Saturday, 15 July 2023

तैत्तिरीयोपनिषद -शिक्षा वल्ली-1

 

तैत्तिरीयोपनिषद -शिक्षा वल्ली-1

(2)

“ सह नौ यश: । सह नौ ब्रह्मवर्चसम।”

              वर्णों में जो संधि होती है, उसे ‘संहिता’ कहते हैं । वही संहिता दृष्टि जब व्यापक रूप धारण करके लोक आदि को अपना विषय बनाती है, तब उसे ‘महा संहिता’ कहते हैं । ‘संहिता’ या ‘संधि’। स्वर, व्यंज्जन, विसर्ग अथवा अनुस्वार आदि अपने परवर्ती वर्णों के संयोग से कहीं-कहीं नूतन रूप धारण कर लेते हैं ; इस प्रकार वर्णों का यह संयोग जनित विकृति भाव ‘संधि’ कहलाता है । किसी  विशेष स्थल में जहाँ संधि बाधित होती है, वहां वर्ण में विकार नहीं आता; अत: उसे ‘प्राकृत भाव’ कहते हैं ।

              महा संहिता या महा संधि के भी पांच आश्रय- लोक, ज्योति, विद्या, प्रज्ञा और आत्मा (शरीर) होते हैं । प्रत्येक संधि के चार भाग होते हैं- पूर्ववर्ण, परवर्ण । दोनों के मेल से होने वाला रूप तथा दोनों का संयोजक ‘नियम’ कहलाता है  । लोक को संधि के इन चार प्रकार को इस प्रकार समझते हैं - पृथ्वी यह लोक ही ‘पूर्व रूप’ है, स्वर्ग ही संहिता का ‘उत्तर रूप’ (पर वर्ण) हैं । आकाश या अन्तरिक्ष ही इन दोनों की ‘संधि’ है और वायु इनका ‘संधान’ (संयोजक) है । यहाँ वायु का अर्थ ‘प्राण’ है और प्राणों के द्वारा ही मन और इन्द्रियों के सहित जीवात्मा का प्रत्येक लोक में गमन होता है । वायुः अनिलम् अमृतम् अथ इदम् भस्मान्तँ शरीरम् । ॐ क्रतो स्मर कृतँ स्मर क्रतो स्मर कृतँ स्मर ।।” अब यह प्राण उस सर्वात्मक वायु, अनिल, अविनाशी को प्राप्त हो और शरीर भस्म हो । ‘ॐ’ ... अब किये हुए को स्मरण कर, किये हुए को स्मरण कर ॥इशोपनिषद -17

              इसी प्रकार अग्नि इस भूतल पर सुलभ है, अत: उसे संहिता का ‘पूर्व वर्ण’ माना है और सूर्य द्युलोक में प्रकाशित होता है; अत: उसे ‘उत्तर रूप’ कहते हैं । इन दोनों से उत्पन्न होने के कारण ‘मेघ’ ही संधि है  तथा ‘विद्युत् शक्ति’ ही इस संधि की हेतु (संधान) बतायी गयी है । इन ज्योतियों के सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाले भोग्य पदार्थों को ‘जल’ का नाम दिया गया है, और इन सबकी उत्पति विजली को कारण बताया गया, ऐसा अनुमान होता है । आज का वैज्ञानिक भी बिजली को सब प्रकार के विकास का कारक मानता है, यह बात हमारे ऋषियों ने वेद में पहले ही बता दी थी कि- “ अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव् वयुनानि विद्वान् । युयोधि अस्मत्जुहुराणम् एनः भूयिष्ठां ते नम उक्तिम् विधेम ।।” हे अग्नि ! आप ही धन हैं । सर्वस्व हैं । समस्त कर्मों को जानने वाले हैं । हे देव ! आपकी प्राप्ति में मेरे जो भी प्रतिबन्धक कर्म हैं, उन्हें दूर करें । आपको बार-बार नमस्कार है ॥(18/ ईशोपनिषद्) किन्तु परम्परा के क्षीर्ण हो जाने से यह समझने में दुर्लभ समझा जाता रहा है ।

              इस वेद या विद्या को समझाने के लिए आचार्य को ‘पूर्व रूप’ पहला वर्ण माना गया है । अन्तेवासी शिष्य ‘उत्तररूप’ वर्ण है ।  दोनों के मिलन (संधि) से उत्पन होने वाली ‘विद्या’ है, तथा गुरु के प्रवचन को श्रद्धापूर्वक सुनकर उस विद्या को धारण करना ‘संधान’ है । इसी आधार पर संतान उत्पति को लेकर माता को ‘पूर्वरूप’, पिता को ‘उत्तररूप’ तथा संतान उत्पान हेतु उद्देश्य ‘संधान’ तथा संतान का उत्पन्न होना ‘संधि’ है । यही सूत्र मुख को संहिता, नीचे के जबड़े को ‘पूर्वरूप’, ऊपर के जबड़े को ‘परवर्ण’, दोनों के मिलन को ‘संधि’ तथा जिह्वा (वर्ण के उत्पन्न होने से ) ‘संधान’ है । यह संधि का महत्व है । इस प्रकार महा संहिताओं के मन्त्रों माध्यम से विद्या, संतान, वाणी प्राप्त कर संसार के तत्वों को प्राप्त किया जाता है । (तृतीय अनुवाक)

(26/3/23)

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