पञ्च कोष
तैत्तिरीयोपनिषद -शिक्षा वल्ली
ॐ शं नो मित्रः शं वरुण:
। शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विश्नुरुरुक्रमः । नमो
ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षम ब्रह्मास्मि । त्वामेव
प्रत्यक्ष्मं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं
वदिष्यामि । सत्यम वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्त्रारमवतु । अवतु माम्। अवतु
वक्तारम् । ॐशांतिः शांतिः शांतिः ( कृष्ण यजुर्वेदीय तैतरीय शाखा ,तैत्तिरीयोपनिषद
)
महर्षि पतंजलि ने
महाभाष्य पस्पशाह्निक में कहा है - दुष्ट: शब्द: स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या
प्रयुक्तो न तमर्थमाह । स वाग्वज्रो यजमानम हिनस्ति यथेन्द्रशत्रु: स्वरतोSपराधादिति" ।। अर्थात स्वर या वर्ण की अशुद्धि से दूषित
शब्द ठीक-ठीक प्रयोग न होने के कारण अभीष्ट अर्थ का वाचक नहीं होता । इतना ही
नहीं, वह वचन रुपी वज्र यजमान / प्रयोगकर्ता को हानि भी पहुंचाता है । जैसे ‘इंद्रशत्रु’ शब्द में स्वर को अशुद्धि हो जाने
के कारण ‘वृत्तासुर’ स्वयं ही इंद्र के
हाथ मारा गया।
अत: वेद मंत्रो का उच्चारण शिक्षा के अनुसार करना चाहिए । “वर्ण: स्वर:
। मात्रा बलम । सम संतान।” ‘क’ ‘ख’ आदि व्यंजन वर्णों और ‘अ’,’आ’ आदि स्वर वर्णों का
उच्चारण स्पष्ट करना चाहिए । दन्त्य ‘स’
के स्थान पर तालव्य ‘श’ या मूर्धन्य ‘ष’ का उच्चारण नहीं करना चाहिए । ‘व’ के
स्थान में ‘ब’ का उच्चरण नहीं करना चाहिए । मन्त्रों में स्वर भेद होने से अर्थ
बदल जाता है । हस्व, दीर्घ और प्लुत आदि के मात्रा भेद को भी समझ कर उच्चारण करना
चाहिए । हस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर हस्व का उच्चारण करने से
अर्थ बदल जाते हैं, जैसे सीता और सिता ।
‘बल’ का अर्थ है ‘प्रयत्न’
है । वर्णों के उच्चारण में उनके ध्वनि को व्यक्त करने में जो प्रयास करना पड़ता
है, वही ‘प्रयत्न’ कहलाता है । ‘प्रयत्न’ दो प्रकार के होते हैं । ‘आभ्यांतर और
बाह्य’ । आभ्यांतर के पांच और बाह्य के ग्यारह भेद होते हैं । स्पृष्ट, ईषत्-स्पृष्ट,
विवृत, ईषद-विवृत, सवृत- ये पांच आभ्यांतर हैं । विवार, संवार, श्वांस, नाद, घोष,
अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण, उद्दात्त, अनुदात्त और स्वरित-ये बाह्य प्रयत्न हैं । ‘क’
से लेकर ‘म’ तक के अक्षरों का आभ्यान्तर प्रयत्न ‘स्पृष्ट’ है; क्योंकि कंठ आदि
स्थानों में प्राणवायु के स्पर्श से इनका उच्चारण होता है । ‘क’ का बाह्य प्रयत्न
विवर, श्वांस, अघोष तथा अल्पप्राण है । वर्णों का संवृति से उच्चारण या साम-गान की
रीति ही ‘साम’ है । संतान का अर्थ है ‘संहिता’-संधि । स्वर, व्यंज्जन, विसर्ग अथवा
अनुस्वार आदि अपने परवर्ती वर्णों के संयोग से कहीं-कहीं नूतन रूप धारण कर लेते
हैं । इस प्रकार वर्णों का यह संयोग जनित
विकृति भाव ‘संधि’ कहलाती है । किसी स्थान विशेष स्थल में जहां ‘संधि’ बाधित होती
है, वहां वर्ण में विकार नहीं आता, अत: उसे ‘प्रकृति भाव’ कहते हैं । वर्णों का
उच्चारण इन्हीं छह नियमों से होता है ।
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