तैत्तिरीयोपनिषद -शिक्षा वल्ली-1
(2)
“ सह नौ यश: । सह नौ
ब्रह्मवर्चसम।”
वर्णों में जो संधि होती
है, उसे ‘संहिता’ कहते हैं । वही संहिता दृष्टि जब व्यापक रूप धारण करके लोक आदि
को अपना विषय बनाती है, तब उसे ‘महा संहिता’ कहते हैं । ‘संहिता’ या ‘संधि’। स्वर,
व्यंज्जन, विसर्ग अथवा अनुस्वार आदि अपने परवर्ती वर्णों के संयोग से कहीं-कहीं
नूतन रूप धारण कर लेते हैं ; इस प्रकार वर्णों का यह संयोग जनित विकृति भाव ‘संधि’
कहलाता है । किसी विशेष स्थल में जहाँ
संधि बाधित होती है, वहां वर्ण में विकार नहीं आता; अत: उसे ‘प्राकृत भाव’ कहते
हैं ।
महा संहिता या महा संधि
के भी पांच आश्रय- लोक, ज्योति, विद्या, प्रज्ञा और आत्मा (शरीर) होते हैं । प्रत्येक
संधि के चार भाग होते हैं- पूर्ववर्ण, परवर्ण । दोनों के मेल से होने वाला रूप तथा
दोनों का संयोजक ‘नियम’ कहलाता है । लोक
को संधि के इन चार प्रकार को इस प्रकार समझते हैं - पृथ्वी यह लोक ही ‘पूर्व रूप’
है, स्वर्ग ही संहिता का ‘उत्तर रूप’ (पर वर्ण) हैं । आकाश या अन्तरिक्ष ही इन
दोनों की ‘संधि’ है और वायु इनका ‘संधान’ (संयोजक) है । यहाँ वायु का अर्थ ‘प्राण’
है और प्राणों के द्वारा ही मन और इन्द्रियों के सहित जीवात्मा का प्रत्येक लोक
में गमन होता है । “वायुः अनिलम्
अमृतम् अथ इदम् भस्मान्तँ शरीरम् । ॐ क्रतो स्मर कृतँ स्मर क्रतो स्मर कृतँ स्मर
।।” अब यह प्राण उस सर्वात्मक वायु, अनिल, अविनाशी को प्राप्त हो और शरीर भस्म हो । ‘ॐ’ ... अब किये हुए को स्मरण कर, किये हुए को स्मरण कर ॥इशोपनिषद -17
इसी प्रकार अग्नि इस भूतल पर सुलभ
है, अत: उसे संहिता का ‘पूर्व वर्ण’ माना है और सूर्य द्युलोक में प्रकाशित होता
है; अत: उसे ‘उत्तर रूप’ कहते हैं । इन दोनों से उत्पन्न होने के कारण ‘मेघ’ ही
संधि है तथा ‘विद्युत् शक्ति’ ही इस संधि
की हेतु (संधान) बतायी गयी है । इन ज्योतियों के सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाले
भोग्य पदार्थों को ‘जल’ का नाम दिया गया है, और इन सबकी उत्पति विजली को कारण
बताया गया, ऐसा अनुमान होता है । आज का वैज्ञानिक भी बिजली को सब प्रकार के विकास
का कारक मानता है, यह बात हमारे ऋषियों ने वेद में पहले ही बता दी थी कि- “ अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव् वयुनानि विद्वान् ।
युयोधि अस्मत्जुहुराणम् एनः भूयिष्ठां ते नम उक्तिम् विधेम ।।” हे अग्नि ! आप ही
धन हैं । सर्वस्व हैं । समस्त कर्मों को जानने वाले हैं । हे देव ! आपकी प्राप्ति
में मेरे जो भी प्रतिबन्धक कर्म हैं, उन्हें दूर करें । आपको बार-बार नमस्कार है ॥(18/ ईशोपनिषद्) किन्तु
परम्परा के क्षीर्ण हो जाने से यह समझने में दुर्लभ समझा जाता रहा है ।
इस वेद या विद्या को समझाने के लिए
आचार्य को ‘पूर्व रूप’ पहला वर्ण माना गया है । अन्तेवासी शिष्य ‘उत्तररूप’ वर्ण
है । दोनों के मिलन (संधि) से उत्पन होने
वाली ‘विद्या’ है, तथा गुरु के प्रवचन को श्रद्धापूर्वक सुनकर उस विद्या को धारण
करना ‘संधान’ है । इसी आधार पर संतान उत्पति को लेकर माता को ‘पूर्वरूप’, पिता को ‘उत्तररूप’
तथा संतान उत्पान हेतु उद्देश्य ‘संधान’ तथा संतान का उत्पन्न होना ‘संधि’ है ।
यही सूत्र मुख को संहिता, नीचे के जबड़े को ‘पूर्वरूप’, ऊपर के जबड़े को ‘परवर्ण’,
दोनों के मिलन को ‘संधि’ तथा जिह्वा (वर्ण के उत्पन्न होने से ) ‘संधान’ है । यह
संधि का महत्व है । इस प्रकार महा संहिताओं के मन्त्रों माध्यम से विद्या, संतान,
वाणी प्राप्त कर संसार के तत्वों को प्राप्त किया जाता है । (तृतीय अनुवाक)
(26/3/23)
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