Friday, 21 August 2020

वह पुरुष है, है यह प्रकृति 
वह नट , यह है तटस्थ नटी 
आस्था-अनास्था-खंभों-सी
दर्शक दीर्घा धड़ों में है बटी ।


बंधी  रेशमी आकर्षक डोरी 
भय मुक्त चढ़ती नवोढ़ा नटी
धपली पर धुन-ताल देता नट 
संगत बिठा-बिठा बढ़ती नटी ।।

चारों ओर सन्नाटा स्थिर है घटी
ढोलक थाप साथ लटकी लटी
इधर तालियां-गड़गड़ाहट फटी
बढ़ाती झुंझलाहट इठलाती नटी।।

वह कोने से  बढ़ाता रहा उत्साह
लूटा रहा था मुफ्त में वाह-वाह।
मादक-ताल हिलती डोरी बीच
बिठा संतुलन ली थी सांस खींच।।

 घिरता  मन का अनचाहा अवसाद
पुरुष -प्रकृत -नट-नटी -डोरी- प्रमाद 
आस्था और विश्वास के खंभे में मग्न
विलुप्त हुये जैसे  नींद खुलते स्वप्न।।

फिर नहीं झांक पाया यौवन नदी में
नहीं डूब पाया वासना की  वदी में।
चपल मन मथ रहा वासना नदी में
मन्मथनाथ नेनाथ दिया चौहदी में।।

असहाय-सी उपदेश देती इंद्रियां हैं 
यौवन सुसज्जित नटी ही इंद्रियां हैं।
कल भोर होते ही नटी फिर नांचेगी
नट रखो धैर्य वह प्रेम-पत्र जांचेगी।


सुषुप्त-जागृत घटित सावधान काल है
मदारी ने समेटा अपना माझा-जाल है
नटी संग नट देख लिख रहा कपाल  है  
 प्रतीक्षित स्वप्न लिए क्यू तू बेहाल है ।।

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