Monday, 4 September 2023

आओ
तुम  भी
स्मरण कर लो
भूलने से पहले 
वह दर्द क्या था ?

दो पीढ़ियों ने झेली है 
वह असह्य वेदना
निरापराध सजा
तोड़ दी थी नशें
विकलांग जीने को
विवश कर दिया था
तुम्हारे पुरखों ने 
 चाहते हो जानना 
वह दर्द क्या था ?
 
आधी रात को
उठा लिया गया था
बीमार, बूढ़े बाप को
डाल दी गई थी
हाथ पैर में 
हथकड़ी और बेड़ियां 
 
बताते रहे वे 
निरपराध जन हूँ 
शिक्षक हूं
  लेखक हूं
 बर्तन,घी,गल्ले का
व्यावसायी हूं
  युवा-विद्यार्थी हूं
  मजदूर- अन्नदाता हूं
  पत्रकार हूं, समाजसेवी हूं
मार खा घिसटते रहे 

पूछोंगे नहीं !
क्या आपराध था उनका ?
स्वीकार नहीं था नेतृत्व
उन्हें तुम्हारा  
क्योंकि तुमने 
तोड़ी थी लोकतंत्र की मर्यादा 
अनदेखा किया था न्याय का आदेश 
हिला दिया था प्रजातंत्र के खम्भे 
बना दिया था गूंगा-बहरा 
सारे तंत्र को 

बस जनता ने जनता को
इतना ही तो बताया था

और 
तुमने 
 बंद कर दिया उन्हें 
काल कोठरी में
जड़ दिए ताले
मकान, दुकान पर
बिलखते भूखे परिवार को
बा़ंध दिया था 
थाना-पुलिस ने 
आतंकी धमकियों से
पूछोंगे नहीं क्यों ?
 
तुम्हारे 
आश्वासन के मार्ग पर
 चलना नहीं चाहता था जन 
सत्ता की कल्याणकारी योजनाएं !
बना रही थीं बधिया
जवान -बूढ़े -अपाहिज को भी   
बंद कर दी थी तुमने
प्रेस की आवाज
 चाहते थे 
उनके साथ
चल कर हत्या करता चलूं 
उनके दुश्मनों के नाम पर अपनों को 

सच तो यह था कि
तुमको हमारे सुख -दुख से
पिता के असामयिक मृत्यु से
बिलखती मां से
पथराई आंखों से
डायलिसिस पर पड़े बूढ़े से 
नहीं था कुछ भी सरोकार 
 
तोड़ दी थी 
न केवल बैसाखी परिवार की
बल्कि रौंद डाला था तुमने 
जनता के सपने
तोड़ दी थी हमारी टाँगें
व्यर्थ हो गया था
हमारा जीना न जीना

कोई दिलचस्पी नहीं थी
तुम्हारी देश दुनिया में 
चिंता थी तो सत्ता में बने रहने की

बुझ गया था आशा का सूरज
उनके  जुगनुओं के आश्वासन से

तुम्हारी  गरज
महज इतनी थी कि
जब तुम कहो  तब तुम्हारे  नारे में 
मेरा भी गला हो शामिल
तुम्हारे भाषण के लिखे
स्क्रिप्ट हम समाज में
नुक्कड़ चौराहों में 
मुनादी की तरह सुनाएँ 
जिससे बची रहे  
तुम्हारे कुचक्रों की सत्ता

किंतु दर्द सलाखों का
परिवार के होते विनाश का भी 
नहीं दिला सका  
अनुमोदन तुम्हारे स्याह-काले
इरादों को

आखिर तुम्हारा 
जमा क्रूर आसन
 डिगा, हिला,चरमराया
और धंसता गया
दिन -मास की गिनती के साथ 
जनता की आह में, कराह में

हां ! 
आज भी तुम काले बादल से
डरावने भूत से
विदेशी नक्कारों -नगाड़ों के साथ
छाये हो स्मृति पटल पर
दो कम पचास साल बाद भी।

किंतु 
अब भगवा किरणों ने
 दिया है
जीने का आश्वासन
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
अब तुम्हारी राह कठिन है
क्योंकि लोगों ने
उतार दिया है
तुम्हारा झंडा
तुम्हारे झंडे
अब जनता के झंडे नहीं हैं
तुम्हारी ताकत
हमारी ताकत नहीं है

हमें भर लिया है
वीर्यवान, धैर्यवान आश्वस्ति ने 
अपने बाजुओं में
 तुम्हारे पड़ोसियों को भी बता दी है
किस राह चलना है
 तय मंजिल पहुँचना है

हमने  प्रतिवर्ष 
तुम्हें भुलाते हुए
चलते-चलते बना ली है
दुर्गा दशप्रहरणधारिणी 
की मूर्ति 
तुम्हारे द्वारा रौंदे अधिष्ठान पर
जो दे रही है आश्वासन
उस काली छाया से  रक्षा की
समृद्धि की, एकात्मकता की
वसुधैव कुटुम्बकम् की
सर्वेभवन्तु सुखिन: की
जिसमें तुम्हारे वंशज भी शामिल हैं 

अब नहीं लगेगा आपातकाल 
मेरे पक्षधर न सही 
पर अब तुम भी 
बधुआ और पिट्ठू नहीं हो 
तुम्हें भी देश की खातिर 
चलना होगा हमारे साथ
हम दिलाते रहेंगे स्मरण
बार -बार इस दिन को
तब तक
जब तक तुम्हारे आंखों में 
 न दिखेगा शर्म का पानी,
झुक नहीं जायेगा 
माथा पछताबे से 

कायरता -भीरुता से अलग 
आत्म-सम्मान चाहिए तो
अब भी समझो तुम -हम 
हम हैं
और अब हमें 
स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर, जगद्गुरु ‘भारत’ होना है। 
आ जाओ साथ
या मार डालो अपनी जमीर को ।

   -उमेश  (25/6/23)

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