Monday, 6 November 2023

ईशोपनिषद:

 

ईशोपनिषद:  

यह उपनिषद् कलेवर  में छोटा है किन्तु विषय के कारण अन्य उपनिषदों के बीच महत्त्वपूर्ण  है। इस उपनिषद् के पहले मंत्र ‘‘ईशावास्यमिदंसर्वंयत्किंच जगत्यां-जगत…’’से लेकर अठारहवें मंत्र ‘‘अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देववयुनानि विद्वान्…’’  तक   में ईश्वर, ब्रह्मांड और सात्विक जीवन शैली को बताया गया है। इसमें ‘असुर्या’ वह लोक जहाँ सूर्य नहीं पहुँच पाता में कहा गया है कि जो लोग आत्म को, ‘स्व’ को नहीं पहचानते हैं, उन्हें मृत्यु के पश्चात् उसी असुर्या नामक लोक में जाना पड़ता है । आत्म’ में ब्रह्म को एकाकार करते हुए बताया है कि वह एक साथ, एक ही समय में भ्रमणशील है, साथ ही अभ्रमणशील भी । वह पास है और दूर भी।  वह सर्वव्यापी, अशरीरी, सर्वज्ञ, स्वजन्मा और मन का शासक है। इस उपनिषद् में विद्या एवं अविद्या दोनों की बात की गई है कि विद्या एवं अविद्या दोनों की उपासना करने वाले घने अंधकार में जाकर गिरते हैं, हाँ विद्या एवं अविद्या को एक साथ जान लेने वाला, अविद्या को समझकर विद्या द्वारा अनुष्ठानित होकर अमरत्व को समझ लेता है। इसमें ब्रह्म के मुख को सुवर्ण पात्र से ढके होने की बात साथ ही सूर्य से पोषण करने वाले से प्रार्थना की। अंतिम श्लोकों में किए गए सभी कर्मों को मन के द्वारा याद किए जाने की बात आती है और अग्नि से प्रार्थना कि पंञभौतिक शरीर के राख में परिवर्तित हो जाने पर वह उसे दिव्य पथ से चरम गंतव्य की ओर उन्मुख कर दे।

  •र्म •ा विधान •िसे ?

अज्ञानी तथा स•ाम व्यक्ति •े लिये •र्म आवश्य• है।  ''सो अ•ामयत जाया में स्यातÓÓ (वृ.उ.1/4/17)

 वही उपनिषद •हता है- ' •िं प्रजया •रिश्यमों मे षां नो अयमात्मा अयं लो•:Ó अर्थात 'हमारी आत्मा ही हमारा लो• है अत: हम संतान ले•र हम क्या •रेगे? (बृ.उ. 4/4/22)। 

अत: श्वेतोपनिषद •ा ऋषि •हता है- '' अत्याश्रमिम्य: परमं पवित्रं प्रोवच सम्य•् ऋषि संगजुष्टमÓÓ । 1/6/21.

•र्म•ाण्ड और उपासना •ा समुच्चय होना चाहिए- ''अन्ध तम: प्रविशन्ति येऽपिद्यामुपासते। विद्यायाम = देवतोपासना और अविद्यायाम= •र्म•ाण्ड।

विद्या- 'सा विद्या या विमुक्तयेÓ।

''विद्या चाविद्यां च यस्तद्वेदोभय सह।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुतूÓ -ईष-11

देवताओं •ी पूजा •र•े आदमी सिद्धि •ो प्राप्त •रता है- 'ईश्वरीय गुणों •ो ऐश्वर्य •हते हैं। आठ ऐश्वर्य या सिद्धियाँ इस प्र•ार हैं-

''अणिमा महिमा तथा गरिमा लघिमा तथा।

ईषित्वं च वषित्वं च प्राप्ति: प्र•ाम्यमेव च।।

अर्थात शूक्ष्म हो जाना, विषाल हो जाना, भारी हो जाना, हल्•ा हो जाना, शास• बन जाना, वश में •र लेना, इच्छानुसार वस्तु •ी प्राप्ति और जैसा चाहे  वैसा रूप बना लेना।

''सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेभीय सह।

विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुतेÓÓ -

अर्थात जो असंम्भूत अर्थात •ारण ब्रह्म तथा विनाश अर्थात •ार्य ब्रह्म (हिरण्यगर्भ)-दोनों •ो साथ साथ उपासना •रने योग्य जानता है, वह •ार्य-ब्रह्म •ी उपासना से मृत्यु •ो पार •र•े •ारण-ब्रह्म •ी उपसना से अमृत अर्थात् प्र•ृतिलय •ी अवस्था •ो प्राप्त •रता है। ईषा-14  अर्थात सभी जीव अपनी आत्मा ही हो जाते हैÓÓ ('आत्मा-एव-अभूद्-विजानत:Ó)

ऋषि •हता है-

''हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम।

 तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।

अर्थात हे जगत •े पोश•! (पूषा) सूर्यदेव स्वर्णिम पात्र (हिरण्यगर्भ) •े द्वारा सत्य (•ार्यब्रह्म) •ा जो मुँह ढ•ा हुआ है, मुझ सत्यधर्मा (उपास•) •े दर्शन हेतु वह ढक्कन हटा दीजिए। ईषा.15

''पूषान्ने•र्षे यम सूर्य प्रजापत्य व्यूह रश्मीन्समूह तेजा 

यत्ते रूपं •ल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुष: सोऽहमास्मि।। 16 ईषा

अर्थात जगत •ा पोशण •रने •े •ारण सूर्य •ो पूषा •हते है; अत: हे पूषा! (गगन में) ए•ा•ी विचरण •रने •े •ारण वे ए•र्षि •हे जाते हैं; (अत:) हे ए•र्षि, प्राणों तथा रसों •ो खीच लेने •े •ारण वे सूर्य •हलाते हैं; (अत:) हे सूर्य! प्रजापति •े पुत्र होने से वे प्राजापत्य हैं: (अत:) हे प्राजापत्य! अपनी रश्मियों •ो व्यूह अर्थात हटाइये। अपने तेज अर्थात् ताप देनेवाले प्र•ाश •ो ए•त्र •र•े खीच लीजिए।16, ईषा.

''वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त शरीरम।

ऊँ •्रतो स्मर •ृतँ स्मर •्रतो स्मर •ृतँ स्मर।।

अर्थात अब मेरा प्राण सर्वव्यापी वायु में विलीन हो जाय; मेरा शरीर भस्म में परिणत हो जाय। ऊँ, हे मेरे मन! अब त• अपने द्वारा •िये हुए •र्म तथा उपासनाओं •ा स्मरण •रो, स्मरण •रो।17 ईषा.

व्याहृतियाँ- भू:, भुव: तथा स्व:- ये तीन व्याहृतियाँ हैं। (तै.उ. 1/5/1) । इनमें से 'भू:Ó अर्थात पृथ्वी •ा सिर है, 'भुव:Ó अर्थात आ•ाश उस•ी दो भुजाएं हैं और 'स्व:Ó अर्थात स्वर्ग उस•े दो चरण हैं। (बृ.उ.5/5/3)

''अग्रे नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठंते नम उक्तिं विधेम।।ÓÓ 18

अर्थात हे अग्नि! हे देव! आप हमारे समस्त •र्म फलों •े ज्ञाता हैं; हमें अपने •र्मफलों •ा भोग •राने •े लिए अच्छे मार्ग से ले चलिए। •ुटिल पापों •ो हमसे दूर •ीजिए। हम आप•ो बारम्बार नमन •रते हैं।

इस तरह से ईषोपनिषद में ऋषि सूर्य और अग्नि देव से प्रार्थना •रता है •ि उसे अमृत •ी ओर ले चलो।

इस तरह से ऋषि अविद्या (•र्म) •े द्वारा मृत्यु •ो पार •र•े विद्या (उपासना) •े द्वारा अमृतत्व •ो प्राप्त •र लेता हैÓÓ  वह विनाश •े (•ार्यब्रह््म) •े द्वारा मृत्यु •ो पार •र•े, सम्भूति (•ारणब्रह्म) •ी उपासना से अमृतत्व •ी प्राप्ति •र लेता है।ÓÓ 


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