बड़े शिविर में गहन विवर में कंटक वन के बीच बसेरा।
सघन तिमिर , थे दिए बहुत कम
फिर भी पाया आज उजेरा।।
हिंसक जंतु रहे दौड़ाते सांप लपालप जीभ दिखाते।
बिच्छू बीच डंक धर जाते विषखपरे भी ओट लगाते।।
कंपित करती नदी पांव को झाड़ी रुक- रुक कर सिहराती।
विपदाओं से घिरी रही पर सहमी -सहमी भाग न सकती।।
थी ताकतवर, उपचार बहुत थे, हृदय सुझाते।
पर सहिष्णुता के आंचल में बेचारे छुप कर सो जाते।।
संकल्प बद्ध सांसों ने पूछा, हे काव्य प्रिये संगीत सखी!
गगन विहारिणि सत्यपथी कब होगी तुम चैतन्य सखी!!
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