Sunday, 16 July 2023

कठोपनिषद

 

कठोपनिषद

सामवेदीय शाखा का उपनिषद है । “ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥  ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥” यह उपनिषद आत्म-विषयक आख्यायिका से आरम्भ होता है । प्रमुख रूप से यम नचिकेता के प्रश्न प्रतिप्रश्न के रुप में है । नचिकेता के पिता , ऋषि अरुण के पुत्र उद्दालक लौकिक कीर्ति की इच्छा से विश्वजित (अर्थात विश्व को जीतने का) याग का अनुष्ठान करते हैं । याजक अपनी समग्र सम्पत्ति का दान कर दे यह इस यज्ञ की प्रमुख विधि है । इस विधि का अनुसरण करते हुए उसने अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी । उसके पास कुछ पीतोदक, जग्धतृण, दुग्धदोहा, निरिन्द्रिय और दुर्बल गाएँ  थीं । नचिकेता ने पिता से कहा, इस प्रकार के दान से तो आपका याग सफल न होगा न आपकी आत्मा का अभ्युदय होगा । संवाद में वह कहता है की आपमें सचमुच दान की भावना है तो मुझे दान कीजिये, "कहिये मुझे किसको दान में देने को तैयार हैं" - कस्मै मा दास्यसि ? पिता ने पुत्र की बात अनसुनी कर दी ; समझा नादान बालक है। जब नचिकेता ने देखा की उसका पिता उद्दालक उसकी बात पर ध्यान नहीं दे रहा है तो उसी प्रश्न को कई बार दोहराया - "मुझे किसे दोगे" ? तब क्रोधित होकर पिता ने कहा - तुझे मृत्यु को दान में देता हूँ (मृत्यवे त्वा ददामि)। यह सुन नचिकेता मृत्यु अर्थात यमाचार्य के पास गया और उनसे तीन वर मांगें  - पहला वर पिता का स्नेह मांगा। दूसरा अग्नि विद्या जानने के बारे में था। तीसरा वर मृत्यु रहस्य और आत्मज्ञान को लेकर था। इसी सवाद को लेकर यह उपनिषद सामने आता है ।

प्रश्नोपनिषद

 

 प्रश्नोपनिषद

: इस उपनिषद् के प्रवक्ता आचार्यपिप्पलाद थे जो कदाचित् पीपल के गोदे खाकर जीते थे। सुकेशा, सत्यकाम, सौर्यायणि गार्ग्य, कौसल्य, भार्गव और कबंधी, इन छह ब्रह्मजिज्ञासुओं ने इनसे ब्रह्मनिरूपण की अभ्यर्थना करने के उपरांत उसे हृदयंगम करने की पात्रता के लिये आचार्य के आदेश पर वर्ष पर्यंत ब्रह्मचर्य पूर्वक तपस्या करके पृथक्-पृथक् एक एक प्रश्न किया । इसके प्रथम तीन प्रश्न अपरा विद्या विषयक तथा शेष परा विद्या संबंधी हैं। प्रथम प्रश्न में प्रजापति सेसृष्टि की उत्पत्ति, द्वितीय प्रश्न में प्राण के स्वरूप , तीसरे प्रश्न में प्राण की उत्पत्ति तथा स्थिति का निरूपण किया गया है । पिप्पलाद ने चौथे प्रश्न में बताया की  स्वप्नावस्था में श्रोत्रादि इंद्रियों के मन मे लय हो जाने पर प्राण जाग्रत रहता है तथा सुषुप्ति अवस्था में मन का आत्मा में लय हो जाता है । वही द्रष्टा, श्रोता, मंता, विज्ञाता इत्यादि है जो अक्षर ब्रह्म का सोपाधिक स्वरूप है। इसका ज्ञान होने पर मनुष्य स्वयं सर्वज्ञ, सर्वस्वरूप, परम अक्षर हो जाता है । पाँचवे प्रश्न में बताया कि ओंकार में ब्रह्म की एकनिष्ठ उपासना एवं ॐ का एकनिष्ठ उपासक परात्पर पुरुष का साक्षात्कार करता है । अंतिम छठे प्रश्न में आचार्य पिप्पलाद ने दिखाया है कि इसी शरीर के हृदय पुंडरीकांक्ष में सोलहकलात्मक पुरुष का वास है । ब्रह्म की इच्छा, एवं उसी से प्राण, उससे श्रद्धा, आकाश, वाय, तेज, जल, पृथिवी, इंद्रियाँ, मन और अन्न, अन्न से वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक और नाम उत्पन्न हुए हैं जो उसकी सोलह कलाएँ और सोपाधिक स्वरूप हैं।

मुण्डकोपनिषद् :

 

मुण्डकोपनिषद् : मुंडकोपनिषद् दो-दो खंडों के तीन मुंडकों में, अथर्ववेद के मंत्रभाग के अंतर्गत आता है। इसमें पदार्थ और ब्रह्म-विद्या का विवेचन है, आत्मा-परमात्मा की तुलना और समता का भी वर्णन है। इसके मंत्र सत्यमेव जयते ना अनृतम का प्रथम भाग, यानि सत्ममेव जयते भारत के राष्ट्रचिह्न का भाग है । इस उपनिषत् में ऋषि अंगिरा और  शिष्य शौनक के संवाद हैं । इसमें 21, 21 और 22 के तीन मुंडकों में 64 मंत्र हैं ।

माण्डूक्योपनिषद्:

 

  माण्डूक्योपनिषद्: 

इस उपनिषद में कहा गया है कि विश्व में,  भूत-भविष्यत् - वर्तमान कालों में तथा इनके परे भी जो नित्य तत्त्व सर्वत्र व्याप्त है वह ॐ है । यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है।  इसमें आत्मा कि अभिव्यक्ति की - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय चार अवस्थाएँ बताई गई हैं । (ब्रह्म) के भेद का प्रपंच नहीं है और केवल अद्वैत शिव ही शिव रह जाता है ।

तैत्तरीयोपनिषद

 तैत्तरीयोपनिषद

तैत्तिरीयोपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली इन तीन खंडों में विभक्त है - कुल ५३ मंत्र हैं, जो ४० अनुवाकों में व्यवस्थित है । उपनिषद का आरंभ ब्रह्मविद्या के सारभूत 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्‌' मंत्र से होता है । ब्रह्म का लक्षण सत्य, ज्ञान और अनंत स्वरूप बतलाकर उसे मन और वाणी से परे अचिंत्य कहा गया है । इस उपनिषद् के मत से ब्रह्म से ही नामरूपात्मक सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और उसी के आधार से उसकी स्थिति है तथा उसी में वह अंत में विलीन हो जाती है।

ऐतरेयोपनिषद्:

 ऐतरेयोपनिषद्:

इस उपनिषद् में तीन अध्याय हैं । उनमें से पहले अध्याय में तीन खण्ड हैं तथा दूसरे और तीसरे अध्यायोंमें केवल एक-एक खण्ड हैं । प्रथम अध्याय में बतालाया है कि सृष्टि के आरम्भ में केवल एक आत्मा ही था, उसने लोक-रचना के लिये ईक्षण (विचार) किया और केवल सकल्प से अम्भ, मरीचि और मर तीन लोकोंकी रचना की । उनके लिये लोकपालो की रचना किया । परमात्मा की आज्ञा से उसके भिन्न-भिन्न अवयवों में वाक्, प्राण, चक्षु आदि स्थति हो गये। फिर अन्नकी रचना की गयी। देवताओं ने उसे वाणी प्राण चक्षु एवं श्रोत्रादि भिन्न-भिन्न कारणों से ग्रहण करना चाहा; परन्तु वे इसमें सफल न हुए । अन्त में उन्होंने उसे अपान द्वार ग्रहण कर लिया। इस प्रकार यह सारी सृष्टि हो जानेपर परमात्मा ने विचार किया कि अब मुझे भी इसमें प्रवेश करना चाहिये; क्योंकि मेरे बिना यह सारा प्रपंच अकिंचित्कर ही है। अतः वह उस पुरुष की मूर्द्धसीमा को विदीर्णकर उसके द्वारा उसमें प्रवेश किया कर गया । इस प्रकार ईक्षण से लेकर परमात्मा के प्रवेशपर्यन्त जो सृष्टिक्रम बतलाया गया है ।

छान्दोग्योपनिषद्

 

छान्दोग्योपनिषद्  

इसके आठ प्रपाठकों में प्रत्येक में अनेक खण्ड हैं । यह उपनिषद ब्रह्मज्ञान के लिये प्रसिद्ध है । संन्यासप्र धान इस उपनिषद् का विषय अपाप, जरा-मृत्यु-शोक रहित, विजिधित्स, पिपासा रहित, सत्यकाम, सत्यसंकल्प आत्मा की खोज तथा सम्यक् ज्ञान है । प्रपाठक आठ के खण्ड १५ के अनुसार इसका प्रवचन ब्रह्मा ने प्रजापति को, प्रजापति ने मनु को और मनु ने अपने पुत्रों को किया जिनसे इसका जगत् में विस्तार हुआ। यह निरूपण बहुधा ब्रह्मविदों ने संवादात्मक रूप में किया। श्वेतकेतु और उद्दालक, श्वेतकेतु और प्रवाहण जैबलि,सत्यकाम जाबाल और हारिद्रुमत गौतम, कामलायन उपकोसल और सत्यकाम जाबाल, औपमन्यवादि और अश्वपति कैकेय, नारद और सनत्कुमार, इंद्र और प्रजापति के संवादात्मक निरूपण उदाहरण सूचक हैं।

बृहदारण्यकोपनिषद्:

 

बृहदारण्यकोपनिषद्: 

बृहदारण्यक अद्वैत वेदान्त और संन्यासनिष्ठा का प्रतिपादक है । यह उपनिषदों में सर्वाधिक बृहदाकार है तथा मुख्य दस उपनिषदों के श्रेणी में सबसे अंतिम उपनिषद् माना जाता है । इसमें जीव, ब्रह्माण्ड और ब्रह्म (ईश्वर) के बारे में कई बाते कहीं गईं है । यजुर्वेद के प्रसिद्ध पुरुष सूक्त के अतिरिक्त इसमें अश्वमेध, असतो मा सद्गमय, नेति नेति जैसे विषय हैं। इसमें ऋषि याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का संवाद है, जो अत्यन्त क्रमबद्ध और युक्तिपूर्ण है। इसके नाम (बृहदारण्यक = बृहद् + आरण्यक) का अर्थ 'बृहद ज्ञान वाला' या 'घने जंगलों में लिखा गया' उपनिषद है । इस उपनिषद् का ब्रह्मनिरूपणात्मक अधिकांश उन व्याख्याओं का समुचच्य है जिनसे अजातशत्रु ने गार्ग्य बालाकि की, जैवलि प्रवाहण ने श्वेतकेतु की, याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी और जनक की तथा जनक के यज्ञ में समवेत गार्गी और जारत्कारव आर्तभाग इत्यादि आठ मनीषियों की ब्रह्म जिज्ञासा निवृत्त की थी।

श्वेताश्वतरोपनिषद् :

 

श्वेताश्वतरोपनिषद् 

श्वेताश्वतर उपनिषद् में छह अध्याय और 113 मंत्र हैं । उपनिषद् का यह नाम श्वेताश्वतर ऋषि के कारण प्राप्त है । मुमुक्षु संन्यासियों के कारण ब्रह्म क्या है अथवा इस सृष्टि का कारण ब्रह्म है अथवा अन्य कुछ हम कहाँ से आए, किस आधार पर ठहरे हैं, हमारी अंतिम स्थिति क्या होगी, हमारे सुख दु:ख का हेतु क्या है, इत्यादि प्रश्नों के समाधान में ऋषि ने जीव, जगत्‌ और ब्रह्म के स्वरूप तथा ब्रह्मप्राप्ति के साधन बतलाए हैं और यह उपनिषद सीधे योगिक अवधारणाओं की व्याख्या करता है। इसमें बताया गया है की ध्यान (योग) की स्वानुभूति से प्रत्यक्ष देखा गया है कि सब का कारण ब्रह्म की शक्ति है और वही इन कथित कारणों की अधिष्ठात्री है । इस शक्ति को ही प्रकृति, प्रधान अथवा माया की अभिधा प्राप्त है । यह अज और अनादि है, परंतु परमात्मा के अधीन और उससे अस्वतंत्र है । वस्तुत: जगत्‌ माया का प्रपंच है । वह क्षर और अनित्य स्थूल देह में, सूक्ष्म अथवा लिंग शरीर जो कर्मफल से लिप्त रहता है उसके साथ जीवात्मा जन्मांतर में प्रवेश करता है । इसे ब्रह्मचक्र  या विश्वमाया कहा गया है । जब तक अविद्या के कारण जीव अपने को भोक्ता, जगत्‌ को भोग्य और ईश्वर को प्रेरिता मानता अथवा ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान को पृथक्‌ पृथक्‌ देखता है तब तक इस ब्रह्मचक्र से वह मुक्त नहीं हो सकता  । ब्रह्म का श्रेष्ठ रूप निर्गुण, त्रिगुणातीत, अज, ध्रुव, इंद्रियातीत, निरिंद्रिय, अवर्ण और अकल है । वह न सत्‌ है, न असत्‌, जहाँ न रात्रि है न दिन, वह त्रिकालातीत है । देह में व्याप्त ब्रह्म का प्रणव द्वारा निरंतर ध्यान करके उसका साक्षात्कार किया जा सकता है। इसमें प्राणायाम और योगाभ्यास की विधि विस्तारपूर्वक बतलाई गई है ।

श्रीमद्भगवतगीत

 

श्रीमद्भगवतगीत

       कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था । वह श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है ।  मूलत: यह संस्कृत महाकाव्य महाभारत की एक उपकथा के रूप में प्रारम्भ होता है । आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व भगवान् कृष्ण ने अपने  भक्त अर्जुन को श्रीमद्भगवतगीता  का उपदेश दिया था । यह मानव इतिहास की सबसे महान दार्शनिक तथा धार्मिक वार्ताओं में से एक है । यह महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है । गीता में १८ अध्याय और ७०० श्लोक हैं ।प्रत्येक अध्याय एक-दूसरे से गुथे हुए हैं और निरन्तर हैं । गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी संमिलित हैं। अतएव भारतीय ज्ञान  परंपरा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों का है । गीता के माहात्म्य में उपनिषदों को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। गीता अध्यात्म विद्या है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं । जैसे, सांसारिक स्वरूप, के  अश्वत्थ विद्या,  अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति के विषय में अक्षर पुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार वेदों के ब्रह्मवाद और उपनिषदों के अध्यात्म, इन दोनों की विशिष्ट सामग्री गीता में संनिविष्ट  होने से उसे ब्रह्मविद्या कहा गया है । गीता में 'ब्रह्मविद्या' का आशय निवृत्ति परक ज्ञानमार्ग से है। गीता में योगशास्त्रेशब्द है । यहाँ योगशास्त्रेका अभिप्राय नि:संदेह कर्मयोग से ही है । गीता में योग की दो परिभाषाएँ पाई जाती हैं । एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें समत्वं योग उच्यतेकहा गया है । योग की दूसरी परिभाषा है योग: कर्मसु कौशलमअर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञान मार्गियों को मिलती है । इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है ।

                  श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम मेरे परममित्र हो इसलिए तुम्हें मैं यह विद्या सिखा रहा हूं । अर्जुन कहते हैं कि आप भगवान परमधाम, पवित्रतम, परमसत्य हैं । आप शाश्वत, दिव्य आदिपुरुष, अजन्म तथा महानतम हैं । नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे समस्त महामुनि इस बात की पुष्टि करते हैं । आपने जो कहा है, उसे पूर्ण रूप से मैं सत्य मानता हूं । हे प्रभू न तो देवता और न असुर आपके व्यक्तिव को समझ सकते हैं । श्रीमद्भगवदगीता की विषय वस्तु में पांच मूल सत्यों का ज्ञान निहित है, यथा- ईश्वर क्या है, जीवक्याहै, प्रकृतिक्याहै, दृश्य जगत क्या है तथा यह काल द्वारा किस प्रकार नियंत्रित है और जीवों के कार्यकलाप क्या हैं । गीता में भौतिक प्रकृति को अपरा प्रकृति तथा जीव को परा प्रकृति कहा गया है । भौतिक प्रकृति तीन गुणों से निर्मित है- सतोगुण, रजोगुण एवं तमोगुण । इन्हीं तीनों गुणों से प्रत्येक जीव कर्मफल का दुख और सुख भोगते हैं । यही कर्म कहलाता है । भौतिक प्रकृति ( अपरा ) परमेश्वर की भिन्ना शक्ति है ।  परम ईश्वर की स्थिति परम चेतना स्वरूप है । जीव भी ईश्वर अंश होने से चेतन है । लेकिन दोनों में अंतर है । ईश्वर, जीव, प्रकृति, काल तथा कर्म में से कर्म को छोड़कर चार शाश्वत हैं । जीव बद्ध होता है । अर्थात व्यक्ति देहात्म बुद्धि में लीन रहने से अपने स्वरूप को भूल जाता है ।  गीता में बताया गया है कि ब्रह्म भी पूर्ण परमपुरुष के अधीन है । पूर्ण भगवान में अपार शक्तियां हैं । सांख्य दर्शन के अनुसार यह भौतिक जगत भी 24 तत्वों से भी समन्वित होने के कारण पूर्ण है । वैज्ञानिक शोध गीता की इस दृष्टि को पकड़ नहीं पाते हैं क्योंकि वे इंद्रियों पर आधारित हैं । गीता में प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार के कर्मों का उल्लेख है- सात्विक कर्म, राजसिक कर्म तथा तामसिक कर्म । इसी प्रकार सात्विक, राजसिक तथा तामसिक आहार के भी तीन भेद हैं । गीता में जीव और ईश्चर दोनों को सनातन बताया गया है । अत: गीता संदेश देती है कि हमें सनातन धर्म को जागृत करना है जो कि जीव की शाश्वत वृत्ति है, इसलिए सनातन धर्म किसी साम्प्रदायिक धर्म का सूचक नहीं है । जिसका न आदि है और न अंत है वह सनातन है । सनातन धर्म विश्व के समस्त लोगों का ही नहीं अपितु ब्रह्मा के समस्त जीवों का है । गीता मानती है किजिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा चुरा ली गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा करते हैंभगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरा परमधाम न तो सूर्य या चंद्रमा द्वारा, न ही अग्नि या बिजली द्वारा प्रकाशित होता है । जो लोग वहां पहुंच जाते हैं वे फिर कभी नहीं लौटते हैं, इसे गो लोक कहते हैं । गीता के पंद्रहवें अध्याय में भौतिक जगत का चित्रण करते हुए कहा है भौतिक जगत वह वृद्ध है जिसकी जड़े उर्ध्वमुखी हैं और शाखाएं अधोमुखी हैं । यह भौतिक जगत आध्यात्मिक जगत का प्रतिबिंब है । अत: इस अध्यात्मिक जगत को झूठे भौतिक भोगों के आकर्षणों में मोहग्रस्त जीव या मनुष्य प्रवेश नहीं कर पाता है । गीता कहती हैं कि मृत्यु के समय ब्रह्म का चिंतन करने से वह जिस भाव को स्मरण करता है अगले जन्म में उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है।  इसलिए हे अर्जुन !  कृष्ण के रूप मेरा सदैव चिंतन करो और युद्ध कर्म करते रहो । अर्जुन कहते हैं कि हे मधुसूदन ! आपने जिस योग पद्वति का संक्षेप में वर्णन किया है वह मेरे लिए अव्यवहारिक असहय प्रतीत होती है क्योंकि मन अस्थिर तथा चंचल है । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन ! जो व्यक्ति पथ पर विचलित हुए बिना अपने मन को निरंतर मेरा स्मरण करने में व्यस्त रखता है और भगवान के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य प्राप्त होता है ।

              सारांश यह कि श्रीमद्भगवदगीता दिव्य साहित्य है जिसके अंदर मनुष्य की मुक्ति के लिए कर्म, ज्ञान और भक्तियोग का विस्तार से वर्णन किया गया है । अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हेअर्जुन ! “ सब धर्मों को त्यागकर मेरी ही शरण में आओ। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा । तुम डरो मतव्यास संजय के गुरु थे और संजय स्वीकार करते हैं कि व्यास की कृपा से वह भगवान को समझ सके और गीता के अंत में धृतराष्ट से कहाआप अपनी विजय की बात सोच रहे हैं लेकिन मेरा मत है कि जहां श्रीकृष्ण और अर्जुन उपस्थित हैं वहीं सम्पूर्ण श्री होगी ।

 

 

 

Saturday, 15 July 2023

तैत्तिरीयोपनिषद -शिक्षा वल्ली 3

 

 

पञ्च कोष

तैत्तिरीयोपनिषद -शिक्षा वल्ली

 

              ॐ क्या है ? ॐ अ, उ और म तीन अक्षरों के योग से बनता है । ॐ ईश्वर माला का प्रथम अक्षर है । ‘अ’ सभी स्वरों में वर्णमाला का प्रथम अक्षर है । प्रत्यक ध्वनि के उच्चारण के लिए इसकी आवश्यकता पड़ती है, चाहे शिशु हो, गूंगा हो या पशु जो कंठ , जिह्वा अथवा तालव्य से ध्वनि निकाल सकता है । ‘अ’ स्वर के बिना, जब तक की अन्य कोई स्वर अंत में न आ रहा हो, कोई भी ध्वनि उच्चारण योग्य नहीं होती । ‘अ’ स्वर के बाद ही उ, इ आदि स्वर आते हैं । ॐ का दूसरा अक्षर ‘उ’ प्रथम स्वर की ध्वनि परिवर्तन में सहायता करता है । ॐ का तीसरा अक्षर ‘म’ अनुस्वार की ध्वनि उस प्रत्येक शब्द में अंतर्निहित है जो नासिका के सहयोग से उच्चारित होता है   इस प्रकार ॐ सभी उच्चारित और अनुच्चारित ध्वनियों की पृष्ठभूमि का कार्य करता है और इसीलिए इसे मूर्तिमंत ईश्वर अथवा शब्द ब्रह्म  माना जाता है ।

              भारतीय दर्शन में ऋषियों ने इसी उच्चारित वाणी को चार भागों में परिचय कराया है - परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी ।‘परा’ अव्यक्त ज्ञान की मूल चिति शक्ति है । ‘पश्यन्ति’ ज्ञान की व्यक्त चेतना है ।  ‘मध्यमा’ ज्ञान की विचारों और भावों में अभिव्यक्ति  की मध्य अवस्था है और ‘वैखरी’ शब्दों के आवरण में अलंकृत उच्चारित ध्वनि है ।

              संस्कृत के पचास अक्षरों का इस शरीर से क्या सम्बन्ध है? अक्षरों में सोलह ‘अआइईउऊऋऌळॄएऐओऔअंअ:’ स्वर होते हैं। इसी तरह पच्चीस व्यंजनों को पांच श्रेणियों में बांटा गया है- कखगघङ, चछजझञ, टठडढण, तथदधन,पफबभम । जिन्हें क च ट त और प वर्ग भी कहते हैं। इन व्यंजनों के प्रत्येक श्रेणी के पहले दो अक्षर कठोर, बाद के दो कोमल और अंतिम अनुनासिक हैं । ‘यरलवशषसहळ’ अर्द्ध व्यंजन हैं । ‘क्ष’ ‘क्’ और ‘ष्’ का संयुक्त अक्षर है । सभी मन्त्र इन्हीं अक्षरों और ध्वनियों के सयोग से बनाते हैं, जिनका उच्चारण शरीर और मन को वांछित रीति से प्रभावित करता है । क्यों पड़ता है इन अक्षरों का अन्नमय कोष से लेकर आनन्द मय कोष तक ?

              मन्त्रों का योग विज्ञान से सम्बन्ध जानने के लिए वर्णमाला का उससे सम्बन्ध जान लेना आवश्यक है । इस सम्बन्ध को हम तीन प्रकार से समझते हैं -  ध्वनि के प्रभाव से सभी स्वर मुख्यतः इड़ा से जुड़े होते हैं । इनमें भी अल्प स्वर पिंगला, दीर्घ स्वर इड़ा तथा ए ऐ ओ औ चार स्वर सुषुम्ना से सम्बंधित हैं । अनुनाशिक ध्वनि आत्मा एवं विसर्ग शक्ति से सम्बंधित है । अल्प स्वर पुलिंग और दीर्घ स्वर स्त्री लिंग हैं तथा ए ऐ ओ औ नपुंशक लिंग हैं । क् से लेकर म् तक पच्चीस व्यंजन मुख्यत: पिंगला एवं नौ अर्द्ध व्यंजन (यरलवशषसहळ) सुषुम्ना से सम्बंधित हैं । इसके आगे अल्प-स्वर  सहित क् से लेकर क्ष् तक सभी व्यंजन पिंगला से, दीर्घ स्वर इड़ा से एवं ए ऐ ओ औ आदि स्वरों से संपृक्त होने पर सुषुम्ना  से संबध होते हैं । अनुनासिक से अंत होने पर आत्मा और विसर्ग से शक्ति प्रभावित होती है । 

              कोषों अर्थात् शरीर के खजाने को समझने के लिए यहाँ षट्चक्रों से अक्षरों का सम्बन्ध समझना जरूरी हो जाता है । सोलह स्वर (अआइईउऊऋऌळॄएऐओऔअंअ:) विशुद्ध चक्र स्थित कमल की सोलह पंखुड़िया हैं । क् से लेकर ठ् तक के बारह व्यंजन अनाहत चक्र के पटल हैं । ड् से लेकर प् तक के दस व्यंजन मणिपूर चक्र से सम्बंधित हैं । व् से लेकर ल् तक के छह अक्षर स्वाधिष्ठान चक्र तथा व् श् ष् स आदि चार अक्षर मूलाधार चक्र से सम्बंधित हैं । ह क्ष् आज्ञा चक्र स्थित बताएं गए हैं ।

              उच्चारण की दृष्टि से वर्णमाला का विभाजन इस प्रकार माना गया है- अ आ क ख ग घ ङ ह- विसर्ग कंठ्य, इ ई च छ ज झ ञ य श तालव्य, उ ऊ ओ औ प फ ब भ म ओष्ठ्य,ऋ ट ठ ड ढ ण र ष कोमल तालव्य , ऌ त थ द ध न ल स दन्त्य, ङ ञ म ण न  अनुस्वार और अनुनासिक हैं तथा व् दन्त्योष्ठ है ।

              जब उच्चारण से जिह्वा की संवेगी तंत्रिकाएं प्रभावित होकर कंठ, तालू, नासिका, दन्त्योष्ठ आदि में स्थित ज्ञान तंतुओं को भेद कर कपाल, भ्रुवोर्मध्य आदि के नाडी जाल के केंद्र को उद्वेलित कराती हैं तब यह हठयोग की परिधि में आता है । जब ध्वनि श्रवणेद्रियों के माध्यम से तत्संबंधी मस्तिष्क केंद्र को उद्बुद्ध करती हैं तब यह क्रिया लय योग के अंतर्गत आती है । और जब इन संवेगी तंत्रिकायों से मन प्रभावित होकर प्रेम, आनंद, शांति और भक्ति से भर उठाता है तब यह भक्ति योग के क्षेत्र में आता है ।

              साधक या योगी उसी ध्वनि को सुनता है जिसका सम्बन्ध सुषुम्ना नाडी से होता है क्योंकि वह जानता है कि मन्त्र का निर्माण ए ऐ ओ औ य र ल व श ष स ह आदि विसर्ग और अनुनासिकों से बनाते हैं । मन्त्र के साथ नाम भी इन्हीं से बनाते हैं - ॐ, हरी हर राम शिव ईश ह्वीम एनम श्री हुम आदि । क ब्रह्म वाचक होने से शंकर, कृष्ण, काली, क्लीम आदि में पुनरावृति होती है ।

              इस प्रकार मन्त्र का उच्चारण तीन प्रकार से कार्य करता है । उच्चारण एक वाचिक अभ्यास है, इनकी अर्थ चेतना एक मानसिक क्रिया है । वहीं ध्वनि के श्रवण से मस्तिष्क प्रभावित होता है । ‘मनानात् त्रायते इति मन्त्र’ अर्थात् मनन द्वारा जिससे त्राण कार्य होता है, उसे मन्त्र कहते हैं । इसके अतिरिक्त उच्चारण और ध्वनि श्रवण जहां सीधे मस्तिष्क केन्द्रों को प्रभावित करता है, वहीं अप्रत्यक्ष रूप से इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना और षट्चक्र एवं पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश आदि पांच तत्व भी प्रभावित होते हैं । इस तरह ॐ की यह यात्रा संस्कृत के वर्णमाला का वह रूप है जो अंड से लेकर ब्रह्माण्ड तक को बाँध कर रखता है।  

              और तब प्रकट होता है ‘अहं ब्रह्माऽस्मि’ यह महावाक्य । तब मन आनंदमय कोष में अनहद नाद कर उठाता है ‘मैं ब्रह्म हूं’ ‘मैं ही ब्रह्म हूं’ इसी 'अस्मि' से ब्रह्म और जीव की एकात्मता प्रारम्भ होती है । इसमें आत्मा की अभिव्यक्ति को जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय चार अवस्थाओं का अनुभव होता है और जीव परमात्मा का अनुभव करते-करते ॐ स्वरूप हो जाता है।

              तब उपनिषद का ऋषि परा से लेकर बिखरी तक की यात्रा पूर्ण कर आत्मोघटन करता है कि विश्व में भूत, भविष्यत्, और वर्तमान में तथा इसके परे भी जो नित्य तत्व सर्वत्र व्याप्त है, वह ॐ है यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है यहीं से नाद की वह यात्रा प्रारंभ होती है जहाँ ब्रह्म के भेद का प्रपंच नहीं होता और  केवल अद्वैत शिव () ही रह जाता है  

 

तैत्तिरीयोपनिषद -शिक्षा वल्ली-2

 

पञ्च कोष

तैत्तिरीयोपनिषद -शिक्षा वल्ली-2

(3)

                 ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथम (मुण्डको/1) । ओमित्येक्षरमिदँ सर्वं ।(माण्डुक्य /1)  तद ॐ यह पमेश्वर का नाम वेदोक्त जितने भी मन्त्र है, उनमें सर्वश्रेष्ट मन्त्र कहा गया है ।  यह ईश्वर स्वरुप है । इसके उच्चारण का फल सम्पूर्ण वेद (ज्ञान) का फल देता है । ‘ॐकार’ नाम है, परमेश्वर नामी है । इसी ‘ॐ’ की प्रार्थना की गई है कि हमें मेधा (धीर्धारणावती मेधा अर्थात् इस कोष वाक्य के अनुसार धारणा शक्ति से संपन्न बुद्धि का नाम ‘मेधा’ है ) प्राप्त हो, जिससे हम इसकी अहेतुकी कृपा प्राप्त कर सकें । मेरा शरीर निरोगी हो, उपासना (कर्म) में बिघ्न न पड़े, जिह्वा अतिशय मधु हो, कानों से कीर्तन सुनें आदि-आदि । मन्त्रों का आह्वान कर स्वाहा (स्वाहा अर्थात् इस उद्देश्य के लिए यह आहुति है) कहें ।

              “यथाऽऽप: प्रवत्ता यन्ति यथा मासा अहर्जरम् । एवं मां ब्रह्मचारिणो धातरायन्तु सर्वत: स्वाहा ।” अर्थात् जिस प्रकार जल प्रवाह नीचे की ओर बहते-बहते समुद्र में मिल जाते हैं तथा जिस प्रकार दिन का अंत करनेवाले संवत्सररूप काल में जा रहे है, हे विधाता ! उसी प्रकार सब ओर से ब्रह्मचारी मेरे पास आयें और मैं उनकों कल्याण का उपदेश देकर कर्तव्य पथ पर चलने का मार्ग दिखा कर आप की आज्ञा का पालन कर सकूं, इसके उद्देश्य से इस मन्त्र का उच्चारण कर रहा हूँ ।

              संध्या वंदन में गायत्री मन्त्र में तीन व्याव्हृतियाँ भू:, भुवः, स्वः और चौथी व्याहृति ‘मह:’ आती है । ऋषियों का मत है की यही ‘मह:’ ब्रह्म है । ‘भू:’ यह पृथ्वीलोक है तो भुवः’ यह अन्तरिक्ष लोक और ‘स्वः’ यह स्वर्गलोक है । ‘मह:’ यह सूर्यलोक है । अर्थात्  ‘भू:, भुवः, स्वः’ यह तीनों व्याव्हृतियाँ परमेश्वर के विराट शरीर रुपी इस ब्रह्माण्ड को बताने वाली हैं, तो ‘मह:’ यह चौथी व्याव्हृति परमेश्वर के आत्मस्वरूप है । दूसरी ओर ‘भू:’ यह व्याहृति अग्नि का नाम होने से मानों ‘अग्नि’ ही है ।  यह ज्योतिस्वरूप है । ‘भुवः’ यह वायु स्वरुप है । वायु देवता त्वक-इन्द्रिय स्पर्श को प्रकाशित करनेवाली ज्योति और त्वचा भी समझना चाहिए । ‘स्वः’ यह सूर्य है ।  सूर्य चक्षु -इन्द्रिय का अधिष्ठाता देवता है ।  ‘मह:’ यह  मानो चन्द्रमा है और चन्द्रमा मन का देवता है । ‘मन’ के कारण ही सभी इन्द्रिया क्रियाशील रहती हैं, अत: ‘मन’ ही  प्रधान है । (चन्द्रमा मनसोजात:) । तीसरा स्वरुप - भू: ऋग्वेद , भुवः सामवेद, स्वःअजुर्वेद और मह: यह ब्रह्म है । चौथा - भू: प्राण, भुवःअपान, स्वः व्यान और मह अन्नं है । अन्न में ही सभी प्राण महिमायुक्त होते हैं, अत: ‘मह:’ ही ब्रह्म स्वरुप प्राण है । ( पंचम अनुवाक )

              ह्रदय के भीतर जो अंगुष्ठ मात्र परिणाम वाला आकाश है, उसी में विशुद्ध प्रकाश स्वरुप अविनाशी मनोमय अंतर्यामी पर पुरुष पमेश्वर विराजमान हैं, वहीं उनका साक्षात्कार हो जाता है । मनुष्यों के मुख में तालुओं के बीचोबीच जो एक ‘थन के आकार का मांस -पिंड लटकता है, जिसे बोलचाल की भाषा में ‘घंटी’ कहते हैं, उसके आगे केशों का मूलस्थान ब्रह्मरन्ध्र है; वहां ह्रदय देश से निकलकर घंटी के भीतर से होती हुई दोनों कपालों को भेद कर जो नाडी गई हुई है, वह ‘सुषुम्ना’ नाम से प्रसिद्ध है, वही उन इंद्र नाम से कहे जाने वाले परमेश्वर की प्राप्त का द्वार है । अन्तकाल में वह महापुरुष उस मार्ग से शरीर के बाहर निकलकर ‘भू:’ इस नाम से अभिहित अग्नि में स्थित होता है । गीता और ईशोपनिषद् में भी यही बात कही गई है (गीता 8/24) ।  उसके बाद वायु में सत ही होता है अर्थात् पृथ्वी से लेकर सूर्यलोक तक समस्त आकाश में जिसका अधिकार है, जो सर्वत्र विचरने वाली वायु का अभिमानी देवता है और जो  ‘भुवः’ नाम से कहा गया है, उसी के अधिकार क्षेत्र में आता है ।  वह देवता उसे  ‘स्वः’ इस नाम से कहे हुए सूर्यलोक में पहुँचा देता है, वहाँ से फिर वह ‘मह:’ इस नाम से कहे हुए ‘ब्रह्म’ में स्थित हो जाता है । यहाँ से यह जीव या महापुरुष ‘स्वराट’ बन जाता है ।  अर्थात् उस पर प्रकृति का अधिकार नहीं रहता, अपितु वह स्वयं ही प्रकृति का अधिष्ठाता बन जाता है ; क्योंकि वह  मन के अर्थात् समस्त अन्त:करण समुदाय के स्वामी परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, इसलिए वह वाणी, चक्षु, श्रोत आदि समस्त इन्द्रियों और उनके देवताओं का तथा विज्ञान स्वरूप बुद्धि का भी स्वामी हो जाता है । अर्थात् ये सब उसके अधीन हो जाते हैं । ‘आकाशशरीरं ब्रह्म । सत्यात्म प्रणारामं मन आनंदम् ।’

              पदार्थ के दो भाग यहाँ सामने आते हैं - प्रथम में आधिभौतिक पदार्थों को - लोक, ज्योति और स्थूल पदार्थ इन तीन पंक्तियों में विभक्त करके उनका वर्णन किया है और दूसरे भाग में मुख्य-मुख्य आध्यात्मिक (शरीर स्थित) पदार्थों को- प्राण, करण और धातु इन तीन पंक्तियों में विभक्त करके उनका वर्णन किया है और उनके उपयोग की युक्ति बताई है ।

               लोक की आधिभौतिक दिशाएं- पृथ्वीलोक, अन्तरिक्षलोक, स्वर्गलोक, पूर्व-पश्चिम दिशाएँ आदि तथा आग्नेय, नैरित्य आदि अवांतर दिशाएं । इस प्रकार यह लोकों की आधिभौतिक पंक्ति है । अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र यह ज्योतियों की आधिभौतिक पंक्ति हैं । जल, औषधियां, वनस्पतियाँ,आकाश और पांच भौतिक स्थूल शरीर जड़ पदार्थों की आधिभौतिक पंक्तियाँ हैं । इस प्रकार यह एक प्रकार का समूह है । इसके आगे एक प्राणों की पंक्ति- प्राण, अपान, उदान, सामान और व्यान पंक्ति हैं । नेत्र, कान, मन, वाणी और त्वचा इस प्रकार यह करण समुदाय की पंक्ति है । चर्म, मांस, नाडी, हड्डी और मज्जा इस शरीरगत धातुओं की पंक्ति है ।

              आधिभौतिक और आध्यात्मिक विकास में इनका आपस का  सम्बन्ध है । आधिभौतिक लोक सम्बन्धी पंक्ति से चौथी प्राण - समुदाय रूप आध्यात्मिक पंक्ति का सम्बन्ध है । एक लोक का दूसरे लोक से सम्बन्ध कराने में प्राणों की ही प्रधानता है । दूसरी ज्योति विषयक आधिभौतिक पंक्ति से पांचवीं करन समुदाय रूप आध्यात्मिक पंक्ति का सम्बन्ध है ।  क्योंकि वे आधिभौतिक ज्योतियाँ  इनकी सहायक हैं । इस प्रकार तीसरी स्थूल पदार्थों की आधिभौतिक पंक्ति का छ्ठी शरीरगत धातुओं से सम्बन्ध है क्योंकि ओषधि और वनस्पतियाँ अन्न से ही मांस-मज्जा आदि की पुष्टि और वृद्धि करती हैं ।   

              आगे ॐ में श्रध्दा-भक्ति कैसे हो इसका उपाय बताया गया है । ॐ परमब्रह्म परमात्मा का नाम होने से (प्रणव ‘ॐ’उसका वाचक होने से ) स्वयं साक्षात् परमब्रह्म ही है । यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला जगत ही ॐ है । ॐ यह अनुकृति अर्थात् अनुमोदक सूचक है । ॐ उच्चारण के साथ सत्य भाषण और सत्यभाव पूर्वक  कार्य करने को ही तपश्चर्या कहलाती है । पुरुशिष्ट पुत्र तपोनित्य ने तपश्चर्या को ही सर्व श्रेष्ठ माना गया है । मुद्गल पुत्र नाक का कहना है धर्मशास्त्रों का अध्यन-अध्यापन ही तप है । त्रिशंकु का कहना है की अंत:करण में भावना करना भी परमात्मा की प्राप्त का साधन है । इस प्रकार मनुष्य जैसी भावना करता है वैसे ही बन जाता है । संकल्प में अद्भुत शक्ति है ।

          फिर आचारण की बात कही गई है - “ सत्यंवद । धर्मं चर । स्वध्यायान्मा प्रमद: । इसी में “मातृदेवो भाव । पितृदेवो भाव । आचार्य देवो भव।” की भी बात कही है । यही भाव लेकर जीवन का निर्वाह करना शास्त्रों का मत है । तैतीरियोपनिषद के शिक्षा वल्ली का यही सार है । इसकी गहराई में जाने से हमें अन्नमय, प्राणमय, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष के साथ ॐ में निरंतर अभ्यस्त होने से आनंदमय कोष का आभाष होना प्रारम्भ हो जाता है ।

29/3/23

तैत्तिरीयोपनिषद -शिक्षा वल्ली-1

 

तैत्तिरीयोपनिषद -शिक्षा वल्ली-1

(2)

“ सह नौ यश: । सह नौ ब्रह्मवर्चसम।”

              वर्णों में जो संधि होती है, उसे ‘संहिता’ कहते हैं । वही संहिता दृष्टि जब व्यापक रूप धारण करके लोक आदि को अपना विषय बनाती है, तब उसे ‘महा संहिता’ कहते हैं । ‘संहिता’ या ‘संधि’। स्वर, व्यंज्जन, विसर्ग अथवा अनुस्वार आदि अपने परवर्ती वर्णों के संयोग से कहीं-कहीं नूतन रूप धारण कर लेते हैं ; इस प्रकार वर्णों का यह संयोग जनित विकृति भाव ‘संधि’ कहलाता है । किसी  विशेष स्थल में जहाँ संधि बाधित होती है, वहां वर्ण में विकार नहीं आता; अत: उसे ‘प्राकृत भाव’ कहते हैं ।

              महा संहिता या महा संधि के भी पांच आश्रय- लोक, ज्योति, विद्या, प्रज्ञा और आत्मा (शरीर) होते हैं । प्रत्येक संधि के चार भाग होते हैं- पूर्ववर्ण, परवर्ण । दोनों के मेल से होने वाला रूप तथा दोनों का संयोजक ‘नियम’ कहलाता है  । लोक को संधि के इन चार प्रकार को इस प्रकार समझते हैं - पृथ्वी यह लोक ही ‘पूर्व रूप’ है, स्वर्ग ही संहिता का ‘उत्तर रूप’ (पर वर्ण) हैं । आकाश या अन्तरिक्ष ही इन दोनों की ‘संधि’ है और वायु इनका ‘संधान’ (संयोजक) है । यहाँ वायु का अर्थ ‘प्राण’ है और प्राणों के द्वारा ही मन और इन्द्रियों के सहित जीवात्मा का प्रत्येक लोक में गमन होता है । वायुः अनिलम् अमृतम् अथ इदम् भस्मान्तँ शरीरम् । ॐ क्रतो स्मर कृतँ स्मर क्रतो स्मर कृतँ स्मर ।।” अब यह प्राण उस सर्वात्मक वायु, अनिल, अविनाशी को प्राप्त हो और शरीर भस्म हो । ‘ॐ’ ... अब किये हुए को स्मरण कर, किये हुए को स्मरण कर ॥इशोपनिषद -17

              इसी प्रकार अग्नि इस भूतल पर सुलभ है, अत: उसे संहिता का ‘पूर्व वर्ण’ माना है और सूर्य द्युलोक में प्रकाशित होता है; अत: उसे ‘उत्तर रूप’ कहते हैं । इन दोनों से उत्पन्न होने के कारण ‘मेघ’ ही संधि है  तथा ‘विद्युत् शक्ति’ ही इस संधि की हेतु (संधान) बतायी गयी है । इन ज्योतियों के सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाले भोग्य पदार्थों को ‘जल’ का नाम दिया गया है, और इन सबकी उत्पति विजली को कारण बताया गया, ऐसा अनुमान होता है । आज का वैज्ञानिक भी बिजली को सब प्रकार के विकास का कारक मानता है, यह बात हमारे ऋषियों ने वेद में पहले ही बता दी थी कि- “ अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव् वयुनानि विद्वान् । युयोधि अस्मत्जुहुराणम् एनः भूयिष्ठां ते नम उक्तिम् विधेम ।।” हे अग्नि ! आप ही धन हैं । सर्वस्व हैं । समस्त कर्मों को जानने वाले हैं । हे देव ! आपकी प्राप्ति में मेरे जो भी प्रतिबन्धक कर्म हैं, उन्हें दूर करें । आपको बार-बार नमस्कार है ॥(18/ ईशोपनिषद्) किन्तु परम्परा के क्षीर्ण हो जाने से यह समझने में दुर्लभ समझा जाता रहा है ।

              इस वेद या विद्या को समझाने के लिए आचार्य को ‘पूर्व रूप’ पहला वर्ण माना गया है । अन्तेवासी शिष्य ‘उत्तररूप’ वर्ण है ।  दोनों के मिलन (संधि) से उत्पन होने वाली ‘विद्या’ है, तथा गुरु के प्रवचन को श्रद्धापूर्वक सुनकर उस विद्या को धारण करना ‘संधान’ है । इसी आधार पर संतान उत्पति को लेकर माता को ‘पूर्वरूप’, पिता को ‘उत्तररूप’ तथा संतान उत्पान हेतु उद्देश्य ‘संधान’ तथा संतान का उत्पन्न होना ‘संधि’ है । यही सूत्र मुख को संहिता, नीचे के जबड़े को ‘पूर्वरूप’, ऊपर के जबड़े को ‘परवर्ण’, दोनों के मिलन को ‘संधि’ तथा जिह्वा (वर्ण के उत्पन्न होने से ) ‘संधान’ है । यह संधि का महत्व है । इस प्रकार महा संहिताओं के मन्त्रों माध्यम से विद्या, संतान, वाणी प्राप्त कर संसार के तत्वों को प्राप्त किया जाता है । (तृतीय अनुवाक)

(26/3/23)

पञ्च कोष तैत्तिरीयोपनिषद -शिक्षा वल्ली

 

 

पञ्च कोष

तैत्तिरीयोपनिषद -शिक्षा वल्ली

              ॐ शं नो मित्रः शं वरुण: । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विश्नुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षम ब्रह्मास्मि । त्वामेव प्रत्यक्ष्मं  ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यम वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्त्रारमवतु । अवतु माम्। अवतु वक्तारम् । ॐशांतिः शांतिः शांतिः ( कृष्ण यजुर्वेदीय तैतरीय शाखा ,तैत्तिरीयोपनिषद )

              महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य पस्पशाह्निक में कहा है - दुष्ट: शब्द: स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह । स वाग्वज्रो यजमानम हिनस्ति यथेन्द्रशत्रु: स्वरतोSपराधादिति" ।। अर्थात स्वर या वर्ण की अशुद्धि से दूषित शब्द ठीक-ठीक प्रयोग न होने के कारण अभीष्ट अर्थ का वाचक नहीं होता । इतना ही नहीं, वह वचन रुपी वज्र यजमान / प्रयोगकर्ता को हानि भी पहुंचाता है । जैसे  ‘इंद्रशत्रु’ शब्द में स्वर को अशुद्धि हो जाने के  कारण ‘वृत्तासुर’ स्वयं ही इंद्र के हाथ मारा गया।

              अत: वेद मंत्रो का उच्चारण शिक्षा के अनुसार करना चाहिए । “वर्ण: स्वर: । मात्रा बलम । सम संतान।” ‘क’ ‘ख’ आदि व्यंजन वर्णों और ‘अ’,’आ’ आदि स्वर वर्णों का उच्चारण स्पष्ट करना चाहिए ।  दन्त्य ‘स’ के स्थान पर तालव्य ‘श’ या मूर्धन्य ‘ष’ का उच्चारण नहीं करना चाहिए । ‘व’ के स्थान में ‘ब’ का उच्चरण नहीं करना चाहिए । मन्त्रों में स्वर भेद होने से अर्थ बदल जाता है । हस्व, दीर्घ और प्लुत आदि के मात्रा भेद को भी समझ कर उच्चारण करना चाहिए । हस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर हस्व का उच्चारण करने से अर्थ बदल जाते हैं, जैसे सीता और सिता ।

              ‘बल’ का अर्थ है ‘प्रयत्न’ है । वर्णों के उच्चारण में उनके ध्वनि को व्यक्त करने में जो प्रयास करना पड़ता है, वही ‘प्रयत्न’ कहलाता है । ‘प्रयत्न’ दो प्रकार के होते हैं । ‘आभ्यांतर और बाह्य’ । आभ्यांतर के पांच और बाह्य के ग्यारह भेद होते हैं । स्पृष्ट, ईषत्-स्पृष्ट, विवृत, ईषद-विवृत, सवृत- ये पांच आभ्यांतर हैं । विवार, संवार, श्वांस, नाद, घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण, उद्दात्त, अनुदात्त और स्वरित-ये बाह्य प्रयत्न हैं । ‘क’ से लेकर ‘म’ तक के अक्षरों का आभ्यान्तर प्रयत्न ‘स्पृष्ट’ है; क्योंकि कंठ आदि स्थानों में प्राणवायु के स्पर्श से इनका उच्चारण होता है । ‘क’ का बाह्य प्रयत्न विवर, श्वांस, अघोष तथा अल्पप्राण है । वर्णों का संवृति से उच्चारण या साम-गान की रीति ही ‘साम’ है । संतान का अर्थ है ‘संहिता’-संधि । स्वर, व्यंज्जन, विसर्ग अथवा अनुस्वार आदि अपने परवर्ती वर्णों के संयोग से कहीं-कहीं नूतन रूप धारण कर लेते हैं । इस प्रकार वर्णों का यह  संयोग जनित विकृति भाव ‘संधि’ कहलाती है । किसी स्थान विशेष स्थल में जहां ‘संधि’ बाधित होती है, वहां वर्ण में विकार नहीं आता, अत: उसे ‘प्रकृति भाव’ कहते हैं । वर्णों का उच्चारण इन्हीं छह नियमों से होता है ।

 

भृगुवल्ली

 

भृगुवल्ली

              भृगु नाम से प्रसिद्ध एक ऋषि थे जो वरुण के पुत्र थे । उनके मन में परमात्मा को जानने और प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा हुई । तब वह अपने पिता वरुण के पास गए । उनके पिता वरुण वेदों को जानने वाले ब्राह्मण इष्ट महापुरुष थे । अतः भृगु को किसी दूसरे आचार्य के पास जाने की आवश्यकता नहीं हुई । अपने पिता के पास जाकर प्रार्थना कि - भगवान ! मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूं । आप कृपा करके मुझे ब्रह्म का तत्व समझाइए । वरुण ने कहा, हे तात !अन्न, प्राण, नेत्र, श्रोत, मन, वाणी यह सभी ब्रह्म के उपलब्धि के द्वार हैं । इन सब में ब्रह्म की सत्ता स्फुरित होती है । यह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले सब प्राणी जिससे उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिन के सहयोग से बल पाकर जीते हैं, जीवन उपयोगी क्रिया करने में समर्थ होते हैं और महाप्रलय के समय जिसमें विलीन हो जाते हैं, उनको वास्तव में जानने की इच्छा कर ।  वे ही ब्रह्म है।

              'अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्'। भृगु को अनुभव आता है कि अन्न ही ब्रह्म है । समस्त प्राणी अन्न से और अन्न के परिणाम भूत वीर्य से उत्पन्न होते हैं ।अन्न से ही उनका जीवन सुरक्षित रहता है और मरने के बाद अन्न स्वरूप इस पृथ्वी में ही प्रविष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार निश्चय करते हुए अपने पिता के पास गए । पिता को अपनी बात बतलाई । इससे वरुण को समझ में आया कि अभी भृगु की बुद्धि वास्तविक रूप से स्थूल पर ही टिकी हुई है । तब उन्होंने कहा कि तुम अपने तप के द्वारा ब्रह्म के स्वरूप को समझो । इस प्रकार भृगु पुनः तपस्या में चले गए । भृगु ने तप के द्वारा यह तय किया कि प्राण ही ब्रह्म है और जब उन्होंने इस अपने निश्चय से पिता को अवगत कराया तो वरुण ने कहा कि परमात्मा को समझने के लिए फिर से आप तप करें । तू तप के द्वारा ब्रह्म को जानने की चेष्टा कर । यह तप ही ब्रह्म है अर्थात ब्रह्म के तत्व को जानने का प्रधान साधन है ।  ब्रह्म का ध्यान करते हुए भृगु यह निश्चय किया कि मन ही ब्रह्म है, क्योंकि उन्होंने सोचा पिताजी के बताए हुए ब्रह्म के सारे लक्षण मन में पाए जाते हैं । मन से सब प्राणी उत्पन्न होते हैं । स्त्री और पुरुष के मानसिक प्रेम पूर्ण संबंध से ही प्राणी बीज रूप से माता के गर्भ में आकर उत्पन्न होते हैं । उत्पन्न होकर मन से ही इंद्रियों द्वारा समस्त जीवन उपयोगी वस्तुओं का उपयोग करके जीवित रहते हैं और मरने के बाद मन में ही प्रविष्ट हो जाते हैं । मरने के बाद शरीर में प्राण और इंद्रियां नहीं रहती । इसलिए मन ही ब्रह्म है । इस प्रकार निश्चय करके वे पुनः पहले की तरह अपने पिता वरुण के पास गए और अपने अनुभव की बात पिताजी को सुनाई । इस बार भी पिता से कोई उत्तर नहीं मिला। पिता ने सोचा कि यह पहले की अपेक्षा तो गहराई में उतरा है, परंतु अभी इसे और भी तपस्या करनी चाहिए और उत्तर ना देना ही ठीक समझा । पिता से अपनी बात का उत्तर ना पाकर भृगु पुनः पहले की भांति प्रार्थना की- भगवन यदि मैंने ठीक ना समझा हो तो कृपया आप ही मुझे ब्रह्म को समझाइए । तब वरुण ने पुनः वही उत्तर-तू तप के द्वारा ब्रह्म के तत्व को जानने की इच्छा कर अर्थात तपस्या करते हुए मेरे उपदेश पर पुनः विचार कर। यह तप रूप साधन ही ब्रह्म ।

              इस बार उन्होंने पिता के उपदेश स्वरूप यह निश्चय किया कि यह विज्ञान स्वरूप चेतन जीवात्मा ही ब्रह्म है ; क्योंकि पिताजी ने जो ब्रह्म के लक्षण बताए थे, वह सब के सब पूर्णतया इसमें पाए जाते हैं । यह समस्त प्राणी जीव आत्मा से ही उत्पन्न होते हैं । सजीव चेतन प्राणियों से ही प्राणियों की उत्पत्ति प्रत्यक्ष देखी जाती है । उत्पन्न होकर इस विज्ञान स्वरूप जीवात्मा से ही जीते हैं; यदि जीवात्मा ना रहे तो यह मन, प्राण, इन्द्रिय कोई भी नहीं रह सकते और कोई भी अपना-अपना काम नहीं कर सकते तथा मरने के बाद यह मन आदि सब जीवात्मा में ही प्रविष्ट हो जाते हैं-जीव के निकलने पर मृत शरीर में यह सब देखने में नहीं आते   अतः विज्ञान स्वरूप जीवात्मा ही ब्रह्म है । पिताजी ने इस बार भी कोई उत्तर नहीं दिया और यह समझा कि इस बार यह बहुत कुछ ब्रह्म के निकट आ गया है। इसका विचार स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के जड़ तत्वों से ऊपर उठकर चेतन जीवात्मा तक तो पहुंच गया है, परंतु ब्रह्म का स्वरूप तो इससे भी विलक्षण है । वह तो नित्यानंद स्वरूप एक अद्वितीय परमात्मा है । इसे अभी और तपस्या करनी की आवश्यकता है । और वरुण ने यही उत्तर दिया - तप के द्वारा ही ब्रह्म के तत्व को जानने की इच्छा कर अर्थात् तपस्या पूर्वक पूर्व कथन अनुसार विचार कर तप कर । तप ही ब्रह्मा है।

              इस बार भृगु ने पिता के उपदेश पर गहरा विचार करके यह निश्चय किया कि आनंद ही ब्रह्म है। यह आनंद ही परमात्मा रूप में सबकी अंतरात्मा है । वह सब भी इन्हीं के स्थूल रूप है । इसी कारण इनमें  ब्रह्म बुद्धि होती है और ब्रह्मा के आंशिक लक्षण पाए जाते हैं । इन सबके आदि कारण तो वही हैं तथा इस आनंदमय के आनंद का लेस पाकर ही यह सब पुराने जीवन के रहे-कोई भी दुख के साथ जीवित रहना नहीं चाहता । इतना ही नहीं, उस आनंदमय सर्वान्तर्यामी परमात्मा की अचिंत्य शक्ति की प्रेरणा से ही इस जगत के समस्त प्राणियों की क्रिया चल रही है । उनके शासन में रहने वाले सूर्य आदि यदि अपना-अपना काम ना करें तो एक क्षण भी कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता । सबके जीवन आधार सचमुच में आनंद स्वरूप परमात्मा ही है । तथा प्रलय काल में समस्त प्राणियों से भरा हुआ यह ब्रह्मांड उन्हीं में प्रविष्ट होता-उन्हीं में विलीन होता है; वही सब के सब प्रकार से सदा सर्वदा आधार हैं । इस प्रकार अनुभव होते ही प्राणी को परब्रह्म का यथार्थ ज्ञान हो गया । श्रुति स्वयं उस विद्या की महिमा बतलाने के लिए कहती है- वही यह वरुण द्वारा बताई हुई और भृगु को प्राप्त हुई ब्रह्मविद्या (ब्रह्मा का रहस्य बस लाने वाल) है । यह विद्या विशुद्ध आकाश स्वरूप परब्रह्म परमात्मा में स्थित है। वही इस विद्या के भी आधार हैं।

              पंचकोशों के आपसी संबंध को समझने के लिए बतलाया गया है कि अन्न ही प्राण है और प्राण ही अन्न है। क्योंकि अन्न से ही प्राण में बल आता है और प्राण शक्ति से ही अन्न में शरीर सेजीवन शक्ति आती है। प्राण को अन्न इसलिए भी कहा गया है कि यही शरीर में अन्न के रस को सर्वत्र फैलाता है । शरीर प्राण के आधार पर ही टिका हुआ है, इसलिए वह प्राण रूप अन्न का भोक्ता है। शरीर प्राण में स्थित है अर्थात शरीर की स्थिति प्राण के अधीन है और प्राण शरीर में स्थित है-प्राणों का आधार शरीर है , यह बात प्रत्यक्ष है। इस प्रकार यह अन्न में शरीर भी है। जल और ज्योति दोनों को अन्न रूप बताकर मनुष्य की अन्न के प्रति सम्मान होने की इच्छा हो ।  मैं कभी अन्न की अवहेलना नहीं करूंगा अर्थात अन्न का उल्लंघन दुरुपयोग और परित्याग नहीं करूंगा ।  जग में ज्योति प्रतिष्ठित है सब प्रकार के अन्न अर्थात खाद्य वस्तुएं जल्द से ही उत्पन्न होती हैं और ज्योति अर्थात तेज ही इस जल रूप अन्न को भक्षण करने वाला है। जिस प्रकार आदमी  एवं सूर्य रश्मियाँ बाहर के जल का शोषण करती हैं, उसी प्रकार शरीर में रहने वाली जठराग्नि शरीर में जाने वाले जलीय तत्वों का शोषण करती हैं । जल में ज्योति प्रतिष्ठित है यद्यपि जल स्वभाव का ठंडा है तो भी उसमें ज्योति कैसे स्थित है, यह बात समझ में नहीं । किन्तु शास्त्रों में यह माना गया है कि समुद्र में बड़वानल रहता है तथा आज के वैज्ञानिक भी जल से ही बिजली तत्व को निकालते हैं, इससे यह बात सिद्ध होती है कि जल में तेज स्थित है। इसी प्रकार तेज में जल स्थित है । आगे पृथ्वी और आकाश को भी अन्न रूप बताकर के अन्नमयकोष के अंतर्गत उसको स्थापित किया गया है । जितने भी अन्न हैं, वह सब पृथ्वी से ही उत्पन्न होते हैं और पृथ्वी को अपने में विलीन कर लेने वाला इसका आधारभूत आकाश ही अन्नादि अर्थात इस अन्न का भोक्ता है। पृथ्वी में आकाश स्थित है, क्योंकि वह सर्वव्यापी है और आकाश में पृथ्वी स्थित है-अप्रत्यक्ष सिद्ध है। यह दोनों ही एक दूसरे के आधार होने के कारण अन्न स्वरूप हैं। पांच भूतों में आकाश पहला तत्व है और पृथ्वी अंतिम तत्व है। बीच के तीनों तत्व इन्हीं के अंतर्गत हैं। इसीलिए अन्न में ही अन्य प्रतिष्ठित है।

              ॐ शं नो मित्रः शं वरुण: । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विश्नुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षम ब्रह्मास्मि । त्वामेव प्रत्यक्ष्मं  ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यम वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्त्रारमवातु । अवतु माम्। अवतु वक्ताराम्। ॐशांतिः शांतिः शांतिः ( कृष्ण यजुर्वेदीय तैतरीय शाखा ,तैत्तिरीयोपनिषद )

 

पञ्च कोष तैत्तिरीयोपनिषद - ब्रह्मानंद वल्ली

 

पञ्च कोष

तैत्तिरीयोपनिषद -  ब्रह्मानंद वल्ली

              अब ब्रह्मानंद वल्ली के शान्ति पाठ में आते हैं -

ॐ सह ना ववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वी ना वधित्मस्तु । माँ विद्वीषावहै ।

ॐ शांति: शांति: शांति:

              सत्यम ज्ञानमनन्तम ब्रहम ।” सत्य शब्द यहाँ नित्य सत्ता का बोध है । अर्थात् वे परब्रह्म नित्य सत हैं । किसी भी काल में  उनका अभाव नहीं होता तथा वे ज्ञान स्वरुप हैं, उनमें अज्ञान का लेश भी नहीं है । ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र में यही बात कही गई है कि यह जगत जो जड़ और चेतन दीखता है, वह ईश्वर से परिपूर्ण हैं । उपनिषद कहता है कि सबसे पहले आकाश तत्व उत्पन्न हुआ ।  आकाश से वायु तत्व, वायु से अग्नि तत्व, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई । पृथ्वी से नाना प्रकार की औषधियां - अनाज और मनुष्य के आहार पैदा हुए । उसी अन्न से मनुष्य का स्थूल शरीर पुरुष उत्पन्न हुआ ।  अन्न से बना हुआ यह जो मानुष शरीरधारी पुरुष है इसकी पक्षी के रूप में कल्पना की गयी है । “अन्नाद्वै प्रजा: प्रजायन्ते” सब प्राणी इसको खाते हैं तथा यह भी सब प्राणियों को खा जता है , अपने में  विलीन कर लेता है, इसलिये ‘अद्यते,अत्ति च इति अन्नं”  इस व्युत्पत्ति के अनुसार इसका नाम अन्न है । यही आनमय कोष की अवधारणा है 

              दूसरे अनुवाक में प्राणमय शरीर का वर्णन किया गया है ।  भाव यह है कि पूर्वोक्त अन्न के रस से बने हुए स्थूल शरीर से भिन्न उस स्थूल शरीर के भीतर रहनेवाला एक और शरीर है, उसका नाम ‘प्राणमय’ है । उस ‘प्राणमय’ से यह ‘अन्नमय’ शरीर पूर्ण है । अन्नमय स्थूल शरीर की अपेक्षा इसके सूक्ष्म होने के कारण प्राणमय शरीर अन्नमय कोष के अंग- प्रत्यंग में व्याप्त है । इन प्राणों में प्राण श्रेष्ठ है और वह मुख्य है । व्यान दाहिना पंखा है और अपान बाया पंख है । अर्थात् आकाश के सामान सर्वशरीर व्यापी  ‘सामान’ वायु आत्मा है क्योंकि यह सम्पूर्ण शरीर में रस पहुंचाकर प्राणमय शरीर को पुष्ट करता है । इसका स्थान शरीर का मध्यभाग है तथा इसी का बाह्य आकाश से सम्बन्ध है, यह बात प्रश्नोपनिषद के पांचवें और आठवें मन्त्रों में कही गई है । ‘अपान’ वायु को पृथ्वी अर्थात् आधिदैविक शक्ति  को रोकने वाली यह  प्राणमय को पुरुष का आधार है ।  इसका वर्णन प्रश्नोपनिषद के तीसरे और आठवें मन्त्र में कही गई है । “प्राणं देवा अनुप्राणान्ति” भाव यह की जितने भी देवता, मानुष, पशु आदि शरीरधारी प्राणी हैं, वे सब प्राण के सहारे ही जी रहे हैं  । इसलिए यह प्राण ‘सार्वायुष’ कहलाता है । यह प्राणियों की आयु है, इसलिए यह सबका जीवन कहलाता है यों समझकर इस प्राण की ब्रह्मरूप से उपासना करते हैं, वे पूर्ण आयु को प्राप्त कर लेते  हैं । जो सर्वात्मा परमेश्वर अन्न के रस से बने हुए शूल शरीरधारी पुरुष का अंतरात्मा है, वही उस प्राणमय पुरुष का भी शरीर के अंतर रहने वाला आत्मा है ।

              ‘तस्माद्वाएतस्मात्प्राणमयादन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः ।’ प्राणमय कोष से भी सूक्ष्म और उसके भीतर रहने वाला पुरुष मनोमय कोष है । उस मनोमय कोष से यह प्राणमय कोष सर्वत्र व्याप्त हो रहा है । एक बात और यहाँ ध्यान रखने की है कि जिनके अक्षरों की कोई नियत नियम न हो, ऐसे मन्त्रों को ‘यजु:’ छंद  के अंतर्गत समझा जाता  है,  इस नियम के अनुसार जिस किसी वैदिक वाक्य या मन्त्र के अंत में ‘स्वाहा’ पद जोड़कर अग्नि में आहुति दी जाती है, वह वाक्य या मन्त्र ‘यजु:’ ही कहलाता है । इस प्रकार यजु: मन्त्र के द्वारा ही अग्नि को हविष्य अर्पित किया जाता है, इसलिए वहां ‘यजु:’ प्रधान है । वेद मन्त्रों के वर्ण और वाक्य आदि के उच्चारण के लिए पहले मन में ही संकल्प उठाता है ; अत: संकल्पात्मक वृत्ति के द्वार मनोमय आत्मा के साथ वेद मन्त्रों का घनिष्ठ सम्बन्ध है । इसलिए इन्हें मनोमय पुरुष के ही अंगों में स्थान दिया गया है । शरीर में जो स्थान दोनों भुजाओं का है , वही स्थान मनोमय पुरुष के अंगों में ऋग्वेद और सामवेद का है । संकल्पात्मक वृति के द्वारा मनोमय पुरुष का इन सब के साथ नित्य संम्बन्ध है ।

              “ यतो वाचो निवर्तन्ते ।  अप्राप्य मनसा सह । आनन्दमब्राहमणों विद्वान् ।” इस मन्त्र में ब्रहम के आनंद को जानने वाले विद्वान् की महिमा के साथ अर्थान्तर से उसके मनोमय शरीर की महिमा प्रकट की गयी है ।  भाव यह  की परब्रहम परमात्मा का जो स्वरुप भूत परम आनंद है, वहाँ तक मन, वाणी आदि समस्त इन्द्रियों के समुदाय रूप मनोमय शरीर की भी पहुँच नहीं है , परतु ब्रह्म को पाने के लिए साधन करनेवाले मनुष्य को यह ब्रह्म के पास पहुंचाने में विशेष सहायक है । ये मन-वाणी आदि  साधन परायण पुरुष को उन परब्रह्म के द्वार तक पहुंचाकर, उसे वहीं छोड़ कर स्वयं लौट आते हैं और वह साधक उनको प्राप्त हो जाता है । ब्रह्म के आनंदमय स्वरुप को जान लेनेवाला विद्वान् कभी भयभीत नहीं होता । मनोमय शरीर के भी अन्तर्यामी आत्मा वे ही परमात्मा हैं जो अन्नमय कोष और प्राणमय कोष के हैं ।   

              चतुर्थ अनुवाक के इस दूसरे अंश में विज्ञानमय कोष का अर्थात् विज्ञानमय शरीर का वर्णन है । मनोमय कोष से भी सूक्ष्म जो आत्मा है उसे विज्ञानमय कोष या शरीर कहते हैं । सदाचरण, सत्य भाषण, ध्यान के साथ मह: नाम से प्रसिद्ध परमात्मा पुच्छ अर्थात् आधार है । शिक्षावल्ली पंचम अनुवाक में भू:, भुव:,स्व: और मह: इन चार व्याह्रितियों में  मह: को ब्रह्म का स्वरुप बताया गया है ; अत: ‘मह:’ व्याहृति ब्रह्म का नाम है और ब्रह्म को आत्मा की प्रतिष्ठा बताना सर्वथा युक्तिसंगत है ।  विज्ञान अर्थात बुद्धि के साथ तद्रूप हुआ जीवात्मा ही यज्ञों का अर्थात् बुद्धि से ही सम्पूर्ण कर्मों को प्रेरणा मिलती है । अन्नमय, प्राणमय, मनोमय की भाँती विज्ञानमय कोष में भी वही परमात्मा का निवास है ।

              पांचवे अनुवाक के दूसरे अंश में आनंदमय परम पुरुष का वर्णन मिलता है । इसके अन्दर विज्ञानमय पुरुष व्याप्त है । प्रियता, मोद, प्रमोद और आनंद ही परमात्मा का रूप है । इसे प्रश्न और अनुप्रश्न से ही गुरु शिष्य समझते हैं । अनुप्रश्न उन प्रश्नों को कहते हैं जो आचार्य के उपदेश के अनंतर किसी शिष्य के मन में उठते हैं या जिन्हें वह उपस्थित करता है । वे तीन हैं- क्या वास्तव में ब्रह्म है कि नहीं ? जब ब्रह्म आकाश की भाँति सर्वगत तथा पक्षपात रहित है- सम है, तब क्या वे अविद्वान को भी प्राप्त होते है या नही ? यदि अविज्ञानी को प्राप्त नहीं होते तो सम कैसे हुए । “अथातोऽनुप्रश्ना: । और आगे आता है- “सोऽकामयत ।”, “बहुस्याम प्रजायेयेति।” की बात आती है । “असद्वा इदमग्र आसीत्।”  ततो वै सदजायत ।”  

              आनंद का विचार आरंभ करने की सूचना देकर सर्वोत्तम मनुष्य लोक से भोगों से मिल सकने वाले बड़े से बड़े आनंद की कल्पना की गई है । भाव यह की एक मनुष्य युवा हो;  वह भी ऐसा वैसा घूमने वाला युवक नहीं -सदाचारी, अच्छे स्वभाववाला, अच्छे कुल में उत्पन्न श्रेष्ठ पुरुषों हो, उसे संपूर्ण वेदों की शिक्षा मिली हो तथा शासन में ब्रह्मचारियों को सदाचार की शिक्षा देने में अत्यंत कुशल हो, उसके संपूर्ण अंग और इंद्रियां रोग रहित समर्थ और सुदृढ़ हों और वह सब प्रकार के बल से संपन्न हो । फिर धन संपत्ति से भरा यह संपूर्ण पृथ्वी उसके अधिकार में आ जाए तो यह मनुष्य का एक बड़े से बड़ा सुख है । वह मानव लोक का एक सबसे महान आनंद है ।

              जो मनुष्य योनि में उत्तम कर्म करके गंधर्व भाव को प्राप्त हुए हैं उनको ‘मनुष्य गंधर्व’ कहते हैं । यहां इनके आनंद को उपर्युक्त मनुष्य के आनंद से सौ गुना बताया गया है। ‘मनुष्य गंधर्व’ की अपेक्षा देव गन्धर्वों  के आनंद को 100 गुना बताया गया है। देव गन्धर्वों  के आनंद की अपेक्षा चिर स्थाई पितृलोक को प्राप्त दिव्य पितरों के आनंद को 100 गुना बताया गया है। इस वर्णन में चिरस्थाई लोगों में रहने वाले दिव्य पितरों के आनंद की अपेक्षा 'आजानज' नामक देवों के आनंद को 100 गुना बताया गया है । देवलोक की एक विशेष स्थान का नाम ‘आजान’ है; जो लोग स्मृतियों में प्रतिपादित किन्हीं पुण्य कर्मों के कारण वहां उत्पन्न हुए हैं, वे ‘आजानज’ कहलाते हैं।

                स्वभाव सिद्ध देवों के आनंद की अपेक्षा इंद्र के आनंद को सौ गुना बताया गया है। और इंद्र के आनंद की अपेक्षा बृहस्पति के आनंद को 100 गुना बताया है । इसी तरह वृहस्पति के आनंद की अपेक्षा प्रजापति के आनंद को 100 गुना बताया गया है । प्रजापति के आनंद से भी हिरण्यगर्भ  के आनंद को 100 गुना बताया गया है । इस प्रकार यहां एक से दूसरे आनंद की अधिकता का वर्णन करते करते सबसे बढ़कर हिरण्यगर्भ के आनंद को बताकर यह भाव दिखाया गया है कि इस जगत में जितने प्रकार के जो-जो आनंद देखने सुनने तथा समझने में आ सकते हैं, वह चाहे कितने ही बड़े क्यों न हो उस पूर्ण आनंद स्वरूप परमात्मा के आनंद की तुलना में बहुत ही तुक्ष्य हैं।

              तात्पर्य की आनंद के एकमात्र केंद्र परम आनंद स्वरूप परब्रह्म परमात्मा ही सबके अंतर्यामी हैं, इस प्रकार जो जान लेता है वह मरने पर इस मनुष्य शरीर को छोड़कर पहले बताए हुए अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय आत्मा को प्राप्त होता है।   यह अमृत्व के प्राप्त का साधन है । तप के द्वारा जिसने चित्त को जीत लिया है, उसे शब्द रहित एकांत स्थान में स्थित होकर संग शून्य तत्व के लिए योग का ज्ञाता बनना और धीरे-धीरे अपेक्षा रहित बनना चाहिए । जैसे बंधन  को काटकर हंस आकाश में निशंक उड़ जाता है, वैसे ही जिसके बंधन कट गए हैं, वह जीव संसार से सदा के लिए तर जाता है, जैसे दीपक बुझने के समय सारे तेल को जला जाता है, वैसे ही योगी समस्त कर्मों को जलाकर ब्रह्म में लीन हो जाता है । साधक जब समस्त कामनाओं से छूट जाता है और सारी एषणाओं से रहित हो जाता है, तब वह अमरत्व को प्राप्त होता है । जो संसार बंधन को काट डालने के बाद वह बांधता नहीं है ।