केनोपनिषद
इसमें 'केन'
(किसके द्वारा) का विवेचन होने से इसे 'केनोपनिषद'
कहा गया है । इसके चार खण्ड हैं। प्रथम और द्वितीय खण्ड में
गुरु-शिष्य की संवाद-परम्परा द्वारा उस (केन) प्रेरक सत्ता की विशेषताओं, उसकी गूढ़ अनुभूतियों आदि पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे और चौथे खण्ड में देवताओं में अभिमान तथा
उसके मान-मर्दन के लिए 'यज्ञ-रूप' में
ब्राह्मी-चेतना के प्रकट होने का उपाख्यान है। अन्त में उमा देवी द्वारा प्रकट
होकर देवों के लिए 'ब्रह्मतत्त्व' का
उल्लेख किया गया है तथा ब्रह्म की उपासना का ढंग समझाया गया है। मनुष्य को 'श्रेय' मार्ग की ओर प्रेरित करना, इस उपनिषद का लक्ष्य हैं।
ऊँ •ेनेषितं पतति प्रेषितं मन: •ेन प्राण: प्रथम: पै्रति युक्त:।
•ेनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षु: श्रोत्रं • उ देवो युनक्ति। (•ेन./1/1)
इसे ही उपनिषदों ने •हा है -
ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिष्यते।।
तब ए• दिन मुण्ड•ोपनिषद •ा ऋषि फट•ारता हुआ •हता है-
परीक्ष्य लो•ान् •र्मचितान् ब्राह्मणो
निर्वेदमायात् नास्ति अ•ृत: •ृतेन।
तद्धिज्ञानार्थंं स गुरुमेवाभिगच्छेत
इस तरह से जीवन •े सत्य •ो जानने •ी इच्छा ने शाश्वत, अविनाशी, असीम •ी खोज प्रारंभ •ी और ए• दिन उन्होंने सत्य •ो जाना-
ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन
देवात्मशक्तिं स्वगुणैनिगूढ़ाम।। (श्वे.1/13)
-ध्यानयोग •ो विषय बना•र मन •ी खोज प्रारंभ •ी। अपने गुणों में निहित ब्रह्म •ो देखा। और गदगद •ंठ से पु•ार उठे-
श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा
आ ये धामानि दिव्यानि तस्यु:।
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम
आदित्यवर्णं तमस: परस्तात।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति
नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।। (श्वेता.2/5,3/8)
-अहो विश्व •े निवासियो! अमृत पुत्रो! सुनो। दिव्य लो•ों में रहने वाले देवताओं, तुम लोग भी सुनो। मैंने सूर्य •े समान चम•ीले उस महान् पुरुष •ो जान लिया है, जो समस्त अज्ञान-अन्ध•ार से परे है। •ेवल उसी •ो जान•र मृत्यु •ी विभीषि•ा •ो पार •िया जा स•ता है। इससे भिन्न दूसरा रास्ता नहीं है।
स्वर्ग प्राप्त •ी •ामना से यज्ञ •रना उचित नही-
प्लवा हि एते अदृढा यज्ञरूपा
अष्टादशेक्त्म् अवरं येशु •र्म।
एतत् श्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढ़
जरामृत्युं ते पुनरेवाति यन्ति।। (मुण्ड.1/2/5)
ऋषि •हता है, 'अरे मूर्खों ! यदि तुमने यज्ञ •ो भव सागर पार •रने •ी नौ•ा माना है तो बड़ी भूल •ी है। यह यज्ञ रूपी नौ•ा तुम्हारी जीर्ण शीर्ण है। इसमें सोलह ऋत्विज और यजमान एवं एजमान •ी पत्नी ऐेसे अठारह लोग बैठे हैं, वे सब नीच •र्म •रने वाले हैं और सब•े सब मँझधार में डूबेगें। जो मूढ़ इस यज्ञ •ो •ल्याण•र मानते हैं, वे बुढ़ापा और मृत्यु •े फन्दे में बारम्बार फँसते हैं।ÓÓ
ईशावास्य उपनिषद् में इस प्र•ार •े सं•ेत मात्र दिखाई देता है, जहाँ गुरु शिष्य से सिद्धांत प्रतिपादित •रते हुए •हता है- ''ईषावास्यम् इदं सर्वं यत्•िंच जगत्यां जगत्। तेन त्येक्तेन भुञ्जिथा मा गृध: •स्य स्विद् धनम।ÓÓ
•ुर्वन्नेवेह •र्माणि जिजीविषेच्छतँ समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न •र्म लिप्यते नरे।। (ईशो-1/1-2)
अर्जुन से सभी •ार्य •ो यज्ञ बना लेने •ो •हते हैं-
यज्ञार्थात् •र्मणोऽन्यत्र लो•ोऽयं •र्मबंधन।
तदर्थं •र्म •ौन्तेय मुक्तसंग: समाचर।। (गीता-3/9)
अर्थात सारा •र्म भगवत्समर्पित बुद्धि से •र्म •रना। ए• प्रश्न •ा और समाधान भगवान •रते हैं, •हते हैं इस बहाने दुष्•र्म •ो भी भगवान •ो अर्पित •र •िया जा स•ता है क्या ? भगवान •हते हैं-
•िं •र्म •िम•र्मेति •वयोऽप्यत्र मोहिता:।
तŸो •र्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽषुभात।। (गीता- 4/16)
हे पार्थ! •र्म क्या है, अ•र्म क्या है इस सम्बन्ध में मनीषी जन भी भ्रमित हैं। अत: मैं •र्म •ा मर्म तुझे समझाता हँू, जिसे जान•र तू अशुभ से मुक्त हो जा।
•र्मणो ह्यति बोद्धव्यं बोद्धव्यं च वि•र्मण:।
अ•र्मणश्च बोद्धव्यं गहना •र्मणों गति:।। (गीता-4/17)
अर्थात •र्म •े तीन रूप हैं- •र्म, अ•र्म और वि•र्म। इसीलिए भगवान ने •हा-
उद्धरेदात्मनात्मनं नात्मनामवसादयेत।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।। (गीता-6/5)
मनुष्य •ो चाहिए •ि वह अपना स्वयं •ा उत्थान •रे और अपने •ो गिरने न दे; क्यों•ि वह स्वयं अपना मित्र और शत्रु भी है। इस प्र•ार •र्म संस्•ार उस•ो लिप्त न •र स•ें।
मनुष्य यह •र्म •रता हुआ सौ वर्ष त• जिये-
'पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतमं श्रृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: शरद: शतम्।Ó
(शुक्ल यजु. 36/24)
भगवान •हते हैं इस•ा प्रभाव यह होता है •ि -
पश्यन् श्रृण्वन् स्पृर्शन् जिघ्रन अश्नन् गच्छन् स्वपन् श्वसन।
प्रलपन् विसृजन् गृहणन उन्मिषन् निमिषन् अपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्। (गीता-5/8-9)
अर्थात ऐसी समत्व एवं समर्पित बुद्धि से •िया गया •ार्य जब हम •रते हैं तो हमारे यह सारे •ार्य -देखना, सुनना, स्पर्शर् •रना, गंध लेना, खाना, चलना, सोना आदि सभी यज्ञमय हो जाते हैं। आगे •हते हैं -
ब्रह्मण्याधाय •र्माणि संगत्यक्त्वा •रोति य:।
लिप्यते न स पापेन पद्यपत्रमिवाम्भसा।। (5/10)
जो ब्रह्म •ा आश्रय और आधार मान•र, आसक्ति •ा त्याग •रते हुए, •र्तव्य •र्म •रता है, वह जल में •मलपत्रवत् पाप से अलिप्त रहता है। यही गीता •ी चरमावस्था है, यही ब्रह्मनिष्ठा और स्थितप्रज्ञता है।
गीता में योग •ो दो प्र•ार से परिभाषित •िया गया है-'योगा: •र्मसु •ौशलम्Ó और 'समत्वं योग उच्यतेÓ। वस्तुत: जब इन दोनों •ो ए• साथ जोड़ा जाय तो उसे योग •हते हैं और इस•ा परिणाम तब सामने आता है। जब हम -'ब्रह्मणि आधाय •र्माणि संगं त्यक्त्वा •रोति य:Ó।
इसीलिए भगवान •हते हैं-
•र्मणिएव अधि•ारस्ते मा फलेषु •दाचन।
मा •र्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्व•र्मणि।। (गीता-2/47)
दो आदमी हैं, दोनों •टहल •ाट रहे हैं। •टहल •ाटने •े बाद देखा तो ए• •े हाथ में दूध ही दूध चिप•ा है तो दूसरे •े हाथ में ए• भी बूँद दूध नही लग पाया। इसमें •र्म •ी •ुशलता •िसमें है तो स्पष्ट है जिस•े हाथ में ए• भी बँूद दूध नहीं लगा।
इसे ही 'पद्यपत्रमिवाम्भसाÓ •हा।
गीता ने •हा-
सहजं •र्म •ौन्तेय सदोशम् अपि न त्यजेत।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:।। (18/48)
ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिष्यते।।
ऊँ शांति शांति शंति: ।।
ऊँ ईषा वास्यमिदँ् सर्वं यत्•िंच जगत्यां जगत्।
तेन त्येक्तेन भुंजीथा मा गृध: •स्यस्विद्धनम।।
•ुर्वन्नेवेह •र्माणि जिजीविषेच्छतँ् समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न •र्म लिप्यते नरे।।-2
•ेन-उपनिषद
ऊँ शांति मंत्र
ऊँ आप्यायनतु ममांगानि वा•् प्राणश्चक्षु:
श्रोत्रमयो बलम् इन्द्रियाणि च सर्वाणि।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं, माहं ब्रह््म निरा•ुयां, मा मा ब्रह््म निरा•रोद्,
अनिरा•रणमस्तु, अनिरा•रणं मेंऽस्तु।
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्तेमयि सन्तु, ते मयि संन्तु।
ऊँ शांति शांति शांति:
ऊँ •ेनेषितं पतति प्रेषितं मन:
•ेन प्राण: प्रथम: प्रैति युक्त:।
•ेनेषितां वाचमिमां वदन्ति
चक्षु श्रोत्रं • उ देवो युनक्ति।। 1
गुरु •ा उत्तर-
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्
वचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राण:।
चक्षुशष्चक्षु: अतिमुच्य धीर:
प्रेत्यास्माल्लो•ादमृता भवन्ति।।2
समाधान- इसमें •ोई दोष नहीं है। अन्य श्रुतियाँ भी •हती हैं- 'आत्मना एवं अयं ज्योतिषा अस्तेÓ। (बृ.उ.4/3/6)-
तब वह पुरुष आत्मा •ी ज्योति से स्थित रहता है।
'तस्य भाषा सर्वम् इदं विभातिÓ। (•.उ.2/2/15, श्वे.उ.6/1/4, मु.उ.2/2/10) -उस•े प्र•ाश से ही यह सब प्र•ाशित होता है।
'येन सूर्य: तपति तेजसा इन्द:Ó (तै.ब्रा.3/12/9/7)- जिस•े तेज से प्रदीप्त हो•र सूर्य तपता है।
'यदि आदित्यगतं तेजो जगद्धासयते अखिलमÓ (. गीता 15/12)- सूर्य •ा जो प्र•ाश सारे जगत •ो प्र•ाशित •रता है, उसे तू मेरा ही समझ।
'क्षेत्रं क्षेत्री तथा •ृत्स्नं प्र•ाशयति भारतÓ (गीता 13/33)- हे अर्जुन,उसी प्र•ार ए• ही आत्मचैतन्य संपूर्ण शरीर •ो प्र•ाशित •रता है।ÓÓ
'नित्यो अनित्यानां चेतन: चेतनानाम:Ó। (•ठो.उ.3/12/9/7)-अनित्य वस्तुओं में वह नित्य है, चेतनामय पदार्थों में वह चैतन्य (आत्मा) है।
'स उ प्राणस्य प्राण:Ó वह प्राणों •ा भी प्राण है। •ेन.
तब ऋषि •हता है -
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्-गच्छति नो मनो।
न विद्यो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात।। 3
भावार्थ- वहाँ (ब्रह्म में) नेत्र नहीं जाते, वाणी नहीं जाती और मन भी नहीं जाता। हम ब्रह्म •ा लक्षणों •ो भी नहीं जानते, अत: मन वाणी •े अतीत होने •े •ारण हमें नहीं मालूम •ि उस•ा वर्णन •ैसे •रूँ।
अन्यदेव तद्धिदितादधो अविदितादधि
इति शुश्रुम पूर्वेषां यं नस्तद्धयाचचक्षिरे।
भावार्थ- यह ब्रह्म ज्ञात वस्तुओं से भिन्न है और फिर अज्ञात वस्तुओं से भी परे है- ऐसा हमने अपने पूर्वजों से सुना है, जिन्होंने हमारे लिए इस•ी व्याख्या •ी थी।
ब्रह््म ज्ञान •े अतिरिक्त देवताओं •े विजय •े अभियान •े समान जीव •ो •र्त्तव्य, भोक्तृत्व •ा अभियान •रना व्यर्थ है।
' ब्रह््म ह देवेम्यो विजिग्ये। तस्य ह
ब्राह्मणों विजये देवा अमहीयन्त।। Ó 14. •ेन
उन यक्ष •ो न जाने हुए देवतागण भय •े साथ आपस में विर्मर्श •र जातवेद: अग्नि •ो जो जन्म से ज्ञानी होने से जातवेद •हलाते हैं •ो •हा •ि जाओं और पता •रों •ि यह पूज्यमूर्ति •ौन है।16
आगे उपनिषद •हता है- 'तास्ते प्रेत्याभिगच्दन्तिÓ, अज्ञान से आच्छादित हो•र पशु और वनस्पतियोंं •े रूप हमें प्राप्त होते हैं। 'असुरो •ा लो•ाÓ अर्थात 'तमसावृता:Ó •ो असुर लो• •हा। 'आत्महनो जनाÓ आत्मा •ो माने वाले अर्थात 'तमसावृता:Ó •ो असुर लो• •हा। यही आत्म हत्या है। तभी हमारा ऋषि •हता है 'तमसो मां ज्योर्तिगमयÓ। हम अमर हैं, यह बोध प्राप्त न होना ही आत्मघाती स्थिति है।
आत्मा •ो •ैसे समझे ? इस•ा लक्षण क्या है?
''स पर्यगाच्छु•्रम•ायमव्रणमस्नाविरं शुद्धम पापविद्धम।
(न अन्यो अतो अस्ति द्रष्टा। बृउ 3/8/11 अर्थात इस आत्मा •े अतिरिक्त •ोई द्रष्ट्रा नहीं है।) परिभू: •ा दूसरा अर्थ बिना माता पिता •े जन्म लेने वाला।