Sunday, 30 June 2024

ब्रह्मसूत्र परिचय

 

ब्रह्मसूत्र

              ब्रह्मसूत्र वेदान्त दर्शन का आधारभूत ग्रन्थ है । इसके रचयिता महर्षि बादरायण हैं  । इसे वेदान्त सूत्र, उत्तर मीमांसा सूत्र, शारीरिक सूत्र और भिक्षु सूत्र आदि नामों से जाना जाता है । इस पर अनेक आचार्यों ने भाष्य भी लिखे हैं  । ब्रह्मसूत्र में उपनिषदों के दार्शनिक और अध्यात्मिक विचारों को सार रूप में  एकीकृत किया गया है  ।

 वेदान्त को तर्क पूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने के कारण इसे  न्याय प्रस्थान भी कहा जाता है  । इसमें माना गया है कि ब्रह्म एक लाक्षणिक सत्य है  । ब्रह्म को किसी मूर्त रूप में हम नहीं देख सकते हैं  । ब्रह्म को बोध कराने के लिए सूत्रकार द्वारा जिस सूत्र का निरूपण किया गया है वह ही ब्रह्मसूत्र है  । 

यहीं यह समझ लेना ठीक होगा की ‘सूत्र’ क्या है ? “थोड़े शब्दों  में असंदिग्ध बात को  जिसके अन्दर पुनुरुक्ति न हो और कोई दोष न हो ।” जब ऐसे सूत्र और वाक्यों को प्रयोग किया जाता है तो उन्हें सूत्र कहते हैं  ।

     ब्रह्मसूत्र, वेदान्त या उपनिषद को समझने के लिए हमारे पास कुछ आधार भूत स्पष्टता होनी चाहिए ।  वेद एक प्रमाण है  । उपनिषद भी एक प्रमाण है  । ऐसे प्रमाण की एक निरदृष्टि वस्तु होती है , जैसे आँख एक प्रमाण है । कान एक प्रमाण है । आँख का काम देखना है और कान का काम सुनना है  । अत: आँख का काम कान नहीं कर सकता और कान का काम आँख नहीं कर सकती ।   

श्रुति एक प्रमाण है जिसको समझने के लिए इन्द्रियां सामर्थ्य नहीं हैं  । इसमें  थोड़े से शब्दों में  परब्रह्म के स्वरुप का सांगोपांग निरूपण किया गया है, इसलिए इसका नाम ब्रह्मसूत्र है ।

 उत्तर भाग की श्रुतियों में उपासना एवं ज्ञानकाण्ड है ; इन दोनों  की मीमांसा करने वाले वेदान्त -दर्शन या ब्रह्म सूत्र को ‘उत्तर मीमांसा ‘ भी कहते हैं  । 

दर्शनों में इनका स्थान सबसे ऊँचा है ; क्योंकि इसमें जीव के परम प्राप्य एवं चरम पुरुषार्थ का प्रतिपादन किया गया  है  । प्रायः सभी सम्प्रदायों के आचार्यों नें ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे हैं  ।

ब्रह्म सूत्र में चार अध्याय हैं जिनके नाम क्रमश: समन्वय, अविरोध, साधन और फलाध्याय बताया गया है । 

प्रत्येक अध्याय के चार पाद हैं  । कुल मिलाकर इसमें 555 सूत्र हैं  । 

ब्रह्मसूत्र में शोक निवृति के लिए इन चारों अध्यायों में एकत्व की बात कही गई है । व्यास जी कहते है की सारा संसार ब्रह्ममय होने  के कारण उपनिषद में  जो विषय आए हैं, वह भी ब्रह्ममय हैं  । 

ब्रह्मसूत्र में इस बात का प्रतिपादन किया गया है की निर्गुण निराकार ब्रह्म को बिना सगुन साकार स्वरुप की कल्पना के समझा नहीं जा सकता है  ।

     

पहला समन्वय अध्याय

पहला पाद - प्रथम पाद में ब्रह्म का प्रमाणों द्वारा प्रतिपादन किया गया है । इस पाद में बताया गया है की आनंद , विज्ञान ,आकाश, प्राण ,ज्योति  तथा गायत्री नाम आदि जैसे शब्दों से श्रुति में परम ब्रह्म का ही वर्णन है । 

दूसरा पाद - इस पाद में वेदान्त वाक्यों में परम ब्रह्म का निरूपण किया गया है । 

तीसरा पाद-  तीसरे पाद में जहाँ ब्रह्म को अक्षर और ॐ से प्रतिपादित क्या गया है, वहीं ज्योति और आकाश को भी ब्रह्म का वाचक बताया गया है । 

चौथा  पाद - इस पाद में अव्यक्त शब्द पर विचार किया गया है  ।

 दूसरा अविरोध अध्याय

पहलापाद-  प्रथम पाद में ब्रह्म कारणवाद के विरुद्ध उठाई हुई शंका का समाधान किया जाता है । साथ ही जीव और उनके कर्मों की अनादि सत्ता का प्रतिपादन किया बताया गया है ।

दूसरा पाद - इस पाद में सांख्य मत प्रधान कारणवाद का खंडन किया गया है । साथ ही पंचरात्री की चर्चा भी है । 

तीसरा पाद- इस पाद में ब्रह्म और जीव की चर्चा है । 

चौथा  पाद - चौथे पाद में इन्द्रियों की उत्पत्ति पञ्चभूत से नहीं परमात्मा से होती है का प्रतिपादन किया गया है । इसी तरह प्राण की उत्पत्ति भी ब्रह्म से ही होती है बताया गया है ।

तीसरा साधन अध्याय

पहलापाद- इस पाद में जीव और आत्मा का वर्णन है

दूसरा पाद - इस पाद में स्वप्न को  माया मात्र और शुभ -अशुभ का सूचक बताया गया है  । कर्मों का फल परमात्मा ही देता है, कर्म नहीं ।

तीसरा पाद - इस पाद में  वेदान्त वर्णित समस्त ब्रह्म विद्याओं  के एकता की चर्चा है ।

चौथा  पाद - इस पाद में बताया गया है की ज्ञान से ही परम पुरुषार्थ की सिद्धि होती है ।

चौथा फलाध्याय

पहलापाद- इस पाद में ब्रह्म विद्या में निरंतर अभ्यास की आवश्यकता बताई गई है । प्रारब्ध का भोग नाश होने पर ज्ञानी को ब्रह्म की प्राप्ति होती है । 

 दूसरा पाद - इस पाद में उत्क्रमण काल में वाणी की अन्य इन्द्रियों के साथ- मन की प्राण में और प्राण की जीवात्मा में स्थिति का कथन है ।

तीसरा पाद - इस पाद में विभिन्न लोकों का प्रतिपादन है । 

चौथा  पाद  -  इस पाद में ब्रह्म लोक में पहुँचने वाले उपासकों की तीन गतियों का वर्णन है ।

ब्रह्म सूत्र जिसे वेदान्त दर्शन भी कहते हैं, इसके पहले अध्याय का पहला पाद ‘अथतो ब्रह्म जिज्ञासा’ से प्रारम्भ होता है । यह सम्पूर्ण ग्रन्थ सूत्र रूप में बद्ध है । इसके अंतिम अध्याय के अंतिम पाद का समापन ‘ अनावृति: शब्दादनावृत्ति:शब्दात’ से होती है ।

 

 

 

Friday, 28 June 2024

maadhavi माधवी महाभारत

 

 

उपन्यास कर्म से तपोवन तक की भाषा, शैली, संवाद, पात्र पर समीक्षकों ने विस्तार से चर्चा की है। उस पर मुझे कोई टिप्पणी नहीं करना है।

यहां कथा वस्तु और लेखिका के प्रश्नों पर मैं बात करूंगा, जो सामान्य पाठक के साथ साहित्यकार के लिए भी बहुत आवश्यक हैं।

यहां बता दूं भीष्म साहनी का माधवी और वीणा सिन्हा का 'पथ प्रज्ञा ' पहले से काफी चर्चा में हैं। किंतु भीष्म साहनी ने 'उपवन' के मार्मिक'  प्रसंग को नहीं छुआ तो वीणा सिन्हा ने भी भाषा की सांस्कृतिक संरचना में ठीक सर्जनात्मक उपयोग नहीं कर सकीं। माधवी पर तमिल में भी एक उपन्यास 'नित्यकन्नि' (नित्यकन्या) है।

महाभारत के उद्योग पर्व के अन्तर्गत १० उपपर्व हैं और इसमें कुल १९६ अध्याय हैं । 196 अध्यायों में से अध्याय 106 से 123 के बीच माधवी औत गालव की अंतरंगता की कथा आती है जो इस उपन्यास का आधार है ऐसा लेखिका का कथन है।


वे लिखती हैं माधवी को लिखते हुए मैं स्त्री को जी रही थी। अनदेखे पहलुओं को जी रही थी, उसके दुर्भाग्य को जी रही थी।

 लेखिका ने बताया कि कथा का सूत्र गालव की उस योजना में मिलता है जहां गालव माधवी को तीन-तीन राजाओं के पास एक एक साल के लिए रखतें हैं। अंत तक गालव और माधवी अन्तरंग हो गए और उनके शारीरिक सम्बन्ध हो गए। 

लेखिका ने ययाति के बारे में लिखा कि उन्हें श्राप था की युवा अवस्था में वे वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाए और उन्होंने पुरु से जवानी मांग ली (लेखिका को पुरु की अपने पिता के प्रति जवानी दान करने  की त्याग और दानशीलता की वृति क्यों नजर नहीं आई ? वह यह भी कैसे भूल गईं की माधवी यहाँ दायित्व निर्वहन करनेवाली, कर्तव्य परायण, त्यागी और सेवाभावी नारी है । 

 और उन्हें ययाति की पुत्री का अपने पिता की इक्षा पालन के लिए गालव के साथ जाना अन्याय लगा? 

उन्हें माधवी की यह बात तो याद है की उसे चिर कुमारी का वरदान प्राप्त है किन्तु यह विस्मरण हो गया की उसे तीन यशस्वी राजकुमार भी इस संसार को देने का वरदान प्राप्त था !) 

महाभारत की ऐसी तमाम कथाओं, घटनाओं और प्रसंगों के हर बार नए अर्थ खुलते हैं। दुर्वासा का कुंवारी कुन्ती को वरदान स्वरूप मंत्र क्यों देते हैं? औचित्य बहुत बाद में पांडु की मृत्यु के बाद समझ आता है। अम्बिका,अंबालिका से व्यास का विनियोग?

लेखिका ने यह तो कह दिया की विश्वमित्र कामांध थे और उन्होंने तप से काम को नहीं जीता किन्तु वह भूल गई की गालव उनका ही शिष्य था जो अपने गुरु की आज्ञा के लिए संसार की लोक उपेक्षा की परवाह किये बिना ८०० घोड़ों की प्राप्ति के लिए माधवी को ययाति की इस युक्ति को स्वीकार करता है ?

यद्यपि इसका एक समाधान शांति पर्व में (227/31) में मिलता है-

न विद्या न तपो दानं न मित्राणि न बांधवा।

शक्नुवन्ति परित्रातु नरं कालेन पीड़ितम्।।

काल की मार में उक्त कोई बात काम नहीं आती।

 जब उपन्यासकार वरदान और श्राप को स्वीकार करता है तब उसे दैवी विधान क्यों स्मरण नहीं रहता की युग में यह होना ही था?

     खैर, जिस महाभारत से यह कथानक उठाया गया है उसमें तो ऐसे अनेक प्रसंग बार-बार आये हैं। माना जाता है जो ज्ञान महाभारत में नहीं है, वो ज्ञान संसार में कहीं नहीं है। महाभारत में जीवन से जुड़ी कई बातें हैं जो हमें आधुनिक जीवन में भी काम आ सकती है। 

महाभारत युद्ध के बाद शांति पर्व में भीष्म ने युधिष्ठिर को जो ज्ञान दिया उसे आज भी राजनीति और सामाजिक मामलों का सबसे बेहतर ज्ञान माना जाता है । 

वस्तुत: काल कभी खण्डों में नहीं जीता वह निरंतर चलता है और उसमें पात्र आते हैं और अपनी लीला करके चले जाते हैं , इतिहास की इन्ही घटनाओं से कल्पना कर साहित्यकार साहित्य की रचना करता है ।

 किन्तु जब अतीत की घटनाओं को चक्रीय काल की निरंतरता में वर्तमान को तलाशा जाता है तब यह आवश्यक हो जाता है की उसके यथार्थ को अपने कल्पना में लेते समय तत्कालीन यथार्थ में भी कुछ कल्पना रही होगी विस्मरण नहीं किया जा सकता।

    लेखिका को ययाति पर क्रोध है की उसने अपनी पुत्री को एक जवान गालव को सौप दिया और उसकों तीन-तीन राज्यों को पुत्र देने के लिए बाध्य किया। 


और यहाँ एक विशेष बात यह है की लेखिका को यह बात तो बुरी लगी कि  ययाति अपने ख्याति के लिए अपनी पुत्री का जीवन नष्ट कर दिया और यह भी कह दिया की बेचारी माधवी को कभी न तो पुराणों में स्थान मिलेगा और न इतिहास में याद किया जाएगा। 

अब लेखिका अपने ही विचार या दृष्टिकोण पर चिंतन करें की यदि माधवी को पुराणों ने भुला दिया होता और इतिहास न स्मरण रखता तो उन्हें आप कैसे उपन्यास का केंद्र बिंदु बनाते। 

दूसरी बात आपको देह का समर्पण याद है किन्तु तीन-तीन बड़े इतिहास पुरुषों की माता होने का जो गौरव माधवी को इतिहास और महाभारत जैसे गर्न्थों में प्राप्त है, क्या वह केवल स्त्री के शोषण का विषय बन सकता है? क्या वेदव्यास जैसा ऋषि केवल काम वासना और स्वच्छंद यौनाचार को बताने के लिए उस गालव को पात्र बनाया है जो ऋषि परम्परा में आते हैं।

वस्तुत भारतीय ज्ञान परम्परा पर कलम चलाने के पहले उसके पक्ष को समझना होगा । वेदव्यास जैसा ऋषि माधवी और गालव को महाभारत में लाता ही इसलिए है की इतिहास उनका ऋणी रहे न की उनके वासना में स्वयं गोता लगाये और पाठकों के मन मस्तिष्क को भी कुंठित करे।

      लेखिका का मन इसलिए उद्वेलित है की माधवी अपनी पीड़ा का प्रतिकार क्यों नहीं कराती ? मैं पूछना चाहता हूं की क्या माधवी एक सामान्य स्त्री है ? क्या वह किसी विशिष्ट जीवन दर्शन , अप्सरा की कन्या (अप्सरा देवलोक की नृत्यांगनायें हैं। इनमें से प्रमुख हैं उर्वशी,रम्भा और मेनका आदि कुल 11 अप्सराये हैं ।) की प्रतिनिधि नहीं है ? 

शब्दों के साथ खेलना साहित्यकार का काम है किन्तु शब्द के कुल गोत्र को समझे बिना नहीं।  लेखिका ने स्वकथन में लिखा है कि विश्वमित्र गुरु ही नहीं, एक ऐसे तपस्वी थे जो काम को जीत नहीं पाए । कामंधता में ही उन्होंने अप्सरा मेनका से सम्बन्ध बनाए और माधवी को भी प्रेरित किया ! 

मैं समझता हूँ की लेखिका की यह सबसे बड़ी कमजोरी है की उन्होंने दर्शन की भूमि को अपने लौकिक चिंतन में ढालने का प्रयास किया।  

क्या लेखिका के अनुसार इस बात को माना जाये की हर्यश्च, उशीनर और दिविदास ने अपनी काम वासना के लिए माधवी का उपयोग किया या चक्रवर्ती राजाओं  का जन्म  कारण था ? क्या शिवी के हम भुला सकते हैं ।

भारत को समझाने के लिए भारत का दृष्टिकोण चाहिए । भारतीय वांग्मय में वेद,श्रुतियां , महाभारत, रामायण आदि स्वत: प्रमाण हैं। जैसे आंख स्वत: प्रमाण है, कान स्वत: प्रमाण है।आंख का काम कान नहीं कर सकता और न ही कान का काम आंख।

ययाति यदि एक पिता है तो वे एक विशिष्ट जीवन के प्रतिनिधि भी हैं।एक और हम गालव को ऋषि कहते है , ययाति को राजा कहते हैं , माधवी को वरदानी कन्या मानते हैं तो उसके बीच हमारी दैहिक पाश्यत्य विमर्श की सोच कहाँ से जागृत हो उठती है।

      भारत के जीवन दर्शन को देखेंगे तो पाएंगे की यहाँ सदा से हर व्यक्ति दो जीवन एक साथ जीते हैं एक - भौतिक जीवन , दूसरा अध्यात्मिक जीवन। भगवान् श्रीकृष्ण ने उसी महभारत के अंश श्री मद भगवद गीता में कहा है ।-

लेखिक के कुछ प्रश्न हैं - क्या तप स्वार्थ सीद्धि के लिए किया जाता है ? यदि हाँ तो सतयुग में ताप को क्यों उत्कृष्ट कहा गया है ? क्यों तपस्वियों का पेट उनके शिष्यों की भिक्षा वृति से भरा गया ? क्यों तपस्या ने काम पर विजय नहीं पाई ? 


बड़े महत्वपूर्ण प्रश्न हैं (किन्तु न समझी के )। इसके लिए मैं लेखिका से अनुरोध करूँगा की थोड़ा भारतीय ज्ञान परम्परा को अवश्य पढ़ें । 

आज योग का बड़ा नाम है । उसमें अष्टांग योग का भी । उसके दूसरे अंग नियम -  में पञ्च बातें कही गई हैं  - शौच, संतोष , तप , स्वाध्याय, और इश्वर प्रणिधान । 

तप को उसी महाभारत (गीता ) में तीन प्रकार से बताया गया है - शरीर तप, मन और वाणी का तप । 

श्रीमाद्भाग्वद गीता में तेरहवें अध्याय में सातवें से ग्यारहवें श्लोक तक जो ज्ञान के बीस साधनों का वर्णन आया है, उनमें भी शारीरिक तप के तीन लक्षण- शौच, आर्जव और अहिंसा तथा मानसिक तपके दो लक्षण- मौन और आत्मविनिग्रह आये हैं।

 ऐसे ही सोलहवें अध्याय में पहले से तीसरे श्लोक तक जो दैवी सम्पत्ति के छब्बीस लक्षण बताये गये हैं, उनमें भी शारीरिक तप के तीन लक्षण -शौच, अहिंसा और आर्जव तथा वाचिक तप के दो लक्षण- सत्य और स्वाध्याय आये हैं। 

इन्ही सब को एक साथ  17/17-18-19 में   श्रद्धया परया तप्तम् - शरीर, वाणी और मन के  तप को इस प्रकार बताया गया है-

 देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌ ।ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥

 ईश्वर, ब्राह्मण, गुरु, माता, पिता के समान पूज्यनीय व्यक्तियों का पूजन करना, आचरण की शुद्धता, मन की शुद्धता, इन्द्रियों के विषयों के प्रति अनासक्ति और मन, वाणी और शरीर से किसी को भी कष्ट न पहुँचाना, शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है। 

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌ । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्‍मयं तप उच्यते ॥-किसी को भी कष्ट न पहुँचाने वाले शब्द बोलना, सत्य वोलना, प्रिय लगने वाले हितकारी शब्द वोलना और वेद-शास्त्रों का उच्चारण द्वारा अध्यन करना, वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है। 

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ 

   तुलसी बाबा ने तो तप को सृष्टि का आधार ही बताया है तो हम अपने ऋषियों , मुनियों और महापुरुषों के जीवन के निमित्त को बिना समझे कैसे कह सकते हैं की तप निजी स्वार्थ के लिए किया जाता है ?

 यदि हम माधवी के साथ जितने भी पात्र जुड़े हैं उनके जीवन को देखें तो क्या किसी का जीवन व्यक्तिगत हित के लिए है ?

 अन्यथा यदि लोक हित न होता तो क्या ययाति जैसा पिता अपनी पुत्री को ऐसे ही गालव को समर्पित कर देता ?

 क्या कभी हमें ८०० धोड़ो के निमित्त को समझाने का प्रयास किया ? 

दूसरा सतयुग में ही नहीं हर युग में तप को उत्कृष्ट कहा गया है चाहे द्वापर हो या क्रित्युग या कलयुग ।

दुर्वाषा की तपस्या क्या क्रोध के कारण निर्मूल हो जाएगी ? परशुराम की तपस्या को फिर क्या मानेगें ? तात्पर्य यह की तप को सीमित अर्थ में देखना उचित नहीं है   

    जहाँ तक तपस्वियों के पेट भरने का प्रश्न है उसके पीछे का कारण शिष्य को समाज से जोड़ने , उसके सुख दुःख को समझने का एक मार्ग था। वह  प्रशिक्षण का एक अंग था , अन्यथा चक्रवर्ती राजा के पुत्र राम को गुरु की सेवा नहीं करनी पड़ती । 

यदि भिक्षा वृति नहीं होती तो शंकराचार्य जैसा आचार्य आप के पास नहीं होता।

 जहाँ तक तपस्या और काम का सम्बन्ध है उसे ठीक से समझाने की आवश्यकता है । काम और काम वासना में अंतर है । दूसरा निमित्त से संतानोपत्ति वासना का अंग नहीं हो सकती । 

अन्यथा जिस महाभारत की कथा को लेकर आप उपन्यास लिख रही है वह महाभारत ही नहीं होता। पंडू और कौरब ही नहीं होते, व्यास ही नहीं होते ।

 इसलिए भारतीय पौराणिक आख्यानों पर कलम चलाने के पहले अपने को तमाम वसनाओं, कुंठाओं से अपने को ऊपर रखना होगा ।

तपस्या करके ही तपस्या , आत्मसमर्पण, बलिदान की सार्थकता को समझा जा सकता है और उसके प्रश्नों के उत्तर को पाया जा सकता है ।


 हमें बुलाने और सुनने के लिए धन्यवाद।

 

Wednesday, 26 June 2024

ऊर्ध्वमूलमधः

 

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच


ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।15.1।।

।।15.1।।यहाँ पहले वैराग्य के लिये वृक्षस्वरूप की कल्पना करके संसार के स्वरूप का वर्णन करते हैं क्योंकि संसार से विरक्त हुए पुरुष को ही भगवान का तत्त्व जानने का अधिकार है, अन्य को नहीं। अतः श्रीभगवान् बोले --, ( यह संसाररूप वृक्ष ) ऊर्ध्वमूलवाला है। काल की अपेक्षा भी सूक्ष्म ? सबका कारण ? नित्य और महान् होने के कारण अव्यक्तमायाशक्तियुक्त ब्रह्म सबसे ऊँचा कहा जाता है? वही इसका मूल है? इसलिये यह संसारवृक्ष ऊपर की ओर मूलवाला है। ऊपर मूल और नीचे शाखावाला इस श्रुतिसे भी यही प्रमाणित होता है। पुराणमें भी कहा है -- अव्यक्तरूप मूल से उत्पन्न हुआ उसी के अनुग्रह से बढ़ा हुआ? बुद्धिरूप प्रधान शाखा से युक्त? बीच-बीच में इन्द्रियरूप कोटरोंवाला? महाभूतरूप शाखाप्रतिशाखाओंवाला? विषयरूप पत्तोंवाला? धर्म और अधर्मरूप सुन्दर पुष्पोंवाला तथा जिसमें सुख दुःखरूप फल लगे हुए हैं ऐसा यह सब भूतोंका आजीव्य सनातन ब्रह्मवृक्ष है। यही ब्रह्मवन है? इसी में ब्रह्म सदा रहता है।

            ऐसे इसी ब्रह्मवृक्ष का ज्ञानरूप श्रेष्ठ खड्ग द्वारा छेदन-भेदन करके और आत्मा में प्रीतिलाभ करके फिर वहाँ से नहीं लौटता इत्यादि। ऐसे ऊपर मूल और नीचे शाखावाले इस मायामय संसारवृक्ष को अर्थात् महत्तत्त्व? अहंकार? तन्मात्रादि? शाखाकी भाँति जिसके नीचे हैं? ऐसे इस नीचे की ओर शाखावाले और कल तक भी न रहनेवाले इस क्षणभङ्गुर अश्वत्थ वृक्षको अव्यय कहते हैं। यह मायामय संसार? अनादि कालसे चला आ रहा है? इसी से यह संसारवृक्ष अव्यय माना जाता है तथा यह आदि-अन्त से रहित शरीर आदि की परम्परा का आश्रय सुप्रसिद्ध है? अतः इसको अव्यय कहते हैं।

            उस संसारवृक्ष का ही यह अन्य विशेषण ( कहा जाता ) है। ऋक्, यजु और सामरूप वेद जिस संसारवृक्षके पत्तों की भाँति रक्षा करनेवाले होने से पत्ते हैं। जैसे पत्ते वृक्ष की रक्षा करनेवाले होते हैं? वैसे ही वेद धर्म-अधर्म, उनके कारण और फल को प्रकाशित करनेवाले होने से संसाररूप वृक्षकी रक्षा करनेवाले हैं। ऐसा जो यह विस्तारपूर्वक बतलाया हुआ संसारवृक्ष है, इसको जो मूल के सहित जानता है, वह वेद को जाननेवाला अर्थात् वेद के अर्थ को जाननेवाला है। क्योंकि इस मूलसहित संसारवृक्ष के अतिरिक्त अन्य जानने योग्य वस्तु अणुमात्र भी नहीं है। अर्थात जो इस प्रकार वेदार्थ को जाननेवाला है वह सर्वज्ञ है। इस प्रकार मूलसहित संसारवृक्ष के ज्ञान की स्तुति करते हैं। उसी संसारवृक्ष के अन्य अङ्गों की कल्पना कही जाती है।

             ऊर्ध्वमूलमिति। अधश्चेति। अनेन शास्त्रान्तरेषु यदुच्यते अश्वत्थः सर्वं, स एवोपासनीयः इत्यादि, तस्य भगवद्ब्रह्मोपासा तात्पर्यमित्युच्यते। मूलं प्रशान्तरूपम् (प्रशान्तं रूपम्)। तत् ऊर्ध्वं, सर्वतो हि निवृत्तस्य तदाप्तिः। छन्दांसि पर्णानि इति -- यथा वृक्षस्य मानत्वफलवत्त्वसरसतादयः (फलत्व--) पर्णैः सूच्यन्ते, एवं ब्रह्मतत्त्वस्य वेदोपलक्षितशास्त्रद्वारिका प्रतीतिरित्याख्यायते। गुणैः, सत्त्वादिभिः प्रवृद्धाः, देवादिस्थावरान्ततया। तस्य च शुभाशुभात्मकानि कर्माणि अधस्तनमूलानि ( मूलानि यस्य)।

             श्रीभगवान् बोले - ऊपर की ओर मूलवाले तथा नीचे की ओर शाखावाले जिस संसाररूप अश्वत्थवृक्ष को अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसारवृक्ष को जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाला है।

             श्री भगवान् ने कहा --(ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को) ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं; जिसके पर्ण छन्द अर्थात् वेद हैं, ऐसे (संसार वृक्ष) को जो जानता है, वह वेदवित् है।।

            ऊर्ध्वमूलं कालतः सूक्ष्मत्वात् कारणत्वात् नित्यत्वात् महत्त्वात् ऊर्ध्वम् उच्यते ब्रह्म अव्यक्तं मायाशक्तिमत्? तत् मूलं अस्येति सोऽयं संसारवृक्षः ऊर्ध्वमूलः। श्रुतेश्च -ऊर्ध्वमूलोऽर्वाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः (क..261)इति। पुराणे च- अव्यक्तमूलप्रभवस्तस्यैवानुग्रहोच्छ्रितः। बुद्धिस्कन्धमयश्चैव इन्द्रियान्तरकोटरः।।महाभूतविशाखश्च विषयैः पत्रवांस्तथा। धर्माधर्मसुपुष्पश्च सुखदुःखफलोदयः।।आजीव्यः सर्वभूतानां ब्रह्मवृक्षः सनातनः। एतद्ब्रह्मवनं चैव ब्रह्माचरति नित्यशः।।एतच्छित्त्वा च भित्त्वा च ज्ञानेन परमासिना। ततश्चात्मरतिं प्राप्य तस्मान्नावर्तते पुनः।। इत्यादि। तम् ऊर्ध्वमूलं संसारं मायामयं वृक्षम् अधःशाखं महदहंकारतन्मात्रादयः शाखा इव अस्य अधः भवन्तीति सोऽयं अधःशाखः? तम् अधःशाखम्। न श्वोऽपि स्थाता इति अश्वत्थः तं क्षणप्रध्वंसिनम् अश्वत्थं प्राहुः कथयन्ति अव्ययं संसारमायायाः अनादिकालप्रवृत्तत्वात् सोऽयं संसारवृक्षः अव्ययः? अनाद्यन्तदेहादिसंतानाश्रयः हि सुप्रसिद्धः? तम् अव्ययम्। तस्यैव संसारवृक्षस्य इदम् अन्यत् विशेषणम् -- छन्दांसि यस्य पर्णानि? छन्दांसि च्छादनात् ऋग्यजुःसामलक्षणानि यस्य संसारवृक्षस्य पर्णानीव पर्णानि। यथा वृक्षस्य परिरक्षणार्थानि पर्णानि? तथा वेदाः संसारवृक्षपरिरक्षणार्थाः? धर्माधर्मतद्धेतुफलप्रदर्शनार्थत्वात्। यथाव्याख्यातं संसारवृक्षं समूलं यः तं वेद सः वेदवित्?  वेदार्थवित् इत्यर्थः। न हि समूलात् संसारवृक्षात् अस्मात् ज्ञेयः अन्यः अणुमात्रोऽपि अवशिष्टः अस्ति इत्यतः सर्वज्ञः सर्ववेदार्थविदिति समूलसंसारवृक्षज्ञानं स्तौति।।तस्य एतस्य संसारवृक्षस्य अपरा अवयवकल्पना उच्यते --,

महर्षि पतंजलि का योग सूत्र

 

योग सूत्र: योग सूत्र महर्षि पतंजलि द्वारा रचित है । यह ग्रंथ सूत्रों के रूप में लिखा गया है । सूत्र-शैली भारत की प्राचीन दुर्लभ शैली है, जिसमें विषय को बहुत संक्षिप्त शब्दों में प्रस्तुत किया जाता है । यह चार पदों में- समाधि ,साधन, विभूति और कैवल्य में विभक्त है । इस ग्रंथ में महर्षि पतंजलि ने यथार्थ रूप में योग के आवश्यक आदर्शों और सिद्धांतों को प्रस्तुत किया है । समाधि पाद में 51, साधन पाद में 55, विभूति पद में 55 और कैवल्य पाद में 34 सूत्र हैं । कुल मिलाकर सम्पूर्ण योग सूत्र 195 सूत्रों में उपलब्ध होता है ।विषय की दृष्टि से चारों अध्यायों की विषय वस्तु को संक्षिप्त रूप से कुछ इस प्रकार समझ सकते हैं-

              (1) समाधि पाद- समाधि पाद के अन्तर्गत, समाधि से सम्बन्धित मुख्य-मुख्य विषयों को लिया गया है । इस अध्याय में सर्वप्रथम योग की परिभाषा बताई गयी है, जो कि चित्त की वृत्तियों का सभी प्रकार से निरुद्ध होने की स्थिति का नाम है । यहां पर भाष्यों के अन्तर्गत यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि यह योग समाधि है । समाधि के आगे दो भेद- सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात बताए गए हैं । दोनों ही प्रकार की समाधियों के अन्तर भेदों को भी विस्तार से बताया गया है । समाधि की स्थिति को प्राप्त करने के साधनों के विषय में भी विस्तार से चर्चा की गयी है । समाधिपाद- में यह बतलाया गया है कि योग के उद्देश्य और लक्षण क्या हैं और उसका साधन किस प्रकार होता है। (2) साधनपाद- साधनपाद में क्लेश, कर्मविपाक और कर्मफल आदि का विवेचन है। (3) विभूतिपाद-विभूतिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के अंग क्या हैं, उसका परिणाम क्या होता है और उसके द्वारा अणिमा, महिमा आदि अष्ट सिद्धियों की किस प्रकार प्राप्ति होती है। (4)  कैवल्यपाद- कैवल्यपाद में कैवल्य या मोक्ष का विवेचन किया गया है

सांख्य योग दर्शन का मत यह है कि मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं, और उसे कर्म के फलों के अनुसार जन्म लेकर आयु व्यतीत करनी पड़ती है तथा भोग भोगना पड़ता है। 

       पतंजलि ने इन सबसे बचने और मोक्ष प्राप्त करने का उपाय योग बतलाया है और कहा है कि क्रमशः योग के अंगों का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ईश्वर के संबंध में पतंजलि का मत है कि वह नित्यमुक्त, एक, अद्वितीय और तीनों कालों से अतीत है और देवताओं तथा ऋषियों आदि को उसी से ज्ञान प्राप्त होता है। योगदर्शन में संसार को दुःखमय और हेय माना गया है । पुरुष या जीवात्मा के मोक्ष के लिये वे योग को ही एकमात्र उपाय मानते हैं । पतंजलि ने चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, निरुद्ध और एकाग्र ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ मानी है, जिनका नाम उन्होंने 'चित्तभूमि' रखा है। उन्होंने कहा है कि आरंभ की तीन चित्तभूमियों में योग नहीं हो सकता, केवल अंतिम दो में हो सकता है। इन दो भूमियों में संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ये दो प्रकार के योग हो सकते हैं । जिस अवस्था में ध्येय का रूप प्रत्यक्ष रहता हो, उसे संप्रज्ञात कहते हैं । यह योग पाँच प्रकार के क्लेशों का नाश करने वाला है। असंप्रज्ञात उस अवस्था को कहते हैं, जिसमें किसी प्रकार की वृत्ति का उदय नहीं होता अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रह जाता, संस्कार मात्र बचा रहता है । यही योग की चरम भूमि मानी जाती है और इसकी सिद्धि हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है।

             योगसाधन के उपाय में यह बतलाया गया है कि पहले किसी स्थूल विषय का आधार लेकर, उसके उपरांत किसी सूक्ष्म वस्तु को लेकर और अंत में सब विषयों का परित्याग करके चलना चाहिए और अपना चित्त स्थिर करना चाहिए । चित्त की वृत्तियों को रोकने के जो उपाय बतलाए गए हैं, वह इस प्रकार हैं- अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का प्रणिधान, प्राणायाम और समाधि विषयों से विरक्ति आदि । यह भी कहा गया है कि जो लोग योग का अभ्यास करते हैं, उनमें अनेक प्रकार की विलक्षण शक्तियाँ आ जाती है, जिन्हें 'विभूति' या सिद्धि कहते हैं।  यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठों योग के अंग कहे गए हैं, और योगसिद्धि  के लिये इन आठों अंगों का साधन आवश्यक और अनिवार्य कहा गया है । इनमें से प्रत्येक के अंतर्गत कई बातें हैं । कहा गया है जो व्यक्ति योग के ये आठो अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से छूट जाता है, अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है और अंत में कैवल्य (मुक्ति) का भागी बनता है । सृष्टितत्व आदि के संबंध में योग का भी प्रायः वही मत है जो सांख्य का है, इससे सांख्य को 'ज्ञानयोग' और योग को 'कर्मयोग' भी कहते हैं ।

सद्साहित्य - स्मरणीय

  

  सद्साहित्य - स्मरणीय

ॐ सच्चिदानन्दरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने
       ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमाङ्गल्यमूर्तये || ||

प्रकृतिः पञ्चभूतानि ग्रहा लोकाः स्वरास्तथा
   दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वन्तु मङ्गलम्।। २।।

रत्नाकराधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम्
      ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ्यां वन्दे भारतमातरम् || 3 ||

महेन्द्रो मलयः सह्यो देवतात्मा हिमालयः
        ध्येयो रैवतको विन्ध्यो गिरिश्चारावलिस्तथा || ||


गङ्गा सरस्वती सिन्धुर्ब्रह्मपुत्रश्च गण्डकी
       कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोदा महानदी || ||

अयोध्या मथुरा माया काशीकाञ्ची अवन्तिका
  वैशाली द्वारिका ध्येया पुरी तक्षशिला गया || ||

प्रयागः पाटलीपुत्रं विजयानगरं महत्
        इन्द्रप्रस्थं सोमनाथः तथाSमृतसरः प्रियम् || ||

चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा
     रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ॥८॥

जैनागमास्त्रिपिटकाः गुरुग्रन्थः सतां गिरः
    एषः ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा ॥९॥

अरुन्धत्यनसूया च सावित्री जानकी सती
     द्रौपदी कण्णगी गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ॥१०॥

लक्ष्मीरहल्या चन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा
   निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवताः ॥११॥

श्रीरामो भरतः कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुनः
     मार्कण्डेयो हरिश्चन्द्र: प्रह्लादो नारदो ध्रुवः ॥१२॥

 हनुमान्‌ जनको व्यासो वसिष्ठश्च शुको बलिः
        दधीचिविश्वकर्माणौ पृथुवाल्मीकिभार्गवाः ॥१३॥

भगीरथश्चैकलव्यो मनुर्धन्वन्तरिस्तथा
       शिविश्च रन्तिदेवश्च पुराणोद्गीतकीर्तय: ॥१४॥

बुद्धा जिनेन्द्रा गोरक्षः पाणिनिश्च पतञ्जलिः
        शङ्करो मध्वनिंबार्कौ श्रीरामानुजवल्लभौ ॥१५॥

झूलेलालोSथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा
      नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ॥१६॥

देवलो रविदासश्च कबीरो गुरुनानकः
         नरसिस्तुलसीदासो दशमेशो दृढव्रतः ॥१७॥

श्रीमत् शङ्करदेवश्च बन्धू सायणमाधवौ
     ज्ञानेश्वरस्तुकारामो रामदासः पुरन्दरः ॥१८॥

बिरसा सहजानन्दो रामानन्दस्तथा महान्‌
वितरन्तु सदैवैते दैवीं सद्गुणसंपदम्‌ ॥१९॥

भरतर्षिः कालिदासः श्रीभोजो जकणस्तथा
       सूरदासस्त्यागराजो रसखानश्च सत्कविः ॥२०॥

रविवर्मा भातखण्डे भाग्यचन्द्रः स भूपतिः
       कलावंतश्च विख्याताः स्मरणीया निरन्तरम्‌॥२१॥

अगस्त्यः कंबुकौण्डिन्यौ राजेन्द्रश्चोलवंशजः
      अशोकः पुश्यमित्रश्च खारवेलः सुनीतिमान्‌ ॥२२॥

चाणक्यचन्द्रगुप्तौ च विक्रमः शालिवाहनः
    समुद्रगुप्तः श्रीहर्षः शैलेन्द्रो बप्परावलः ॥२३॥

लाचिद्भास्करवर्मा च यशोधर्मा च हूणजित्‌
  श्रीकृष्णदेवरायश्च ललितादित्य उद्बलः ॥२४॥

मुसुनूरिनायकौ तौ प्रतापः शिवभूपतिः
          रणजित सिंह इत्येते वीरा विख्यातविक्रमाः ॥२५॥

वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः सुश्रुतस्तथा
       चरको भास्कराचार्यो वराहमिहिरः सुधीः ॥२६॥

नागार्जुनो भरद्वाजः आर्यभट्टो वसुर्बुधः
       ध्येयो वेंकटरामश्च विज्ञा रामानुजादयः ॥२७॥

रामकृष्णो दयानन्दो रवीन्द्रो राममोहनः
        रामतीर्थोऽरविंदश्च विवेकानन्द उद्यशाः ॥२८॥

दादाभाई गोपबन्धुः तिलको गान्धिरादृताः
   रमणो मालवीयश्च श्रीसुब्रह्मण्यभारती ॥२९॥

सुभाषः प्रणवानन्दः क्रान्तिवीरो विनायकः
     ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणो गुरुः जे ॥३०॥

Saturday, 22 June 2024

योग दिवस

आपका यह पक्ष भी सत्य है, क्योंकि आयुर्वेद के मतानुसार योग निरोगी काया को रोगमुक्त रखने का उपाय है। किंतु इसके कारण रोगी निरोगी नहीं होता उसे अपेक्षित औषधि लेनी ही होगी। सुषेण योगी थे किंतु अपेक्षित चिकित्सा करते थे। लक्ष्मण हों या मेघनाथ उपचार से ही ठीक होते हैं।

लेकिन योग आत्मा अर्थात चेतन तत्व को परमात्मा अर्थात पराचेतन तत्व से जोड़ने की प्रक्रिया है। अष्टांग योग शरीर,मन बुद्धि,चित, अहंकार को सात्विक बनाता है। योग यम, नियम के उपांगों के पालन से प्रारंभ होत है और समाधि में समाप्त होता है ।

इसमें पंच कोशों की अद्भुत भूमिका होती है। अन्नमय कोष में जीने वाला पंच प्राणों और उनके पांच उप प्राणों के माध्यम से मनोमय कोष तक की यात्रा करता है। 

यहां तक अष्टांग योग के बहिरंग यम,नियम,आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार की भूमिका रहती है। अंतरंग धारणा, ध्यान और समाधि साधक को आध्यात्मिक क्षेत्र में अर्थात आनंद मय कोष में प्रवेश कराती है।

और तब यही से 'युज' की यात्रा प्रारम्भ होती है। जो नितांत आध्यात्मिक यात्रा है। यह यात्रा अष्ट सिद्धियों और नो निधियों के द्वार को पार कर दसवें द्वार अर्थात् ब्रह्मरंध से प्रकाश को प्रकाश में एकात्म करती है।

योग जो आज बताया जा रहा है वह उसका बहिरंग है। फिर भी जो हो रहा है उसे नकारना आवश्यक नहीं है।
सादर 

Friday, 21 June 2024

गंगा अवतरण

गंगा अवतरण पर मेरा प्रणाम 

त्वदीय पद पंकजम नमामि देवी जान्हवी

गंगा भारत की लोक नदी है। वह अपने अन्दर लाखों वर्ष की परम्परा को लेकर चलती है। वह भारत की तीन संस्कृतियों  / जीवन दृष्टियों को एक साथ लेकर बहती है। गंगा-प्राचीन आध्यात्मिक विरासत। ब्रह्म कमण्डल से उद्भूत है। वह शिव की जटाओं से प्रवाहित है। “शंभु जटा हिमवान सम की, गंगा लट में बहती।”
वह भूः के रूप में धरती पर,भुवः के रूप में आकाश में और स्वः के रूप में देवलोक की प्रवासी है। वह इन तीनों लोकों से होकर, अपनी पूर्णता के साथ महः के रूप में  देव माता है।

 जगत कल्याणी है। शाप हारणी है। पाप तारिणी है। ताप को शीतल करती है। मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है। अर्थात वह अपने आकाश, पाताल और मृत्यु लोक के रूप से मह लोक आध्यात्मिक लोक और उसके आगे का मार्ग प्रशस्त करती है।

 गंगा राम की आराध्या है। राम गंगा के ऋणी है। वह उनके पूर्वजों को तारती है। उनके इष्ट भगवान शिव की आशीर्वाद है। वह केदार क्षेत्र की समस्त धाराओं की धात्री है।

गंगा अरण्य संस्कृति की धरोहर है। वनवासी, गिरिवासी की दुलारी माँ है। ग्रामवासी हर -हर गंगें करता उसमें डुबकी लगा न जाने कितने जन्मों के स्वकर्मो को स्वधर्मों में बदलता है।

 वनवासी उसे प्रणाम करता, उसकी परिक्रमा करता, उसके तलपटों पर जीवन जीना सीखाता है।

 तो अरण्यवासी उसके गहन गह्यवरों में समाधिस्थ होकर उसके नित के कौतूहल को देखता है। वह निष्कपट भाव से उस यात्री को प्रणाम करता है। वह उसे केर और बेर दो विधर्मियों की प्रकृति को एक साथ प्रकृतस्थ कर उसे समर्पित करता है। उसका आतिथ्य करता है। 

ग्रामवासी अद्भुत सत्कार और आत्मीयता से उसे विष्फरित नेत्रों से देखता है। उसकी क्रीड़ा करती उच्छाल तरंगों को देख धन्यभाग्य होते हैं । सदा गंगा मइया की गोद में खेलते हैं। उसका जल ग्रहण करते हैं। जिनमें इतनी एकात्मता है कि पूज्य और पूजक भाव एकाकार हो जाता है। पृथक बोध नहीं रहता।

यहाँ ग्रामवासी अपनी अनन्य श्रद्धा, गिरिवासी अपनी सहजता, अपनत्व से गंगा के प्रति उदारभाव से कृतज्ञ हैं।

 गिरिवासी गंगा को अपना मानता है, किन्तु केवल अपने के भाव से कोसों दूर है। उसका निर्बोध अरण्य मन दिन को गंगा का हर-हर सुनता है तो रात को उसके लोरी को उद्घाटित कराता, सुबह फिर मिलने की प्रत्याशा में किनारे घास-फूस की झोपड़ में सो जाता है। यह हमारा लोक है।

वह गंगा में पूर्णमासी के मिलन को  देखता है।  ऐसा प्रतीत होता है, मानो आकाश गंगा पूर्णिमा की रष्मियों के रूप में उतर कर धरती के तापों को हरती गंगा के साथ एक रात पूरी तरह मायके के सुख-दुःख, आपसी संवेदनाओं का बँटवारा करती हैं।

 वे ब्रह्मा के विछोह से लेकर शिव की कल्याणी भाव को याद कर सागर की पूरी कथा आपस में बाँटती हैं। हर अमावस को देव नदी अपनी स्वरूपा से काफी दूर चले जाने का अनुभव करती है।

ग्राम सहचरी गंगा गंगोत्री (अरण्य) से निकलकर कर्त्तव्य पर डट जाती है। ग्रामवासियों ने उसके स्वागत में जगह-जगह घाट बनाये। उसकी पूजा प्रारंभ की। आरती के विविध रूप धारण किये। अपने-पापों की गठरी को गंगा के आँचल में खोला। इतना ही नहीं भावावेष में वे निरन्तर भूलते गये कि जिन घाटों को उन्होंने गंगा के स्वागत के लिए, पूजन-अर्चन के लिए बनाये, उन्हीं के द्वारा वे उस गंगा के स्वरूप को संसार की गंदगी से अनजाने ही भरना प्रारंभ कर दिये।

 मानस को पवित्र करती गंगा, अमानुषिक ताप से जलने लगी। जब तक ग्रामीण उसके क्रोध के समन का उपाय करते, गंगा का प्रचण्ड प्रवाह कई बार-उन्हें दण्डित करता।

 रूठने-पूजने-आशीर्वाद देने और लेने का यह क्रम हजारों-हजारों वर्षों से चला आ रहा है। धरा सा मन लिए, धैर्य हिमगिर का धारण किये, सैकड़ों भूचालों को अपने अन्दर समाहित कर गंगा ग्राम से नगरों में प्रवेश करती है।

गंगा दुःखी है। उस का विराट आँचल सिसकियों और तनहाइयों से भर जाता है। वह मलय-मारुत का आह्वान कर सड़कों से निकलते दुःर्गंध से भरे नाले, फैक्ट्रियों-मिलों के जहरीले अवशेषों को बचाने का उपक्रम करती है। 

वह यमुना को पुकारती है। कैसे साधा था तुमने कालिया नाग के जहर को। यहाँ तो पग-पग पर जहर उगला जा रहा है। किंतु यमुना स्वयं में व्यथित और मौन है।

दोनों को याद आता है अपना अरण्य। उसके जन, उनकी आत्मीयता। उनका अपना पन। उनके ढोलों की थाप। वन-नारियों के नृत्य। बच्चों के किल्लोल। भला वह कैसे उन्हें विस्मरण करती, वहीं से तो किल्लोल, नृत्य और थाप गंगा -यमुना के जीवन में उद्भूत हुए थे।

उसे स्मरण आता है ग्राम बहुरियों का पूज्यभाव। अहिबात की प्रार्थना। अपना आशीर्वाद। ग्राम की प्रौढ़ों की वह प्रार्थना जिसमें वे अपने अचल सुहाग की कामना गंगा माँ के अस्तित्व तक रहने का संकल्प दोहराती हैं। प्रकारान्तर से अनजाने गंगा के चिरायु, दीर्घजीवी होने की कामना करती है।

 गंगा अरण्य की आत्मीयता और ग्राम्य के पूज्य भाव से ग्रामीणों के अबोध कृत्यों को विस्मरण कर देती हैं। क्षमा कर देती है। आशीर्वाद देती है। 

साथ ही व्यथित गंगा जमुना से मिलकर उन छोटी-बड़ी नद-नालों की व्यथा-कथा को बाँटती है जो ग्राम की पीड़ा को शहरों के दुराचार के सामने भूल जाते हैं। 

फूल की घाटियां, स्वर्णकेशी अप्सराओं के नृत्य, घहराती घटाओं का आह्वान इस सृष्टि-स्रोता नदी की नगरीय व्यथा (शहरी प्रदूषण की व्यथा) को दूर नहीं कर पाती।

अलकनन्दा के रूप में जिस गंगा ने पर्वतों की कठोरता को काट दिया, भागीरथी के रूप में जो पतित पावन बनी, जान्हवी के रूप में जिसने अपना सुखद शैषव बिताया। यक्ष, किंनर, नाग, देवता ही नहीं तो अबोध मनुष्यों के लिए जो पूर्ण अनुदार बनी रहीं, वही गंगा इस भोगवादी, शोषित शहरी मानसिकता से व्यथित है। दुःखी है।

आज पकडंडी रूपी वन एवं ग्राम्य संस्कृति सड़क रूपी शहरी भोगवादी जीवन दृष्टि को ललकार रही है। जरा ठहरो! अपने अतीत को स्मरण करो। तुमने अपनी गतिशीलता में अपने शस्य-श्यामला, हरित दूर्वा परम्परा को खो दिया है।

वस्तुतः गंगा तो वही है, जो जीवन के तीनों रूपों को (वन्य, ग्राम और नगर) सम भाव से देखना चाहती है, किन्तु शहरी मन ने अपने हाथों से सारे फूल बिखेर दिये हैं। अब वह ठगा-सा अपने को अपने चिरन्तन दर्पण में अनजाना-सा पा रहा है। 

आज गंगा के इस प्रश्न का समाधान नगर से ग्राम की ओर चलते हुए अरण्य की पूर्णवृति की यात्रा करनी है। वैसे भी भूमण्डलाकार देवता-माँ की प्रार्थना तब तक पूरी नहीं होती जब तक परिवृत्त के साथ हम उसकी आराधना नहीं करते।

गंगा की हितकारिणी वृत्ति का उद्घाटन करते हुए तुलसीदास कहते हैं, यदि किसी राष्ट्र को अपनी कीर्ति, साहित्य और ऐश्वर्य सुरक्षित रखना है तो उसमें गंगा-सी उदारता चाहिए। “कीरति भणिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कर हित होई।।”

सबका हित साधन करने वाली माँ को हमने संसाधन बना कर जल संसाधन विभाग के खाते में डाल दिया है।

 आईये भूल सुधारें। गंगा रूपी भारतीय संस्कृति, (विश्व संस्कृति- विश्वम्भरा) को अपने पवित्र कर्मों से ‘तेन-त्यक्तेन-मुंजिथा, के आधार पर नमन करें। जीवन को सार्थक करें।

 
मो.7389814071
ई-मेल: umeshksingh58@gmail.com

Saturday, 8 June 2024

साधु

साधु  
शत्रु-सैनिकों की 
कर रहे हो सेवा \
शत्रुदल !
मैं तो भगवान की सेवा कर रहा हूं
मैं तो प्राणियों की सेवा कर रहा हूं
मैं तो मानव धर्म की सेवा कर रहा हूं

असंतुष्ट था सिंकन्दर
तभी
फूस का सूखा
मरी चींटी टुकड़ा 
पकड़ा दिया सिकन्दर को
इसे हरा कर सकते हो
इसे जिन्दा कर दो

सूखी चीज हरी हो सकती है \
साधु] तुम पागल हो

सूखे को जीवन नहीं दे सकते
चीटी को जीवन नहीं दे सकते

तो 
फिर जीवित को मारने का अधिकार \

नत सिर सिकंदर 
सचमुच
भारत महान  
मेरा मन तो सैतान।

2-
 
तीर्थ है
रास्ता- घाट- जलाशय
साधना और मंत्रणा

तीर्थ है 
पवित्र] पावन
मोक्ष प्रदाता
हरता तन मन की यंत्रणा

तीर्थ है
स्थल परिक्रमा का
उपचार का
सधना का

तीर्थ है 
संज्ञा
व्यक्ति-वस्तु
स्थान और भाव रूप में
विराजित श्रद्धा लिए

तीर्थ है
विचारों का विस्तार
दण्डकों का उपचार
राम कृष्ण जहां
लेते हैं अवतार

तीर्थ है
नदी-जलाशय
मंदिर और गुरुद्वारे
जहां पीते हैं पानी
पंक्षी और पंथी प्यारे

तीर्थ है 
गुरु और उसकी वाणियां
स्नान करें उसमें 
काटे संसार बन्धन की वेणियां।

रामचरितमानस


अत्रि मुनि द्वारा श्री राम की प्रार्थना-

नमामि भक्त वत्सलं ।कृपालु शील कोमलं ॥
भजामि ते पदांबुजं ।अकामिनां स्वधामदं ॥

निकाम श्याम सुंदरं ।भवाम्बुनाथ मंदरं ॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं ।मदादि दोष मोचनं ॥

प्रलंब बाहु विक्रमं ।प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥
निषंग चाप सायकं ।धरं त्रिलोक नायकं ॥

दिनेश वंश मंडनं ।महेश चाप खंडनं ॥
मुनींद्र संत रंजनं ।सुरारि वृन्द भंजनं ॥

मनोज वैरि वंदितं ।अजादि देव सेवितं ॥
विशुद्ध बोध विग्रहं ।समस्त दूषणापहं ॥

नमामि इंदिरा पतिं ।सुखाकरं सतां गतिं ॥
भजे सशक्ति सानुजं ।शची पति प्रियानुजं ॥

त्वदंघ्रि मूल ये नराः ।भजंति हीन मत्सराः ॥
पतंति नो भवार्णवे ।वितर्क वीचि संकुले ॥

विविक्त वासिनः सदा ।भजंति मुक्तये मुदा ॥
निरस्य इंद्रियादिकं ।प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥

तमेकमद्भुतं प्रभुं ।निरीहमीश्वरं विभुं ॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं ।तुरीयमेव केवलं ॥

भजामि भाव वल्लभं ।कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥
स्वभक्त कल्प पादपं ।समं सुसेव्यमन्वहं ॥

अनूप रूप भूपतिं ।नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥
प्रसीद मे नमामि ते ।पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥

 रामचरितमानस (अयोध्या काण्ड-172-73)

 सोचिअ विप्र जो बेद बिहीना ।  
तजि निज धरमु बिषय लयलीना ॥
 सोचिअ नृपति जो नीति न जाना । 
 जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना ॥ 

सोचिअ बयसु कृपन धनवानू । 
जो न अतिथि सिव भगति सुजानू ॥ 
सोचिअ सूदु बिप्र अवमानी। 
मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी ॥ 

सोचिअ पुनि पति बंचक नारी ।
 कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी ॥ 
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई ।
 जो नहिं गुर आयसु अनुसरई ॥ 

सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग । 
सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग ॥ १७२ ॥

बैखानस सोइ सोचै जोगू ।
तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू ॥
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी । 
जननि जनक गुर बंधु बिरोधी ॥ 

सब बिधि सोचिअ पर अपकारी।  
निज तनु पोषक निरदय भारी॥
सोचनीय सबहीं बिधि सोई । 
जो न छाड़ि छलु हरि जन होई ॥
…................

• रामचरितमानस (अयोध्या काण्ड-174)

परसुराम पितु अग्या राखी ।  
मारी मातु लोक सब साखी ॥
 तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। 
पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ ॥ 
…................

सोक समाजु राजु केहि लेखें । 
लखन राम सिय बिनु पद देखें। 
बादि बसन बिनु भूषन भारू । 
बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू। ।

दो-
 ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार ॥ अयोध्या काण्ड।।180॥

गुर बिबेक सागर जगु जाना । 
जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना ॥
मो कह तिलक साज सज सोऊ । 
भएँ विधि बिमुख विमुख सबु कोऊ ।।181।।

परिहरि रामु सीय जग माहीं। 
कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं ॥
 सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। 
अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी ॥ 
                   ,,,,,,,,,,,,,

तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर ।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ॥ १६१ (ख)

 दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग ॥ ४६/अरण्य 
अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि । ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि ॥ ४४ ॥

हे नारद मुनि! सुनो, मैं (राम)संतों के गुणों को कहता हूँ-
षट बिकार जित अघ अकामा ।  
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ।
अमित बोध अनीह मितभोगी । 
 सत्यसार कबि कोबिद जोगी ।
सावधान मानद मदहीना।
धीर धर्म गति परम प्रवीना।।
गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह।।
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह ॥
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं ।
 पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ॥ 
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती।
 सरल सुभाउ सबहि सन प्रीती।।

जप तप व्रत दम संजम नेमा ।
गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा ।।
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना । 
बोध जथारथ बेद पुराना ॥ 

दंभ मान मद करहिं न काऊ ।
भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ॥
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला । 
हेतु रहित परहित रत सीला ॥ 

मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते।
कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ॥
(अरण्य 45)

वरषहिं जलद भूमि निअराएँ।
जथा नवहिं बुध विद्या पाएँ । 
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसें ।
 खल के वचन संत सह जैसे ॥
 छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई ।
 जस थोरेहुँ धन खल इतराई ॥ 
भूमि परत भा ढाबर पानी ।
 जनु जीवहि माया लपटानी ॥ 
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा । 
जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ॥'
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई । 
होइ अचल जिमि जिव हरि पाई ।।

 हरित भूमि तृन सकुल समुझि परहिं नहिं पंथ ।
 जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ ॥ १४ ॥
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई ।
 बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ॥
 नव पल्लव भए बिटप अनेका। 
साधक मन जस मिलें बिबेका ॥ 
अर्क जवास पात बिनु भयऊ ।
 जस सुराज खल उद्यम गयऊ ॥ -
 खोजत कतहुँ मिलइ नहिँ धूरी । 
करई क्रोध जिमि धरमहि दूरी ॥ 
ससि संपन्न सोह महि कैसी । 
उपकारी के संपति जैसी ॥
 निसि तम घन खद्योत बिराजा ।
 जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥ 
महावृष्टि चलि फूटि किआरीं। 
जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ॥ 
कृषि निरावहिं चतुर किसाना । 
जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ॥ 
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं ।
 कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ॥ 
ऊसर बरसई तृन नहिं जामा ।
 जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥

विविध जंतु संकुल महि भ्राजा ।
 प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ॥ 
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना ।
 जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना ॥
कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं ।
 जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं ॥ १५ (क) ॥

 कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।
 बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग ॥ १५ (ख) ॥
वर्षा ऋतु -
बरषा बिगत सरद रितु आई ।
 लछिमन देखहु परम सुहाई ।। 
फूले कास सकल महि छाई ।
 जनु वर्षा ऋतु प्रगट बुढाई ॥
 उदित अगस्ति पंथ जल सोषा । 
जिमि लोभहि सोसई संतोषा ॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा ।
 संत हृदय जस गत मद मोहा॥ 
रस रस सूख सरित सर पानी ।
 ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी ॥ 
जानि सरद रितु खंजन आए ।
 पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए ॥ 
पंक न रेनु सोह असि धरनी ।
 नीति निपुन नृप के जसि करनी ।। 
जल संकोच बिकल भइँ मीना । 
अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना ॥ 
बिनु घन निर्मल सोह अकासा ।
 हरिजन इव परिहरि सब आसा॥ 
 कहुँ कहुं बृष्टि सारदी थोरी । 
कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी ॥

दश चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि ।
 जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि ॥ १६ ॥

 सुखी मीन जे नीर अगाधा ।
 जिमि हरि सरन न एकउ बाधा ॥ 
फूलें कमल सोह सर कैसा ।
 निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा ॥ 
गुंजत मधुकर मुखर अनूपा । 
सुंदर खग रव नाना रूपा ॥ 
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी । 
जिमि दुर्जन पर संपति देखी ॥ 
चातक रटत तृषा अति ओही ।
 जिमि सुख लहई न संकरद्रोही ॥ 
सरदातप निसि ससि अपहरई । 
संत दरस जिमि पातक टरई ॥ 
देखि इंदु चकोर समुदाई ।
 चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई ॥ 
मसक दंस बीते हिम त्रासा ।
 जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नामा॥

दशभूमि  जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ। 
(किष्किन्धाकाण्ड 14-1



 

कौन हैं राम

 

कौन हैं राम

मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधे: पूर्णेन्दुमानन्ददं

वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।

मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्व:सम्भवं शङ्करं

वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनं श्रीरामभूपप्रियम्।। १।।

सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं

पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्।

राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं

सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे।। २।।

              श्री रामचरित मानस के तृतीय सोपान, जिसे अरण्यकाण्ड कहते हैं में पहले तुलसीदास जी शंकर जी की वन्दना करते हुये कहते हैं कि वे धर्मरूपी वृक्ष के मूल हैं, विवेकरूपी समुद्र को आनन्द देने वाले पूर्ण चन्द्रमा के समान है, वैराग्यरूपी कमल के विकास के लिये जो सूर्य के समान है, पापरूपी घोर अंधकार को मिटाने वाले तथा तीनों तापों- दैहिक, दैविक भौतिक को हरने वाले मोह रूपी बादलों को हरने के लिये जो आकाश में उत्पन्न पवन के समान है, साथ ही जो ब्रह्मा जी के आत्मज हैं, कलंक नाशक और श्रीरामचन्द्र के प्रिय हैं, ऐसे शिव की मैं वन्दना करता हूँ।

              तुलसीदास जी जब इस बात को लिख रहे हैं तो स्पष्ट होता है कि शंकर धर्म के मूल हैं तो विवेक प्रदाता और वैराग्यदाता भी। वे पाप, ताप और आसक्ति को हरने वाले और संसार के रचयिता ब्रह्मा के आत्मज और राम को प्रिय हैं। परन्तु तुलसी को यह बात ध्यान में है कि यदि शंकर को राम प्रिय हैं तो राम को भी शंकर उतने ही प्रिय हैं। इसलिये वे दूसरे छन्द में राम की स्तुति करते हुये राम को जलयुक्त मेघ के समान सुन्दर, श्याम और आनन्द घन कहते हैं। तुलसी के राम पीत वस्त्रधारी हैं, हाथ में धनुष बाण हैं तो कमर में तरकश सुशोभित है। कमल के समान सुन्दर विशाल नेत्र, जिनके मस्तक पर जटाजूट है, ऐसे अत्यंत सुन्दर सीता और लक्ष्मण सहित मार्ग में जाते हुये राम की मैं वन्दना करता हूँ।

              तुलसीदास राम की वन्दना करते हुये उस पृष्ठभूमि को भी स्थापित करते हैं जहाँ से राम अयोध्या और मिथिलावासियों को विदा करते हुये राज्य संचालन के लिये भरत को अधिकार प्रदत्त कर अपनी पादुका देकर आगे की यात्रा प्रारम्भ कराते देते हैं। पार्वती से शंकर जी कहते हैं, हे पार्वती राम के गुण गूढ़ हैं, पण्डित और मुनि जैसे-जैसे उनको समझते हैं वैसे-वैसे वो वैराग्य को प्राप्त होते जाते हैं। शंकर के माध्यम से तुलसी यह भी बताने का प्रयत्न करते हैं कि भगवान से विमुख और धर्म से हीन व्यक्ति महामूढ़ होता है और सदा मोह ग्रस्त रहता है।

              यहाँ से राम की कथा आगे बढ़ती है। आज राम अयोध्या के संकट से मुक्त हैं । वे संभवत: अन्दर से प्रसन्न भी हैं क्योंकि उन्होंने गुरु और ससुर जनक तथा माताओं की उपस्थिति में भरत को वह भार सौंप दिया, जिसकी पीड़ा को लेकर वे बिलखते पिता को छोडक़र वन के प्रस्थान किये थे। इसीलिये तो राम आज अपने हाथों से विभिन्न प्रकार के सुन्दर फूलों को चुनकर सीता के लिये आभूषण बनाते हैं। वे स्वच्छ शिला पर बैठी सीता को बड़े ही आदर और स्नेह से हाथ से बनाये हुये फूलों के गहनों को उनको पहनाते हैं। यह वन में राम का सीता के लिये सम्बल है।

               ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ लक्ष्मण अनुपस्थित हैं, संभवत: वे कहीं आसपास पहरा दे रहे होंगे। तभी एक घटना घटती है- इन्द्र का पुत्र जयंत कौवे का रूप धारण करके प्रसन्नवदना सीता के चरण (पैर) में चोंच मारकर घायल कर देता है। तुलसी कहते हैं यह उसी तरह की घटना है जैसे मंदबुद्धि चींटी समुद्र की थाह लेना चाह रही हो। यहाँ पर मूढ़ जयंत भी राम के बल की परीक्षा लेना चाहता है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि राम सीता को लेकर के भविष्य की घटनाओं का संकेत हैं । राम का सरकण्डे के सींक से जयंत को लक्ष्य करके बाण का संधान करना उस भेद का प्रकृतिकरण भी है कि राम के द्रोही को संसार में कोई सुरक्षा नहीं दे सकता ।  इसलिये तुलसी आगे बताते हैं कि जयंत अपने पिता के पास जाता है उसको वहाँ शरण नहीं मिलती। वह ब्रह्मलोक, शिवलोक होता हुआ अंत में निराश होकर नारद के पास जाता है । नारद उसे पुन: राम की शरण में जाने का मंत्र बताते हैं।

              दो बातें बड़ी स्पष्ट हैं राम का द्रोही कोई नहीं बनना चाहता और राम इतने उदार हैं कि उनकी प्रियतमा सीता के पैर को घायल करने वाला इन्द्र का पुत्र भी राम की शरण में दंड के रूप में एक आँख को गँवाकर अभय प्राप्त करता है। देश काल के हिसाब से यदि विचार किया जाए तो जयंत इन्द्र का पुत्र अर्थात् राजा का बिगड़ैल बेटा है और वह परम शक्ति सम्पन्न राम को वनवासी समझकर उद्दण्डता कर बैठता है। अर्थात् राजा का पुत्र सदा ही निरंकुश और सामान्य जीवन बिताने वाले वनवासियों के साथ किसी भी प्रकार की उद्दण्डता करने का साहस कर सकता है। संभवत: जहाँ राम की करुणा को उजागर करना चाहते हैं और यह भी बताना चाहते हैं कि वन में रहने वाले राम उन हजारों-हजारों वनवासियों के प्रतिनिधि हैं जो अपनी अस्मिता को किसी सामर्थ्यवान राजपुत्र के हाथों खेलने नहीं देते। इतना ही नहीं उसकी सहायता के लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिव जैसे छत्रप भी अनैतिकता का संरक्षण नहीं करते। मैं इसको इसलिये भी कहता हूँ कि तुलसी स्वयं इस बात को आगे लिखते हैं-

रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किये श्रुति सुधा समाना।।

              इस घटना के कारण सम्भवत: राम के वहाँ निवास की सूचना जयंत की इस घटना के कारण से सर्वत्र फैल जाती है और राम को यह लगता है कि अब यहाँ पर लोग आकर के उनसे मिलना-जुलना प्रारंभ करेंगे। तभी राम के मन की बात तुलसी लिखते हैं- बहुरि राम अस मन अनुमाना। होईंहि भीर सबहिं मोहि जाना।।इसलिये राम तत्काल वहाँ से मुनियों से विदा लेकर आगे बढ़ जाते हैं। यहाँ और एक नया प्रसंग खुलता है । राम अत्रि के आश्रम पहुँचते हैं। तुलसी लिखते हैं-

पुलकित गात अत्रि उठि धाये। 

देखि राम आतुर चलि आये।।

करत दण्डवत मुनि उर लाये। 

पेम वारि दौ जन अन्हवाये।।

              अद्भुत दृश्य है ।  ये मुनि राम को देखकर दौड़ रहे हैं और राम दौड़ कर आ रहे मुनि को देखकर दौड़ पड़ते हैं। दोनों भाइयों को लपेटकर प्रेमाश्रु से मुनि को नहला देते हैं। तुलसी इस अवसर का लाभ उठाकर राम की शोभा का वर्णन अत्रि मुनि के मुख से कुछ इस प्रकार करते हैं-

नमामि भक्त वत्सलं ।कृपालु शील कोमलं ॥

भजामि ते पदांबुजं ।अकामिनां स्वधामदं ॥

निकाम श्याम सुंदरं ।भवाम्बुनाथ मंदरं ॥

प्रफुल्ल कंज लोचनं ।मदादि दोष मोचनं ॥

प्रलंब बाहु विक्रमं ।प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥

निषंग चाप सायकं ।धरं त्रिलोक नायकं ॥

दिनेश वंश मंडनं ।महेश चाप खंडनं ॥

मुनींद्र संत रंजनं ।सुरारि वृन्द भंजनं ॥

मनोज वैरि वंदितं ।अजादि देव सेवितं ॥

विशुद्ध बोध विग्रहं ।समस्त दूषणापहं ॥

नमामि इंदिरा पतिं ।सुखाकरं सतां गतिं ॥

भजे सशक्ति सानुजं ।शची पति प्रियानुजं ॥

त्वदंघ्रि मूल ये नराः ।भजंति हीन मत्सराः ॥

पतंति नो भवार्णवे ।वितर्क वीचि संकुले ॥

विविक्त वासिनः सदा ।भजंति मुक्तये मुदा ॥

निरस्य इंद्रियादिकं ।प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥

तमेकमद्भुतं प्रभुं ।निरीहमीश्वरं विभुं ॥

जगद्गुरुं च शाश्वतं ।तुरीयमेव केवलं ॥

भजामि भाव वल्लभं ।कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥

स्वभक्त कल्प पादपं ।समं सुसेव्यमन्वहं ॥

अनूप रूप भूपतिं ।नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥

     प्रसीद मे नमामि ते ।पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥

              हे राम ! चरण कमलों में भक्ति दें । दुनिया तुम्हारे स्वागत को आतुर है ।

अनुवाद का अर्थ और प्रकार (''भाषा और संस्कृति' आधार पाठ्यक्रम स्नातक तृतीय वर्ष)

 

अनुवाद के प्रकार

 

पाठ्य सामग्री

1.       प्रक्रिया के आधार पर अनुवाद: (1) पाठधर्मी अनुवाद, (2) प्रभावधर्मी अनुवाद

2.       पाठ के आधार पर अनुवाद: (1) पूर्ण अनुवाद (2) आंशिक अनुवाद (3) समग्र अनुवाद (4) परिसीमित अनुवाद- (i) स्वनिमिक (ii) लेखिकीय (iii) व्याकरणिक (iv) शब्दकोशीय (v) शब्द प्रति शब्द अनुवाद (vi) शाब्दिक अनुवाद(vii) भावानुवाद (viii) छायानुवाद   

3.       गद्य-पद्य के आधार पर अनुवाद-  (i) गद्यानुवाद (ii) पद्यानुवाद (iii) छन्दमुक्तानुवाद

4.       साहित्य विधा के आधार पर अनुवाद-  (i) काव्यानुवाद (ii) नाट्यानुवाद (iii) कथा अनुवाद (iv) रूप प्रधान अनुवाद (vi) ललित साहित्य अनुवाद (vii) धार्मिक पौराणिक अनुवाद (viii) सारानुवाद (ix)व्याख्यानुवाद  (x)  रुपान्तण।

5.       विषय की प्रकृति के आधार पर अनुवाद - (i) मूलनिष्ठ (ii) मूलमुक्त

6.        अनुवाद के अन्य प्रकार- (iv) परोक्ष अनुवाद  (v) पुनरानुवाद (vi) सूचनानुवाद (vii) शैक्षिक अनुवाद  (xi) वैज्ञानिक एवं तकनीकी अनुवाद  (xii) विधि अनुवाद  (xiii) प्रशासनिक, मानविकी एवं समाजशास्त्रीय अनुवाद (xiv) संचार माध्यमों का अनुवाद  

 

अनुवाद के प्रकार  :  विषय-वस्तु, अनुवाद सिद्धातों, भाषा आदि के विभिन्न रूपों के कारण अनुवाद करने के कई प्रकार सामने आते हैं । इससे अनुवाद के सामर्थ्य को भी समझा जा सकता है साथ ही भाषा की व्यापकता के साथ अर्थ बोध भी विस्तार पाता है । अनुवाद में  प्रयोजन और प्रयोक्ता के आधार पर प्रयोग होता है, जिसके कारण अनुवाद के प्रकार दिखाई देते हैं ।

1.       प्रक्रिया के आधार पर अनुवाद:  प्रक्रिया के आधार पर अनुवाद के दो रूप सामने हैं- एक पाठ धर्मी अनुवाद , दूसरा प्रभाव धर्मी अनुवाद । इसमें विषय वस्तु की संरचना और उसका प्रकार अधिक निर्भर करता है ।

(i) पाठधर्मी अनुवाद :  इस अनुवाद में विषय-वस्तु की प्रधानता रहती है । इसमें अनुवादक पाठ्य सामग्री से बाहर नहीं जा सकता । इसमें मूल कृति ही आदर्श होती है । यह अनुवाद वैज्ञानिक, कानूनी दस्तावेजों और संसदीय सामग्री पर लागू होता है । (ii) प्रभावधर्मी अनुवाद:  इस अनुवाद में अनुवादक पाठक और लेखक के बीच सेतु का काम करता है। इसमें वाक्य विन्याs, अर्थबोध पर ज्यादा निर्भरता रहती है ।  इससे लक्ष्य भाषा के पाठकों पर सार्थक प्रभाव पड़ता है  

2.       पाठ के आधार पर अनुवाद:  इसमें कथ्य और अभिव्यक्ति दोनों का समन्वय मिलता है । इसमें कई रूप सामने आते हैं - (1) पूर्ण अनुवाद- पूर्ण अनुवाद में लक्ष्य भाषा की पूरी निर्भरता रहती है । इसमें रचना या विषयवस्तु के प्रत्येक अंश, शब्द, पदबंध, वाक्य, उप्व्कक्य और अनुच्छेद को ध्यान में रखकर अनुवाद किया जाता है ।  (2) आंशिक अनुवाद- इस अनुवाद प्रक्रिया में आंचलिक शब्दों, उनके सांस्कृतिक परिवेश से कटाने के भय से उनका अनुवाद नहीं होता, ताकि शब्द का कुल-गोत्र सुरक्षित रहे, यथा - वेद, उपनिषद, पुराण, ब्रह्मचार्य, धर्म । (3) समग्र अनुवाद- इसमें स्रोत भाषा के भाषिक स्तर को लक्ष्य भाषा के पाठ में प्रतिस्थापित किया जाता है , किन्तु यह पूरी तरह से संभव नहीं होता । (4) परिसीमित अनुवाद-  इस अनुवाद में व्याकरण, ध्वन्यात्मक और शब्दगत स्तर पर पाठ्य सामग्री का समतुल्यता के आधार पर लक्ष्य भाषा में प्रतिस्थापन होता है (i) स्वनिमिक-  इसमें स्वनिम के आधार पर लक्ष्य भाषा की व्यवस्था की जाती है । मूलभाषा की उन स्वनिमिक इकाइयों के स्थान पर लक्ष्य भाषा की वे स्वनिमिक इकाइयां आ जाती हैं  जिनमें स्वनिक अभिलक्षणों की समानता अधिकतम मिलाती है, जैसे - अंग्रेजी के फ के स्थान पर फ़ आ जाता है । (ii) लेखिकीय- इसके अंतर्गत एक लिपि के दोसरे लिपि के चिन्हों में परिवर्तन होता है    (iii) व्याकरणिक- इसमें मूल पथ / भाषा की व्याकरणिक इकाई के स्थान पर लक्ष्य भाषा की व्याकरणिक इकाई को स्थान मिलता है , उदहारण के लिए - मूल -  he will travel by car. अनुवाद - वह कार से यात्रा करेगा या वह कार से ट्रेवल करेगा। इसे द्विभाषा में ‘कोडमिश्रण’ कहते हैं।शब्दकोशीय- मूल पाठ्यसामग्री के शब्द कोष के स्थान पर लक्ष्य भाषा के शब्दकोष आ जाते है किन्तु व्याकरण मूल स्रोत भाषा का ही रहता है यथा - वह साइंस फेकलिटी के पास जाएगा  (v) शब्द प्रति शब्द अनुवाद -इस प्रकार के अनुवाद में  शब्द पर ही ध्यान दिया जाता है न की वाक्य योजना पर किन्तु यह न तो पठनीय होता है और न ही सही अर्थ बोध करता है ,  जैसे - Ram is going अनुवाद -राम है जा रहा (vi) शाब्दिक अनुवाद- इस प्रक्रिया में वाक्य विन्यास के आधार पर  मूल पाठ का ही अनुवाद किया जाता है। इसे कोशगत अनुवाद भी कहते हैं, यथा - Burn the lamp  अनुवाद - बत्ती जलाओ । भारतीय ज्ञान परम्परा के ग्रंथों का अनुवाद भी इसी प्रकार किया जाता है क्योंकि इसमें मूल रचना के शब्दों का विशेष महत्व होता है (vii) भावानुवाद- इस अनुवाद पद्धति में  मूल ग्रन्थ के शब्द , वाक्य रचना पर ध्यान न देकर  उसके भाव पक्ष पर ध्यान दिया जाता है। इसमें कभी कभी sense for sense translation  अथवा   Free translation  भी कहा जाता है। यथा - आपने मुझसे ज्यादा दुनिया देखी है । अनुवाद -  You are far more experienced than me.  (viii) छायानुवाद -मूल पाठ या सामग्री पढने के बाद  अनुवादक जो अनुभव करता है या उसके मन को जो चीज छू जाती है उसके सन्दर्भ में वह लक्ष्य भाषा में  जिस प्रकार कथ्य का रुपान्तरण करता है उसे छायानुवाद कहते हैं  

3.       गद्य-पद्य के आधार पर अनुवाद-  गद्य पद्य का गद्य और पद्य में ही जो अनुवाद किया जाता है उसे गद्यानुवाद या पद्यानुवाद कहते हैं  (i) गद्यानुवाद - गद्यानुवाद का सबसे अच्छा उदहारण कालिदास के मेघदूतम का  कवि नागार्जुन का अनुवाद माना जाता है (ii) पद्यानुवाद-  मेघदूतम , कुमार संभव, टैगोर की गीतांजलि , रामचरित मानस आदि के अनुवाद इस श्रेणी में आते हैं । इसमें अनुवाद करते समय प्रायः स्रोत भाषा के व्यहार में लाए छंदों का ही उपयोग किया जाता है  (iii) छन्दमुक्तानुवाद- वर्तमान में सबसे प्रचलित अनुवाद पद्धति है क्योकि इसमें स्रोत भाषा के छंदों के स्वीकारने की बाध्यता नहीं रहती अनुवाद विषय के अनुरूप छंद का चयन किया जता है 

4.       साहित्य विधा के आधार पर अनुवाद-  (i) काव्यानुवाद - स्रोत-भाषा में लिखे गए साहित्य का लक्ष्य-भाषा में रूपान्तरण काव्यानुवाद कहलाता है । यह गद्य, पद्य एवं मुक्त छन्द में से किसी में भी किया जा सकता है। होमर के महाकाव्य इलियडएवं कालिदास के मेघदूतम्एवं ऋतुसंहारइसके उदाहरण माने जाते हैं। (ii) नाट्यानुवाद- किसी भी नाट्य कृति का नाटक के रूप में ही अनुवाद करना नाट्यानुवाद कहलाता है। चूंकि नाटक में रंगमंच और दर्शक महत्वपूर्ण होते है अत अनुवाद इनको ध्यान में रखकर ही किया जता है । इस अनुवाद में अनुभव और अभ्यास दोनों की आवश्यकता होती है। संस्कृत के नाटकों के हिन्दी अनुवाद तथा शेक्सपियर के नाटकों के अन्य भाषाओं में किए गए अनुवाद इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं।  (iii) कथा अनुवाद- विश्व प्रसिद्ध उपन्यासों एवं कहानियों के अनुवाद काफ़ी प्रचलित एवं लोकप्रिय हैं। मोपासाँ एवं प्रेमचन्द की कहानियों का दुनिया की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ है। रूसी उपन्यास माँ’, अंग्रेजी उपन्यास लैडी चैटर्ली का प्रेमीतथा हिन्दी के गोदान’, ‘त्यागपत्रतथा नदी के द्वीपके विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। (iv) रूप प्रधान अनुवाद-   रूप प्रधान अनुवाद में मूल के अर्थ पक्ष की उपेक्षा कर उसके ध्वनि-योजना पक्ष (रूप पक्ष) को संरक्षित रखते हुए लक्ष्यभाषा में अंतरित किया जाता है । प्रायः बाल कविताओं के अनुवाद के लिए इस प्रणाली का प्रयोग किया जाता है ताकि मूलपाठ की ध्वनि योजना बनी रहे।  (vi) ललित साहित्य अनुवाद- ललित साहित्यानुवाद के अन्तर्गत कविता, ललित निबन्ध, कहानी, डायरी, आत्मकथा, उपन्यास आदि का अनुवाद किया जता है ।  (vii) धार्मिक पौराणिक अनुवाद- धार्मिक-पौराणिक साहित्यानुवाद थोड़ा जोखिम भरा होता है क्योंकि इसमें धार्मिक गर्न्थो , मत-पन्थो के मान्य साहित्य का अनुवाद किया जाता है। अत: आवश्यक होता है की अनुवादक को मत-पंथों की गहरी समझ हो अन्यथा अनुवाद विवाद का कारण बनाता है ।   (viii) सारानुवाद- इसमें महत्वपूर्ण यह है कि मूलपाठ का एकाधिक वार से अधिक पठन करने के पश्चात ही मूल-अर्थ को ग्रहण किया जाता है। इसमें केंद्रीय विचार को बनाए रखने की आवश्यकता होती है। पहले मूल का सार पाठ बनाया जता है, तदुपरांत उसका अनुवाद किया जाता है। यह संक्षिप्त, अति संक्षिप्त, अत्यंत संक्षिप्त आदि कई प्रकार का होता है। अपनी संक्षिप्तता, सरलता-स्पष्टता तथा मूल और लक्ष्यभाषा के स्वाभाविक-सहज प्रवाह के कारण व्यावहारिक कार्यों के सामान्य अनुवाद की तुलना में सारानुवाद ही अधिक उपयोगी है। न्यायालयों द्वारा दिए गए लंबे निर्णयों तथा महत्वपूर्ण व्यक्तियों के वक्तव्यों और प्रशासनिक एवं संसदीय मामलों के सार इसी रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। इसमें मूलपाठ का सावधानीपूर्वक पठन तथा केंद्रीय भाव को बनाए रखने की चुनौती होती है। इस पर अधिक चर्चा इसी पाठ्यक्रम की ‘‘सारानुवाद’’ इकाई में की जाएगी। (ix) व्याख्यानुवाद-   इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक अपने व्यक्तित्व, ज्ञान और विषय संबंधी अनुभव के आधार पर कथ्य में स्पष्टीकरण के लिए कुछ अतिरिक्त उदाहरण, प्रमाण इत्यादि जोड़ सकता है । संस्कृत श्लोकों या सूत्रों पर भाष्य, टीका आदि इसके उदाहरण हैं। तार्किक संयोजनों में अनेक प्रसंग जोड़े जाते हैं ताकि मूल के निहितार्थ को स्पष्ट किया जा सके। लोकमान्य तिलक का गीतानुवादइसका श्रेठ उदहारण है ।  (x)  रुपान्तण- रूपांतरण का अर्थ है स्रोतभाषा के पाठ के रूप को बदलना। इसमें रूपांतरणकार मूलपाठ को  पाठक अथवा दर्शक की रुचि और आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित करके लक्ष्यभाषा में रखता है। इसमें मूल सामग्री, संक्षिप्त या विस्तृत, सरल या कठिन तथा विधा-रूप में परिवर्तित होकर आती है; जैसे उपन्यास या कहानी का नाट्य-रूपांतरण जिसमें मूलपाठ की विधा, परिवेश, पात्रा, स्थान आदि परिवर्तित हो जाते हैं। भारतीय सिनेमा तथा रंगमंच पर रूपांतरण के सफल एवं उत्तम प्रयोग द्रष्टव्य हैं।  

5.       विषय की प्रकृति और अनुवाद की प्रकृति के आधार पर अनुवाद - विषय की प्रकृति के आधार पर  रेखाचित्र, निबन्ध, संस्मरण, रिपोर्ताज, डायरी एवं आत्मकथा आदि के अनुवाद आते हैं । पं. जवाहर लाल नेहरू की कृति डिस्कवरी ऑफ इंडियातथा महात्मा गांधी एवं हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथाओं के विभिन्न भाषाओं में किए गए अनुवाद इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं।  प्रकृति के आधार पर अनुवाद - विषय या प्रयुक्ति के आधार पर अनुवाद के अनेक भेद किए जा सकते हैं। जैसे सरकारी रिकार्डों का अनुवाद, गजेटियरों का अनुवाद, पत्रकारिता से संबद्ध अनुवाद, विधि-साहित्य का अनुवाद, ऐतिहासिक साहित्य, धार्मिक साहित्य तथा ललित साहित्य का अनुवाद। इसमें दो श्रेणी कर सकते हैं - (i) मूलनिष्ठ- मूलनिष्ठ अनुवाद कथ्य और शैली दोनों की दृष्टि से मूल का अनुगमन करता है। इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक का प्रयास रहता है कि अनूदित विचार या कृति स्रोत-भाषा के विचारों एवं अभिव्यक्ति के निकट रहे। (ii) मूलमुक्त - मूलमुक्त अनुवाद को भोलानाथ तिवारी ने मूलाधारित अथवा मूलाधृत अनुवाद भी कहा है। वैसे तो मूलमुक्त का अर्थ ही होता है मूल से हटकर, किन्तु किसी भी अनुवाद में विचारों के स्तर पर परिवर्तन की गुँजाइश नहीं होती। अत: यहाँ मूल से भिन्न का अर्थ है शैलीगत भिन्नता तथा कहावतों एवं उपमानों का देशीकरण करने की अनुवादक की स्वतंत्रता।।

अनुवाद के अन्य प्रकार- (i) परोक्ष अनुवाद- मूल भाषा से अनुवाद न कर जब मध्यवर्ती पाठ से अनुवाद किया जाएँ तो यह परोक्ष अनुवाद कहलाता है। इसमें पहले किसी भाषा में किए गए अनुवाद से अनुवाद किया जाता है।  (ii) पुनरानुवाद- मूल भाषा पाठ के अनुवाद की पुनः भाषा में पुनरावृत्ति करना पुनरानुवाद है। इसमें अनुवाद कार्य दो बार होता है- पहली बार में जो लक्ष्यभाषा पाठ निष्पन्न होता है वही दूसरी बार में मूल भाषा पाठ बन जाता है, और जो भाषा पहली बार में मूल भाषा होती है वह दूसरी बार में लक्ष्यभाषा बन जाती है; जैसे- एक अंग्रेजी पाठ का हिंदी में अनुवाद और फिर उस हिंदी पाठ का अंग्रेजी में अनुवाद।  अनुवाद मूल्यांकन के लिए इस पद्धति का प्रायः प्रयोग किया जाता है।(vi) सूचनानुवाद- मूलपाठ की विधा संबंधी विशेषता की उपेक्षा कर केवल विषयवस्तु अर्थात कथ्य या संदेश का अनुवाद करना सूचनानुवाद है। यह सारांश और संक्षेप से लेकर अविकल अनुवाद तक हो सकता है। यह प्रायः व्याख्यात्मक हो जाता है और रूप, बिंब, लक्षण; शैली आदि पूर्णतः उपेक्षित रहती हैं।  इसमें प्राचीन भाषाओं के माध्यम से प्रस्तुत ज्ञान के प्रति समसामयिक पाठकों को परिचित कराना इसका उद्देश्य है। (vii) शैक्षिक अनुवाद- भारत तथा अनेक दूसरे देशों में जहाँ बहुभाषिकता जैसी स्थितियाँ हैं वहाँ ज्ञान साहित्य अमानक तथा अर्थ-साहित्यिक विधाओं में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। अतः मूल रचनाओं का (लोक-साहित्य को इसमें लिया जा सकता है) मानक साहित्यिक शैली में अनुवाद करने की आवश्यकता बनी रहती है, जिससे शिक्षित वर्ग मूल रचनाओं का कुछ आस्वाद कर सके और पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित व संवर्धित भी किया जा सके। यह ज्ञानात्मक साहित्य में होने वाले अनुवाद से इतर अनुवाद माना जाता है ।  (xi) वैज्ञानिक एवं तकनीकी अनुवाद- वैज्ञानिक एवं तकनीकी अनुवाद में विषय मुख्य होता है जबकि शैली को उतना महत्व नहीं दिया जाता है । वैज्ञानिक अनुवाद में कैसेसे ज़्यादा क्याका महत्त्व होता है। इसमें शब्दानुवाद अपेक्षित है। इसमें पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग अपेक्षित है । कुल मिलाकर इस प्रकार के अनुवाद में सूचना, संकल्पना तथा तथ्य महत्त्वपूर्ण होते हैं। सबसे ज़रूरी बात यह कि वैज्ञानिक एवं तकनीकी अनुवाद में अनुवादक विषय का सम्यक् जानकार हो और साथ ही प्रशिक्षित भी। तभी वह अनुवाद के साथ न्याय कर पाएगा। (xii) विधि अनुवाद- इसमें कानून की सामग्री को दूसरी भाषा में अनुवाद किया जाता है। कानून की किताबें, अदालत के मुकद्दमे, तत्सम्बन्धी विभिन्न आवेदन-पत्र, कानूनी संहिताएँ, नियम-अधिनियम, संशोधित अधिनियम आदि कानूनी अनुवाद के प्रमुख हिस्से हैं। इस प्रकार के अनुवाद में प्रत्येक शब्द का अपना विशेष महत्त्व होता है। इसमें भावार्थ नहीं शब्दार्थ महत्त्वपूर्ण होता है। इसके प्रत्येक शब्द का अर्थ स्पष्ट होता है। एक शब्द का एक ही अर्थ अपेक्षित होता है। इस प्रकार के अनुवाद की भाषा पूरी तरह तकनीकी प्रकृति की होती है। (xiii) प्रशासनिक, मानविकी एवं समाजशास्त्रीय अनुवाद- प्रशासनिक अनुवाद में भाषा की प्रशासन सम्बन्धी सामग्री को दूसरी भाषा में परिवर्तित किया जाता है। प्रशासनिक अनुवाद का सम्बन्ध सरकारी कार्यालयों से होने के कारण इसे कार्यालयीन अनुवाद भी कहा जाता है। इस अनुवाद के अन्तर्गत प्रशासन के सरकारी पत्र, परिपत्र, सूचनाएँ-अधिसूचनाएँ, नियम-अधिनियम, प्रेस विज्ञप्तियाँ आदि आते हैं। केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, संसद, विभिन्न मंत्रालय आदि में द्विभाषी तथा बहुभाषी स्थिति के कारण प्रशासनिक अनुवाद के बिना काम नहीं चलता। यहाँ भी पारिभाषिक शब्दावली का सहारा लिया जाता है। प्रशासनिक अनुवाद में कथ्यअर्थात् कही गई बातमहत्त्वपूर्ण होती है। मानविकी एवं समाजशास्त्र से सम्बन्धित सामग्रियों के अनुवाद के लिए अनुवादक का विषय ज्ञान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। इस तरह का अनुवाद अनुसंधान, सर्वेक्षण, परियोजना एवं शैक्षिक आवश्यकता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होता है। इस तरह के अनुवाद में सरलता एवं स्पष्टता अपेक्षित होती है। (xiv) संचार माध्यमों का अनुवाद- वर्तमान युग में विविध देशों में विविध भाषाएँ होने के कारण संचार माध्यम की सामग्री का अनुवाद महत्त्वपूर्ण बना हुआ है। इस अनुवाद के अन्तर्गत मुख्यत: दैनिक समाचार, सभी प्रकार की पत्र-पत्रिकाओं, दूरदर्शन तथा आकाशवाणी और सोशल मिडिया  आदि क्षेत्रों की सामग्री के अनुवाद आते हैं। इन सम्पर्क माध्यमों में दुनिया के सारे ज्ञान-विज्ञान की सामग्री समाहित होती है। इसमें राजनीति, व्यापार, खेल, विज्ञान, साहित्य आदि की अर्थात् जीवन से सम्बन्धित सभी विषय-क्षेत्रों की सामग्री होती है। (xiv) आशु अनुवाद-आशु अनुवाद को तत्काल अनुवाद भी कहा जाता है जो आशु अनुवाद करता है उसे दुभाषिया कहते हैं। यह दुभाषिया आम जनता की भाषा में मुख्य बात का अनुवाद करता चलता है। दुभाषिए के पास सोचने समझने के लिए कुछ ही क्षण होते हैं। लोकसभा, राज्यसभा, चुनाव रैलियों, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आशु अनुवाद को की मांग रहती है। पर्यटन केंद्रों पर भी दुभाषिए अथवा आशु अनुवाद की आवश्यकता होती है।

              उपर्युक्त बिन्दुओं के अतिरिक्त विषयाधारित अनुवाद में संगीत, ज्योतिष, पर्यावरण, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अभिलेखों, गजेटियरों आदि की सामग्री, वाणिज्यानुवाद, काव्यशास्त्र, भाषाविज्ञान सम्बन्धी अनेकानेक विषयों को शामिल किया जा सकता है।

 

   

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