पञ्च कोष
तैत्तिरीयोपनिषद -शिक्षा वल्ली
ॐ क्या है ? ॐ अ, उ और म तीन
अक्षरों के योग से बनता है । ॐ ईश्वर माला का प्रथम अक्षर है । ‘अ’ सभी स्वरों में
वर्णमाला का प्रथम अक्षर है । प्रत्यक ध्वनि के उच्चारण के लिए इसकी आवश्यकता पड़ती
है, चाहे शिशु हो, गूंगा हो या पशु जो कंठ , जिह्वा अथवा तालव्य से ध्वनि निकाल
सकता है । ‘अ’ स्वर के बिना, जब तक की अन्य कोई स्वर अंत में न आ रहा हो, कोई भी
ध्वनि उच्चारण योग्य नहीं होती । ‘अ’ स्वर के बाद ही उ, इ आदि स्वर आते हैं । ॐ का दूसरा अक्षर ‘उ’ प्रथम स्वर की
ध्वनि परिवर्तन में सहायता करता है । ॐ का तीसरा अक्षर ‘म’ अनुस्वार की ध्वनि उस प्रत्येक
शब्द में अंतर्निहित है जो नासिका के सहयोग से उच्चारित होता है । इस
प्रकार ॐ सभी उच्चारित और अनुच्चारित ध्वनियों की पृष्ठभूमि का कार्य करता है और
इसीलिए इसे मूर्तिमंत ईश्वर अथवा शब्द ब्रह्म
माना जाता है ।
भारतीय दर्शन में ऋषियों
ने इसी उच्चारित वाणी को चार भागों में परिचय कराया है - परा, पश्यन्ति, मध्यमा और
वैखरी ।‘परा’ अव्यक्त ज्ञान की मूल चिति शक्ति है । ‘पश्यन्ति’ ज्ञान की व्यक्त
चेतना है । ‘मध्यमा’ ज्ञान की विचारों और
भावों में अभिव्यक्ति की मध्य अवस्था है
और ‘वैखरी’ शब्दों के आवरण में अलंकृत उच्चारित ध्वनि है ।
संस्कृत के पचास अक्षरों का
इस शरीर से क्या सम्बन्ध है? अक्षरों में सोलह ‘अआइईउऊऋऌळॄएऐओऔअंअ:’ स्वर होते हैं।
इसी तरह पच्चीस व्यंजनों को पांच श्रेणियों में बांटा गया है- कखगघङ, चछजझञ, टठडढण,
तथदधन,पफबभम । जिन्हें क च ट त और प वर्ग भी कहते हैं। इन व्यंजनों के प्रत्येक
श्रेणी के पहले दो अक्षर कठोर, बाद के दो कोमल और अंतिम अनुनासिक हैं । ‘यरलवशषसहळ’
अर्द्ध व्यंजन हैं । ‘क्ष’ ‘क्’ और ‘ष्’ का संयुक्त अक्षर है । सभी मन्त्र इन्हीं
अक्षरों और ध्वनियों के सयोग से बनाते हैं, जिनका उच्चारण शरीर और मन को वांछित
रीति से प्रभावित करता है । क्यों पड़ता है इन अक्षरों का अन्नमय कोष से लेकर आनन्द
मय कोष तक ?
मन्त्रों का योग विज्ञान
से सम्बन्ध जानने के लिए वर्णमाला का उससे सम्बन्ध जान लेना आवश्यक है । इस
सम्बन्ध को हम तीन प्रकार से समझते हैं - ध्वनि के प्रभाव से सभी स्वर मुख्यतः इड़ा से
जुड़े होते हैं । इनमें भी अल्प स्वर पिंगला, दीर्घ स्वर इड़ा तथा ए ऐ ओ औ चार स्वर
सुषुम्ना से सम्बंधित हैं । अनुनाशिक ध्वनि आत्मा एवं विसर्ग शक्ति से सम्बंधित है
। अल्प स्वर पुलिंग और दीर्घ स्वर स्त्री लिंग हैं तथा ए ऐ ओ औ नपुंशक लिंग हैं ।
क् से लेकर म् तक पच्चीस व्यंजन मुख्यत: पिंगला एवं नौ अर्द्ध व्यंजन (यरलवशषसहळ)
सुषुम्ना से सम्बंधित हैं । इसके आगे अल्प-स्वर सहित क् से लेकर क्ष् तक सभी व्यंजन पिंगला से,
दीर्घ स्वर इड़ा से एवं ए ऐ ओ औ आदि स्वरों से संपृक्त होने पर सुषुम्ना से संबध होते हैं । अनुनासिक से अंत होने पर
आत्मा और विसर्ग से शक्ति प्रभावित होती है ।
कोषों अर्थात् शरीर के
खजाने को समझने के लिए यहाँ षट्चक्रों से अक्षरों का सम्बन्ध समझना जरूरी हो जाता
है । सोलह स्वर (अआइईउऊऋऌळॄएऐओऔअंअ:) विशुद्ध चक्र स्थित कमल की सोलह
पंखुड़िया हैं । क् से लेकर ठ् तक के बारह व्यंजन अनाहत चक्र के पटल हैं । ड्
से लेकर प् तक के दस व्यंजन मणिपूर चक्र से सम्बंधित हैं । व् से लेकर ल्
तक के छह अक्षर स्वाधिष्ठान चक्र तथा व् श् ष् स आदि चार अक्षर मूलाधार
चक्र से सम्बंधित हैं । ह क्ष् आज्ञा चक्र स्थित बताएं गए हैं ।
उच्चारण की दृष्टि से
वर्णमाला का विभाजन इस प्रकार माना गया है- अ आ क ख ग घ ङ ह- विसर्ग कंठ्य, इ ई च छ
ज झ ञ य श तालव्य, उ ऊ ओ औ प फ ब भ म ओष्ठ्य,ऋ ट ठ ड ढ ण र ष कोमल तालव्य , ऌ त थ द
ध न ल स दन्त्य, ङ ञ म ण न अनुस्वार और
अनुनासिक हैं तथा व् दन्त्योष्ठ है ।
जब उच्चारण से जिह्वा की
संवेगी तंत्रिकाएं प्रभावित होकर कंठ, तालू, नासिका, दन्त्योष्ठ आदि में स्थित
ज्ञान तंतुओं को भेद कर कपाल, भ्रुवोर्मध्य आदि के नाडी जाल के केंद्र को उद्वेलित
कराती हैं तब यह हठयोग की परिधि में आता है । जब ध्वनि श्रवणेद्रियों के माध्यम से
तत्संबंधी मस्तिष्क केंद्र को उद्बुद्ध करती हैं तब यह क्रिया लय योग के
अंतर्गत आती है । और जब इन संवेगी तंत्रिकायों से मन प्रभावित होकर प्रेम, आनंद,
शांति और भक्ति से भर उठाता है तब यह भक्ति योग के क्षेत्र में आता है ।
साधक या योगी उसी ध्वनि
को सुनता है जिसका सम्बन्ध सुषुम्ना नाडी से होता है क्योंकि वह जानता है कि मन्त्र
का निर्माण ए ऐ ओ औ य र ल व श ष स ह आदि विसर्ग और अनुनासिकों से बनाते हैं । मन्त्र
के साथ नाम भी इन्हीं से बनाते हैं - ॐ, हरी हर राम शिव ईश ह्वीम एनम श्री हुम आदि
। क ब्रह्म वाचक होने से शंकर, कृष्ण, काली, क्लीम आदि में पुनरावृति होती है ।
इस प्रकार मन्त्र का उच्चारण तीन
प्रकार से कार्य करता है । उच्चारण एक वाचिक अभ्यास है, इनकी अर्थ चेतना एक मानसिक
क्रिया है । वहीं ध्वनि के श्रवण से मस्तिष्क प्रभावित होता है । ‘मनानात् त्रायते
इति मन्त्र’ अर्थात् मनन द्वारा जिससे त्राण कार्य होता है, उसे मन्त्र कहते हैं ।
इसके अतिरिक्त उच्चारण और ध्वनि श्रवण जहां सीधे मस्तिष्क केन्द्रों को प्रभावित
करता है, वहीं अप्रत्यक्ष रूप से इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना और षट्चक्र एवं
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश आदि पांच तत्व भी प्रभावित होते हैं । इस तरह ॐ
की यह यात्रा संस्कृत के वर्णमाला का वह रूप है जो अंड से लेकर ब्रह्माण्ड तक को
बाँध कर रखता है।
और तब प्रकट होता है ‘अहं ब्रह्माऽस्मि’ यह महावाक्य । तब मन आनंदमय कोष
में अनहद नाद कर उठाता है ‘मैं ब्रह्म हूं’ ‘मैं ही ब्रह्म हूं’। इसी 'अस्मि' से ब्रह्म और जीव की
एकात्मता प्रारम्भ होती है । इसमें आत्मा की अभिव्यक्ति को जाग्रत, स्वप्न,
सुषुप्ति और तुरीय चार अवस्थाओं का अनुभव होता है । और जीव परमात्मा का अनुभव करते-करते ॐ स्वरूप हो
जाता है।
तब उपनिषद का ऋषि परा से लेकर बिखरी
तक की यात्रा पूर्ण कर आत्मोघटन करता है कि विश्व में भूत, भविष्यत्, और वर्तमान
में तथा इसके परे भी जो नित्य तत्व सर्वत्र व्याप्त है, वह ॐ है । यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है । यहीं से नाद की वह यात्रा प्रारंभ होती है जहाँ
ब्रह्म के भेद का प्रपंच नहीं होता और
केवल अद्वैत शिव (ॐ) ही रह जाता है।
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