श्रीमद्भगवतगीत
कुरुक्षेत्र
की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था । वह श्रीमद्भगवदगीता
के नाम से प्रसिद्ध है । मूलत: यह संस्कृत
महाकाव्य महाभारत की एक उपकथा के रूप में प्रारम्भ होता है । आज से लगभग पांच हजार
वर्ष पूर्व भगवान् कृष्ण ने अपने भक्त
अर्जुन को श्रीमद्भगवतगीता का उपदेश दिया
था । यह मानव इतिहास की सबसे महान दार्शनिक तथा धार्मिक वार्ताओं में से एक है । यह
महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है । गीता में १८ अध्याय और ७०० श्लोक हैं ।प्रत्येक अध्याय
एक-दूसरे से गुथे हुए हैं और निरन्तर हैं । गीता की गणना
प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और
ब्रह्मसूत्र भी संमिलित हैं। अतएव भारतीय ज्ञान परंपरा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो
उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों का है । गीता के माहात्म्य में उपनिषदों को गौ और गीता
को उसका दुग्ध कहा गया है। गीता अध्यात्म विद्या है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ
गीता में हैं । जैसे, सांसारिक स्वरूप,
के अश्वत्थ विद्या, अव्ययपुरुष विद्या, परा
प्रकृति के विषय में अक्षर पुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में
क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार वेदों के ब्रह्मवाद और उपनिषदों के अध्यात्म, इन दोनों की विशिष्ट सामग्री गीता में संनिविष्ट होने से उसे ब्रह्मविद्या कहा गया है । गीता
में 'ब्रह्मविद्या' का आशय निवृत्ति परक
ज्ञानमार्ग से है। गीता में ‘योगशास्त्रे’ शब्द है । यहाँ ‘योगशास्त्रे’ का
अभिप्राय नि:संदेह कर्मयोग से ही है । गीता में योग की दो परिभाषाएँ पाई जाती हैं
। एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें ‘समत्वं योग उच्यते’
कहा गया है । योग की दूसरी परिभाषा है ‘योग:
कर्मसु कौशलम’ अर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय
से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप
स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञान मार्गियों को मिलती है । इसी युक्ति का नाम
बुद्धियोग है ।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते
हैं कि तुम मेरे परममित्र हो इसलिए तुम्हें मैं यह विद्या सिखा रहा हूं । अर्जुन कहते
हैं कि आप भगवान परमधाम,
पवित्रतम, परमसत्य हैं । आप शाश्वत, दिव्य आदिपुरुष, अजन्म तथा महानतम हैं । नारद,
असित, देवल तथा व्यास जैसे समस्त महामुनि इस बात
की पुष्टि करते हैं । आपने जो कहा है, उसे पूर्ण रूप से मैं सत्य
मानता हूं । हे प्रभू न तो देवता और न असुर आपके व्यक्तिव को समझ सकते हैं । श्रीमद्भगवदगीता
की विषय वस्तु में पांच मूल सत्यों का ज्ञान निहित है, यथा-
ईश्वर क्या है, जीवक्याहै, प्रकृतिक्याहै, दृश्य जगत क्या है तथा यह काल द्वारा
किस प्रकार नियंत्रित है और जीवों के कार्यकलाप क्या हैं । गीता में भौतिक प्रकृति
को अपरा प्रकृति तथा जीव को परा प्रकृति कहा गया है । भौतिक प्रकृति तीन गुणों से निर्मित
है- सतोगुण, रजोगुण एवं तमोगुण । इन्हीं
तीनों गुणों से प्रत्येक जीव कर्मफल का दुख और सुख भोगते हैं । यही कर्म कहलाता है
। भौतिक प्रकृति ( अपरा ) परमेश्वर की भिन्ना
शक्ति है । परम ईश्वर
की स्थिति परम चेतना स्वरूप है । जीव भी ईश्वर अंश होने से चेतन है । लेकिन दोनों में
अंतर है । ईश्वर, जीव, प्रकृति,
काल तथा कर्म में से कर्म को छोड़कर चार शाश्वत हैं । जीव बद्ध होता है
। अर्थात व्यक्ति देहात्म बुद्धि में लीन रहने से अपने स्वरूप को भूल जाता है । गीता में बताया गया है कि ब्रह्म
भी पूर्ण परमपुरुष के अधीन है । पूर्ण भगवान में अपार शक्तियां हैं । सांख्य दर्शन
के अनुसार यह भौतिक जगत भी 24 तत्वों से भी समन्वित होने के कारण
पूर्ण है । वैज्ञानिक शोध गीता की इस दृष्टि को पकड़ नहीं पाते हैं क्योंकि वे इंद्रियों
पर आधारित हैं । गीता में प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार के कर्मों का उल्लेख
है- सात्विक कर्म, राजसिक कर्म तथा तामसिक
कर्म । इसी प्रकार सात्विक, राजसिक तथा तामसिक आहार के भी तीन
भेद हैं । गीता में जीव और ईश्चर दोनों को सनातन बताया गया है । अत: गीता संदेश देती है कि हमें सनातन धर्म को जागृत करना है जो कि जीव की शाश्वत
वृत्ति है, इसलिए सनातन धर्म किसी साम्प्रदायिक धर्म का सूचक
नहीं है । जिसका न आदि है और न अंत है वह सनातन है । सनातन धर्म विश्व के समस्त लोगों
का ही नहीं अपितु ब्रह्मा के समस्त जीवों का है । गीता मानती है कि
‘ जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा चुरा ली गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और अपने-अपने स्वभाव
के अनुसार पूजा करते हैं’ भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरा परमधाम
न तो सूर्य या चंद्रमा द्वारा, न ही अग्नि या बिजली द्वारा प्रकाशित
होता है । जो लोग वहां पहुंच जाते हैं वे फिर कभी नहीं लौटते हैं, इसे गो लोक कहते हैं । गीता के पंद्रहवें अध्याय में भौतिक जगत का चित्रण करते
हुए कहा है भौतिक जगत वह वृद्ध है जिसकी जड़े उर्ध्वमुखी हैं और शाखाएं अधोमुखी
हैं । यह भौतिक जगत आध्यात्मिक जगत का प्रतिबिंब है । अत: इस
अध्यात्मिक जगत को झूठे भौतिक भोगों के आकर्षणों में मोहग्रस्त जीव या मनुष्य प्रवेश
नहीं कर पाता है । गीता कहती हैं कि मृत्यु के समय ब्रह्म का चिंतन करने से वह जिस
भाव को स्मरण करता है अगले जन्म में उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है। इसलिए हे अर्जुन ! कृष्ण के रूप मेरा सदैव चिंतन करो
और युद्ध कर्म करते रहो । अर्जुन कहते हैं कि हे मधुसूदन ! आपने
जिस योग पद्वति का संक्षेप में वर्णन किया है वह मेरे लिए अव्यवहारिक असहय प्रतीत होती
है क्योंकि मन अस्थिर तथा चंचल है । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन ! जो व्यक्ति पथ पर विचलित हुए बिना अपने मन
को निरंतर मेरा स्मरण करने में व्यस्त रखता है और भगवान के रूप में मेरा ध्यान करता
है, वह मुझको अवश्य प्राप्त होता है ।
सारांश यह कि श्रीमद्भगवदगीता
दिव्य साहित्य है जिसके अंदर मनुष्य की मुक्ति के लिए कर्म, ज्ञान
और भक्तियोग का विस्तार से वर्णन किया गया है । अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हेअर्जुन
! “ सब धर्मों को त्यागकर मेरी ही शरण में आओ। मैं तुम्हें समस्त
पापों से मुक्त कर दूंगा । तुम डरो मत ” व्यास संजय के गुरु थे
और संजय स्वीकार करते हैं कि व्यास की कृपा से वह भगवान को समझ सके और गीता के अंत
में धृतराष्ट से कहा “ आप अपनी विजय की बात सोच रहे हैं लेकिन
मेरा मत है कि जहां श्रीकृष्ण और अर्जुन उपस्थित हैं वहीं सम्पूर्ण श्री होगी ।”
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