प्रश्नोपनिषद
:
इस उपनिषद् के प्रवक्ता आचार्यपिप्पलाद थे जो कदाचित् पीपल के गोदे खाकर जीते
थे। सुकेशा, सत्यकाम,
सौर्यायणि गार्ग्य, कौसल्य, भार्गव और कबंधी, इन छह ब्रह्मजिज्ञासुओं ने इनसे
ब्रह्मनिरूपण की अभ्यर्थना करने के उपरांत उसे हृदयंगम करने की पात्रता के लिये
आचार्य के आदेश पर वर्ष पर्यंत ब्रह्मचर्य पूर्वक तपस्या करके पृथक्-पृथक् एक एक
प्रश्न किया । इसके प्रथम तीन प्रश्न अपरा विद्या विषयक तथा शेष परा विद्या संबंधी
हैं। प्रथम प्रश्न में प्रजापति सेसृष्टि की उत्पत्ति, द्वितीय प्रश्न में प्राण
के स्वरूप , तीसरे प्रश्न में प्राण की उत्पत्ति तथा स्थिति का निरूपण किया गया है
। पिप्पलाद ने चौथे प्रश्न में बताया की
स्वप्नावस्था में श्रोत्रादि इंद्रियों के मन मे लय हो जाने पर प्राण
जाग्रत रहता है तथा सुषुप्ति अवस्था में मन का आत्मा में लय हो जाता है । वही
द्रष्टा, श्रोता, मंता, विज्ञाता इत्यादि है जो अक्षर ब्रह्म का सोपाधिक स्वरूप है। इसका ज्ञान
होने पर मनुष्य स्वयं सर्वज्ञ, सर्वस्वरूप, परम अक्षर हो जाता है । पाँचवे प्रश्न में बताया कि ओंकार में ब्रह्म की
एकनिष्ठ उपासना एवं ॐ का एकनिष्ठ उपासक परात्पर पुरुष का साक्षात्कार करता है ।
अंतिम छठे प्रश्न में आचार्य पिप्पलाद ने दिखाया है कि इसी शरीर के हृदय
पुंडरीकांक्ष में सोलहकलात्मक पुरुष का वास है । ब्रह्म की इच्छा, एवं उसी से प्राण, उससे श्रद्धा, आकाश, वाय, तेज, जल, पृथिवी, इंद्रियाँ,
मन और अन्न, अन्न से वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक और नाम उत्पन्न हुए हैं जो उसकी सोलह कलाएँ और सोपाधिक स्वरूप हैं।
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