Saturday, 15 July 2023

भृगुवल्ली

 

भृगुवल्ली

              भृगु नाम से प्रसिद्ध एक ऋषि थे जो वरुण के पुत्र थे । उनके मन में परमात्मा को जानने और प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा हुई । तब वह अपने पिता वरुण के पास गए । उनके पिता वरुण वेदों को जानने वाले ब्राह्मण इष्ट महापुरुष थे । अतः भृगु को किसी दूसरे आचार्य के पास जाने की आवश्यकता नहीं हुई । अपने पिता के पास जाकर प्रार्थना कि - भगवान ! मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूं । आप कृपा करके मुझे ब्रह्म का तत्व समझाइए । वरुण ने कहा, हे तात !अन्न, प्राण, नेत्र, श्रोत, मन, वाणी यह सभी ब्रह्म के उपलब्धि के द्वार हैं । इन सब में ब्रह्म की सत्ता स्फुरित होती है । यह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले सब प्राणी जिससे उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिन के सहयोग से बल पाकर जीते हैं, जीवन उपयोगी क्रिया करने में समर्थ होते हैं और महाप्रलय के समय जिसमें विलीन हो जाते हैं, उनको वास्तव में जानने की इच्छा कर ।  वे ही ब्रह्म है।

              'अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्'। भृगु को अनुभव आता है कि अन्न ही ब्रह्म है । समस्त प्राणी अन्न से और अन्न के परिणाम भूत वीर्य से उत्पन्न होते हैं ।अन्न से ही उनका जीवन सुरक्षित रहता है और मरने के बाद अन्न स्वरूप इस पृथ्वी में ही प्रविष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार निश्चय करते हुए अपने पिता के पास गए । पिता को अपनी बात बतलाई । इससे वरुण को समझ में आया कि अभी भृगु की बुद्धि वास्तविक रूप से स्थूल पर ही टिकी हुई है । तब उन्होंने कहा कि तुम अपने तप के द्वारा ब्रह्म के स्वरूप को समझो । इस प्रकार भृगु पुनः तपस्या में चले गए । भृगु ने तप के द्वारा यह तय किया कि प्राण ही ब्रह्म है और जब उन्होंने इस अपने निश्चय से पिता को अवगत कराया तो वरुण ने कहा कि परमात्मा को समझने के लिए फिर से आप तप करें । तू तप के द्वारा ब्रह्म को जानने की चेष्टा कर । यह तप ही ब्रह्म है अर्थात ब्रह्म के तत्व को जानने का प्रधान साधन है ।  ब्रह्म का ध्यान करते हुए भृगु यह निश्चय किया कि मन ही ब्रह्म है, क्योंकि उन्होंने सोचा पिताजी के बताए हुए ब्रह्म के सारे लक्षण मन में पाए जाते हैं । मन से सब प्राणी उत्पन्न होते हैं । स्त्री और पुरुष के मानसिक प्रेम पूर्ण संबंध से ही प्राणी बीज रूप से माता के गर्भ में आकर उत्पन्न होते हैं । उत्पन्न होकर मन से ही इंद्रियों द्वारा समस्त जीवन उपयोगी वस्तुओं का उपयोग करके जीवित रहते हैं और मरने के बाद मन में ही प्रविष्ट हो जाते हैं । मरने के बाद शरीर में प्राण और इंद्रियां नहीं रहती । इसलिए मन ही ब्रह्म है । इस प्रकार निश्चय करके वे पुनः पहले की तरह अपने पिता वरुण के पास गए और अपने अनुभव की बात पिताजी को सुनाई । इस बार भी पिता से कोई उत्तर नहीं मिला। पिता ने सोचा कि यह पहले की अपेक्षा तो गहराई में उतरा है, परंतु अभी इसे और भी तपस्या करनी चाहिए और उत्तर ना देना ही ठीक समझा । पिता से अपनी बात का उत्तर ना पाकर भृगु पुनः पहले की भांति प्रार्थना की- भगवन यदि मैंने ठीक ना समझा हो तो कृपया आप ही मुझे ब्रह्म को समझाइए । तब वरुण ने पुनः वही उत्तर-तू तप के द्वारा ब्रह्म के तत्व को जानने की इच्छा कर अर्थात तपस्या करते हुए मेरे उपदेश पर पुनः विचार कर। यह तप रूप साधन ही ब्रह्म ।

              इस बार उन्होंने पिता के उपदेश स्वरूप यह निश्चय किया कि यह विज्ञान स्वरूप चेतन जीवात्मा ही ब्रह्म है ; क्योंकि पिताजी ने जो ब्रह्म के लक्षण बताए थे, वह सब के सब पूर्णतया इसमें पाए जाते हैं । यह समस्त प्राणी जीव आत्मा से ही उत्पन्न होते हैं । सजीव चेतन प्राणियों से ही प्राणियों की उत्पत्ति प्रत्यक्ष देखी जाती है । उत्पन्न होकर इस विज्ञान स्वरूप जीवात्मा से ही जीते हैं; यदि जीवात्मा ना रहे तो यह मन, प्राण, इन्द्रिय कोई भी नहीं रह सकते और कोई भी अपना-अपना काम नहीं कर सकते तथा मरने के बाद यह मन आदि सब जीवात्मा में ही प्रविष्ट हो जाते हैं-जीव के निकलने पर मृत शरीर में यह सब देखने में नहीं आते   अतः विज्ञान स्वरूप जीवात्मा ही ब्रह्म है । पिताजी ने इस बार भी कोई उत्तर नहीं दिया और यह समझा कि इस बार यह बहुत कुछ ब्रह्म के निकट आ गया है। इसका विचार स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के जड़ तत्वों से ऊपर उठकर चेतन जीवात्मा तक तो पहुंच गया है, परंतु ब्रह्म का स्वरूप तो इससे भी विलक्षण है । वह तो नित्यानंद स्वरूप एक अद्वितीय परमात्मा है । इसे अभी और तपस्या करनी की आवश्यकता है । और वरुण ने यही उत्तर दिया - तप के द्वारा ही ब्रह्म के तत्व को जानने की इच्छा कर अर्थात् तपस्या पूर्वक पूर्व कथन अनुसार विचार कर तप कर । तप ही ब्रह्मा है।

              इस बार भृगु ने पिता के उपदेश पर गहरा विचार करके यह निश्चय किया कि आनंद ही ब्रह्म है। यह आनंद ही परमात्मा रूप में सबकी अंतरात्मा है । वह सब भी इन्हीं के स्थूल रूप है । इसी कारण इनमें  ब्रह्म बुद्धि होती है और ब्रह्मा के आंशिक लक्षण पाए जाते हैं । इन सबके आदि कारण तो वही हैं तथा इस आनंदमय के आनंद का लेस पाकर ही यह सब पुराने जीवन के रहे-कोई भी दुख के साथ जीवित रहना नहीं चाहता । इतना ही नहीं, उस आनंदमय सर्वान्तर्यामी परमात्मा की अचिंत्य शक्ति की प्रेरणा से ही इस जगत के समस्त प्राणियों की क्रिया चल रही है । उनके शासन में रहने वाले सूर्य आदि यदि अपना-अपना काम ना करें तो एक क्षण भी कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता । सबके जीवन आधार सचमुच में आनंद स्वरूप परमात्मा ही है । तथा प्रलय काल में समस्त प्राणियों से भरा हुआ यह ब्रह्मांड उन्हीं में प्रविष्ट होता-उन्हीं में विलीन होता है; वही सब के सब प्रकार से सदा सर्वदा आधार हैं । इस प्रकार अनुभव होते ही प्राणी को परब्रह्म का यथार्थ ज्ञान हो गया । श्रुति स्वयं उस विद्या की महिमा बतलाने के लिए कहती है- वही यह वरुण द्वारा बताई हुई और भृगु को प्राप्त हुई ब्रह्मविद्या (ब्रह्मा का रहस्य बस लाने वाल) है । यह विद्या विशुद्ध आकाश स्वरूप परब्रह्म परमात्मा में स्थित है। वही इस विद्या के भी आधार हैं।

              पंचकोशों के आपसी संबंध को समझने के लिए बतलाया गया है कि अन्न ही प्राण है और प्राण ही अन्न है। क्योंकि अन्न से ही प्राण में बल आता है और प्राण शक्ति से ही अन्न में शरीर सेजीवन शक्ति आती है। प्राण को अन्न इसलिए भी कहा गया है कि यही शरीर में अन्न के रस को सर्वत्र फैलाता है । शरीर प्राण के आधार पर ही टिका हुआ है, इसलिए वह प्राण रूप अन्न का भोक्ता है। शरीर प्राण में स्थित है अर्थात शरीर की स्थिति प्राण के अधीन है और प्राण शरीर में स्थित है-प्राणों का आधार शरीर है , यह बात प्रत्यक्ष है। इस प्रकार यह अन्न में शरीर भी है। जल और ज्योति दोनों को अन्न रूप बताकर मनुष्य की अन्न के प्रति सम्मान होने की इच्छा हो ।  मैं कभी अन्न की अवहेलना नहीं करूंगा अर्थात अन्न का उल्लंघन दुरुपयोग और परित्याग नहीं करूंगा ।  जग में ज्योति प्रतिष्ठित है सब प्रकार के अन्न अर्थात खाद्य वस्तुएं जल्द से ही उत्पन्न होती हैं और ज्योति अर्थात तेज ही इस जल रूप अन्न को भक्षण करने वाला है। जिस प्रकार आदमी  एवं सूर्य रश्मियाँ बाहर के जल का शोषण करती हैं, उसी प्रकार शरीर में रहने वाली जठराग्नि शरीर में जाने वाले जलीय तत्वों का शोषण करती हैं । जल में ज्योति प्रतिष्ठित है यद्यपि जल स्वभाव का ठंडा है तो भी उसमें ज्योति कैसे स्थित है, यह बात समझ में नहीं । किन्तु शास्त्रों में यह माना गया है कि समुद्र में बड़वानल रहता है तथा आज के वैज्ञानिक भी जल से ही बिजली तत्व को निकालते हैं, इससे यह बात सिद्ध होती है कि जल में तेज स्थित है। इसी प्रकार तेज में जल स्थित है । आगे पृथ्वी और आकाश को भी अन्न रूप बताकर के अन्नमयकोष के अंतर्गत उसको स्थापित किया गया है । जितने भी अन्न हैं, वह सब पृथ्वी से ही उत्पन्न होते हैं और पृथ्वी को अपने में विलीन कर लेने वाला इसका आधारभूत आकाश ही अन्नादि अर्थात इस अन्न का भोक्ता है। पृथ्वी में आकाश स्थित है, क्योंकि वह सर्वव्यापी है और आकाश में पृथ्वी स्थित है-अप्रत्यक्ष सिद्ध है। यह दोनों ही एक दूसरे के आधार होने के कारण अन्न स्वरूप हैं। पांच भूतों में आकाश पहला तत्व है और पृथ्वी अंतिम तत्व है। बीच के तीनों तत्व इन्हीं के अंतर्गत हैं। इसीलिए अन्न में ही अन्य प्रतिष्ठित है।

              ॐ शं नो मित्रः शं वरुण: । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विश्नुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षम ब्रह्मास्मि । त्वामेव प्रत्यक्ष्मं  ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यम वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्त्रारमवातु । अवतु माम्। अवतु वक्ताराम्। ॐशांतिः शांतिः शांतिः ( कृष्ण यजुर्वेदीय तैतरीय शाखा ,तैत्तिरीयोपनिषद )

 

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