Wednesday, 15 November 2023

केनोपनिषद

 

 केनोपनिषद 

इसमें 'केन' (किसके द्वारा) का विवेचन होने से इसे 'केनोपनिषद' कहा गया है । इसके चार खण्ड हैं। प्रथम और द्वितीय खण्ड में गुरु-शिष्य की संवाद-परम्परा द्वारा उस (केन) प्रेरक सत्ता की विशेषताओं, उसकी गूढ़ अनुभूतियों आदि पर प्रकाश डाला गया है।  तीसरे और चौथे खण्ड में देवताओं में अभिमान तथा उसके मान-मर्दन के लिए 'यज्ञ-रूप' में ब्राह्मी-चेतना के प्रकट होने का उपाख्यान है। अन्त में उमा देवी द्वारा प्रकट होकर देवों के लिए 'ब्रह्मतत्त्व' का उल्लेख किया गया है तथा ब्रह्म की उपासना का ढंग समझाया गया है। मनुष्य को 'श्रेय' मार्ग की ओर प्रेरित करना, इस उपनिषद का लक्ष्य हैं।

 ऊँ •ेनेषितं पतति प्रेषितं मन: •ेन प्राण: प्रथम: पै्रति युक्त:।

•ेनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षु: श्रोत्रं • उ देवो युनक्ति। (•ेन./1/1)

  इसे ही उपनिषदों ने •हा है - 

                         ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।

             पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिष्यते।।

 तब ए• दिन मुण्ड•ोपनिषद •ा ऋषि फट•ारता हुआ •हता है-

                               परीक्ष्य लो•ान् •र्मचितान् ब्राह्मणो

                        निर्वेदमायात् नास्ति अ•ृत: •ृतेन।

                        तद्धिज्ञानार्थंं स गुरुमेवाभिगच्छेत

 इस तरह से जीवन •े सत्य •ो जानने •ी इच्छा ने शाश्वत, अविनाशी, असीम •ी खोज प्रारंभ •ी और ए• दिन उन्होंने सत्य •ो जाना-

ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन

देवात्मशक्तिं स्वगुणैनिगूढ़ाम।। (श्वे.1/13)

-ध्यानयोग •ो विषय बना•र मन •ी खोज प्रारंभ •ी। अपने गुणों में निहित ब्रह्म •ो देखा। और गदगद •ंठ से पु•ार उठे-

 श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा

        आ ये धामानि दिव्यानि तस्यु:।

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम

       आदित्यवर्णं तमस: परस्तात।

तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति

      नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।। (श्वेता.2/5,3/8)

-अहो विश्व •े निवासियो! अमृत पुत्रो! सुनो। दिव्य लो•ों में रहने वाले देवताओं, तुम लोग भी सुनो। मैंने सूर्य •े समान चम•ीले उस महान् पुरुष •ो जान लिया है, जो समस्त अज्ञान-अन्ध•ार से परे है। •ेवल उसी •ो जान•र मृत्यु •ी विभीषि•ा •ो पार •िया जा स•ता है। इससे भिन्न दूसरा रास्ता नहीं है।

  स्वर्ग प्राप्त •ी •ामना से यज्ञ •रना उचित नही-

      प्लवा हि एते अदृढा यज्ञरूपा

          अष्टादशेक्त्म् अवरं येशु •र्म।

     एतत् श्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढ़

           जरामृत्युं ते पुनरेवाति यन्ति।।   (मुण्ड.1/2/5)

ऋषि •हता है, 'अरे मूर्खों ! यदि तुमने यज्ञ •ो भव सागर पार •रने •ी नौ•ा माना है तो बड़ी भूल •ी है। यह यज्ञ रूपी नौ•ा तुम्हारी जीर्ण शीर्ण है। इसमें सोलह ऋत्विज और यजमान एवं एजमान •ी पत्नी ऐेसे अठारह लोग बैठे हैं, वे सब नीच •र्म •रने वाले हैं और सब•े सब मँझधार में डूबेगें। जो मूढ़ इस यज्ञ •ो •ल्याण•र मानते हैं, वे बुढ़ापा और मृत्यु •े फन्दे में बारम्बार फँसते हैं।ÓÓ

ईशावास्य उपनिषद् में इस प्र•ार •े सं•ेत मात्र दिखाई देता है, जहाँ गुरु शिष्य से सिद्धांत प्रतिपादित •रते हुए •हता है- ''ईषावास्यम् इदं सर्वं यत्•िंच जगत्यां जगत्। तेन त्येक्तेन भुञ्जिथा मा गृध: •स्य स्विद् धनम।ÓÓ 

•ुर्वन्नेवेह •र्माणि जिजीविषेच्छतँ समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न •र्म लिप्यते नरे।। (ईशो-1/1-2)

  अर्जुन से सभी •ार्य •ो यज्ञ बना लेने •ो •हते हैं-

       यज्ञार्थात् •र्मणोऽन्यत्र लो•ोऽयं •र्मबंधन।

       तदर्थं •र्म •ौन्तेय मुक्तसंग: समाचर।।  (गीता-3/9)

अर्थात सारा •र्म भगवत्समर्पित बुद्धि से •र्म •रना। ए• प्रश्न •ा और समाधान भगवान •रते हैं, •हते हैं इस बहाने दुष्•र्म •ो भी भगवान •ो अर्पित •र •िया जा स•ता है क्या ? भगवान •हते हैं-

 •िं •र्म •िम•र्मेति •वयोऽप्यत्र मोहिता:।

        तŸो •र्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽषुभात।। (गीता- 4/16)

हे पार्थ! •र्म क्या है, अ•र्म क्या है इस सम्बन्ध में मनीषी जन भी भ्रमित हैं। अत: मैं •र्म •ा मर्म तुझे समझाता हँू, जिसे जान•र तू अशुभ से मुक्त हो जा।

 •र्मणो ह्यति बोद्धव्यं बोद्धव्यं च वि•र्मण:।

          अ•र्मणश्च बोद्धव्यं गहना •र्मणों गति:।।  (गीता-4/17)

अर्थात •र्म •े तीन रूप हैं- •र्म, अ•र्म और वि•र्म।  इसीलिए भगवान ने •हा-

                                              उद्धरेदात्मनात्मनं नात्मनामवसादयेत।

                                    आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।।  (गीता-6/5)

मनुष्य •ो चाहिए •ि वह अपना स्वयं •ा उत्थान •रे और अपने •ो गिरने न दे; क्यों•ि वह स्वयं अपना मित्र और शत्रु भी है। इस प्र•ार •र्म संस्•ार उस•ो लिप्त न •र स•ें। 

मनुष्य यह •र्म •रता हुआ सौ वर्ष त• जिये-

'पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतमं श्रृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: शरद: शतम्।Ó 

                                                                                                   (शुक्ल यजु. 36/24)

भगवान •हते हैं इस•ा प्रभाव यह होता है •ि -

 पश्यन् श्रृण्वन् स्पृर्शन् जिघ्रन अश्नन् गच्छन् स्वपन् श्वसन।

 प्रलपन् विसृजन् गृहणन उन्मिषन् निमिषन् अपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्। (गीता-5/8-9)

अर्थात ऐसी समत्व एवं समर्पित बुद्धि से •िया गया •ार्य जब हम •रते हैं तो हमारे यह सारे •ार्य -देखना, सुनना, स्पर्शर् •रना, गंध लेना, खाना, चलना, सोना आदि सभी यज्ञमय हो जाते हैं। आगे •हते हैं -

ब्रह्मण्याधाय •र्माणि संगत्यक्त्वा •रोति य:।

 लिप्यते न स पापेन पद्यपत्रमिवाम्भसा।। (5/10)

जो ब्रह्म •ा आश्रय और आधार मान•र, आसक्ति •ा त्याग •रते हुए, •र्तव्य •र्म •रता है, वह जल में •मलपत्रवत् पाप से अलिप्त रहता है। यही गीता •ी चरमावस्था है, यही ब्रह्मनिष्ठा और स्थितप्रज्ञता है।

गीता में योग •ो दो प्र•ार से परिभाषित •िया गया है-'योगा: •र्मसु •ौशलम्Ó और 'समत्वं योग उच्यतेÓ। वस्तुत: जब इन दोनों •ो ए• साथ जोड़ा जाय तो उसे योग •हते हैं और इस•ा परिणाम तब सामने आता है। जब हम -'ब्रह्मणि आधाय •र्माणि संगं त्यक्त्वा •रोति य:Ó।  

इसीलिए भगवान •हते हैं-

                          •र्मणिएव अधि•ारस्ते मा फलेषु •दाचन।

                            मा •र्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्व•र्मणि।।  (गीता-2/47)

दो आदमी हैं, दोनों •टहल •ाट रहे हैं। •टहल •ाटने •े बाद देखा तो ए• •े हाथ में दूध ही दूध चिप•ा है तो दूसरे •े हाथ में ए• भी बूँद दूध नही लग पाया। इसमें •र्म •ी •ुशलता •िसमें है तो स्पष्ट है जिस•े हाथ में ए• भी बँूद दूध नहीं लगा। 

इसे ही 'पद्यपत्रमिवाम्भसाÓ •हा।

  गीता ने •हा-

                           सहजं •र्म •ौन्तेय सदोशम् अपि न त्यजेत।

                          सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:।। (18/48)

                ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।

     पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिष्यते।।

             ऊँ शांति शांति शंति: ।।

        ऊँ ईषा वास्यमिदँ् सर्वं यत्•िंच जगत्यां जगत्।

        तेन त्येक्तेन भुंजीथा मा गृध: •स्यस्विद्धनम।। 

        •ुर्वन्नेवेह •र्माणि जिजीविषेच्छतँ् समा:।

        एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न •र्म लिप्यते नरे।।-2

   

 

 •ेन-उपनिषद



ऊँ  शांति मंत्र

ऊँ आप्यायनतु ममांगानि वा•् प्राणश्चक्षु:

श्रोत्रमयो बलम् इन्द्रियाणि च सर्वाणि।

सर्वं  ब्रह्मौपनिषदं, माहं ब्रह््म निरा•ुयां, मा मा ब्रह््म निरा•रोद्,

अनिरा•रणमस्तु, अनिरा•रणं मेंऽस्तु।

तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्तेमयि सन्तु, ते मयि संन्तु।

ऊँ शांति शांति शांति:


ऊँ •ेनेषितं पतति प्रेषितं मन:

        •ेन प्राण: प्रथम: प्रैति युक्त:।

 •ेनेषितां वाचमिमां वदन्ति

        चक्षु श्रोत्रं • उ देवो युनक्ति।। 1

 

गुरु •ा उत्तर- 

श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्

   वचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राण:।

 चक्षुशष्चक्षु:  अतिमुच्य धीर:

    प्रेत्यास्माल्लो•ादमृता भवन्ति।।2

समाधान- इसमें •ोई दोष नहीं है। अन्य श्रुतियाँ भी •हती हैं- 'आत्मना एवं अयं ज्योतिषा अस्तेÓ। (बृ.उ.4/3/6)-

तब वह पुरुष आत्मा •ी ज्योति से स्थित रहता है।

'तस्य भाषा सर्वम् इदं विभातिÓ। (•.उ.2/2/15, श्वे.उ.6/1/4, मु.उ.2/2/10) -उस•े प्र•ाश से ही यह सब प्र•ाशित होता है।

'येन सूर्य: तपति तेजसा इन्द:Ó (तै.ब्रा.3/12/9/7)- जिस•े तेज से प्रदीप्त हो•र सूर्य तपता है।

'यदि आदित्यगतं तेजो जगद्धासयते अखिलमÓ (. गीता 15/12)- सूर्य •ा जो प्र•ाश सारे जगत •ो प्र•ाशित •रता है, उसे तू मेरा ही समझ।

'क्षेत्रं क्षेत्री तथा •ृत्स्नं प्र•ाशयति भारतÓ (गीता 13/33)- हे अर्जुन,उसी प्र•ार ए• ही आत्मचैतन्य संपूर्ण शरीर •ो प्र•ाशित •रता है।ÓÓ

'नित्यो अनित्यानां चेतन: चेतनानाम:Ó। (•ठो.उ.3/12/9/7)-अनित्य वस्तुओं में वह नित्य है, चेतनामय पदार्थों में वह चैतन्य (आत्मा) है।

'स उ प्राणस्य प्राण:Ó वह प्राणों •ा भी प्राण है। •ेन.

तब ऋषि •हता है -

न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्-गच्छति नो मनो।

न विद्यो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात।। 3

भावार्थ- वहाँ (ब्रह्म में) नेत्र नहीं जाते, वाणी नहीं जाती और मन भी नहीं जाता। हम ब्रह्म •ा लक्षणों •ो भी नहीं जानते, अत: मन वाणी •े अतीत होने •े •ारण हमें नहीं मालूम •ि उस•ा वर्णन •ैसे •रूँ।

अन्यदेव तद्धिदितादधो अविदितादधि

इति शुश्रुम पूर्वेषां यं नस्तद्धयाचचक्षिरे।

भावार्थ- यह ब्रह्म ज्ञात वस्तुओं से भिन्न है और फिर अज्ञात वस्तुओं से भी परे है- ऐसा हमने अपने पूर्वजों से सुना है, जिन्होंने हमारे लिए इस•ी व्याख्या •ी थी।

ब्रह््म ज्ञान •े अतिरिक्त देवताओं •े विजय •े अभियान •े समान जीव •ो •र्त्तव्य, भोक्तृत्व •ा अभियान •रना व्यर्थ है।

' ब्रह््म  ह देवेम्यो विजिग्ये। तस्य ह

             ब्राह्मणों विजये देवा अमहीयन्त।। Ó 14. •ेन

उन यक्ष •ो न जाने हुए देवतागण भय •े साथ आपस में विर्मर्श •र जातवेद: अग्नि •ो जो जन्म से ज्ञानी होने से जातवेद •हलाते हैं •ो •हा •ि जाओं और पता •रों •ि यह पूज्यमूर्ति •ौन है।16

  

आगे उपनिषद •हता है- 'तास्ते प्रेत्याभिगच्दन्तिÓ, अज्ञान से आच्छादित हो•र पशु और वनस्पतियोंं •े रूप हमें प्राप्त होते हैं। 'असुरो •ा लो•ाÓ अर्थात 'तमसावृता:Ó •ो असुर लो• •हा। 'आत्महनो जनाÓ आत्मा •ो माने वाले अर्थात 'तमसावृता:Ó •ो असुर लो• •हा। यही आत्म हत्या है। तभी हमारा ऋषि •हता है  'तमसो मां ज्योर्तिगमयÓ। हम अमर हैं, यह बोध प्राप्त न होना ही आत्मघाती स्थिति है। 

आत्मा •ो •ैसे समझे ? इस•ा लक्षण क्या है? 

''स पर्यगाच्छु•्रम•ायमव्रणमस्नाविरं शुद्धम पापविद्धम।

 (न अन्यो अतो अस्ति द्रष्टा। बृउ 3/8/11 अर्थात इस आत्मा •े अतिरिक्त •ोई द्रष्ट्रा नहीं है।) परिभू: •ा दूसरा अर्थ बिना माता पिता •े जन्म लेने वाला।



Monday, 13 November 2023

वेद

मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः

सूक्त 1

1

अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ।। (अग्निम् ईळे) में।

 दिव्यज्वालारूप अग्निदेवकी उपासना करता हूं जो (पुरः- हितम्) पुरोहित है, (यज्ञस्य देवम् ऋत्विजम्) यज्ञका दिव्य ऋत्विक् है, (होतारम् ) ऐसा आवाहक है जो ( रत्नधातमम्) आनन्दैश्वर्यको अत्यधिक प्रतिष्ठित करता है।

2

अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत । स देवाँ एह वक्षति ॥ (पूर्वेभिः ऋषिभिः)

 प्राचीन ऋषियों द्वारा (ईड्यः) उपास्य वह (अग्निः) अग्निदेव (नूतनैः उत) नवीन ऋषियों द्वारा भी (ईड्यः) उपास्य है। (सः) वह (देवान्) देवोंको (इह) यहाँ (आ वक्षति) लाता है।

3

अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे । यशसं वीरवत्तमम् ।। 

(अग्निना) अग्निदेवके द्वारा मनुष्य ( रयिम् अश्नवत्) उस ऐश्वर्यंका उपभोग करता है जो (दिवे-दिवे पोषम् एव) निश्चय ही दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है, (यशसम्) यशसे उज्ज्वल है और (वीरवत्तमम्) वीरशक्तिसे अतिशय पूर्ण है ।

अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि । स इद् देवेषु गच्छति ॥

 (अग्ने) हे अग्निदेव ! ( यम् अध्वरं यज्ञं विश्वतः) जिस यात्रा-यज्ञके चारों ओर तू (परिभू: असि) अपनी सर्वतोव्यापी सत्तासे विद्यमान होता है, वह यज्ञ सचमुच ही (देवेषु गच्छति) देवोंमें पहुंचता ।

भरत तत् सत्यमरः ॥ (अ) अग्निदेव! (दाचे) बारमदान करने ( गए भरम्) को कल्याणकारी भलाई (करिष्यमि करेगा है वह परम सत्य जो निश्चय ही राय है, उसे अपना परम सत्य ही प्राप्त करा देगा ] हे अंगिरा ।

7

उपत्याने दिवेदिवे दोषावस्तथिया वयम्। नमो भरन्त एमसि ।।

 (अग्ने) हे अग्निदेव ! (वर्ष) हम (दिवे-दिवे) दिन-प्रतिदिन (दोषा- न्तः) अंधकार और प्रकाशके समय (धिया) अपने विचारके द्वारा (नमः मन्तः) नमस्कारको वहन करते हुए (त्वा उप आ इमसि) तेरे निकट हैं।

राज्ञन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे ॥ 

(अध्वराणां राजन्तम्) यात्रारूप यज्ञोके शासक, (ऋतस्य दीदिवि नाम्) सत्यके देदीप्यमान संरक्षक, (स्वे दमे वर्धमानम्) अपने घरमें वर्ध- [त्या उपजा इमसि ] तुझ अग्निदेवके निकट हम जाते हैं।

स नः पितेव सूनवेऽन्ते सूपायनो भव । सचस्वा नः स्वस्तये ॥

 (सः) ऐसा तू. [ इसलिए तू ] (अग्ने) हे अग्निदेव ! (नः) हमारे लिए इनके पिता इब) पुनके लिए पिताकी तरह (सु-उपायनः भव) सुगमतासे न्त होनेवाला बन । (स्वस्तये) हमारी सुखपूर्ण स्थितिके लिए तू (नः (स्व) हमारे साथ दृढ़ता से जुड़ा रह ।
       ….....................

1. श्रीअरविन्द की कृति Hymns to the Mystic Fire (गुह्य अग्निके सूक्त ) के प्रथम मण्डलके सूक्तोंका अनुवाद । --अनुवादक
               ,,,,,,,,,,,,,
मेधातिथिः काण्वः

सूक्त 12

अग्नि दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम्। (अग्नि वृणीमहे) हम अग्निका वरण करते हैं जो (होतारं) अ है, (विश्ववेदसम्) सर्वज्ञ है, (दूतं) देवोंका दूत है और (अस्य यज्ञस्य यज्ञका (सुक्रतुम् ) सिद्धिकारक संकल्प है।1

2- अग्निमग्न हवीमभि: सदा हवन्त विश्पतिम् । हव्यवाहं पुरुप्रियम् (विश्पति)।

 प्रजाओंके अधिपति, (हव्यवाहं) हमारी [ समर्पणरूप ] के वाहक, (पुरुप्रियं) बहुविध अभिव्यक्तिके प्रेमपात्र, (अग्निम् अि प्रत्येक अग्नि-ज्वालाको [ यज्ञके कर्ता ] (हवीमभिः) देवोंका आह्वान कर सूक्तोंके द्वारा (सदा हवन्त) सदा पुकारते हैं और [ पुरुप्रियं हवन्त] एकमेव भगवान को पुकारते हैं जिसमें अनेक प्रिय पदार्थ विद्यमान हैं।

3- अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तर्बाहषे । असि होता न ईड्यः ॥

 (अग्ने) हे अग्निदेव ! तू (जज्ञान:) उत्पन्न होकर (वृक्तबर्हिषे) यज्ञकर्ताके लिए जिसने पवित्र आसन बिछा रखा है (देवान् इह आ देवोंको यहाँ ला । (न: ईड्य: होता असि ) तू हमारा वरणीय आव पुरोहित है ।

4-  ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दृत्यम् । देवैरा सत्सि बर्हिषि ।।

 (अग्ने) हे अग्निदेव ! (यत्) जब तू. (दूत्यम् यासि) हमारा दूत कर जाता है तब (तान्) उन देवोंको (वि बोधय) जगा दे जो (उश हमारी भेंटोंको चाहते हैं । तू (बर्हिषि) पवित्र कुशापर (देवः) दे साथ (आ सत्सि अपना स्थान ग्रहण कर ।

5

अग्ने त्वं रक्षस्विनः ॥ घृताहवन दीदिवः प्रति हम रिषतो दह ।

(अग्ने) हे अग्निदेव ! (घृत- आहवन) मनकी निर्मलताओंकी भेंटो से पुकारे जाते हुए (दीदिवः) देदीप्यमान देव ! (त्वम्) तू (रिपतः रक्षस्विनः) सीमामें बांधनेवाले द्वेषियोंका ( प्रति दह स्म) अवश्य ही विरोध कर और उन्हें भस्मीभूत कर दे ।

afearfग्नः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा । हव्यवाड् जुह्वास्यः ॥ 

(अग्निना) अग्निसे ही (अग्निः) अग्निदेव ( सम् इध्यते) पूर्णतया प्रदीप्त किया जाता है जो (कविः) द्रष्टा है, (गृहपतिः) घरका स्वामी है, (युवा) युवा है, (हव्यवाट्) भेंटको वहन करनेवाला है और (जुहु-आस्यः) जिसका मुख हवियोंको ग्रहण करता है ।

7- कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे । देवममीवचातनम् ।।

 तू (अग्निम् उप स्तुहि) उस दिव्य अग्निके निकट पहुंच और उसके स्तुतिगीत गा जो (कविम्) द्रष्टा है और (सत्यधर्माणम्) सत्य ही जिसका विधान है, जो (देवम्) प्रकाशस्वरूप है और (अमीव- चातनम् ) सब बुराइयों- का नाशक है।

8- यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति । तस्य स्म प्राविता भव ॥

 (देव अग्ने) हे अग्निदेव ! (हविः पतिः) हवियोंका जो स्वामी ( दूतं त्वाम् सपर्यति) तुझ दिव्य दूतकी पूजा करता है, (तस्य प्र अविता भव स्म ) उसका तू रक्षक बन ।

9- यो अग्नि देववीतये हविष्माँ आविवासति । तस्मै पावक मूळय || (यः)

 जो (देववीतये) देवोंके दिव्य जन्मके लिए (हविष्मान्) भेंटोंको लिए हुए (अग्निम् आविवासति) दिव्य शक्तिके पास पहुंचता है (पावक) हे पवित्र करनेवाले देव ! (तस्मै मृळय) उसपर दया करो ।

10- स नः पावक दीदिवोऽग्ने देव इहा वह ।

 ( दीदिव: अग्ने) हे देदीप्यमान अग्नि ! (पावक) हे पवित्र करने- वाले ! (सः) वह तू (देवान्) देवोंको (इह) यहाँ (नः हविः यज्ञं च) उप यज्ञं हविश्च नः ॥ हमारी भेंटों और हमारे यज्ञके (उप आ वह) पास ले आ।

11- स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा । राय वीरवतीमिषम् ।।

 (नः नवीयसा गायत्त्रेण) हमारे नवीन छन्दोंसे (स्तवानः) स्तुति किया हुआ (सः) वह तू (रयिम्) आनन्दको और (वीरवतीम् इषं) वीरके सामर्थ्य से पूर्ण प्रेरणा शक्तिको (आ भर) ले आ ।

12-  अग्ने शुक्रेण शोचिषा विश्वाभिर्देवहूतिभिः । इमं स्तोमं जुषस्व नः ॥

(अग्ने) हे अग्नि ! (शुक्रेण शोचिषा) अपनी शुभ्र दीप्तियोंके साथ,
 विश्वाभिः देव-हूतिभिः) देवोंका आह्वान करनेवाली अपनी समस्त दिव्य
 _चाओंके साथ आकर (न: इमं स्तोमम्) हमारी इस दृढ़तासाधक स्तुतिको
नुषस्व ) स्वीकार कर ।

Monday, 6 November 2023

ईशोपनिषद:

 

ईशोपनिषद:  

यह उपनिषद् कलेवर  में छोटा है किन्तु विषय के कारण अन्य उपनिषदों के बीच महत्त्वपूर्ण  है। इस उपनिषद् के पहले मंत्र ‘‘ईशावास्यमिदंसर्वंयत्किंच जगत्यां-जगत…’’से लेकर अठारहवें मंत्र ‘‘अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देववयुनानि विद्वान्…’’  तक   में ईश्वर, ब्रह्मांड और सात्विक जीवन शैली को बताया गया है। इसमें ‘असुर्या’ वह लोक जहाँ सूर्य नहीं पहुँच पाता में कहा गया है कि जो लोग आत्म को, ‘स्व’ को नहीं पहचानते हैं, उन्हें मृत्यु के पश्चात् उसी असुर्या नामक लोक में जाना पड़ता है । आत्म’ में ब्रह्म को एकाकार करते हुए बताया है कि वह एक साथ, एक ही समय में भ्रमणशील है, साथ ही अभ्रमणशील भी । वह पास है और दूर भी।  वह सर्वव्यापी, अशरीरी, सर्वज्ञ, स्वजन्मा और मन का शासक है। इस उपनिषद् में विद्या एवं अविद्या दोनों की बात की गई है कि विद्या एवं अविद्या दोनों की उपासना करने वाले घने अंधकार में जाकर गिरते हैं, हाँ विद्या एवं अविद्या को एक साथ जान लेने वाला, अविद्या को समझकर विद्या द्वारा अनुष्ठानित होकर अमरत्व को समझ लेता है। इसमें ब्रह्म के मुख को सुवर्ण पात्र से ढके होने की बात साथ ही सूर्य से पोषण करने वाले से प्रार्थना की। अंतिम श्लोकों में किए गए सभी कर्मों को मन के द्वारा याद किए जाने की बात आती है और अग्नि से प्रार्थना कि पंञभौतिक शरीर के राख में परिवर्तित हो जाने पर वह उसे दिव्य पथ से चरम गंतव्य की ओर उन्मुख कर दे।

  •र्म •ा विधान •िसे ?

अज्ञानी तथा स•ाम व्यक्ति •े लिये •र्म आवश्य• है।  ''सो अ•ामयत जाया में स्यातÓÓ (वृ.उ.1/4/17)

 वही उपनिषद •हता है- ' •िं प्रजया •रिश्यमों मे षां नो अयमात्मा अयं लो•:Ó अर्थात 'हमारी आत्मा ही हमारा लो• है अत: हम संतान ले•र हम क्या •रेगे? (बृ.उ. 4/4/22)। 

अत: श्वेतोपनिषद •ा ऋषि •हता है- '' अत्याश्रमिम्य: परमं पवित्रं प्रोवच सम्य•् ऋषि संगजुष्टमÓÓ । 1/6/21.

•र्म•ाण्ड और उपासना •ा समुच्चय होना चाहिए- ''अन्ध तम: प्रविशन्ति येऽपिद्यामुपासते। विद्यायाम = देवतोपासना और अविद्यायाम= •र्म•ाण्ड।

विद्या- 'सा विद्या या विमुक्तयेÓ।

''विद्या चाविद्यां च यस्तद्वेदोभय सह।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुतूÓ -ईष-11

देवताओं •ी पूजा •र•े आदमी सिद्धि •ो प्राप्त •रता है- 'ईश्वरीय गुणों •ो ऐश्वर्य •हते हैं। आठ ऐश्वर्य या सिद्धियाँ इस प्र•ार हैं-

''अणिमा महिमा तथा गरिमा लघिमा तथा।

ईषित्वं च वषित्वं च प्राप्ति: प्र•ाम्यमेव च।।

अर्थात शूक्ष्म हो जाना, विषाल हो जाना, भारी हो जाना, हल्•ा हो जाना, शास• बन जाना, वश में •र लेना, इच्छानुसार वस्तु •ी प्राप्ति और जैसा चाहे  वैसा रूप बना लेना।

''सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेभीय सह।

विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुतेÓÓ -

अर्थात जो असंम्भूत अर्थात •ारण ब्रह्म तथा विनाश अर्थात •ार्य ब्रह्म (हिरण्यगर्भ)-दोनों •ो साथ साथ उपासना •रने योग्य जानता है, वह •ार्य-ब्रह्म •ी उपासना से मृत्यु •ो पार •र•े •ारण-ब्रह्म •ी उपसना से अमृत अर्थात् प्र•ृतिलय •ी अवस्था •ो प्राप्त •रता है। ईषा-14  अर्थात सभी जीव अपनी आत्मा ही हो जाते हैÓÓ ('आत्मा-एव-अभूद्-विजानत:Ó)

ऋषि •हता है-

''हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम।

 तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।

अर्थात हे जगत •े पोश•! (पूषा) सूर्यदेव स्वर्णिम पात्र (हिरण्यगर्भ) •े द्वारा सत्य (•ार्यब्रह्म) •ा जो मुँह ढ•ा हुआ है, मुझ सत्यधर्मा (उपास•) •े दर्शन हेतु वह ढक्कन हटा दीजिए। ईषा.15

''पूषान्ने•र्षे यम सूर्य प्रजापत्य व्यूह रश्मीन्समूह तेजा 

यत्ते रूपं •ल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुष: सोऽहमास्मि।। 16 ईषा

अर्थात जगत •ा पोशण •रने •े •ारण सूर्य •ो पूषा •हते है; अत: हे पूषा! (गगन में) ए•ा•ी विचरण •रने •े •ारण वे ए•र्षि •हे जाते हैं; (अत:) हे ए•र्षि, प्राणों तथा रसों •ो खीच लेने •े •ारण वे सूर्य •हलाते हैं; (अत:) हे सूर्य! प्रजापति •े पुत्र होने से वे प्राजापत्य हैं: (अत:) हे प्राजापत्य! अपनी रश्मियों •ो व्यूह अर्थात हटाइये। अपने तेज अर्थात् ताप देनेवाले प्र•ाश •ो ए•त्र •र•े खीच लीजिए।16, ईषा.

''वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त शरीरम।

ऊँ •्रतो स्मर •ृतँ स्मर •्रतो स्मर •ृतँ स्मर।।

अर्थात अब मेरा प्राण सर्वव्यापी वायु में विलीन हो जाय; मेरा शरीर भस्म में परिणत हो जाय। ऊँ, हे मेरे मन! अब त• अपने द्वारा •िये हुए •र्म तथा उपासनाओं •ा स्मरण •रो, स्मरण •रो।17 ईषा.

व्याहृतियाँ- भू:, भुव: तथा स्व:- ये तीन व्याहृतियाँ हैं। (तै.उ. 1/5/1) । इनमें से 'भू:Ó अर्थात पृथ्वी •ा सिर है, 'भुव:Ó अर्थात आ•ाश उस•ी दो भुजाएं हैं और 'स्व:Ó अर्थात स्वर्ग उस•े दो चरण हैं। (बृ.उ.5/5/3)

''अग्रे नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठंते नम उक्तिं विधेम।।ÓÓ 18

अर्थात हे अग्नि! हे देव! आप हमारे समस्त •र्म फलों •े ज्ञाता हैं; हमें अपने •र्मफलों •ा भोग •राने •े लिए अच्छे मार्ग से ले चलिए। •ुटिल पापों •ो हमसे दूर •ीजिए। हम आप•ो बारम्बार नमन •रते हैं।

इस तरह से ईषोपनिषद में ऋषि सूर्य और अग्नि देव से प्रार्थना •रता है •ि उसे अमृत •ी ओर ले चलो।

इस तरह से ऋषि अविद्या (•र्म) •े द्वारा मृत्यु •ो पार •र•े विद्या (उपासना) •े द्वारा अमृतत्व •ो प्राप्त •र लेता हैÓÓ  वह विनाश •े (•ार्यब्रह््म) •े द्वारा मृत्यु •ो पार •र•े, सम्भूति (•ारणब्रह्म) •ी उपासना से अमृतत्व •ी प्राप्ति •र लेता है।ÓÓ 


Friday, 20 October 2023

दरकार

दरकार जिसकी वह बात पुरानी है।
नये जमाने के तेवर  परख रहा हूं।।
ख़ुश हूं कि उनके मिजाज गरम हैं
खुली आंखों सपने समझ रहा हूं।।
शीत ने दी दस्तक जिस दुपहरी से।
आशियानों तपन ले भटक रहा हूं।।

2
साधु  
शत्रु-सैनिकों की 
कर रहे हो सेवा \
शत्रुदल !
मैं तो भगवान की सेवा कर रहा हूं
मैं तो प्राणियों की सेवा कर रहा हूं
मैं तो मानव धर्म की सेवा कर रहा हूं

असंतुष्ट था सिंकन्दर
तभी
फूस का सूखा
मरी चींटी टुकड़ा 
पकड़ा दिया सिकन्दर को
इसे हरा कर सकते हो
इसे जिन्दा कर दो

सूखी चीज हरी हो सकती है \
साधु] तुम पागल हो

सूखे को जीवन नहीं दे सकते
चीटी को जीवन नहीं दे सकते

तो 
फिर जीवित को मारने का अधिकार \

नत सिर सिकंदर 
सचमुच
भारत महान  
मेरा मन तो सैतान।

2-
 
तीर्थ है
रास्ता] घाट] जलाशय
साधना और मंत्रणा

तीर्थ है 
पवित्र] पावन
मोक्ष प्रदाता
हरता तन मन की यंत्रणा

तीर्थ है
स्थल परिक्रमा का
उपचार का
सधना का

तीर्थ है 
संज्ञा
व्यक्ति] वस्तु
स्थान और भाव रूप में
विराजित श्रद्धा लिए

तीर्थ है
विचारों का विस्तार
दण्डकों का उपचार
राम कृष्ण जहां
लेते हैं अवतार

तीर्थ है
नदी]जलाशय
मंदिर और गुरुद्वारे
जहां पीते हैं पानी
पंक्षी और पंथी प्यारे

तीर्थ है 
गुरु और उसकी वाणियां
स्नान करें उसमें 
काटे संसार बन्धन की वेणियां।



Tuesday, 10 October 2023

हिन्दुस्थान में हिंदी

"जापान में जापानी, चीन में चीनी तो हिन्दुस्थान में हिन्दी क्यों नहीं. 
इस संम्बन्ध में हमारी स्थिति -
मातृभाषा पर हमारा स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं. 
संस्कृत भाषा का स्थान क्या है ?
राष्ट्र भाषा हिन्दी हो या संस्कृत तय नहीं. 
अंग्रेजी कैसे हटेगी नीति तय नहीं. 
आइये कुछ तथ्यों को देखें -
1- नई शिक्षा नीति 2015 में संविधान की मान्यता प्राप्त 23भाषाओं को मातृभाषा का दर्जा प्राप्त हो और अनुच्छेद 350  (1)का कड़ाई से पालन कराते हुये वर्तमान व्यवस्था में पांचवी तक मातृभाषा शिक्षण का माध्यम हो. प्रयास करना पड़ेगा. 
2- संस्कृत भाषा और पाणिनी व्याकरण के आधार पर जापान और जर्मनी ने अपनी भाषा का व्याकरण बनाकर संस्कृत को कम्प्यूटर की सबसे सक्षम भाषा मानी है, अत: संस्कृत भविष्य की सबसे अधिक रोजगारोन्मुखी, वैज्ञानिक -तकनीकी शिक्षा एवं मनुष्य निर्माण की भाषा होगी. क्योकि 
एक जर्मन सर्वे के अनुसार 1998की स्थिति में संस्कृत में सबसे अधिक शब्द -102,87,50,00000 (एक सौ दो अरब सतासी करोड़,पचास लाख है. जो आगामी 20 वर्ष अर्थात् 2018 तक इसके दो गुने हो जायेंगे.
अस्तु संस्कृत भाषा का राजकीय सशक्तीकरण हो.
3. राष्ट्र भाषा संस्कृत हो एवं सरकारी राजभाषा हिन्दी हो जो संविधान में है, व्यवहार में नहीं. 
4. राष्ट्र भाषा संस्कृत और राजभाषा के राजकीय सशक्तीकरण हेतु जनजागरण तथा अंग्रेजी को सहराजभाषा से हटाने हेतु संविधान संशोधन करना होगा. 
इस कार्य के लिये योग्य व्यक्ति का उसी तरह चयन करना होगा जिस तरह पूज्य श्री गुरुजी ने एकनाथ जी का चयन किया था और उन्होंने सभी दलों के सांसदों से हस्ताक्षर कराकर गृहमंत्री लालबहादुर शास्त्री को दिया और नेहरू जी ने मुख्यमंत्री षड़मुखम् को संन्देश दे कर निर्विरोध विवेकानन्द शिला स्मारक बनवाई. 
मित्रों सरकार की इच्छा शक्ति और कुशल 

संगठन के मेधावी कार्यकर्ताओं से ही यह सम्भव होगा. और  यू एन.ओ.तथा हिन्दी सम्मेलन इसमें कारक बनेंगे. 
5- देवनागरी लिपि दुनिया की सबसे वैज्ञानिक लिपि है, सभी भारतीय भाषाओं का लेखन देवनागरी में हो. 
भाषा समस्या समाधान और राष्ट्रीय गौरव हेतु अपने सुझावों के साथ इसे पोस्ट करें

Friday, 6 October 2023

उपनिषद् upnishad prarthana

उपनिषद् - प्रार्थना

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

(1,2)  ईशावास्योपनिषद-(1)
       बृहदारण्यकोपनिषद्(11)

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः 

(3,4)
केनोपनिषद् (2)
छंदोपनिषद (10)

ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोत् अनिराकरणमस्त्वनिराकरणं तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 

(5,6,7)
प्रश्नोपनिषद् (4)
मुण्डकोपनिषद्(5)
माण्डूक्योपनिषद् (6)

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा: सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ 
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!

(8)
ऐतरेयोपनिषद् (7)

ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि। वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीः । अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधाम् ऋतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥ 
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!

(9)
तैत्तिरीयोपनिषद (8)

ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् । अवतु वक्तारम्  ।
ॐ शान्तिः । शान्तिः शान्तिः ।

(10,11)
श्वेताश्वतरोपनिषद्(9)
कठोपनिषद (3)

ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु ।
 सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै। 
ॐ शान्तिः शान्तिः ॥ शान्तिः !!!


 

Thursday, 5 October 2023

उपनिषद: सार upnishad

 

उपनिषद

सनातन वैदिक धर्म के ज्ञानकाण्ड को उपनिषद् कहते हैं । सहस्त्रों वर्ष पूर्व भारतवर्ष में जीव-जगत तथा तत्सम्बन्धी अन्य विषयों पर गम्भीर चिन्तन के माध्यम से उनकी जो मीमांसा की गयी थी, उपनिषदों में उन्हीं का संकलन है। उपनिषद् हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं । ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं । इनमें परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक विवेचन किया गया है । उपनिषदों में कर्मकांड को 'अवर' कहकर ज्ञान को इसलिए महत्व दिया गया कि ज्ञान स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है । ब्रह्म, जीव और जगत्‌ का ज्ञान पाना उपनिषदों की मूल शिक्षा है । उपनिषद ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्रोत हैं, चाहे वो वेदान्त हो या सांख्य या जैन धर्म या बौद्ध धर्म । उपनिषदों को स्वयं भी वेदान्त कहा गया है । दुनिया के कई दार्शनिक उपनिषदों को सबसे बेहतरीन ज्ञानकोश मानते हैं । उपनिषद् भारतीय सभ्यता की विश्व को अमूल्य धरोहर है । मुख्य उपनिषद 13 हैं । हरेक किसी न किसी वेद से जुड़ा हुआ है । ये संस्कृत में लिखे गये हैं । १७वी सदी में दारा शिकोह ने अनेक उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया ।

पाश्चात्य विद्वान और उपनिषद: सन् 1775 ई. के पहले तक किसी भी पाश्चात्य विद्वान की दृष्टि उपनिषदों पर नहीं पड़ी थी । अयोध्या के नवाब सुराजुद्दौला की राजसभा के फारसी रेजिडेंट श्री एम. गेंटिल ने सन् 1775 ई. प्रसिद्ध यात्री और जिन्दावस्ता के प्रसिद्ध आविष्कारक एंक्वेटिल डुपेर्रन को दारा शिकोह के द्वारा सम्पादित उक्त फारसी अनुवाद की एक पाण्डुलिपि भेजी । एंक्वेटिल डुपेर्रन ने कहीं से एक दुसरी पाण्डुलिपि प्राप्त की और दोनों को मिलाकर फ्रेंच तथा लैटिन भाषा में उस फारसी अनुवाद का पुन: अनुवाद किया । लैटिन अनुवाद सन् 1801-2 में ‘ओपनखत’ नाम से प्रकाशित हुआ । फ्रेंच अनुवाद नहीं छपा । बाद में प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक शेपेनहावर- सन् 1788-1860) ने गम्भीर अध्ययन पश्चात लिखा- ‘मैं समझता हूँ कि उपनिषद् के द्वारा वैदिक साहित्य के  साथ परिचय लाभ होना वर्तमान शताब्दी (सन् 1818) का सबसे अधिक परम लाभ है जो इसके पहले किन्हीं भी शताब्दियों को नहीं मिला । चौदहवीं शताब्दी के ग्रीक साहित्य के अभ्युदय में ग्रीक-साहित्य के पुनरभ्युदय से यूरोपीय साहित्य की जो उन्नति हुई थी, संस्कृत- साहित्य का प्रभाव उसकी अपेक्षा कम फल उत्पन्न करने वाला नहीं होगा।’ वे उपनिषदों  के बारे में आगे लिखते हैं- ‘जिस देश में उपनिषदों के सत्य समूह का प्रचार था, उस देश में ईसाई-धर्म का प्रचार व्यर्थ है।’ शेपेनहावर की भाविष्यवाणी सिद्ध हुई और स्वामी विवेकानन्द की शिष्या ‘सारा बुल’ ने अपने एक पत्र में लिखा कि “जर्मन  का दार्शनिक सम्प्रदाय, इग्लैण्ड के प्राच्य पण्डित और हमारे अपने देश के एरसन आदि साक्षी दे रहे हैं कि पाश्चात्य विचार आजकल सचमुच ही वेदान्त के  द्वारा अनुप्राणित हैं ।” सन् 1844 में बर्लिन में श्रीशेलिंग महोदय की उपनिषद सम्बन्धी व्याख्यानोंव्याखान को सुनकर मैक्समूलर का ध्यान सबसे पहले संस्कृत की ओर आकृष्ट हुआ । शोपेनहार लिखता है- “सम्पूर्ण विश्व में उपनिषदों के समान जीवन को उँचा उठाने वाला कोई दूसरा अध्ययन का विषय नहीं है। उससे मेरे जीवन को शान्ति मिली है, उन्हीं से  मुझे मृत्यु में भी शान्ति मिलेगी।” शोपेनहार आगे लिखता है- ‘ये सिद्धान्त  ऐसे हैं, जो एक प्रकार से अपौरषेय ही हैं । ये जिनके मस्तिष्क की उपज हैं, उन्हें निरे मनुष्य कहना कठिन है ।  शोपेनहार के इन्हीं शब्दों के समर्थन में प्रसिद्ध पश्चिमी विद्धान मैक्स मूलर लिखता है-‘शोपेनहार के इन शब्दों के लिये यदि किसी समर्थन की आवश्यकता हो तो अपने जीवन भर के अध्ययन के आधार पर मैं उनका प्रसन्नतापूर्वक समर्थन करूँगा’

              जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान पाल डायसन ने उपनिषदों को मूल संस्कृत में अध्ययन कर अपनी टीप देते हुए अपनी पुस्तक (philosophy of the Upanisads) में लिखा-‘उपनिषद के भीतर, जो दार्शनिक कल्पना है, वह भारत में तो अद्वितीय है ही, सम्भवत: सम्पूर्ण विश्व में अतुलनीय है’  मैक्डानल कहता है,‘मानवीय चिन्तना के इतिहास में पहले पहल वृहदारण्यक उपनिषद में ही ब्रह्म अथवा पूर्ण तत्व को प्राप्त करके उसकी यर्थाथ व्यंजना हुई है।’ फ्रांसीसी विद्वान दार्शनिक विक्टर कजिन्स् लिखते हैं,-‘जब हम पूर्व की और उनमें भी शिरोमणि स्वरूपा भारतीय साहित्यिक एवं दार्शनिक महान् कृतियों का अवलोकन करते हैं, तब  हमें  ऐसे अनेक गम्भीर सत्यों का पता चलता है, जिनकी उन निष्कर्षों से तुलना करने पर जहाँ पहुँचकर यूरोपीय प्रतिभा कभी-कभी  रुक गयी है, हमें पूर्व के तत्वज्ञान के आगे घुटना टेक देना चाहिए । जर्मनी के एक दूसरे प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रेडरिक श्लेगेल लिखते हैं- ‘ पूर्वीय आदर्शवाद के प्रचुर प्रकाश पुंज की तुलना में  यूरोपवासियों का उच्चतम तत्वज्ञान ऐसा ही लगता है, जैसे मध्याह्न सूर्य के व्योमव्यापी प्रताप की पूर्ण प्रखरता में टिमटिमाती और अनल शिखा की कोई आदि किरण, जिसकी अस्थि और निस्तेज ज्योति ऐसी हो रही हो मानो अब बुझी कि  तब ।’

              उपनिषदों सार - उपनिषदों की संख्या लगभग 108 है, जिनमें से प्रायः 11 उपनिषदों को मुख्य उपनिषद् कहा जाता है । मुख्य उपनिषद, वे उपनिषद हैं, जो प्राचीनतम हैं और जिनका आदि शंकराचार्य से लेकर अन्य आचार्यों ने भाष्य किए हैं - (1) ईशावास्योपनिषद्, (2) केनोपनिषद् (3) कठोपनिषद् (4) प्रश्नोपनिषद् (5) मुण्डकोपनिषद् (6) माण्डूक्योपनिषद् (7) तैत्तरीयोपनिषद्  (8) ऐतरेयोपनिषद् (9) छान्दोग्योपनिषद्  (10) बृहदारण्यकोपनिषद्  (11) श्वेताश्वतरोपनिषद् ।आदि शंकराचार्य ने इनमें से १० उपनिषदों पर टीका लिखी थी। इनमें माण्डूक्योपनिषद सबसे छोटा और बृहदारण्यक सबसे बड़ा उपनिषद। 

Thursday, 7 September 2023

महात्मा गांधी और स्वच्छता

महात्मा गाँधी और स्वच्छता (भाग एक )

  गांधी जी ने कहा था ‘स्वच्छता आजादी से अधिक महत्त्वपूर्ण है। मुझे पहले स्वच्छ भारत चाहिए बाद में आजादी।’
१९१७ में गाँधी ने कहा था, जब तक हम अपने गाँवों और शहरों को नहीं बदलते, अपनी आदतों को नहीं बदलते, बेहतर शौचालय नहीं बनाते तब तक स्वराज का कोई अर्थ नहीं।
चम्पारन से स्वच्छता का गाँधी का पहला कदम था।
एक तरफ देश की आजादी की लड़ाई चल रही थी तो दूसरी ओर गाँधी साथ में स्वच्छता आन्दोलन की बात भी उतनी ही सिद्दत से कर रहे थे। 
उनका मानना था कि स्वच्छता से स्वास्थ्य ठीक होगा और स्वच्छता और स्वास्थ्य दोनों से देश मजबूत होगा।
जब देश स्वच्छ नहीं होगा तब तक देश का विकास अधूरा है।

वस्तुतः विचार करें तो स्वतंत्रता से देश की मोदी सरकार के आने तक किसी भी सरकार ने स्वच्छता को उतना जोर नहीं दिया जितना गाँधी जी की इच्छा थी। 
मोदी जी का यह स्वच्छता उनकी न केवल गाँधी के प्रति श्रद्धांजलि है, बल्कि देश को समझने का परिणाम है।
स्वच्छता के लिए इस देश के कुछ नेताओं ने भी अवश्य प्रयत्न किया जिनमें, डॉ राम मनोहर लोहिया, इंदिरा गाँधी, जयराम रमेश और डॉ रघुवंश प्रसाद।
मोदी जी ने १५ आगस्त ,२०१४ को लाल किले से अभियान की घोषणा कर खुले में शौचालय से मुक्ति और हर घर में शौचालय का अभियान चलाया।
मोदी जी का मिशन हडप्पा काल की स्वच्छता से अपने को जोडऩा है।
आज स्वच्छता आन्दोलन बन गया है।
स्कूल, कालेज तथा विभिन्न सरकारी एजेन्सियाँ पोस्टर, जागरण, गोष्ठियों तथा प्रतियोगिताओं के माध्याम से जागरण कर रही हैं। 

माना जाता है कि सिंगापुर के प्रधान लीक बान यून ने १९६५ में जब देश की सत्ता संभाली तो अपने प्रधानमंत्री से पूछा कि देश के विकास के लिए क्या करना चाहिए। 
तब उनके प्रधान मंत्री ने चार बातें बताई थीं जिनमें दो बाते प्रधान थीं- एक: हमारे यहाँ के नागरिक सडक़ों, रास्तों में न केवल थूकते हैं बल्कि नाना प्रकार की गंदगी करते हैं, उसे बन्द किया जाना चाहिए। इसके लिये कड़ा दण्ड विधान हो।
दूसरा: सिंगापुर को उद्योगिक घरानों से मुक्त रखना चाहिए। हमें अपनी मार्कटिंग पर ज्यादा ध्यान रखना चाहिए।
प्रभाव यह हुआ कि जिस देश की प्रति व्यक्ति आय १९६४ में ४०० डालर थी, वह १९९० में १२०० डालर हुई और आज ५७००० डालर है। 
तात्पर्य यह कि स्वच्छता विकास का कारगर पैमाना है। और इसे गांधी जी के अभियान से जोड़कर समझाने में मुझे कोई सकोंच नहीं.

गांधी जयन्ती के अवसर पर हमारे देश ने भी स्वच्छता का संकल्प लिया है जिसमें खेल जगत से लेकर, सिने, किसान और फौज तथा स्कूल तक जुड़ गये हैं। 
सार्वजनिक स्थान स्वच्छ दिखने भी लगें हैं किन्तु हमें अभी गाँधी के स्वच्छता के दस सूत्रों को विस्मरण नहीं करना चाहिए जो न केवल भौतिक सफाई की बात का रहे हैं बल्कि पूरी मनुष्यता के उत्थान की बात कर रहे है. उस अस्पृश्यता की ओर संकेत कर रहे है जो मनुष्यता के लिए कलंक है.
 

इस अवसर पर गाँधी के स्वच्छता के सूत्र को आत्मसात करना होगा जो आज भी उतने ही प्रासंगिक है जो देश की स्वतंत्रता के पहले थे -
१. स्वच्छता स्वभाव बने। हर कोई अपना कचरा स्वयं साफ करे।
२. राजनीतिक स्वतंत्रता से जरूरी स्वच्छता है। ( चूकि अब हमें आजादी मिल चुकी है तो शारीरिक और मानसिक स्वच्छता की उतनी ही आवश्यकता है।)
 ३. यदि कोई व्यक्ति स्वच्छ नहीं है तो वह स्वस्थ्य नहीं रह सकता।
४. बेहतर साफ-सफाई से ही गाँवों को आदर्श बनाया जा सकता है।
५. शौचालय को ड्राइंग रूम से भी अधिक साफ रखना चाहिए।
६. नदियों को स्वच्छ रख कर हम अपनी सभ्यता को जिन्दा रख सकते हैं।
७. अपने अन्दर की स्वच्छता को बढ़ाया जाना चाहिए, शेष बातें सब अपने आप ठीक हो जायेगी।
८. मैं किसी को गंदे पैर से अपने मन और घर से नहीं गुजरने दूँगा। 
९. अपनी गलती को स्वीकार करना छाडू लगाने के समान है, जो अपने अन्दर को चमकदार बनाये रखती है।
१०. स्वच्छता आचरण में बादत बन जाये।
पढ़ते – पढ़ते (निरन्तर)..

Monday, 4 September 2023

आओ
तुम  भी
स्मरण कर लो
भूलने से पहले 
वह दर्द क्या था ?

दो पीढ़ियों ने झेली है 
वह असह्य वेदना
निरापराध सजा
तोड़ दी थी नशें
विकलांग जीने को
विवश कर दिया था
तुम्हारे पुरखों ने 
 चाहते हो जानना 
वह दर्द क्या था ?
 
आधी रात को
उठा लिया गया था
बीमार, बूढ़े बाप को
डाल दी गई थी
हाथ पैर में 
हथकड़ी और बेड़ियां 
 
बताते रहे वे 
निरपराध जन हूँ 
शिक्षक हूं
  लेखक हूं
 बर्तन,घी,गल्ले का
व्यावसायी हूं
  युवा-विद्यार्थी हूं
  मजदूर- अन्नदाता हूं
  पत्रकार हूं, समाजसेवी हूं
मार खा घिसटते रहे 

पूछोंगे नहीं !
क्या आपराध था उनका ?
स्वीकार नहीं था नेतृत्व
उन्हें तुम्हारा  
क्योंकि तुमने 
तोड़ी थी लोकतंत्र की मर्यादा 
अनदेखा किया था न्याय का आदेश 
हिला दिया था प्रजातंत्र के खम्भे 
बना दिया था गूंगा-बहरा 
सारे तंत्र को 

बस जनता ने जनता को
इतना ही तो बताया था

और 
तुमने 
 बंद कर दिया उन्हें 
काल कोठरी में
जड़ दिए ताले
मकान, दुकान पर
बिलखते भूखे परिवार को
बा़ंध दिया था 
थाना-पुलिस ने 
आतंकी धमकियों से
पूछोंगे नहीं क्यों ?
 
तुम्हारे 
आश्वासन के मार्ग पर
 चलना नहीं चाहता था जन 
सत्ता की कल्याणकारी योजनाएं !
बना रही थीं बधिया
जवान -बूढ़े -अपाहिज को भी   
बंद कर दी थी तुमने
प्रेस की आवाज
 चाहते थे 
उनके साथ
चल कर हत्या करता चलूं 
उनके दुश्मनों के नाम पर अपनों को 

सच तो यह था कि
तुमको हमारे सुख -दुख से
पिता के असामयिक मृत्यु से
बिलखती मां से
पथराई आंखों से
डायलिसिस पर पड़े बूढ़े से 
नहीं था कुछ भी सरोकार 
 
तोड़ दी थी 
न केवल बैसाखी परिवार की
बल्कि रौंद डाला था तुमने 
जनता के सपने
तोड़ दी थी हमारी टाँगें
व्यर्थ हो गया था
हमारा जीना न जीना

कोई दिलचस्पी नहीं थी
तुम्हारी देश दुनिया में 
चिंता थी तो सत्ता में बने रहने की

बुझ गया था आशा का सूरज
उनके  जुगनुओं के आश्वासन से

तुम्हारी  गरज
महज इतनी थी कि
जब तुम कहो  तब तुम्हारे  नारे में 
मेरा भी गला हो शामिल
तुम्हारे भाषण के लिखे
स्क्रिप्ट हम समाज में
नुक्कड़ चौराहों में 
मुनादी की तरह सुनाएँ 
जिससे बची रहे  
तुम्हारे कुचक्रों की सत्ता

किंतु दर्द सलाखों का
परिवार के होते विनाश का भी 
नहीं दिला सका  
अनुमोदन तुम्हारे स्याह-काले
इरादों को

आखिर तुम्हारा 
जमा क्रूर आसन
 डिगा, हिला,चरमराया
और धंसता गया
दिन -मास की गिनती के साथ 
जनता की आह में, कराह में

हां ! 
आज भी तुम काले बादल से
डरावने भूत से
विदेशी नक्कारों -नगाड़ों के साथ
छाये हो स्मृति पटल पर
दो कम पचास साल बाद भी।

किंतु 
अब भगवा किरणों ने
 दिया है
जीने का आश्वासन
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
अब तुम्हारी राह कठिन है
क्योंकि लोगों ने
उतार दिया है
तुम्हारा झंडा
तुम्हारे झंडे
अब जनता के झंडे नहीं हैं
तुम्हारी ताकत
हमारी ताकत नहीं है

हमें भर लिया है
वीर्यवान, धैर्यवान आश्वस्ति ने 
अपने बाजुओं में
 तुम्हारे पड़ोसियों को भी बता दी है
किस राह चलना है
 तय मंजिल पहुँचना है

हमने  प्रतिवर्ष 
तुम्हें भुलाते हुए
चलते-चलते बना ली है
दुर्गा दशप्रहरणधारिणी 
की मूर्ति 
तुम्हारे द्वारा रौंदे अधिष्ठान पर
जो दे रही है आश्वासन
उस काली छाया से  रक्षा की
समृद्धि की, एकात्मकता की
वसुधैव कुटुम्बकम् की
सर्वेभवन्तु सुखिन: की
जिसमें तुम्हारे वंशज भी शामिल हैं 

अब नहीं लगेगा आपातकाल 
मेरे पक्षधर न सही 
पर अब तुम भी 
बधुआ और पिट्ठू नहीं हो 
तुम्हें भी देश की खातिर 
चलना होगा हमारे साथ
हम दिलाते रहेंगे स्मरण
बार -बार इस दिन को
तब तक
जब तक तुम्हारे आंखों में 
 न दिखेगा शर्म का पानी,
झुक नहीं जायेगा 
माथा पछताबे से 

कायरता -भीरुता से अलग 
आत्म-सम्मान चाहिए तो
अब भी समझो तुम -हम 
हम हैं
और अब हमें 
स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर, जगद्गुरु ‘भारत’ होना है। 
आ जाओ साथ
या मार डालो अपनी जमीर को ।

   -उमेश  (25/6/23)

Monday, 28 August 2023

सफल राजनीति किंतु राष्ट्र नीति नहीं।

वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र सिंह जी आप ठीक कह रहे हैं किंतु -

यह सफल राजनीति होगी! किन्तु राष्ट्र नीति नहीं है। 

सत्ता रहेगी। व्यक्तिगत पद प्रतिष्ठा प्राप्त होगी। किंतु समाज का एक बड़ा तबका जेंडर कोई भी हो जिस तरह प्रलोभी और अकर्मण्य हो रहा है उसका क्या होगा?

समाजिक सम्मान,समानता समरसता के नाम पर आरक्षण के दंश से पीड़ित प्रतिभा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की शरण में देश -विदेश में कब तक शरणागत बधुआ मजदूर रहेगी।

आपको स्मरण होगा गरीबी उन्मूलन के समय और 1980 के आसपास से जिस तरह अर्जुन सिंह जी गरीबों के मसीहा बने थे, उसका हश्र क्या हुआ?

बोरा जी आये और उस काल से जो प्रदेश में तुष्टिकरण चला उसने सबसे पहले शिक्षा विभाग की रीढ़ तोड़ दी। बाद में दिग्विजय सिंह की अतिथि,संविदा,कर्मी विदेशी आयातित योजना ने प्रदेश के तंत्र को करप्शन और निठल्ले पन में ऐसा ढकेला। सड़कें, पुलिया तो धूल धूसरित गड्ढे में बदली ही थी, पंचायती राज ने पूरे गांवों को कई धड़ों में बांट दिया। तथाकथित अगड़ी -पिछड़ी सामाजिक संरचना में जबरदस्त खाई बढ़ती गई।

 आज शिवराज सिंह जी को भी सम्हालना कठिन हो रहा है। बल्कि उसी रास्ते पर चलना भी पड़ रहा है।

न चर्च कम हुए न मस्जिद और न ही श्रद्धा के नाम पर गली कूचों में खड़े होते जमीन अतिक्रमण के नाम पर मंदिर! 

ऊपर से करैला और नीम चढ़ा ब्यूरोक्रेट्स! गोविन्द नारायण सिंह के बाद अर्जुन सिंह जी और वीरेंद्र कुमार सकलेचा जी ही दो मुख्यमंत्री रहे जिनके आंख के इशारे से ब्यूरोक्रेट्स नाचते थे। 

मुख्यमंत्री की घोषणाएं विभाग और वित्त विभाग के बीच फुटबॉल बनी हैं। शीर्षस्थ ब्यूरोक्रेट्स का आपसी झगड़ा भी बड़ा कारण है।

एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द सारी सरकार घिर गई है। मंत्री अपने सचिवों से परेशान हैं तो ब्यूरोक्रेट्स अपने अधीनस्थ से। 

पहले मंत्रालय के अंडर सेक्रेटरी का फोन कलेक्टर को हड़बड़ा देता था,अब पीएस, एसीएस की बात कलेक्टर मानने बाध्य नहीं तो स्थानीय मंत्री, नेता की कौन सुनता है! सबके अपने-अपने आका जो हैं।

ऐसे में घोषणाओं के वशीकरण से सरकार भले किसी की  बन जाये असरकार दलों को दल-दल में फंसना अपरिहार्य है। 

किसी ने फेसबुक पर लिखा है कि इतनी कैडरवान पार्टियों में मंत्री के लिए 24 कैरेट छोड़िए आठारह कैरेट के 30 चेहरे नहीं मिलते हैं। फिर 200 से ऊपर लाने का नारा किसी तरफ का हो क्या संदेश दे रहा है?

Sunday, 16 July 2023

कठोपनिषद

 

कठोपनिषद

सामवेदीय शाखा का उपनिषद है । “ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥  ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥” यह उपनिषद आत्म-विषयक आख्यायिका से आरम्भ होता है । प्रमुख रूप से यम नचिकेता के प्रश्न प्रतिप्रश्न के रुप में है । नचिकेता के पिता , ऋषि अरुण के पुत्र उद्दालक लौकिक कीर्ति की इच्छा से विश्वजित (अर्थात विश्व को जीतने का) याग का अनुष्ठान करते हैं । याजक अपनी समग्र सम्पत्ति का दान कर दे यह इस यज्ञ की प्रमुख विधि है । इस विधि का अनुसरण करते हुए उसने अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी । उसके पास कुछ पीतोदक, जग्धतृण, दुग्धदोहा, निरिन्द्रिय और दुर्बल गाएँ  थीं । नचिकेता ने पिता से कहा, इस प्रकार के दान से तो आपका याग सफल न होगा न आपकी आत्मा का अभ्युदय होगा । संवाद में वह कहता है की आपमें सचमुच दान की भावना है तो मुझे दान कीजिये, "कहिये मुझे किसको दान में देने को तैयार हैं" - कस्मै मा दास्यसि ? पिता ने पुत्र की बात अनसुनी कर दी ; समझा नादान बालक है। जब नचिकेता ने देखा की उसका पिता उद्दालक उसकी बात पर ध्यान नहीं दे रहा है तो उसी प्रश्न को कई बार दोहराया - "मुझे किसे दोगे" ? तब क्रोधित होकर पिता ने कहा - तुझे मृत्यु को दान में देता हूँ (मृत्यवे त्वा ददामि)। यह सुन नचिकेता मृत्यु अर्थात यमाचार्य के पास गया और उनसे तीन वर मांगें  - पहला वर पिता का स्नेह मांगा। दूसरा अग्नि विद्या जानने के बारे में था। तीसरा वर मृत्यु रहस्य और आत्मज्ञान को लेकर था। इसी सवाद को लेकर यह उपनिषद सामने आता है ।

प्रश्नोपनिषद

 

 प्रश्नोपनिषद

: इस उपनिषद् के प्रवक्ता आचार्यपिप्पलाद थे जो कदाचित् पीपल के गोदे खाकर जीते थे। सुकेशा, सत्यकाम, सौर्यायणि गार्ग्य, कौसल्य, भार्गव और कबंधी, इन छह ब्रह्मजिज्ञासुओं ने इनसे ब्रह्मनिरूपण की अभ्यर्थना करने के उपरांत उसे हृदयंगम करने की पात्रता के लिये आचार्य के आदेश पर वर्ष पर्यंत ब्रह्मचर्य पूर्वक तपस्या करके पृथक्-पृथक् एक एक प्रश्न किया । इसके प्रथम तीन प्रश्न अपरा विद्या विषयक तथा शेष परा विद्या संबंधी हैं। प्रथम प्रश्न में प्रजापति सेसृष्टि की उत्पत्ति, द्वितीय प्रश्न में प्राण के स्वरूप , तीसरे प्रश्न में प्राण की उत्पत्ति तथा स्थिति का निरूपण किया गया है । पिप्पलाद ने चौथे प्रश्न में बताया की  स्वप्नावस्था में श्रोत्रादि इंद्रियों के मन मे लय हो जाने पर प्राण जाग्रत रहता है तथा सुषुप्ति अवस्था में मन का आत्मा में लय हो जाता है । वही द्रष्टा, श्रोता, मंता, विज्ञाता इत्यादि है जो अक्षर ब्रह्म का सोपाधिक स्वरूप है। इसका ज्ञान होने पर मनुष्य स्वयं सर्वज्ञ, सर्वस्वरूप, परम अक्षर हो जाता है । पाँचवे प्रश्न में बताया कि ओंकार में ब्रह्म की एकनिष्ठ उपासना एवं ॐ का एकनिष्ठ उपासक परात्पर पुरुष का साक्षात्कार करता है । अंतिम छठे प्रश्न में आचार्य पिप्पलाद ने दिखाया है कि इसी शरीर के हृदय पुंडरीकांक्ष में सोलहकलात्मक पुरुष का वास है । ब्रह्म की इच्छा, एवं उसी से प्राण, उससे श्रद्धा, आकाश, वाय, तेज, जल, पृथिवी, इंद्रियाँ, मन और अन्न, अन्न से वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक और नाम उत्पन्न हुए हैं जो उसकी सोलह कलाएँ और सोपाधिक स्वरूप हैं।

मुण्डकोपनिषद् :

 

मुण्डकोपनिषद् : मुंडकोपनिषद् दो-दो खंडों के तीन मुंडकों में, अथर्ववेद के मंत्रभाग के अंतर्गत आता है। इसमें पदार्थ और ब्रह्म-विद्या का विवेचन है, आत्मा-परमात्मा की तुलना और समता का भी वर्णन है। इसके मंत्र सत्यमेव जयते ना अनृतम का प्रथम भाग, यानि सत्ममेव जयते भारत के राष्ट्रचिह्न का भाग है । इस उपनिषत् में ऋषि अंगिरा और  शिष्य शौनक के संवाद हैं । इसमें 21, 21 और 22 के तीन मुंडकों में 64 मंत्र हैं ।

माण्डूक्योपनिषद्:

 

  माण्डूक्योपनिषद्: 

इस उपनिषद में कहा गया है कि विश्व में,  भूत-भविष्यत् - वर्तमान कालों में तथा इनके परे भी जो नित्य तत्त्व सर्वत्र व्याप्त है वह ॐ है । यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है।  इसमें आत्मा कि अभिव्यक्ति की - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय चार अवस्थाएँ बताई गई हैं । (ब्रह्म) के भेद का प्रपंच नहीं है और केवल अद्वैत शिव ही शिव रह जाता है ।

तैत्तरीयोपनिषद

 तैत्तरीयोपनिषद

तैत्तिरीयोपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली इन तीन खंडों में विभक्त है - कुल ५३ मंत्र हैं, जो ४० अनुवाकों में व्यवस्थित है । उपनिषद का आरंभ ब्रह्मविद्या के सारभूत 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्‌' मंत्र से होता है । ब्रह्म का लक्षण सत्य, ज्ञान और अनंत स्वरूप बतलाकर उसे मन और वाणी से परे अचिंत्य कहा गया है । इस उपनिषद् के मत से ब्रह्म से ही नामरूपात्मक सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और उसी के आधार से उसकी स्थिति है तथा उसी में वह अंत में विलीन हो जाती है।

ऐतरेयोपनिषद्:

 ऐतरेयोपनिषद्:

इस उपनिषद् में तीन अध्याय हैं । उनमें से पहले अध्याय में तीन खण्ड हैं तथा दूसरे और तीसरे अध्यायोंमें केवल एक-एक खण्ड हैं । प्रथम अध्याय में बतालाया है कि सृष्टि के आरम्भ में केवल एक आत्मा ही था, उसने लोक-रचना के लिये ईक्षण (विचार) किया और केवल सकल्प से अम्भ, मरीचि और मर तीन लोकोंकी रचना की । उनके लिये लोकपालो की रचना किया । परमात्मा की आज्ञा से उसके भिन्न-भिन्न अवयवों में वाक्, प्राण, चक्षु आदि स्थति हो गये। फिर अन्नकी रचना की गयी। देवताओं ने उसे वाणी प्राण चक्षु एवं श्रोत्रादि भिन्न-भिन्न कारणों से ग्रहण करना चाहा; परन्तु वे इसमें सफल न हुए । अन्त में उन्होंने उसे अपान द्वार ग्रहण कर लिया। इस प्रकार यह सारी सृष्टि हो जानेपर परमात्मा ने विचार किया कि अब मुझे भी इसमें प्रवेश करना चाहिये; क्योंकि मेरे बिना यह सारा प्रपंच अकिंचित्कर ही है। अतः वह उस पुरुष की मूर्द्धसीमा को विदीर्णकर उसके द्वारा उसमें प्रवेश किया कर गया । इस प्रकार ईक्षण से लेकर परमात्मा के प्रवेशपर्यन्त जो सृष्टिक्रम बतलाया गया है ।

छान्दोग्योपनिषद्

 

छान्दोग्योपनिषद्  

इसके आठ प्रपाठकों में प्रत्येक में अनेक खण्ड हैं । यह उपनिषद ब्रह्मज्ञान के लिये प्रसिद्ध है । संन्यासप्र धान इस उपनिषद् का विषय अपाप, जरा-मृत्यु-शोक रहित, विजिधित्स, पिपासा रहित, सत्यकाम, सत्यसंकल्प आत्मा की खोज तथा सम्यक् ज्ञान है । प्रपाठक आठ के खण्ड १५ के अनुसार इसका प्रवचन ब्रह्मा ने प्रजापति को, प्रजापति ने मनु को और मनु ने अपने पुत्रों को किया जिनसे इसका जगत् में विस्तार हुआ। यह निरूपण बहुधा ब्रह्मविदों ने संवादात्मक रूप में किया। श्वेतकेतु और उद्दालक, श्वेतकेतु और प्रवाहण जैबलि,सत्यकाम जाबाल और हारिद्रुमत गौतम, कामलायन उपकोसल और सत्यकाम जाबाल, औपमन्यवादि और अश्वपति कैकेय, नारद और सनत्कुमार, इंद्र और प्रजापति के संवादात्मक निरूपण उदाहरण सूचक हैं।

बृहदारण्यकोपनिषद्:

 

बृहदारण्यकोपनिषद्: 

बृहदारण्यक अद्वैत वेदान्त और संन्यासनिष्ठा का प्रतिपादक है । यह उपनिषदों में सर्वाधिक बृहदाकार है तथा मुख्य दस उपनिषदों के श्रेणी में सबसे अंतिम उपनिषद् माना जाता है । इसमें जीव, ब्रह्माण्ड और ब्रह्म (ईश्वर) के बारे में कई बाते कहीं गईं है । यजुर्वेद के प्रसिद्ध पुरुष सूक्त के अतिरिक्त इसमें अश्वमेध, असतो मा सद्गमय, नेति नेति जैसे विषय हैं। इसमें ऋषि याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का संवाद है, जो अत्यन्त क्रमबद्ध और युक्तिपूर्ण है। इसके नाम (बृहदारण्यक = बृहद् + आरण्यक) का अर्थ 'बृहद ज्ञान वाला' या 'घने जंगलों में लिखा गया' उपनिषद है । इस उपनिषद् का ब्रह्मनिरूपणात्मक अधिकांश उन व्याख्याओं का समुचच्य है जिनसे अजातशत्रु ने गार्ग्य बालाकि की, जैवलि प्रवाहण ने श्वेतकेतु की, याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी और जनक की तथा जनक के यज्ञ में समवेत गार्गी और जारत्कारव आर्तभाग इत्यादि आठ मनीषियों की ब्रह्म जिज्ञासा निवृत्त की थी।

श्वेताश्वतरोपनिषद् :

 

श्वेताश्वतरोपनिषद् 

श्वेताश्वतर उपनिषद् में छह अध्याय और 113 मंत्र हैं । उपनिषद् का यह नाम श्वेताश्वतर ऋषि के कारण प्राप्त है । मुमुक्षु संन्यासियों के कारण ब्रह्म क्या है अथवा इस सृष्टि का कारण ब्रह्म है अथवा अन्य कुछ हम कहाँ से आए, किस आधार पर ठहरे हैं, हमारी अंतिम स्थिति क्या होगी, हमारे सुख दु:ख का हेतु क्या है, इत्यादि प्रश्नों के समाधान में ऋषि ने जीव, जगत्‌ और ब्रह्म के स्वरूप तथा ब्रह्मप्राप्ति के साधन बतलाए हैं और यह उपनिषद सीधे योगिक अवधारणाओं की व्याख्या करता है। इसमें बताया गया है की ध्यान (योग) की स्वानुभूति से प्रत्यक्ष देखा गया है कि सब का कारण ब्रह्म की शक्ति है और वही इन कथित कारणों की अधिष्ठात्री है । इस शक्ति को ही प्रकृति, प्रधान अथवा माया की अभिधा प्राप्त है । यह अज और अनादि है, परंतु परमात्मा के अधीन और उससे अस्वतंत्र है । वस्तुत: जगत्‌ माया का प्रपंच है । वह क्षर और अनित्य स्थूल देह में, सूक्ष्म अथवा लिंग शरीर जो कर्मफल से लिप्त रहता है उसके साथ जीवात्मा जन्मांतर में प्रवेश करता है । इसे ब्रह्मचक्र  या विश्वमाया कहा गया है । जब तक अविद्या के कारण जीव अपने को भोक्ता, जगत्‌ को भोग्य और ईश्वर को प्रेरिता मानता अथवा ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान को पृथक्‌ पृथक्‌ देखता है तब तक इस ब्रह्मचक्र से वह मुक्त नहीं हो सकता  । ब्रह्म का श्रेष्ठ रूप निर्गुण, त्रिगुणातीत, अज, ध्रुव, इंद्रियातीत, निरिंद्रिय, अवर्ण और अकल है । वह न सत्‌ है, न असत्‌, जहाँ न रात्रि है न दिन, वह त्रिकालातीत है । देह में व्याप्त ब्रह्म का प्रणव द्वारा निरंतर ध्यान करके उसका साक्षात्कार किया जा सकता है। इसमें प्राणायाम और योगाभ्यास की विधि विस्तारपूर्वक बतलाई गई है ।

श्रीमद्भगवतगीत

 

श्रीमद्भगवतगीत

       कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था । वह श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है ।  मूलत: यह संस्कृत महाकाव्य महाभारत की एक उपकथा के रूप में प्रारम्भ होता है । आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व भगवान् कृष्ण ने अपने  भक्त अर्जुन को श्रीमद्भगवतगीता  का उपदेश दिया था । यह मानव इतिहास की सबसे महान दार्शनिक तथा धार्मिक वार्ताओं में से एक है । यह महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है । गीता में १८ अध्याय और ७०० श्लोक हैं ।प्रत्येक अध्याय एक-दूसरे से गुथे हुए हैं और निरन्तर हैं । गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी संमिलित हैं। अतएव भारतीय ज्ञान  परंपरा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों का है । गीता के माहात्म्य में उपनिषदों को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। गीता अध्यात्म विद्या है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं । जैसे, सांसारिक स्वरूप, के  अश्वत्थ विद्या,  अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति के विषय में अक्षर पुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार वेदों के ब्रह्मवाद और उपनिषदों के अध्यात्म, इन दोनों की विशिष्ट सामग्री गीता में संनिविष्ट  होने से उसे ब्रह्मविद्या कहा गया है । गीता में 'ब्रह्मविद्या' का आशय निवृत्ति परक ज्ञानमार्ग से है। गीता में योगशास्त्रेशब्द है । यहाँ योगशास्त्रेका अभिप्राय नि:संदेह कर्मयोग से ही है । गीता में योग की दो परिभाषाएँ पाई जाती हैं । एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें समत्वं योग उच्यतेकहा गया है । योग की दूसरी परिभाषा है योग: कर्मसु कौशलमअर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञान मार्गियों को मिलती है । इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है ।

                  श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम मेरे परममित्र हो इसलिए तुम्हें मैं यह विद्या सिखा रहा हूं । अर्जुन कहते हैं कि आप भगवान परमधाम, पवित्रतम, परमसत्य हैं । आप शाश्वत, दिव्य आदिपुरुष, अजन्म तथा महानतम हैं । नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे समस्त महामुनि इस बात की पुष्टि करते हैं । आपने जो कहा है, उसे पूर्ण रूप से मैं सत्य मानता हूं । हे प्रभू न तो देवता और न असुर आपके व्यक्तिव को समझ सकते हैं । श्रीमद्भगवदगीता की विषय वस्तु में पांच मूल सत्यों का ज्ञान निहित है, यथा- ईश्वर क्या है, जीवक्याहै, प्रकृतिक्याहै, दृश्य जगत क्या है तथा यह काल द्वारा किस प्रकार नियंत्रित है और जीवों के कार्यकलाप क्या हैं । गीता में भौतिक प्रकृति को अपरा प्रकृति तथा जीव को परा प्रकृति कहा गया है । भौतिक प्रकृति तीन गुणों से निर्मित है- सतोगुण, रजोगुण एवं तमोगुण । इन्हीं तीनों गुणों से प्रत्येक जीव कर्मफल का दुख और सुख भोगते हैं । यही कर्म कहलाता है । भौतिक प्रकृति ( अपरा ) परमेश्वर की भिन्ना शक्ति है ।  परम ईश्वर की स्थिति परम चेतना स्वरूप है । जीव भी ईश्वर अंश होने से चेतन है । लेकिन दोनों में अंतर है । ईश्वर, जीव, प्रकृति, काल तथा कर्म में से कर्म को छोड़कर चार शाश्वत हैं । जीव बद्ध होता है । अर्थात व्यक्ति देहात्म बुद्धि में लीन रहने से अपने स्वरूप को भूल जाता है ।  गीता में बताया गया है कि ब्रह्म भी पूर्ण परमपुरुष के अधीन है । पूर्ण भगवान में अपार शक्तियां हैं । सांख्य दर्शन के अनुसार यह भौतिक जगत भी 24 तत्वों से भी समन्वित होने के कारण पूर्ण है । वैज्ञानिक शोध गीता की इस दृष्टि को पकड़ नहीं पाते हैं क्योंकि वे इंद्रियों पर आधारित हैं । गीता में प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार के कर्मों का उल्लेख है- सात्विक कर्म, राजसिक कर्म तथा तामसिक कर्म । इसी प्रकार सात्विक, राजसिक तथा तामसिक आहार के भी तीन भेद हैं । गीता में जीव और ईश्चर दोनों को सनातन बताया गया है । अत: गीता संदेश देती है कि हमें सनातन धर्म को जागृत करना है जो कि जीव की शाश्वत वृत्ति है, इसलिए सनातन धर्म किसी साम्प्रदायिक धर्म का सूचक नहीं है । जिसका न आदि है और न अंत है वह सनातन है । सनातन धर्म विश्व के समस्त लोगों का ही नहीं अपितु ब्रह्मा के समस्त जीवों का है । गीता मानती है किजिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा चुरा ली गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा करते हैंभगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरा परमधाम न तो सूर्य या चंद्रमा द्वारा, न ही अग्नि या बिजली द्वारा प्रकाशित होता है । जो लोग वहां पहुंच जाते हैं वे फिर कभी नहीं लौटते हैं, इसे गो लोक कहते हैं । गीता के पंद्रहवें अध्याय में भौतिक जगत का चित्रण करते हुए कहा है भौतिक जगत वह वृद्ध है जिसकी जड़े उर्ध्वमुखी हैं और शाखाएं अधोमुखी हैं । यह भौतिक जगत आध्यात्मिक जगत का प्रतिबिंब है । अत: इस अध्यात्मिक जगत को झूठे भौतिक भोगों के आकर्षणों में मोहग्रस्त जीव या मनुष्य प्रवेश नहीं कर पाता है । गीता कहती हैं कि मृत्यु के समय ब्रह्म का चिंतन करने से वह जिस भाव को स्मरण करता है अगले जन्म में उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है।  इसलिए हे अर्जुन !  कृष्ण के रूप मेरा सदैव चिंतन करो और युद्ध कर्म करते रहो । अर्जुन कहते हैं कि हे मधुसूदन ! आपने जिस योग पद्वति का संक्षेप में वर्णन किया है वह मेरे लिए अव्यवहारिक असहय प्रतीत होती है क्योंकि मन अस्थिर तथा चंचल है । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन ! जो व्यक्ति पथ पर विचलित हुए बिना अपने मन को निरंतर मेरा स्मरण करने में व्यस्त रखता है और भगवान के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य प्राप्त होता है ।

              सारांश यह कि श्रीमद्भगवदगीता दिव्य साहित्य है जिसके अंदर मनुष्य की मुक्ति के लिए कर्म, ज्ञान और भक्तियोग का विस्तार से वर्णन किया गया है । अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हेअर्जुन ! “ सब धर्मों को त्यागकर मेरी ही शरण में आओ। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा । तुम डरो मतव्यास संजय के गुरु थे और संजय स्वीकार करते हैं कि व्यास की कृपा से वह भगवान को समझ सके और गीता के अंत में धृतराष्ट से कहाआप अपनी विजय की बात सोच रहे हैं लेकिन मेरा मत है कि जहां श्रीकृष्ण और अर्जुन उपस्थित हैं वहीं सम्पूर्ण श्री होगी ।