार्कटेली कहते हैं- भारत में अंग्रेजी बनाम हिन्दी का दृश्य है। वे लिखते हैं- दिल्ली में जहाँ मैं रहता हूँ उसके आस-पास अंग्रेजी पुस्तकों की तो दर्जनों दुकाने हैं, हिन्दी की एक भी नहीं। हकीकत तो यह है कि दिल्ली में मुश्किल से ही हिन्दी पुस्तकों की कोई दुकान मिलेगी। टाइम्स आफ इण्डिया समूह के समाचार पत्र नवभारत टाइम्स की प्रसार संख्या कही ज्यादा होने के बावजूद भी विज्ञापन दरें अंग्रेजी अखबारों के मुकाबले अत्यंत कम हैं। वे लिखते हैं कि इसके उल्लेख का कारण है कि हिन्दी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने बाली पाँच भाषाओं में से एक है। जबकि भारत में बमुश्किल दो या तीन प्रतिशत लोग अंग्रेजी समझते हैं। यही दो-तीन प्रतिशत बाकी भाषा-भाषियों पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए है। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी के इस दबदबे का कारण गुलाम मानसिकता तो ही है। साथ ही ज्यादा भारतीय विचार को लगातार दबाना और चंद कुलीनों के आधिपत्य को बरकरार रखना है। अपने अनुभव को लिखते हुए वे कहते हैं कि - इगलैण्ड में मुझसे अक्सर संदेह भरी नजरों से यह सवाल पूछा जाता है कि तुम क्यों भारतीयों को अंग्रेजी के इस वरदान से वंचित करना चाहते हो जो इस समय विज्ञान, कंप्यूटर, प्रकाशन और व्यापार की अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है? तुम क्यों दंभी-देहाती (स्नाँव नेटिव) बनते जा रहे हो? इन तर्कों के अलावा जो बात मुझे अखरती है वह है, ‘भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेजी का विराजमान होना। क्योंकि मेरा यकीन है कि बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति जिंदा नहीं रह सकती।’

मार्कटेली कहते हैं,जरा आइये प्रारंभ से विचार करें- सन् 1813 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीस साल चार्टर का नवीनकरण करते समय साहित्य को पुनर्जीवित करने, यहाँ की जनता के ज्ञान को बढ़ावा देने और विज्ञान को प्रोत्साहन देने के लिए एक निश्चित धनराशि उपलब्ध कराई गई। अंग्रेजी का सम्भवत: सबसे खतरनाक पहलू है अंग्रेजी वालों में कुलीनता या विशिष्टता का दंभ। कोढ़ में खाज का काम अंग्रेजी पढ़ाने का ढंग भी है। पुराना पारंपरिक अंग्रेजी साहित्य अभी भी पढ़ाया जाता है। मेरे भारतीय लेखक मुझे अंग्रेजी साहित्य के ज्ञान से हमें शर्मिंदा कर देते हैं। एन.कृष्णस्वामी और टी.श्रीरामन ने ठीक ही लिखा है कि जो अंग्रेजी जानते हैं उन्हें भारतीय साहित्य की जानकारी नहीं और जो भारतीय साहित्य के पंण्डित है वे अपनी बात अंग्रेजी में नहीं कह सकते। वे कहते हैं कि यदि अंग्रेजी को अपने देश में पढ़ाना ही है तो उसे भारतीय साहित्य समेत विश्व के बाकी साहित्य के साथ जोड़ कर पढऩा चाहिए न कि ब्रिटिश संस्कृति के इकहरे द्वीप से। वे लिखते हैं कि यदि अंग्रेजी भारत में इसी तरह पढ़ाई जाती रही तो भविष्य में पीढिय़ों के हाथ से उनकी भाषा और संस्कृति जबरन छीनना होगा। निश्चित रूप से भारतीय राष्ट्र की इमारत किसी विदेशी भाषा की नींव पर नहीं खड़ी हो सकती। भारत अमरीका और आस्ट्रेलिया की तरह महज भाषाई समूह नहीं है। यह उन भाषाओं की सभ्यता है जिसकी जड़े इतनी गहरी है कि उन्हें सदियों की औपनिवेशिक गुलामी भी नहीं हिला पाई।

डॉ लक्ष्मी मल्ल सिंघवी लिखते हैं-संास्कृतिक दृष्टि से भारत एक पुरातन देश है किन्तु राजनीतिक दृष्टि से एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत का विकास एक नए सिरे से ब्रिटेन के शासनकाल में, स्वतंत्रता-संग्राम के साहचर्य में और राष्ट्रीय स्वाभिमान के नवोन्मेष के सोपान में हुआ। हिन्दी भाषा एवं अन्य प्रादेशिक भारतीय भाषाओं ने राष्ट्रीय स्वाभिमान और स्वतंत्रता-संग्राम के चैतन्य का शंखनाद घर-घर तक पहुँचाया, स्वदेश प्रेम और स्वदेशी भाव की मानसिकता को सांस्कृतिक और राजनीतिक आयाम दिया, नवयुग के नवजागरण को राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रीय अभिव्यक्ति और राष्ट्रीय स्वशासन के साथ अंतरंग और अविच्छिन्न रूप से जोड़ दिया।

संघ की भाषा हिन्दी- संविधान सभा की भाषा विषयक बहस लगभग 278 पृष्ठों में मुद्रित हुई है। भाषा विषयक समझौते की बातचीम में डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और श्री गोपाल स्वामी आयंगार की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही। अंग्रेजी को 15 वर्ष या उससे अधिक अवधि तक प्रयोग करते रहने के बारे में बड़ी लंबी-चौड़ी गरमा-गरम बहस हुई अंत में आंयगर-मुंशी फार्मूला भारी बहुमत से स्वीकार हुआ। वास्तव में अंकों को छोडक़र संघ की राजभाषा के प्रश्र पर अधिकांश सदस्य सहमत हो गए। अंकों के बारे में सभी का तर्क था कि अंक भारतीय अंकों का ही एक अन्तर्राष्ट्रीय नया संस्करण है।

पन्द्रह वर्ष 1966 में समाप्त होने वाला था उससे पूर्व ही संसद में उसे अनिश्चित काल तक बढ़ाने का प्रस्ताव पेश हुआ। स्व. लालबहादुर शास्त्री और पंण्डित नेहरू को यह कार्य सौपा गया। कुछ सदस्य बहिष्कार कर गये। बाद में शास्त्री जी ने कहा- ‘आप सब की बात मैं समझता हूँ, सहमत भी हूँ किन्तु लाचारी है, आप इस लाचारी को भी तो समझिये।’ और उस लाचारी का परिणाम है कि हिन्दी नाम की राजभाषा है वास्तविक राजभाषा अंग्रेजी बन कर बैठ चुकी है। वस्तुत: यह हमारी कमजोरी रही है। आयंगार जी ने उसी समय कह दिया था कि लंबे समय तक उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियाँ, अंग्रेजी भाषा में होंगी, अध्यादेशों, विधेयकों तथा अधिनियमों के प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी भाषा में ही होंगे।

यद्यपि इधर हिन्दी में संसद में भाषण देने वालों की संख्या बढ़ी है, कुछ निर्णय भी हिन्दी में न्यायालयों में आने लगे हैं तथापि स्थिति अच्छी नहीं है। जब संविधान पारित हुआ तब आशा जगी कि हिन्दी सम्पर्क  भाषा के रूप को प्राप्त करेगी और धीरे-धीरे राष्ट्रभाषा बनेगी। संविधान के अनुच्छेद 350 में निर्दिष्ट है कि किसी शिकायत के निवारण के लिए प्रत्येक व्यक्ति संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को संघ में या राज्य में प्रयोग होनेवाली किसी भी भाषा में प्रतिवेदन देने का अधिकार होगा। 1956 में अनुच्छेद 350 (क) संविधान में यह व्यवस्था दी गई कि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था किया जाय। अनुच्छेद 344 में राजभाषा के संबंध में आयोग और संसद की समिति गठित करने का निर्देश दिया गया जिसका प्रयोजन था कि संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी अधिकाधिक प्रयोग हो, राजभाषा का प्रयोग बढ़े। अनुच्छेद 351 में दिया गया है कि-संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके एवं उसका शब्द भंडार समृद्ध और संवर्धित हो।

हिन्दी के विषय में लगता है कि संविधान के संकल्पों का निष्कर्ष कहीं खो गया है। प्रश्र उठता है कि हमने संविधान के सपने को साकार करने के लिए क्या किया? अंग्रेजी भाषा की मानसिकता हम और हमारी युवा-किशोर पीढिय़ों पर इतनी हावी हो चुकी है कि हमारी अपनी भाषाओं की अस्मिता और भविष्य संकट में है? शिक्षा, व्यापार, व्यवहार, संसदीय, प्रशासकीय, न्यायायिक प्रक्रियाओं में हिन्दी गायब होती जा रही है। 1949 से लेकर आज तक में हमने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की यह घोषणा साकार नहीं कर पाए-

है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी।

हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी।।

भारतेन्दु ने कहा- ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।।’

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा- ‘‘ जिस हिन्दी भाषा के खेत में ऐसी सुनहरी फसल फली है, वह भाषा भले ही कुछ दिन यों ही पड़ी रहे, तो भी उसकी स्वाभाविक उर्वरता नहीं मर सकती, वहाँ फिर खेती के सुदिन आएँगे और पौष मास में नवान्न उत्सव होगा।’’

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने कहा था- ‘‘हिन्दी ही हमारे राष्ट्रीय एकीकरण का सबसे शक्तिशाली और प्रधान माध्यम है। यह किसी प्रदेश या क्षेत्र की भाषा नहीं, बल्कि समस्त भारत की भारती के रूप में ग्रहण की जानी चाहिए।’’

नेता जी सुभाषचन्द्र बोस ने यहा घोषणा की थी कि ‘‘हिन्दी के विरोध का कोई भी आंदोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है।’’

भागलपुर में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय का हिन्दी भाषण सुन कर गांघी जी ने कहा था- ‘पडित जी का अंग्रेजी भाषण चाँदी की तरह चमकता हुआ कहा जा सकता है, किन्तु उनका हिन्दी भाषण इस तरह चमका है कि जैसे  मानसरोवर से निकलती हुई गंगा का प्रवाह सूर्य की किरणों से सोने की तरह चमकता है।’

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जिन्होंने राजभाषा के रूप में हिन्दी का एक समय विरोध किया था सन् 1956-57 में यह माना कि हिन्दी भारत के बहुमत की भाषा है और राष्ट्रीय भाषा होने का दावा कर सकती है और भविष्य में हिन्दी का राष्ट्रभाषा होना निश्चित है।

 कविवर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जिनका 14 सितम्बर जन्म दिन भी है, गंगाशरण सिंह, शंकरदयाल सिंह आदि का हिन्दी के प्रति योगदान अविस्मरणीय है। 

खुसरों ने कहा था- ‘‘ मैं हिन्दी की तूती हँू, तुम्हें मुझसे कुछ पूछना हो तो हिन्दी में पूछो, तब मैं तुम्हें सब कुछ बता दूँगा। ’’

डॉ वेद प्रकाश वैदिक कहते हैं- मेरे पासपोर्ट पर भारत एक मात्र ऐसा देश है जिसका छापा उसकी अपनी जबान में नहीं है। मैंने करीब-करीब आधा से अधिक दर्जन देशों की हवाई कम्पनियों पर यात्राएं की किन्तु भारत की परिचारिकाओं को छोडक़र किसी भी देश की विमान परिचारिकाएँ अपनी मातृभाषा के अलावा अन्य भाषा में नहीं बोलती। वे आगे लिखते हैं- मैं चेकोस्लोवेकिया के प्रसिद्ध जन नेता और संसद अध्यक्ष डॉ स्मरकोवस्की से मिलने गया तो उनके विदेश मंत्रालय ने एक ऐसा दुभाषिया भेजा जो अंग्रेजी से चेक में अनुवाद करता था, मैने कहा, ‘‘मै भारतीय हँू, मेरे लिए अंग्रेजी वाला दुभाषिया क्यों भेजा? उनका उत्तर था, ‘‘आपके देश से आने वाले विद्वान नेता और कूटनीतिज्ञ अंग्रेजी का ही प्रयोग करते हैं।’’

विश्व में पांच से छ: मिलियन लोग हिन्दी भाषी हैं। भारत में नई पश्चिमी तकनीकि हिन्दी के लिए खतरा है। चलित दूरभाष और अन्तरताने की लिपि देवनागरी न होकर रोमन हो गई है जो हिन्दी के लिए खतरा है। कुछ अध्ययनों के अनुसार दुनिया में 2013 के अंत तक भारत दुनिया के मोबाइल अर्थात चलित दूरभाष का इस्तेमाल करनेवालों में तीसरा सबसे बड़ा देश होगा। काशी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर राधेश्याम दुबे ने इन्टरनेट के बढ़ते इस्तेमाल से हिन्दी की देवनागरी लिपि को खतरा बताया है।

भारतीय जनसंचार संस्थान के प्रोफेसर आनन्द प्रधान का मानना है कि हिन्दी पर अंग्रेजी के दबदबे की मुख्य वजह आम लोगों के भीतर ‘भाषा का गौरव’ न होना है। अंग्रेजी ऐसी भ्रामक करेंसी बन गई है जो नौकरी देती है।

आठवें विश्व हिन्दी संम्मेलन में पारित कुछ मन्तव्य-

1. विदशों में हिन्दी शिक्षण और देवनागरी लिपि को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से दूसरी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण के लिए एक मानक पाठ्यक्रम बनाया जाए तथा हिन्दी के शिक्षकों को मान्यता प्रदान करने की व्यवस्था की जाय। 

2. विश्व हिन्दी सचिवालय के कामकाज को सक्रिय एवं उदे्दश्य परक बनाने के लिए सचिवालय को भारत तथा मारीशस सरकार सभी प्रकार की प्रशासनिक एवं आर्थिक सहायता दे। अन्य देशों में सचिवालय के क्षेत्रीय कार्यालय खोले जाए।

3. हिन्दी ज्ञान-विज्ञान, प्राद्योगिकी एवं तकनीकी विषयों पर सरल एवं उपयोगी हिन्दी पुस्तकों के सृजन को प्रोत्साहित किया जाए। एक सर्वमान्य यूनीकोड को विकसित कर सर्वसुलभ बनाया जाय।

 आइये हम भी संकल्प करें

कि हम हस्ताक्षर अपनी मातृभाषा में करेंगे। 

घर, कार्यालय, दुकान में नाम पट्टिका अपनी मातृभाषा में बनवायेंगे।

कभी भी लिखने बोलने में अपने देश का नाम भारत ही प्रयोग करेंगे।

अपने व्यक्तिगत पत्र,पारिवारिक कार्यक्रमों के निमंत्रण-पत्र, आवेदन आदि मातृभाषा में ही लिखेंगे।

भारतीय तिथियों, महीनों का प्रयोग अपने दैनिक जीवन में करेंगे।

कथन 

1. ‘‘हिन्दी अपनी बहनों में सबसे प्राचीनतम और बड़ी बहिन है।’’ महामना मदनमोहन मालवीय, सभापति-प्रथम अधिवेशन,काशी,सं 1967

  2. ‘मेधिका नख रंजनी’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल मेंहदी को यवनों द्वारा लाई गई वस्तु मानते थे। किन्तु जब उन्होंने अपने गुरु केशव प्रसाद मिश्र से पूछा तो उन्होंने कहा,‘मेहदी को संस्कृत में मेधिका नख रंजनी कहते हैं, मैंने किसी ग्रंथ में पढ़ा है।’ मेहदी के उस जंगल का नाम ‘मंधिकाटवी’ रखा गया है जो मिर्जापुर के पास है।

3. ‘‘मातृभाषा की यथोचित उन्नति के साथ ही अपनी और अपने देश की दशा को सहज सुधार सकते हैं।’’ - पं. गोविन्द नारायण मिश्र, सभापति-द्वितीय अधिकवेशन,प्रयाग,सं.1968

4. ‘‘मातृभाषा हिन्दी की यथाशक्ति सेवा और भक्ति आराधना करना हमारा परम कर्तव्य है।’’- पं. गोविन्द नारायण मिश्र, सभापति-द्वितीय अधिकवेशन,प्रयाग,सं.1968

5. ‘‘जब तक अपनी मातृभाषा का आदर और सम्मान करना न सीखेंगे तब तक इसकी दुर्दशा का कभी अन्त न होगा।’’- पं. गोविन्द नारायण मिश्र,सभापति-द्वितीय अधिकवेशन,प्रयाग,सं.1968

6. ‘‘सर्व प्रथम आपको अपने प्रदेश के राज कार्यालयों में अपनी भाषा को प्रवेश को उद्योग करना चाहिए।’’- बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ सभापति-तृतीय अधिवेशन, कलकत्ता, सं.1969

7. ‘‘जब तक आपकी भाषा की पूछ न होगी, उसका कोई ग्राहक न होगा, क्यों कोई उसकी योग्यता बढ़ाने के व्यर्थ श्रम करेगा। ’’- बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ सभापति-तृतीय अधिवेशन, कलकत्ता, सं.1969

8. ‘‘भाषा को सरल बनायें और उसमें भाषापन लाएँ।’’ बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ सभापति-तृतीय अधिवेशन, कलकत्ता, सं.1969

9. हिन्दी के एक नहीं कोटि लाल हैं, ये यदि अपनी ललाई को बचाना चाहते हैं तो मातृभाषा हिन्दी की तन-मन-धन से सेवा करें।’’- बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ सभापति-तृतीय अधिवेशन, कलकत्ता, सं.1969

10. ‘‘परभाषा के द्वारा विचार उठने से जहाँ सभ्यता विदेशी होगी, वहाँ राष्ट्र भी भारतीय न रहेंगा। - महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) सभापति- चतुर्थ अधिवेशन,भागलपुर, सं.1970

11. ‘‘देवनागरी लिपि का प्रचार भारतवर्ष में ही नहीं वरन् सारे संसार में किया जाना अत्यावश्यक है।’’ - महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) सभापति- चतुर्थ अधिवेशन, भागलपुर, सं.1970

  

12. ‘‘राष्ट्र का मूल सूत्र राष्ट्रभाषा है। -पं. श्रीधर पाठक, सभापति-पंचम अधिवेशन, लखनऊ, सं. 1971

13.   ‘‘सबसे प्रथम गुण, जिसके कारण हिन्दी का स्थान और भाषाओं की अपेक्षा उच्च है, वही उसका अपनी मातामही से घनिष्ट सम्बन्ध है।’’ - बाबू श्यामसुन्दर दास,सभापति-छठा अधिवेशन, प्रयाग, सं.1972

14. ‘‘वही भाषा शक्ति-सम्पन्न और सजीव मानी जाती है जो दूसारी भाषा के शब्दों को ग्रहण कर उन्हें अपने रंग में रंग ले।’’ - बाबू श्यामसुन्दर दास,सभापति- छठा अधिवेशन, प्रयाग, सं.1972

15. ‘‘समाज शिक्षा का मुख्य द्वार देश की प्रचलित भाषा ही हो सकती है।’’- महामहोपाध्याय, पं. रामावतार शर्मा, सभापति- सप्तम अधिवेशन, जबलपुर,सं. 1973

16. ‘‘अपने गुणों से तथा सूर, तुलसी, हरिश्चन्द्र आदि महाकवियों की अपूर्व प्रतिभा से हिन्दी केवल भारत में ही नहीं, द्वीपान्तरों में भी माननीय हो रही है।’’ -महामहोपाध्याय, पं. रामावतार शर्मा, सभापति- सप्तम अधिवेशन, जबलपुर,सं. 1973

17. कोई भी देश सच्चे अर्थों में तब तक स्वतंत्र नहीं है जब तक वह अपनी भाषा में नहीं बोलता।’’ - मोहनदास करमचन्द गाँधी, सभापति- अष्टम अधिवेशन,इन्दोर, सं.1974

18. ‘‘भाषा वही श्रेष्ठ है जिसको जनसमूह सहज में ही समझ ले।’’ - मोहनदास करमचन्द गाँधी, सभापति- अष्टम अधिवेशन,इन्दोर, सं.1974

19. ‘‘यदि भारत को राष्ट्र बनना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है।’’ - मोहनदास करमचन्द गाँधी, सभापति- अष्टम अधिवेशन,इन्दोर, सं.1974

20. ‘‘राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की एकता और उन्नति के लिए आवश्यक है।’’- मोहनदास करमचन्द गाँधी, सभापति- अष्टम अधिवेशन,इन्दोर, सं.1974

21. ‘‘विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा की हिमायत करने वाले जनता के दुश्मन हैं।’’ - मोहनदास करमचन्द गाँधी, सभापति- अष्टम अधिवेशन,इन्दोर, सं.1974

22. ‘‘हिन्दी भाषा एक ऐसी सार्वजनिक भाषा है, जिसे सब भेदभाव छोडक़र प्रत्येक भारतीय ग्रहण कर सकता है।’’ - पं.मदनमोहन मालवीय,सभापति-नवम् अधिवेशन,बम्बई, सं.1975

23. ‘‘न्याय उस भाषा में होना चाहिए, जिसका एक-एक शब्द उसकी समझ में आता हो, जिसका कि न्याय हो रहा है।’’- पं.मदनमोहन मालवीय,सभापति-नवम् अधिवेशन,बम्बई, सं.1975

24. ‘‘हिन्दी भाषा को देशव्यापी राष्ट्रभाषा बनाने के लिए जितनी प्रचार की आवश्यकता है उससे कहीं अधिक साहित्य के सम्पूर्ण अंगों की वृद्धि करने की आवश्यकता है।’’ - रायबहादुर पं. विष्णुदत्त शुक्ल, सभापति-दशम अधिवेशन, पटना, सं. 1976

25. ‘‘भाषा भी देश के अनुसार बनती है, इसको बनाने वाली प्रकृति देवी है।’’ - पं. जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी, सभपति-12वाँ अधिवेशन, लाहौर, सं. 1978

26. ‘‘यदि कोई भाषा है, जो भारत के अधिकांश भाग में स्वीकृत हा ेसकेगी, तो वह हिन्दी ही है। ’’ - पं. जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी, सभपति-12वाँ अधिवेशन, लाहौर, सं. 1978

27. ‘‘भाषा हृदय को उत्तेजित करती है, मन की भावनाओं को दृढ़ बनाती है, आत्मा को शुद्ध रखती है।’’ - राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन,सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979

28. ‘‘नवयुवकों के मस्तिष्क में विदेशी भाषा वह भाव कदापि नहीं उत्पन्न कर सकती, जो उनकी मातृभाषा करती है।’’- राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन,सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979

29. हिन्दी के द्वारा राष्ट्रीयता की भावना जागी है। - राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन,सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979

30. भाषा और संस्कृति से खिलवाड़ करने वाले राजनीतिक आते हैं और चले जाते हैं। भारतीय संस्कृति की प्रतीक हिन्दी सदा अमर रहेगी। -  राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन, सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979

31. यदि हम अपनी मातृभाषा को खो बैठें तो निश्चय है हमारी राष्ट्रीयता का भी लोप हो जायगा।- राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन,सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979

32. बिना अपनी भाषा की नींव दृढ़ किये स्वतंत्रता की नींव नहीं दृढ़ हो सकती।- राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन,सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979

33. हिन्दी राष्ट्रीयता के मूल को सींचती और उसे दृढ़ करती है।- राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन,सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979

34. भाषा ही वह खुराक और वह हवा है जिस पर देश के हर एक बच्चे की विचार शक्ति परवरिश पाती है।- राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन,सभापति- 13वां अधिवेशन, कानपुर, सं.1979

35. उर्दू भाषा की प्रकृति आज भी हिन्दी है। व्याकरण उसका आज भी हिन्दी प्रणाली में ढला हुआ है।- महाकवि अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ सभापति-14वां अधिवेशन ,दिल्ली,सं.1980

36. हिन्दी भाषा चाहे उन्नत या अवनत जिस किसी स्थिति में क्यों न हो, एक उसी में ही भारतवर्ष भर की राष्ट्रभाषा होने की गुणावली है। अमृतलाल चक्रवर्ती, सभापति-16वां अधिवेशन, वृन्दावन,सं. 1982

37. एक राष्ट्रभाषा के बिना सर्व भारत का परम कल्याण त्रिकाल में भी नहीं हो सकता। -अमृतलाल चक्रवर्ती, सभापति-16वां अधिवेशन, वृन्दावन,सं. 1982

38. समस्त देश के लिए शिक्षा का माध्यम बनने की पात्रता यदि किसी भाषा में है तो राष्ट्रभाषा हिन्दी में ही है। आचार्य पद्म सिंह शर्मा, सभापति-18वां अधिवेशन, मुजफ्फरपुर,सं.1985

39. हिन्दी का शब्द भण्डार भरने के लिए भी संस्कृत शिक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है।- आचार्य पद्म सिंह शर्मा, सभापति-18वां अधिवेशन, मुजफ्फरपुर,सं.1985

40. कोई भी देश मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने बिना सुरक्षित नहीं रह सकता।- आचार्य पद्म सिंह शर्मा, सभापति-18वां अधिवेशन, मुजफ्फरपुर,सं.1985 

41. यदि भारत को राष्ट्र बनाना है, तो चाहे कोई माने या न माने, राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है। - महात्मा गाँधी, सभापति-अधिवेशन, वृन्दावन,सं. 1974 एवं 92

42. भाषा जातीय जीवन और उसकी संस्कृति की सर्वप्रधान रक्षिका है, वह उसके शील का दर्पण है और उसके विकास का वैभव है। - गणेश शंकर विद्यार्थी, सभापति-19वां अधिवेशन ,गोरखपुर, सं. 1986

43. एक दिन हिन्दी एशिया में नहीं विश्व की पंचायत में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी।- गणेश शंकर विद्यार्थी, सभापति-19वां अधिवेशन,गोरखपुर, सं. 1986

अन्य सन्दर्भ-

‘किसी ने कहा है कि बुद्धिमान पुरुष काम करने के पहले सोचते हैं, समझदार काम करते समय और मूर्ख काम करने के बाद सोचते हैं।’

1. इस देश में अंग्रेजी को चुनौती देने का काम तीन लोगों ने किया- महर्षि दयानन्द सरस्वती, गुजराती भाषा भाषी, संस्कृत के विद्धान। जिनके शिष्यों ने  मारिशस, त्रिनिडाड, ब्रिटिश गुयाना, सूरीनाम,फीजी आदि में हिन्दी पहुँचाई। उनका मानना था कि स्वभाषा के बिना स्वराज अधूरा है।

2. दूसरे मोहनदास करमचन्द गाँधी। ये भी गुजराती थे। गाँधी जी ने कहा- ‘‘भारत के आजाद होने के बाद मैं छ: महीने का समय दूँगा, यदि इन छ: महीनों के बाद संसद में किसी ने अंग्रेजी बोली तो उसको मैं तुरन्त गिरफ्तार करवा दूँगा।’’

3. तीसरे हैं- स्वामी श्रद्धानन्द। मौलिक लेखन और चिन्तन का काम गुरुकुल कांगड़ी में स्वामी श्रद्धानन्द ने 19वीं सदी में गुरुकुल कांगड़ी में किया।

4. अंग्रेजी का बोलबाला ऐसा है कि विदेशी पर्यटक/ राजनायिक पूछते हैं कि क्या आप के देश की कोई भाषा नहीं है?

5. दिल्ली घूमने वाले विदेशी विद्वान कहते हैं कि- साउथ ब्लाक, नार्थ ब्लाक, साउथ एक्टेशन आदि की जगह आपकी भाषा में नाम नहीं हो सकते? यह गुलामी आप के यहाँ क्यों है?

6. अंग्रेजी का अपना कोई व्युत्पत्ति शास्त्र नहीं है। उसमें ग्रीक,जर्मन,फ्रेंच, डच, हिन्दी,संस्कृत भाषाओं के शब्द हैं।

7. अंग्रेजी में कोई ऐसी किताब नहीं लिखी गई जिससे विश्व में कोई महान क्रांति हुई हो।

8. दुनिया में सबसे बड़ा धर्म बौद्ध उसकी पुस्तके पाली में। ईसाइयों की मूल पुस्तक किस भाषा में है?- क्या अंग्रेजी मेँ? क्या ईसा और मूसा अंग्रेजी बोलते थे? बाइबिल की मूल भाषा- हिब्रू है। ईसाई से पुरान धर्म यहूदी की भाषा हिब्र् है।

9. हिन्दी संस्कृति की पुत्री जिसकी एक-एक धातु में एक-एक लाख शब्द बनाने की छमता है। पाणिनी ने संस्कृत में 19 सौ धातुएं खोजी।

10. कुरान शरीफ की भाषा क्या है ? हदीश किस भाषा में हैं तो अरबी या फारसी में।

11. कालमाक्र्स का दासकैपिटल किस भाषा में है तो- जर्मन में। यह ग्रंथ रुस और चीन का आधार ग्रंथ है। न्यूटन ने अपनी किताब किस भाषा में लिखी तो- लैटिन में। वह पुस्तक की भूमिका में लिखता है कि-‘अंग्रेजी कोई भाषा है जिसमें मैं अपनी पुस्तक लिखूँ?’

12. आईस्टीन की भाषा अंग्रेजी नहीं- जर्मन है।

13. फ्रांस में कोई अंग्रेजी बोले तो उसे हेय की दृष्टि से देखा जाता है।

14. महान साहित्यकार वर्नाल्ड सॉ अंग्रेजी के नही- स्काट थे।

15. अंग्रेजी विश्व के साढ़ चार देशों की भाषा- अमरीका, ब्रिटेन,न्यूजीलैण्ड, आस्ट्रेलिया, और आधा कनाडा।

16. काबुल विश्वविद्याल में प्रोफसर को उस्ताद कहा जाता है।

17. मैक्समूलर ने ज्ञान के लिए संस्कृत सीखी।

18. दुर्भाग्य है कि नोवल पुरस्कार विजेता जिनके नाना हिन्दी में ‘समाचार सुधा वाण’ 1854 में हिन्दी में निकाला करते थे नाती अमत्र्यसेन अपनी पुस्तक ‘द आगर््यूमेंटिव इण्डिया’ में अंग्रेजी सुधारने वाले विदेशी स्कालर की प्रशंसा करते हैं।

19. हिन्दी माध्याम से पढ़े छात्र सीधे भातीय प्राचीन परम्परा से जुड़ेगे। हमारे पूर्वजों ने चिकितसा, विध्ाि, वास्तु गणित रसायन, ज्योतिष,भौतिकी आदि के क्षेत्रों में मौलिक उपलब्धियां क्यो विदेशी भाषाओं से प्राप्त की हैं।


वतर्मान सरसंघचालक

  गांधी वांड़.मय आमुख

वतर्मान सरसंघचालक मोहन जी भागवत कहते हैं-‘‘प्रतिकूलता के दिनों में हमें कोई रोक नहीं सका। लेकिन वर्तमान में संकट बढ़ा है। अनुकूलता जनित प्रतिकूलता का लाभ उठाकर, साधनों के प्रभाव में हम खड़े हैं या,साधनों के अभाव में हमनें खड़े आना समय के साथ सीखने के प्रयास किये हैं।’’ 

कार्यकर्ता के विकास का मापदण्ड क्या है, तो कहा गया- ‘‘त्येजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलम् तजेत । ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथ्वींत्यजेद।।’’

यह भाव कैसा आता है जब हमारी ध्येय निष्ठा जाग्रत रहे इसके लिए महापुरुषों का जीवन पढऩा, ध्येयवाद जागृत करना-धीरे धीरे देष, समाज, राष्ट्र का चिंतन प्रारंभ हो, व्यक्तिगत तथा पारिवारिक भाव से ऊपर उठे। समाज सापेक्ष बनने की मन:स्थिति तैयार हो। इसके लिए बौद्धिक विकास अर्थात दृढ़ ध्येय निष्ठा का विकास, धारणा षक्ति की प्रवलता बढ़े। अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में अविचल निष्ठा का अभ्यास, अनुषासन का दृढ़ता से पालन करने की सिद्धता हो।

  हमारे देष के महापुरुषों ने समाज का अध्ययन किया, श्रेष्ठ संस्कारों को जगाया तथा समाज में ब्याप्त कमियों को दूर किया और समाज को चिरजीवी बनाया। 

वैदिक परम्परा एवं आदर्षों को विस्मृतकर समाज में कर्मकाण्ड, अन्धश्रद्धा, अस्पृष्यता, पाखंड, षोषण आदि का प्रावल्य हो गया तो उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप बौद्ध एवं जैन मतों का प्रादुर्भाव हुआ। त्याग, तप और सदाचार जनमानस को प्रभावित करता है। बुद्ध और महावीर क्षत्रिय राजकुमार थे। वैभव और ऐष्वर्य को ठोकर मारकर तप एवं त्याग का जीवन अपनाया, वैचारिक क्रांति का सूत्रपात किया। इससे समाजिक कुरीति एवं पाखण्डों से ग्रस्त समाज को दिषा मिली, प्रेरणा मिली। महावीर स्वामी: जो अपने श्रेष्ठ कर्मो के कारण भगवान बने। वन की ओर जा रहे थे, रास्ते में हरिकेषी चाण्डाल को गले लगाया। छुआछूत उस समय बहुत था। भगवान बुद्ध ने वत्सराज उदय के पुत्र बोधिराज कुमार को कहा था’- ‘‘राजकुमार ! ......‘सुख में सुख नहीं प्राप्त हो सकता, दु:ख में सुख प्राप्त हो सकता है। ’इसलिए ...मैं तरुण बहुत काले केषोंवाला ही, सुन्दर यौवन के साथ, प्रथम वयस में माता-पिता को अश्रुमुुख छोड़ घर से ....प्रब्रजित हुआ।’’ ऊँच-नीच, भेदभाव दूरकर सामाजिक समरसता एवं एकात्मता की अनुभूति करने का मार्ग बुद्ध ने प्रषस्त किया। तथाकथित अस्पृष्य जाति का युवक सुनीत मार्ग पर झाडू लगा रहा था,गौतम मार्ग से निकले उन्हे षिष्य बनाया।

षंकराचार्य-सम्पूर्ण सहस्त्राब्दी का इतिहास केन्द्रापगामी बौद्धधर्म तथा केन्द्रभिमुखी हिन्दु धर्म के पारस्परिक संघर्ष व समन्वय का इतिहास है। बौद्ध और षंकर में षास्त्रार्थ- ‘‘आप भी हिंदू हैं, हम भी, हममें और आप में भेद कहां। षास्त्रार्थ किया हम हिंन्दू नहीं बौद्ध हैं। आप हिंदू हैं और बौद्ध भी। आप हिंदू हैं और वैष्णव भी, आप हिंदू हैं और षैव भी। आप हिन्दू हैं और सब कुछ भी।’’........... हम एक ही सरित प्रवाह के जलकण है। इस सरिता का प्रवाह रूकेगा नहीं।’’

रामानुजाचार्य- यादव प्रकाष का षिष्यत्व। रामानुज सत्रहबार गये लौटा दिये, अठरहवी वार मंत्र दिया। मंत्र की गोपनीयता भंग होने पर पाप या नरक का द्वार। मंत्र था ‘ओम नमों नारायण’। किंतु गुरु की बात की  अवहेलना कर समाज में इस मंत्र को सबको बताया तथा सामाजिक मुक्ति हेतु स्वयं पाप के भागीदार बनने को तैयार, किंतु राष्ट्र कल्याण सर्वोपरि। मेहतरानी का सम्मान, मां तुम्ही पवित्र हो हम तो अपवित्र हैं। विषिष्टाद्वैत की स्थापना की।

बल्लभाचार्य ने षुद्वाद्वैत तथा मध्वाचार्य ने द्वैत एवं निम्बाचार्य ने द्वैताद्वैत के माध्यम से भक्ति का प्रचार किया।    

आचार्य विद्यातीर्थ: पर्वत पर तपस्या-दैवी विपदा को दूर करने हेतु न कि स्वयं के मोक्ष के लिये। हरिहर  व बुक्का में (गड़रिया) ने सेवा की। देवी प्रसन्न। अगले जन्म में तुम्हारी कामना पूर्ति होगी। संन्यास लिया। सन्यास ग्रहण एक तरह का पुनर्जन्म है। पुनर्जन्म हो गया है, कृपा कीजिए। विजयनगर का निर्माण। साधना का मार्ग सामाजिक जीवन के लिये,राष्ट्र के लिये।

महारष्ट्र में संत नामदेव-विठ्ठल वारकरी, ज्ञानदेव के साथ तीर्थयात्रा-गंगा कुम्हार ने सिर पर मारा, ये घड़ा कच्चा है।’गुरु किया। एक कुश्रा रोटी, घी चुपडक़र दिया।गुरु विठोवा खैभर। अंभग घर घर गाये जाते हैं। एकनाथ-108 बार स्नान कर पुण्य प्राप्त किया। पैठण में कावेरी स्नान। 

चेतन्य महाप्रभु-बंगाल: हरि हरि बोल का कीर्तन। 

नरसी मेहता-कृष्ण के प्रति अनन्य भक्तिभाव के कारण साक्षात्कार प्राप्त हुआ। गुजरात में सामाजिक जागरण के आधार स्तंभ बने।

समर्थ रामदास -सौ मठों की स्थापना-लोकसंग्रह का मंत्र, लोकनेता। अपने आध्यात्मिक बल से, निर्भीकता से, आदर्ष से जागृति पैदा की और ‘हिन्दवी स्वराज की स्थापना’ करवाई। लोक संग्रह जीवन का सूत्र रहा। जय जय रघुवीर समर्थ ’की गूंज आज भी है।

रामकृष्ण परमहंस के गुरु तोतापुरी जी प्रतिदिन दो घंटे साधना करते थे क्योंकि साधना के द्वारा जो अर्जित किए उसे टिकाए रखने के लिये भी साधना की आवष्यकता है। रामकृष्ण परमहंस-परमहंस की समाधि की अवस्था से विवेकानंद प्रकट हुए। स्वामी विवेकानंद-विवेकानंद ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। भारतमाता को इष्ट मानकर ‘नर सेवा नारायण सेवा’ की, दरिद्र ही नारायण स्वरूप दिखा।

.भारत की प्राचीन संत परंपरा प्रकारान्तर से देश में संघ प्रचारक व्यवस्था के रूप में आज भी जीवन्त है। कैसे-कैसे अनामिक भाव वाले, कैसे काम किया जा सकता है आगे की पीढ़ी को भी करना है इसके जीवन्त उदाहरण को आत्मसात करने के लिए -  

डाक्टर जी के प्रयास से एक दिन बाईस स्वयंसेवक एक साथ प्रचारक निकले। पूरे देष में जहां भेजे गये वहां गये। परिणाम स्वरूप 1940 में पूरे देष में षिक्षावर्ग में आये, लघुभारत का स्वरूप देखने को मिला। डाक्टर जी के परिश्रम की पराकाष्ठा, रक्त पानी बन गया।  जीवन षैली - मैं पहुच रहा हूॅ या संघ कार्य पहुँच रहा है। अपनी छाप या संघ छाप छूट रही है। क्रोध लोक संग्रह में बाधक होता है। प.पू.डाक्टर जी का पूरा परिवार क्रोधी था किंतु डाक्टर जी ने उस मूल स्वभाव को भी बदल दिया।   

गुरुजी ने षंकराचार्य का पद ठुकराया, निजी साधना छोडक़र राष्ट्र साधना में समय देना। गुरुजी ने कहा मेरा अंतिम संस्कार सार्वजनिक हो।- ‘‘मैत्री करुणा मुदितो पे आभाम् सुख दुख पुण्यापुण्य विष्यानाम् भावनात चित्र प्रसादनम्‘‘। (पातंलति), सुखी के लिये मैत्री भाव,दुखी हेतु करुणा भाव, पुण्यजन हेतु आनंद भाव,दुष्ट हेतु उपेक्षा भाव। प.पू. श्रीगुरुजी का ऐसा ही भाव था। समय की प्रामाणिकता-पू. गुरुजी का पटरीपर चलकर कार्यक्रम में पहुंचना।  

प.पू बाला साहब को यति सम्राट की संतों ने उपाधि दी। बाला साहव व्यावहारिक आदर्शवादी थे। वे बड़ी  बरीकी से समस्याओं को समझते थे। असम में घुसपैठ के आन्दोलन में उन्होंने शरणार्थी हिन्दू और योजनाबद्ध रीति से आने वाले मुसलमानों का अन्तर समझाया। जब भारतीय जनता पार्टी ने अल्पसंख्यक आयोग  बनाय  तो उन्होंने तुरन्त कहा-गलत हुआ: मानव अधिकार आयोग  बनाना चाहिए।   

रज्जू भैया -जहाँ मृत्यु हो वहीं अंतिम संस्कार, घर संदेषा भेज देना। एक जेष्ठ कार्यकर्ता ने लिखा-रज्जू भैया के व्यक्तित्व के बारे में सोचते समय श्री गुरूजी का कार्यकर्ता सम्बन्धी विवेचन स्मरण आता है- कोयला और हीरा दोनों का मूल धातु कार्बन है। कोयला जलता है और शेष रहती है राख। जलते कोयले को सब दूर से देखते हैं। असहनीय उष्णता के कारण कोई पास नहीं जाता। जबकि हीरा जलता नहीं चमकता है, सब उसके पास जाते हैं, उसको हथेली पर रखते हैं, निहारते हैं, अपनान चाहते हैं। ध्येयवादिता की दृष्टि से कोयला हीरा समान हैं, किन्तु उपगम्यता  एवं स्वीकार्यता की दृष्टि से कोयला कोयला है और हीरा हीरा। रज्जू भैया सबके उपगम्य हीरा थे।       

पूज्य सुदर्शन जी ने कहा- संघ अपने राष्ट्र के श्रेष्ठ स्वभाव की पुनरावृत्ति एवं सुपोषण के लिए प्रयत्नशील है। यह विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। संघ हिन्दू समाज को संगठित तथा एकीकृत करने का दाियत्व संभाले हुए है।    

अभिलाषा- ‘‘हमारे नाम का कोई जन्मा भी था यह भी अवषेष षेष न रहे, यही तो कामना है हमारी। इस कामना का जो क्षण हमारे जीवन में भले ही कुछ पल के लिए क्यंू न आया हो, यही क्षण हमें प्रचारक बना गया। वह क्षण हमें सदा समरण रहे, हम उसे पकडक़र रखें। जीवन की सार्थकता अंतिम क्षण तक उस क्षण से चिपके रहने की है। यह क्षमता प्राप्त करने का नित्य प्रयास चल रहा है क्या ? चले, चलता रहे। साधु संत भी हमें साधक, श्रेष्ठ साधु मानते ही हैं, यह विरासत हमें मिली है। हमें इस स्कूल को चलना है। पहले कंटकाकीर्ण मार्ग है-बताना नही पड़ता था पर अब अपने जीवन से समझाना होगा। प्लेयर नही, पूर्वजों की तपस्वी परंपरा के हम साधक हैं।- प.पू. मोहन राव

इसी भारतीय सांस्कृतिक वातावरण को अपने अन्त: में समेटे रा.स्वयंसेवक संघ का जन्म हुआ। उसके भागीरथ प्रवाह के कुछ घाटों का अवगाहन हम स्वयंसेवक करें साथ ही समाज में इस गंगाजल के कुंभ जाय और तन, मन, पुलकित हो इस हेतु यह पुस्तक आपके हाथों में समर्पित है।

अन्त में- चलो वीरो थको मत। खाओ पियो रुको मत। बोलो चालो वको मत। देखों भालो तको मत।


सम्पादकीय 3‘आप देशद्रोही हैं!,

  सम्पादकीय

(क)

‘‘आप देशद्रोही हैं!, चीखते हुए ये शब्द श्री पुरुषोत्तम दास टंडन के श्री गोविन्द वल्लभ पंत तत्कालीन गृह मंत्री जी के लिए थे।  अवसर था राष्ट्रभषा पर संसदीय समिति की बैठक 25.11.58 का।      वे कहते ही गये, ‘उत्तरप्रदेश में भी जब मैं विधानसभा का स्पीकर था और आप मुख्यमंत्री, मुझे आपके हिंदी प्रेम के बारे में तब भी संदेह था, मुझे आज पता चला कि आपका हिंदी प्रेम क्या है’? 

  टंडन जी केक्रोध का कारण उस प्रस्ताव का एक वोट से गिरना था जिसमें अंग्रेजी से हिंदी परिवर्तन के लिए एक निश्चित समय सीमा की बात कही गयी थी। अंतिम नकारात्मक वोट श्रीपाद अमृत डांगे का था, और पंत जी अपना वोट इस संतुलन को निर्णायक बनाने में उपयोग कर सकते थे, लेकिन उन्होंने अनुपस्थित रहना ठीक समझा। 

  हिंदी के समर्थक अंग्रेजी को जल्द से जल्द उखाड़ फेेंकने के लिए अधीर थे। उनका तर्क था कि अधिकांश राज्यों में शिक्षा का माध्यम हिंदी है और प्रतियोगी परीक्षाओं में इन राज्य के बच्चों को उस भाषा में परीक्षा देने के लिए बाध्य करना ठीक नहीं होगा जो उन्होंने पढ़ी ही नहीं। पंतजी जी के सामने दो विपरीत माँगे उपस्थित थीं, पहली, केंद्र पर तत्काल अंग्रेजी से हिंदी की ओर कूच करने की और दूसरी तरफ गैर हिंदी भाषी राज्यों से ऐसी किसी तारीख को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित रखने की। 

हिंदी के समर्थक इस बात से प्रसन्न थे कि क्षेत्रीय भाषाएंॅ अंग्रेजी का स्थापन्न बन रही हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में वे हिंदी को होने वाली हानि से अनिभिज्ञ थे। यदि राजभाषा आयोग किसी भी तारीख को दृढ़ता से घोषित कर देता तो सरकार के लिये काम आसान होता, राजभाषा आयोग के दो सदस्यों, मद्रास से डॉक्टर पी सुब्बारायण और पश्चिम बंगाल से डॉक्टर सुनीति चौधरी ने आयोग में अपनी एक अलग राय रख दी कि हिंदी को राजभाषा बनाने की बात संविधान सभा ने पारित की है, न कि संसद सदस्यों ने जो जनता का प्रतिनिधित्व करते है।

 संसदीय समिति ने राष्ट्रभाषा पर 16.11.1957 को जब विचार करना प्रारम्भ किया तो वहाँ     सदस्यों के दो फाड़ थे। एक जो हिंदी के समर्थक थे, श्री पुरूषोत्तमदास टंडन, डॉक्टर रघुवीर, कुमारी मणिबेन वल्लभभाई पटेल और गोविन्ददास, ये आसंदी के बायीं ओर बैठे और उनके नामों के पथ हिंदी में लगे थे और श्री फैं्रकअन्थोनी, श्री मुदलिआर, श्री मूर्ति और श्री डांगे, हिंदी की राजभाषा के रूप में स्थापना के धुर विरोधी थे वे आसंदी के दाएं ओर बैठे उनके नाम पट अंग्रेजी में लिखे थे। 

 अवगत होना चाहेंगे कि समिति की ऐसी 26 बैठकें हुई और एक भी बैठक आरोप प्रत्यारोप और शब्दों की मर्यादा को लांघने के अवसरों से रहित नहीं थी। इस दृश्य को देखें तो बाये-दाये की प्रचलित धारणा पर बिना हँसे नहीं रह सकते। जो बाये ओर बैठे हैं वे आज के दक्षिणपंथी हैं और जो दायी ओर बैठे हैं वे वामपंथी हैं?

 

एक विवाद था जो दस्तावेज़ समिति के सामने हैं वे अनुचित हैं। सदस्यों का कहना था कि पश्चिम बंगाल द्वारा पारित वह प्रस्ताव जो 1957 में एक मत से हिंदी को राज भाषा के रूप में $खारिजकर अंग्रेजी को बनाये रखने की बात कही गयी थी भी रखा जाये। आप उन सदस्यों को समझ सकते हैं,नाम लिखने की आवश्यकता नहीं।

 तथाकथित विद्वानों में कैसी अफरातफरी थी जरा देखें, राजगोपालाचारी जी ने जब ङ्क्षहदी का विरोध किया तो उनके सामने प्राइमरी स्कूल की वह किताब रख दी गयी जिसकी प्रस्तावना में उन्होंने लिखा था कि भारत एक सशक्त देश बने और हिंदी इस एकीकरण और सशक्तिकरण का माध्यम बने।

  मुदलिआर के अनुसार भारत गणराज्य को मौजूदा समय में द्विभाषी होना ही होगा ताकि इससे भ्रम और संदेह की स्थिति न बने। श्री अन्थोनी और श्री प्रमत नाथ बनर्जी ने स्पष्ट रूप से अंग्रेजी के प्रयोग को चालू रखने की वकालत की।  

  श्री मुदलियार का नया प्रश्न यह था कि हम यहाँ राष्ट्रीय भाषा नहीं बल्कि भारत सरकार की भाषा पर चर्चा करने आये हैं। बिहार से एक सदस्य श्री एम.पी.मिश्रा ने इसका समर्थन किया कि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में ‘राष्ट्रीय भाषा’ का जिक़्र ही नहीं किया है।

 जब श्री टंडन ने कहा ‘सभी सदस्य ईमानदारी से एक ऐसी तारीख का निर्धारण करें जब अंग्रेजी से पीछा छुड़ाया जायेगा’। श्री मूर्ति का कथन था कि  २६ जनवरी, 1965 को निश्चित तारीख के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि तब तक इसके लिए गैर हिंदी भाषी कर्मचारियों का प्रशिक्षण पूरा नहीं हो पायेगा अत: यह तारीख 1965 से आगे की होनी चाहिए। 

  निर्णय निकला कि हिंदी प्रधान भाषा दप्रिंसिपल लैंग्वेज½ हो और अंग्रेजी सब्सिडियरी दसहायक½ भाषा।  कोई निश्चित तारीख निर्धारित करना जल्दबाज़ी होगी क्योंकि संविधान में ही ऐसी किसी निश्चित तारीख का उल्लेख नहीं है और संसद निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है। 

अब जरा इस परिभाषा को समझें, ‘दीनता जिसकी गृहणी, दासता जिसकी भगिनी और अस्पृश्यता जिसकी संगिनी हो, वह दलित है।’ क्या हिन्दी आज भी दलित नहीं है? अब तक समझ में आ ही गया होगा कि हिन्दी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन सकी और अंग्रेजी क्यों बिदा नहीं हो सकी। इसमें किन महानभावों की भूमिका थी और क्या आज भी उन्हीं के वंशजों की भी नहीं है?

(ख)

अब जरा दुनिया में भाषा के परिदृश्य पर नजऱ डालें। अपनी आत्मकथा में इंडोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति ने इस बात का उल्लेख गर्व के साथ किया कि उनके देश में ७००० द्वीप है लेकिन उनके प्रत्येक टापू का नागरिक इंडोनेशिया की नयी भाषा ‘बहासा’ का प्रयोग करता है।  

  स्विट्जरलैंड की चार राष्ट्रीय भाषाएं थीं, जर्मन, फेंच्र, इतालियन और रोमांश पहली तीन भाषाओं को सरकारी भाषा बनाकर इनमें समानता की घोषणा की गयी। उनकी संसद में सांसद किसी भी भाषा में प्रश्न पूछने और कार्यवाही में किसी भी भाषा का उपयोग कर सकते थे, लेकिन कार्यवाही को इन तीनों भाषाओं में ही दर्ज किया जाता है। 

कनाडा में दो राष्ट्रीय भाषाएं हैं, अंग्रेजी और फें्रच। फें्रच और अंग्रेजी का उपयोग क्यूबेक के विधायक मंडल में होता है जबकि अंग्रेजी का उनकी राष्ट्रीय संसद में। कैनेडियन अदालतों में इन दोनों भाषाओं में कार्यवाही अनुमति है। कनाडा की फेडरल सरकार की कामकाज की भाषा अंग्रेजी है लेकिन फ्रेंच में प्राप्त पत्रों का उत्तर फ्रेंच में दिया जाता है। इसके लिए एक अनुवाद ब्यूरो बनाया गया है। बेल्जियम में तीन भाषाएं हैं, फ्लेमिश, फ्रेंच और जर्मन, फ्रेंच और फ्लेमिश दोनों को सरकारी कामकाज की भाषा बनाया गया है, वहाँ पर यह समस्या इतनी विकट इसलिए नहीं थी कि वहाँ के बहुसंख्यक लोग तीनों भाषाओं में पारंगत थे।

 सोवियत रूस में लगभग 200 भाषाएं और बोलियाँ हैं, इनमें से 16 भाषाएं प्रमुख हैं, इनमें रशियन बोलने समझने वाले अधिकतम संख्या में थे, यहाँ पर सरकार ने सभी भाषाओं को फलने फूलने का अवसर दिया। ऐसी भाषाओं में जिनमें पहले से कोई साहित्य उपलब्ध नहीं था, उसके रचनाकारों को प्रोत्साहित किया गया, नए स्कूल खोले गए, नए अखबार निकाले गए। विज्ञान और तकनीक में भी सभी भाषाओं का पोषण किया गया। सुप्रीम सोवियत अर्थात उनकी संसद और न्यायालयों में रशियन का प्रयोग होता है लेकिन इनका अनुवाद इन 16 भाषाओं में उपलब्ध होता है।

 चीन के साथ स्थिति थोड़ी अलग थी, बोलियों की विविधता के बावजूद जो लिपि थी वह सामान थी। मौखिक रूप से बोली जाने वाली बोलियों की विविधता के कारण स्थिति यह थी की दूर दराज में दो चीनी लिखित रूप में तो बात एक दूसरे को समझा पाते थे लेकिन उनकी बोली का वैशिष्ट्य इस समझ को बाधित करता था। चीनियों ने इस समस्या का समाधान अक्षर पर आधारित लिपि अपना कर किया जो पहले चित्रात्मक थी। 

 चेखव, ताल्सतोंय और दोंस्तोयव्यस्की जैसे रूसी दिग्गजों के आगे अंग्रेजी का कोई कथाकार नहीं ठहरता। मिजऱ्ा ग़ालिब जैसा शायर हमारे पास है। तुलसीदास की रामचरितमानस दुनिया की अनेक भाषाओं में अनुदित हो रही है फिर भी हिन्दी को लेकर देश में भाषायी झगड़ा गंभीर विषय है।   

वस्तुत: भाषायी विवाद विश्व में नये नहीं हैं और यह स्वाभाविक था कि औपनिवेशिकता से स्वतंत्रता की ओर बढ़ते राष्ट्र अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा के लिए आन्दोलित हो। इन दो खण्डों में इसका स्मरण इसलिए नहीं किया जा रहा है कि यह राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी दिवस है बल्कि विषय इसलिए आया कि अब समय आ गया है कि स्वतंत्रता के एकहत्तर साल में हम हिन्दी को दिवसों से बाहर निकाल कर व्यवहार में लाये। कारण बहुत स्पष्ट है जिसे अनदेखा करने का परिणाम भविष्य में घातक होगा। बोलिओं, क्षेत्रीय भाषाओं का संवद्र्धन हो, मातृभाषा व्यवहार में हो, राजभाषा हिन्दी को देश में सर्वत्र मान्यता हो अन्यथा भाषा और बोलियों के आधार पर तामिलनाडु, महाराष्ट्र से निकली आग गुजरात से होकर जिस तरह राजनैतिक पलक पावड़ों पर चढक़र हिन्दी भाषियों के लिए खूनी संघर्ष कर रही है उसकी दिशा भी बदल सकती है और वह फिर किसी के सम्हाले नहीं सम्हलेगी। 

जब देश महात्मा गाँधी जी की १५०वी जन्मसती मना रहा हो तो उनके माध्याम से भी इस विषय को देखना चाहिए। १० सितम्बर, १९३८ के ‘हरिजन’ में लिखे शब्दों को दे कर इस विषय को आप के ऊपर छोड़ता हूँ, ‘‘हमने बार-बार घोषणा की है कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा या प्रान्तों के आपसी व्यवहार की सामान्य भाषा है या होनी है। यदि हमारी इस घोषणा के पीछे ईमानदारी है तो हिन्दी के ज्ञान को अनिवार्य बनाने में बुराई कहाँ है ? ‘मातृभाषा खतरे में है’ यह नारा या तो अज्ञान रूप है या एक पाखंण्ड है और जहाँ इसके पीछे ईमानदारी है वहाँ भी उन लोगों की देशभक्ति के लिए अपवादमाय चीज है।.. यदि हमें अखिल भारतीय राष्ट्रीयता के धर्म तक पहुँचना है,तो प्रान्तीयता के आवरण को भेदना होगा। भारत एक देश अैर एक राष्ट्र है अथवा अनेक देश और अनेक राष्ट्र ? जो मानते हैं एक देश है उन्हें इस पर पूरा समर्थन देना चाहिए।’’

(ग)

रूद्ग ह्लशश अपनी सम्पूर्ण सत्ता के साथ वर्षों के कूड़े-कचरे को पचाकर ऐसा नाईट्रोजन खाद बन कर आया है जिसे लग रहा है कि स्त्री की पूरी ऊर्जा के साथ सम्पूर्ण भूमण्डल में नई फसल पैदा कर देगा जो नारी शसक्तीकरण का अचूक परिणाम होगा। होगा की नहीं यह तो पाठक तय करेगा किन्तु मुझे इस समय भवानी प्रसाद मिश्र याद आ रहे हैं, ‘‘, ‘आज सभ्यता की दुनिया में दो राजनीतिक विचार और उनसे जुड़े हुए आचारों का बोलबाला है। एक है पश्चिमी ढंग का प्रजातन्त्र और दूसरा है माक्र्स के ढंग का अधिनायकवाद, जो साम्यवाद के नाम से पहचाना जाता है।.. .. माक्र्सवाद को बिना किसी लाग-लपेट के एक मु_ीबांध, हिंसक, निरन्तर आक्रमणशील मानसिकता कहा जा सकता है, जिसका जन्म पूँजीपतियों को सर्वहारा के द्वारा कब्र में दबाकर, सत्ता, सर्वहारा के हाथ में दी जानी है। बेशक साधन, सशस्त्र क्रान्ति है। ’’ वे आगे लिखते हैं, ‘‘ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं से देखें तो पश्चिमी सभ्यता के दो रूप स्पष्ट हैं। एक तरफ है उदार, संविधान से संचालित बहुदलीय जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों की ऐसी प्रजातंत्रीय प्रणाली, जो व्यक्ति की स्वतंत्रता पर जोर देती है। मैग्नाचार्टा, 1628 का फरियादी अधिकार (पिटीशन राइट), बेकून का नोवम आगेनॉन, लॉकी का नागरिक शासन (सिविल गवर्नमेंट), रूसो का सोशल कॉनट्रेक्ट, अमेरिका का स्वतंत्रता का घोषणा पत्र (डिक्लेरेशन ऑफ इनडिपेंडेंस), रिकार्डो कृत पोलिटिकल इकॉनॉमी और मिल कृत ग्रंथ, ऑन लिबर्टी आदि अनेक महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों में उदार राज्यप्रणाली और आर्थिक प्रणाली का रूप निर्धारित है। लिंकन ने शासन पद्धति की जो रूपरेखा बनायी और चलाई बावुर, कोल, लॉस्की, मेरीयाम और नेक्वलेवर जैसे विचारकों ने उसकी व्याख्या और मीमांसा ही नहीं की, उसे ठोस आधार में उतारने की उपाय-योजना भी प्रस्तुत की। इस में से ‘लोगों द्वारा, लोगों पर, लोगों के शासन’ के प्रयोग विकसित होते रहे।’’ निष्कर्ष देते हुए भवानी भाई लिखते हैं, असल में ये दोनों विचार पद्धतियाँ आज विकसित होकर हमारे सामने जिस रूप में हाजिर-नाजिर हैं- उसने ‘‘आदमी ही नहीं, सारे जीव रक्षणीय और प्रिय हैं, संसार का हित सबके विकास में है, केवल इसके या उसके विकास में नहीं।इस शिव-कल्पना को हास्यास्पद बना डाला है। संसार एक है, सब हिलमिलकर समूची सृष्टि बनाते हैं और एक समग्रता को अपनाकर परस्पर एक-दूसरे के लिए भय के नहीं, प्रेम और उल्लास के कारण हो सकते हैं, आज ऐसी बात अगर कोई कहना चाहे तो उसे इन दोनों पद्धतियों के हामी बेखटके ‘महामूर्ख’ का खिताब दिये बिना नहीं रह सकते।.. .. कहने को ये दोनों प्रणालियाँ अपने को मानवतावादी प्रणालियाँ कहती हैं, मगर मैं कहना चाहता हूँ कि तमाम् अच्छे इरादों के बावजूद इन प्रणालियों ने दिशा जो पकड़ी हैं वह मानवीयता की नहीं है। दानवीयता की है। ’’ 

दूसरी ओर रूद्ग ह्लशश ह्यद्धड्डद्मह्लद्ब को समझने के लिए भी भवानी भाई को देखना होगा, ‘‘यह संस्कृति-विचार किसी एक दिशा में अंधी गति पकडक़र कभी नहीं भागा, इसने ठोस धरती और खुले गगन में प्रेम-यात्राएँ की हैं। यहाँ वेद और उपनिषद हुए हैं, वाल्मीकि और व्यास हुए हैं, शंकराचार्य, रामानुज, दयानन्द, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द और रामतीर्थ हुए हैं और हुए हैं- वास्तविक अस्तित्व अर्थात सत, चित और आनन्द का अनुभव करने वाले ही नहीं, कराने वाले कृष्ण, पतंजलि, महावीर, बुद्ध और अभी-अभी आकर गये हैं हमारे बीच से इन सबके सार को समेटकर हमारे सामने रख देने वाले श्री अरविन्द, रवीन्द्रनाथ और गांधी और उन विचारों को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया में अपना सब कुछ अर्पण कर देने वाले विनोबा, जयप्रकाश और कृष्णमूर्ति। मनुष्य को ‘परम’ से साक्षात्कार करा देने वाली वह दृष्टि जो व्यक्ति और समाज को निर्भय बनकर मिलती है, इस देश में सदा उपस्थित रही है।’’

मी टू और मी टू शक्ति दोनों दो दृष्टियों की परिचायक हैं। एक में भोगवाद है तो दूसरे में समनवय है, अपनी पहचान है, मनुष्यता है। इस दृष्टि को शोपनहॉवर ने उपनिषदों में मन की शांति, पाइफेड्रिक शेजेल ने भारत में जुड़ा, एथेन्स और रोम की जली धरती को हरा करने की संभावना देखी, मैक्समूलर ने वेदान्त की आत्मस्थ नीति में सृष्टि मात्र को गतिशील बनाने के प्रमाण पाये, झ्यूसन ने कहा कि प्लेटो आर कांट और गेल प्रकारान्तर से शंकराचार्य की बात कहते हैं। इमर्सन, थोरो, हुम बोल्ट और बीटैस्की जैसे अनेक विचारक भी भगवद्गीता और वेदांत विचार से प्रभावित हुए भगवान बुद्ध के विचारों ने तो आधे जगत को नया प्रकाश दिया। 

फिर ऐसा अचानक क्या हो गया की सारी तथाकथित नारी प्रतिभाएँ अचानक ‘मी टू’ की हुंकार करने लगीं। अपराध और स्त्री का शोषण जब भी आये उसे उठाना ही चाहिए। किन्तु जब वह लामबन्द हो कर कुनियोजित ढंग से खाद बना कर छिडक़ा जाये और पश्चिम से लेकर भारत तक एक साथ स्वर उठे और उसमें एक विशेष शक्ल-सूरत को उभारा जाये तो कुछ तो षडय़ंत्र की बू आती है।  

याद रखना चाहिए कि हम जिन स्वतंत्रता की वैचारिकी पर खड़े हो कर भोगवाद की उच्छृखल धरती को उर्वरा कह रहे हैं उनमें वे कैसे मौन हैं जिन्होंने स्त्री जाति को ही भोग का मार्ग सिखया है? क्या साहित्यकारों, प्रशासकों के उन कालेचिठ्ठों को भी उजागर किया जायेगा जो ‘हंस’ की मध्यकालीन परम्परा को लिए ही आगे बढ़ती रही है। 

हम अपनी धरती मुक्ति और शोषण की जिस अवधारणा को कारणों के कारण, अभिप्रायों को समेटे, निहितार्थ भाव से समाज के सामने खींचकर खड़ा कर देना चाहते हैं, वे स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे के मित्र के रूप में नहीं देखतीं। वे पति और पत्नी की भारतीय परिवार की संकल्पना से बाहर हैं।  वे मानती हैं कि स्त्री और पुरुष आपस में चूसे जाने के लिए है, हम एक दूसरे से जितना लेते जा सकते हैं लेते जायें; बुद्धि और धन तथा प्रतिभा जो हमारे पास है, उसका सबसे बड़ा उपयोग दोहन के साधन ढूंढने में है।  पराजित प्रतिभा वहीं है जो अधिकाधिक शोषण पर विश्वास करती है। इसीलिए यह तथाकथित शोषित प्रतिभाएँ अब मान्य समस्त मान्यताओं का दम तोड़ डालने के तट पर खड़ी होकर अपने अव्यर्थ बाण का प्रयोग करने की धुन में हैं। 

यह स्थिति जो आयी, मैं मानता हूँ कि उसकी जड़ में हमारी भोगवृत्ति और चकाचौध की है, जबकि हमारे पास संसार को इस स्थिति से बचाने की कीमिया परिवार नाम की इकाई है। हम अपने इस इकाई का, विचार का विनियोग नहीं करने का निश्चय करते हुए दिखाई देते हैं । आखिर यह देश अचानक समलैंगिकता, स्त्री विमर्श, थर्ड जेंडर से मी टू तक कैसे आ गया। क्या यह इलीट वर्ग का दर्द है? क्या भारत दलित को उबार चुका है? क्या सर्वत्र दलित प्रकारान्तर से दलित ही दलित हैं?

 राजनीति में पारस्परिकता को ताक पर धर दिया, राष्ट्रीय एकता को कोई भौगोलिक चीज मानकर उन सूक्ष्म तत्वों की ओर पीठ दे दी जो भाषा, संस्कृति, स्नेह और आध्यात्मिकता में निहित हैं। हमने धर्म की अवज्ञा की। धर्म-निरपेक्ष होकर संप्रदायों और जातियों को महत्त्व दिया और इसी प्रक्रिया के बीच जब हम स्वतन्त्र हुए तो हमने अपनी आँख सप्तसिंधुओं के पानी से धोकर जागने की जगह, जहरीले कुंडों में मग्न हो जाने को परमपुरुषार्थ माना। हमने बावजूद गांधी के, आजादी की लड़ाई के दौरान और उसके आ जाने तक यह नहीं समझा कि मानवता, एक समग्र व्यक्तित्व और व्यक्तित्व-संभावना को आत्मा अर्थात विश्वात्मा के साक्षात्कार में सक्षम बनाने का नाम है। यह कृतित्व सुविधाओं के अंबार लगाने से, एक-दूसरे का अपने लिए उपयोग करने से नहीं, बल्कि अपने को दूसरों के लिए बना मानकर चलते रहने से सधता है। हम आत्मा को जानने, परम अज्ञेय को प्राणों में समेटने के बदले एक अधबीच के अज्ञेय और जड़ और व्यक्तित्वहीन अणु को तोडऩे में लगे हुए लोगों का मुँह ताकने लगे और सोचने लगे कि हम भी इस मझधार अज्ञेय में डुबकी लगायेंगे; भाप, बिजली, पेट्रोल तो विरासत में हमने पा ही लिये हैं, इसलिए अब हम भी अणु तोड़ेंगे और प्रजातंत्र या समाजवाद के नाम पर ऐसे नक्शे में रंग भरने का काम करेंगे जो संसार के चेहरे का रंग $फ$क कर दे, याने सब नीका, फीका ही न हो जाये, महाकाल के भाल पर एक ऐसा लाल टीका लगा दे कि मानवता का नाम लेवा, पानी देवा न बचे।

आज से कोई 34-36 बरस पहले हम आजाद हुए। आजाद होते ही अगर हमने अपनी माटी की प्रतिभा को पहचान कर एकाध काम शुरू किया होता, गांधी के बताये कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया होता, अपनी कुछ जानी-मानी बुराइयों को एक झटके में खत्म कर दिया होता, कुछ प्राणवान जोड़ा होता, कुछ प्राणहीन छोड़ा होता तो हम एक तीसरी-निर्माण-शक्ति संसार को देते- आज की प्रचलित दो विनाशकारी शक्तियों की जगह। मगर शायद, गांधी के ज्यादातर सहयोगी गांधी की तरह आजाद होकर, संसार को आजादी देने की आकांक्षा से व्याकुल नहीं थे। वे तो किसी के राज से छुटकारा पाकर खुद राज करना चाहते थे। इसीलिए जब गांधीजी ने उनसे कहा कि हमने जिस संघर्षशील संस्था का पल्ला थामा था, वह अब समाप्त कर दी जानी चाहिए। हम सेवक हैं, शासन का संचालन लोगों पर छोड़ें, हम तो सेवा करें और शक्यता इस बात की निर्मित करें कि देश का अंतिम आदमी राहत महसूस करे- ऐसा दिन आये कि समानता का अर्थ केवल आर्थिक क्षेत्र में समानता न बच रहे। सबको लगभग समान भौतिक सुविधाओं के साथ-साथ लगभग एकसी मानसिक, बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक समानता की ओर ले जाने की या सब में उस ओर जाने की स्थितियों के अंकुर जमें, फूलें और फलें। मगर ‘तुलसी भाँवर के परे, नदी रिसावत मौर’। हमने हर सही अर्थ में अपना वह ‘सेहरा’ पानी में सिरा दिया और गिरा लिया अपने को स्वार्थपूर्ण राजनीति के ऐसे गर्त में जो शायद चोर-रेत का बना था, हम रोज-रोज उसमें गहरे धँसते जा रहे हैं, किस दिन साँस टूट जायेगी, यह नहीं कह सकते।

पश्चिम की प्रचलित दोनों तथाकथित मानवीयता, ह्यूमैनिज्म शुद्ध रूप से भौतिक है, खालिस स्वार्थ से गढ़ी हुई है, जहाँ केन्द्र में सबका हित न होकर सत्ता, शासन और प्रशासन है, इसके हाथ जिससे मजबूत होते हैं वही दूसरों को करना है- ऐसा इसका भाव है। अगर हमने इस तथाकथित मानवीयता की जगह अपनी दार्शनिक मानवीयता या कहिए नैतिक और आध्यात्मिक मानवीयता को पकड़ा होता तो दुनिया की हवा बदल जाती, शोषण की जगह सेवा और प्रेम शासन की जगह आत्मानुशासन और युद्ध की जगह समस्त जड़-चेतन से मन में बिरादरी का एक भाव पैदा हुआ होता।

 आध्यात्मिक मानवतावाद अपना ‘होना’ जानता है और दूसरी तमाम चीजें भी मेरे बराबर महत्त्व की हैं, इसे मानता है। वह अल्प में भी सुविधा देखता है और ऐश्वर्य में भी। ऐश्वर्य ईश्वर का गुण है- वह आत्मा में उतरना चाहिए। ऐश्वर्य का निधान चीजें नहीं हैं, वस्तु बाहुल्य नहीं है। हमने संतोष को एक दुर्गुण घोषित कर दिया और कहा कि हमारा देश जो सैकड़ों बरस गुलाम रहा वह इसलिए कि उसने अल्प में संतोष माना। हमने सोचा नहीं कि ‘अल्पे सुखं नास्ति भूमैव सुखं’ का क्या अर्थ है। अल्प, याने व्यक्तिगत सुख, सुख नहीं है; सार्वभौम सुख ही सच्चा सुख है। हमने यह भी नहीं सोचा कि जो पदार्थगत-सुख मुहैया करने में लगे हैं, वे अनेक दूसरों को इस प्रक्रिया में किस हद तक दीन-हीन और दुखी बनाते चले जा रहे हैं।


 


सम्पादकीय दो अमृत के पुत्रो! सुनो,

  सम्पादकीय


 (क)

 १० सितम्बर, १८६३ को एक वैदिक ऋषि ने संसार के सामने खड़े होकर तूर्य स्वर में घोषणा करते हुए कहा, ‘‘हे अमृत के पुत्रो! सुनो, हे दिव्यधामवासी देवगण!! कैसा मधुर और आशाजनक संम्बोधन है यह। बंधुओ इसी मधुर  नाम-अमृत के अधिकारी शब्द से आपको सम्बोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दें। निश्चय ही हिन्दू आपको पापी कहना अस्वीकार करता है। आप तो ईश्वर की संतान हैं, अमर आनंद के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस मत्र्यभूमि पर देवता हैं। आप भला पापी? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानवस्वरूप पर घोर लांछन है।’’

 स्वामी विवेकानन्द की बात से सहमत ही नहीं दो कदम आगे बढ़ते हुए मैथिलीशरण जी कहते हैं, ‘किन्तु मनुज को पशु कहना कभी नहीं सह सकता हूँ।’ बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’  लिखते हैं, ‘सरद जुन्हाई अब कहां -कहां बसंत उछाह/ जीवन में अब बीच रह्यो  चिर निदाघ कौ दाह। / हम बिषपायी जनम के सहैं अबोल-कुबोल / मानत नैंकु न अनख हम जानत अपनो मोल।’ नवीनजी का विश्वास देखिए- ‘इस धरती पर लाना है / हमें खींचकर स्वर्ग, कहीं यदि उसका और ठिकाना है।’ वह स्वर्ग कहाँ है तो अध्योध्या सिंह उपाध्याय  इस समाचार, अनाचार, दुराचार, अत्याचार, पापाचार जैसे कितने चार हैं जो भारतीय राजनीति और समाज को दूषित कर रहे हैं। उन सभी चारों को आचार में बदलने की कला की कला को स्वर्ग की सम्भावना मानते हैंं।

  जनता जनार्दन है। जनता भगवान है। हम जनता के सेवक है। भगवान राम केवट की नाव से पार उतर गये। देने लगे मुद्रिका तो उसने कहा, ‘अब कछु नाथ न चाहिए मोरे। दीन दयाल अनुग्रह तोरे।’ अनुग्रह बड़ी बात है केवट के लिए। उसके अन्दर सब प्रकार की भलाई, शुभेक्षा है। यहाँ दाता की झोली खाली है। दीन का पेट ही नहीं भर रहा। कहीं न कहीं सन्तुलन बनाना होगा। याचक की याचना और निदान होना चाहिए किन्तु खुस करने के लिए बाँटते रहना अंकिच नता की ओर ढकेलना होगा। 

भारती जी लिखते हैं, ‘ताकि रेगिस्ता / गुलाबों की क्यारी बन जाय / शब्द का कहा जाना अनिवार्य था। / आदम की पसलियों के घाव से / इवा के मुक्त अस्तित्व की प्रतिष्ठा के लिए।’  एक सत्संग में किसी एक महिला ने स्वामी विवेकानन्द जी से संशय व्यक्त किया था, ‘‘स्वामी जी, क्या आदम ने आज्ञा-भंग का पाप नहीं किया था?’’ स्वामी जी ने कहा, ‘‘बहनजी, याद करो, ईश्वर ने जब आदम को बनाया वह निष्पाप निरंजन था न? हिन्दू संस्क् ृति महिला को पाप का स्रोत नहीं मानती, वह ‘सर्व मंगल मांगल्या’ है।’’ यही बात सम्पूर्ण विश्व को देखने की भारतीय दृष्टि को उजागर करती है जिसे हम वहाँ स्वामी जी को कहते हुए पाते हैं। चिन्तन इस बात का करना है कि क्या आज भी हम उसी भारतीय दृष्टि के वाहक हैं?

(ख) 

शब्द वेधी वाण पृथ्वीराज चौहान ने चलाया और मुहम्मद गोरी धरासायी हो गया। आज वाणवेधी शब्द चल रहे हैं जो मारना तो दूर किसी को चोटिल भी नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में धर्मवीर भारती का स्मरण होना स्वाभाविक है, ‘शब्द को कहा जाना था / चूँकि सत्य सदा सत्य है / आज भी अनिवार्य है / अत: आज के लिए भी शब्द है / और उसे कहा जाना अनिवार्य है।’ शब्द ब्रह्म है। शब्द सत्य है। शब्द अभिव्यक्ति की अनिवार्यता है। शब्द सृजन का आधार है। शब्द युग की सीमा से परे है। शब्द का सातत्य है। भारती जी कहते हैं, इसलिये शब्द का कहा जाना अनिवार्य है। शब्द की अनिवार्यता इसलिये भी है कि आरम्भ में केवल शब्द था। किन्तु शब्द के लिये दो चाहिए। ’एकोऽहम बहुष्यामं’ यह श्रुति की आवश्यकता है। बिना उसके शब्द की सार्थकता सिद्ध नहीं हो सकती। शब्द मौन तोडऩे के लिये आवश्यक है। वे लिखते हैं-‘आरम्भ में केवल शब्द था / किन्तु उसकी सार्थकता थी श्रुति बनने में / कि वह किसी से कहा जाय / मौन को टूटना अनिवार्य था।’ 

भगवती चरण वर्मा जी लिखते हैं, ‘साहित्य अथवा कला को प्राणवान् और सफ ल साहित्य में साहित्यकार का व्यक्तित्व मूर्त होता है। साहित्यकार का व्यक्तित्व उसके जीवन का अभिन्न अंग होने के नाते उसके कृतित्व का भी अभिन्न अंग हाता है। भारती जी भी लिखते हैं, ‘ ताकि प्रलय का अराजक तिमिर / व्यवस्थित उजियाले में / रूपान्तरित हो।’ क्या आज की राजनैतिक, सामाजिक परिस्थिति में यह यह सम्भावना तलाशी जा सकती है कि हम मंचों की जगह शब्दों का उपयोग आपस में साथ बैठ कर कर लें? 

‘तुम्हारे चरण /ये शरद के चाँद-से उजले धुले-से पाँव,/मेरी गोद में ! / ये लहर पर नाचते ताज़े कमल की छाँव,/ मेरी गोद में !/ दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दाँव,/ मेरी गोद में !/ रसमसाती धूप का ढलता पहर,/ ये हवाएँ शाम की, झुक-झूमकर बरसा गईं / रोशनी के फूल हरसिंगार-से,/ प्यार घायल साँप-सा लेता लहर,/ अर्चना की धूप-सी तुम गोद में लहरा गईं / ज्यों झरे केसर तितलियों के परों की मार से,/ सोनजूही की पँखुरियों से गुँथे, ये दो मदन के बान,/ मेरी गोद में / हो गये बेहोश दो नाजुक, मृदुल तूफ़ान,/ मेरी गोद में !/ ज्यों प्रणय की लोरियों की बाँह में,/ झिलमिलाकर औ’ जलाकर तन, शमाएँ दो,/ अब शलभ की गोद में आराम से सोयी हुईं/या फ़रिश्तों के परों की छाँह में/दुबकी हुई, सहमी हुई, हों पूर्णिमाएँ दो,/देवताओं के नयन के अश्रु से धोई हुईं ।/चुम्बनों की पाँखुरी के दो जवान गुलाब,/मेरी गोद में !/सात रंगों की महावर से रचे महताब,/मेरी गोद में !/ये बड़े सुकुमार, इनसे प्यार क्या ?/ये महज आराधना के वास्ते,/जिस तरह भटकी सुबह को रास्ते/हरदम बताये हैं रुपहरे शुक्र के नभ-फूल ने,/ये चरण मुझको न दें अपनी दिशाएँ भूलने !/ये खँडहरों में सिसकते, स्वर्ग के दो गान, मेरी गोद में !/रश्मि-पंखों पर अभी उतरे हुए वरदान, मेरी गोद में !’’  

  दुख तो उन्हें इस बात का है कि आज ’जनतंत्र’ में ’तंत्र’ शक्तिशाली लोगों के हाथों में चला गया है और ’जन’ की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। अपनी रचनाओं के माध्यम से इसी ’जन’ की आशाओं,आकांक्षाओं, विवशताओं, कष्टों को अभिव्यक्ति देने का प्रयास उन्होंने किया है। वे मूल्यहीनता के विरोधी हैं और इतने दृढ़ है कि कोई भी प्रलोभन उन्हें डिगा नहीं सकता। परंपरागत ज्ञान और भारतीयता का उपनिषदकालीन ज्ञान उन्हें सदा सहारा प्रतीत होता है। 

प्रात सद्य:स्नात कन्धों पर बिखेरे केश/आँसुओं में ज्यों धुला वैराग्य का सन्देश/चूमती रह-रह बदन को अर्चना की धूप/यह सरल निष्काम पूजा-सा तुम्हारा रूप/जी सकूँगा सौ जनम अँधियारियों में,/यदि मुझे मिलती रहे/काले तमस की छाँह में/ज्योति की यह एक अति पावन घड़ी!/प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी!/चरण वे जो लक्ष्य तक चलने नहीं पाये/वे समर्पण जो न होठों तक कभी आये/कामनाएँ वे नहीं जो हो सकीं पूरी-/घुटन, अकुलाहट, विवशता, दर्द, मजबूरी-/जन्म-जन्मों की अधूरी साधना,/पूर्ण होती है किसी मधु-देवता की बाँह में!/जि़न्दगी में जो सदा झूठी पड़ी-/प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी! उनकी ‘एक वाक्य’ कविता उस महान चिंतक के जीवन का ऐसा अद्भुत संदेश है, जो आज के राजनीतिक प्रदूषित वातावरण में हर व्यक्ति के लिये अनुकरणीय और प्रेरणादायी है- ‘चेक बुक हो पीली या लाल,/दाम सिक्के हों या शोहरत /-कह दो उनसे / जो खऱीदने आये हों तुम्हें /हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होगा है !

‘धर्म और पाप’ निबंध में  आचार्य चतुरसेन शास्त्री कहते हैं, ‘भारत धर्म-प्रधान देश है और मनुष्य पाप का चोर है, इसलिए धर्म और पाप की बिना सहायता लिए मैं मानने वाला आदमी नहीं हूँ। मैं अपनी अंतरात्मा में भली भाँति जानता हूँ कि पाप और धर्म दोनों खातों से भरपूर धन है और उसका कुछ सदुपयोग नहीं हो रहा है। धर्म की परिभाषा देते हुए कहते है, ‘सर्व-साधारण संप्रदायों को धर्म के नाम से पुकारते हैं। भारत धर्म-प्रधान देश है। चिरकाल से यहाँ धर्म का आदर होता आया है-बड़ी-से-बड़ी शक्तियाँ भी धर्म के आगे सिर झुकाती चली आई हैं। यह एक साधारण बात है कि जिस वस्तु की ज्यादा खपत होती है उसकी दुकानें भी बहुत-सी खुल जाती हैं और यह भी स्वाभाविक है कि नकली चीजें बहुत बनने लगती हैं। भारत में धर्म की भी वही दशा है। मंदिरों में, सडक़ों पर टके सेर धर्म मिलता है। घर के धनी महाशय जब भोजन नाक तक डाट चुकते हैं और थाली में जो जूठन दाल-भात बचा रहता है, तब कहा जाता है कि यह किसी भूखे को दे दो, धर्म होगा। कपड़े पहनते-पहनते जब नौकरों के भी काम के नहीं रहते तब कहा जाता है किसी नंगे को दे दो, धर्म होगा। इसी भारत के जब दिन थे और भारत में बड़प्पन था तब इसी धर्म के नाम पर राजाओं ने राज्य त्यागकर चांडाल की सेवा की थी, अपना माँस काटकर गिद्ध को खिलाया था, अपने पुत्र के सिर पर आरा चलाया था। वही महादुर्लभ और दुर्धर्ष धर्म इस कलयुग में इतना सस्ता हो गया कि जूठे टुकड़ों और फटे चिथड़ों के एवज चाहे जो उसे मोल ले सकता है। इससे अधिक उपहास और लज्जा की बात क्या होगी?

श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ‘धर्म क्या है और क्या नहीं है इस विषय में अच्छों-अच्छों की अकल चकरा जाती है।’ भूखों को अन्न, प्यासों को जल, नंगों को वस्त्र, रोगी को औषध, असहाय को सहायता देना - यह हमारे मनुष्य-योनि का साधारण कर्तव्य है, यह हम पर सामाजिक कृपा है और उसे अपनी शक्ति भर पालन करके हम किसी पर कुछ अहसान नहीं कर रहे हैं, न वह धर्म ही है।  तब धर्म क्या है? मनुस्मृति कहती है कि धैर्य, क्षमा, दया, अस्तेय, शौच, इंद्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, अक्रोध, सत्य ये दस धर्म के लक्षण हैं। मैं कहूँगा कि ये भी धर्म के लक्षण नहीं हैं। ये मनुष्यत्व के चिह्न हैं अथवा इन्हें धर्म की ओर ले जाने वाले मार्ग कह सकते हैं - यह वास्तव में धर्म की सच्ची व्याख्या नहीं हुई। धर्म किसे कह सकते हैं। ये भी सोचना चाहिए। इसका उत्तर दर्शन शास्त्रों में है। गौतम ऋषि कहते हैं - ‘यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धि: स धर्म।’ जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है। अब यह देखना है कि अभ्युदय और निश्रेयस के क्या अर्थ हैं।

ॠ (ग)

 भीष्म को क्षमा नहीं किया गया में हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं, मेरे एक मित्र हैं, बड़े विद्वान, स्पाष्टजवादी और नीतिमान। वह इस राज्य  के बहुत प्रतिष्ठित नागरिक हैं। उनसे मिलने से सदा नई स्फूर्ति मिलती है। यद्यपि वह अवस्था में मुझसे छोटे हैं, तथापि मुझे सदा सम्मान देते हैं। इस देश में यह एक अच्छी बात है कि सब प्रकार से हीन होकर भी यदि कोई उम्र में बड़ा हो, तो थोड़ा-सा आदर पा ही जाता है। मैं भी पा जाता हूँ। मेरे इस मित्र की शिकायत थी कि देश की दुर्दशा देखते हुए भी मैं कुछ कह नहीं रहा हूँ, अर्थात इस दुर्दशा के लिए जो लोग जिम्मेदार हैं उनकी भर्त्सना नहीं कर रहा हूँ। यह एक भयंकर अपराध है। कौरवों की सभा में भीष्म ने द्रौपदी का भयंकर अपमान देखकर भी जिस प्रकार मौन धारण किया था, वैसे ही कुछ मैं और मेरे जैसे कुछ अन्य साहित्यिकार चुप्पीे साधे हैं। भविष्य इसे उसी तरह क्षमा नहीं करेगा जिस प्रकार भीष्म पितामह को क्षमा नहीं किया गया। मैं थोड़ी देर तक अभिभूत होकर सुनता रहा और मन में पापबोध का भी अहसास हुआ। सोचता रहा, कुछ करना चाहिए, नहीं तो भविष्य क्षमा नहीं करेगा। वर्तमान ही कौन क्षमा कर रहा है? काफी देर तक मैं परेशान रहा-चुप रहना ठीक नहीं है, कंबख्त भविष्य कभी माफ नहीं करेगा। उसकी सीमा भी तो कोई नहीं है। पाँच हजार वर्ष बीत गए और अब तक विचारे भीष्म पितामह को क्षमा नहीं किया गया। भविष्य विकट असहिष्णुभ है। काफी देर बाद भ्रम दूर हुआ। मैं भीष्म नहीं हूँ। अगर हिंदी में लिखनेवाला कोई भीष्म हो जाता हो, तो भी मुझे कौन पूछता है? बहुत ज्ञानी गुणी भरे पड़े हैं। मुझसे अवस्था में, ज्ञान में, प्रतिभा में बहुत आगे। मुझे कोई डर नहीं है। ‘भविष्य’ नामक महादुरंत अज्ञात मुझे किसी गिनती में लेनेवाला नहीं है। डरना हो तो वे ही लोग डरें, जिनकी गिनती हो सकती है। तुम क्यों घबराते हो, मनसाराम, तुम तो न तीन में, न तेरह में। बड़ी राहत मिली इस यथार्थबोध से।

 

मगर यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि थोड़ा देर के लिए ही सही, भीष्म मुझ पर छाये रहे। प्राचीनकाल में भीष्म जैसा धर्मज्ञ और ज्ञानी खोजना कठिन है। महाभारत का शांतिपर्व इसका गवाह है। कोई समस्याम तो भले आदमी ने छोड़ी नहीं। प्राचीन काल के ज्ञानियों में भीष्म मुझे सबसे अधिक प्रभावित करते हैं, अपने अगाध इतिहासबोध के कारण। युधिष्ठिर के हर प्रश्न के उत्तर में वह प्राय: यह कहकर शुरू करते हैं - ‘अत्राप्यु दाहरन्ती मितिहासं पुरातनम। 

किस प्रकार पुराने इतिहास से वह वर्तमान समस्या के सही स्वरूप का उद्घाटन करते हैं और उसका विकासक्रम समझा देते है, वह चकित कर देता है। हर प्रश्ना के तह में जाने की उनकी पद्धति आधुनिक युग में भी उपयोगी है। ज्ञान और धर्म के सच्चे  रूप को पहचानने में उन्हें  कमाल की सफलता मिली थी। यह कहना गलत होगा कि भीष्म के प्रति भारतवर्ष ने कृतज्ञता नहीं दिखाई। आज भी श्रद्धावान लोग भीष्माष्टमी को अपनी श्रद्धा उनके प्रति निवेदन करते ही हैं, परंतु जिस समय मेरे मित्र अत्यंत प्रभावशाली शैली में भीष्मे को मेरे ऊपर आरोपित कर रहे थे, उस समय थोड़ी देर के लिए भीष्म  का आवेश सचमुच मेरे ऊपर आ गया था। प्रभावशाली भाषा में जादुई शक्ति होती है। उसी से कवि पाठक को अभिभूत करता है, वक्ताह उसी के बल पर श्रोता पर छा जाता है। मैं भी कुछ आविष्टा हुआ। भीष्म, की ही शैली में बोलने की प्रेरणा जाग्रत हुई थी... ‘‘अत्राप्यु। दाहरन्तीकमितिहासं पुरातनम’’।

एक पुराना इतिहास मुझे भी स्मरण ही आया था। वह इतिहास यह है। बात सन् 35-36 की है। उन दिनों मैं शांतिनिकेतन में था। एक दिन प्रात: भ्रमण के लिए निकला था। मैं साधारणत: प्रात: भ्रमण के लिए तभी निकलता हूँ, जब किसी ऐसे उत्साणही घुमक्केड़ से, जो श्रद्धेय कोटि के होते हैं, प्रेरणा मिलती है। उन दिनों श्रद्धेय आचार्य क्षितिमोहन सेन की प्रेरणा से प्रात: भ्रमण के लिए निकलता था। सही बात तो यह है कि निकलते वह थे, मैं पीछे हो लेता था। तो उस दिन भी मैं उनके साथ ही निकला। भाग्य उस दिन प्रसन्नप था। देखा, गुरुदेव धीरे-धीरे अपने बगीचे में टहल रहे थे। कुछ गंभीर मुद्रा में थे। आचार्य सेन ने कहा, ‘चलो प्रणाम कर लें’। वह आगे चले, मैं पीछे पीछे। धीरे-धीरे दबे पाँव हम लोग उनके पास पहुँच गए। चरण छूकर प्रणाम निवेदन किया। उनका ध्याबन भंग हुआ। देखकर प्रसन्न। हुए। उन्होंने उस दिन मुझे संबोधित करके कहा - तुमने कभी सोचा है कि भीष्म को अवतार क्यों नहीं माना गया और श्रीकृष्ण को ही क्यों  अवताररूप में सम्मान दिया गया ?

मैंने कभी ऐसा सोचा ही नहीं था। क्या जवाब देता? मैं मन ही मन अपने सोचने की शक्ति की दरिद्रता पर लज्जित हो रहा था। आचार्य सेन ने रक्षा की। गुरुदेव ने हँसते हुए कहा ‘आपने तो कुछ सोचा ही होगा। मगर मैं इस पंडित को ही छेडऩा चाहता था। अभी नौजवान है, नया खून, है, मार खाने की अभी शक्ति है, मेरी पीठ तो जर्जर हो चुकी है।’ कहकर गुरुदेव खूब प्रसन्न भाव से हँसे। मैंने विनीत भाव से कहा - ‘ऐसा प्रश्न तो मेरे मन में कभी उठा ही नहीं, परंतु आप कहते हैं तो सोचूँगा। परंतु क्यार सोचूँ, यह बता दें। गुरुदेव के शब्द याद नहीं हैं, पर उनके कथन की मेरे मन पर जो छाप रह गई है, वह यह है कि शर-शय्या पर पड़े भीष्म  ने जब भयंकर नरसंहार देखा होगा, उनके जैसे- ज्ञानी के मन में अपनी प्रतिज्ञा, उसके परवर्ती परिणाम आदि बातें क्यों उठी नहीं होंगी ? मैंने सोचना शुरू किया था। कई प्रतिभाशाली मित्रों से भी सोचने को कहा था, पर सोचता ही रह गया। जिन्होंने सोचने के लिए उकसाया था, वह चले गए। आज मेरे मित्र ने कहा कि भीष्म को क्षमा नहीं किया गया तो बात फिर उमडक़र नए रूप में मानसपटल पर हहरा उठी। लहराई तो क्या होगी।

भीष्म शर-शय्या पर सोए उपयुक्त। काल की प्रतीक्षा कर रहे थे - मरने के लिए। जैसे-तैसे, जब-तब, जहाँ-तहाँ मरना भी ठीक नहीं होता। उचित मुहूर्त् में मरना चाहिए। साधारण मनुष्य। मुहूर्त् का विचार किए बिना ही मर जाते हैं। भीष्म ऐसे नहीं थे। उन्हें  इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। जब तक उत्तम मुहूर्त न आ जाए तब तक वह मृत्यु नहीं चाहते थे। इसका फायदा उठाया युधिष्ठिर ने। सारी शंकाएँ उनसे कह डालीं और उत्तर भी वसूल कर लिए। मेरे एक आदि गुरु ने शर-शय्यावाली कहानी सुनाई थी। उनके कहने का मतलब था कि भीष्म पितामह अनेक बाणों की नोक पर सोए हुए थे। उनका तकिया भी बाणों की नोक का ही बना था। मेरा बालक मन बहुत व्याकुल हो गया था। वह हजार ब्रह्मचारी रहे हों, उन्हें बाणों की नोक तो चुभती ही होगी। बिचारे वृद्ध करवट भी नहीं बदल पाते होंगे। जब बदलते होंगे तब बाण बुरी तरह चुभ जाते होंगे। और उसी में युधिष्ठिर प्रश्नों की बौछार कर रहे होंगे। यद्यपि वह (युधिष्ठिर) तो दयालु थे, तथापि उस समय थोड़ी और दया दिखाते, तो क्या बिगड़ जाता? मैं जब उस दृश्य की कल्पना करता था, तब मुझे बड़ी पीड़ा होती थी, पर दूसरे बच्चे ब्रह्मचर्य की महिमा का अनुभव करते थे और प्रसन्न होते थे। उनकी दृष्टि में ब्रह्मचारी के लिए यह कोई कष्ट की बात ही नहीं थी। मैं भी उसकी महिमा तो समझता था, पर न जाने क्यों मेरा मन दुखी हो उठता था। बाद में मेरे एक विद्वान बुजुर्ग ने बताया कि ‘शर’ सरकंडे को कहते थे। उसी से बाण बनते थे, इसलिए ‘शर’ का अर्थ बाण हो गया। भीष्मन वस्तुत: बाणों की नोक पर नहीं, सरकंडों की चटाई पर लेटे थे। वह व्याख्या ठीक है या नहीं, पर मेरे बालक मन को इससे बड़ी राहत मिली थी। सो, भीष्मा शर-शय्या पर थे अर्थात सरकंडों की चटाई पर लेटे हुए थे। वैसे, जर्जर बृद्ध के लिए यह भी कम कठोर शय्या नहीं थी, पर चुभनेवाली नहीं होगी। समर्थ पौत्रों ने उसे कुछ तो तरीके से बनवाया ही होगा। युधिष्ठिर ने अच्छा् ही किया जो उनका मन बातचीत में उलझाए रखा, परंतु जब युधिष्ठिर और अन्य  लोग उन्हें  विश्राम करने के लिए छोडक़र चले जाते होंगे, तब एकांत में इस बूढ़े के मन में क्या चिंता रहती होगी? कुछ तो सोचते ही होंगे। श्रद्धालु लोग तो कहेंगे कि वह तुरंत ब्राह्मी स्थिति में चले जाते होंगे। भगवान श्रीकृष्ण ने तो कहा ही है कि ब्राह्मी स्थिति प्राप्त हो जाने पर कोई मोह होता ही नहीं। पर जिन्हें् श्रद्धा का इतना संबल प्राप्त नहीं है, वे क्या करें? उन्हें  लगता है कि भीष्म जैसा ज्ञानी भी कुछ सोचता जरूर होगा।


(घ)

गुरुदेव पूछते हैं कि भीष्म को अवतार क्यों नहीं माना गया, मेरे यह मित्र कहते हैं कि भीष्म को क्षमा नहीं किया गया। क्या दोनों बातों का अर्थ एक ही है ? शायद भीष्मक  को क्षमा नहीं किया गया, इसीलिए उन्हें  अवतार नहीं माना गया। कुछ बात है अवश्य। भारतवर्ष किसी बात पर मौन भी रह जाता है, तो उसका कुछ अर्थ होता है। किसी ने नहीं कहा कि भीष्म को अमुक अमुक कारणों से अवतार नहीं माना गया और श्रीकृष्ण को अमुक-अमुक कारणों से अवतार माना गया। एक को विष्णु का अवतार नहीं कहा गया, क्योंकि वह नहीं थे, एक को मान लिया गया क्योंकि वस्तुत: थे। हमारे मनीषियों ने इसी ढंग से सोचा है।

दिनकर जी महामना और उदार कवि थे। उनसे क्षमा मिल जाने की आशा से इतना तो कहा ही जा सकता है कि भीष्म  अपने बम-भोलानाथ गुरु परशुराम से अधिक संतुलित, विचारवान और ज्ञानी थे। पुराने रिकार्ड कुछ ऐसा सोचने को मजबूर करते हैं। फिर भी परशुराम को दस अवतारों में गिन लिया गया और बिचारे भीष्म को ऐसा कोई गौरव नहीं दिया गया। क्या कारण हो सकता है?

एकांत में भीष्म सरकंडों की चटाई पर लेटे-लेटे क्या अपने बारे में सोचते नहीं होंगे ? मेरा मन कहता है कि जरूर सोचते होंगे। भीष्म ने कभी बचपन में पिता की गलत आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए भीषण प्रतिज्ञा की थी - वह आजीवन विवाह नहीं करेंगे। अर्थात् इस संभावना को ही नष्ट कर देंगे कि उनके पुत्र होगा और वह या उसकी संतान कुरुवंश के सिंहासन पर दावा करेगी। प्रतिज्ञा सचमुच भीषण थी। कहते हैं कि इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही वह देवदत्त से ‘भीष्म’ बने। यद्यपि चित्रवीर्य और विचित्रवीर्य तक तो ‘कौरव रक्त रह गया था। तथापि बाद में वास्तविक कौरव रक्त समाप्त’ हो गया, केवल कानूनी कौरव वंश चलता रहा। जीवन के अंतिम दिनों में इतिहास मर्मज्ञ भीष्म को यह बात क्यार खली नहीं होगी?

भीष्म  को अगर यह बात नहीं खली तो और भी बुरा हुआ। परशुराम चाहे ज्ञान-विज्ञान की जानकारी का बोझ ढोने में भीष्म के समकक्ष न रहे हों, पर सीधी बात को सीधे समझने में निश्चय ही वह उनसे बहुत आगे थे। वह भी ब्रह्मचारी थे- बालब्रह्मचारी। पर भीष्म जब अपने निर्वीर्य भाइयों के लिए कन्याहरण कर लाए और एक कन्या को, अविवाहित रहने को बाध्य, किया, तब उन्हों्ने भीष्म के इस अशोभन कार्य को क्षमा नहीं किया। समझाने बुझाने तक ही नहीं रुके, लड़ाई भी की। पर भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के शब्दों से चिपटे ही रहे। वह भविष्य नहीं देख सके, वह लोककल्यााण को नहीं समझ सके। फलत: अपहृता अपमानित कन्या जल मरी।

नारदजी भी ब्रह्मचारी थे। उन्होंने सत्य के बारे में शब्दों पर चिपटने को नहीं, सबके हित या कल्याण को अधिक जरूरी समझा था - ‘सत्यस्य वचनं श्रेय: सत्या दपि हितं वदेत।’

भीष्म ने दूसरे पक्ष की उपेक्षा की थी। वह ‘सत्यस्यं वचनम’ को ‘हित’ से अधिक महत्व दे गए। श्रीकृष्ण ने ठीक इससे उलटा आचरण किया। प्रतिज्ञा में ‘सत्यम वचनम’ की अपेक्षा ‘हितम’ को अधिक महत्व दिया। क्याि भारतीय सामूहिक चित्त ने भी उन्हें पूर्वावतार मानकर इसी पक्ष को अपना मौन समर्थन दिया है? एक बार गलत-सही जो कह दिया, उसी से चिपट जाना ‘भीषण’ हो सकता है, हितकर नहीं। भीष्म  ने ‘भीषण’ को ही चुना था।

भीष्म और द्रोण भी, द्रोपदी का अपमान देखकर भी क्यों चुप रह गए ? द्रोण गरीब अध्यापक थे, बाल बच्चेंवाले थे। गरीब ऐसे कि गाय भी नहीं पाल सकते थे। विचारी ब्राह्मणी को चावल का पानी देकर दूध माँगनेवाले बच्चे को फुसलाना पड़ा था। उसी अवस्थार में फिर लौट जाने का साहस कम लोगों में होता है, पर भीष्म तो पितामह थे। उन्हें  बाल-बच्चे की फिक्र भी नहीं थी, भीष्म को क्यों परवा थी। एक कल्पना यह की जा सकती है कि महाभारत की कहानी जिस रूप में प्राप्त  है, वह उसका बाद का परिवर्तित रूप है। शायद पूरी कहानी जैसी थी, वैसी नहीं मिली है। लेकिन आजकल के लोगों को आप जो चाहे कह लें, पुराने इतिहासकार इतना गिरे हुए नहीं होंगे कि पूरा इतिहास ही उलट दें। सो, इस कल्पाना से भी भीष्म की चुप्पी समझ में नहीं आती। इतना सच जान पड़ता है कि भीष्म में कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णय में कहीं कोई कमजोरी थी। वह उचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पाते थे। यद्यपि वह जानते बहुत थे, तथापि कुछ निर्णय नहीं ले पाते थे। उन्हें अवतार न मानना ठीक ही हुआ। आजकल भी ऐसे विद्वान मिल जाएँगे, जो जानते बहुत हैं, करते कुछ भी नहीं। करने वाला इतिहास निर्माता होता है, सिर्फ सोचते रहने वाला इतिहास के भयंकर रथचक्र के नीचे पिस जाता है। इतिहास का रथ वह हाँकता है, जो सोचता है और सोचे को करता भी है।