पञ्च कोष
तैत्तिरीयोपनिषद - ब्रह्मानंद
वल्ली
अब ब्रह्मानंद वल्ली के
शान्ति पाठ में आते हैं -
ॐ सह ना ववतु । सह नौ
भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वी ना वधित्मस्तु । माँ विद्वीषावहै ।
ॐ शांति: शांति: शांति:
“सत्यम
ज्ञानमनन्तम ब्रहम ।” सत्य शब्द यहाँ नित्य सत्ता का बोध है । अर्थात् वे परब्रह्म
नित्य सत हैं । किसी भी काल में उनका अभाव
नहीं होता तथा वे ज्ञान स्वरुप हैं, उनमें अज्ञान का लेश भी नहीं है । ईशावास्योपनिषद्
के प्रथम मन्त्र में यही बात कही गई है कि यह जगत जो जड़ और चेतन दीखता है, वह
ईश्वर से परिपूर्ण हैं । उपनिषद कहता है कि सबसे पहले आकाश तत्व उत्पन्न हुआ । आकाश से वायु तत्व, वायु से अग्नि तत्व, अग्नि
से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई । पृथ्वी से नाना प्रकार की औषधियां - अनाज और
मनुष्य के आहार पैदा हुए । उसी अन्न से मनुष्य का स्थूल शरीर पुरुष उत्पन्न हुआ । अन्न से बना हुआ यह जो मानुष शरीरधारी पुरुष है
इसकी पक्षी के रूप में कल्पना की गयी है । “अन्नाद्वै प्रजा: प्रजायन्ते” सब
प्राणी इसको खाते हैं तथा यह भी सब प्राणियों को खा जता है , अपने में विलीन कर लेता है, इसलिये ‘अद्यते,अत्ति च इति
अन्नं” इस व्युत्पत्ति के अनुसार इसका नाम
अन्न है । यही आनमय कोष की अवधारणा है ।
दूसरे अनुवाक में प्राणमय
शरीर का वर्णन किया गया है । भाव यह है कि
पूर्वोक्त अन्न के रस से बने हुए स्थूल शरीर से भिन्न उस स्थूल शरीर के भीतर
रहनेवाला एक और शरीर है, उसका नाम ‘प्राणमय’ है । उस ‘प्राणमय’ से यह ‘अन्नमय’
शरीर पूर्ण है । अन्नमय स्थूल शरीर की अपेक्षा इसके सूक्ष्म होने के कारण प्राणमय
शरीर अन्नमय कोष के अंग- प्रत्यंग में व्याप्त है । इन प्राणों में प्राण श्रेष्ठ
है और वह मुख्य है । व्यान दाहिना पंखा है और अपान बाया पंख है । अर्थात् आकाश के
सामान सर्वशरीर व्यापी ‘सामान’ वायु आत्मा
है क्योंकि यह सम्पूर्ण शरीर में रस पहुंचाकर प्राणमय शरीर को पुष्ट करता है । इसका
स्थान शरीर का मध्यभाग है तथा इसी का बाह्य आकाश से सम्बन्ध है, यह बात प्रश्नोपनिषद
के पांचवें और आठवें मन्त्रों में कही गई है । ‘अपान’ वायु को पृथ्वी अर्थात्
आधिदैविक शक्ति को रोकने वाली यह प्राणमय को पुरुष का आधार है । इसका वर्णन प्रश्नोपनिषद के तीसरे और आठवें
मन्त्र में कही गई है । “प्राणं देवा अनुप्राणान्ति” भाव यह की जितने भी देवता,
मानुष, पशु आदि शरीरधारी प्राणी हैं, वे सब प्राण के सहारे ही जी रहे हैं । इसलिए यह प्राण ‘सार्वायुष’ कहलाता है । यह
प्राणियों की आयु है, इसलिए यह सबका जीवन कहलाता है यों समझकर इस प्राण की
ब्रह्मरूप से उपासना करते हैं, वे पूर्ण आयु को प्राप्त कर लेते हैं । जो सर्वात्मा परमेश्वर अन्न के रस से बने
हुए शूल शरीरधारी पुरुष का अंतरात्मा है, वही उस प्राणमय पुरुष का भी शरीर के अंतर
रहने वाला आत्मा है ।
‘तस्माद्वाएतस्मात्प्राणमयादन्योऽन्तर
आत्मा मनोमयः ।’ प्राणमय कोष से भी सूक्ष्म और उसके भीतर रहने वाला पुरुष मनोमय
कोष है । उस मनोमय कोष से यह प्राणमय कोष सर्वत्र व्याप्त हो रहा है । एक बात और
यहाँ ध्यान रखने की है कि जिनके अक्षरों की कोई नियत नियम न हो, ऐसे मन्त्रों को
‘यजु:’ छंद के अंतर्गत समझा जाता है, इस
नियम के अनुसार जिस किसी वैदिक वाक्य या मन्त्र के अंत में ‘स्वाहा’ पद जोड़कर
अग्नि में आहुति दी जाती है, वह वाक्य या मन्त्र ‘यजु:’ ही कहलाता है । इस प्रकार
यजु: मन्त्र के द्वारा ही अग्नि को हविष्य अर्पित किया जाता है, इसलिए वहां ‘यजु:’
प्रधान है । वेद मन्त्रों के वर्ण और वाक्य आदि के उच्चारण के लिए पहले मन में ही
संकल्प उठाता है ; अत: संकल्पात्मक वृत्ति के द्वार मनोमय आत्मा के साथ वेद
मन्त्रों का घनिष्ठ सम्बन्ध है । इसलिए इन्हें मनोमय पुरुष के ही अंगों में स्थान
दिया गया है । शरीर में जो स्थान दोनों भुजाओं का है , वही स्थान मनोमय पुरुष के
अंगों में ऋग्वेद और सामवेद का है । संकल्पात्मक वृति के द्वारा मनोमय पुरुष का इन
सब के साथ नित्य संम्बन्ध है ।
“ यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य मनसा सह । आनन्दमब्राहमणों विद्वान् ।”
इस मन्त्र में ब्रहम के आनंद को जानने वाले विद्वान् की महिमा के साथ अर्थान्तर से
उसके मनोमय शरीर की महिमा प्रकट की गयी है ।
भाव यह की परब्रहम परमात्मा का जो
स्वरुप भूत परम आनंद है, वहाँ तक मन, वाणी आदि समस्त इन्द्रियों के समुदाय रूप
मनोमय शरीर की भी पहुँच नहीं है , परतु ब्रह्म को पाने के लिए साधन करनेवाले
मनुष्य को यह ब्रह्म के पास पहुंचाने में विशेष सहायक है । ये मन-वाणी आदि साधन परायण पुरुष को उन परब्रह्म के द्वार तक
पहुंचाकर, उसे वहीं छोड़ कर स्वयं लौट आते हैं और वह साधक उनको प्राप्त हो जाता है ।
ब्रह्म के आनंदमय स्वरुप को जान लेनेवाला विद्वान् कभी भयभीत नहीं होता । मनोमय
शरीर के भी अन्तर्यामी आत्मा वे ही परमात्मा हैं जो अन्नमय कोष और प्राणमय कोष के
हैं ।
चतुर्थ
अनुवाक के इस दूसरे अंश में विज्ञानमय कोष का अर्थात् विज्ञानमय शरीर का वर्णन है ।
मनोमय कोष से भी सूक्ष्म जो आत्मा है उसे विज्ञानमय कोष या शरीर कहते हैं । सदाचरण,
सत्य भाषण, ध्यान के साथ मह: नाम से प्रसिद्ध परमात्मा पुच्छ अर्थात् आधार है । शिक्षावल्ली
पंचम अनुवाक में भू:, भुव:,स्व: और मह: इन चार व्याह्रितियों में मह: को ब्रह्म का स्वरुप बताया गया है ; अत:
‘मह:’ व्याहृति ब्रह्म का नाम है और ब्रह्म को आत्मा की प्रतिष्ठा बताना सर्वथा
युक्तिसंगत है । विज्ञान अर्थात बुद्धि के
साथ तद्रूप हुआ जीवात्मा ही यज्ञों का अर्थात् बुद्धि से ही सम्पूर्ण कर्मों को
प्रेरणा मिलती है । अन्नमय, प्राणमय, मनोमय की भाँती विज्ञानमय कोष में भी वही
परमात्मा का निवास है ।
पांचवे अनुवाक के दूसरे
अंश में आनंदमय परम पुरुष का वर्णन मिलता है । इसके अन्दर विज्ञानमय पुरुष व्याप्त
है । प्रियता, मोद, प्रमोद और आनंद ही परमात्मा का रूप है । इसे प्रश्न और
अनुप्रश्न से ही गुरु शिष्य समझते हैं । अनुप्रश्न उन प्रश्नों को कहते हैं जो
आचार्य के उपदेश के अनंतर किसी शिष्य के मन में उठते हैं या जिन्हें वह उपस्थित
करता है । वे तीन हैं- क्या वास्तव में ब्रह्म है कि नहीं ? जब ब्रह्म आकाश की भाँति
सर्वगत तथा पक्षपात रहित है- सम है, तब क्या वे अविद्वान को भी प्राप्त होते है या
नही ? यदि अविज्ञानी को प्राप्त नहीं होते तो सम कैसे हुए । “अथातोऽनुप्रश्ना: । और
आगे आता है- “सोऽकामयत ।”, “बहुस्याम प्रजायेयेति।” की बात आती है । “असद्वा
इदमग्र आसीत्।” ततो वै सदजायत ।”
आनंद का
विचार आरंभ करने की सूचना देकर सर्वोत्तम मनुष्य लोक से भोगों से मिल सकने वाले बड़े
से बड़े आनंद की कल्पना की गई है । भाव यह की एक मनुष्य युवा हो; वह भी
ऐसा वैसा घूमने वाला युवक नहीं -सदाचारी, अच्छे स्वभाववाला, अच्छे कुल में उत्पन्न
श्रेष्ठ पुरुषों हो, उसे संपूर्ण वेदों की शिक्षा मिली हो तथा शासन में ब्रह्मचारियों
को सदाचार की शिक्षा देने में अत्यंत कुशल हो, उसके संपूर्ण अंग और इंद्रियां रोग रहित
समर्थ और सुदृढ़ हों और वह सब प्रकार के बल से संपन्न हो । फिर धन संपत्ति से भरा यह
संपूर्ण पृथ्वी उसके अधिकार में आ जाए तो यह मनुष्य का एक बड़े से बड़ा सुख है ।
वह मानव लोक का एक सबसे महान आनंद है ।
जो मनुष्य
योनि में उत्तम कर्म करके गंधर्व भाव को प्राप्त हुए हैं उनको ‘मनुष्य गंधर्व’ कहते
हैं । यहां इनके आनंद को उपर्युक्त मनुष्य के आनंद से सौ गुना बताया गया है। ‘मनुष्य
गंधर्व’ की अपेक्षा देव गन्धर्वों के आनंद
को 100 गुना बताया गया है।
देव गन्धर्वों के आनंद की अपेक्षा चिर स्थाई
पितृलोक को प्राप्त दिव्य पितरों के आनंद को 100 गुना बताया गया
है। इस वर्णन में चिरस्थाई लोगों में रहने वाले दिव्य पितरों के आनंद की अपेक्षा
'आजानज' नामक देवों के आनंद को 100 गुना बताया गया है । देवलोक
की एक विशेष स्थान का नाम ‘आजान’ है; जो लोग स्मृतियों में प्रतिपादित किन्हीं
पुण्य कर्मों के कारण वहां उत्पन्न हुए हैं, वे ‘आजानज’ कहलाते हैं।
स्वभाव सिद्ध
देवों के आनंद की अपेक्षा इंद्र के आनंद को सौ गुना बताया गया है। और इंद्र के आनंद
की अपेक्षा बृहस्पति के आनंद को 100 गुना बताया है । इसी तरह वृहस्पति के आनंद की अपेक्षा प्रजापति के आनंद को
100 गुना बताया गया है । प्रजापति के आनंद से भी हिरण्यगर्भ के आनंद को 100 गुना बताया
गया है । इस प्रकार यहां एक से दूसरे आनंद की अधिकता का वर्णन करते करते सबसे बढ़कर
हिरण्यगर्भ के आनंद को बताकर यह भाव दिखाया गया है कि इस जगत में जितने प्रकार के जो-जो
आनंद देखने सुनने तथा समझने में आ सकते हैं, वह चाहे कितने ही बड़े क्यों न हो उस पूर्ण
आनंद स्वरूप परमात्मा के आनंद की तुलना में बहुत ही तुक्ष्य हैं।
तात्पर्य
की आनंद के एकमात्र केंद्र परम आनंद स्वरूप परब्रह्म परमात्मा ही सबके अंतर्यामी हैं,
इस प्रकार जो जान लेता है वह मरने पर इस मनुष्य शरीर को छोड़कर पहले बताए हुए अन्नमय, प्राणमय, मनोमय,
विज्ञानमय और आनंदमय आत्मा को प्राप्त होता है। यह अमृत्व के प्राप्त का साधन है । तप के द्वारा
जिसने चित्त को जीत लिया है, उसे शब्द रहित एकांत स्थान में स्थित
होकर संग शून्य तत्व के लिए योग का ज्ञाता बनना और धीरे-धीरे
अपेक्षा रहित बनना चाहिए । जैसे बंधन
को काटकर हंस आकाश में निशंक उड़ जाता है, वैसे ही जिसके बंधन कट गए हैं, वह जीव संसार से सदा के लिए तर जाता है,
जैसे दीपक बुझने के समय सारे तेल को जला जाता है, वैसे ही योगी समस्त कर्मों को जलाकर ब्रह्म में लीन हो जाता है । साधक जब समस्त
कामनाओं से छूट जाता है और सारी एषणाओं से रहित हो जाता है, तब
वह अमरत्व को प्राप्त होता है । जो संसार बंधन को काट डालने के बाद वह बांधता नहीं
है ।