Sunday, 30 June 2024

ब्रह्मसूत्र परिचय

 

ब्रह्मसूत्र

              ब्रह्मसूत्र वेदान्त दर्शन का आधारभूत ग्रन्थ है । इसके रचयिता महर्षि बादरायण हैं  । इसे वेदान्त सूत्र, उत्तर मीमांसा सूत्र, शारीरिक सूत्र और भिक्षु सूत्र आदि नामों से जाना जाता है । इस पर अनेक आचार्यों ने भाष्य भी लिखे हैं  । ब्रह्मसूत्र में उपनिषदों के दार्शनिक और अध्यात्मिक विचारों को सार रूप में  एकीकृत किया गया है  ।

 वेदान्त को तर्क पूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने के कारण इसे  न्याय प्रस्थान भी कहा जाता है  । इसमें माना गया है कि ब्रह्म एक लाक्षणिक सत्य है  । ब्रह्म को किसी मूर्त रूप में हम नहीं देख सकते हैं  । ब्रह्म को बोध कराने के लिए सूत्रकार द्वारा जिस सूत्र का निरूपण किया गया है वह ही ब्रह्मसूत्र है  । 

यहीं यह समझ लेना ठीक होगा की ‘सूत्र’ क्या है ? “थोड़े शब्दों  में असंदिग्ध बात को  जिसके अन्दर पुनुरुक्ति न हो और कोई दोष न हो ।” जब ऐसे सूत्र और वाक्यों को प्रयोग किया जाता है तो उन्हें सूत्र कहते हैं  ।

     ब्रह्मसूत्र, वेदान्त या उपनिषद को समझने के लिए हमारे पास कुछ आधार भूत स्पष्टता होनी चाहिए ।  वेद एक प्रमाण है  । उपनिषद भी एक प्रमाण है  । ऐसे प्रमाण की एक निरदृष्टि वस्तु होती है , जैसे आँख एक प्रमाण है । कान एक प्रमाण है । आँख का काम देखना है और कान का काम सुनना है  । अत: आँख का काम कान नहीं कर सकता और कान का काम आँख नहीं कर सकती ।   

श्रुति एक प्रमाण है जिसको समझने के लिए इन्द्रियां सामर्थ्य नहीं हैं  । इसमें  थोड़े से शब्दों में  परब्रह्म के स्वरुप का सांगोपांग निरूपण किया गया है, इसलिए इसका नाम ब्रह्मसूत्र है ।

 उत्तर भाग की श्रुतियों में उपासना एवं ज्ञानकाण्ड है ; इन दोनों  की मीमांसा करने वाले वेदान्त -दर्शन या ब्रह्म सूत्र को ‘उत्तर मीमांसा ‘ भी कहते हैं  । 

दर्शनों में इनका स्थान सबसे ऊँचा है ; क्योंकि इसमें जीव के परम प्राप्य एवं चरम पुरुषार्थ का प्रतिपादन किया गया  है  । प्रायः सभी सम्प्रदायों के आचार्यों नें ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे हैं  ।

ब्रह्म सूत्र में चार अध्याय हैं जिनके नाम क्रमश: समन्वय, अविरोध, साधन और फलाध्याय बताया गया है । 

प्रत्येक अध्याय के चार पाद हैं  । कुल मिलाकर इसमें 555 सूत्र हैं  । 

ब्रह्मसूत्र में शोक निवृति के लिए इन चारों अध्यायों में एकत्व की बात कही गई है । व्यास जी कहते है की सारा संसार ब्रह्ममय होने  के कारण उपनिषद में  जो विषय आए हैं, वह भी ब्रह्ममय हैं  । 

ब्रह्मसूत्र में इस बात का प्रतिपादन किया गया है की निर्गुण निराकार ब्रह्म को बिना सगुन साकार स्वरुप की कल्पना के समझा नहीं जा सकता है  ।

     

पहला समन्वय अध्याय

पहला पाद - प्रथम पाद में ब्रह्म का प्रमाणों द्वारा प्रतिपादन किया गया है । इस पाद में बताया गया है की आनंद , विज्ञान ,आकाश, प्राण ,ज्योति  तथा गायत्री नाम आदि जैसे शब्दों से श्रुति में परम ब्रह्म का ही वर्णन है । 

दूसरा पाद - इस पाद में वेदान्त वाक्यों में परम ब्रह्म का निरूपण किया गया है । 

तीसरा पाद-  तीसरे पाद में जहाँ ब्रह्म को अक्षर और ॐ से प्रतिपादित क्या गया है, वहीं ज्योति और आकाश को भी ब्रह्म का वाचक बताया गया है । 

चौथा  पाद - इस पाद में अव्यक्त शब्द पर विचार किया गया है  ।

 दूसरा अविरोध अध्याय

पहलापाद-  प्रथम पाद में ब्रह्म कारणवाद के विरुद्ध उठाई हुई शंका का समाधान किया जाता है । साथ ही जीव और उनके कर्मों की अनादि सत्ता का प्रतिपादन किया बताया गया है ।

दूसरा पाद - इस पाद में सांख्य मत प्रधान कारणवाद का खंडन किया गया है । साथ ही पंचरात्री की चर्चा भी है । 

तीसरा पाद- इस पाद में ब्रह्म और जीव की चर्चा है । 

चौथा  पाद - चौथे पाद में इन्द्रियों की उत्पत्ति पञ्चभूत से नहीं परमात्मा से होती है का प्रतिपादन किया गया है । इसी तरह प्राण की उत्पत्ति भी ब्रह्म से ही होती है बताया गया है ।

तीसरा साधन अध्याय

पहलापाद- इस पाद में जीव और आत्मा का वर्णन है

दूसरा पाद - इस पाद में स्वप्न को  माया मात्र और शुभ -अशुभ का सूचक बताया गया है  । कर्मों का फल परमात्मा ही देता है, कर्म नहीं ।

तीसरा पाद - इस पाद में  वेदान्त वर्णित समस्त ब्रह्म विद्याओं  के एकता की चर्चा है ।

चौथा  पाद - इस पाद में बताया गया है की ज्ञान से ही परम पुरुषार्थ की सिद्धि होती है ।

चौथा फलाध्याय

पहलापाद- इस पाद में ब्रह्म विद्या में निरंतर अभ्यास की आवश्यकता बताई गई है । प्रारब्ध का भोग नाश होने पर ज्ञानी को ब्रह्म की प्राप्ति होती है । 

 दूसरा पाद - इस पाद में उत्क्रमण काल में वाणी की अन्य इन्द्रियों के साथ- मन की प्राण में और प्राण की जीवात्मा में स्थिति का कथन है ।

तीसरा पाद - इस पाद में विभिन्न लोकों का प्रतिपादन है । 

चौथा  पाद  -  इस पाद में ब्रह्म लोक में पहुँचने वाले उपासकों की तीन गतियों का वर्णन है ।

ब्रह्म सूत्र जिसे वेदान्त दर्शन भी कहते हैं, इसके पहले अध्याय का पहला पाद ‘अथतो ब्रह्म जिज्ञासा’ से प्रारम्भ होता है । यह सम्पूर्ण ग्रन्थ सूत्र रूप में बद्ध है । इसके अंतिम अध्याय के अंतिम पाद का समापन ‘ अनावृति: शब्दादनावृत्ति:शब्दात’ से होती है ।

 

 

 

Friday, 28 June 2024

maadhavi माधवी महाभारत

 

 

उपन्यास कर्म से तपोवन तक की भाषा, शैली, संवाद, पात्र पर समीक्षकों ने विस्तार से चर्चा की है। उस पर मुझे कोई टिप्पणी नहीं करना है।

यहां कथा वस्तु और लेखिका के प्रश्नों पर मैं बात करूंगा, जो सामान्य पाठक के साथ साहित्यकार के लिए भी बहुत आवश्यक हैं।

यहां बता दूं भीष्म साहनी का माधवी और वीणा सिन्हा का 'पथ प्रज्ञा ' पहले से काफी चर्चा में हैं। किंतु भीष्म साहनी ने 'उपवन' के मार्मिक'  प्रसंग को नहीं छुआ तो वीणा सिन्हा ने भी भाषा की सांस्कृतिक संरचना में ठीक सर्जनात्मक उपयोग नहीं कर सकीं। माधवी पर तमिल में भी एक उपन्यास 'नित्यकन्नि' (नित्यकन्या) है।

महाभारत के उद्योग पर्व के अन्तर्गत १० उपपर्व हैं और इसमें कुल १९६ अध्याय हैं । 196 अध्यायों में से अध्याय 106 से 123 के बीच माधवी औत गालव की अंतरंगता की कथा आती है जो इस उपन्यास का आधार है ऐसा लेखिका का कथन है।


वे लिखती हैं माधवी को लिखते हुए मैं स्त्री को जी रही थी। अनदेखे पहलुओं को जी रही थी, उसके दुर्भाग्य को जी रही थी।

 लेखिका ने बताया कि कथा का सूत्र गालव की उस योजना में मिलता है जहां गालव माधवी को तीन-तीन राजाओं के पास एक एक साल के लिए रखतें हैं। अंत तक गालव और माधवी अन्तरंग हो गए और उनके शारीरिक सम्बन्ध हो गए। 

लेखिका ने ययाति के बारे में लिखा कि उन्हें श्राप था की युवा अवस्था में वे वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाए और उन्होंने पुरु से जवानी मांग ली (लेखिका को पुरु की अपने पिता के प्रति जवानी दान करने  की त्याग और दानशीलता की वृति क्यों नजर नहीं आई ? वह यह भी कैसे भूल गईं की माधवी यहाँ दायित्व निर्वहन करनेवाली, कर्तव्य परायण, त्यागी और सेवाभावी नारी है । 

 और उन्हें ययाति की पुत्री का अपने पिता की इक्षा पालन के लिए गालव के साथ जाना अन्याय लगा? 

उन्हें माधवी की यह बात तो याद है की उसे चिर कुमारी का वरदान प्राप्त है किन्तु यह विस्मरण हो गया की उसे तीन यशस्वी राजकुमार भी इस संसार को देने का वरदान प्राप्त था !) 

महाभारत की ऐसी तमाम कथाओं, घटनाओं और प्रसंगों के हर बार नए अर्थ खुलते हैं। दुर्वासा का कुंवारी कुन्ती को वरदान स्वरूप मंत्र क्यों देते हैं? औचित्य बहुत बाद में पांडु की मृत्यु के बाद समझ आता है। अम्बिका,अंबालिका से व्यास का विनियोग?

लेखिका ने यह तो कह दिया की विश्वमित्र कामांध थे और उन्होंने तप से काम को नहीं जीता किन्तु वह भूल गई की गालव उनका ही शिष्य था जो अपने गुरु की आज्ञा के लिए संसार की लोक उपेक्षा की परवाह किये बिना ८०० घोड़ों की प्राप्ति के लिए माधवी को ययाति की इस युक्ति को स्वीकार करता है ?

यद्यपि इसका एक समाधान शांति पर्व में (227/31) में मिलता है-

न विद्या न तपो दानं न मित्राणि न बांधवा।

शक्नुवन्ति परित्रातु नरं कालेन पीड़ितम्।।

काल की मार में उक्त कोई बात काम नहीं आती।

 जब उपन्यासकार वरदान और श्राप को स्वीकार करता है तब उसे दैवी विधान क्यों स्मरण नहीं रहता की युग में यह होना ही था?

     खैर, जिस महाभारत से यह कथानक उठाया गया है उसमें तो ऐसे अनेक प्रसंग बार-बार आये हैं। माना जाता है जो ज्ञान महाभारत में नहीं है, वो ज्ञान संसार में कहीं नहीं है। महाभारत में जीवन से जुड़ी कई बातें हैं जो हमें आधुनिक जीवन में भी काम आ सकती है। 

महाभारत युद्ध के बाद शांति पर्व में भीष्म ने युधिष्ठिर को जो ज्ञान दिया उसे आज भी राजनीति और सामाजिक मामलों का सबसे बेहतर ज्ञान माना जाता है । 

वस्तुत: काल कभी खण्डों में नहीं जीता वह निरंतर चलता है और उसमें पात्र आते हैं और अपनी लीला करके चले जाते हैं , इतिहास की इन्ही घटनाओं से कल्पना कर साहित्यकार साहित्य की रचना करता है ।

 किन्तु जब अतीत की घटनाओं को चक्रीय काल की निरंतरता में वर्तमान को तलाशा जाता है तब यह आवश्यक हो जाता है की उसके यथार्थ को अपने कल्पना में लेते समय तत्कालीन यथार्थ में भी कुछ कल्पना रही होगी विस्मरण नहीं किया जा सकता।

    लेखिका को ययाति पर क्रोध है की उसने अपनी पुत्री को एक जवान गालव को सौप दिया और उसकों तीन-तीन राज्यों को पुत्र देने के लिए बाध्य किया। 


और यहाँ एक विशेष बात यह है की लेखिका को यह बात तो बुरी लगी कि  ययाति अपने ख्याति के लिए अपनी पुत्री का जीवन नष्ट कर दिया और यह भी कह दिया की बेचारी माधवी को कभी न तो पुराणों में स्थान मिलेगा और न इतिहास में याद किया जाएगा। 

अब लेखिका अपने ही विचार या दृष्टिकोण पर चिंतन करें की यदि माधवी को पुराणों ने भुला दिया होता और इतिहास न स्मरण रखता तो उन्हें आप कैसे उपन्यास का केंद्र बिंदु बनाते। 

दूसरी बात आपको देह का समर्पण याद है किन्तु तीन-तीन बड़े इतिहास पुरुषों की माता होने का जो गौरव माधवी को इतिहास और महाभारत जैसे गर्न्थों में प्राप्त है, क्या वह केवल स्त्री के शोषण का विषय बन सकता है? क्या वेदव्यास जैसा ऋषि केवल काम वासना और स्वच्छंद यौनाचार को बताने के लिए उस गालव को पात्र बनाया है जो ऋषि परम्परा में आते हैं।

वस्तुत भारतीय ज्ञान परम्परा पर कलम चलाने के पहले उसके पक्ष को समझना होगा । वेदव्यास जैसा ऋषि माधवी और गालव को महाभारत में लाता ही इसलिए है की इतिहास उनका ऋणी रहे न की उनके वासना में स्वयं गोता लगाये और पाठकों के मन मस्तिष्क को भी कुंठित करे।

      लेखिका का मन इसलिए उद्वेलित है की माधवी अपनी पीड़ा का प्रतिकार क्यों नहीं कराती ? मैं पूछना चाहता हूं की क्या माधवी एक सामान्य स्त्री है ? क्या वह किसी विशिष्ट जीवन दर्शन , अप्सरा की कन्या (अप्सरा देवलोक की नृत्यांगनायें हैं। इनमें से प्रमुख हैं उर्वशी,रम्भा और मेनका आदि कुल 11 अप्सराये हैं ।) की प्रतिनिधि नहीं है ? 

शब्दों के साथ खेलना साहित्यकार का काम है किन्तु शब्द के कुल गोत्र को समझे बिना नहीं।  लेखिका ने स्वकथन में लिखा है कि विश्वमित्र गुरु ही नहीं, एक ऐसे तपस्वी थे जो काम को जीत नहीं पाए । कामंधता में ही उन्होंने अप्सरा मेनका से सम्बन्ध बनाए और माधवी को भी प्रेरित किया ! 

मैं समझता हूँ की लेखिका की यह सबसे बड़ी कमजोरी है की उन्होंने दर्शन की भूमि को अपने लौकिक चिंतन में ढालने का प्रयास किया।  

क्या लेखिका के अनुसार इस बात को माना जाये की हर्यश्च, उशीनर और दिविदास ने अपनी काम वासना के लिए माधवी का उपयोग किया या चक्रवर्ती राजाओं  का जन्म  कारण था ? क्या शिवी के हम भुला सकते हैं ।

भारत को समझाने के लिए भारत का दृष्टिकोण चाहिए । भारतीय वांग्मय में वेद,श्रुतियां , महाभारत, रामायण आदि स्वत: प्रमाण हैं। जैसे आंख स्वत: प्रमाण है, कान स्वत: प्रमाण है।आंख का काम कान नहीं कर सकता और न ही कान का काम आंख।

ययाति यदि एक पिता है तो वे एक विशिष्ट जीवन के प्रतिनिधि भी हैं।एक और हम गालव को ऋषि कहते है , ययाति को राजा कहते हैं , माधवी को वरदानी कन्या मानते हैं तो उसके बीच हमारी दैहिक पाश्यत्य विमर्श की सोच कहाँ से जागृत हो उठती है।

      भारत के जीवन दर्शन को देखेंगे तो पाएंगे की यहाँ सदा से हर व्यक्ति दो जीवन एक साथ जीते हैं एक - भौतिक जीवन , दूसरा अध्यात्मिक जीवन। भगवान् श्रीकृष्ण ने उसी महभारत के अंश श्री मद भगवद गीता में कहा है ।-

लेखिक के कुछ प्रश्न हैं - क्या तप स्वार्थ सीद्धि के लिए किया जाता है ? यदि हाँ तो सतयुग में ताप को क्यों उत्कृष्ट कहा गया है ? क्यों तपस्वियों का पेट उनके शिष्यों की भिक्षा वृति से भरा गया ? क्यों तपस्या ने काम पर विजय नहीं पाई ? 


बड़े महत्वपूर्ण प्रश्न हैं (किन्तु न समझी के )। इसके लिए मैं लेखिका से अनुरोध करूँगा की थोड़ा भारतीय ज्ञान परम्परा को अवश्य पढ़ें । 

आज योग का बड़ा नाम है । उसमें अष्टांग योग का भी । उसके दूसरे अंग नियम -  में पञ्च बातें कही गई हैं  - शौच, संतोष , तप , स्वाध्याय, और इश्वर प्रणिधान । 

तप को उसी महाभारत (गीता ) में तीन प्रकार से बताया गया है - शरीर तप, मन और वाणी का तप । 

श्रीमाद्भाग्वद गीता में तेरहवें अध्याय में सातवें से ग्यारहवें श्लोक तक जो ज्ञान के बीस साधनों का वर्णन आया है, उनमें भी शारीरिक तप के तीन लक्षण- शौच, आर्जव और अहिंसा तथा मानसिक तपके दो लक्षण- मौन और आत्मविनिग्रह आये हैं।

 ऐसे ही सोलहवें अध्याय में पहले से तीसरे श्लोक तक जो दैवी सम्पत्ति के छब्बीस लक्षण बताये गये हैं, उनमें भी शारीरिक तप के तीन लक्षण -शौच, अहिंसा और आर्जव तथा वाचिक तप के दो लक्षण- सत्य और स्वाध्याय आये हैं। 

इन्ही सब को एक साथ  17/17-18-19 में   श्रद्धया परया तप्तम् - शरीर, वाणी और मन के  तप को इस प्रकार बताया गया है-

 देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌ ।ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥

 ईश्वर, ब्राह्मण, गुरु, माता, पिता के समान पूज्यनीय व्यक्तियों का पूजन करना, आचरण की शुद्धता, मन की शुद्धता, इन्द्रियों के विषयों के प्रति अनासक्ति और मन, वाणी और शरीर से किसी को भी कष्ट न पहुँचाना, शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है। 

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌ । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्‍मयं तप उच्यते ॥-किसी को भी कष्ट न पहुँचाने वाले शब्द बोलना, सत्य वोलना, प्रिय लगने वाले हितकारी शब्द वोलना और वेद-शास्त्रों का उच्चारण द्वारा अध्यन करना, वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है। 

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ 

   तुलसी बाबा ने तो तप को सृष्टि का आधार ही बताया है तो हम अपने ऋषियों , मुनियों और महापुरुषों के जीवन के निमित्त को बिना समझे कैसे कह सकते हैं की तप निजी स्वार्थ के लिए किया जाता है ?

 यदि हम माधवी के साथ जितने भी पात्र जुड़े हैं उनके जीवन को देखें तो क्या किसी का जीवन व्यक्तिगत हित के लिए है ?

 अन्यथा यदि लोक हित न होता तो क्या ययाति जैसा पिता अपनी पुत्री को ऐसे ही गालव को समर्पित कर देता ?

 क्या कभी हमें ८०० धोड़ो के निमित्त को समझाने का प्रयास किया ? 

दूसरा सतयुग में ही नहीं हर युग में तप को उत्कृष्ट कहा गया है चाहे द्वापर हो या क्रित्युग या कलयुग ।

दुर्वाषा की तपस्या क्या क्रोध के कारण निर्मूल हो जाएगी ? परशुराम की तपस्या को फिर क्या मानेगें ? तात्पर्य यह की तप को सीमित अर्थ में देखना उचित नहीं है   

    जहाँ तक तपस्वियों के पेट भरने का प्रश्न है उसके पीछे का कारण शिष्य को समाज से जोड़ने , उसके सुख दुःख को समझने का एक मार्ग था। वह  प्रशिक्षण का एक अंग था , अन्यथा चक्रवर्ती राजा के पुत्र राम को गुरु की सेवा नहीं करनी पड़ती । 

यदि भिक्षा वृति नहीं होती तो शंकराचार्य जैसा आचार्य आप के पास नहीं होता।

 जहाँ तक तपस्या और काम का सम्बन्ध है उसे ठीक से समझाने की आवश्यकता है । काम और काम वासना में अंतर है । दूसरा निमित्त से संतानोपत्ति वासना का अंग नहीं हो सकती । 

अन्यथा जिस महाभारत की कथा को लेकर आप उपन्यास लिख रही है वह महाभारत ही नहीं होता। पंडू और कौरब ही नहीं होते, व्यास ही नहीं होते ।

 इसलिए भारतीय पौराणिक आख्यानों पर कलम चलाने के पहले अपने को तमाम वसनाओं, कुंठाओं से अपने को ऊपर रखना होगा ।

तपस्या करके ही तपस्या , आत्मसमर्पण, बलिदान की सार्थकता को समझा जा सकता है और उसके प्रश्नों के उत्तर को पाया जा सकता है ।


 हमें बुलाने और सुनने के लिए धन्यवाद।

 

Wednesday, 26 June 2024

ऊर्ध्वमूलमधः

 

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच


ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।15.1।।

।।15.1।।यहाँ पहले वैराग्य के लिये वृक्षस्वरूप की कल्पना करके संसार के स्वरूप का वर्णन करते हैं क्योंकि संसार से विरक्त हुए पुरुष को ही भगवान का तत्त्व जानने का अधिकार है, अन्य को नहीं। अतः श्रीभगवान् बोले --, ( यह संसाररूप वृक्ष ) ऊर्ध्वमूलवाला है। काल की अपेक्षा भी सूक्ष्म ? सबका कारण ? नित्य और महान् होने के कारण अव्यक्तमायाशक्तियुक्त ब्रह्म सबसे ऊँचा कहा जाता है? वही इसका मूल है? इसलिये यह संसारवृक्ष ऊपर की ओर मूलवाला है। ऊपर मूल और नीचे शाखावाला इस श्रुतिसे भी यही प्रमाणित होता है। पुराणमें भी कहा है -- अव्यक्तरूप मूल से उत्पन्न हुआ उसी के अनुग्रह से बढ़ा हुआ? बुद्धिरूप प्रधान शाखा से युक्त? बीच-बीच में इन्द्रियरूप कोटरोंवाला? महाभूतरूप शाखाप्रतिशाखाओंवाला? विषयरूप पत्तोंवाला? धर्म और अधर्मरूप सुन्दर पुष्पोंवाला तथा जिसमें सुख दुःखरूप फल लगे हुए हैं ऐसा यह सब भूतोंका आजीव्य सनातन ब्रह्मवृक्ष है। यही ब्रह्मवन है? इसी में ब्रह्म सदा रहता है।

            ऐसे इसी ब्रह्मवृक्ष का ज्ञानरूप श्रेष्ठ खड्ग द्वारा छेदन-भेदन करके और आत्मा में प्रीतिलाभ करके फिर वहाँ से नहीं लौटता इत्यादि। ऐसे ऊपर मूल और नीचे शाखावाले इस मायामय संसारवृक्ष को अर्थात् महत्तत्त्व? अहंकार? तन्मात्रादि? शाखाकी भाँति जिसके नीचे हैं? ऐसे इस नीचे की ओर शाखावाले और कल तक भी न रहनेवाले इस क्षणभङ्गुर अश्वत्थ वृक्षको अव्यय कहते हैं। यह मायामय संसार? अनादि कालसे चला आ रहा है? इसी से यह संसारवृक्ष अव्यय माना जाता है तथा यह आदि-अन्त से रहित शरीर आदि की परम्परा का आश्रय सुप्रसिद्ध है? अतः इसको अव्यय कहते हैं।

            उस संसारवृक्ष का ही यह अन्य विशेषण ( कहा जाता ) है। ऋक्, यजु और सामरूप वेद जिस संसारवृक्षके पत्तों की भाँति रक्षा करनेवाले होने से पत्ते हैं। जैसे पत्ते वृक्ष की रक्षा करनेवाले होते हैं? वैसे ही वेद धर्म-अधर्म, उनके कारण और फल को प्रकाशित करनेवाले होने से संसाररूप वृक्षकी रक्षा करनेवाले हैं। ऐसा जो यह विस्तारपूर्वक बतलाया हुआ संसारवृक्ष है, इसको जो मूल के सहित जानता है, वह वेद को जाननेवाला अर्थात् वेद के अर्थ को जाननेवाला है। क्योंकि इस मूलसहित संसारवृक्ष के अतिरिक्त अन्य जानने योग्य वस्तु अणुमात्र भी नहीं है। अर्थात जो इस प्रकार वेदार्थ को जाननेवाला है वह सर्वज्ञ है। इस प्रकार मूलसहित संसारवृक्ष के ज्ञान की स्तुति करते हैं। उसी संसारवृक्ष के अन्य अङ्गों की कल्पना कही जाती है।

             ऊर्ध्वमूलमिति। अधश्चेति। अनेन शास्त्रान्तरेषु यदुच्यते अश्वत्थः सर्वं, स एवोपासनीयः इत्यादि, तस्य भगवद्ब्रह्मोपासा तात्पर्यमित्युच्यते। मूलं प्रशान्तरूपम् (प्रशान्तं रूपम्)। तत् ऊर्ध्वं, सर्वतो हि निवृत्तस्य तदाप्तिः। छन्दांसि पर्णानि इति -- यथा वृक्षस्य मानत्वफलवत्त्वसरसतादयः (फलत्व--) पर्णैः सूच्यन्ते, एवं ब्रह्मतत्त्वस्य वेदोपलक्षितशास्त्रद्वारिका प्रतीतिरित्याख्यायते। गुणैः, सत्त्वादिभिः प्रवृद्धाः, देवादिस्थावरान्ततया। तस्य च शुभाशुभात्मकानि कर्माणि अधस्तनमूलानि ( मूलानि यस्य)।

             श्रीभगवान् बोले - ऊपर की ओर मूलवाले तथा नीचे की ओर शाखावाले जिस संसाररूप अश्वत्थवृक्ष को अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसारवृक्ष को जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाला है।

             श्री भगवान् ने कहा --(ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को) ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं; जिसके पर्ण छन्द अर्थात् वेद हैं, ऐसे (संसार वृक्ष) को जो जानता है, वह वेदवित् है।।

            ऊर्ध्वमूलं कालतः सूक्ष्मत्वात् कारणत्वात् नित्यत्वात् महत्त्वात् ऊर्ध्वम् उच्यते ब्रह्म अव्यक्तं मायाशक्तिमत्? तत् मूलं अस्येति सोऽयं संसारवृक्षः ऊर्ध्वमूलः। श्रुतेश्च -ऊर्ध्वमूलोऽर्वाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः (क..261)इति। पुराणे च- अव्यक्तमूलप्रभवस्तस्यैवानुग्रहोच्छ्रितः। बुद्धिस्कन्धमयश्चैव इन्द्रियान्तरकोटरः।।महाभूतविशाखश्च विषयैः पत्रवांस्तथा। धर्माधर्मसुपुष्पश्च सुखदुःखफलोदयः।।आजीव्यः सर्वभूतानां ब्रह्मवृक्षः सनातनः। एतद्ब्रह्मवनं चैव ब्रह्माचरति नित्यशः।।एतच्छित्त्वा च भित्त्वा च ज्ञानेन परमासिना। ततश्चात्मरतिं प्राप्य तस्मान्नावर्तते पुनः।। इत्यादि। तम् ऊर्ध्वमूलं संसारं मायामयं वृक्षम् अधःशाखं महदहंकारतन्मात्रादयः शाखा इव अस्य अधः भवन्तीति सोऽयं अधःशाखः? तम् अधःशाखम्। न श्वोऽपि स्थाता इति अश्वत्थः तं क्षणप्रध्वंसिनम् अश्वत्थं प्राहुः कथयन्ति अव्ययं संसारमायायाः अनादिकालप्रवृत्तत्वात् सोऽयं संसारवृक्षः अव्ययः? अनाद्यन्तदेहादिसंतानाश्रयः हि सुप्रसिद्धः? तम् अव्ययम्। तस्यैव संसारवृक्षस्य इदम् अन्यत् विशेषणम् -- छन्दांसि यस्य पर्णानि? छन्दांसि च्छादनात् ऋग्यजुःसामलक्षणानि यस्य संसारवृक्षस्य पर्णानीव पर्णानि। यथा वृक्षस्य परिरक्षणार्थानि पर्णानि? तथा वेदाः संसारवृक्षपरिरक्षणार्थाः? धर्माधर्मतद्धेतुफलप्रदर्शनार्थत्वात्। यथाव्याख्यातं संसारवृक्षं समूलं यः तं वेद सः वेदवित्?  वेदार्थवित् इत्यर्थः। न हि समूलात् संसारवृक्षात् अस्मात् ज्ञेयः अन्यः अणुमात्रोऽपि अवशिष्टः अस्ति इत्यतः सर्वज्ञः सर्ववेदार्थविदिति समूलसंसारवृक्षज्ञानं स्तौति।।तस्य एतस्य संसारवृक्षस्य अपरा अवयवकल्पना उच्यते --,

महर्षि पतंजलि का योग सूत्र

 

योग सूत्र: योग सूत्र महर्षि पतंजलि द्वारा रचित है । यह ग्रंथ सूत्रों के रूप में लिखा गया है । सूत्र-शैली भारत की प्राचीन दुर्लभ शैली है, जिसमें विषय को बहुत संक्षिप्त शब्दों में प्रस्तुत किया जाता है । यह चार पदों में- समाधि ,साधन, विभूति और कैवल्य में विभक्त है । इस ग्रंथ में महर्षि पतंजलि ने यथार्थ रूप में योग के आवश्यक आदर्शों और सिद्धांतों को प्रस्तुत किया है । समाधि पाद में 51, साधन पाद में 55, विभूति पद में 55 और कैवल्य पाद में 34 सूत्र हैं । कुल मिलाकर सम्पूर्ण योग सूत्र 195 सूत्रों में उपलब्ध होता है ।विषय की दृष्टि से चारों अध्यायों की विषय वस्तु को संक्षिप्त रूप से कुछ इस प्रकार समझ सकते हैं-

              (1) समाधि पाद- समाधि पाद के अन्तर्गत, समाधि से सम्बन्धित मुख्य-मुख्य विषयों को लिया गया है । इस अध्याय में सर्वप्रथम योग की परिभाषा बताई गयी है, जो कि चित्त की वृत्तियों का सभी प्रकार से निरुद्ध होने की स्थिति का नाम है । यहां पर भाष्यों के अन्तर्गत यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि यह योग समाधि है । समाधि के आगे दो भेद- सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात बताए गए हैं । दोनों ही प्रकार की समाधियों के अन्तर भेदों को भी विस्तार से बताया गया है । समाधि की स्थिति को प्राप्त करने के साधनों के विषय में भी विस्तार से चर्चा की गयी है । समाधिपाद- में यह बतलाया गया है कि योग के उद्देश्य और लक्षण क्या हैं और उसका साधन किस प्रकार होता है। (2) साधनपाद- साधनपाद में क्लेश, कर्मविपाक और कर्मफल आदि का विवेचन है। (3) विभूतिपाद-विभूतिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के अंग क्या हैं, उसका परिणाम क्या होता है और उसके द्वारा अणिमा, महिमा आदि अष्ट सिद्धियों की किस प्रकार प्राप्ति होती है। (4)  कैवल्यपाद- कैवल्यपाद में कैवल्य या मोक्ष का विवेचन किया गया है

सांख्य योग दर्शन का मत यह है कि मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं, और उसे कर्म के फलों के अनुसार जन्म लेकर आयु व्यतीत करनी पड़ती है तथा भोग भोगना पड़ता है। 

       पतंजलि ने इन सबसे बचने और मोक्ष प्राप्त करने का उपाय योग बतलाया है और कहा है कि क्रमशः योग के अंगों का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ईश्वर के संबंध में पतंजलि का मत है कि वह नित्यमुक्त, एक, अद्वितीय और तीनों कालों से अतीत है और देवताओं तथा ऋषियों आदि को उसी से ज्ञान प्राप्त होता है। योगदर्शन में संसार को दुःखमय और हेय माना गया है । पुरुष या जीवात्मा के मोक्ष के लिये वे योग को ही एकमात्र उपाय मानते हैं । पतंजलि ने चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, निरुद्ध और एकाग्र ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ मानी है, जिनका नाम उन्होंने 'चित्तभूमि' रखा है। उन्होंने कहा है कि आरंभ की तीन चित्तभूमियों में योग नहीं हो सकता, केवल अंतिम दो में हो सकता है। इन दो भूमियों में संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ये दो प्रकार के योग हो सकते हैं । जिस अवस्था में ध्येय का रूप प्रत्यक्ष रहता हो, उसे संप्रज्ञात कहते हैं । यह योग पाँच प्रकार के क्लेशों का नाश करने वाला है। असंप्रज्ञात उस अवस्था को कहते हैं, जिसमें किसी प्रकार की वृत्ति का उदय नहीं होता अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रह जाता, संस्कार मात्र बचा रहता है । यही योग की चरम भूमि मानी जाती है और इसकी सिद्धि हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है।

             योगसाधन के उपाय में यह बतलाया गया है कि पहले किसी स्थूल विषय का आधार लेकर, उसके उपरांत किसी सूक्ष्म वस्तु को लेकर और अंत में सब विषयों का परित्याग करके चलना चाहिए और अपना चित्त स्थिर करना चाहिए । चित्त की वृत्तियों को रोकने के जो उपाय बतलाए गए हैं, वह इस प्रकार हैं- अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का प्रणिधान, प्राणायाम और समाधि विषयों से विरक्ति आदि । यह भी कहा गया है कि जो लोग योग का अभ्यास करते हैं, उनमें अनेक प्रकार की विलक्षण शक्तियाँ आ जाती है, जिन्हें 'विभूति' या सिद्धि कहते हैं।  यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठों योग के अंग कहे गए हैं, और योगसिद्धि  के लिये इन आठों अंगों का साधन आवश्यक और अनिवार्य कहा गया है । इनमें से प्रत्येक के अंतर्गत कई बातें हैं । कहा गया है जो व्यक्ति योग के ये आठो अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से छूट जाता है, अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है और अंत में कैवल्य (मुक्ति) का भागी बनता है । सृष्टितत्व आदि के संबंध में योग का भी प्रायः वही मत है जो सांख्य का है, इससे सांख्य को 'ज्ञानयोग' और योग को 'कर्मयोग' भी कहते हैं ।

सद्साहित्य - स्मरणीय

  

  सद्साहित्य - स्मरणीय

ॐ सच्चिदानन्दरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने
       ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमाङ्गल्यमूर्तये || ||

प्रकृतिः पञ्चभूतानि ग्रहा लोकाः स्वरास्तथा
   दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वन्तु मङ्गलम्।। २।।

रत्नाकराधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम्
      ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ्यां वन्दे भारतमातरम् || 3 ||

महेन्द्रो मलयः सह्यो देवतात्मा हिमालयः
        ध्येयो रैवतको विन्ध्यो गिरिश्चारावलिस्तथा || ||


गङ्गा सरस्वती सिन्धुर्ब्रह्मपुत्रश्च गण्डकी
       कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोदा महानदी || ||

अयोध्या मथुरा माया काशीकाञ्ची अवन्तिका
  वैशाली द्वारिका ध्येया पुरी तक्षशिला गया || ||

प्रयागः पाटलीपुत्रं विजयानगरं महत्
        इन्द्रप्रस्थं सोमनाथः तथाSमृतसरः प्रियम् || ||

चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा
     रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ॥८॥

जैनागमास्त्रिपिटकाः गुरुग्रन्थः सतां गिरः
    एषः ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा ॥९॥

अरुन्धत्यनसूया च सावित्री जानकी सती
     द्रौपदी कण्णगी गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ॥१०॥

लक्ष्मीरहल्या चन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा
   निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवताः ॥११॥

श्रीरामो भरतः कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुनः
     मार्कण्डेयो हरिश्चन्द्र: प्रह्लादो नारदो ध्रुवः ॥१२॥

 हनुमान्‌ जनको व्यासो वसिष्ठश्च शुको बलिः
        दधीचिविश्वकर्माणौ पृथुवाल्मीकिभार्गवाः ॥१३॥

भगीरथश्चैकलव्यो मनुर्धन्वन्तरिस्तथा
       शिविश्च रन्तिदेवश्च पुराणोद्गीतकीर्तय: ॥१४॥

बुद्धा जिनेन्द्रा गोरक्षः पाणिनिश्च पतञ्जलिः
        शङ्करो मध्वनिंबार्कौ श्रीरामानुजवल्लभौ ॥१५॥

झूलेलालोSथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा
      नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ॥१६॥

देवलो रविदासश्च कबीरो गुरुनानकः
         नरसिस्तुलसीदासो दशमेशो दृढव्रतः ॥१७॥

श्रीमत् शङ्करदेवश्च बन्धू सायणमाधवौ
     ज्ञानेश्वरस्तुकारामो रामदासः पुरन्दरः ॥१८॥

बिरसा सहजानन्दो रामानन्दस्तथा महान्‌
वितरन्तु सदैवैते दैवीं सद्गुणसंपदम्‌ ॥१९॥

भरतर्षिः कालिदासः श्रीभोजो जकणस्तथा
       सूरदासस्त्यागराजो रसखानश्च सत्कविः ॥२०॥

रविवर्मा भातखण्डे भाग्यचन्द्रः स भूपतिः
       कलावंतश्च विख्याताः स्मरणीया निरन्तरम्‌॥२१॥

अगस्त्यः कंबुकौण्डिन्यौ राजेन्द्रश्चोलवंशजः
      अशोकः पुश्यमित्रश्च खारवेलः सुनीतिमान्‌ ॥२२॥

चाणक्यचन्द्रगुप्तौ च विक्रमः शालिवाहनः
    समुद्रगुप्तः श्रीहर्षः शैलेन्द्रो बप्परावलः ॥२३॥

लाचिद्भास्करवर्मा च यशोधर्मा च हूणजित्‌
  श्रीकृष्णदेवरायश्च ललितादित्य उद्बलः ॥२४॥

मुसुनूरिनायकौ तौ प्रतापः शिवभूपतिः
          रणजित सिंह इत्येते वीरा विख्यातविक्रमाः ॥२५॥

वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः सुश्रुतस्तथा
       चरको भास्कराचार्यो वराहमिहिरः सुधीः ॥२६॥

नागार्जुनो भरद्वाजः आर्यभट्टो वसुर्बुधः
       ध्येयो वेंकटरामश्च विज्ञा रामानुजादयः ॥२७॥

रामकृष्णो दयानन्दो रवीन्द्रो राममोहनः
        रामतीर्थोऽरविंदश्च विवेकानन्द उद्यशाः ॥२८॥

दादाभाई गोपबन्धुः तिलको गान्धिरादृताः
   रमणो मालवीयश्च श्रीसुब्रह्मण्यभारती ॥२९॥

सुभाषः प्रणवानन्दः क्रान्तिवीरो विनायकः
     ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणो गुरुः जे ॥३०॥

Monday, 24 June 2024

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य में अस्त्मिता मूलक विमर्श

 

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य में अस्त्मिता मूलक विमर्श

1- स्वातंत्र्योत्तर भारतीय साहित्य पर आधुनिकतावाद, हिंदुत्ववाद, गांधीवाद, मार्क्सवाद और आम्बेडकरवाद का प्रभाव हैं।

2-  विशेषकर आम्बेडकरवाद ने भारतीय साहित्य का भूगोल बदल दिया और यह साहित्य लोककेन्द्री बन रहा है । 

3- स्वातंत्र्योत्तर भारतीय साहित्य का स्वर बहुस्वरान्वेषी है।

4-अस्मिता-अहंभाव, अपनी सत्ता का भाव, अहंकार, अभिमान। 

5- राष्ट्रीय अस्मिता का अर्थ है उन लक्षणों और विशेषताओं का पहचान, जिनसे राष्ट्र का अपना एक स्वरुप बनता है, विश्व में उसकी अपनी अलग पहचान बनती है, वह एक स्वतंत्र, प्रभुत्व संपन्न राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित होता है। इस पहचान से ही हमारे मन में राष्ट्र के प्रति अपनत्व, प्रेम, निष्ठा और समर्पण की भावना पैदा होती है।

6- भारत और राष्ट्रीय अस्मिता - में राष्ट्रवाद, देशप्रेम, उदारवाद, लोकतन्त्र और मानवतावाद जैसे ऐतिहासिक और समकालीन विषयों के विस्तृत विश्लेषण के साथ आरम्भ होती है। 

7- इसी परिप्रेक्ष्य में गाँधी, नेहरू, टैगोर, अम्बेडकर, पटेल, आज़ाद आदि जैसे भारत के अग्रणी नेताओं के सजग विचारों की व्याख्या सामने आती है

8- किन्तु दुर्भाग्यवश आज इन महान विचारों की मुठभेड़ हिन्दुत्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले सिद्धान्तकारों और टुकड़े टुकड़े गैंग से है।

9- वर्तमान सत्ता शीर्ष पर आसीन (मोदी जी के नेतृत्व वाली सरकार) और 'जाति, सम्प्रदाय, घुसपैठियों से पोषित दलों के  बीच संघर्ष है।

10- आज का संघर्ष भारत के इन दो परस्पर विरोधी विचारों के बीच का द्वन्द्व है जिसे धार्मिक -सांस्कृतिक राष्ट्रीयता वनाम जातीय , क्षेत्रीय परिवार वादी राष्ट्रवाद के द्वन्द्व के नाम से व्याख्यायित करना अधिक उपयुक्त होगा।

 11- आज का यह विमर्श इसलिए भी और भी प्रासंगिक है की भारत की आत्मा की लड़ाई पहले की तुलना में  अधिक कठिन  हो गयी है, और स्वतन्त्रता के बाद के वर्षों में भारत ने बहुलतावाद, पंथ निर्पेक्षता वाद और सर्रावसमावेशी  राष्ट्रीयता के जो विलक्षण विचार अर्जित किये थे, उन्हें स्थायी रूप से क्षति पहुँचाने के संकट निरन्तर मँडरा रहे हैं। 

12- आज एक विचार धारा निरंतर यह दुष्प्रचार कर रहा है की कुछ व्यक्ति और संताए संविधान पर आधिपत्य जमाना  चाहते हैं ।

13- प्रोपोगंडा यह कि स्वायत्तशासी संस्थाओं की स्वतन्त्रता को सायास समाप्त किया जा रहा है, मिथकीय इतिहास का निर्माण और प्रचार जारी है, विश्वविद्यालयों को शिकार बनाया जा रहा है।

14-  और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि अल्पसंख्यकों के विरुद्ध प्रताड़ना और हिंसा की घटनाएँ लगातार घट रही हैं। 

15- समय व्यतीत होने के साथ-साथ भारतीय विचारों पर लगातार हमले हो रहे हैं, जिन विचारों के कारण दुनिया भर में भारत की प्रशंसा की जाती थी उस वसुधैव कुटुम्बकम को टुकड़ों में बांटा जा रहा है ।

16- स्वेच्छाचारी लेखक ,नेतागण और उनके कट्टरवादी समर्थक देश को संकीर्णता और असहिष्णुता के घटाटोप की ओर ले जा रहे हैं।  

17- अत: आवश्यक है की तर्कसम्मत और प्रांजल भाषा में लिखे गए स्वतान्त्योत्तर साहित्य को सामने लाया जाये और  अस्मिता के इस संघर्ष में विजय प्राप्त करने के लिए क्या-क्या उपाय हो  सकते हैं ताकि उन सभी चीज़ों को और अधिक सुदृढ़ बनाया जा सके जो भारत के सन्दर्भ में अतुल्य और अमूल्य हैं।  

18- भारतीयता के अर्थ को स्थापित करने के लिए जहाँ अतीत के स्वर्णिम पृष्ट को सामने रखाना होगा वही इक्कीसवीं शताब्दी में एक देशप्रेमी और राष्ट्रीय भारतीय होने के साहित्य के मायाने तलाशने होंगे ।

19- राष्ट्रीय विचार, राष्ट्रीय अस्मिता पर ही आघात करने वाले, उसके बारे में सम्भ्रम निर्माण करने वाले, इस अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को नकारने वाले तत्व शक्तियां सक्रिय हो गई थीं। इसलिए फिर राष्ट्रीय शक्तियों को राष्ट्र की पहचान को नकारने वाले, उसकी नकारात्मक प्रस्तुति, प्रतिपादन और प्रचार करने वालों के विरुद्ध युद्ध, धर्मयुद्ध छेड़ना आवश्यक हो गया। 

20- अस्मिता का अर्थ है- पहचान तथा भाषाई अस्मिता से तात्पर्य है- भाषा बोलने वालों की अपनी पहचान।

21- ‘अस्मिताशब्द के संदर्भ में डॉ. नामवर सिंह ने कहा है कि- हिंदी में अस्मिताशब्द पहले नहीं था। 1947 से पहले की किताबों में मुझे तो नहीं मिला और संस्कृत में भी अस्मिता का यह अर्थ नहीं है।अहंकारके अर्थ में आता है, जिसे दोष माना जाता है।

22-  हिंदी में आईडेंटिटीका अनुवाद अस्मिताकिया गया और हिंदी में जहाँ तक मेरी जानकारी है, पहली बार अज्ञेय ने आईडेंटिटीके लिए अनुवाद अस्मिताशब्द का प्रयोग हिंदी में कियाहै।” 

23- संसार में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजी विशेषताएँ होती है। भाषा उनमें से एक है। यह प्रमाणित हो चुका है कि प्रत्येक व्यक्ति की भाषा दूसरे से अलग होती है। एक ही भाषा का प्रयोग करने वाले लोगों में उच्चारण, शब्द चयन एवं शैली के स्तर पर भेद पाए जाते हैं। 

23- हिंदी में कविता के संदर्भ में जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’, तथा अज्ञेयआदि की भाषा एक-दूसरे से भिन्न दिखाई पड़ती है। 

24- इसी प्रकार किसी वर्ग विशेष, समाज विशेष एवं राष्ट्र विशेष के लोगों की भाषा भी दूसरे से भिन्न होती है। अतः कह सकते हैं कि किसी वर्ग, समाज एवं राष्ट्र आदि की अस्मिता उसकी भाषा में भी प्रतिबिंबित होती है। 

25- अस्मिता को प्रकट करने वाली भाषा को हम मनोवैज्ञानिक, भौगोलिक, सामाजिक, राष्ट्रीय तथा जातीय आदि कई आधार पर देख सकते हैं।

26- मनोवैज्ञानिक अस्मिता का संबंध भाषा से होता है। भाषा के द्वारा व्यक्ति की मनःस्थिति का पता लगाया जा सकता है। व्यक्ति के विचारों को जानने का प्रमुख साधन भाषा ही होता है। किसी बालक, युवक तथा बुजुर्ग की भाषा में अंतर होता है। भाषा के द्वारा उनकी सोच एवं अनुभव आदि का परिचय हमें सहज रूप में मिल जाता है। 

27- भाषा के द्वारा हम यह भी जान सकते हैं कि कोई व्यक्ति अंतर्मुखी है अथवा बहिर्मुखी है। अंतर्मुखी व्यक्ति अक्सर मित्भाषी तथा बहिर्मुखी व्यक्ति वाचाल होते हैं। 

28- भौगोलिक अस्मिता का परिचय भी भाषा के माध्यम से मिलता है। विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों की भाषा में अंतर देखा जा सकता है। इन क्षेत्रों में प्रयुक्त शब्दावली भी अलग-अलग होती है। 

29- कृषि प्रधान देश अथवा क्षेत्र में कृषि से संबंधित शब्दों की अधिकता होती है। यदि किसी भौगोलिक क्षेत्र में कोई वस्तु अधिक पाई जाती है, तो वहाँ उस वस्तु के सूक्ष्म से सूक्ष्म भेद के लिए भी अलग-अलग शब्द होते हैं। 

30-हिंदी में पानी के ठोस रूप के लिए केवल बर्फशब्द का प्रयोग होता है, वहीं अंग्रेजी में आइस’(ice) तथा स्नो’(snow) दो शब्दों का प्रयोग होता है। 

31- एस्कीमों के यहाँ बर्फ के विभिन्न प्रकार एवं स्थितियों को बताने वाले कई शब्दों का प्रचलन है। एस्किमों बर्फ पर रहते हैं। बर्फ के विभिन्न छवियों से परिचित होना उनके लिए ज़रूरी भी है। पीटर ट्रुटगिल के अनुसार – “यह एस्किमों के लिए आवश्यक है कि उनमें विभिन्न प्रकार के बर्फ के बीच निपुणतापूर्वक अंतर करने की योग्यता हो।” 

32- किसी व्यक्ति से बातचीत करके भी हमें उसके भौगोलिक क्षेत्र अर्थात् निवास स्थान का पता चल जाता है। हिंदी भाषा में ही कई बोलियाँ आती है। जब कोई व्यक्ति मानक हिंदी में बात करता है, तो उसमें उसके क्षेत्र की बोली का थोड़ा प्रभाव आ ही जाता है। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर तथा आगरा क्षेत्र (जिला) में रहने वाले दो लोगों की हिंदी के बीच फर्क होता है। यह फर्क उनकी बातचीत में देखा जा सकता है। 

33- पीटर ट्रुटगिल ने यह स्थापना दी है कि-हमारे उच्चारण एवं बातचीत के द्वारा यह सामान्य रूप से पता चल जाता है कि हम किस देश से आए हैं।

34- धर्म एवं जाति के आधार पर बनी अस्मिता भी महत्वपूर्ण होती है तथा इसका भाषा से गहरा जुड़ाव होता है। भारत में रहने वाले हिंदू-मुस्लिम एवं ईसाइयों की भाषा का अध्ययन करने पर हम देख सकते हैं कि हिंदी बोलते हुए हिंदुओं का झुकाव संस्कृत के प्रति, मुसलमानों का अरबी-फारसी के प्रति तथा ईसाइयों का अंग्रेज़ी के प्रति होता है। 

35- धर्म एवं जातिगत पहचान बनाए रखने के लिए ही कनाडा में रहने वाला हिंदू परिवार विवाह के समय संस्कृत में मंत्रों का उच्चारण करवाता है। इसके बावजूद भी भाषा का धर्म से संबंध इतना सीधा और सरल नहीं है। भाषा को किसी धर्म विशेष से जोड़कर हमेशा नहीं देखा जा सकता।

36-  बंग्लादेश में इस्लाम को मानने वाले बहुसंख्यक लोगों ने अरबी-फारसी अथवा उर्दू के स्थान पर बँगला भाषा को स्वीकार कर भाषा और धर्म के गहरे संबंध के मिथ को भी एक प्रकार से तोड़ा है। 

36- आज दुनिया में कई ऐसे इस्लामिक देश हैं जो भाषा की दृष्टि से अलग-अलग हैं,जैसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक, तुर्की आदि।

37- सामाजिक अस्मिता का भाषा से गहरा संबंध होता है। दो अलग-अलग समाज के मध्य हम भाषा के आधर पर भी अंतर देख सकते हैं। यहाँ तक की एक भाषा समाज में भी विभिन्न वर्गों की अस्मिता भाषा के द्वारा व्यक्त हो जाती है। 

38- विभिन्न वर्ग अपनी विशिष्ट भाषिक क्षमता, शब्दावली एवं भाषा-शैली के माध्यम से स्वयं की अस्मिता को उजागर कर देते हैं। उदाहरणस्वरूप समाज में निम्न एवं उच्च वर्ग की भाषा, शिक्षित एवं अशिक्षित वर्ग की भाषा, शहरी एंव ग्रामीण वर्ग की भाषा,अधिकारी एंव अधीनस्थ वर्ग की भाषा आदि को हम देख सकते हैं। 

39- यहाँ तक की स्त्री और पुरुष वर्ग की भाषा का भी इस दृष्टि से अध्ययन किया जा सकता है।प्रसिद्ध भाषाविद् लेकऑफ (lackoff) का यह मानना है कि स्त्रियों का शब्द चयन भी पुरुषों से भिन्न होता है। उनके अनुसार आकर्षक,मोहक,दैवीय, प्यारा,मधुर जैसे विशेषण साधारणतः केवल स्त्रियों द्वारा प्रयोग में लाई जाती है।

40-  इसके अतिरिक्त पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की भाषा अधिक विनम्र एवं मानक होती है तथा वे वर्जित एवं अश्लील शब्दों का भी कम प्रयोग करती हैं।

41- भारत के संदर्भ में सामाजिक अस्मिता का भाषा से गहरे संबंध का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ राज्यों का गठन भाषा को आधार बनाकर किया गया है। 

42- रामविलास शर्मा तथा रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव जैसे भाषाविद् एवं आलोचक भाषा के आधार पर ही उत्तर भारत की जनता को एक सूत्र में बाँधने की वकालत करते हुए हिंदी जाति तथा हिंदी भाषाई समाज की बात करते हैं। 

43- भाषा को अस्मिता का सवाल बनाकर ही 1960 ई. में महाराष्ट्र को दो उपखण्डों महाराष्ट्र तथा गुजरात में विभक्त किया गया था। पंजाब से हरियाणा को अलग करने के पीछे भी भाषा एक प्रमुख कारण थी। आज पश्चिम बंगाल से गोरखालैंड को अलग करने के लिए जो आंदोलन चलाए जा रहे हैं, उसमें भाषा को एक प्रमुख हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। 

44- राज्यों के टूटने से समाज एवं राष्ट्र का भला होता है अथवा नहीं, यह एक अलग बहस का मुद्दा है, किंतु इस बात से हम इनकार नहीं कर सकते हैं कि राज्य के बँटवारे में भाषा एक प्रमुख कारक तत्त्व होता है। अतः देश में राज्यों के पुनर्गठन के पीछे भौगोलिक, राजनीतिक तथा आर्थिक कारणों से परे भाषा को आधार बनाकर निर्णय लेना वस्तुतः भाषा से जुड़ी अस्मिता के महत्व को ही दर्शाता है। 

45- इससे यह तथ्य भी सामने आता है कि किसी समाज विशेष के सदस्यों को जोड़कर रखने में भी भाषा की प्रमुख भूमिका होती है। ठीक इसी प्रकार एक समुदाय का दूसरे समुदाय से अलगाव का प्रमुख कारण भी भाषा ही होती है।

46-भाषाई अस्मिता के आधार पर हम राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा में भी अंतर देख सकते हैं। राजभाषा वस्तुतः प्रशासनिक प्रयोजन एवं आर्थिक विकास के लिए एक प्रकार से जनता पर थोपी गई भाषा होती है, वहीं राष्ट्रभाषा का संबंध् सामाजिक अस्मिता की भाषा से है। यह किसी देश की अपनी भाषा होती है। लोगों का अपने राष्ट्रभाषा के प्रति भावात्मक रूप से जुड़ाव होता है। यह देश की एकता को एक मजबूत आधर प्रदान करता है। किसी भी देश के लोगों की पहचान उस देश की राष्ट्रभाषा से होती है, न कि राजभाषा से। भारत में हिंदी एवं अंग्रेजी भाषा को इस संदर्भ में देखा जा सकता है।

47- भारत में विभिन्न राज्यों का गठन भाषा के आधार पर हुआ है। इसके बावजूद भी यहाँ भाषाओं के आधार पर बनी अस्मिता विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक प्रयोजनों के कारण सोपानिक ढंग से स्तरीकृत है। अतः एक राज्य का व्यक्ति केवल एक भाषा का ही प्रयोग नहीं करता। स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में वह बोली, भाषा तथा अंतर्राष्ट्रीय भाषा का प्रयोग करता है। 

48- रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव के अनुसार- अगर भाषाएँ, सामाजिक अस्मिता के निर्माण के साधन और उसके बनने के सूचक के रूप में काम करती हैं, तो हमारी भाषा संबंधी सामाजिक अस्मिता भी स्तरीकृत होगी। 

49- इस संदर्भ में हम यह कह सकते हैं कि हिंदी भाषी एक स्तर पर अपनी बोलियों से जुड़ा है और दूसरे स्तर पर अपनी भाषा हिंदी से भी।

50- इसी प्रकार अहिंदी भाषी एक स्तर पर अपनी जनपदीय भाषा से और अखिल भारतीय संदर्भ में हिंदी और अंग्रेजी से जुड़ा है। एक बँगाली व्यक्ति स्थानीय स्तर पर बँगला का, राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क के लिए हिंदी का तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी का प्रयोग करता है। अतः संभव है कि यहाँ दो स्तरों पर टकराव की स्थिति पैदा हो जाए। दक्षिण भारत के लोगों द्वारा राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार न करने के पीछे का कारण दो स्तरों के बीच भाषा का तनाव ही है।

51- जातीय पुनर्गठन की प्रक्रिया सामाजिक होती है। जहाँ कोई बोली सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक कारणों से अधिक महत्त्व प्राप्त कर लेती है तथा आगे चलकर सामाजिक अस्मिता का आधर बन जाती है। आज भाषा के रूप में खड़ी बोली हिंदी विभिन्न बोलियों के मध्य संपर्क भाषा का काम कर रही है तथा अन्य जनपदीय भाषाएँ ब्रज, अवधी, भोजपुरी और मगही आदि उसकी बोलियाँ कहलाती है। अन्यथा हम जानते है की भोजपुरी और मगही अर्धमागधी अपभ्रंश से उत्पन्न है।

52-  ग्रियर्सन इसे हिंदी की बोली मानते ही नहीं है। रूपात्मक (व्याकरणिक) दृष्टि से भोजपुरी हिंदी से अलग ठहरती है। वास्तव में भोजपुरी को हिंदी की बोली स्वीकारने के पीछे समान सामाजिक चेतना और संस्कृति के आधार पर बनी जातीय अस्मिता है। इसी प्रकार हिंदी एवं उर्दू का जो सवाल है, वह वास्तव में दो भाषाओं की संरचनागत भेद या समानता का सवाल नहीं है। वह भाषाई अस्मिता का सवाल है। एक समुदाय विशेष उर्दू भाषा में अपनी पहचान पाता है। यह भाषा उसे अपने होने का एहसास दिलाती है।

53- अतः किसी व्यक्ति, वर्ग, समाज और राष्ट्र की अस्मिता उसकी भाषा से भी व्यक्त होती है। भाषाई अस्मिता किसी देश की एकता में अपनी प्रमुख भूमिका निभाती है। राष्ट्र की सर्वाधिक सशक्त पहचान उसकी भाषा होती है। भाषा से जुड़ी सांस्कृतिक परंपरा किसी भी राष्ट्र की ताकत होती है, जो राष्ट्र निर्माण के कार्य में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

54- उपर्युक्त विवेचन के आधर पर कहा जा सकता है कि भाषा अस्मिता से अभिन्न रूप से जुड़ी होती है। भाषा का इस दृष्टि से अध्ययन एक ओर जहाँ भाषा का समाज से संबंध एंव भाषा के व्यावहारिक महत्व को रेखांकित करता है, वही दूसरी ओर भाषा को देखने-समझने का एक नया आयाम भी प्रस्तुत करता है।

55-जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढक़र है। फिर अपनी मातृभूमि से प्रेम क्यों नहीं ? अपनी मातृभूमि की अस्मिता से संबद्ध प्रतीक चिन्हों से घृणा क्यों? प्रश्न अनेक हैं परंतु उत्तर कोई नहीं। 

56- प्रश्न है राष्ट्रगीत वंदे मातरम का। क्यों कुछ लोग इसका इतना विरोध करते हैं कि वे यह भी भूल जाते हैं कि वे जिस भूमि पर रहते हैं, जिस राष्ट्र में निवास करते हैं, यह उसी राष्ट्र का गीत है, उस राष्ट्र की महिमा का गीत है?

57- वंदे मातरम को लेकर प्रारंभ से ही विवाद होते रहे हैं परंतु इसकी लोकप्रियता में दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती चली गई। 2००3 में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार वंदे मातरम विश्व का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है। इस सर्वेक्षण विश्व के लगभग सात हजार गीतों को चुना गया था। बीबीसी के अनुसार 155 देशों और द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया था।

58- उल्लेखनीय है कि विगत दिनों कर्नाटक विधानसभा के इतिहास में पहली बार शीतकालीन सत्र की कार्यवाही राष्ट्रगीत वंदे मातरम के साथ शुरू हुई। अधिकारियों के अनुसार कई विधानसभा सदस्यों के सुझावों के बाद यह निर्णय लिया गया था। विधानसभा अध्यक्ष कागोदू थिमप्पा ने कहा था कि लोकसभा और राज्यसभा में वंदे मातरम गाया जाता है और सदस्य बसवराज रायारेड्डी ने इस मुद्दे पर एक प्रस्ताव दिया था जिसे आम-सहमति से स्वीकार कर लिया गया।

59- वंदे मातरम भारत का राष्ट्रीय गीत है। वंदे मातरम बहुत लंबी रचना है जिसमें मां दुर्गा की शक्ति की महिमा का वर्णन किया गया है। भारत में पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है। इसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा देकर इसकी धुन और गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है जो 52 सेकेंड है।

60- 7 सितंबर, 2००6 को इस समारोह के समापन के अवसर पर मानव संसाधन मंत्रलय ने इस गीत को स्कूलों में गाये जाने पर विशेष बल दिया था। इसके बाद देशभर में वंदे मातरम का विरोध प्रारंभ हो गया। परिणामस्वरूप तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह को संसद में यह वक्तव्य देना पड़ा कि वंदे मातरम गाना अनिवार्य नहीं है। यह व्यक्ति की स्वेच्छा पर निर्भर करता है कि वह वंदे मातरम गाये अथवा न गाये। 

61- इस तरह कुछ दिन के लिए यह मामला थमा अवश्य परंतु वंदे मातरम के गायन को लेकर उठा विवाद अब तक समाप्त नहीं हुआ है। जब भी वंदे मातरम के गायन की बात आती है, तभी इसके विरोध में स्वर सुनाई देने लगते हैं। इस गीत के पहले दो पदों में कोई भी मुस्लिम विरोधी बात नहीं है और न ही किसी देवी या दुर्गा की आराधना है। इसके बाद भी कुछ मुसलमानों का कहना है कि इस गीत में दुर्गा की वंदना की गई है जबकि इस्लाम में किसी व्यक्ति या वस्तु की पूजा करने की मनाही है।

62-  इसके अतिरिक्त यह गीत ऐसे उपन्यास से लिया गया है, जो मुस्लिम विरोधी है। गीत के पहले दो पदों में मातृभूमि की सुंदरता का वर्णन किया गया है। इसके बाद के दो पदों में मां दुर्गा की आराधना है लेकिन इसे कोई महत्त्व नहीं दिया गया है।

63- साहित्य 'सुरसरि सम सबकर हित होई' की बात करता है और राजनीति भी जनहित की बात। जन-मन की आवाज हुए बिना साहित्य सार्थक नहीं होता, जनपक्षधरता के कारण ही साहित्य बहुधा विपक्ष बना रहता है। साहित्य का परिवर्तनकारी स्वभाव समाजवाद के सैद्घान्तिक रूप से मेल खाता है, क्योंकि भारतीय साहित्य की एक बड़ी विशेषता जनपक्षधरता भी है। सामाजिक वर्ग भेद और उसके बीच सामंजस्य भी नई बात नहीं।

 64- भारत की स्वाधीनता के 75 वर्ष की यात्रा और राष्ट्रीय विचारों की  वह यात्रा है जो अनेक प्रकार से , अनेक कोनों से अपने ही लोगो द्वारा  रोकी जाती रही है । स्वाधीनता से शुरू हुई साहित्य की यात्रा सही अर्थ में स्व-तंत्रता से सुराज तक पहुंचानी है तो उस स्वके उद्घोष का स्वर वैचारिक  रूप से प्रखर करना होगा ।

65- द्वितीय महायुद्ध 1945 में समाप्त हुआ। तब इंग्लैण्ड, जर्मनी और जापान इन देशों की बहुत हानि हो चुकी थी। उन्होंने अपने देश को फिर से खड़ा करने की शुरुआत की। 

66- 1948 में इज्राएल ने एक अर्थ में शून्य से शुरुआत की थी। भारत 1947 में स्वाधीन हुआ। इंग्लैण्ड, जर्मनी या जापान जैसी हानि भारत की नहीं हुई थी। नैसर्गिक संसाधन, प्रतिभा, जनसंख्या, प्रदीर्घ इतिहास, जीवन का परिपूर्ण चिंतन, अनुभव इन सभी दृष्टि से भारत इन चारों देशों से बहुत आगे था, समृद्ध था। 

67- फिर भी इन चारों देशों ने जीवन के अनेक क्षेत्रों में जितनी प्रगति की है, उतनी भारत नहीं कर सका है। इसका एकमात्र कारण यह है कि जब तक लोकके नाते हम कौन हैं, यह हम तय नहीं करते, तब तक राष्ट्र के नाते हमारी प्राथमिकताएं हम तय नहीं कर सकते। 

68- और उपरिल्लेखित इंग्लंड, जर्मनी, जापान और इज्राएल, इन चारों देशों के लोगों में राष्ट्रके नाते हमकौन हैं, हमारे पुरखे कौन थे, हमारा इतिहास क्या है, भूतकाल में हमारी गलतियां, उपलब्धि क्या रही है, इस के बारे में वे सब सहमत थे।

69- केवल भारत ही ऐसा एक देश है जिसके लोगों में हम कौन हैं, हमारा इतिहास क्या रहा है, हमारी उपलब्धि, विशेषताएं क्या रहीं, इस के बारे में हम सहमत नहीं हैं। 

70- इसी कारण स्वाधीनता के बाद हमारी विदेश नीति, रक्षा नीति, शिक्षा नीति और अर्थनीति अपने स्वके प्रकाश में ना रहकर दूसरे, पश्चिम के अननुभवी या कम अनुभवी विचार या देशों के आधार पर तय होती गई। और, भारत की धन, बुद्धि, संसाधन, सम्पदा का अपव्यय ही होता चला गया।

 71- अब सोमनाथ मंदिर के निर्माण की ही बात लेते हैं। जूनागढ़ रियासत के भारत में विलीनीकरण की प्रक्रिया पूर्ण कर (1948) स्वाधीन भारत के प्रथम गृह मंत्री सोमनाथ गए। 

72- प्रसिद्ध, ऐतिहासिक द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से प्रमुख, लाखों भारतीयों की आस्था का केंद्र, ऐसे सोमनाथ मंदिर के भग्नावशेष देख कर उनका मन पीड़ित हुआ और उस मंदिर का जीर्णोद्धार करने का संकल्प उनके मन में जगा। 

73- भारत की दो भिन्न अवधारणाओं के बीच का अंतर। इसी कारण भारत की स्वाधीनता के पश्चात की यात्रा भारत के स्वके प्रकाश में शुरू न होकर पश्चिम के विचारों के प्रभाव में शुरू हुई।

  74- राष्ट्रीय विचार, राष्ट्रीय अस्मिता पर ही आघात करने वाले, उसके बारे में सम्भ्रम निर्माण करने वाले, इस अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को नकारने वाले तत्व शक्तियां सक्रिय हो गई थीं। राष्ट्रीय अस्मिता को नकारना, जिस भारत को दुनिया शतकों से जानती आई है, उसे नकारना, यह मानो अपने-आप को बुद्धिजीवी, प्रगतिशील और लिबरल कहलाने का फैशन चल पड़ा।

75- एक अर्थ में यह राष्ट्रीय अस्मिता का धर्मयुद्धही छिड़ गया था। इसलिए फिर राष्ट्रीय शक्तियों को राष्ट्र की पहचान को नकारने वाले, उसकी नकारात्मक प्रस्तुति, प्रतिपादन और प्रचार करने वालों के विरुद्ध युद्ध, धर्मयुद्ध छेड़ना आवश्यक हो गया।

76- धर्मयुद्ध में दुर्योधन, दु:शासन, शकुनि जैसे दुष्टों का विरोध करना आवश्यक होता है, उसी तरह धर्म की रक्षा हेतु, भीष्माचार्य, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे वंदनीय लोगों पर भी शरसंधान करना आवश्यक होता है।  

77- स्वाधीन भारत के वैचारिक जगत में धर्मयुद्ध के लिए, राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा, उसका प्रसार, प्रबोधन और अपप्रचार का प्रतिकार करने की दृष्टि से इस तरह के विमर्श आवश्यक हैं ।

78-  किन्तु एक बात स्मरण रहे की  महाभारत के धर्मयुद्ध के समय दोनों पक्ष में एक ही परिवार के लोग थे। कौरव पक्ष के जीवनमूल्य और जीवनादर्श अलग थे, पर वे थे तो अपने ही। इसी तरह साहित्य के विमर्श में राष्ट्रविरोधी विचारों का विरोध, उनके षड्यंत्रों का पर्दाफाश सफलतापूर्वक करते हुए भी वे अपने ही हैं, यह ध्यान में रखकर युद्धस्व विगतज्वर’, इसका भी सतत ध्यान रखा है। 

79- कभी-कभी विमर्श हेतु उनके विचारों को भी स्थान दिया जाना चाहिए । यही भारत की परम्परा रही है। अपने विरोधियों को समूल नष्ट करना, यह सेमेटिक मूल का सिद्धांत, जिसे ईसाईयत, इस्लाम और साम्यवादियों ने अपनाया दिखता है, पूर्णत: अभारतीय है। समन्वयात्मक और समावेशी, ऐसे भारतीय चरित्र का परिचय कराते हुए ही भारतीय अस्मिता के पक्षधर मत साहित्य के माध्यम से जो रखते रहे उनका  हार्दिक अभिनंदन करना चाहिए । 

  80- 20 वी सदी विमर्शों की सदी है। इस सदी में समाज के सभी वंचित समूहों ने अपने हक, अधिकार और अपनी अस्मितागत पहचान के लिए निर्णायक लड़ाई छेड़ रखी है। 

81- उनका मानना है कि यह लड़ाई किसी के विरूद्ध नही, बल्कि अपने पक्ष में लड़ी जा रही है। इन लड़ाइयों के पीछे एक सुविचारित दर्शन कार्य कर रहा है। 

82- हिंदी साहित्य के तीनों विमर्शों (दलित, नारी और आदिवासी) में समाज के इन वंचित वर्गों ने कहानी, कविता, उपन्यास, आत्मकथा और अन्य विधाओं के माध्यम से साहित्य जगत में मुख्य धारा का ध्यान अपनी ओर खींचा है। 

82- इन तीनों विमर्शों में शोषित समाज के हक के लिए लेखन कार्य किया जा रहा है। यह तीनों विमर्श वर्तमान समय में देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों के हिंदी या अन्य भाषाओं के पाठ्यक्रम का हिस्सा है।  

 83- अस्मिता विमर्श की पृष्ठभूमि-1990 का दशक समूचे संसार में कुछेक बुनियादी परिवर्तनों के लिए मशहूर है। वस्‍तुत: 1989 का साल दुनिया के इतिहास में निर्णायक मोड़ वाले कुछ एक सालों में से एक था।

84-  इसने द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद बने हुए विश्‍व भूगोल को तो बदल ही दिया साथ ही शीत युद्ध से निर्मित मानसिक जगत को भी गंभीर झटका दिया। नये समय में निजीकरण और उदारीकरण ने संपत्ति के संकेन्‍द्रण को बढ़ावा देने के साथ ही मध्‍यवर्ग का भी विस्‍तार किया। 

85- इस मध्‍यवर्ग में समाज के विभिन्‍न समुदायों के लोग शामिल थे जिन्‍होंने अपने समुदायों की सामूहिक आकांक्षाओं की अभिव्‍यक्ति के लिए अस्मिताओं की दावेदारी करनी शुरू की। इस नये माहौल ने 60 के दशक में सामने आए नव सामाजिक आंदोलनों की विरासत से भी बहुत कुछ ग्रहण किया। इस मॉड्यूल में एतद्विषक प्रश्‍नों से विद्यार्थियों को परिचित कराया जायेगा।

86- अस्मिताओं की पारस्परिकता-   प्रतिद्वंद्विता पश्चिमी जगत में जिस तरह अश्‍वेत, स्‍त्री और यूरोपेतर प्रवासी समुदायों के बीच नजर आयी थी, उसी तरह हिंदी में भी दलित विमर्श और स्‍त्री विमर्श के बीच भी प्रतिद्वंद्विता दिखायी पड़ी। स्‍त्री-पुरुष की स्‍पष्‍ट कोटियों के परे भी अन्‍य लैंगिक अस्मिताओं के उभार ने साहित्‍य के लोकतंत्र को विस्‍तारित करने की चुनौती पेश की है। इस मॉड्यूल में विद्यार्थी इस वैविध्‍य से परिचित होंगे।

87- अस्मिता विमर्श और साहित्य (दलित, स्त्री, आदिवासी, विकलांग और एलजीबीटीक्यू)- अस्मिताओं ने अपनी दावेदारी की अभिव्‍यक्ति के लिए साहित्‍य को महत्‍वपूर्ण उपकरण के रूप में प्रयुक्‍त किया। इसके चलते ही दलित साहित्‍य, स्‍त्री साहित्‍य की नयी कोटियां सामने आयीं।

88-  इसके अतिरिक्‍त इन विमर्शकारों ने इतिहास पर भी अपना दावा ठोंका और हिंदी साहित्‍य की मुख्‍यधारा की एकांगिता को उजागर कर दिया।

89-  अस्मिता विमर्श के साहित्यिक हस्‍तक्षेप का बहुत ही महत्‍वपूर्ण पहलू अतीत की पुनर्व्‍याख्‍या है। यहां तक कि आत्‍मकथा को अभिव्‍यक्ति का प्रधान रूप बनाकर इन विमर्शों ने ज्ञान और अनुभव की चली आ रही पुरानी बहस में नये सिरे से हस्‍तक्षेप किया।

 90-  अस्तित्व मूलक विमर्श परंपरागतरूढ़िवादी परंपराओं और सिद्धांतों के विरुद्ध एक वैचारिक विद्रोह है जो एक पक्ष विशेष की समस्या  सत्ता की उपेक्षा को इंगित करता है।91- अस्तित्व मूलक विमर्श में अस्मिता के बोध को सतत् प्रकट होते रहनानिरंतर आविर्भावित होते रहना और अनुभूति के साथ उभरते रहना है जिससे हाशिए के समाज के जीवन संघर्ष को संवेदना के साथ विस्तृत फलक पर उकेर करके उनके प्रति मानवीय संवेदना का विकास किया जा सके और उनके प्रति मन में सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास हो। हाशिए पर धकेल दिए गए।

92-   आज अस्तित्व मूलक विमर्श में ना केवल स्त्रीदलित और आदिवासी की बात होती है बल्कि किन्नरबालकवृद्धकिसान मजदूरयुवापर्यावरण एवं समस्त चराचर जगत को अभिव्यक्ति देने का महती प्रयास परिलक्षित होता है।

93- अस्तित्व मूलक विमर्श में जहां एक और संघर्षरत लोगों के संघर्ष को उकेरा  उठाया है वहीं दूसरी ओर साहित्य के स्वरूप में भी सकारात्मक परिवर्तन लाने का कार्य किया है।

94-  अस्तित्व से अर्थ मौजूदगीविद्यमानता एवं सत्ता का भाव अर्थात निर्णय प्रक्रिया में समान अधिकार से हैं और विमर्श से तात्पर्य विचार  विवेचन से है जो तथ्य  स्थिति पर विचार करके सुधारवादी दृष्टिकोण के साथ वास्तविकता का उद्घाटन करते हैं।

95- अतः अस्तित्व मूलक विमर्श हाशिए पर गए लोगों की मौजूदगी और उनकी निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी तथा उनके जीवन संघर्ष पर विचार विवेचन करते हुए उनकी वास्तविक स्थिति का उद्घाटन करना एवं उनके प्रति मानवीय संवेदना को उभार करके उनकी दशा में परिवर्तन लाना है।

96-  डॉ. नगेन्द्र के अनुसार अस्तित्व विमर्श उन सभी परंपरागत तर्कसंगत मान्यताओं सिद्धांतों  विचारों का विरोध करता है जिसमें किसी पक्ष या वर्ग की सत्ता/विधमानता एवं उनकी समस्याओं की उपेक्षा हुई है जिससे वह दोयम दर्जे में रहने को मजबूर हुआ।

 97- सामान्यतः अस्तित्व विमर्श सिद्धांत  विचार की अपेक्षा व्यक्ति को महत्व देता है जो विचारों एवं सिद्धांतों की चकाचौंध में अंधेरे में ढकेल दिया गया है यह उन सभी विचारोंसंस्थाओंमान्यताओं का विरोध करता है जो मानवीय एवं मानवेतर पक्षों को गौण बनाते या करते हैं तथा उनकी समस्या एवं अधिकारों की उपेक्षा करते हैं। 

98-गुप्तजी ने अस्तित्व वादी विमर्श को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रबल समर्थक और व्यक्ति को गौण बनाने के कारण विज्ञान  सामाजिकता का घोर विरोधी माना है इन्होंने अस्तित्व के मूल में मानवतावादी दृष्टिकोण को स्थान दिया है।

 99- अस्तित्व मुल्क विमर्श यह बतलाता है कि किसी एक पक्ष से जुड़े विचारोंबाह्य  आंतरिक परिस्थितियोंमान्यताओं को दूसरे पक्ष पर थोपा नहीं जाना चाहिए उसे अपने जीवन की प्रवाहमयता का चुनाव स्वयं करने देना चाहिए।

100- अस्तित्वमूलक विमर्श के मूल में अस्मिता और अस्तित्व के लिए संघर्ष रहा है और इस संघर्ष की शुरुआत दो पक्षों में किसी एक पक्ष को महत्व  देनाकिसी एक पक्ष पर ( जबरन विचारमान्यताओंपरम्पराओं के नाम पर) दबाव बनाकर अधीनस्थ  अधिकारों से वंचित रखने की प्रवृति तथा किसी एक पक्ष को अक्षम मानकर उसके प्रति हीनता जन्य  पक्षीय विचार रहे है जिससे पीड़ितवंचितशोषितदमित पक्ष स्वयं की स्वतंत्रता का  अस्तित्व को लेकर सोचने पर विवश होता है।

101- हिन्दी साहित्य में अस्तित्व मूलक विमर्श बीसवीं शताब्दी के उत्तार्द्ध में प्रारम्भ होकर शीघ्र ही विस्तृत फलकस्वरूप  आयामों में अपने आपको व्याप्त कर लिया।

102- आज अस्तित्व विमर्श को मानवीय और मानवेतर दो स्वरूपों में देखते है। मानवीय स्वरूप में स्त्री विमर्शदलित विमर्शकिन्नर विमर्शआदिवासी विमर्शबाल विमर्शवृद्ध विमर्शकिसानमजदूर विमर्शयुवा विमर्शअल्पसंख्यक विमर्श इत्यादि रूपों के परिलक्षित होते हैं।

103- तथा मानवीय इतर स्वरूप में पर्यावरण विमर्शपशु पक्षियों का विमर्शसांस्कृतिक विमर्शभाषाई विमर्श इत्यादि देखने को मिलते हैं।

104- साहित्य में अस्मितामूलक विमर्श दो दृष्टिकोण से प्रचलित हुआ। इसमें प्रथम सहानुभूति परक लेखन था। इसके अंतर्गत लेखक स्वयं उस पक्ष से संबंधित नहीं होता है जिस पक्ष का विमर्श वह साहित्य में कर रहा है।

105-  इस प्रकार के लेखन को परकाया प्रवेश मूलक लेखन भी कहा जा सकता है जिसमें लेखक हाशिए में धकेले गए पक्ष के जीवन संघर्षों को देखता हैविचारता हैजो उसके अतंर्तम में चेतना की एक किरण जगा देता है जिसके आलोक में वह अपने आपको हाशिए के पक्षों के साथ देखता है और उनके जीवन संघर्षों को साहित्य में उकेरते हुए विचार  विवेचन करता है तथा मानवीय संवेदना को जाग्रत करने का प्रयास करता है। जैसेप्रेमचंद की रचना ‘ठाकुर का कुआं’  ‘सद्गति’ में इस प्रकार का सहानुभूति परक अस्मिता मूलक विमर्श का रूप दृष्टिगोचर होता है।

106- दूसरा दृष्टिकोण स्वानुभूति परक लेखन का रहा है जिसमें लेखक स्वयं हाशिए पर धकेल दिए गए पक्ष का होता है और वह अपनी वेदनाव्यथाविद्रूपता तथा समाज के दूसरे पक्ष द्वारा स्वयं एवं समानधर्मा पक्ष पर किए जा रहे अन्यायअत्याचारशोषण की आत्मसात् पीड़ा को अभिव्यक्त करता है जैसेओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा 'जूठनमें इसी प्रकार का स्वानुभूतिपरक अस्मितामूलक विमर्श देखने को मिलता है।

107- स्त्री अस्मितामूलक विमर्श में स्त्री के प्रति मानवीय जीवन मूल्यों की दोयम दर्जे की संवेदना से विकसित मानसिकता रेखांकित करने का प्रयास किया गया है।

108- दलित अस्मिता मूलक विमर्श में समाज के शोषित पीड़ित वंचित दमित पक्ष की पीड़ाएवं दूसरे पक्ष द्वारा इनके प्रति किए गए अमानवीय व्यवहारकृत्य को पूर्ण सजगता के साथ उभारा है, जो समाज के अन्य वर्गों की इनके प्रति विकृत  वैमनस्य परक मानसिकता को प्रतिबिंबित करता है।

109- किन्नर अस्मिता मूलक विमर्श में इनकी सामाजिक उपेक्षालिंगभेद को अभिव्यक्त किया है जो इंसानियत के संकट के रूप में उभर कर सामने आता है और यही संकट किन्नर की वेदना पीड़ा हताशा कुंठा के स्वरूप में साहित्य में अभिव्यक्त हुआ है।

110- बाल अस्मिता मूलक विमर्श में घोर शिक्षा केंद्रित परिवेश में बालकों के ऊपर बढ़ते शिक्षक दबाव एवं बाल मनोविज्ञान तथा बालको के बालपन के हनन के रूप में देखा जा सकता है जिसमें बालकों की नैसर्गिक प्रतिभा एवं विचारों को दबानेगला घोंटने का काम किया जा रहा है।

111- आदिवासी अस्मिता मूलक विमर्श में सभ्यताऔद्योगिकीकरण एवं विकास के नाम पर जलजंगलजमीन के विदोहन के विभिन्न रूपोंआदिवासियों की आदिवासियत के विस्थापन को इंगित किया गया है।

112- वृद्ध विमर्श में वृद्धों की पारिवारिक उपेक्षाउनके एकांकीपन एवं उनकी आशा और आकांक्षाओं को रेखांकित किया जा रहा है जिसे राजी सेठ के कहानी संग्रह 'यह कहानी नहींमें भलीभांति देखा  समझा जा सकता है।

113- इसी प्रकार किसानमजदूरयुवाअल्पसंख्यक  प्रवासी वर्ग की अस्मिता मूलक विमर्श में इन वर्गों की वेदनाअभाव युक्त जीवनउपेक्षा को निरूपित करने का प्रयास रहा है।

 114-मानवीय इतर पक्षों के विमर्श में पर्यावरणीय अस्मिता मूलक विमर्श आधुनिक साहित्य में प्रमुखता के साथ अभिव्यक्त हुआ है जिसमें पर्यावरणीय चिंताओं समस्याओं एवं मानव जाति पर पड़ने वाले प्रभाव को अभिव्यक्त किया है। रणेंद्र के उपन्यास 'ग्लोबल गांव के देवतामें पर्यावरणीय चिंताओं को भली-भांति देखा जा सकता है। स्त्री विमर्श बीसवीं शताब्दी के उत्तार्द्ध में प्रचलन में आयाप्रारम्भ में पुरुष वर्ग ने ही इस पर लेखनी चलाई जो एक तरह से सहानुभूति परक लेखन था।

115- प्रेमचंद जी के उपन्यास ‘निर्मला’  ‘सेवासदन’ और नागार्जुन के उपन्यास ‘कुंभीपाक’  ‘रतिनाथ की चाची’ में स्त्री अस्मितामूलक विमर्श देखने को मिलता है।

116- बीसवीं शताब्दी के अंतिम दो दशक में महिला लेखिकाओं ने भी अपने मुद्दों पर जागरूक होकर लिखना प्रारंभ किया जिनमें प्रभा खेतानमन्नू भंडारीरमणिका गुप्तामैत्रेयी पुष्पा इत्यादि का नाम उल्लेखनीय है। सभ्यता के प्रारंभ से ही स्त्री-पुरुष भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक रहे है। 'यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमंते तत्र देवताकी उक्ति में स्त्री के प्रति आदर  सम्मान की देवीतुल्य स्वीकारोक्ति आदिकाल से चली  रही थी।

117- प्राचीन काल में मातृप्रधान समाज (वैदिक काल  सिंधु घाटी सभ्यता) स्त्री के अस्तित्व को स्वीकार किया गया था और अर्धनारीश्वर स्वरूप में पुरुष के बराबर माना गया था किन्तु धीरे धीरे समाज का मातृप्रधान से पितृप्रधान की ओर बढ़ते हुए स्थिरता को प्राप्त कर लेने से नारी की भूमिका का ह्रास होते हुए गौण होना जिस के फलस्वरूप उनके अधिकारों की सीमितता और कर्तव्य की बहुलता ने एक अन्तर्विरोध को जन्म दिया और इस विषमता ने नारी को हाशिए पर धकेलने का कार्य किया जिसके कारण आबादी के आधे हिस्से को अभिव्यक्ति  निर्णय के अधिकार एवं अवसर से बेदखल होना पड़ा।

 118- सबला से अबला की विद्रूपताओ एवं विसंगतियों से भरी इस अधोगामी यात्रा ने नारी के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगाने का कार्य किया।

119-यह सही है कि हमारी सभ्यता और संस्कृति कई चरणों की विकास यात्रा के पश्चात आज की स्थिति में पहुंची हैं परंतु इस विकास यात्रा में नारी धीरे-धीरे परिधि की ओर अग्रसर रही और अंत में परिधि पर आकर बैठ गई जिससे हमारी व्यवस्था में नारी की भूमिका नगण्य होती गई।120- यह स्थिति रामायण में सीता के स्वयंवर से आरंभ होकर अंत में सीता के सतीत्व की परीक्षा में आकर हुए बदलाव के रूप में देख सकते हैं।

121- प्रारंभ में मातृसत्तात्मक परिवारों में स्त्री की भूमिका श्रेष्ठ रही किंतु जैसे-जैसे पितृसत्तात्मक परिवार का विकास हुआ वैसे वैसे स्त्री की स्थिति समाज में दोयम दर्जे की होती गई। उसे ना जाने किन-किन उपमानों से अभिहित किया जाने लगा तथा शिकंजे में कसा जाने लगा जिसके कारण वह परतंत्रता की दहलीज पर आकर गिर गई और इसी अवस्था से मुक्ति के प्रयास के रूप में विचार जगत में स्त्री मुक्ति आंदोलन जो साहित्य में स्त्री विमर्श के नाम से जाना जाता हैका जन्म हुआ। 

123-अंग्रेजी के फेमिनिज्म का हिंदी रूपांतरण नारीवाद हैं जिसकी उत्पत्ति लैटिन शब्द फेमिना से मानी जाती हैं जिसका अर्थ स्त्री से हैं। स्त्रीवाद का सर्वप्रथम प्रयोग 1890 के आसपास लैंगिक समानता और स्त्रियों के अधिकारों के अर्थ में किया गया।

124- स्त्री विमर्श स्त्रियों के दमन के विविध रूपों का अध्ययन करता है और दमन से मुक्त कराने की दिशा में सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ वैचारिक स्तर पर पहल भी करता है।125- स्त्री की स्थिति के संबंध में महादेवी वर्मा का कथन है कि “चाहे हिंदू नारी की गौरव गाथा से आकाश गूंज रहा होचाहे उसके पतन से पाताल कांप रहा होपरंतु उसके लिए 'ना सावन सूखा ना भादो हराकी कहावत ही चरितार्थ रही हैउसे हिमालय को लज्जा देने वाले उत्कर्ष तथा समुद्र तल की गहराई से इस स्पर्धा करने वाले आकर्षण दोनों का इतिहास आंसुओं से लिखना पड़ा है”।

126- नारी ने सभी क्षेत्रों में यहां तक की स्वतन्त्रता आंदोलन में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है जिससे स्पष्ट है कि नारी शारीरिकमानसिक और भावनात्मक दृष्टि से किसी भी तरह पुरुष से कम नहीं है।

127- पुरातन सामाजिक व्यवस्था में अपने को शोषित महसूस करने के बाद नारी में नई चेतना और नया व्यक्तित्व उभर रहा है तथा नारी के व्यक्तित्व की अवधारणा में परिवर्तन  रहा है फलतस्त्रीपुरुष के परस्पर संबंधों के मूल्य भी बदल रहे है। 

128-आज नारी की पुरुष के प्रति अपेक्षाओं में परिवर्तन आया है जो नारी को तनाव  घुटन की स्थिति में ले आया है। जैसे मोहन राकेश के नाट्य 'आधे अधूरे’ में सावित्री की पुरुष से रखी अपेक्षाएं उसे एक विचित्र स्थिति में ले आती है। जहां वह अपने आप को एकाकीपन के घोर अंधकार में पाती है।

129- कामकाजी अविवाहिता स्त्री (सुषमा) के माध्यम से स्वतंत्रता के बाद बदलते सामाजिक सन्दर्भो को उषा प्रियंवदा ने 'पचपन खंभे लाल दीवारेंमें रेखांकित किया है।

130- ममता कालिया ने पति-पत्नी के शारीरिक संबंधो को केंद्र में रखकर 'बेघरमें आधुनिक समाज में पुरुष की संस्कार बद्ध जड़ता और संदेह वृति को उघाड़ा है।

131- इस तरह आधुनिक साहित्य में सदियों से रूढ़ियों के नीचे कसमसाता नारी मन वर्जनाओं को नकारता हुआ अपने सहज स्वाभाविक रूप में आधुनिक नारी में चित्रित हुआ है। 132-स्त्री विमर्श के सम्बन्ध में कुछ भ्रांतिया और अंतर्विरोध आलोचकों ने खड़े किए है जिसमें उन्होंने बताया है कि स्त्री विमर्श प्रतिशोध पीड़ित हैस्त्री विमर्श की समर्थक स्त्रियां पुरुष बनना चाहती हैस्त्री संबंधी पूर्वाग्रह के लिए दोषी पुरुष हैस्त्री विमर्श केवल कुछ शिक्षितसाहित्यिक  धनी महिलाओं का कोरा वाग्विलास और न्यूज़ में बने रहने की उनकी साजिश मात्र है।

133-  कुछ गिनेचुने प्रतिनिधि महिला चरित्रों के विकास का हवाला देकर यह जताने की कोशिश कि स्त्रियां अब हाशिए पर नहीं है। वास्तविक रूप से देखा जाए तो स्त्री आंदोलन प्रतिशोध पीड़ित ना होकर अपनी अस्तित्व  अस्मिता के बोध का आंदोलन है क्योंकि वह यह जानती है कि अन्याय का प्रतिकार अन्याय नहीं है। 

134-स्त्रियां पुरुष नहीं बनना चाहती वह तो चाहती है कि जो दोहरे मापदंड उन पर थोपे गए हैं उन पर पुनर्विचार होना चाहिए ताकि विकास के अवसर सबको समान मिल सके। 135-स्त्री संबंधी पूर्वाग्रह के लिए दोषी पुरुष नहीं जबकि वह व्यवस्था है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक पुरुषों को लगातार एक ही पाठ पढ़ाती है कि स्त्री उनसे हीनतर है एवं उनके भोग का साधन मात्र है।

136- इसके अतिरिक्त स्त्री विमर्श केवल कुछ शिक्षित साहित्यिक  धनी महिलाओं को वाग्विलास और न्यूज़ में बने रहने की साजिश ना होकर उनकी स्वानुभूति परक नारी मन के अंतस चेतना का प्रकटीकरण है।

137- मृणाल पांडे के निबंध 'संकलन परिधि पर स्त्रीमें भंवरी देवी के संघर्षआंध्र प्रदेश के एक जिले की लक्षमा की जागरूकता के माध्यम से नारीवादी सोच को आक्रामक तेवर के साथ प्रस्तुत किया है तथा यह बताया है कि स्त्री किस प्रकार समाज की परिधि पर दोयम दर्जे का जीवन जीने को विवश है।

138- इसमें नारी के सौंदर्य को परंपरागत प्रतिमान से मुक्त कर उसके श्रम सौंदर्य को उजागर किया गया है।

139-  तस्लीमा नसरीन ने अपने द्वारा अनूदित 'औरत के हक मेंमें अपने दैनिक जीवन के छोटेछोटे तल्ख अनुभवों के माध्यम से नारी अस्मिता से जुड़े सवालों को नए सिरे से उठाया है। वह बतलाती है कि केवल जननी बनकर खंडित चूर्ण विचूर्ण होना उसका भाग्य नहीं है। स्त्रियों को धर्म शास्त्रोंसामाजिक रूढ़ियोंपुरुष की निरंकुशता और नीचता को ध्वस्त कर अपनी शक्ति खुद पहचाननी चाहिए।

140- 'स्त्री होने की सजामें अरविंद जैन स्त्री को प्राप्त संवैधानिक अधिकारों की सच्चाई की पोल खोलकर पुरुष के अनुकंपा भाव की धज्जियां उड़ाते हैं। वे विवाहसंपत्तितलाकनिकाहबलात्कार आदि विभिन्न मुद्दों के माध्यम से कानून की कमियों और उसके एकांगीपन को उजागर करते हैं तथा स्त्री के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की वास्तविक हकीकत को सामने लाकर सत्ता पक्ष को आईना दिखाने का भी काम करते हैं। 

141-मृदुला गर्ग के उपन्यास 'कठ गुलाबके सभी पात्र एक ऐसी काल्पनिक दुनिया में रहते हैं जो कहीं नहीं है। उपन्यास के सभी नर नारी शाप ग्रस्त प्रतीत होते हैं। स्त्रियां सुरक्षा और संपत्ति का अधिकार चाहती है और पुरुष प्रेम आनंद  स्त्री देह के बाद सिर्फ एक उत्तराधिकारी।

142- 'दिलो दानिशमें कृष्णा सोबती ने रखैल और दूसरी पत्नी की स्थिति एवं भूमिका को रेखांकित किया है जिसमें यह सदैव घृणा की पात्र  कानूनी अधिकारों से वंचित रहती है।

143- स्त्री विमर्श  लेखन का महत्वपूर्ण उद्देश्य स्त्री की विभिन्न भूमिकाओं के बारे में मानव समाज को परिचय देना है। जीवन के उन अंधेरे कोनों पर भी प्रकाश डालना है जिस की पीड़ा स्त्रियों ने सदियों से झेली है। 

144-जरूरत है कि स्त्री अपनी मानवीय गरिमा और अधिकार को समझ कर संरचनात्मकसांस्कृतिक तथा मानवीय दृष्टिकोण के मूल तत्व का विश्लेषण करें तथा देशसमाजघरपरिवार की मिश्रित भूमिका का संतुलन स्थापित करने का प्रयास दोनों पक्ष करें। 145-स्त्री अस्मितामूलक विमर्श की कुछ सीमाएं भी है जिसके प्रति लेखक एवं पाठक वर्ग को सदैव सजग रहने की आवश्यकता है। स्त्री स्वतंत्रता के साथ कर्तव्यहीनता की स्थिति जिससे सामाजिक ढांचे के प्रति विद्रोह की भावना की गुंजाइश सदैव बनी रहती हैं तथा स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर अतिवादी दृष्टिकोण को बढ़ावा मिलने की आशंकाएक पक्ष पर अधिक बल देने से दूसरे पक्ष को गौण करके उसे हतोत्साहित करनापक्षीय प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा जो नकारात्मक स्वरूप लेकर वर्गीय हिंसा में रूपायित भी हो सकती हैआर्थिक तथा वित्तीय दृष्टिकोण से नारी के रूप सौंदर्य एवं अंग का अतिवादी प्रदर्शन इत्यादि।

146- स्त्री विमर्श में अधिकार और कर्तव्य के मध्य सामंजस्य स्थापित करने की महती आवश्यकता रहती है तथा साहित्यकारों को पूर्ण सजगता के साथ लेखन की आवश्यकता सदैव बनी रहती है जिससे कि निर्माण हो सके नाश नहींसाहित्यकार सृजन एवं ध्वंस के मध्य के अंतर को सदैव स्मरण में रखते हुए ही स्त्री विमर्श को साहित्य में स्थान दे तो आधी आबादी के साथ यथोचित न्याय संभव हो सकेगा।