Monday, 13 November 2023

वेद

मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः

सूक्त 1

1

अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ।। (अग्निम् ईळे) में।

 दिव्यज्वालारूप अग्निदेवकी उपासना करता हूं जो (पुरः- हितम्) पुरोहित है, (यज्ञस्य देवम् ऋत्विजम्) यज्ञका दिव्य ऋत्विक् है, (होतारम् ) ऐसा आवाहक है जो ( रत्नधातमम्) आनन्दैश्वर्यको अत्यधिक प्रतिष्ठित करता है।

2

अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत । स देवाँ एह वक्षति ॥ (पूर्वेभिः ऋषिभिः)

 प्राचीन ऋषियों द्वारा (ईड्यः) उपास्य वह (अग्निः) अग्निदेव (नूतनैः उत) नवीन ऋषियों द्वारा भी (ईड्यः) उपास्य है। (सः) वह (देवान्) देवोंको (इह) यहाँ (आ वक्षति) लाता है।

3

अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे । यशसं वीरवत्तमम् ।। 

(अग्निना) अग्निदेवके द्वारा मनुष्य ( रयिम् अश्नवत्) उस ऐश्वर्यंका उपभोग करता है जो (दिवे-दिवे पोषम् एव) निश्चय ही दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है, (यशसम्) यशसे उज्ज्वल है और (वीरवत्तमम्) वीरशक्तिसे अतिशय पूर्ण है ।

अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि । स इद् देवेषु गच्छति ॥

 (अग्ने) हे अग्निदेव ! ( यम् अध्वरं यज्ञं विश्वतः) जिस यात्रा-यज्ञके चारों ओर तू (परिभू: असि) अपनी सर्वतोव्यापी सत्तासे विद्यमान होता है, वह यज्ञ सचमुच ही (देवेषु गच्छति) देवोंमें पहुंचता ।

भरत तत् सत्यमरः ॥ (अ) अग्निदेव! (दाचे) बारमदान करने ( गए भरम्) को कल्याणकारी भलाई (करिष्यमि करेगा है वह परम सत्य जो निश्चय ही राय है, उसे अपना परम सत्य ही प्राप्त करा देगा ] हे अंगिरा ।

7

उपत्याने दिवेदिवे दोषावस्तथिया वयम्। नमो भरन्त एमसि ।।

 (अग्ने) हे अग्निदेव ! (वर्ष) हम (दिवे-दिवे) दिन-प्रतिदिन (दोषा- न्तः) अंधकार और प्रकाशके समय (धिया) अपने विचारके द्वारा (नमः मन्तः) नमस्कारको वहन करते हुए (त्वा उप आ इमसि) तेरे निकट हैं।

राज्ञन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे ॥ 

(अध्वराणां राजन्तम्) यात्रारूप यज्ञोके शासक, (ऋतस्य दीदिवि नाम्) सत्यके देदीप्यमान संरक्षक, (स्वे दमे वर्धमानम्) अपने घरमें वर्ध- [त्या उपजा इमसि ] तुझ अग्निदेवके निकट हम जाते हैं।

स नः पितेव सूनवेऽन्ते सूपायनो भव । सचस्वा नः स्वस्तये ॥

 (सः) ऐसा तू. [ इसलिए तू ] (अग्ने) हे अग्निदेव ! (नः) हमारे लिए इनके पिता इब) पुनके लिए पिताकी तरह (सु-उपायनः भव) सुगमतासे न्त होनेवाला बन । (स्वस्तये) हमारी सुखपूर्ण स्थितिके लिए तू (नः (स्व) हमारे साथ दृढ़ता से जुड़ा रह ।
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1. श्रीअरविन्द की कृति Hymns to the Mystic Fire (गुह्य अग्निके सूक्त ) के प्रथम मण्डलके सूक्तोंका अनुवाद । --अनुवादक
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मेधातिथिः काण्वः

सूक्त 12

अग्नि दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम्। (अग्नि वृणीमहे) हम अग्निका वरण करते हैं जो (होतारं) अ है, (विश्ववेदसम्) सर्वज्ञ है, (दूतं) देवोंका दूत है और (अस्य यज्ञस्य यज्ञका (सुक्रतुम् ) सिद्धिकारक संकल्प है।1

2- अग्निमग्न हवीमभि: सदा हवन्त विश्पतिम् । हव्यवाहं पुरुप्रियम् (विश्पति)।

 प्रजाओंके अधिपति, (हव्यवाहं) हमारी [ समर्पणरूप ] के वाहक, (पुरुप्रियं) बहुविध अभिव्यक्तिके प्रेमपात्र, (अग्निम् अि प्रत्येक अग्नि-ज्वालाको [ यज्ञके कर्ता ] (हवीमभिः) देवोंका आह्वान कर सूक्तोंके द्वारा (सदा हवन्त) सदा पुकारते हैं और [ पुरुप्रियं हवन्त] एकमेव भगवान को पुकारते हैं जिसमें अनेक प्रिय पदार्थ विद्यमान हैं।

3- अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तर्बाहषे । असि होता न ईड्यः ॥

 (अग्ने) हे अग्निदेव ! तू (जज्ञान:) उत्पन्न होकर (वृक्तबर्हिषे) यज्ञकर्ताके लिए जिसने पवित्र आसन बिछा रखा है (देवान् इह आ देवोंको यहाँ ला । (न: ईड्य: होता असि ) तू हमारा वरणीय आव पुरोहित है ।

4-  ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दृत्यम् । देवैरा सत्सि बर्हिषि ।।

 (अग्ने) हे अग्निदेव ! (यत्) जब तू. (दूत्यम् यासि) हमारा दूत कर जाता है तब (तान्) उन देवोंको (वि बोधय) जगा दे जो (उश हमारी भेंटोंको चाहते हैं । तू (बर्हिषि) पवित्र कुशापर (देवः) दे साथ (आ सत्सि अपना स्थान ग्रहण कर ।

5

अग्ने त्वं रक्षस्विनः ॥ घृताहवन दीदिवः प्रति हम रिषतो दह ।

(अग्ने) हे अग्निदेव ! (घृत- आहवन) मनकी निर्मलताओंकी भेंटो से पुकारे जाते हुए (दीदिवः) देदीप्यमान देव ! (त्वम्) तू (रिपतः रक्षस्विनः) सीमामें बांधनेवाले द्वेषियोंका ( प्रति दह स्म) अवश्य ही विरोध कर और उन्हें भस्मीभूत कर दे ।

afearfग्नः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा । हव्यवाड् जुह्वास्यः ॥ 

(अग्निना) अग्निसे ही (अग्निः) अग्निदेव ( सम् इध्यते) पूर्णतया प्रदीप्त किया जाता है जो (कविः) द्रष्टा है, (गृहपतिः) घरका स्वामी है, (युवा) युवा है, (हव्यवाट्) भेंटको वहन करनेवाला है और (जुहु-आस्यः) जिसका मुख हवियोंको ग्रहण करता है ।

7- कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे । देवममीवचातनम् ।।

 तू (अग्निम् उप स्तुहि) उस दिव्य अग्निके निकट पहुंच और उसके स्तुतिगीत गा जो (कविम्) द्रष्टा है और (सत्यधर्माणम्) सत्य ही जिसका विधान है, जो (देवम्) प्रकाशस्वरूप है और (अमीव- चातनम् ) सब बुराइयों- का नाशक है।

8- यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति । तस्य स्म प्राविता भव ॥

 (देव अग्ने) हे अग्निदेव ! (हविः पतिः) हवियोंका जो स्वामी ( दूतं त्वाम् सपर्यति) तुझ दिव्य दूतकी पूजा करता है, (तस्य प्र अविता भव स्म ) उसका तू रक्षक बन ।

9- यो अग्नि देववीतये हविष्माँ आविवासति । तस्मै पावक मूळय || (यः)

 जो (देववीतये) देवोंके दिव्य जन्मके लिए (हविष्मान्) भेंटोंको लिए हुए (अग्निम् आविवासति) दिव्य शक्तिके पास पहुंचता है (पावक) हे पवित्र करनेवाले देव ! (तस्मै मृळय) उसपर दया करो ।

10- स नः पावक दीदिवोऽग्ने देव इहा वह ।

 ( दीदिव: अग्ने) हे देदीप्यमान अग्नि ! (पावक) हे पवित्र करने- वाले ! (सः) वह तू (देवान्) देवोंको (इह) यहाँ (नः हविः यज्ञं च) उप यज्ञं हविश्च नः ॥ हमारी भेंटों और हमारे यज्ञके (उप आ वह) पास ले आ।

11- स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा । राय वीरवतीमिषम् ।।

 (नः नवीयसा गायत्त्रेण) हमारे नवीन छन्दोंसे (स्तवानः) स्तुति किया हुआ (सः) वह तू (रयिम्) आनन्दको और (वीरवतीम् इषं) वीरके सामर्थ्य से पूर्ण प्रेरणा शक्तिको (आ भर) ले आ ।

12-  अग्ने शुक्रेण शोचिषा विश्वाभिर्देवहूतिभिः । इमं स्तोमं जुषस्व नः ॥

(अग्ने) हे अग्नि ! (शुक्रेण शोचिषा) अपनी शुभ्र दीप्तियोंके साथ,
 विश्वाभिः देव-हूतिभिः) देवोंका आह्वान करनेवाली अपनी समस्त दिव्य
 _चाओंके साथ आकर (न: इमं स्तोमम्) हमारी इस दृढ़तासाधक स्तुतिको
नुषस्व ) स्वीकार कर ।

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