पञ्च कोष
तैत्तिरीयोपनिषद -शिक्षा वल्ली-2
(3)
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथम (मुण्डको/1) । ओमित्येक्षरमिदँ
सर्वं ।(माण्डुक्य /1) तद ॐ यह पमेश्वर का
नाम वेदोक्त जितने भी मन्त्र है, उनमें सर्वश्रेष्ट मन्त्र कहा गया है । यह ईश्वर स्वरुप है । इसके उच्चारण का फल सम्पूर्ण
वेद (ज्ञान) का फल देता है । ‘ॐकार’ नाम है, परमेश्वर नामी है । इसी ‘ॐ’ की
प्रार्थना की गई है कि हमें मेधा (धीर्धारणावती मेधा अर्थात् इस कोष वाक्य के
अनुसार धारणा शक्ति से संपन्न बुद्धि का नाम ‘मेधा’ है ) प्राप्त हो, जिससे हम
इसकी अहेतुकी कृपा प्राप्त कर सकें । मेरा शरीर निरोगी हो, उपासना (कर्म) में
बिघ्न न पड़े, जिह्वा अतिशय मधु हो, कानों से कीर्तन सुनें आदि-आदि । मन्त्रों का
आह्वान कर स्वाहा (स्वाहा अर्थात् इस उद्देश्य के लिए यह आहुति है) कहें ।
“यथाऽऽप: प्रवत्ता यन्ति
यथा मासा अहर्जरम् । एवं मां ब्रह्मचारिणो धातरायन्तु सर्वत: स्वाहा ।” अर्थात् जिस प्रकार जल
प्रवाह नीचे की ओर बहते-बहते समुद्र में मिल जाते हैं तथा जिस प्रकार दिन का अंत
करनेवाले संवत्सररूप काल में जा रहे है, हे विधाता ! उसी प्रकार सब ओर से
ब्रह्मचारी मेरे पास आयें और मैं उनकों कल्याण का उपदेश देकर कर्तव्य पथ पर चलने
का मार्ग दिखा कर आप की आज्ञा का पालन कर सकूं, इसके उद्देश्य से इस मन्त्र का
उच्चारण कर रहा हूँ ।
संध्या वंदन में गायत्री
मन्त्र में तीन व्याव्हृतियाँ भू:, भुवः, स्वः और चौथी व्याहृति ‘मह:’ आती है । ऋषियों
का मत है की यही ‘मह:’ ब्रह्म है । ‘भू:’ यह पृथ्वीलोक है तो भुवः’ यह अन्तरिक्ष
लोक और ‘स्वः’ यह स्वर्गलोक है । ‘मह:’ यह सूर्यलोक है । अर्थात् ‘भू:, भुवः, स्वः’ यह तीनों व्याव्हृतियाँ
परमेश्वर के विराट शरीर रुपी इस ब्रह्माण्ड को बताने वाली हैं, तो ‘मह:’ यह चौथी
व्याव्हृति परमेश्वर के आत्मस्वरूप है । दूसरी ओर ‘भू:’ यह व्याहृति अग्नि का नाम
होने से मानों ‘अग्नि’ ही है । यह
ज्योतिस्वरूप है । ‘भुवः’ यह वायु स्वरुप है । वायु देवता त्वक-इन्द्रिय स्पर्श को
प्रकाशित करनेवाली ज्योति और त्वचा भी समझना चाहिए । ‘स्वः’ यह सूर्य है । सूर्य चक्षु -इन्द्रिय का अधिष्ठाता देवता है । ‘मह:’ यह
मानो चन्द्रमा है और चन्द्रमा मन का देवता है । ‘मन’ के कारण ही सभी
इन्द्रिया क्रियाशील रहती हैं, अत: ‘मन’ ही
प्रधान है । (चन्द्रमा मनसोजात:) । तीसरा स्वरुप - भू: ऋग्वेद , भुवः सामवेद,
स्वःअजुर्वेद और मह: यह ब्रह्म है । चौथा - भू: प्राण, भुवःअपान, स्वः व्यान और मह
अन्नं है । अन्न में ही सभी प्राण महिमायुक्त होते हैं, अत: ‘मह:’ ही ब्रह्म
स्वरुप प्राण है । ( पंचम अनुवाक )
ह्रदय के भीतर जो अंगुष्ठ
मात्र परिणाम वाला आकाश है, उसी में विशुद्ध प्रकाश स्वरुप अविनाशी मनोमय अंतर्यामी
पर पुरुष पमेश्वर विराजमान हैं, वहीं उनका साक्षात्कार हो जाता है । मनुष्यों के
मुख में तालुओं के बीचोबीच जो एक ‘थन के आकार का मांस -पिंड लटकता है, जिसे बोलचाल
की भाषा में ‘घंटी’ कहते हैं, उसके आगे केशों का मूलस्थान ब्रह्मरन्ध्र है; वहां
ह्रदय देश से निकलकर घंटी के भीतर से होती हुई दोनों कपालों को भेद कर जो नाडी गई
हुई है, वह ‘सुषुम्ना’ नाम से प्रसिद्ध है, वही उन इंद्र नाम से कहे जाने वाले
परमेश्वर की प्राप्त का द्वार है । अन्तकाल में वह महापुरुष उस मार्ग से शरीर के
बाहर निकलकर ‘भू:’ इस नाम से अभिहित अग्नि में स्थित होता है । गीता और ईशोपनिषद्
में भी यही बात कही गई है (गीता 8/24) ।
उसके बाद वायु में सत ही होता है अर्थात् पृथ्वी से लेकर सूर्यलोक तक समस्त
आकाश में जिसका अधिकार है, जो सर्वत्र विचरने वाली वायु का अभिमानी देवता है और
जो ‘भुवः’ नाम से कहा गया है, उसी के
अधिकार क्षेत्र में आता है । वह देवता उसे
‘स्वः’ इस नाम से कहे हुए सूर्यलोक में
पहुँचा देता है, वहाँ से फिर वह ‘मह:’ इस नाम से कहे हुए ‘ब्रह्म’ में स्थित हो
जाता है । यहाँ से यह जीव या महापुरुष ‘स्वराट’ बन जाता है । अर्थात् उस पर प्रकृति का अधिकार नहीं रहता,
अपितु वह स्वयं ही प्रकृति का अधिष्ठाता बन जाता है ; क्योंकि वह मन के अर्थात् समस्त अन्त:करण समुदाय के स्वामी
परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, इसलिए वह वाणी, चक्षु, श्रोत आदि समस्त
इन्द्रियों और उनके देवताओं का तथा विज्ञान स्वरूप बुद्धि का भी स्वामी हो जाता है
। अर्थात् ये सब उसके अधीन हो जाते हैं । ‘आकाशशरीरं ब्रह्म । सत्यात्म प्रणारामं मन
आनंदम् ।’
पदार्थ के दो भाग यहाँ
सामने आते हैं - प्रथम में आधिभौतिक पदार्थों को - लोक, ज्योति और स्थूल पदार्थ इन
तीन पंक्तियों में विभक्त करके उनका वर्णन किया है और दूसरे भाग में मुख्य-मुख्य
आध्यात्मिक (शरीर स्थित) पदार्थों को- प्राण, करण और धातु इन तीन पंक्तियों में
विभक्त करके उनका वर्णन किया है और उनके उपयोग की युक्ति बताई है ।
लोक की आधिभौतिक दिशाएं- पृथ्वीलोक, अन्तरिक्षलोक,
स्वर्गलोक, पूर्व-पश्चिम दिशाएँ आदि तथा आग्नेय, नैरित्य आदि अवांतर दिशाएं । इस
प्रकार यह लोकों की आधिभौतिक पंक्ति है । अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र
यह ज्योतियों की आधिभौतिक पंक्ति हैं । जल, औषधियां, वनस्पतियाँ,आकाश और पांच
भौतिक स्थूल शरीर जड़ पदार्थों की आधिभौतिक पंक्तियाँ हैं । इस प्रकार यह एक प्रकार
का समूह है । इसके आगे एक प्राणों की पंक्ति- प्राण, अपान, उदान, सामान और व्यान
पंक्ति हैं । नेत्र, कान, मन, वाणी और त्वचा इस प्रकार यह करण समुदाय की पंक्ति है
। चर्म, मांस, नाडी, हड्डी और मज्जा इस शरीरगत धातुओं की पंक्ति है ।
आधिभौतिक और आध्यात्मिक
विकास में इनका आपस का सम्बन्ध है । आधिभौतिक
लोक सम्बन्धी पंक्ति से चौथी प्राण - समुदाय रूप आध्यात्मिक पंक्ति का सम्बन्ध है ।
एक लोक का दूसरे लोक से सम्बन्ध कराने में प्राणों की ही प्रधानता है । दूसरी
ज्योति विषयक आधिभौतिक पंक्ति से पांचवीं करन समुदाय रूप आध्यात्मिक पंक्ति का
सम्बन्ध है । क्योंकि वे आधिभौतिक
ज्योतियाँ इनकी सहायक हैं । इस प्रकार
तीसरी स्थूल पदार्थों की आधिभौतिक पंक्ति का छ्ठी शरीरगत धातुओं से सम्बन्ध है
क्योंकि ओषधि और वनस्पतियाँ अन्न से ही मांस-मज्जा आदि की पुष्टि और वृद्धि करती
हैं ।
आगे ॐ में श्रध्दा-भक्ति
कैसे हो इसका उपाय बताया गया है । ॐ परमब्रह्म परमात्मा का नाम होने से (प्रणव
‘ॐ’उसका वाचक होने से ) स्वयं साक्षात् परमब्रह्म ही है । यह प्रत्यक्ष दिखाई
देनेवाला जगत ही ॐ है । ॐ यह अनुकृति अर्थात् अनुमोदक सूचक है । ॐ उच्चारण के साथ सत्य
भाषण और सत्यभाव पूर्वक कार्य करने को ही
तपश्चर्या कहलाती है । पुरुशिष्ट पुत्र तपोनित्य ने तपश्चर्या को ही सर्व श्रेष्ठ
माना गया है । मुद्गल पुत्र नाक का कहना है धर्मशास्त्रों का अध्यन-अध्यापन ही तप
है । त्रिशंकु का कहना है की अंत:करण में भावना करना भी परमात्मा की प्राप्त का
साधन है । इस प्रकार मनुष्य जैसी भावना करता है वैसे ही बन जाता है । संकल्प में
अद्भुत शक्ति है ।
फिर आचारण की
बात कही गई है - “ सत्यंवद । धर्मं चर । स्वध्यायान्मा प्रमद: ।” इसी में “मातृदेवो भाव । पितृदेवो भाव । आचार्य देवो भव।” की भी बात कही
है । यही भाव लेकर जीवन का निर्वाह करना शास्त्रों का मत है । तैतीरियोपनिषद के
शिक्षा वल्ली का यही सार है । इसकी गहराई में जाने से हमें अन्नमय, प्राणमय, मनोमय
कोष, विज्ञानमय कोष के साथ ॐ में निरंतर अभ्यस्त होने से आनंदमय कोष का आभाष होना
प्रारम्भ हो जाता है ।
29/3/23
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