आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी
इसमें दो
शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं, एक ‘आत्म’ जो आत्मा की
पहचान कराता है। दूसरा ‘स्व’ जो हमारे ‘अस्तित्व’ का बोध कराता है। भारत अर्थात ‘ज्ञान में रत’। ‘प्रकाश में
लीन।‘ भारत का एक
नाम ‘अजनाभ वर्ष‘ है। अर्थात विश्व का नाभि केंद्र। न केवल भौगोलिक बल्कि सम्पूर्ण
विश्व की नाभि जहाँ से सभी को ‘आत्म प्रकाश’ प्राप्त होता है। इसलिए भी यह विषय आज बहुत ही प्रासंगिक
है।
‘आत्मवत
सर्वभूतेषु‘ और
आत्मनिर्भर भारत का क्या सम्बन्ध है ? इसके लिए स्वामी विवेकानंद को समझना होगा। स्वामी विवेकानंद
जी कहते थे. ‘are you
own yourself’ अर्थात क्या आप ‘स्व’ में हैं ? समझना होगा कि ‘स्व’ से ही सारे
सूत्र जुड़े हैं, चाहे वे
स्वाबलंबन के हों या स्वस्थता के या स्वदेशी के। दूसरे शब्दों में क्या आप अपने
संस्कृति-परंपरा, स्वभाषा, भूषा, भेषज, भजन, भोजन में
स्वदेशी हैं ? क्या आप अपने
देश, समाज, राष्ट्र में हो ? तो क्या हम आत्म निर्भर भारत में है ? यदि नहीं तो हम कैसे आत्मनिर्भर हो सकते है ?
प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने अपने हालिया संबोधन में 'एक आत्मनिर्भर भारत के निर्माण' का वादा किया है। पीएम मोदी का 'आत्मनिर्भर भारत अभियान', उनकी महत्वाकांक्षी परियोजना है जिसका उद्देश्य सिर्फ़
कोविड-19 महामारी के दुष्प्रभावों से लड़ना नहीं, बल्कि भविष्य के नए भारत का र्निर्माण करना है। तभी तो वे
कहते हैं, "अब एक नई
प्राण शक्ति, नई संकल्प शक्ति
के साथ हमें आगे बढ़ना है।"
इसका सूत्र
क्या है ? तो सूत्र
मिलाता है ‘स्वदेशी’ से। इसलिये प्रारंभ में ही समझ लेना चाहिए की ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘स्वदेशी’ का सम्बन्ध क्या है। वस्तुत: भारत में 'स्वदेशी' एक विचार के
रूप में देखा जाता है, जो भारत की
संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था का आर्थिक मॉडल रहा और राष्ट्रप्रेमी तबक़ा इस विचार की
वकालत भी करता रहा है, लेकिन पीएम
मोदी ने अपने भाषण में कहीं भी 'स्वदेशी' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। परन्तु आत्म-निर्भर भारत बनाने
का पीएम मोदी का विचार 'स्वदेशी' के काफ़ी क़रीब दिखता है और उन्होंने अपने संबोधन में खादी
ग्राम उद्योग के उत्पादों की अच्छी बिक्री का ज़िक्र भी किया।
यह भी एक प्रश्न आता है की स्वतंत्रता के इतने
वषों बाद आत्म निर्भरता की बात क्यों आई? वस्तुत: देश जब स्वतंत्र हुआ तो जिस समय हमें भारतीय सनातन माडल को
लेकर उसे युगानुकूल बनाते हुए आत्मसात करना था, हमने विदेशी माडल का सहारा लिया। हमने प्रथम पञ्चवर्षीय
योजना में हैराड-डामर माडल, बाद में
मेह्लोनोबिस माडल, लियोंतिक उद्योग
माडल, लैफैबेर माडल
आदि को लिया जो लगभग गणितीय समीकरणों से सम्बंधित रहे। परिणाम यह हुआ कि हम जी.डी.पी.
में जीने लगे, सकल घरेलू
उत्पाद में।
जरा समझे यह
सकल घरेलू उत्पाद क्या है ? और भारत के
लिए कितना उपयोगी है। सकल घरेलू उत्पाद से तात्पर्य किसी देश में वर्ष भर में
जितना उत्पाद होता है उसके बाज़ार मूल्य को जोड़कर जनसँख्या से भाग दिया जाता है। यह
जी.डी.पी. की अवधारणा किसी नगरीय देश के लिए या सीमित जनसंख्यावाले देश के लिए
उचित हो सकती है किन्तु भारत जैसे विविधता से भरे देश में जहाँ नगर, ग्राम, वनवासी सभी
प्रकार के लोग रहते हैं और सब की आमदनी में अंतर है, वहां यह कैसे लागू हो सकती है।
दूसरा
दृष्टिकोण यह भी है कि क्या यदि किसी व्यक्ति का रहन सहन ऊँचा उठ रहा है तो हम मान
जाएँ की उसका विकास हो रहा है। यह पश्चिमी अवधारणा में सही है क्योकि यह वहां ‘बास्केट आफ गुड्स एंड सर्विसेज अवलेबल फार कंजम्सन‘ पर निर्धारित किया जाता है। परिणाम अधिक संसाधनों का शोषण
और अधिक उर्जाधारित उद्योग ने विश्व के सामने असंतुल कि स्थित पैदा कर दी। इस
प्रकार धारणाक्षम विकास पर संकट आया और उपभोक्तावादी दृष्टकोण पैदा हुआ। परिणामत:
जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता
समाप्ति की और है। जिससे मानवता संकट में है।
इसमें हमें
भारतीय अवधारणा को समझना और उसकी और लौटना होगा। इसका एकमात्र विकल्प ‘स्वदेशी’ है। इसलिए जब
हम ‘आत्मनिर्भर
भारत और स्वदेशी’ की बात करते
हैं तो उसके अंदर सर्वांगीण विकास, सतत विकास, अनवरत विकास
आदि की और जाते हैं। हमारे प्रधानमंत्री जी की चिंता है, सब का विकास। पंडित दीनदयाल जी जिसे अन्त्योदय
कहते हैं। उनकी चिंता है की हमारा कच्चा माल विदेश जाता है और दूने-तिगुने दाम में
हम पक्का मॉल विदेशों से खरीदते है। हमारे पास कृषि है, जल है, वायुमंडल है, जनसँख्या है, ऊर्जा के स्रोत हैं तो फिर हम स्वद्शी का सहारा लेकर ‘आत्मनिर्भर’ क्यों नहीं बन सकते ? अर्थात संसाधनों का दोहन करते हुए, प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा करते हुए, मानविकी का सही उपयोग कर हम ‘आत्मनिर्भर भारत’ बन सकते हैं।
स्वतंत्रता
के पूर्व सावरकर जी ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। वह एक प्रतीकात्मक विरोध था
विदेशी वस्तुओं और विदेशी सत्ता का था। भारत में 'स्वदेशी' एक विचार के
रूप में देखा जाता है, जो भारत की
संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था का आर्थिक मॉडल रहा और राष्ट्रप्रेमी जन इस विचार पर काम
भी कर रहे हैं, लेकिन यह भी
ध्यान रखना होगा की ‘आत्मनिर्भर भारत’ की चर्चा करते हुए पीएम मोदी ने अपने भाषण
में कहीं भी 'स्वदेशी' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। वे ‘लोकल फार वोकल’ की बात करते हैं। इसका अर्थ भी समझाना होगा क्योंकि कुछ लोग
स्वदेशी का अर्थ हर विदेशी वस्तु का विरोध समझते हैं। यह समझाना बहुत आवश्यक है की
‘आत्म-निर्भरता और स्वदेशी’ का अर्थ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से अलगाव नहीं है। गांधी जी
ने हिंद स्वराज में माना है की स्वदेशी मॉडल, टेक्नोलॉजी के ख़िलाफ नहीं है लेकिन पश्चिमी मॉडल और उससे
बे-लगाम आयात के वे विरोधी थे। इसलिए मोदी जी का आह्वान है कि ‘आधुनिकीकरण चाहिए किन्तु पश्चिमीकरण नहीं’। पूज्य गांधी
जी ने तो अपने हिंद स्वराज में ‘भारत के पूरे
आर्थिक मॉडल’ को समझाया है।
गांधी के ‘स्वदेशी’ में भारत के उस औपनिवेषिक शोषण को ख़ारिज किया गया है, जिससे ब्रिटिश ख़ज़ाने भरते थे और नतीजे में भारत के ग़रीब
और वंचित लोग कष्ट में ही रहते थे। औपनिवेशिक उपभोक्तावाद की कभी सुरसा भूख को
शांत करने के लिए, असीमित
औद्योगिक विकास पर आधारित पूंजीवाद, पश्चिमी आर्थिक मॉडल में, खुले बाज़ार का आदर्श बन गया, जिसकी गांधी जी ने ‘हिंद स्वराज’ में आलोचना की। हुआ यह कि यह ब्रिटिश औपनिवेशिक मॉडल
अमेरिका तक पहुंचा दिया गया, और आर्थिक
विकास के रामबाण के रूप में प्रचारित किया गया, जिसमें एक अपरिहार्य कारगर साधन के तौर पर, द्वंदात्मक भौतिकवाद के मुक़ाबले, तकनीकी भौतिकवाद को पेश किया गया लेकिन ये वो नहीं था, और इसी कारण हमें फिर से स्वदेशी अर्थशास्त्र की आवश्यकता
है।
इसके लिये
फिर एकवार महात्मा गाँधी जी को समझना होगा। ‘स्वदेशी’ के बारे में
महात्मा गाँधी जी कहते हैं,” अगर हम
स्वदेशी के सिधांत का पालन करें, तो हमारा और
आपका यह कर्त्तव्य होगा की हम उन बेरोजगार पडोसिओं को ढूंढे, जो हमारी आवश्यकता की वस्तुओं को हमें दे सकते हैं और यदि
वे इन वस्तुओं को बनाना न जानते हों तो उन्हें उसकी प्रक्रिया सिखाएं। ऐसा हो तो
भारत का हर एक गाँव लगभग एक स्वआश्रित और स्वयंपूर्ण इकाई बन जाये। दूसरे गांव के
साथ वह उन चंद वस्तुओं का आदान-प्रदान जरूर करेगा, जिन्हें वह खुद अपनी सीमा में पैदा नहीं कर सकता। स्वदेशी
व्रत लेने पर कुछ समय तक असुविधाएं तो भोगनी पड़ेंगी, लेकिन उन असुविधाओं के बावजूद यदि समाज के विचारशील व्यक्ति
स्वदेशी का व्रत अपना लें, तो हम उन
अनेक बुराइयों का निवारण कर सकते हैं, जिनसे हम पीडि़त हैं।’
गाँधी के इन
विचारों के साथ जब हम प्रधानमंत्री नरेंद मोदी को समझें तब ध्यान में आता है कि ‘आत्म-निर्भर भारत’ पर ज़ोर, दूसरे शब्दों
में स्वदेशी अर्थशास्त्र ही है। इसलिए कोरोना महामारी से आई आर्थिक मंदी और
अंतरराष्ट्रीय स्थितियों को देखते हुए समय की मांग है कि हम हर क्षेत्र में
आत्मनिर्भर बने। और भारत ने जहाँ कोशिश की वहां सफल रहा है, गेहू इसका प्रत्यक्ष उदहारण है। इससे देश का आत्मविश्वास बढा
है। आर्थिक व सैन्य रूप से जिस दिन देश आत्मनिर्भर हो जाएगा उस दिन दुनिया भारत का
लोहा मानना प्रारंभ कर देगी। कुछ पड़ोसी भी अपनी नापाक हरकत बंद कर देंगे। इसलिए
आत्मनिर्भरता ही हम भारतीयों का एक मात्र लक्ष्य होना चाहिए।
इसलिए
स्वदेशी अर्थव्यवस्था से तात्पर्य उस अर्थव्यवस्था से है जो अपने भौगोलिक क्षेत्र
में अपने आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति एवं अपनी आवश्यकताओं की प्राप्ति के लिए
अपने ही संसाधनों व प्रौद्योगिकी का उपयोग करती है। भारत में स्वदेशी अर्थव्यवस्था
की वकालत करनेवाले महात्मा गाँधी, वीर सावरकर, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया आदि रहें हैं। वर्तमान में स्वदेशी जागरण
मंच, बाबा रामदेव, गायत्री परिवार, एस गुरुमूर्ति, स्व. राजीव दीक्षित ने स्वदेशी का अत्यधिक जागरण किया।
केंद्र की
मोदी सरकार आने के साथ ही मोदी जी ने इस दिशा में भारत को फिर से ले जाने का कार्य
प्रारम्भ किया। ‘स्वदेशी’ की आत्मनिर्भर भारत बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका है।
इसका लक्ष्य प्रमुख रूप से देश के समस्त नगरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति
(रोटी, कपड़ा, मकान की गारंटी), राष्ट्रीय सुरक्षा, एकात्मता और अखंडता, के साथ एक ‘आत्म निर्भर भारत’ का निर्माण करना है। और यह तब संभव है जब भारत केन्द्रित
सोच विकसित हो। भारतीय संस्कृति के मूल्यों का संरक्षण हो, गुलामी की मानसिकता से मुक्ति हो, स्वरोजगार की ओर युवाओं का ध्यान जाएँ। अत: सुचिता के साथ
धर्म आधारित आर्थिक संरचना का आधार खड़ा करना, देश के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर उपयोग करना, राष्ट्र का सर्वान्गीण विकास करना होगा । इसका निहितार्थ यह
भी है कि सभी वर्गों को सामान विकास का अवसर उपलब्ध कराना, भौतिक ऊर्जा से लेकर भारतीय ज्ञान संपदा का युगानुकूल विकास
करना।
स्वदेशी के
माध्यम से आत्म निर्भर भारत बनाने के लिए आवश्यक है की हम स्वभाषा, स्वभूषा, स्वभोजन, स्वभेषज, स्वशिक्षा, स्वरीति-रिवाज, स्वरोजगार, जैविक कृषि, लघु उद्योग आदि पर बल दें।
थोड़ा विचार
करें स्वतंत्र भारत में ‘स्वदेशी’ की अवहेलना कहाँ से प्रारंभ हुई ? जब हम स्वतंत्र हुए तो हम वषों तक औपनिवेसिक मानसिकता से
बहार नहीं आ पाए। उस समय हमारे पास तीन विकल्प थे, पहला कोलोनियल माडल, जिसका लगभग 80 साल का इतिहास रहा, दूसरा- पूंजीवाद जिसका इतिहास 200 साल का । हमारे पास तीसरा
विकल्प स्वदेशी का था, ‘स्व’ के चिंतन का था जो वैदिक ऋषियों के काल से चाणक्य और
दीनदयाल जी के माडल तक आता है।
आत्मनिर्भर
भारत के परिणाम क्या होंगे ? यह दो प्रकार
से हमारे सामने आता है। भौतिक विकास, सबको रोटी, कपड़ा, मकान, सभी के
स्वस्थ्य की चिंता, निरोगी काय। सभी को शिक्षा और चौथा, हर हाथ को काम। चलो माँन लिया के ये चारों बातें पूरी हो गई
तो क्या आत्मनिर्भर भारत हो गया ? उत्तर – नहीं। तो फिर क्या करना है ? आत्मनिर्भर भारत का महत्वपूर्ण पहलू है विश्व की ही नहीं तो
जीवमात्र की चिंता। मानवता की चिंता। इसलिए मनुष्य का सम्पूर्ण विकास– शरीर, मन, बुधि से आत्मा के बोध तक की यात्रा, और यह यात्रा चार पुरुषार्थों- अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के साथ करनी है। यह आत्मनिर्भरता पश्चिम के व्यक्ति
आधारित विकास से नहीं तो एकात्मता आधारित विकास से प्राप्त करनी है। इसलिए समझना होगा
कि आत्मनिर्भर भारत के अर्थ हैं – भारतीय
संस्कृति का संरक्षण, समाज में
न्यासी के रूप में जीने की अवधारणा, पूजीवाद और समाजवाद का निषेध, आर्थिक लोकतंत्र, अनावश्यक भारी उद्योगीकरण का निषेध, विकेन्द्रित नीति। आज भारत एक बार फिर 'आत्म-निर्भर' बनने के लिए भीतर की ओर देख रहा है।
भारत के लिए
पीएम मोदी के दृष्टिकोण में आत्मनिर्भरता ना तो बहिष्करण है और ना ही अलगाववादी
रवैया। यह अपनी दक्षता में एक तरह की गुणात्मक विस्तार का प्रयत्न है। इसके अतिरिक्त
दुनिया के साथ स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करते हुए दुनिया की मदद करना, जो भारत की ‘वसुधैव’
सस्कृति के अनुरूप है, यह सरकार करने जा रही है। कोरोना महामारी के बाद आर्थिक
राष्ट्रबोध का जागरण सभी देशों
में आएगा। वैसे भी "हम तो वर्षों से आत्म-निर्भरता और स्वदेशी मॉडल की वकालत
कर रहे हैं। अब हमें लोकल चीज़ों को लेकर वोकल होना है।“ यानी भारतीयों को स्थानीय चीज़ों के बारे में ज़्यादा बात
करनी चाहिए, खुलकर बात
करनी चाहिए। यही विश्व गुरु बनाने का रास्ता है। जिसे वंकिमचंद ने, “तुम दुर्गा दसप्रहरण धारणीम” कहा है।
umeshksingh58@gmail.com
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