आत्मनिर्भर भारत और राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020
‘सा विद्या या विमुक्तये’। (वही वास्तविक विद्या
है जो, मोक्ष दिलाने में सहायक हो।) विद्या के लिए कहा जाता है की प्राणियों के
बाह्य अर्थों का प्रकाश करनेवाली तथा नाना प्रकार से उपकार करनेवाली अनेक विद्याएँ
हैं। परन्तु परम पुरुषार्थ को प्रकाशित करनेवाली, परमार्थ को दिखलाने वाली तथा परम
उपकारिणी विद्या उपनिषद है। जिससे तत्व जिज्ञासु पुरुषों को परम शान्ति प्राप्त
होती है, वह परमार्थ कहलाता है। क्लेशग्रस्त जीवों के समस्त क्लेशों का जिससे
निवारण हो, वह परम उपकार कहलाता है।
गीता में
श्रीकृष्ण ने कहा ‘अध्यात्म विद्या विद्यानाम’। मैं विद्याओं में अध्यात्म विद्या
हूँ। मुण्डक उपनिषद कहता है, ‘अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।’ अर्थात ‘परा विद्या वह
है, जिससे उस अविनाशी ब्रह्म का ज्ञान होता है।’ इस तरह संक्षेप में समझे की
विद्या को श्रुतियों में ‘मोक्षदायिनी विद्या, अध्यात्मविद्या तथा पराविद्या आदि
नामों से कहा गया है।
अब जरा
आत्मनिर्भर भारत को समझें। इसके दो शब्दों पर विचार करें- एक ‘आत्म’ जो आत्मा की
पहचान कराता है। पहले आत्मा के स्वरुप की बात करते हैं। शांडिल्य के तत्वज्ञान में
‘आत्मा’ का वर्णन अर्थपूर्ण एवं निश्चयात्मक शब्दों में किया गया है, एवं उसके
‘महत्तम’ एवं ‘लघुतम’ ऐसे दो स्वरुप का वर्णन आता है। इनमे से ‘महत्तम’ आत्मा
अनन्त एवं सारे विश्व का व्यापन करनेवाला कहा गया है। एवं ‘लघुतम’ आत्मा
अणुस्वरूपी वर्णन किया गया है। आत्मा का नकारात्मक वर्णन करनेवाले याज्ञवल्क्य के
तत्वज्ञान से शांडिल्य के इस तत्वज्ञान की तुलना सर्वदा की जाती है। इन दोनों
तत्वज्ञानो की ज्ञान पद्यति विभिन्न होते हुए भी, उन दोनों में प्रणीत आत्मा के
संबधित तत्वज्ञान एक ही प्रतीत होता है।
शांडिल्य के
अनुसार, मानवीय जीवन का अंतिम ध्येय मृत्यु के पश्चात् आत्मन में विलीन होना बताया
गया है। शंकराचार्य विरचित ‘ब्रम्ह्सूत्र भाष्य’ में शांडिल्य के तत्वज्ञान का
निर्देश ‘शांडिल्यविद्या’ के नाम से किया गया है।
‘आत्मवत सर्वभूतेषु’ और आत्मनिर्भर भारत का क्या सम्बन्ध है ? इसके लिए स्वामी विवेकानंद को समझना होगा। स्वामी विवेकानंद
जी कहते थे. ‘are you
own yourself’ अर्थात क्या आप ‘स्व’ में हैं ? समझना होगा कि ‘स्व’ से ही सारे
सूत्र जुड़े हैं, चाहे वे
स्वाबलंबन के हों या स्वस्थता के या स्वदेशी के। दूसरे शब्दों में क्या हम अपने
संस्कृति परंपरा , स्वभाषा, भूषा,भेषज,भजन,भोजन में ‘स्व’
हैं ? दूसरा ‘स्व’ जो हमारे ‘अस्तित्व’ का बोध कराता
है। तो क्या हम अपने देश, समाज, राष्ट्र में रहते हैं या देश, समाज, राष्ट्र हमारे अन्दर
जीता है ? तो क्या हम
आत्मनिर्भर भारत में है ? यदि नहीं तो
हम कैसे आत्मनिर्भर हो सकते है ?
दूसरा शब्द
है, भारत अर्थात ‘ज्ञान में रत’। ‘प्रकाश में
लीन।‘ भारत का एक
नाम ‘अजनाभ वर्ष‘ भी है। अर्थात विश्व का नाभि केंद्र। न केवल भौगोलिक दृष्टि से
बल्कि सम्पूर्ण विश्व की नाभि जहाँ से सभी को ‘आत्म प्रकाश’ प्राप्त होता है। और इसे सम्पूर्ण दुनिया अध्यात्म प्रधान देश
कहती है। और हम हैं, इसे हम प्रत्येक भारतवासी को जन्मजात संस्कारों से बताया जाता
है ।
इन संस्कारों को पाते कहाँ से है तो एक लोक , दूसरा वेद से। तो जब हम स्व की बात कर रहे होते हैं तो वहां भाषा भी आती है । तो लोक को समझने के लिए मातृभाषा चाहिए तो वेद को समझने को संस्कृत भाषा चाहिए । क्योंकि संस्कृत भारतीय सभ्यता और संस्कृति का यथार्थ दर्पण है। अनेक सृजनात्मक युगों को प्राप्त कर भारत ने जो अपनी प्रगति की यात्रा की है उसे वाणी देनेवाला विपुल ज्ञान भंडार साहित्य के रूप में वेदों से लेकर अद्यतन संस्कृत ग्रंथों में भरे पड़े हैं।
इसी तरह दूसरे लोग यह पूछने के पहले की संस्कृत पढ़कर कौन सा रोजगार मिलेगा , भूल जाते हैं कि लाखों लोंगो को संस्कृत ज्ञान के ही कारण ज्योतिष में, कर्मकांड में, रीति-रिवाजों में, पूजा पाठों में लाखों से करोडो रूपये मिलते हैं । शिक्षकीय पद और सामाजिक प्रतिष्ठा अलग से।
और सबसे बड़ी बात यह कि धरती से जुड़े जिस विश्व मानव बनाने की कल्पना शिक्षा नीति में की गई है उसके सम्पूर्ण सूत्र तो संस्कृत भाषा में ही हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूँ तो उन नीति विरोधियों को भी समझना चाहिए की यह बात और कौन–कौन कह रहें हैं ।
पंडित जवाहर
लाल नेहरू का कथन है, “ संस्कृत भाषा और साहित्य भारत की सर्वोत्तम विरासत है। यह
शानदार विरासत है और जब तक यह कायम रहेगी और हमारे लोगों के जीवन को प्रभावित करती
रहेगी, तब तक भारत की मौलिक प्रतिभा जीवंत बनी रहेगी।”
कोई दो सौ वर्ष पहले विलियम जोन्स ने कहा था, “संस्कृत ग्रीक की अपेक्षा अधिक पूर्ण, लैटिन की अपेक्षा कहीं अधिक विशाल और इनमें प्रत्येक से अधिक उत्कृष्ट, परिष्कृत और सुंदर है।” इसलिए आत्म निर्भर भारत में संस्कृत भाषा की दोहरी भूमिका है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ' एक आत्मनिर्भर भारत के निर्माण' का वादा किया है। यह 'आत्मनिर्भर भारत अभियान', उनकी ही नहीं तो देश के प्रत्येक भारतवासी की महत्वाकांक्षी परियोजना है, जिसका उद्देश्य सिर्फ़ कोविड-19 महामारी के दुष्प्रभावों से लड़ना नहीं, बल्कि भविष्य के नए भारत का र्निर्माण करना है। तभी तो वे कहते हैं, "अब एक नई प्राण शक्ति, नई संकल्प शक्ति के साथ हमें आगे बढ़ना है।"
इसका सूत्र क्या है ? तो सूत्र मिलाता है ‘शिक्षा और संस्कृति से। इसलिये प्रारंभ में ही समझ लेना चाहिए की ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘शिक्षा तथा संस्कृति’ का सम्बन्ध क्या है।
वस्तुत: भारत में 'स्वदेशी' एक विचार के रूप में देखा जाता है, जो भारत की न केवल संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था का आर्थिक मॉडल रहा बल्कि स्वभाषा ही में सम्पूर्ण भारतीय ज्ञानसंपदा का स्रोत है।
किन्तु पी.एम. मोदी ने अपने भाषण में कहीं भी 'स्वदेशी' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। परन्तु आत्म-निर्भर भारत बनाने का पीएम मोदी का विचार मातृभाषा से ही प्रारंभ होता है।
प्रधानमंत्री जी की चिंता है, सब का विकास। पंडित दीनदयाल जी जिसे
अन्त्योदय कहते हैं। और विकास की गंगा विद्यालयों से ही बहती है’ इसलिए अठारह वर्ष
तक के लिए सत् प्रतिशत की बात आई है । यदि उनकी चिंता है की हमारा कच्चा माल विदेश जाता है
और दूने-तिगुने दाम में हम पक्का मॉल विदेशों से खरीदते है। हमारे पास कृषि है, जल है, वायुमंडल है, जनसँख्या है, ऊर्जा के स्रोत हैं तो फिर हम स्वद्शी का सहारा लेकर ‘आत्मनिर्भर’ क्यों नहीं बन सकते ? अर्थात संसाधनों का दोहन करते हुए, प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा करते हुए, मानविकी का सही उपयोग कर हम ‘आत्मनिर्भर भारत’ बन सकते हैं। इसलिए जब हम ‘आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी’ की बात करते हैं तो उसके अंदर सर्वांगीण विकास, सतत विकास, अनवरत विकास
आदि की और जाते हैं। ठीक उसी तरह हमारी प्रतिभाएं भी पलायन न करें चाहे शिक्षा
लेने की बात हो या शिक्षा प्राप्त कर रोजगार, उद्यौग और नौकरी की बात हो।
इसलिए समझाना होगा आत्मनिर्भर भारत का लक्ष्य प्रमुख रूप से देश के समस्त नगरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति (रोटी, कपड़ा, मकान की गारंटी), राष्ट्रीय सुरक्षा, एकात्मता और अखंडता, के साथ एक ‘आत्म निर्भर भारत’ का निर्माण करना है।
कोरोना महामारी से आई आर्थिक मंदी और अंतरराष्ट्रीय स्थितियों को देखते हुए समय की मांग है कि हम हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर बने।
शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में वैदिक ज्ञान परम्परा को स्वभाषा से प्राप्त कर देश का आत्मविश्वास बढना है। आर्थिक व सैन्य रूप से जिस दिन देश आत्मनिर्भर हो जाएगा उस दिन दुनिया भारत का
लोहा मानना प्रारंभ कर देगी। कुछ पड़ोसी भी अपनी नापाक हरकत बंद कर देंगे। इसलिए
आत्मनिर्भरता ही हम भारतीयों का एक मात्र लक्ष्य होना चाहिए। और शिक्षा इसमें क्रान्तिकारी परिवर्तन ला सकती है।
भारतीय संस्कृति के मूल्यों का संरक्षण हो, गुलामी की मानसिकता से मुक्ति हो, स्वरोजगार की ओर युवाओं का ध्यान जाएँ। अत: सुचिता के साथ धर्म आधारित आर्थिक संरचना का आधार खड़ा करना, देश के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर उपयोग करना, राष्ट्र का सर्वान्गीण विकास करना होगा । इसका निहितार्थ यह भी है कि सभी वर्गों को सामान विकास का अवसर उपलब्ध कराना, भौतिक ऊर्जा से लेकर भारतीय ज्ञान संपदा का युगानुकूल विकास करना , इसमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति कैसे और कितना कारगर होगी यही हमारे चिन्तन का विषय होना चाहिए।
शिक्षा के
माध्यम से आत्म निर्भर भारत बनाने के लिए आवश्यक है की हम स्वभाषा, स्वभूषा, स्वभोजन, स्वभेषज, स्वशिक्षा, स्वरीति-रिवाज, स्वरोजगार, जैविक कृषि, लघु उद्योग आदि पर बल दें।
आत्मनिर्भर भारत के परिणाम क्या होंगे ? यह दो प्रकार से हमारे सामने आता है। भौतिक विकास, सबको रोटी, कपड़ा, मकान, सभी के स्वस्थ्य की चिंता, निरोगी काय। सभी को शिक्षा और चौथा, हर हाथ को काम। दूसरा आत्मनिर्भर भारत का महत्वपूर्ण पहलू है विश्व की ही नहीं तो जीवमात्र की चिंता। मानवता की चिंता। इसलिए मनुष्य का सम्पूर्ण विकास– शरीर, मन, बुधि से आत्मा के बोध तक की यात्रा, और यह यात्रा चार पुरुषार्थों- अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के साथ करनी है। यह आत्मनिर्भरता पश्चिम के व्यक्ति आधारित विकास से नहीं तो एकात्मता आधारित विकास से प्राप्त करनी है।
इसलिए समझना
होगा कि आत्मनिर्भर भारत के अर्थ हैं – भारतीय संस्कृति का संरक्षण, समाज में न्यासी के रूप में जीने की अवधारणा, पूजीवाद और समाजवाद का निषेध, आर्थिक लोकतंत्र, अनावश्यक भारी उद्योगीकरण का निषेध, विकेन्द्रित नीति। आज भारत एक बार फिर 'आत्म-निर्भर' बनने के लिए भीतर की ओर देख रहा है।
भारत के लिए पीएम मोदी के दृष्टिकोण में आत्मनिर्भरता ना तो बहिष्करण है और ना ही अलगाववादी रवैया। यह अपनी दक्षता में एक तरह की गुणात्मक विस्तार का प्रयत्न है। इसके अतिरिक्त दुनिया के साथ स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करते हुए दुनिया की मदद करना, जो भारत की ‘वसुधैव’ सस्कृति के अनुरूप है, यह सरकार करने जा रही है।
इसीलिए शिक्षा के
क्षेत्र में पहली वार भारत के बहार के सामर्थ्य विश्वविद्यालयों को आने को कहा गया
है। कोरोना महामारी के बाद आर्थिक राष्ट्रबोध के साथ जागरण सभी देशों में आएगा। वैसे भी "हम तो वर्षों से
आत्म-निर्भरता और स्वदेशी मॉडल की वकालत कर रहे हैं। अब हमें लोकल चीज़ों को लेकर
वोकल होना है।“ यानी
भारतीयों को स्थानीय चीज़ों के बारे में ज़्यादा बात करनी चाहिए, खुलकर बात करनी चाहिए। यही विश्व गुरु बनाने का रास्ता है।
जिसे वंकिमचंद ने, “तुम दुर्गा
दसप्रहरण धारणीम” कहा है।
प्रो उमेश कुमार सिंह
umeshksingh58@gmail.com
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