Friday, 23 August 2024
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Wednesday, 14 August 2024
शिक्षा में भारतीय ज्ञान परम्परा क्यों?
Monday, 12 August 2024
भारतीय ज्ञान परम्परा! सितम्बर
भारतीय ज्ञान परंपरा
इसकी आवश्यकता क्यों ?
भारतीय ज्ञान परंपरा से संबंधित सैद्धांतिक आधार
भारतीय ज्ञान परमपरा कैसे लागू हो
इसकी आवश्यकता क्यों ?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 मध्यप्रदेश में लागू हुए दो वर्ष पूरे हो गए है। नीति को लागू करने में अग्रणी राज्य होने के कारन हमारी महती भूमिका है । कर्नाटक ने सरकार बदलते ही नीति को ठन्डे वस्ते पर डालने की घोषणा कर दी । हम आगे बढ़ गए हैं ।
दो वर्ष के अनुभव को आज साझा मंथन देश, राज्य और काल की स्थिति' को ध्यान में रखते हुए और भारतीय ज्ञान परम्परा को उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में समाहित कैसे करें कि वह शिक्षक और विद्यार्थी दोनों के लिए व्यवहारगत शिक्षा के रूप में सामने आ सके के विमर्श की आवश्यकता है।
ध्यान में आता है कि जब चीजें धुंधली रहती हैं तो चिन्तन की जरूरत पड़ती है। ऐसा कहते हैं कि जहाँ भी चेतना हैं, वहाँ यथास्थिति नहीं रहती और यथास्थिति नहीं रहती है तो उतार भी रहते हैं और चढ़ाव भी रहते हैं। इसलिए जब संक्रमण काल पैदा होते हैं, तब उसमें से निकलने के लिए चिन्तनशील लोगों के बीच में चिन्तन होना, यह भारत की एकदा नैमिषारण्ये की परम्परा रही है।
न्यायदर्शन किसी सत्य पर पहुँचने के लिए चार प्रकार बताता है- पहला वाद । वाद में आदमी कोई पूर्वाग्रह, दुराग्रह लिए बिना अगर कोई उचित बात है और अपनी धारणा गलत है तो उसे छोड़ेगा, उचित को स्वीकार करेगा। इस मानसिकता से जो संवाद होता है, उससे अन्त में सत्य की प्राप्ति होती है। इसलिए कहा गया है कि “वादे वादे जायते तत्वबोधः ।"
ये दृष्टिकोण नहीं रहा तो फिर कहते हैं कि "वादे वादे जायते कंठशोषः " अर्थात् गला सूखता है, उससे निष्कर्ष कुछ नहीं निकलता है।
एक दूसरा प्रकार है, उसे 'जल्प' कहते हैं । आजकल की भाषा में 'डिबेट कम्पटीशन' । व्यक्ति एक निश्चित आग्रह लेकर खड़ा होता है और अपनी बात का मंडन करना और सामने वाले की बात सही है तो भी खंडन करना, एक प्रवृत्ति रहती है।
तीसरा कहते हैं 'वितंडा' अपने देश में जितने भी इष्ट हैं, 'सेकुलरिष्ट, कम्युनिष्ट' ये सब इस विधा के विशेषज्ञ हैं। वितंडा का कहना था कि मेरा मत कुछ नहीं है। मैंने तय किया है कि सामने वाला कुछ भी कहें, जिसमें 'हिन्दू, भारत, सनातन' आदि बात हो तो बस एक ही काम है उसका खंडन करना ।
'वितंडा' का एक नया प्रकार भी आजकल चला है । मैं कुछ कहना चाहता हूँ, मेरा भाव कुछ है, लेकिन संदर्भ से काट कर बात कहेंगे तो उल्टा अर्थ निकल जाएगा, इसे 'छल' कहा गया।
लेकिन पूर्वजों ने कहा है कि अगर सार्थक कुछ प्राप्त करना है तो 'वाद' की पद्धति ठीक है। पूर्वाग्रहों, दुराग्रहों से मुक्त होकर उचित का स्वीकार, अनुचित का अस्वीकार।
एक दूसरी बात- किसी भी देश की ज्ञान परम्परा उस देश का दर्पण हुआ करती है । ज्ञान परम्परा के माध्यम से उस देश की अतीत से वर्तमान तक की यात्रा से आज की पीढ़ी अवगत होती है। ज्ञान परम्परा के माध्यम से ही देश का तत्त्वचिंतन, संस्कृति, सभ्यता अभिव्यक्त होती हैं।
भारत दुनिया का प्राचीनतम राष्ट्र है। माना जाता है की मानव जाति के इतिहास ने जब आँखें खोलीं तो उसने भारत को एक सुसंस्कृत, सबल, समृद्ध राष्ट्र के रूप में देखा । मानव जाति ने बीते समय में शांति, समन्वय, सौहार्द और एकात्मता का संदेश यहीं से प्राप्त किया।
भारत की इस भूमिका के कारण मार्कट्वेन जैसे लेखक को लिखना पड़ा "भारत उपासना पंथों की भूमि, मानव जाति का पालना, भाषा की जन्मभूमि, इतिहास की माता, पुराणों की दादी तथा परम्परा की परदादी है। मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान एवं सृजनशील सामग्री है , उसका भंडार अकेले भारत में है।
किन्तु प्रो. मैक्समूलर जो इन पाश्चात्य संस्कृत पण्डितों के मुर्धन्य माने जाते हैं, उन्होंने तो अपनी पत्नी को साफ-साफ लिखा है कि "वेद का मेरा यह अनुवाद उत्तर काल में भारत के भाग्य पर दूर तक प्रभाव डालेगा। यह उनके धर्म का मूल है और विगत तीन हजार वर्षों से उत्पन्न आस्थाओं को जड़मूल से उखाड़ने का उपाय है ।
श्री एन. के. मजूमदार को मृत्यु से एक वर्ष पूर्व लिखे पत्र में, प्रो. मैक्समूलर लिखते हैं " मैं हिन्दू धर्म को शुद्ध बनाकर ईसाइयत के पास लाने का प्रयास कर रहा हूँ । आप या केशवचन्द्र सरीखे लोग प्रकट तौर पर ईसाइयत को स्वीकार क्यों नहीं करते ?... नदी पर पुल तैयार है। केवल तुम लोगों को चलकर आना बाकी है। पुल के उस पार लोग स्वागत के लिए आपकी राह देख रहे हैं
काफी वर्षों पूर्व महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर डॉ. एनी बेसेण्ट द्वारा व्यक्त विचार भारतीय राष्ट्रीयता और उसकी ज्ञान परम्परा का एक कालजयी दृष्टांत है।
डॉ. एनी बेसेण्ट मूलतः आयरिश महिला थी ।
हिन्दू धर्म से प्रभावित हुई तथा उन्होंने अपना नाम योगिनी राधाबाई रखा। उसी योगिनी राधाबाई द्वारा स्थापित थियोसोफीकल सोसायटी के सम्पर्क में एनी बेसेण्ट आयी ।
एनी बेसेण्ट ने चेतावनी देते हुए कहा था , "विश्व के विभिन्न महान धर्मों एवं पंथों के अपने चालीस वर्षों से अधिक के अध्ययन के आधार पर मैं कह सकती हूँ कि मुझे हिन्दू धर्म जितना सम्पूर्ण, विज्ञानसम्मत, दार्शनिक और आध्यात्मिक दिखा उतना कोई दूसरा धर्म नहीं दिखा। जितना अधिक आप इसे जानते हैं उतना ही अधिक आप इससे प्यार करने लगते हैं और जितना अधिक आप इसे समझते हैं उतनी ही गहराई से आप इसका महत्त्व समझने लगते हैं।
उन्होंने आगे कहा- "इस विषय में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि बिना हिन्दुत्व के भारत का कोई भविष्य ही नहीं है। जिसमें भारत की जड़ें गहरी जमी हुई हैं और यदि उस भूमि से उसे उखाड़ा गया तो भारत वैसे ही सूख जायेगा जैसे कोई वृक्ष भूमि से उखड़ने पर सुख जाता है। समय के साथ हर कोई वैसे ही चला जायेगा जैसे यह आया था किन्तु एक बार हिन्दुत्व को हटा दीजिए तो उसके बाद भारत का क्या बचता है ? भारत का इतिहास, उसका साहित्य, उसकी कला, उसके स्मारक सब में हिन्दुत्व आद्योपांत भरा पड़ा है।'
अपना वक्तव्य समाप्त करते हुए उन्होंने कहा- "यदि हिन्दू ही हिन्दु को नहीं बनाये रखेंगे तो इसको कौन बचायेगा ? यदि भारत के अपने बच्चे है इससे जुड़े न रहे तो फिर इसकी रक्षा कौन करेगा ? स्वयं भारत ही भारत के बचा सकता है तथा भारत और हिन्दुत्व एक ही हैं।
प्रश्न उठता है कि डॉ. एनी बेसेण्ट को यह कहने की आवश्यकता क्यों पड़ी कि अगर हिन्दु ही हिन्दुत्व को नहीं बचायेगा, भारत के बच्चे ही उससे नहीं जुड़े रहेंगे तो उसकी रक्षा कौन करेगा ? ये प्रश्न बताते हैं कि जिस हिन्दुत्व के कारण दुनिया में हमारे देश का अस्तित्त्व व पहचान है उसका समाज में धीरे-धीरे विस्मरण हो रहा था और यह प्रक्रिया आज तक जारी है। इस दृष्टि से ये प्रश्न जितने उस समय प्रासंगिक थे उससे कहीं अधिक उनकी प्रासंगिकता आज के समय में भी है।
यह परिस्थिति क्यों उत्पन्न हुई, इसे समझने के लिए थोड़ा गहराई से विचार करना पड़ेगा। यह सब एकाएक नहीं हुआ अपितु यह चालाक अंग्रेजों के भारतीय समाज पर राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक सर्वव्यापी आक्रमण की स्वाभाविक परिणति है।
प्रख्यात जर्मन विद्वान् शोपन हॉवर ने लिखा -उपनिषद् सर्वोच्च मानव बुद्धि की उपज हैं। यह मेरे जीवन के लिए शान्ति का आश्वासन रहा है और जो मेरी मृत्यु के बाद तक बना रहेगा।
हमबोल्ट गीता को संसार की गम्भीरतम और उच्चतम वस्तु मानते थे।
इन विद्वानों के यह कथन स्वाभाविक थे, परन्तु जैसे-जैसे भारत, भारतीयता और हिन्दू धर्म का अधिक प्रचार होने लगा वैसे-वैसे ईसाई धर्म प्रचारकों और पादरियों के कान खड़े हो गये। उन्हें लगने लगा कि यदि संस्कृत वाङ्मय का इसी प्रकार प्रचार चला तो सृष्टि का निर्माण 4004 ईसा पूर्व हुआ तथा बाइबिल में व्यक्त विचार ही सर्वश्रेष्ठ विचार हैं,' ये धारणाएँ ध्वस्त हो जायेंगी।
अतः उन्होंने अनेक लोग तैयार किये जो भारतीय ज्ञान परम्परा उसकी प्राचीनता, श्रेष्ठता और गहनता को अप्रमाणिक और अवास्तविक बताएं।
इन लोगों के मन में भारतीय साहित्य का भय कितना था इसका परिचय फ्रेडरिक वॉडमेर ने इन शब्दों में दिया था, “बाइबिल के रक्षक इतने भयभीत हो गये हैं कि उन्हें ऐसा लगने लगा है कि संस्कृत का वर्चस्व बाबेल की मीनार गिरा देगा (दि लूम ऑफ लैंग्वेज न्यूयार्क १६४४ - पृ० १७४) ।
दूसरी ओर हजार वर्षों से सेमेटिक मजहबों का, आर्थिक, राजनैतिक विचारधाराओं का, जो सतत आक्रमण चला उन आक्रमणों के परिणामस्वरूप यहाँ के समाज को यहाँ की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक रचनाओं को तोड़ने- मरोड़ने और अपने अनुकूल ढालने का जो प्रयत्न दीर्घकाल में हुआ।
हम भारत को जगत गुरु बनाना चाहते हैं किन्तु पहले भारत क्या है समझ लें।
भारत क्या है । अगर मूल में दृष्टि नहीं रही तो पुरानी कहावत है कि 'गणपति बनाने चले थे और बंदर बन गया।’ गालिब ने कहा है कि "उम्र भर गालिब भूल यही करता रहा, कि धूल चेहरे पर थी और आईना साफ करता रहा"।
आज जहाँ पर धूल जमी है, उसको हटाने की जरूरत है। इसलिए आवश्यक है कि चेहरे की धूल हटे और भारत उसकी ज्ञान परम्परा हमारे सामने असली स्वरुप में आये ?
वर्ष 1921 में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अपने भाषण में कहा था- "ऐसा नहीं है, अंग्रेजों का यह एक सर्वकष आक्रमण है, जो हमारे समाज को, उसके मानस को, उसकी 'आत्मा को मूल से परिवर्तित कर देगा और इसका मुकाबला करने के लिए अगर आप तीर कमान लेकर उसके पीछे छोड़ेंगे तो यह रूप बदलता जाएगा।"
यहाँ टैगोर जी बड़ी महत्वपूर्ण बात कहते हैं, "आज यह आपको अँग्रेज के रूप में दिखाई देता है, कल किसी और रूप में दिखाई देगा, परसों किसी भारतीय के रूप में भी दिखाई दे सकता है।"
इसलिए उन्होंने इसका उपाय भी बताया कि "अपनी आत्मा का साक्षात्कार । भारत अपनी आत्मा को समझकर उस आत्मा की अभिव्यक्ति 'Pahilosphical label' नहीं, रचनाओं, जीवन मूल्यों, दैनंदिन जीवन की अभिव्यक्ति के अंदर जब तक नहीं करेगा, तब तक सफलता नहीं मिलेगी और जितना यह होता जाएगा, उतना अपने आप ये जो उपनिवेशवाद के जितने भी दुष्परिणाम हैं, उन सबसे मुक्ति संभव है।"
अत: भारतीय ज्ञान परम्परा को आज के पाठ्यक्रम में लाना कितना आवश्यकत है हम समझ सकते हैं ।
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भारतीय ज्ञान परंपरा के सैद्धांतिक आधार
आज भारत एक कोरी स्लेट नहीं है। आज़ हजारों-हजारों वर्षों से ऋषियों की तपस्या, अनुभूतियों से निकले दार्शनिक सिद्धांत, उसके आधार पर बने जीवन मूल्य, सामाजिक, आर्थिक रचनाएँ और अस्तित्व के जो विभिन्न पहलू हैं उनकी वनवासी ,गिरिवासी,नगर -ग्राम की श्रेष्ठ परम्परा है।
हमारा राष्ट्र क्या है? राष्ट्र की संकल्पना क्या है? उपनिवेशवाद से बनी हुई मानसिकता क्या है? उसके परिवर्तन के तरीके क्या है ? नवउदारवाद और भूमंडलीकरण के जो परिणाम हो रहे हैं, उनका समाधान क्या है? यह भारतीय ज्ञान परम्परा में ही मिलती है।
भारतीय ज्ञान परम्परा में शब्दों का बहुत महत्व है। जैसे कि 'राष्ट्र और नेशन' एक नहीं हैं । शब्द अपने पीछे एक परम्परा, एक इतिहास और एक विश्व दृष्टि लिए होता है।
पश्चिम के साम्राज्य मजबूत हुए, नेशन वहाँ का प्रबल हुआ तो दुनिया में गए। दुनिया का क्या अनुभव है? जहाँ गए वहाँ के समाजों को जड़मूल से समाप्त किया। चाहे वह अमेरिका हो, आस्ट्रेलिया हो, अफ्रीका हो, कोई भी देश हो, वहाँ के जो कुछ संसाधन थे, उनका शोषण किया। अगर वहाँ के समाज को पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकते थे, तो जितना तोड़-मरोड़ और विकृत कर सकते थे, वैसा किया। यह एक कहानी है।
भारत के लोग भी एक समय में दुनिया में चारों ओर गए, उनका का अनुभव है ? कौन्डीन्य से लेकर और बाद के कालखंड में जो यहाँ के लोग बाहर गए, तो जो समाज जहाँ था, वहाँ से उसको ऊपर उठाया, उन्हें खेती सिखाई, कपड़ा पहनना सिखाया, संस्कार दिए, जीवनमूल्य दिए, उनकी अपनी विशेषता को रखते हुए उत्थान के प्रयत्न किए, ये दो अनुभव दुनिया ने प्रत्यक्ष देखे हैं।
इसलिए सन् 1893 में जब विवेकानंद जी अमेरिका गए थे, तो उन्होंने विश्व धर्मसभा में कहा था कि "मैं वहाँ से आया हूँ, जिसने इस दुनिया के किसी भी कोने में कोई भी प्रताड़ित हुआ तो उसको शरण दी ।
जब यहूदियों के मंदिर जला दिए गए, उनको विस्थापित किया गया तो हमारे यहाँ शरण मिली, जब अग्नि पूजक पारसियों को इस्लाम के आक्रमण के बाद खदेड़ा गया, तो उनको शरण दी ।"
वर्ष 1948 में जब इजराइल बना तो उसके बाद इजराइली काउंसलेट ने एक पुस्तक निकाली 'इंडियन ज्यू' उसकी प्रस्तावना में उन्होंने कहा कि दुनिया के यहूदियों को आह्वान किया गया कि अपने देश को बनाने के लिए आप आइए, तो 104 देशों से 1.5 मिलियन यहूदी आये हर जगह से आए हुए हूदियों की एक ही कहानी थी कि जहाँ वे रहे वहीं उन्हें सताया गया, प्रताड़ित किया गया। उन्हें दोयम नागरिक का दर्जा दिया गया, केवल एक अपवाद है, भारत। जहाँ इस दीर्घकाल के अंदर उन्हें प्रताड़ित नहीं किया गया, सताया नहीं गया। उनके साथ सम्मान का व्यवहार हुआ, यह कैसे संभव हुआ?
जब हम कहते हैं कि राष्ट्र प्रबल करना है तो इस मूल बात को ध्यान में रखना पड़ेगा। हमारे यहाँ जो राष्ट्र की संकल्पना निकली उसकी मूल बात, जिसे वेद का मंत्र कहता है कि- भदमियन्ति ऋषयः स्वर्विदस्तपोदीक्षामुपनिषेदु । ततो राष्ट्र बलमोजश्च जातं तदस्मैदेवा उपसंनयन्तु। अर्थात् जो चिन्तनशील थे, जिन्होंने तपस्या की, अनुभूति की, उन्होंने कल्याण की इच्छा से की हमारे समाज का कल्याण हमारे लोगों का कल्याण नहीं, सारी दुनिया का कल्याण हो; उस इच्छा से उन्होंने उग्र तप किया और उस सब में से, उनके उस कल्याण के चिन्तन, लगातार प्रयत्न और तपस्या में से एक तेजस्वी राष्ट्र की उत्पत्ति हुई।
दूसरी एक बात उसमें आई कि यह भाव उत्पन्न क्यों हुआ? तो उन्होंने एक अनुभव था 'सभी ईश्वरमय हैं, यह एक आधारभूत अवधारणा रही।
तब उसमें से तीसरी बात निकली कि जो Diversity है, विविधताएँ हैं, वह क्या है? आजकल एक शब्द चलता है, 'विविधता में एकता, भारत की विशेषता', हम भी बार-बार बोलते हैं।
हमारे दृष्टाओं ने यह नहीं कहा है, उन्होंने कहा, "एक ही अनेक हुआ है, इसलिए एकता है।" इसलिए वेद का मंत्र है, जिसमें दीर्घतमस ऋषि कहते हैं-'इन्द्रं, मित्रम्, वरुणं,अग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो मरुतमान।''एकम सत्, विप्राः बहुधा वदति।' 'इन्द्रमयमं मातरिश्वानामाहू।'
सत्य एक है विद्वान लोग उसे भिन्न-भिन्न रूपों में कहते हैं । और एक ही अगर विविध हुआ है तो एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। एक-दूसरे से ऊँचा-नीचा नहीं है , एक-दूसरे से द्वेष नहीं है। इस संकल्पना में से समन्वय, सामंजस्य, सहयोग उत्पन्न होता है।
भारतीय ज्ञान परम्परा में इसको केवल Philosphical नहीं रखा। ऋषियों ने यह राष्ट्र जीवन ऐसा बनाया जहाँ ये विविधताएँ मिल-जुलकर रहें और सबका उत्थान हो। इसलिए वेदमंत्र में कहा गया-'जनं विभ्रति बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथ्वीयथौकसम् । सहस्त्र धारा दविणस्य में दुहाँ धुवेव धेनुरनपरकान्ती ।।'अर्थात् विविध प्रकार की भाषाएँ बोलने वाले, विभिन्न प्रकार के धर्मों को मानने वाले रहें कैसे? जैसे एक घर में लोग रहते हैं, उसी तरह से सबको रखने वाली यह जो पृथ्वी है, वह गाय जैसे सबके लिए दूध देती है, वैसे ही धरती, सहस्रधारा से सबको दे।
इसको व्यवहार में लाने के लिए जो अवधारणा दी, वह सभी स्तरों पर परिवार भाव का मॉडल है। इसलिए जो हमारा ढाँचा बनाया वह केवल Philosophical नहीं था। उन्होंने उसे systematic प्रस्तुत किया। इसलिए अथर्ववेद के अंदर व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक की जो सामाजिक यात्रा है, उसका वर्णन अथर्ववेद का एक मंत्र करता है, जिसमें वह कहता है, 'सा उत्क्रामत सा गार्हपत्ये न्यक्रामात' अर्थात वह तत्व व्यक्ति से परिवार तक उत्क्रमित हुआ। सबसे पहले परिवार संस्था आई, फिर परिवार संस्था विकसित हुई। कई परिवार मिले, तो 'सा उत्क्रामत सा आहवनिए न्यक्रामत' फिर यज्ञ संस्था आई, फिर ये संस्था आगे बढ़ी 'सा उत्क्रामत, सासभायाम न्यक्रामत' फिर ग्राम सभाएँ बनीं, फिर कई ग्रामों के समूह बने तो 'सा उत्क्रामत सा मंत्रणे न्यक्रामत' तो जनपद प्रकार की व्यवस्था आई और वे भी आपस में जुड़े और ऊपर की रचना आई राज्यों की।
फिर कहा कि 'Formation of government' कई हो सकती है। इसलिए पुष्पांजलि के मंत्र में वर्णन आता है, जब कहते हैं-'स्वस्ति श्री साम्राज्यम्, भोज्यम्, स्वाराज्यम्,वैराज्यम् । पारमेष्ठ्यमराज्यम्, महाराज्यम् समन्तपर्यायीस्याद सार्वभौमः सार्वायुषः आंताद आपरथिति पृथ्वी समुद्र पर्यन्तः एक राष्ट्र इति ।'
इस प्रकार विविध राज्यों के प्रकार बताने के बाद कहा कि पृथ्वी से समुद्र पर्यन्त एक राष्ट्र है। इस प्रकार व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक परिवार कल्पना आगे बढ़ते- बढ़ते समूचे जगत को अपने में समाहित करती है और ऋषि कहता है 'वासुधैव कुटुम्बकम्' अर्थात् सारी वसुधा एक परिवार है।
"प्रश्न यह है कि इसके लिए आज के समय में क्या हो सकता है ? इसलिए आज पहली जरूरत है कि यह भारत है, जो आज भी कहीं न कहीं जीवित हैं, उसके चिन्तक, विचारक अपनी-अपनी जगहों पर टूटी हुई कड़ियों को खोजकर संकलित करें।"
इस देश में अनेक भाषाएँ, प्रांत रहे और हर प्रांत हर घर के अंदर पद्धति थी कि भोजन के समय पहली रोटी बनेगी और एकलौता बेटा भी भूखा है तो माँ कहती थी, यह तेरे लिए नहीं है, यह गाय के लिए रखी गई है। देश के अन्दर कहीं भी चले जाइए यह Philosophical नहीं था। हर घर के अंदर पानी का पात्र आँगते थे कि कोई पक्षी प्यासा हो तो उसे जल मिलना चाहिए। आजकल बड़ी चर्चा चलती है विश्व एकता की, लेकिन आजकल आदमी को पानी की बोतल खरीदनी पड़ती है। पीने के लिए वह पंछी की चिन्ता करते थे, पशु के पानी की व्यवस्था करते थे। सुबह माताएँ उठती थी तो अनाज छत पर डालती थी कि कोई भूखा पंछी हो तो उसे भोजन मिलना चाहिए। भोजन के लिए बैठते थे तो कहते थे कि घर के बाहर आकर पाँच बार आवाज लगाओं कि कहीं कोई भूखा तो नहीं है। इसलिए भूखे को की जरूरत नहीं पड़ी। पहले हमारे यहाँ, कहीं भी पहुँच जाएँ भोजन का समय हुआ तो उसको भोजन मिलेगा।
यह एकात्मता जीवन में थी। शोषण नहीं होना चाहिए, इसके लिए कानून नहीं बनाया गया, मनुष्य की चेतना को इतना उदात्त किया, जो पूरे भारत में दिखाई देगा।
पहले पद्धति थी कि अनाज लेने जाएँ तो दुकानदार तौलने के बाद से ऊपर से दस बीस दाने डालता था। ऊपर से क्यों? क्योंकि कहीं गलती से आपको कम न मिल गया हो। दूध देने वाला आता था तो पूरा दूध देने के बाद में थोड़ा सा डालता था, कहीं आपको कम न मिल गया हो।
रिक्शे की कतार लगती हुई है, कोई कहता है कि भैया नंबर पीछे है मेरा लेकिन सुबह से एक भी ग्राह नहीं मिला। दस लोग अपना अधिकार छोड़कर उसकी बोहनी करते थे। सारे भारत में यह पद्धति थी।
हमारे यहाँ का जो दर्शन था वह शब्दों से आचरण में व्यक्त हुआ। 'अब्राहिमक वर्ल्ड ब्यू' के अंदर में मनुष्य मरने के बाद कयामत तक उसको पड़े रहना और कयामत तक उसको रहना है इसलिए उसको सजा-धजाकर कौफीन में रखकर फिर शब्द प्रयोग करें कि कि 'may you live in peace' तुम शांति के साथ इसमें रहो।
हमारे यहाँ पर तो मरने के बाद देर नहीं है, तुरंत ही कुछ न कुछ होना है। इसलिए स्वर्गवासी, बैकुंठवासी, कैलासवासी, सद्गति, देवाज्ञा झाली तरह-तरह के शब्द प्रयोग देखेंगे। पुनर्जन्म का सिद्धांत है।
यहाँ तो कबड्डी के खेल में भी मरता है और जीता है, मरता है और जीता है। एक देश की विविधता के बीच भी उन्होंने कैसे एकता की होगी।
फिर यहाँ की सामाजिक रचनाएँ, धर्मपाल जी ने अंग्रेजों के आने के समय तक इस देश में मद्रास प्रेसीडेंसी के अंदर, बंगाल प्रेसीडेंसी में, पंजाब प्रेसीडेंसी के अंदर, मुम्बई प्रेसीडेंसी के अंदर हजारों हजार ऐसे गाँवों का वर्णन किया है जो आत्मनिर्भर थे।
जहाँ अकाल के समय की व्यवस्थाएँ थीं और एक दृष्टि से अपने गाँव की सब प्रकार की जो आवश्यकताएँ हैं जैसे- सुरक्षा की। इन सबकी व्यवस्था वह गाँव स्वयं करता था और अपने से ऊपर की जो इकाई है उसके लिए व्यवस्था करता था।
भारत ने अपने उस चिंतन के आधार पर दैनंदिन व्यवहार के अंदर एक-एक इकाई को रखते हुए एक रचना विकसित की है, आज आवश्यकता इस बात की है, क्योंकि वह बहुत खराब हो चुकी है। इसको बदलने की प्रक्रिया के जो उपकरण हैं, जो विचार हैं, जो मूल्य हैं, उनके प्रचलन की आवश्यकता है।
इसी के साथ-साथ आज सारी बातों के अंदर एक और विषय आता है कि विभिन्न प्रकार की जो अस्मिताएँ हैं, उनमें टकराहट है। जैसे ही किसी की अस्मिता ऊपर होती है तो हमें लगता है कि राष्ट्र की एकता, अखंडता और समाज की एकता पर खतरा है। हमारे यहाँ पर संस्कृत में तीन शब्द हैं; एक अस्तित्व, दूसरा है, अस्मिता और तीसरा है, अहंकार अस्तित्व तो आवश्यक है।
व्यक्ति हो, परिवार हो, समाज हो, राष्ट्र हो, विश्व हो, हरेक का अस्तित्व है, उसकी रक्षा होनी चाहिए। इसी के साथ-साथ हरेक की अपनी यूनिकनेस है, विशेषता है, जिसे उसकी अस्मिता कहते हैं। तो अस्मिता की रक्षा होनी चाहिए, लेकिन यह अस्मिता एकता और अखंडता को खतरा न बने, इस हेतु हमारे पूर्वजों ने कहा हरेक के अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा करते हुए अपने से ऊपर की अस्मिता को प्रमुखता देने से इसका समाधान होगा।
व्यक्ति की अस्मिता रखते हुए परिवार अस्मिता प्रमुखता इसी तरह क्रमशः कुल, जाति, सम्प्रदाय, अस्मितायें रखते संपूर्ण समाज राष्ट्र की अस्मिता प्रमुखता के भाव जागरण से समाधान होगा। मेरी अपनी संप्रदाय की अस्मिता, जाति की अस्मिता, मेरे समूह की अस्मिता, व्यक्ति की अस्मिता वह तो रहे, इस अस्मिता के साथ अगर 'ईगो' जुड़ जाता है तो जैसे ही 'ईगो' जुड़ता है वैसे ही बड़ा-छोटा, ऊँचा-नीचा यह सब भाव उत्पन्न होते हैं।
अस्मिताएँ बुरी नहीं हैं, अस्मिताओं के साथ जब जाति का अहंकार, संप्रदाय का अहंकार, व्यक्ति का अहंकार उत्पन्न होता है तो वह खतरे का कारण बनता है।
आज यह प्रश्न खड़ा है कि विविध प्रकार की अस्मिताएँ देश में हमको दिखाई दे रही हैं जैसे जाट आंदोलन है, मराठा आंदोलन है, पाटीदार आंदोलन है, गुर्जर आंदोलन है, लिंगायत का है और उसके प्रतिक्रिया के अंदर फिर दलित अस्मिता की बात चलती है।
हर एक की अस्मिता रहना चाहिए, लेकिन अस्मिता अहंकार में बदलकर एकता का खतरा न बने और इस नाते से राष्ट्रीय अस्मिता के साथ इसका तालमेल है।
उनके प्रश्न हल हों, उनकी कुछ बातें हल हों, लेकिन उन सबके अंदर एक भाव हो कि कुल मिलाकर हम एक बड़ी अस्मिता के हिस्से हैं।
भारतीय परम्परा में यह जो एक मार्ग हमारे पूर्वजों ने दिया था और यह केवल शब्दों में नहीं दिया था, तो हजारों साल से भारत इतनी भाषाएँ, इतने समूह, इतना सब कुछ लेते हुए जिया है।
एक घटना आती है कि मार्गेट थेचर जब यूके की प्रधानमंत्री थी और सोवित रूस के विखंडन का समय था, गोवचेव के समय वह रूस गयीं थी। लौटकर आई तो एक डिनर के अंदर उस समय कुलदीप नैय्यर, इंग्लैंड में भारत के हाई कमिश्नर थे, तो नैय्यर ने थेचर से पूछा कि "आपकी यात्रा कैसी रही ?" थेचर ने कहा कि " गोर्बाचेव बहुत निराश और उदास थे कि जो एथनिक ग्रुप हैं हमारे यहाँ पर अलग-अलग हैं। यह Ethnic identity की इतनी अधिक टकराइट हो रही है कि मुझे लगता है रूस टूट जाएगा, रूस बिखर रहा है, ऐसे चिंतित है।" तो नैय्यर ने थेचर से पूछा कि "तो आपने क्या कहा?" तो थेचर ने जो जवाब दिया बड़ा विचार करने लायम है। थेचर ने कहा कि मैंने गोर्वाचेव को कहा कि "इस समय तुम अपने मित्र भारत से सलाह क्यों नहीं लेते हो, जो इतने हजारों साल से इतनी भाषाएँ, इतने संप्रदाय, इतनी जातियाँ, इतने राज्य इन सबको लेकर जी रहा है।"
रूस ने 15 अस्मिताओं की Identity प्रबल हुई। वह 15 टुकड़ों में बँट गया। ब्रिटेन भारत छोड़कर गया तो जो 656 राज्य थे, जो संधि से जुड़े थे, उनको छूट दे दिया गया था कि आपकी मर्जी हो तो पाकिस्तान में जाओ, आपकी मर्जी है तो भारत में जाओ। आपकी मर्जी है स्वतंत्र हो जाओ और वह सब राज्य भारत में एक हो गये। कैसे एक हो गये ? यह केवल सरदार पटेल का नेतृत्व था इसलिए नहीं हुआ। यह समाज जीवन की हजारों साल की ऋषियों की तपस्या का अंतर्निहित विविधता को एक सूत्र में बाँधने का जो रहस्य उसमें है।
आज यह भी सोचने की आवश्यकता है कि शब्दों की भी एक दुनिया होती है। स्वरों की भी एक दुनिया होती है, रंगों और रेखाओं की भी अपनी एक दुनिया होती है । भाव और भंगिमाओं की भी एक दुनिया होती है। यह सब दुनिया को संदेश देती हैं।
इसलिए एकेडेमिक विश्लेषण से आगे बढ़ते हुए हमें और नये प्रतिमान, नाटकों के लिए scripts समाज के अंदर सौहार्द, समन्वय बढ़ा सकें, उसकी नई कविताएँ, नई रचनाएँ, नए शब्द, नई फिल्में, इन सब चीजों को आज प्रत्यक्ष रूप में लाने की आवश्यकता है।
दुनिया तो बहुत समय से कह रही है कि भारत के पास बहुत कुछ है । quantum mechanics जब आई तब उस समय web mechanics का जिन्होंने प्रतिपादन किया, ऐसे नोबल पुरस्कार विजेता इरविन ओडिंगर का एक वाक्य था, "Some blood transfusion from cast to west, to save west from spritual anaemia" थोड़ा रक्त यहाँ से वहाँ जाना चाहिए जिससे आध्यात्मिक जो anaemia हो रहा है, रक्ताल्पता हो रही है, उससे मुक्त हो ।
थोड़े समय पहले स्वीडन के internation management के हेड हैं, जीनपियर्स लेहमन, उनका विश्व की सब सभ्यताओं का analysis करके निष्कर्ष छपा था। उसमें उन्होंने कहा कि "global environment is desparet for ideas philosphy and religion, India is most prolephic birth place of all three, due to his great synergy of democracy and diversity" आगे वह कहते हैं कि "The Indian religious and philosophical treditions can provided the sense of moral order spritualy and an ethical compos which the world desparately needs" और आगे वह यह भी कहते हैं कि "21st Century better become and century inspoited by indian polythism"
अगर हम यह नहीं करते हैं, भारत ने जो रास्ता दिखाया तो क्या होगा इस पर वह कहता है or else we are headed for disaster.
बाहर के लोग तो कह रहे हैं लेकिन ऐसा भारत बनाने की जिम्मेदारी हमारे ऊपर है। और मुझे लगता है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीती में भारतीय ज्ञान परम्परा का समावेश एक बड़ा माध्यम बनेगा।
जब हम किसी देश, उसकी संस्कृति, परम्पराओं व विशेषताओं के बारे में जानना चाहते हैं तो उसका आधार बनती है उसकी ग्रन्थ संपदा। इसी प्रकार भारत के बारे जानना है; भारत के दर्शन, धर्म, संस्कृति, सभ्यताओं को जानना है तो उसका आधार यहाँ की ग्रन्थ सम्पदा बनेगी।
वैसे भारत में प्राचीन काल से अब तक लिखा गया वांग्मय इतना विशाल है कि केवल पुस्तकों के नाम ही लिखे जायें तो नामों की सूची के ही कई ग्रन्थ तैयार हो सकते हैं। परन्तु मूलभूत ग्रन्थ जो सम्पूर्ण समाज में मान्य हैं, समाज जिससे प्रेरणा प्राप्त करता है, समूचा भारत जिसमें अभिव्यक्त होता है, उन्हें प्रतीकात्मक रूप में दो श्लोकों में अभिव्यक्त किया गया है-
चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा । रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ॥
जैनागमास्त्रिपिटका गुरुग्रन्थः सतां गिरः। एषः ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः अदेयो हृदि सर्वदा ॥ (चारों वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत, गीता, सर्व दर्शन, जैन आगम, बौद्ध त्रिपिटक, गुरुग्रन्थ साहब तथा सभी संतों की वाणी में निहित श्रेष्ठतम ज्ञान निधि श्रद्धापूर्वक हृदय में धारण करें)।
वेद- भारतीय समाज जीवन में कहा गया है- ."वेदोऽखिलो धर्ममूलम्" वेद सभी धर्मों का मूल है। "वेदोऽखिलो ज्ञानमूलम्" सभी ज्ञान का मूल वेद है। स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे कि वेदों का अर्थ कोई पुस्तक नहीं, अपितु वेद का अर्थ है भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोश।
ऋषि मंत्रद्रष्टा- वेदों में जो भिन्न-भिन्न मंत्र हैं, उन्हें किसी-न-किसी ऋषि ने कहा है परन्तु फिर भी ऋषि और मंत्र के सम्बन्ध को अभिव्यक्त करने वाला विलक्षण वाक्य प्रयोग किया जाता है कि 'ऋषयों मंत्र दृष्टारः ' ऋषि मंत्र ने द्रष्टा हैं।
वैदिक ऋषियों की मान्यता थी, अव्यक्त अवस्था से जब जगत् व्यक्त होता है तो मूल स्थिति में विक्षोभ उत्पन्न होता है। इस विक्षोभ के साथ ही कंपन (Vibration) प्रारम्भ होते हैं। कंपन ही ध्वनि के रूप में व्यक्त होते हैं। अतः माना गया कि सृष्टि कंपन है। और हमारे यहाँ प्राचीन काल से नादब्रह्म को सृष्टि ने साक्षात्कार किया तथा उन्हें वैदिक मंत्रों के रूप में अभिव्यक्त भी किया।
विविध ऋषि वंशों में जो सूक्त परम्परा से चले आ रहे थे उस एक वेद राशि को सर्वसामान्य लोगों की सुविधा के लिए महर्षि वेदव्यास ने चार भागों में विभाजित किया जिसे हम लोग चार वेदों के रूप में जानते हैं। ये हैं- (1) ऋग्वेद, (2) यजुर्वेद, (3) सामवेद (4) अथर्ववेद।
ऋषि- उस मंत्र के द्रष्टा । देवता उस मंत्र का प्रतिपाद्य विषय । छंद- उस मंत्र की अक्षर एवं स्वर रचना को इंगित करता है।
वेदों के द्रष्टा ऋषि वेदों के मंत्रद्रष्टा ऋषि अनेक हुए। इनमें पुरुष भी हैं, स्त्रियाँ भी हैं। लगभग 300 से अधिक ऋषि हुए। प्रमुख पुरुष मंत्रद्रष्टा है जैसे वसिष्ठ विश्वामित्र, अत्रि, अंगिरा, भृगु, भारद्वाज, वामदेव, कश्यप, नारद, मनु, मत्सम दीर्घतमस्, वैवस्वत मनु, शिवि, औशीनरः प्रतर्दन, मधुच्छन्दा, देवापि मेधातिथि शुनःशेप, कण्व, गौतम, कुत्स, कुक्षीवान् आदि। प्रमुख महिलामंत्र द्रष्टा- श्रद्धा, रोमशा, लोपामुद्रा, विश्ववारा अपाला, घोषा यमीन, इन्द्राणी, ऊर्वशी, दिक्षिणा, सूर्या, आदि।
समूची सृष्टि में नाद है, ध्वनि है। यह सूक्ष्म से स्थूल रूप में अभिव्यक्त होती है।
अपनी प्रचण्ड तपस्या के द्वारा ऋषियों ने यह साक्षात्कार किया कि इस ध्वनि या नाद के चार रूप हैं। परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी । इन चारों रूपों में परा वाणी ओंकार रूप हैं जो योग साधना की गहराइयों में जाने पर अनुभूत होती है।
परा यह मूल श्रोत है । उससे कुछ स्थूल अभिव्यक्ति जब होती है तो वह पश्यन्ती कहते हैं। तीसरा रूप मध्यमा है जब ध्वनि कण्ठ तक आती है और चौथा रूप उसका वैखरी है जिसे आजकल ध्वन्यात्मक (फोनेटिक) कहा जाता है।
यह वैखरी वाणी स्वरों के रूप में अभिव्यक्त होती है। इन स्वरों से वायु मण्डल में एक प्रकार का कम्पन (Vibration) होता है जो वातावरण को प्रभावित करता है। अतः वेद मंत्रों के उच्चारण में स्वर विज्ञान का बहुत महत्व है। स्वर पर जोर देने में यदि भिन्नता रही तो अर्थ बदल जाता है।
पुराणों में एक कथा आती है। एक बार देवगुरु बृहस्पति देवसभा में गये तब सत्ता के अहंकारवश इन्द्र सिंहासन से नहीं उठा उसकी इस अभद्रता से रूष्ट होकर बृहस्पति ने दरिद्र हो जाने का श्राप दिया। असुरो को यह जानकारी मिली तो उत्साहित होकर उन्होंने देवों पर आक्रमण कर उन्हें पराभूत किया। पराजित देवता सहयोग की याचना से ब्रह्मा के पास पहुँचे। ब्रह्मा ने उन्हें सलाह दी कि किसी ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण को गुरु का आसन दे उसका आशीर्वाद प्राप्त करते। इस पर देवों ने पूछा: ऐसा ब्राह्मण कौन है ?
ब्रह्मा ने कहा- प्रजापति त्वष्टा का पुत्र विश्वरूप ब्रह्मनिष्ठ है। देवता विश्वरूप के पास गये और उनसे प्रार्थना की इस पर विश्वरूप ने उन्हें नारायण कवच दिया जिसके सहयोग से देवता पुनः विजयी हुए।
विश्वरूप की देव और दानवों में सम दृष्टि थी तथा उनका मातृकुल असुरो से था अतः यज्ञ के समय के असुरों को भी आहुति देते थे। यह जानकारी इन्द्रको हुई तो उसने उनका मस्तक काट दिया। पुत्र के मरने की जानकारी मिलने पर क्रुद्ध हुए और इन्द्र को मारने वाला पुत्र प्राप्त करने का यज्ञ किया। इस यज्ञ में ऋत्विजों ने आहुति देते हुए मंत्र उच्चारण किया- 'इन्द्रशत्रो विवर्धस्व, इन्द्रशत्रो विवर्धस्व' इसमें भूल से 'इन्द्र' शब्द को उदात स्वर में कहा तथा 'शत्रों' शब्द को अनुदात्त स्वर में कहा। इसके परिणामस्वरूप अर्थ बदल गया; क्योंकि इन्द्रशत्रों शब्दों में दो पद हैं इन्द्र और शत्रु का अर्थ है मारने वाला। यदि आदि पद पर जोर दिया तो अर्थ होगा, 'इन्द्रः शत्रुः यस्य सः' अर्थात् इन्द्र जिसको मारेगा वह। परन्तु अंतिम पद पर जोर दिया तो उसका अर्थ होगा 'इन्द्रस्य शत्रुः' अर्थात् इन्द्र का शत्रु इन्द्र को मारने वाला।
ऋषि ने चूंकि आदि पद पर जोर दिया था इसलिए भाव बदल गया। अतः पुत्र वृत्रासुर पैदा तो हुआ पर वह इन्द्र के ही हाथों मारा गया। अतः कहा जाता है गलत उच्चारण स्वर साधक के ऊपर ही वज्र के समान प्रहार करता है।अतः वेदमंत्रों के उच्चारण हेतु स्वर निश्चित हैं। उनके संकेत हेतु वेद मंत्रों के अक्षरों पर आड़ी रेखा (-) और खड़ी रेखा (1) के रूप में संकेत रहते हैं। कुछ अक्षरों पर कोई संकेत नहीं होता। ये संकेत स्वरों के उच्चारण के प्रकार को बताते हैं। वेद मंत्रों के उच्चारण के समय वेद-पण्डित हाथ की हथेली नीचे, ऊपर करते दिखते हैं। यह भी इन संकेतों को बताते हैं।
स्वरों के प्रकार- स्वर तीन प्रकार के हैं। एक को उदात्त कहते हैं, दूसरा अनुदात्त तथा तीसरा स्वरित। महर्षि पाणिनि के अनुसार- उच्चैरुनुदात्तः उदात्त अर्थात् जिस स्वर पर बल देकर ऊँचा उच्चारण किया है। जाता नीचैरनुदात्तः अनुदात अर्थात् हल्के से उच्चारण किया जाने वाला स्वर समाहार स्वरितः स्वरित अर्थात् शेष स्वर स्वरित है। इसमें उदात्त अनुदात्त के धर्म समप्रमाण में रहते हैं।
वेदों में स्वरांकन- वेद ग्रन्थों में स्वरों का निर्देश करने के भिन्न-भिन्न प्रकार है।
वैदिक देवता- वैदिक सूक्तों में अनेक देवताओं का वर्णन है। अपने से उच्चतर शक्ति की मान्यता एवं उसकी श्रेष्ठता एवं महानता की अनुभूति के कारण मानव हृदय में उत्पन्न इस शक्ति या देवता के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति इन सूक्तों में हुई है।
काल के प्रवाह में श्रद्धा का भाव तो मानव हृदय में चिरंतन बना रहा, परन्तु श्रद्धा के पात्र बदलते गये। अतः हम देखते हैं कि जैसे आजकल भगवान् विष्णु, शिव, शक्ति आदि रूप समाज की श्रद्धा के केन्द्र बिन्दु हैं, तो दूसरी ओर हनुमान जी की लोकप्रियता वनवासी अंचलों से लेकर नगरवासियों तक समान रूप से है। परन्तु इन सब देवताओं के नाम वैदिक युग में प्रचलित नहीं थे। उस समय के 8 प्रचलित श्रद्धा के केन्द्र थे- इन्द्र, वरुण, यम, अग्नि, मातरिश्वा, मित्र आदि देवता। वैदिक काल में इन्द्र सर्वाधिक लोकप्रिय देवता था, अतः उसके बारे में 250 सूक्त है।
वेदों का भाष्य- यदि वेदों के अर्थ ठीक से न लगाये गये तो अनर्थ हो जाता है। जैसे पाश्चात्य अनुवादकों ने जो अनुवाद किया है, जैसे - ग्रिफिथ, मैक्समूलर उसमें यही समस्या आती है।
1. प्रथम बात वैदिक शब्दों के अर्थ लगाते समय एक बात ध्यान में रखने की है कि ये रूढ़ नहीं अपितु यौगिक हैं। अतः एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। प्रसंग के अनुसार शब्द का अर्थ बदलता रहता है।
2. मंत्रों की व्याख्या करते समय शब्दों के अर्थ तीन स्तर पर किये जा सकते हैं- (अ) आध्यात्मिक। (व) आधिदैविक। (स) आधिभौतिक। उदाहरण के लिए, पुरुष शब्द लें। सामान्य रूप से पुरुष याने मनुष्य होता है, परन्तु वैदिक शब्द यौगिक होने से मात्र इतना ही अर्थ नहीं होगा। पुरुष का अर्थ है उपपुर में रहने वाला पर इसक आधिभौतिक अर्थ में पूर्व पाने नगर में रहने वाला मनु आधिदैविक अर्थ में इस जगत् रूपी पर में ध्यान है यह देवता। आध्यात्मिक अर्थ में शरीर रूपी पर में रहने वाला याने जीवात्मा अतः संदर्भ का ध्यान रखते हुए वैदिक शब्दों के रूप यौगिक हैं, इसे समझना चाहिए।
प्राचीन काल में वेदों के कुछ हिस्से का जिन्होंने भाष्य किया ऐसे अनेक आया के नाम मिलते हैं, जैसे स्कंद स्वामी, उद्गीथ, हरिस्वामी, वररुचि, आनन्दतीर्थ, भरत स्वामी वर्तमान काल में वेद भाष्य की तीन धारायें मिलती है- 1. वर्तमान काल में जो प्राचीन भाष्य चारों वेदों का मिलता है जिसका मैक्समूलर ने अनुवाद किया वह भाष्य सायणाचार्य का है। यह भाष्य मुख्यरूप से इतिहास एवं यज्ञपरक है। 2. दूसरा प्रकार वह था जो यास्काचार्य के निरुक्त पर आधारित है। उन्होंने वेदों में विज्ञान को भी अभिव्यक्त किया था। वर्तमान काल में उस धारा को पुनर्जीवित करने का महान् प्रयत्न स्वामी दयानन्द सरस्वती ने किया। उनके इस अप्रतिम योगदान की योगिराज श्री अरविन्द ने भी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। 3. तीसरा प्रकार योगी अरविन्द के भाष्य का है। यह भाष्य आध्यात्मिक है तथा सम्पूर्ण वेदों का नहीं अपितु कुछ सूक्तों का भाग्य उन्होंने किया है। इसके अतिरिक्त पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी का हिन्दी में चारों वेदों का भाष्य है। इसी प्रकार गायत्री परिवार के पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का भी वेदभाष्य मिलता है।
वेदपठन का अधिकार- दुर्भाग्य से देश में बीच के काल-खण्ड में एक धारणा उत्पन्न हुई कि वेद पठन का अधिकार कुछ निश्चित जातियों को है। शूद्रों और स्त्रियों को यह अधिकार नहीं है, ऐसे विधान कुछ स्मृतियों में पाये जाते हैं। इसी आधार पर इसकी शास्त्र-मायता का भी दावा किया जाता है। जब इस मान्यता पर विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि जिन वेदों के अनेक सूकों की द्रष्टा महिलाएँ रहीं, उन्हीं को उसे पठन का अधिकार नहीं यह बात ही विचित्र लगती हैं। ऐसी अवस्था में प्रमाण क्या माने? इसके संदर्भ में स्वामी विवेकानंद का कथन विचारणीय है। एक बार वे प्रवास में थे। एक स्थान पर एक व्यक्ति ने पूछा कि पुराणों में वर्णन आता है कि अमुक राजा के साठ हजार पुत्र थे, अमुक राजा ने हजार वर्ष तक राज्य किया तो यह बात जैविक दृष्टि से अव्यावहारिक लगती है। इसके उत्तर में स्वामी जी ने कहा, कई चीजें रूपक के रूप में कही जाती हैं। अतः जब कभी ऐसा प्रसंग आये तो सभी पुराणों का मूल वेद है और वेद में कहा गया है- 'पश्येम शरदः शतम्' अर्थात् सौ वर्ष तक देखें। इस ऋचा में मनुष्य की औसत आयु सौ वर्ष बतायी है। अपवाद कुछ हो सकते हैं परन्तु अपवाद नियम नहीं होते। अतएव किसी संदर्भ में दो विपरीत मत हो जायें तो जैसे नीचे की अदालत का फैसला उच्च न्यायालय से निरस्त हो जाता है, उसी प्रकार वेद का प्रामाण्य बाकी चीजों को निरस्त कर देगा।
वेदों का तत्त्वचिंतन- वैसे वेदों के अनेक सूक्तों में तत्त्वज्ञान का विश्लेषण अनुभूतियाँ मिलती हैं। इन सूक्तों में ऋग्वेद का नसदीय सूक्त, अस्यवामीयसूक्त, पुरुषसूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त, यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय जिनमें तत्त्वचिंतन, अनुभूतियाँ अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुँची हैं। इन सूक्तों में नासदीय सूक्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सृष्टि के पूर्व से वर्णन आरम्भ कर आगे चलकर जितने दर्शन विकसित हुए उनके बोच इस सूक्त में दिखाई देते हैं। स्वामी विवेकानन्द को भी यह सूक्त बहुत प्रिय था। इस सूक्त को देश में अनेक लोगों ने देखा और सुना होगा। श्याम बेनेगल रचित भारत एक खोज" सीरियल के शुरू में कुछ वेदमंत्र बोले जाते थे। ये नासदीय सूक्त के हो मंत्र थे। इसका थोड़ी गम्भीरता से विचार करेंगे तो वैदिक तत्त्व चिंतन व अनुभूति की गहराई हमारे सामने स्पष्ट होगी।
नासदीय सूक्त- आज भी जगत् के वैज्ञानिकों के समक्ष एक प्रश्न है कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति क्या थी? स्थान, काल इन सबकी अवधारणा सापेक्ष है। अतः ब्रह्माण्ड उत्पत्ति के बाद इनका अस्तित्व ध्यान में आता है पर पूर्व में क्या था उसका वर्णन करते हुए नासदीय सूक्त (ऋ 1-126) प्रारम्भ होता है। नंना सदासीनो सदासीत् तदानीं नासीदजो नो व्योमा परोयत्। किमावरीवः कुह कस्य शम्भः किमासीद्गहनं गम्भीरम् ॥1॥ न मृत्युरासीदमृतं न न राज्या अह्म आसीत् प्रकेतः । आनीदवातं स्वध्या तदेकं तस्माद्धान्यन्त्र परः किं चनास ॥ 2 ॥ स्वामी विवेकानन्द ने इसकी काव्यात्मक व्याख्या की है। न यह संसार था न यह आकाश इस धुन्ध का आवरण क्या था? वह भी किसका ? गहन अंधकार की गहराइयों में क्या था? तम आसीत् तमसा गूढहमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् । तब शून्य में जो था वह
तुच्छयेनाभ्वपिहितं यदासीत् तपसस्तमहिनाजायतैकम्॥3॥ तब तम में छिपकर हम बैठा था। जैसे जल में जल समाहित हो पहचाना न जाय।
सृष्टि के पूर्व का यह अद्भुत वर्णन है। आज के विख्यात ब्रह्माण्ड विज्ञानी स्टीफन हॉकिन्स ने एक पुस्तक लिखी है "The brief histyory of time" उसमें यह वर्णन करता है। सर्जन के समय क्या था जानना कठिन है; परन्तु ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बाद तारे बने और ये तारे स्वयं की ऊर्जा से प्रकाशित हैं। धीरे-धीरे विशाल तारे का ईंधन समाप्त होने पर वह भरने लगता है, इस प्रक्रिया में वह सिकुड़ने लगता है और एक प्रतीकात्मक बिन्दु में परिवर्तित हो जाता है। इस अवस्था में उसमें इतनी प्रचण्ड आकर्षण शक्ति उसमें रहती हैं कि प्रकाश भी उसमें जाता है तो लौट नहीं पाता। अतः ये अदृश्य बिन्दु है। आजकल उन्हें नाम दिया जाता है ब्लैक होल तो हॉकिन्स कहता है ब्लैक होल के अन्दर क्या है? शायद उससे सृष्टिपूर्व की स्थिति का पता लगे। पर वह अज्ञात है। तो एक नाम उसे दिया गया 'ब्लैक होल' याने अंधकारमय। इसी को अभिव्यक्त करते हुए ऋषि ने अत्यन्त सुन्दर उपमा से उस समय की स्थिति अभिव्यक्त की है कि क्या असे आ उस स्थिति में सृष्टि की प्रक्रिया कैसे हुई यह आदिम प्रश्न है। वास इसका उत्तर देते हुए कहता है- कामस्तदग्रे समवर्तताथि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्। सतो बन्धुमति निरविन्दन् हृदि प्रतीच्या कवयो मनीषा ॥२॥ तब उस आदि तत्त्व के मानस में प्रथम आकांक्षा जगी, उससे ष्टि रचना प्रारम्भ हुई और अव्यक्त स्थिति से सृष्टि व्यक्त होने लगी। इसका साक्षात्कार ऋषियों ने अपने अंतर में किया। आज विज्ञान भी मानने लगा है कि सभी शक्तियों के मूल में कोई चेतना नहीं है। 'Concicousness' जो आज चर्चा का विषय है।
ऋग्वेद के अन्तर्गत ऐतरेय ब्राह्मण के कर्ता महीदास दासीपुत्र थे, पर वे वेदों के धुरन्धर विद्वान थे। इसके अंतिम तीन अध्यायों के अनुशीलन से तत्कालीन भारत की भौगोलिक दशा, विविध राज्य शासन की पद्धतियाँ और राजवंशों की दुर्लभ जानकारी मिलती है। एक भ्रम देश में फैलाया गया कि भारत को राजनैतिक रूप से अँग्रेजों ने एक किया, परन्तु भारत का दीर्घकालीन इतिहास इस बात का साक्षी है कि सम्पूर्ण भारत अनेक बार एक राजा के शासनके अन्तर्गत रहा है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ब्राह्मण ग्रन्थों में एक ओर जहाँ भौतिक के साथ-साथ पारलौकिक सुख स्वर्ग प्राप्ति हेतु यज्ञों के विधानों का वर्णन हैं, वहीं उनसे तत्कालीन सामाजिक स्थिति का भी ज्ञान हमें होता है।
उपनिषद्
ब्राह्मण ग्रन्थ कर्म का प्रतिपादन करते हैं। कर्मजन्य भोगों से आनन्द लेते हुए कुछ और उच्चतर आनन्द की अभीप्सा में उपासना होती है। आरण्यक उपासना के बारे में इंगित करते हैं और उपनिषद् अंतिम ज्ञान के शिखर हैं। आदिकाल से मानव मनमें सृष्टि के कारण व रहस्यों को जानने की अभीप्सा में जो प्रश्न उठे जिनकी बीजरूप अभिव्यक्ति ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में होती हैं ये प्रश्न अधिकाधिक सता के साथ जहाँ उठाये गये और जिनका समाधान किया गया, वे ही ग्रन्थ उपनिषद् कहलाये । इस नाते उपनिषद् समूचे भारतीय तत्त्व-चिंतन का मूलाधार हैं।
उपनिषदों में वर्णित तत्वचिंतन और अनुभूतियों ने दुनिया पर भी प्रभाव डाला। यह इससे ज्ञात होता है कि दाराशिकोह ने उनका फारसी में अनुवाद किया। उस अनुवाद को पढ़कर अभिभूत हुए फ्रेंच लेखक दुषेरोन ने उनका लैटिन में अनुवाद किया जो वर्ष 1802 में स्ट्रासबर्ग प्रेस में छपा। लैटिन ग्रन्थ 'ओपनेखत्' को जब प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक शोपेनहॉवर ने पढ़ा तो उसके उद्गार थे- "उपनिषद् मानव बुद्धि की सर्वोच्च अभिव्यक्ति हैं।
ध्यान में आया कि संविधान सभा में सुझाव आया था कि शिक्षा नीति चार बिंदुओं पर बनाई जाए-
(1) यूरोपी पद्धति अपनाते हुए अंग्रेजी में शिक्षा दी जाए,
(2) संस्कृत पाठशालाएँ आदि जो आर्थिक सहायता से चल रही हैं, उन्हें यह सहायता मिलनी बंद हो जाए.
(3) पाश्चात्य मूल्यों पर आभूत शिक्षा मिले
(4) अंग्रेजी को महत्व देते हुए अंग्रेजों की शिक्षा पद्धति को यथावत अपनाया जाये। ऐसी शिक्षा पद्धति लागू होने पर भारतीय ज्ञान परंपरा स्वतः ही समाप्त होने लगी।
भारतीय ज्ञान परम्परा क्या है ? इसके अन्दर तीन शब्द हैं : भारतीय, ज्ञान और परम्परा ।
भारतीय ज्ञान परम्परा के सन्दर्भ में हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह केवल बुद्धिजीवी नहीं है।
हम जानते है की अस्तित्व के तीन स्तर है। पहला जो हमें दिखता है वह पदार्थ में हैं, हमारा शरीर पर हमारे यहाँ तीन देह का बन्धन आता है, स्थूल, सूक्ष्म और कारण ।
इसी प्रकार से सम्पूर्ण अस्तित्त्व तीन सत्ता में कहा गया, अधिभौतिक, आधिदैविक, -आध्यात्मिक। यह अन्तर नहीं है यह नित्य सम्बन्ध है।
जैसे एक ही माता पिता की दो सन्तानें नाक नक्श में माता पिता पर होते हैं, पर प्रकृति से एक नहीं क्योंकि यह केवल शरीर नहीं है। खलील जिब्रान ने अपनी प्रोफेट नामक किताब में बच्चों पर बात करते हुए कहा है कि 'चोर चिडून आर नॉट सोर्स' और दूसरा कहता है कि "दे कम को यू बट नॉट फ्रॉम यू" और तीसरा कहता है कि "बू से बीॉस देयर बॉडीज बट नॉट देवर सोल"
उसी प्रकार हमारे यहाँ कहा गया कि स्थूल शरीर प्रकार में और सूक्ष्म शरीर विचार में है, और कारण शरीर भाव में है। जब तक भाव जगत में परिवर्तन नहीं आता तब तक मनुष्य का स्वभाव नहीं बदलता है। दुर्योधन का 'जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिर्जानाभ्यधर्म न च मे निवृत्तिः' यह आज भी सत्य है क्योंकि यह भाव जगत् में नहीं उतरता।
इसलिए भारतीय ज्ञान परम्परा का यह जो विवेचन है हमारे यहाँ ज्ञान, उपासना और विवेचन में भेद नहीं है। इसलिए निजी जीवन और सामाजिक जीवन दूसरा विचार हो सकता है, पर हमारे यहाँ यह पृथक नहीं है। फिर भी अन्तर्मन के अन्दर यदि छल-कपट बचा है तो आध्यात्मक के क्षेत्र में आप एक भी कदम आगे नहीं बढ़ सकते। इसलिए ज्ञान परम्परा का विवेचन केवल बौद्धिक स्तर पर नहीं हो सकता बल्कि इसका विवेचन बौद्धिक के साथ मनोविज्ञान, मूल्य प्रणाली और दैनिक आचार की अभिव्यक्ति में समग्रता के साथ करना चाहिए।
दूसरी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि इस ज्ञान परम्परा का विश्लेषण करते समय हमें इसके उपकरणों का पता नहीं होता। यदि शब्द की व्याख्या करती है और न उसे निरुक्त नहीं पता तो शब्द का विवेचन क्या करेगा? भारतीय संस्कृति पर बहुत सारे आक्षेप और विसंगतियाँ थोपे गए हैं परन्तु जब हम उसके अन्दर जाएँगे तो पता चलेगा कि यह उसके मूल में नहीं है। एक और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय ज्ञान परम्परा अखण्ड रही है। यह यहाँ से चली तो सम्पूर्ण विश्व तक पहुँची। आज का जो कुरुक्षेत्र है वहाँ से सरस्वती का उद्भव हुआ। फिर शतपथ ब्राह्मण में वर्णन आता है कि माधव अग्नि से पीछे-पीछे चलते हैं व संस्कृति अग्निसदानीरा पर जाकर रुकती है। फिर विन्ध्य तक आकर रूकी, अगस्त्य पहले व्यक्ति थे जिन्होंने विन्ध्य पार किया। इसलिए तमिल व्याकरण को अगस्त्य भी कहते हैं। उन्हीं के साथ संस्कृति समुद्रों, पहाड़ों रेगिस्तानों को पार करते हुए सम्पूर्ण विश्व के अन्दर गयी।
आज भी दुनिया के अन्दर लगभग 50-60 आदिवासी या मूल सभ्यताओं के लोग जीवित हैं। उनका तत्त्वज्ञान, उनकी मूल प्रणाली और उनकी मान्यताएँ यदि आप कि यह यहाँ है जो आप यहाँ देखते हैं। अफ्रीका की जूलू सभ्यता मानते है कि जो मनुष्य है वह एक अंश है और वह अस्तित्व है उसे रेगू कहते है। जीवन के उद्देश्य को वह कहते हैं देगू में विलीन हो जाना। उसके लिए वह बाल कहते हैं जैसे बिन्दु सिन्धु में मिल जाता है।
एक कहावत है कि Not a blade of grass can move its head without the permission of Giod. अर्थात् भगवान की अनुमति के बिना घास का तिनका भी नहीं हिल सकता है। एक कालखण्ड के अन्दर हम लगातार रक्षात्मक रहे और आक्रमणकारी बदलते रहे। आक्रमण झेलने वाला समाज यही रहा, वह थक गया, और जैसे कछुआ बस देखकर अपने आप को समेट लेता है, उसी तरह से कई परम्पराएँ आ गई, अस्पृश्यता आ गयी। सावरकार जो सात प्रकार की बंदी का उल्लेख करते हैं, रोटी बंदी, बेटी बंदी, लोटा बंदी, वेद बंदी, शुद्धि बंदी, स्पर्श बंदी, सिन्धु बंदी। इन सातों बंदियों ने समाज को जकड़ कर सिकोड़ दिया। यदि वैदिक काल की प्रार्थनाएँ देखेंगे तो उसमें गाना नहीं मिलेगा। परन्तु आजकल की प्रार्थनाएँ केवल रुदन की प्रार्थनाएँ हो गयी हैं। जबकि पहले की प्रार्थनाओं में उल्लास, पराक्रम आदि होता था और जगत् के सभी ऐश्वर्य को भोगकर भी परमपिता को विस्मृत न करने की प्रार्थनाएँ थीं। स्वामी विवेकानन्द इसे पूरब और पश्चिम का समन्वय कहते थे। आज के समय में और ज्ञान की परम्परा में उन यात्राओं को निकालकर लोगों के सामने रखना होगा। जो सारा समाजशास्त्रीय विकास है। जो अभिव्यक्त है वह सबसे पहले विवाह संस्था है। फिर उसमें कई परिवार बने और परिवार के बाद गाँव आए और गाँव के बाद जनपद तथा फिर विभिन्न प्रकार को राज्य पद्धतियाँ आई। वहाँ से लेकर फिर यह श्रृंखला विश्वबन्धुत्व तक पहुँची। मन्त्र में सम्पूर्ण यात्रा दिखती है। इसे ऐतिहासिक क्रम के विकास व क्रम में वस्तुत करना है।
ज्ञान परम्परा में एक और विशेष तथ्य आता है वह है कि लोक जीवन के अन्दर भी सम्पूर्ण तत्त्व है। ज्ञान परम्परा का परिचय कराने हेतु यह आवश्यकता होती कि समाज के दैनिक कर्मों को अध्ययन करके परिचय कराया जाए न कि ग्रन्थों का । इस विषय में रविन्द्र गुरू जी और धर्मपाल जी का एक सन्दर्भ दिया जा सकता है। धर्मपाल जी से जो भी मिलता वह उससे कहते कि यदि गाँधी जी के बारे में कुछ जानना है तो रविन्द्र गुरु जी से बात करें। अब ऐसे व्यक्ति से कौन न मिलना चाहेगा जिसकी बात बार-बार धर्मपाल जी करते हैं तो एक व्यक्ति ने जि से मुलाकात कर गाँधी जी के विषय में सवाल किया मगर वह पहले ही प्रश्न पर धराशायी हो गए। रविन्द्र गुरु जी ने कहा कि मैंने अपने जीवन में गाँधी जी की कोई पुस्तक नहीं पड़ी, लेकिन जब रविन्द्र गुरु जी ने बोलना आरम्भ किया तो उन्हें लगा कि गाँधी को समझना आज आसान हुआ। रविन्द्र जी से जब उस व्यक्ति ने पूछा कि आपने यह सब कहाँ से सीखा तो गुरु जी ने कहा कि यह सब मैं समाज से सीखा है। पिछले पच्चीस वर्षों में समाज में परम्पराएँ, अन्तर्सम्बन्ध, उत्सव और उनके पीछे की परम्पराएँ और उनके पीछे का मनोविज्ञान सीखा। वह कहा करते थे कि पुराने जमाने में लौटेंगे तो लोटे मिलेंगे गिलास नहीं। लोटा नियंत्रण में रहता है। जितनी चाहो उतनी पतली धार बना लो। यह मात्र डिजाइन की बात नहीं है बल्कि इसमें एक दर्शन है।
अब आज की बात करें तो सब अलग तरह के पेड़ आ गए पत्ते अलग होने लगे। तो एक दिन गुरु जी बैठे हुए थे, ऊपर एक घोंसला था। कुछ पत्ते गिरे, वह एक दम नए पत्ते थे। गुरु जी से किसी ने कहा अब तो जमाने के साथ बदलिए गुरु जी, क्योंकि पक्षियों ने भी स्वयं को बदल लिया है। "गुरु जी ने हँसकर कहा यह तो ठीक है" मगर पक्षियों से तुम सीखो, पत्ते किसी भी पेड़ के हो, उन्हें यह पता है कि अंडे के लिए तापमान कितना होना चाहिए, तो आजकल के मनुष्य को सीखने की आवश्यकता है। यह नहीं कि पश्चिम में किसी ने कुछ सिखाया कि कौन असभ्य है और हम मान गए।
इतिहास में अगर हम जाएँगे तो कौन असभ्य और कौन सभ्य, यह सोचना पड़ेगा। कोलम्बस जब भारत आया तो वह मरणासन्न था। स्थानीय जनजातियों ने उसे और उसके दोस्तों को खाना खिलाया, उनके प्राणों की रक्षा की और जब यह लोग पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गए, तो उन्होंने पीले रंग का चमकता हुआ सोना देखा और जिन लोगों ने उनके प्राणों की रक्षा की थी, उन्हें ही नशे की दवा खिलाकर पशुओं की तरह काट दिया। ऐसे लोग स्वयं को सभ्य कहते हैं। आप ही बताइए कौन है सभ्य और कौन असभ्य ।जनजाति बन्धु अंग्रेजी नहीं जानता और न ही वह महंगे वस्त्र और जूते पहने होता है। धरती को वह एक जीवित तत्त्व मानता है। जैसे घरों में स्त्रियाँ रजस्वला होती हैं, वैसे ही वह धरती को रजस्वला हुआ मानता दिनों वह हल नहीं चलाता। अर्थात् धरती भी एक जीवत इकाई है। जब आज मानव जाति के सम्मुख संकट पड़ा है, तब हमें अपने मातृभाव का जो अर्थ है उस संकल्पना पर आना चाहिए। हमें अपने जनजाति बन्धुओं की तरफ देखना चाहिए। हमें अपने सामाजिक जीवन, पुराने जमाने को देखना चाहिए।
जब तत्त्वज्ञान का सिद्धान्त नहीं भी था तब भी हर गृहस्थ के लिए पाँच यज्ञ का विधान था। जो भी गृहस्थ था, उसे 5 यज्ञ करने होते थे। प्रथम यज्ञ के विषय में कहा गया कि ब्रह्म यज्ञ मूल तात्विक चिन्तन है, उस अन्तिम तत्व को जानने के लिए यज्ञ करना चाहिए। दूसरा था देवयज्ञ, अर्थात् अपने मन को संस्कारित करने के लिए उपासना की जानी चाहिए। तीसरा था पितृयज्ञ अपने माता पिता, अपने पूर्वजों के लिए श्रद्धा की अभिव्यक्ति करनी चाहिए। चौथा है नरयज्ञ भोजन से पहले घर से बाहर का कोई व्यक्ति भूखा नहीं रहना चाहिए, हर मनुष्य को एक दूसरे की चिन्ता होनी चाहिए। पाँचवाँ था भूतयज्ञ, जिसमें पशुपक्षी सब आते थे, इसलिए घर के बाहर पानी का पात्र टांगा जाता था कि पक्षी भी पानी पिए। घर के बाहर हौज बनाया जाता था, कि जानवर प्यासा तो पानी पिएगा। परन्तु आज हम सभ्य हो गए हैं, तो पन्द्रह रूपए की पानी की बोतल पीते हैं।
समाज जीवन में जो ज्ञान परम्परा व्यक्त है, टूटी-फूटी सही, छोटे-मोटे रूप में ही सही, इसको समझकर एक स्वाभिमान का भाव है। तो इसलिए मुझे लगता है कि ग्रन्थ राशि में जो यात्रा है, वहाँ से लेकर लोक-जीवन के अन्दर जो ज्ञान बिखरा पड़ा है, उसका एक विवेचन करते हुए, इतिहास की इस अनुभवजन्य सांस्कृतिक जय यात्रा के अन्दर हमारा जो विजयशाली पर्व था, जब हमने इस सम्पूर्ण विश्व को विश्व बन्धुत्व का, एक एकात्मता का सन्देश दिया था, जिसका उल्लेख 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' तथा 'सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा' इन रूपों में हमको दिखलाई देती है।
मैं समझता हूँ कि अनेकों लोगों की आँखों में यह स्वप्न होगा कि भारत की ज्ञान परम्परा केवल पुस्तकों में ही सीमित न हो, यह दैनिक जीवन में परिलक्षित हो और अपने सनातन तत्त्व ज्ञान के आधार पर सम्पूर्ण विश्व की समस्याओं का समाधान करें। पंडित दीन दयाल जी का कहना था कि विकृति पर प्रकृति की और प्रकृति पर संस्कृति की विजय सुनिश्चित है। भारत की मिट्टी र मुझे भरोसा है। ईश्वर हम सबको सामर्थ्य दे कि इन सभी मनुष्यों का जो अधूरा स्वप्न है, उसे वर्तमान पीढ़ी मिलकर पूरा करें।
भारतीय का अर्थ इंडियन नहीं तो भारत के अन्दर जगत की उत्पति के साथ जो कुछ भी जन से लेकर लोक तथा विश्व के लिए क्रमश: पहले सैधांतिक आधार पर (philaasphical ) फिर उसे व्यवहार में लाकर अनुभूत किया गया ।
इसे हमने ज्ञान की श्रेणी में रखा और काल और परिस्थिति के अनुसार कालवाह्य चीजों को छोड़ते हुए कालानुकूल चीजों को स्वीकार करते आये है, इसे परम्परा कहते हैं ।
इस सम्बन्ध में भारत की अपनी दृष्टि है ।
भारत की पुरातन शिक्षा नीति है ? भारत का अपना अनुभव है । भारत की अपनी दृष्टि है । भारत के चिंतन परिप्रेक्ष्य अंतर्गत समाधान भी मिलता है।
ज्ञान परम्परा के सन्दर्भ में कार्य हो। इतिहास बोध के नाते हम इसे जानें, परन्तु विश्लेषण करते समय जो अनुपयुक्त है उसे छोड़ दें, जो उपयुक्त है उसे काल सुसंगत परिभाषित करना ही आज के सन्दर्भ में प्रस्तुत करना है, वास्तव में यह ज्ञान परम्परा के अध्ययन का मूल हेतु है।
जैसे वनस्पति जगत् से प्राणी जगत् और फिर मानव जगत कुल मिलाकर ध्यान में आया कि जो एक की अभिव्यक्ति है, उसका उद्देश्य क्या है।
इस विषय में कहा गया कि जहाँ से उद्गम हुआ है वहीं पर पहुंचना है। इसलिए ऐसा कहते हैं कि सृष्टि के अन्दर एक घास के तिनके से लेकर एक महान् विद्वान मनुष्य तक सबको यात्रा अपने मूल तक जाने की यात्रा है।
इसलिए हमारे यहाँ स्ट्रेट लाइन का इवोल्यूशन नहीं माना गया है । गणित में भी कहते हैं कि एक सीधी रेखा की एक सीमा होती है। It state line is produce infinitely, it is no more a straight line, it's a straight line become a cricle इसकी भी एक सीमा है जो अनन्त नहीं हो सकती है।
यह जहाँ से चली है वहीं तक वापस आ जाएगी। इसी को शब्दों में व्यक्त किया गया कि नर नारायण हो जाए, जीव शिव हो जाए, जीवात्मा परमात्मा हो जाए । जो बिन्दु है वह सिन्धु में मिल जाए ।
दूसरी बात इसमें यह भी कहीं गयी कि यह जो यात्रा है वह एक जीवन के कालखण्ड में समाप्त होने वाली यात्रा नहीं है तो पुनर्जन्म है। और यदि पुनर्जन्म है तो क्या यह किसी की इच्छा पर है या यह किसी नियम पर चलता है। इसका किसी की कृपा या किसी की प्रशंसा से कोई सम्बन्ध नहीं है, यह एक वैश्विक नियम से संचालित होता है।
सार्वभौमिक नियम एक सिद्धान्त है और उसके बाद कर्म सिद्धान्त आया, फिर क्रम सिद्धान्त आया, और उसके बाद प्रश्न खड़ा हुआ।
क्योंकि यह अभिव्यक्ति चार प्रकार की सृष्टि में आयी, उसमें तीन प्रकार की सृष्टि की एक सीमा है।
प्राणी जगत् और पशु जगत् में प्रकृति ने उनके लिए एक सीमा का निर्धारण कर रखा है, वह उसे लांध नहीं सकते। जैसे गाय का बच्चा पैदा होते ही चल सकता है, पर प्रकृति ने गाय के लिए कुछ मर्यादा बांधी है। पक्षियों के बच्चे जन्म लेते ही बोलते हैं। लेकिन मनुष्य का बच्चा पैदा होते ही बोल नहीं पाता बल्कि रोता है। प्रकृति ने जो मर्यादा बाँधी है उसे पलट नहीं सकते। कोयल का बच्चा कौवे की भाषा नहीं बोल सकता और कौवा कोयल की भाषा नहीं बोल सकता। परन्तु मनुष्य अपने मुँह से सभी जानवरों की बोली निकाल सकता है।
आप सब ने देखा कई बच्चे हैं जो अपने मुँह से इंस्ट्रूमेंट और वोकल संगीत भी निकालते हैं । शास्त्रीय राग भी गाता हैं और गले से हारमोनियम भी बजाते हैं ।
अन्ततः ऐसा क्यों हुआ, ऐसा हमारी मूल की बात के कारण हुआ। इसके अन्दर हमारे ऋषियों ने जो कहा है कहीं न कहीं उसी विचार के समर्थन में पश्चिम के लोग भी आ गए है। आइन्स्टीन ने रिलेटिविटी और क्वांटम का सिद्धान्त दिया।
सर आर्थर इडिंग्टन की एक पुस्तक है 'स्पेस टाइम एंड ग्रेविटेशन' इस पुस्तक के अन्तिम पैराग्राफ में उन्होंने जो बात की लगभग यही बात है। उन्होंने लिखा कि विज्ञान में हम खोज के लिए जब निकले तो अज्ञात समुद्र तट पर कुछ अपरिचित पदचिह्न मिले। यह पद चिह्न किसके हैं? उसे खोजने के लिए एक गहन विचार किया गया और हम एक के बाद एक कर सिद्धान्त लाते रहे और ऐसा करने पर हम उस प्राणी का चित्र बनाने में सफल रहे जिसके पद चिह्न वहाँ पर पाए गए थे। लोग आश्चर्यचकित थे।
हमारे यहाँ कहा गया है कि जहाँ से आए थे, वहीं पर जाना है। पर जब हम कर्म का सिद्धान्त कहते हैं तो देखते हैं कि हमारी तीन सृष्टि है, वह तो प्रकृति की मर्यादा में चलती है। पर मनुष्य को एक विशेषता दी गयी है। मानव जाति के पास दो ऐसी बातें हैं, जो इसे बाकी जगत् से भिन्न करती हैं। उनमें से एक है मुक्त इच्छा शक्ति एवं दूसरी है विवेक युक्त बुद्धि ।
श्रीमद्भागवत में वर्णन है, कि सृष्टयांश ने अपनी आत्म शक्ति से जो व्यक्त करना चाहा, उसे क्रियान्वित किया। डायनासोर से कीट पतंगों तक के सृजन के बाद वह कुछ असंतुष्ट रहा कि जैसा मैं हूँ, वैसा व्यक्त नहीं हो पा रहा हूँ। इसलिए उसने मनुष्य बनाया, जिसकी अभिव्यक्ति है कि उसे समग्रता से साक्षात् करने का सामर्थ्य मिलना चाहिए। इसके बाद मुक्त इच्छा शक्ति और विवेक युक्त बुद्धि आई। उसके उपरान्त इसके अन्दर सामर्थ्य आया।
गीता में आया है कि मनुष्य की दो प्रकार की मनोवृत्तियाँ हैं। एक है, दैवीय सम्पत्ति और दूसरी है आसुरी सम्पत्ति। इसलिए मानव जाति के पूरे इतिहास को यदि हम देखेंगे, फिर चाहे वह व्यक्ति का हो, सभ्यता का हो या राष्ट्र का, मूल व्यवहार के भीतर दो ही प्रवृत्तियाँ प्राप्त होंगी।
इसलिए अगर हमें सही दिशा में जाना है तो स्वार्थ केन्द्रित भोगवादी और केवल अपना ही विचार करने जैसी वृत्तियों के बजाय अपने आपको व्यापक बनाना है। और इसी को दैवीय सम्पत्ति कहा गया।
जब हम इस दिशा में कदम बढ़ाते हैं तो कुछ न कुछ नियम आवश्यक होंगे। उसी को सारे भारतीय ज्ञान परम्परा के वाङ्मय में तीन शब्दों में सुनते हैं, एक ऋत हैं, एक सत और एक धर्म।
कालान्तर में यह सारे अर्थ धर्म शब्द के अन्तर्गत आ गए और दुर्भाग्य से यही आज सबसे बड़ी चुनौती है कि धर्म को अन्ततः समझा कैसे जाए।
वर्णन है कि ऋत या वस्तु उसकी वास्तविकता है, सत्य उसकी वाचिक अभिव्यक्ति है, और धर्म उसकी क्रियात्मक अभिव्यक्ति है।
इसीलिए यह सुभाषित चला कि भूख लगने पर भोजन करना, भय उत्पन्न होने पर डरना, थकने पर सोना और अपनी प्रजा की देखभाल करना तथा संतति इसी प्रकार आगे चलती रहे, यह चार बातें मनुष्य और पशु में एक समान हैं। अब इसमें अन्तर कौन लाता है 'धर्मों हि तेषामाधको विशेष:' यदि समाज से धर्म का लोप हो गया तो पशु और मनुष्य जगत् के व्यवहार में कोई अन्तर नहीं रह जाता है।
इसी प्रकार धर्म की अवधारणा आई धर्म कभी कर्मकांड या पूजापाठ का नाम नहीं रहा। धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं। दुर्भाग्य से आज समाज उन्हें विस्मृत कर चुका है।
हमारे यहाँ सत्य धर्म कहा गया, पर हम उससे निरपेक्ष हो गए। हम झूठ बोलते हैं, बेईमानी करते हैं, हमारे यहाँ कहते हैं कि पराए धन को मिट्टी समझो, यह धर्म है, पर जब हम निरपेक्ष हो गए तो; मेरा पैसा तो है ही मेरा, तेरा पैसा भी मेरा ही है, और मैं इसे किसी भी ढंग से लूँगा तो यह विकृति है। हमारे यहाँ पराई स्त्री को माँ मानने का सिद्धान्त था परन्तु हम उससे भी निरपेक्ष हो गए हैं, और इन सभी के कारण जो विकृति समाज में उत्पन्न हुई है उसके कारण समाचार पढ़ने की इच्छा उत्पन्न नहीं होती हैं।
यदि भारतीय विशेषताओं का विवेचन करते हैं तो हमारे सम्मुख 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की संस्कृति उभर कर आती है, हर भूत को अपना मानने की संस्कृति उभर कर आती है। अर्थात् पूरे विश्व को एक परिवार मानना और इसी प्रकार सभ्यता और संस्कृति का विस्तार होता है।
पूरी की पूरी ज्ञान परम्परा का यदि हम विवेचन करें तो एक चित्र हमारे सामने उभर कर आता है। इन सभी को जानते हुए अध्येताओं को विचार करना होगा। तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति के एक उदेश्य वैश्विक मानव की संकल्पान को इस रूप में समझ सकते हैं।
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भारतीय ज्ञान परंपरा से संबंधित सैद्धांतिक आधार
भारतीय ज्ञान परम्परा कहती है-
ज्ञान से विज्ञान, विज्ञान से प्रज्ञान की ओर जाना है ।
हममें से कोई भी कोरी स्लेट नहीं है ।
'स्मृति' का अर्थ जो वर्तमान में घटित हुआ वह ही नहीं तो पूर्व ज्ञान भी है ।
ज्ञान के विकास की परम्परा में प्रश्न-प्रतिप्रश्न होता है, विचार-विमर्श होता है।
प्रयोग से विषय सिद्ध करना और जीवन के अंतर्गत लाना यह आत्मानुभव है।
सत्य सैधांतिक नहीं शास्वत सिद्धांत है।
आज की त्रासदी यह है की सब विषय की पढ़ाई करते हैं, जिसका वास्तविकता से कोई समबन्ध नहीं है।
पूरा तंत्र विषय आधारित है।
उसके लिए मनसा, वाचा, कर्मणा जैसे शब्द प्रचलित हैं।
ज्ञान परम्परा में भावों को विचार के धरातल पर लाने की एकरूपता रही है।
सबसे प्राचीन वेद के अंतिम सूत्र का पाठ भी है-
“ संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ।।
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भारतीय ज्ञान परमपरा कैसे लागू हो
हमारी सब की आकांक्षा है की भारत विश्व गुरु बनें।
हमारी प्राचीन शिक्षण पद्धति में जिन बातों का उल्लेख है, उन्हें समावेश कर उनके बारे में फिर से सोचा जाए।
वहाँ विषयगत ज्ञान के साथ सामाजिकता इसमें व्याप्त व्यवहार आदि का ज्ञान विद्यार्थी को स्वतः आ जाता था।
ध्यान, योग द्वारा उनमें संयम अनुशासन आदि स्वतः ही रहता था।
आज तकनीक में विभिन्न उपकरण प्रयुक्त हो रहे हैं किन्तु वह साधान हैं, साध्य नहीं।
आईफोन उपकरण हैं मूल तो कान है आदि कान की सुनने की शक्ति कमजोर हैं तो आईफोन क्या करेगा।
बुद्धि के माध्यम से मन पर नियन्त्रण करना है तो उसे साधना होगा।
भारतीय परम्परा में वेदों में द्विज शब्द आया है। उसका अर्थ ब्राह्मण से न होकर दूसरा जन्म लेने वाले (पुन) से है। भौतिक शरीर माता से प्राप्त किया किन्तु गुरुकुल में जाने पर विद्या प्राप्ति होती है, वह पुनर्जन्म होता था, वह द्विज होता था।
इसका मुख्य माध्यम शिक्षक थ। शिक्षक विषय केन्द्रित हैं, जीवन केन्द्रित नहीं अतः शिक्षार्थी भी समस्याओं से जूझ रहा है।
भारतीय ज्ञान परम्परा समझने की दृष्टि शास्त्रों से लेकर लोक तक है।
लोकगीत लोक परम्पराएँ शास्त्रों में भी है। इसी कारण से भारत में आकर्षक जीवन खड्डा हुआ और भारतीय ज्ञान परम्परा में विश्व गुरु का स्वरूप खड़ा हो गया।
इस नाते से आधुनिक तंत्र को सीखना / समझना चाहिए की वैदिक परम्पराओं, ज्ञान पद्धति को फिर से सूत्र रूप से जोड़ें यह वेद संहिता, आरण्यक, उपनिषद आदि के अंतर्गत ज्ञान मिलेगा।
आधुनिक विज्ञान के अंतर्गत अन्ततोगत्वा उसी ज्ञान परम्परा को समझना पड़ता है। एक सूत्र को सरल तरीके से समझना पड़ता है। 'तत्वमसि' को कैसे समझाना है? यह साधान आप को खोजना है।
मानव स्वभाव, प्रकृति, अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध आदि महाभारत और रामायण आदि में समग्र रूप में मिलते हैं।
न्याय, दर्शन, सांख्य, योग, उत्तर मीमांसा, पूर्व मीमांसा, कर्मयोग आदि धाराएँ भी भारतीय परम्परा में हैं ।
मन और बुद्धि को पवित्र करने के लिए योग की व्यवस्था है।
शैव, वैष्णव, शाक्त वेद आधारति भक्ति विधा हैं।
बौद्ध, जैन आदि सम्प्रदायों का ज्ञान श्रावक (संस्कृत) तथा सावक (पालि) त्रिपिटक जैसे उनके अपने-अपने सम्प्रदायों के ग्रंथों में हैं। तात्विक अधिष्ठान सभी सम्प्रदाय मानते थे। संस्कृत के पश्चात् यही भाषाएँ मुख्य बन गईं।
इस प्रकार देखे तो एक चित्र बनाता जो 'परा' विद्या को सुझाता है।
'अपरा विद्या' 64 कलाओं का ज्ञान देती हैं।
भारतीय ज्ञान परमपरा में नगर - निर्माण, नृत्य, चौर कला आदि भी दिखाई देते हैं।
भ्रष्टाचार 40 श्रेणियों में बांटा गया था।
अच्छा जो कुछ भी है उसे बताया गया, लेकिन जो बुरा है, उसे छिपाया भी नहीं गया है।
हाथी-घोड़े आदि के सब के शास्त्र हैं।
भारतीय ज्ञान परम्परा का विचार करते समय इन सभी के बारे में विचार करना पड़ेगा। हमारे देश में सामग्री भी उपलब्ध है और जानकार लोग भी हैं। प्रदेश भार के विद्वान् जो अतीत को जानने वाले, वर्तमान को समझने वाले और भविष्य के रेखाचित्र पर रंग भरने वाले यहाँ एकत्रित हैं यदि सब मिलकर सावधानी पूर्वक प्रयत्न करें तो आने वाले 25 वर्षों में 2047 तक भारत विश्वगुरु बन सकेगा।
अब यदि समाज इस पर चले तो ज्ञान परम्पराओं के ध्यान में आता है कि अन्तिम ध्येय क्या है, और इस अंतिम ध्येय को प्राप्त करना हैं तो पुरुषार्थ करना होगा। इसीलिए चतुर्दिक् पुरुषार्थ है।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष धर्म, अर्थ और काम त्रयी के अन्तर्गत हैं तो मोक्ष परा के अन्तर्गत है । इसे ज्ञान परम्परा में परा विद्या, पुरुष तंत्र , विद्या कहा जाता है ।
हम परा के अन्दर जाते हैं तो वैदिक परम्परा में इसके लिए मोक्ष शब्द प्रयोग में आया है, बौद्ध धर्म में निर्वाण है तो जैन परम्परा में कैवल्य है । पतंजलि ने कैवल्य कहा है । धर्म, अर्थ और काम यह तीन पुरुषार्थ हैं, यह त्रयी के अन्तर्गत हैं ।
चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में चार प्रकार की विद्या का उल्लेख किया है । हम कह सकते हैं कि तत्त्व, दर्शन और विचार परा के अन्तर्गत, ब्रह्म विद्या के अन्तर्गत हैं । इस ब्रह्म विद्या की धारा में दो धाराएं हैं, ब्रह्म धारा और यो दोनों साथ चलती हैं और अयों का उलेख करती है।
त्रयी में तीन वेद भी कहते हैं और अभी में ज्ञान कर्म और उपासना यह भी त्रयी के अन्तर्गत आते है। अभी में यह भी कहते हैं कि ऋण सामवेद, यह किसी संहिता का नाम नहीं था। सारी रचनाएँ पद्य, गद्य या गायन में होती थी।
पद्य रचनाओं को ऋचा कहा गया। मान को कहा गया और गद्य को यजुष् कहा गया।
फिर आगे चलकर विद्या और समाज के अन्दर जितनी विधाएँ हैं, कलाएँ हैं, कौशल हैं वाणिज्य है, राज्य है और जितनी भी भिन्न विधाएँ हैं, उनमें चौसठ कलाओं के अन्तर्गत विवेचनाएँ की गयी है।
इस चीसत कलाओं के सन्दर्भ में एक वृहद् ज्ञान राशि की एक श्रृंखला है। और इस विचार से इन सबको अर्थात् आन्वीक्षिकी, त्रयी, दंडनीति, वार्ता को समझना होगा: वार्ता है अर्थशास्त्र और दंडनीति है राजनीति शास्त्र अब यदि हमें इन्हें समझना है तो इसके विषय में एक भागीरथ प्रयत्न यह भी है कि यह सब उपलब्ध कहाँ है।
हम यदि समग्र यात्रा का विवेचन करेंगे तो हमें अपनी विशाल ग्रन्थराशियों की तरह जाना होगा। और इस प्रकार यह अपरा की, परा की जो दीर्घकालीन यात्रा और समीक्षा है, विवेचना है, वह ज्ञान राशि की एक धारा है। उसमें ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद हैं। हमें वेदों को समझना होगा। और उसके बाद ब्राह्मण ग्रन्थ हैं, आरण्यक ग्रन्थ हैं, उपनिषद् हैं। वेदों को समझना है, वेदांग को समझना है।
वेदों को जानने की बात करते हैं तो हम पश्चिम की तरफ देखते हैं। मैक्समूलर के किए गए अनुवाद के आधार पर वेदों का व्याख्यान होता है। उन्होंने संस्कृत के विषय में कार्य बहुत किया होगा, वह दूसरा विषय है, परन्तु यह बात भी सत्य है कि मैक्समूलर को स्वयं ही संस्कृत नहीं आती थी इसलिए अनुवादों के आधार पर व्याख्यान होते हैं।
रामस्वरूप जी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'द वर्ड एस रेवेलेशन: नेम्स ऑफ गॉड' के हवाले से कहते हैं कि शब्द मात्र एक शब्द नहीं होता, बल्कि उसमें एक इतिहास और परम्परा होती है। जब तक उसे नहीं जाना जाएगा, तब तक शब्द की व्याख्या नहीं हो पाएगी। अगर सन्दर्भ ज्ञात नहीं है तो उसकी व्याख्या भी गलत होगी। हमारे यहाँ अनुशासन है, भाषा की संरचना है, न्याय है। सम्बन्धित पुरुष के माध्यम से शब्द को जाना जाता है। शब्द को जानना आवश्यक है। आजकल गूगल जो भी अनुवाद करता है, वह सही नहीं करता। जैसे स्टील प्लांट को वह स्टील का पौध अनुवाद करता है। गूगल का यह करना स्वाभाविक है क्योंकि उसे शब्द या सन्दर्भ नहीं ज्ञात होते हैं। गूगल शब्द की परम्परा को नहीं पकड़ पाता, इसी कारण समस्या उत्पन्न होती है। फिर धाराएँ हैं, अनुशासन हैं, व्याकरण है, भाषाई संरचना है और न्याय है। उसकी एक पूर्ण प्रक्रिया है, उसकी एक मीमांसा है। साइंस ऑफ डिस्कोर्स है।
कई बार हम ज्योतिष का फलित होना कहते हैं। परन्तु जो ज्योतिष है, वह वेदांग हैं, उसमें गणित हैं, खगोलशास्त्र है, जो फल का हिस्सा होते हैं। ज्योतिष के बारे में कई बार कहा जाता है कि वह फलित होती है। जब ज्योतिष ग्रह की बात करता है तो वह कहता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जैविक है और परस्पर सम्बद्ध है। जो भी परस्पर सम्बन्धित दो चीजें हैं, वह एक दूसरे को प्रतिस्थापित भी करेंगी। ओशो कहते हैं कि जिसने भी अद्वेत को नहीं समझा, उसका प्रवेश ज्योतिष में नहीं हो सकता। सारे के सारे विधान है। फिर उसके बाद पुराणों की राशि है। जाति पुराण है, स्थल पुराण है, रामायण, महाभारत और गीता है। गीता के विषय में वह कहते हैं कि सारे उपनिषदों का सार लेकर अर्जुन को कृष्ण ने दुग्ध के रूप में ज्ञान दिया।
इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया कि जो भी 64 कलाएँ हैं, वह कृषि सम्बन्धि ग्रन्थ हैं, अश्व सम्बन्धी है, हरित सम्बन्धी है
ऋषि मंत्रद्रष्टा- एक और वैशिष्ट्य वेदों का माना गया है और वेदों के अपौरुषेय होने की व्याख्या इस वैशिष्ट्य के कारण अधिक बुद्धिगम्य होती है। प्रारम्भ से यह मान्यता रही है कि वेदों में जो भिन्न-भिन्न मंत्र हैं, उन्हें किसी-न-किसी ऋषि ने कहा है परन्तु फिर भी ऋषि और मंऋ के सम्बन्ध को अभिव्यक्त करने वाला विलक्षण वाक्य प्रयोग किया जाता है कि 'ऋषयों मंत्र दृष्टारः' ऋषि मंत्र ने द्रष्टा हैं। वैदिक ऋषियों की मान्यता थी, अव्यक्त अवस्था से जब जगत् व्यक्त होता है तो मूल स्थिति में विक्षोभ उत्पन्न होता है। इस विक्षोम के साथ ही कंपन (Vibration) प्रारम्भ होते हैं। कंपन ही ध्वनि के रूप में व्यक्त होते हैं। अतः माना गया कि सृष्टि कंपन है। और हमारे यहाँ प्राचीन काल से नादब्रह्म को सृष्टि ने साक्षात्कार किया तथा उन्हें वैदिक मंत्रों के रूप में अभिव्यक्त भी किया। बुद्धि में विचार आये और फिर उन्हें व्यक्त किया ऐसा नहीं है, ऐसा होता तो ऋषियों को, ऋषियों मंत्र कर्तारः कहते। ऋषियों ने मंत्रों में अभिव्यक्त नादजन्य सत्य का साक्षात्कार किया। अतः शब्द प्रयोग किया गया कि 'ऋषियों मंत्र द्रष्टारः' के स्थान पर द्रष्टा शब्द का प्रयोग स्वामी विवेकानन्द द्वारा वेद की की गयी परिभाषा को ही सिद्ध करता है कि वेद का अर्थ है विभिन्न आध्यात्मिक सत्यों का संचय ।
वेद के विभिन्न नाम हमारे प्राचीन वाङ्मय में वेद ज्ञान राशि को विविध नामों से अभिव्यक्त किया गया है उनमें से प्रमुख नाम व अर्थ निम्न हैं- (1) ऋग्वेद, (2) यजुर्वेद, (3) सामवेद, (4) अथर्ववेद।
वैदिक देवता- वैदिक सूक्तों में अनेक देवताओं का वर्णन है। अपने से उच्चतर शक्ति की मान्यता एवं उसकी श्रेष्ठता एवं महानता की अनुभूति के कारण मानव हृदय में उत्पन्न इस शक्ति या देवता के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति इन सूक्तों में हुई है। काल के प्रवाह में श्रद्धा का भाव तो मानव हृदय में चिरंतन बना रहा, परन्तु श्रद्धाके पात्र बदलते गये। अतः हम देखते हैं कि जैसे आजकल भगवान् विष्णु, शिव, शक्ति आदि रूप समाज की श्रद्धा के केन्द्र बिन्दु हैं, तो दूसरी ओर हनुमान जी की लोकप्रियता वनवासी अंचलों से लेकर नगरवासियों तक समान रूप से है। परन्तु इन सब देवताओं के नाम वैदिक युग में प्रचलित नहीं थे। उस समय के ८ प्रचलित श्रद्धा के केन्द्र थे इन्द्र, वरुण, यम, अग्नि, मातरिश्वा मित्र आदि देवता। वैदिक काल में इन्द्र सर्वाधिक लोकप्रिय देवता था, अतः उसके बारे में 250 सूक्त है। वैदिक इन्द्र पौराणिक इन्द्र से भिन्न स्वरूप में दिखता है। अत्यन्त पराक्रमी, नीति व संयम के पालनकर्त्ता के रूप में उसकी छबि दिखायी देती है। वरुण भी बहुत प्रचलित थे। उन पर लगभग 200 सूत हैं। अश्विनी कुमार जो देवताओं के वैद्य थे उन पर भी 6 सूक्त हैं जबकि विष्णु पर केवल 5 सूक्त हैं, परन्तु एक मूलभूत मान्यता वेदों में दिखाई देती हैं कि देवता भिन्न-भिन्न हैं, पर यह भिन्नता मात्र ऊपरी है। वास्तव में एक ही तत्त्व की वे अभिव्यक्तियाँ हैं। इस विविधता में एकता के मूलभूत (सूत्र की अनुभूति वेद मंत्रों में होती हैं। दीर्घतमस् ऋषि का साक्षात् किया मंत्र समूची भारतीय संस्कृति का आधार स्तम्भ है।
वरुइन्द्रं मित्रं खीणमग्निमाहु रथो दिव्यः स सुपर्णी गरुत्मान्
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः
(ऋग्वेद-1-164-46)अर्थात् एक सत् वस्तु है उसी का ज्ञानी लोग अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं उसी को इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, यम और मातरिश्वा कहते हैं और वह दिव्य सुपर्ण और गुरुत्मान् है।
वेदों का भाष्य एक मजेदार बात कही जाती है। वेद कहते हैं कि अल्पज्ञानी से मुझे डर लगता है; क्योंकि वह मेरा वध कर देगा। तात्पर्य यह कि यदि वेदों के अर्थ ठीक से न लगाये गये तो अनर्थ हो जाता है। जैसे पाश्चात्य अनुवादकों ने जो अनुवाद किया है, जैसे-ग्रिफिथ, मैक्समूलर । उसमें यही समस्या आती है।
1. प्रथम बात वैदिक शब्दों के अर्थ लगाते समय एक बात ध्यान में रखने की है कि ये रूढ़ नहीं अपितु यौगिक हैं। अतः एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। प्रसंग के अनुसार शब्द का अर्थ बदलता रहता है। 2. मंत्रों की व्याख्या करते समय शब्दों के अर्थ तीन स्तर पर किये जा सकते
हैं- (अ) आध्यात्मिक (ब) आधिदैविक (स) आधिभौतिक । उदाहरण के लिए, पुरुष शब्द लें सामान्य रूप से पुरुष याने मनुष्य होता है, परन्तु वैदिक शब्द यौगिक होने से मात्र इतना ही अर्थ नहीं होगा। पुरुष का अर्थ है पुर+उष = पुर में रहने वाला। पर इसकी व्याख्या करते समय- आधिभौतिक अर्थ में पूर्रु याने नगर में रहने वाला मनुश्यम आधिदैविक अर्थ में इस जगत् रूपी पूर में व्याप्त है वह देवता। आध्यात्मिक अर्थ में शरीर रूपी पूर में रहने वाला याने जीवात्मा अतः संदर्भ का ध्यान रखते हुए वैदिक शब्दों के रूप यौगिक हैं, इसे समझना चाहिए।
प्राचीन काल में वेदों के कुछ हिस्से का जिन्होंने भाष्य किया ऐसे अनेक आचार्यों के नाम मिलते हैं, जैसे स्कंद स्वामी, उद्गीथ, हरिस्वामी, वररुचि, आनन्दतीर्थ, भरत स्वामी ।
वर्तमान काल में वेद भाष्य की तीन धारायें मिलती हैं-1. वर्तमान काल में जो प्राचीन भाष्य चारों वेदों का मिलता है जिसका मेक्समूलर ने अनुवाद किया वह भाष्य सायणाचार्य का है। यह भाष्य मुख्यरूप से इतिहास एवं यज्ञपरक है।
2. दूसरा प्रकार वह था जो यास्काचार्य के निरुक्त पर आधारित है। उन्होंने वेदों में विज्ञान को भी अभिव्यक्त किया था। वर्तमान काल में उस धारा को पुनर्जीवित करने का महान् प्रयत्न स्वामी दयानन्द सरस्वती ने किया। उनके इस अप्रतिम योगदान की योगिराज श्री अरविन्द ने भी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। 3. तीसरा प्रकार योगी अरविन्द के भाष्य का है। यह भाष्य आध्यात्मिक है।तथा सम्पूर्ण वेदों का नहीं अपितु कुछ सूक्तों का भाष्य उन्होंने किया है। इसके अतिरिक्त पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी का हिन्दी में चारों वेदों का भाष्य है। इसी प्रकार गायत्री परिवार के पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का भी वेदभाष्य मिलता है।
वेदपठन का अधिकार- दुर्भाग्य से देश में बीच के काल-खण्ड में एक धारणा उत्पन्न हुई कि वेद पठन का अधिकार कुछ निश्चित जातियों को है। शूद्रों और स्त्रियों को यह अधिकार नहीं है, ऐसे विधान कुछ स्मृतियों में पाये जाते हैं। इसी आधार पर इसकी शास्त्र-मायता का भी दावा किया जाता है। जब इस मान्यता पर विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि जिन वेदों के अनेक सूक्तों की द्रष्टा महिलाएँ रहीं, उन्हीं को उसे पठन का अधिकार नहीं यह बात ही विचित्र लगती हैं। ऐसी अवस्था में प्रमाण क्या माने? इसके संदर्भ में स्वामी विवेकानंद का कथन विचारणीय है। एक बार वे प्रवास में थे। एक स्थान पर एक व्यक्ति ने पूछा कि पुराणों में वर्णन आता है कि अमुक राजा के साठ हजार पुत्र थे, अमुक राजा ने हजार वर्ष तक राज्य किया तो यह बात जैविक दृष्टि से अव्यावहारिक लगती है। इसके उत्तर में स्वामी जी ने कहा, कई चीजें रूपक के रूप में कही जाती है। अतः जब कभी ऐसा प्रसंग आये तो सभी पुराणों का मूल वेद है और वेद में कहा गया है- 'पश्वेम शरदः शतम्' अर्थात् सौ वर्ष तक देखें। इस ऋचा में मनुष्य की औसत आयु सौ वर्ष बतायी है। अपवाद कुछ हो सकते हैं परन्तु अपवाद नियम नहीं होते। अतएव किसी संदर्भ में दो विपरीत मत हो जायें तो जैसे नीचे की अदालत का फैसला उच्च न्यायालय से निरस्त हो जाता है, उसी प्रकार वेद का प्रामाण्य बाकी चीजों को निरस्त कर देगा। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने वेद की ऋचा के द्वारा ही यह प्रमाणित किया कि वेदज्ञान पर सबका समान रूप से अधिकार है।
इसे इन्होंने यजुर्वेद में 26वें अध्याय के दूसरे मंत्र द्वारा स्पष्ट किया है- यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः → ब्रह्म राजन्याभ्यां शूदाय चार्याव व स्वाय चारणाय च। प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः स्मृध्यतामुप मादो नमतु|| (यजुर्वेद 26/2) अर्थात् जैसे इस कल्याणी, वाणी को मनुष्यों के लिए मैं बोलता हूँ वैसे ही ब्राह्मणों, क्षत्रियों, शूद्रों, वैश्यों, स्त्रियों और अन्य जनों के लिए आप बोलिए और इस प्रकार के विद्यादान से मैं देवताओं में प्रिय होऊँ, मुझे परोक्ष सुख मिले तथा सब कामनाएं पूर्ण हों। आगे चलकर स्वामी विवेकान्द जी ने भी इसी ऋचा के द्वारा वेद- ज्ञान पर सबके अधिकार की बात कही। वेदों की विषय वस्तु- वेदों में सृष्टिरचना से लेकर समाज का विकास, विविध प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की बीज रूप में जानकारी प्राप्त होती हैं। अतः वैदिक सूतों में जहाँ एक ओर सृष्टि के नियामक शक्तियों के प्रतीक देवताओं की श्रद्धापूर्ण अंतःकरणों से की गयी प्रार्थना दिखती है, वहीं दूसरी ओर किन्हीं सूक्तों में दैन्य दास्य से मुक्त एक ओजस्वी, तेजस्वी, चैतन्ययुक्त, यश की, जय की कामना वाले समाज का चित्र दिखाई देता है। अथर्ववेद का भूमिसूक्त भारत भूमि की भक्ति का आदि गान है, तो व्यक्ति, विवाह संस्था और आगे सभा, समिति और राष्ट्र के विकास तक की गाथा भी इसी वेद में है। विज्ञान के अनेक तथ्य वैदिक ऋचाओं में हैं। दीर्घतमस् ऋषि का अस्यवामीय सूक्त सूर्य की उत्पत्ति तथा विभिन्न ग्रहों की उससे दूरी व अन्य तथ्यों की गाथा है।सम्पूर्ण व्याकरण शास्त्र के विकास के मूल में अवेद की एक ऋचा है। चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः । गुहा आणि निहिता नेङ्गवन्ति तुरीयं वाची मनुष्या वदन्ति (ऋग्वेद-1-164-45) अर्थात् वाणी के चार पद होते हैं जिन्हें मनीषी जानते हैं। ये हैं- परा, परवन्ती, मध्यमा वैखरी। इसमें तीन गुरू रहते हैं तथा चौथा तुरीय वाचा मनुष्य बोलता है। इसी प्रकार कालमापन की बृहत्तर इकाई ब्रहादिन की गणना अथर्ववेद (8/2/21) में दो है। उसमें कहा है "शर्त हायनान् युगे श्रीणिं चत्वारि कृणमः" अर्थात् सी आयुत के आगे 2, 3, 4, लिखने से कल्पको संख्या आयेगी और 'अंकानाम् वामतो गतिः इस नियम से यह अर्थ होगा 4,32,00,00,000 चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष ऋग्वेद का संज्ञान सूक्त संगठन शास्त्र का आदि काव्य है तो उसके यम यमी संवाद में नैतिक मापदंडों की समाज में स्थापना का चित्र दिखता है। इस नाते ऐहिक जीवन में एक सक्षम, संपन्न, जीवंत समाज का चित्र हमारे सामने उभरता हैं तो दूसरी ओर मात्र भौतिकता में हो सुख नहीं है, तो वह उससे कुछ परे है और इस खोज में गहन आध्यात्मिक अनुभूतियों की दिशा में बढ़ें, इसे व्यक्त करने वाले सूक्त भारतीय तत्त्वचिंतन के आधार बने हैं।
वेदों का तत्त्वचिंतन- वैसे वेदों के अनेक सूठों में तत्त्वज्ञान का विश्लेषण व अनुभूतियाँ मिलती हैं। इन सूकों में ऋग्वेद का नसदीय सूक्त, अस्यवामीयसूत पुरुषसूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त, यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय जिनमें तत्त्वचिंतन, अनुभूतियाँ अपने सर्वोच्च शिखर पर पहुँची हैं। इन सूक्तों में नासदीय सूक्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सृष्टि के पूर्व से वर्णन आरम्भ कर आगे चलकर जितने दर्शन विकसित हुए उनके बीच इस सूक्त में दिखाई देते हैं। स्वामी विवेकानन्द को भी यह सूक्त बहुत प्रिय था। इस सूक्त को देश में अनेक लोगों ने देखा और सुना होगा। श्याम बेनेगल रचित 'भारत एक खोज" सीरियल के शुरू में कुछ वेदमंत्र बोले जाते थे। ये नासदीय सूक्त के ही मंत्र थे। इसका थोड़ी गम्भीरता से विचार करेंगे तो वैदिक तत्त्व चिंतन व अनुभूति की गहराई हमारे सामने स्पष्ट होगी।
नासदीय सूक्त आज भी जगत् के वैज्ञानिकों के समक्ष एक प्रश्न है कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति क्या थी? स्थान, काल इन सबको अवधारणा सापेक्ष है। अतः ब्रह्माण्ड उत्पत्ति के बाद इनका अस्तित्व ध्यान में आता है पर पूर्व में क्या था उसका वर्णन करते हुए नासदीय सूक्त (ऋ 1-126) प्रारम्भ होता है। ना सदासीन्नो सदासीत् तदानीं नासीदजो नो व्योमा परोयत् । किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्म्भः किमासीद्गहनं गम्भीरम् ॥1 ॥ न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्म आसीत् प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वध्या तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास ॥ 2 ॥
स्वामी विवेकानन्द ने इसकी काव्यात्मक व्याख्या की है। इस धुन्ध का आवरण क्या था? वह भी किसका ? किन्तु गतिशून्य व स्पन्दित हुआ था तब केवल वह था जिसके परे तब न सत् था न असत् ही न यह संसार था न यह आकाश
गहन अंधकार की गहराइयों में क्या था ? ॥] ॥
तब त मरण था न अमरत्त्व ही रात्रि दिवा से पृथक नहीं थी कोई अन्य अस्तित्व नहीं वही चराचर था 12 ॥
तम आसीत् तमसा गूढहमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् । तुच्छयेनाभ्वपिहितं यदासीत् तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ॥3
॥ तब तम में छिपकर तम बैठा था।जैसे जल में जल समाहित हो पहचाना न जाय।
तब शून्य में जो था वह तप की गरिमा से मण्डित था। सृष्टि के पूर्व का यह अद्भुत वर्णन है। आज के विख्यात ब्रह्माण्ड विज्ञानी स्टीफन हाकिन्स ने एक पुस्तक लिखी हैं "The brief histyory of time" उसमें यह वर्णन करता है। सर्जन के समय क्या था जानना कठिन है; परन्तु ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बाद तारे बने और ये तारे स्वयं की ऊर्जा से प्रकाशित हैं। धीरे-धीरे विशाल तारे का ईंधन समाप्त होने पर वह मरने लगता है, इस प्रक्रिया में वह सिकुड़ने लगता है और एक प्रतीकात्मक बिन्दु में परिवर्तित हो जाता है। इस अवस्था में उसमें इतनी प्रचण्ड आकर्षण शक्ति उसमें रहती हैं कि प्रकाश भी उसमें जाता है तो लौट नहीं पाता। अतः ये अदृश्य बिन्दु हैं। आजकल उन्हें नाम दिया जाता है ब्लैक होल। तो हॉकिन्स कहता है ब्लैक होल के अन्दर क्या है ? शायद उससे सृष्टिपूर्व की स्थिति का पता लगे । पर वह अज्ञात है। तो एक नाम उसे दिया गया 'ब्लैक होल' याने अंधकारमय । इसी को अभिव्यक्त करते हुए ऋषि ने अत्यन्त सुन्दर उपमा से उस समय की स्थिति अभिव्यक्त की है कि, तब क्या था अंधेरा-अंधेरा से ढका हुआ था। उस स्थिति में सृष्टि की प्रक्रिया कैसे हुई यह आदिम प्रश्न है। नासदीय सूक्त इसका उत्तर देते हुए कहता है-
कामस्तदये समवर्तताथि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् । सतो बन्धुमति निरविन्दन् हृदि प्रतीच्या कवयो मनीषा ॥14 ॥
तब उस आदि तत्त्व के मानस में प्रथम आकांक्षा जगी, उससे सृष्टि रचना प्रारम्भ हुई और अव्यक्त स्थिति से सृष्टि व्यक्त होने लगी। इसका साक्षात्कार ऋषियों ने अपने अंतर में किया।
आज विज्ञान भी मानने लगा है कि सभी शक्तियों के मूल में कोई चेतना शक्ति है। 'Concicousness' जो आज चर्चा का विषय है।
आगे सूक्त कहता है-
तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषा मघः स्विदासी दुपरि स्विदासीत् ।
रेतोधा आसन् महिमान आसन् त्स्वधा अवस्तात् प्रयतिः परस्तात् ॥5॥ जिसकी प्रकाश किरण ऊपर नीचे चारों ओर फैली यह महिमा सर्जनमयी हुई स्वतः सिद्ध सिद्धान्त पर आधारित और सर्जन शक्ति से स्फुटित
परन्तु प्रश्न उठते रहे, क्योंकि हरेक को उस सृजन के समय का साक्षात्कार नहीं। अतः यह प्रश्न युगों से मानव मन में उठते रहे और इन प्रश्नों ने ही मानव चिंतन को दिशा दी। अनेकानेक दर्शनों, साधनाओं का मूल ये प्रश्न रहे। इनका उत्तर देने की प्रक्रिया में ही समूचे भारतीय तत्त्वदर्शन और साधना पद्धतियों की उत्पत्ति हुई । इन मूलभूत प्रश्नों को सूक्त के अंतिम मंत्रों में उठाया है।
को अद्धा वेद क इह प्र वोचत् कुत आजाता कुतं इयं विसृष्टिः । अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाऽथा को वेद यत आबभूव ॥16 ॥
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥7 ॥
व्याख्या-
कितने पथ जाना? कहाँ अर्थ है जहाँ से यह फूटा ? सर्जन कहाँ से हुआ ?सृष्टि के बाद ही तो देवों ने अस्तित्व पायाअत: उद्भव का ज्ञान किसे प्राप्त है ?
यह सर्जन कहाँ से आया ? वह सर्वोच्च आकाशों में बैठा हुआ महाशासक ।
यह कैसे ठहरा है ठहरा भी है या नहीं? अपना आदि जानता है या नहीं? शायद । उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर की प्रक्रिया में ही समूचे भारतीय तत्त्व-चिंतन का विकास हुआ है।
इस प्रकार वेद संहिताओं की यह संक्षिप्त जानकारी इसके गहरे और व्यापक अध्ययन की ओर प्रेरणा अंतःकरण में जगाये, इस कामना के साथ वैदिक वाङ्मय के अन्य ग्रन्थों पर विचार करते हैं।
वेद राशि कहने पर उसके चार भाग माने गये हैं- (1) संहिता, (2) ब्राह्मण, (3) आरण्यक, (4) उपनिषद् ।
प्रारम्भ में वेद संहिताओं को भिन्न-भिन्न ऋषिणें द्वारा कहा जाता था और परम्परा से वह आगे की पीढ़ी को दी जाती थी। इस प्रक्रिया में वेदों की भिन्न- भिन्न शाखाएँ हुई। पतञ्जलि अपने महाभाष्य में उनका उल्लेख करते हुए बताते हैं- यजुर्वेद की 101, सामवेद की 1,000, ऋग्वेद की 21 और अथर्व वेद की 6 शाखाएँ हैं। इस प्रकार कुल 1,131 शाखाएँ हुई।
प्रत्येक शाखा के अपने ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् थे परन्तु आज वे विलुप्त हो गये है। मात्र कुछ ब्राह्मण एवं आरण्यक उपनिषद् व सूत्रग्रन्थ उपलब्ध हैं।
ब्राह्मण ग्रन्थ- ब्राह्मण ग्रन्थों से साधारणतः तात्पर्य यह है- जो ग्रन्थ वैदिक मंत्रों की व्याख्या करें। उनके अभिप्राय को स्पष्ट करे यानी कि विधि व अनुष्ठान को प्रस्तुत करे। वेदमंत्र प्रायः पाठ पद्य में है और ब्राह्मण ग्रन्थ गद्य में। अतः विस्तार से व्याख्या है। यज्ञ कब, कैसे, कहाँ करना, इनका विस्तार से विवेचन है। ब्राह्मण ग्रन्थों में व्याख्या के समय अनेक गाथाएँ, आख्यान तथा वर्णन भी हैं जिनका ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व है। ऋग्वेद के अन्तर्गत ऐतरेय ब्राह्मण के कर्ता महीदास दासीपुत्र थे, पर वे वेदों के धुरन्धर विद्वान थे। इसके अंतिम तीन अध्यायों के अनुशीलन से तत्कालीन भारत की भौगोलिक दशा, विविध राज्य शासन की पद्धतियाँ और राजवंशों की दुर्लभ जानकारी मिलती है। एक भ्रम देश में फैलाया गया कि भारत को राजनैतिक रूप से अँग्रेजों ने एक किया, परन्तु भारत का दीर्घकालीन इतिहास इस बात का साक्षी है। कि सम्पूर्ण भारत अनेक बार एक राजा के शासनके अन्तर्गत रहा है। ऐतरेय ब्राह्मण में इसका वर्णन आया है जिसमें कहा गया है, 'इन्द्र के इस महान् राजतिलक (राज्यारोहण) के पश्चात् आगे चलकर दुष्यन्त के पुत्र भरत का राजतिक हुआ। दुष्यन्त के पुत्र ने सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा की और यज्ञ के घोड़े को मुक्त छोड़ चतुर्दिश सभी को परास्त किया।"
इसी प्रकार तुरा कावशेय ने जनमेजय परीक्षित का राजतिलक किया। अतः जनमेजय परीक्षित ने यज्ञ के घोड़े को मुक्त छोड़ चतुर्दिश सभी को परास्त कर सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा की।" इसी प्रकार ऋग्वेद के अन्तर्गत दूसरा ब्राह्मण कौषीतक है।
वैदिक संहिताओं में जैसे ऋग्वेद विशाल है, वैसे ही ब्राह्मणों में शतपथ ब्राह्मण है। यह यजुर्वेद के अन्तर्गत है। इसका ऐतिहासिक महत्त्व भी सर्वाधिक है। पुराणों में लिखित अनेक आख्यानों का आधार शतपथ ब्राह्मण ही है। जलप्रलय, मत्स्यावतार व मनु की कथा में एक प्राचीन ऐतिहासिक स्मृति सुरक्षित है, तो माधव विदेह तथा उसके पुरोहित गौतम रहूगण के आख्यान से आर्य संस्कृति के विस्तार की जानकारी ग भी मिलती है। कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण ग्रन्थ तैत्तिरीय ब्राह्मण है। शतपथ के समान इसका भी आकार विशाल है। इसमें 3 कांड तथा 308 अनुवाक् हैं। इसमें गवामयन, राजसूय, वाजपेय आदि यज्ञों की विधि एवं कर्मकाण्डों का विशद विवेचन किया गया है।
महातांय ब्राह्मण का भी ऐतिहासिक महत्त्व है। विशेष रूप में उसका व्रात्यस्तोत्रम् विधान अर्थात् जो आर्य मर्यादा से बाहर हैं, व्रतविहीन हैं उन्हें विशेष यज्ञ कर व्रात्य याने आर्य मर्यादा में लाना। विशेषरूप से विश्व में जब आर्य संस्कृति का प्रसार हुआ तब विविध जातियाँ संपर्क में आयीं और आचार-विचार का स्तर गिरने लगा। उनके निराकरण के लिए यह व्यवस्था की गयी।
गोपथ ब्राह्मण में अग्निष्टोम, अश्वमेघ, सम्वत्सर-सत्र आदि यज्ञों के विधान का वर्णन है। ओंकार तथा गायत्री की महिमा का भी वर्णन है। ब्रह्मचारी को किन नियमों का पालन करना चाहिए इसका भी विस्तार से विवेचन है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ब्राह्मण ग्रन्थों में एक ओर जहाँ भौतिक के साथ-साथ पारलौकिक सुख स्वर्ग प्राप्ति हेतु यज्ञों के विधानों का वर्णन हैं, वहीं उनसे तत्कालीन सामाजिक स्थिति का भी ज्ञान हमें होता है। भारत के सामाजिक जीवन की प्राचीनता के संदर्भ में अनेक प्रश्नों का समाधान ब्राह्मण ग्रन्थ करते हैं।
आरण्यक ग्रन्थ- आरण्यक ग्रन्थ ब्राह्मणों के परिशिष्टों के समान हैं। इनमें विधि-विधान कर्मकाण्ड का प्रतिपादन न कर आध्यात्मिक व दार्शनिक तत्वों का विवेचन किया गया है। भारत के प्राचीन चिन्तकों ने माना कि मनुष्य जीवन हमेशा भोगों में ही बन रहे अपितु भोगों से ऊपर उठकर उच्चतर तत्व की अनुभूति की कामना जीवन का ध्येय होना चाहिए। जीवन में यह अवस्था कुछ गहरे चिंतन को प्रेरित करती है। अत: एक अवस्था के बाद गृहस्थी का त्यागकर अरण्य में रहना और अध्यात्म-चिंतन करना। अतः ऐतरेय आरण्यक के भाग्य में सायणाचार्य ने लिखा है य एवं पाठ्यात्वादारण्यकमितीयते" अर्थात् इन ग्रन्थों को आरण्यक इस कारण कहा जाता है क्योंकि इनका पठन-पाठन अरण्य में होता है। अरण्यों में जिस चिंतन का विकास हुआ यहाँ आरण्यकों और उपनिषदों में संकलित है। अतः उपनिषदों में ब्रह्मज्ञान एवं अध्यात्म अपने सर्वोच्च रूप में अभिव्यक्त हुआ है उसके बीज आरण्यकों में हो दृष्टिगोचर होते हैं। उपनिषद् इन आरण्यकों के मानों परिशिष्ट है। मानव जीवन की परिपूर्ण सार्थकता कर्म, उपासना और ज्ञान को त्रिवेणी में है।
उपनिषद्
ब्राह्मण ग्रन्थ कर्म का प्रतिपादन करते हैं। कर्मजन्य भोगों से आनन्द लेते हुए कुछ और उच्चतर आनन्द की अभीप्सा में उपासना होती है। आरण्यक उपासना के बारे में इंगित करते हैं और उपनिषद् अंतिम ज्ञान के शिखर हैं। आदिकाल से मानव मनमें सृष्टि के कारण व रहस्यों को जानने की अभीप्सा में जो प्रश्न उठे जिनकी बीजरूप अभिव्यक्ति ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में होती हैं। वे प्रश्न अधिकाधिक स्पष्टता के साथ जहाँ उठाये गये और जिनका समाधान किया गया, वे ही ग्रन्थ उपनिषद् कहलाये। इस नाते उपनिषद् समूचे भारतीय तत्त्व-चिंतन का मूलाधार हैं।
इस प्रकार वेदों का कर्मकाण्ड ब्राह्मण ग्रन्थ हैं, तो उपासनाकाण्ड आरण्यक और ज्ञानकाण्ड उपनिषद् जिसमें तत्त्वचिंतन व अनुभूतियाँ अपनी चरम परिणति पर पहुँची हैं।
उपनिषदों में वर्णित तत्त्वचिंतन और अनुभूतियों ने दुनिया पर भी प्रभाव डाला। यह इससे ज्ञात होता है कि दाराशिकोह ने उनका फारसी में अनुवाद किया। उस अनुवाद को पढ़कर अभिभूत हुए फ्रेंच लेखक दुपेरोन ने उनका लैटिन में अनुवाद किया जो वर्ष 1802 में स्ट्रासबर्ग प्रेस में छपा लैटिन ग्रन्थ 'ओपनेखत्' को जब प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक शोपेनहॉवर ने पढ़ा तो उसके उद्गार थे- "उपनिषद् मानव बुद्धि की सर्वोच्च अभिव्यक्ति हैं। इनमें सभी अतिमानवीय विचार हैं। यह जीवन में सर्वाधिक संतोष देने वाला पाठ हैं, जो न केवल मेरे इस जीवन में अपितु मृत्यु के समय भी रहेगा।"
उपनिषद् वैसे अनेक हैं। 108 से लेकर 220 से भी अधिक गणना की जाती है। परन्तु उनमें ।। उपनिषद् प्रमुख हैं जिन पर आदि शंकराचार्य ने भाष्य लिखा है। ये उपनिषद् हैं- ईश, केन, कठ, मुण्डक, माण्डुक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, प्रश्न, छान्दोग्य, बृहदारण्यक एवं श्वेताश्वतर ।
उपनिषद् का अर्थ- 'उप और 'नि' उपसर्ग के साथ 'सद्' धातु में 'क्विप्' प्रत्यय लगाकर उपनिषद् शब्द बनता है। सद् धातु के तीन अर्थ है- (1) नाश करना, (2) ले जाना, (3) शिथिल करना। इस प्रकार जो विद्या संसार बीज का नाश करती हैं, ब्रह्म के पास ले जाती है और जन्म के कारण कर्म बन्धनों को शिथिल करती है वह उपनिषद् है ।
उपनिषदों में उठाये गये प्रश्न- उपनिषदों में मानव मन में जगत् की उत्पत्ति, विभिन्न प्राणी, जन्म-मृत्यु तथा पुनर्जन्म का चक्र, इससे मुक्ति का मार्ग एवं अंतिम सत्य क्या है ? आदि को लेकर अनेक प्रश्न उठाये गये हैं वे प्रश्न मानव की चरम अभप्सा के प्रतीक हैं। इन प्रश्नों की व्यापकता और गहराई कुछ उपनिषदों में उठाये गये प्रश्नों के अवलोकन से हमें हो सकती है।(जैसे श्वेताश्वतर उपनिषद का यह कथन )किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठाः । अधिष्ठाताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्था (11)
अर्थात् ब्रह्म विषयक चर्चा करने वाले कुछ जिज्ञासु आपस में कहते हैं, हे वेदा महर्षियों! इस जगत् का मुख्य कारण ब्रह्म कौन है ? हम लोग किससे उत्पन्न हुए हैं? किसमें जी रहे हैं ? और किसमें हम स्थित हैं ? किसके अधीन रहकर सुख और दुःख में निश्चित व्यवस्था के अनुसार वर्त्तन कर रहे हैं ?
इसी प्रकार मुण्डक उपनिषद् में ऋषि शौनक महर्षि अंगिरा से पूछते हैं-
'कस्मिन्त्रु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति (1-1-3) अर्थात- हे भगवन! वह कौन-सा तत्त्व है जिसे जानने से सब कुछ जान लिया जाता है ? इसी प्रकार कठोपनिषद् में नचिकेता ने तीसरा वर मांगा येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये- स्तीत्येकेनायमस्तीति चैके वराणामेष वरस्तृतीयः ॥ ( 1-1-20)
अर्थात् मृत्यु के बाद क्या होता है ? इस विषय में संशय है। कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद आत्मा रहता है, कुछ कहते हैं नहीं रहता, तो यथार्थ क्या है ? आप मृत्यु के देवता हैं अतः यह मुझे बतायें आपके द्वारा में यह भली-भाँति समझ लूँ यही मेरा तृतीय वर है।
प्रश्नोपनिषद् में देश के भिन्न-भिन्न स्थानों से आये सुकेशा सत्यकाम, सौर्यामणी, कौशल्य भार्गव और कबन्धी आदि विद्वानों द्वारा महर्षि पिप्पलाद से पूछे गये प्रश्न मुख्य रूप से इस प्रकार हैं-
1. सम्पूर्ण प्रजा कहाँ से व कैसे उत्पन्न होती है ?
2. प्राण की उत्पत्ति कैसे है ? वह शरीर में किस प्रकार आता है और किस मार्ग से बाहर जाता है ? 3. मनुष्य को जब स्वप्न आता है अथवा वह निद्रामग्न रहता है तब कौन सी इन्द्रिय सोती है ? कौन जाग्रह रहता है। स्वप्न कौन देखता है? नींद में सुख किसेमिलता है और प्रगाढ़ निद्रा में इन्द्रियाँ कहाँ जाकर लीन होती हैं ?
4. जो मनुष्य लोक में मरणपर्यन्त ॐकार का ध्यान करता है उसे किस लोक की प्राप्ति होती हैं ?
5. सोलह कलाओं या तत्वों को जिससे उत्पत्ति होती है वह पुरुष कौन है तथा वे सोलह कलाएँ क्या है ?
उपनिषदों की शिक्षण विधि इसी प्रकार के प्रश्न भिन्न-भिन्न उपनिषदों में खड़े किये गये और उनके समाधान में भारतीय तत्त्वचिंतन व अनुभतियों की अभिव्यक्ति हुई है। उपनिषदों का यह ज्ञान भिन्न-भिन्न माध्यमों व प्रणालियों से दिया गया है। यह कुछ उपनिषदों की घटनाओं के विश्लेषण से हमें ज्ञात होता है।
(अ) कथा-विधि - केनोपषिद् में एक कथा द्वारा तत्त्व की अभिव्यक्ति हुई है। देवासुर संग्राम में विजय से उन्मत्त देवताओं को अहंकार हो गया। उसी समय बाहर एक विशालकाय यक्ष प्रगट होता है। वह कौन है, यह जानने के लिए इन्द्र, अग्नि को उसके पास भेजता है। अग्नि से यक्ष पूछता है कि तुम्हारी विशेषता क्या है ? अग्नि कहता है, "मैं सब कुछ भस्म कर सकता हूँ।" तब यक्ष एक तिनका उनके सामने रखता है और कहता हैं, 'इसे जलाओ।' इसे देख अग्नि उपहास से हँसता है और उसे जलाने में प्रवृत्त होता है। पर आश्चर्य, अपनी सम्पूर्ण सामर्थ्य लगाने पर भी वह जला नहीं पाता। तब अग्नि लज्जित होकर वापस लौटता है। इन्द्र तब वायु को भेजता है। वायु से भी यक्ष पूछता है, 'तुम कौन है?' वायु कहता है, वायु।' तब यक्ष पुनः पूछता है 'तुम्हारी क्या विशेषता ?' वायु कहता है। 'मैं सब 'मँ कुछ उड़ा सकता हूँ' तब यक्ष उस तिनके को उड़ाने को कहता है और आश्चर्य, वायु भी असफल होता है। पराभूत होकर वायु लौटता है तब इन्द्र स्वयं आता है और आश्चर्य यह कि वह यक्ष गायब है जाता है। तभी भगवती हेमा प्रकट होती है और फिर कहती हैं, सबकी शक्तियों का स्रोत एक तत्त्व है और फिर तत्त्व ज्ञान का उपदेश दिया जाता है।
(ब) इन्द-विरोचन कथा - छांदाग्योपनिषद् में यह कथा आती है। असुरो का राजा विरोचन तथा देवताओं का राजा इन्द्र पापरहित, क्षयरहित, निर्मल, जरा, शोक मृत्यु से रहित आत्म तत्त्व को जानने की इच्छा से कुछ भेंट समग्री लेकर विनम्रतापूर्वक ब्रह्मा के पास आये। ब्रह्मा ने दोनों को ज्ञान देना स्वीकार किया तथा कुछ वर्ष साधना के बाद कहा, नेत्रों को जो दिखाई देता है पुरुष ही आत्मा है। यह सुनकर इन्द्र और विरोचन ने सुन्दर वस्त्र, अलंकार पहनकर जल में, दर्पण में देखा। जल तथा दर्पण में अपन प्रतिविम्ब को देखकर दोनों लौटे। विरोचन ने सोचा शरीर ही आत्म है अतः शरीर के सुख व उसके लिए साधन जुटाना ही जीवन का ध्येय है। इस कारण असुर संस्कृति भोगवादी बनी। परन्तु इन्द्र के मन में प्रश्न आया, शरीर को रोग होता है, क्षय होता है। अतः आत्मा कुछ भिन्न तत्त्व होना चाहिए। अत: मात्र भोगों में न अटक कर वह पुन: सत्य जानने की जिज्ञासा लिए ब्रह्मा के पास आता है। तब ब्रह्मा पुनः कुछ वर्ष साधना कराने के बाद कहते हैं कि, 'गहरी निन्द्रा में स्वप्नशून्य अवस्था में जो रहता है वह आत्मा है।' इन्द्र वापस लौटता है, पर सोचता है प्रगाढ़ निन्द्रा में तो कुछ भी ध्यान नहीं रहता, अतः पुनः ब्रह्मा के पास आत है तब और कुछ वर्ष साधना कराने के बाद इन्द्र आत्मज्ञान का अधिकारी होता है। तब ब्रह्मा उसे समझाते हैं। शरीर की इन्द्रियों द्वारा मनुष्य जाग्रत अवस्था तथा स्वप्नावस्था में देखता, सूँघता, चखता, स्पर्श करता और सुनता हुआ व्यवहार करता है; पर इस सब में शरीर इन्द्रिय आदि का जा उपयोग करता है और कहता है, मैं देखता हूँ सूघता हूँ, वही आत्म है। इसकी अनुभूति होने पर मनुष्य दुःखों से मुक्त हो जाता है।
2. आत्म संलाप विधि- कठोपनिषद् में एक कथानक आता है। वाजश्रवस् ऋषि ने विश्वजित् यज्ञ किया। यज्ञ के बाद वे दान दे रहे थे। दान देते समय बूढ़ी गायों का दान कर रहे थे तब उनके पुत्र नचिकेता जो अत्यन्त बुद्धिमान तथा मनस्वी था, के मन में यह दृश्य देखकर विचार उठे और अपने आप से वार्तालाप करता हुआ वह सोचता है, अरे! दान तो अच्छी गायों का देना चाहिए और पिताजी जो दान दे रहे हैं वह गायें कैसी हैं?' उसका वर्णन करते हुए कहा है-
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरेन्द्रियाः ।
आनन्दा नाम ते लोकास्तान्स गच्छति ता ददत् ॥ (1-1-3)
ऐसी गायें जिन्होंने जल पीना छोड़ दिया है तथा जो तृण भी नहीं खा सकतीं, दूध देना जिन्होंने बन्द कर दिया है और जिनकी इन्द्रियाँ शिथिल हो गयी हैं, ऐसी गायों का दान करने वाला आनन्द शून्य लोकों का भागी बनता है। इस विचार से पिता ऐसे परिणाम के भागीदार बनेंगे इस शंका से नचिकेता पिता के पास जाता है और उनसे पूछता है "कस्मै मां दास्यसि", 'मुझे किसको दान करेंगे ?' यह सुनकर पिता ने बाल बुद्धि की बात समझ उसे टाल दिया। पर जब नचिकेता ने दो तीन बार पूछा तो क्रुद्ध होकर पिता ने कहा- जा तुझे यम को दान करता हूँ- 'मृत्यवे त्वां ददामि। यह सुनकर नचिकेता यम के पास जाता है। यम उस समय बाहर गये थे। आने में तीन दिन लगे। तब तक भूखा-प्यासा नचिकेता उनकी राह देखता रहा। तीन दिन बाद यम लौटे तक उन्हें घटना पता लगी। आश्चर्यचकित यम ने ब्राह्मण कुमार का अभिवादन किया। क्षमा माँगकर, तीन दिन राह देखने के कारण तीन वर माँगने को कहा। यहाँ नचिकेता के वर माँगने में हिन्दू संस्कृति की विशिष्टता ध्यान में आती है। तीन वर में पहला वर नचिकेता ने माँगा, जिन पिता ने उसे मृत्यु को दिया उनका क्रोध शान्त हो जाय।' दूसरा वर अग्नि के बारे में जानने का है। तब यम कहता है, आगे से यह अग्नि नचिकेता अग्नि कहलायेगी। तीसरा वर नचिकेता माँगता है मृत्यु के बाद क्या होता है? कुछ लोग कहते हैं मनुष्य रहता है कुछ कहते हैं नहीं रहता है, तो सत्य क्या है ?' यम आश्चर्यचकित होते हैं और वह यह ज्ञान पाने की जिद न करे अतः प्रलोभन देते हैं। अनन्त यौवन, राज्य, धन, सुन्दर स्त्री या जगत कासब उपभोग ले ले पर यह वर मत माँग पर नचिकेता डिगता नहीं। तब यम उसकी प्रशंसा करता है और कहता है- मैं भी एक समय इस खोज में चलते हुए आगे बढ़ा था। पर यम पद पाकर रुक गया। तुम ने उस पर भी विजय पायी, यह कह उसे तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया।
3. सूत्र विधि मांडुक्योपनिषद् में सूत्र विधि से अंतिम सत्य की व्याख्या की गयी है। इस उपनिषद् के प्रारम्भ में ऋषि कहते हैं" यही अक्षर परमात्मा है तथा सम्पूर्ण जगत् उसी की अभिव्यक्ति है। जो हो चुका है, जो हो रहा है, जो होने वाला है। वह सब ही है तथा काल से भी जो परे है। वह ही है। आगे इस उपनिषद् में इसकी विस्तार से व्याख्या की गई है। अतः इस उपनिषद् में ज्ञान प्रदान करने हेतु सूत्र रूप में बात कहना, फिर उसकी व्याख्या करना इस विधि का आश्रय लिया गया है।58
उपमान विधि- एक ही बात को भिन्न-भिन्न उदाहरणों के समझाने की विधि उपमान विधि कही जाती है। छांदोग्योपनिषद् में इसका सुन्दर उदाहरण आता है। आरुणि का पुत्र श्वेतकेतु 12 वर्ष अध्ययन के बाद जब घर लौटता है, तब उसे सब कुछ जान लेने का अहंकार होता है। उसके पिता आरुणि उससे पूछते हैं, जिससे यह सारा अस्तित्व उत्पन्न है उसे जानता है? तब श्वेतकेतु कहता है, नहीं; और पिता से ज्ञान देने की प्रार्थना करता है। तब आरुणि कहते हैं? पहले एक सत् तत्त्व था, उसमें इच्छा हुई मैं एक हूँ, बहुत हो जाऊँ, इसमें से ही सारी सृष्टि उत्पन्न हुई। अतः इस सम्पूर्ण विविधतामय जगत् में वह एक ही तत्त्व अनुस्यूत है।
यह तत्त्व ठीक से जब श्वेतकेतु समझ नहीं पाता तब भिन्न-भिन्न उदाहरणों से वे समझाते हैं। जैसे वे श्वेतकेतु को सामने खड़े वटवृक्ष का फल लाने को कहते हैं श्वेतकेतु फल लेकर आता है, तो आरुणि कहते हैं, इसे गोदो 'श्वेतकेतु फल को तोड़ता है। तब आरुणि पूछते हैं, 'क्या दिखता है?' श्वेतकेतु कहता है, छोटे- छोटे दाने हैं।' आरुणि एक दाने को तोड़ने को कहते हैं। श्वेतकेतु दाने को तोड़ता है। तब आरुणि पूछते हैं, 'क्या दिखता है ?' श्वेतकेतु कहता है'' कुछ नहीं।' तब आरुणि कहते हैं, जिस प्रकार वह सूक्ष्म रूप से कुछ नहीं दिखाई देता परन्तु उसमें से ही यह विराट वृक्ष खड़ा हुआ है उसी प्रकार वह आत्मा है। और तू वही है इस पर श्वेतकेतु पुनः कहता है मुझे और समझाइयें तब आरुणि श्वेतकेतु को एक नमक की डली देते हैं तथा कहते हैं इसे पानी में डालकर कल प्रातः काल मेरे पास लाना। अगले दिन प्रातः श्वेतकेतु वह पात्र लेकर आरुणि के पास पहुँचा। आरुणि ने कहा रात को जो नमक दिया था वह लाओ। परन्तु जल में ढूंढने पर वह नहीं मिला तब आरुणि ने कहा जिस प्रकार वह नमक जल में विलीन हो गया अतः तू उसे नेत्र से नहीं देख सकता, उसे यदि जानना चाहता है तो इस जल को ऊपर से आचमन कर, श्वेतकेतु के आचमन करने पर आरुणि ने पूछा कैसा है ? श्वेतकेतु कहता है नमकीन तब आरुणि बीच में से आचमन करने को कहता है और श्वेतकेतु के आचमन करने पर पुनः पूछता है अब कैसा है ? श्वेतकेतु फिर कहता है नमकीन तब अंत में आरुणि उसे नीचे से आचमन करने को कहता है। और वैसा करने पर पुनः पूछता है कैसा है? इस पर वह कहता है। नमकीन है तब आरुणि उस जल को फेंककर आने को कहते हैं।
श्वेतकेतु ने वैसा ही किया और कहा पिताजी उस जल में नमक सदा ही विद्यमान था। तब आरुणि ने कहा जैसे दिखायी न देते हुए भी नमक जल में सदैव विद्यमान है। उसी प्रकार वह सत् तत्त्व दिखायी न देते हुए भी सदैव विद्यमान है। और वहीं तू है।
इस प्रकार आरुणि अनेक ढंग से आत्मतत्त्व की सर्वव्यापकता तथा जीव के उससे एकत्त्व का प्रतिपादन करते हैं।
5. शास्त्रार्थं विधि- बृहारण्यकोपनिषद् में यह प्रसंग आता है। राजा जनक ने एक यज्ञ का आयोजन किया। उस समय सबसे बड़ा ज्ञानी कौन है? यह जानने के लिए एक हजार स्वर्णपत्रों से मढ़े सींगवाली गायें अपनी गौशाला में रखीं तथा आये हुए विद्वानों से कहा, 'आप में जो ब्रह्मनिष्ठ हों वह इन्हें ले जाये' यहाँ पेंच यह है कि जो कह देगा कि मैं ब्रह्मनिष्ठ हूँ उसका अर्थ ही होगा कि ब्रह्म को नहीं जानता। अतः सब चुप रहे। तव याज्ञवल्वय ने अपने शिष्यों को वे गायें ले जाने को कहा। इस पर उपस्थित अन्य विद्वानों ने पूछा कि आप क्या ब्रह्मनिष्ठ हैं? तब याज्ञवल्क्य ने कहा कि ऐसा मैंने कहाँ कहा? आश्रम में गायों की आवश्यकता थी इसलिए गायों को ले जाने को कहा। तब उन विद्वानों से उनका शास्त्रार्थ हुआ और इस शास्त्रार्थ के माध्यम से ज्ञान की अभिव्यक्ति हुई।
याज्ञवल्क्य के ऋषि अश्वल, आर्तभाग, चाक्रायण, कहोल, गार्गी, आरुणि उद्दालक आदि के साथ शास्त्रार्थ के माध्यम से उच्च से उच्चतर ज्ञान की अभिव्यक्ति हुई है।
6. प्रश्नोत्तर विधि प्रश्नोपनिषद् में वर्णन आता है कि अंतिम तत्त्व जानने की इच्छा से भरद्वाज पुत्र सुकेश, सत्यकाम, सौर्यायणी, आश्वलायन, भार्गव और कबन्धी नामक ऋषि महर्षि पिप्पलाद के पास आते हैं। वे महर्षि पिप्पलाद से प्रश्न पूछते हैं तथा महर्षि पिप्पलाद उसका उत्तर देते हैं। इस प्रकार इस उपनिषद् में प्रश्नोत्तर विधि से ज्ञान दिया गया है।
इसी प्रकार छान्दोस्योपनिषद् में राजा जानश्रुति ब्रह्मज्ञानी गाड़ीवान रैक्व के पास ज्ञान प्राप्ति के लिए जाते हैं। वहाँ भी प्रश्नोत्तर के द्वारा ज्ञान प्राप्ति का वर्णन आता है। इसी प्रकार इसी उपनिषद् में राजा अश्वपति से ओपमन्यु, सत्यज्ञ, इन्द्रद्युम्न उद्दालक आदि भी भिन्न-भिन्न प्रश्न पूछ कर ज्ञान प्राप्त करते हैं।
उपनिषदों का सार उपनिषदों के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- "उपनिषदों की भाषा और भाव की गति सरल है। उनकी प्रत्येक बात तलवार की धार के समान, हथौड़े की चोट के समान साक्षात् हृदय में आघात करती है। उनका अर्थ समझने में कोई भूल होने की सम्भावना नहीं उस संगीत में प्रत्येक सुर में शक्ति है, और वह हृदय पर पूरा असर करती है। उनमें अस्पष्टता नहीं, असम्बद्ध कथन नहीं, किसी प्रकार की जटिलता नहीं जिससे दिमाग घूम जाय। उनमें अवनति के चिह्न नहीं है।
उपनिषदों में जीव, जगत् व परमात्मा का वैज्ञानिक विश्लेषण है। विज्ञान एकत्व की खोज का नाम है तथा खोज की दिशा में जब एकत्व को पा लिया जाता है तो खोज का अंत हो जाता है। यह निष्कर्ष सभी विज्ञानों पर लागू होता है। चाहे वह जीव विज्ञान हो, भौतिक विज्ञान हो या रसायन विज्ञान। उपनिषदों में अंतिम एकत्व का प्रतिपादन किया गया है। इस एकत्व की खोज में चले मानव मन के प्रश्नों को उन्होंने पहले खड़ा किया। महान् वैज्ञानिक नील्स बोर कहते थे कि मैं उपनिषदों के उत्तरों की बजाय उनमें उठाये गये प्रश्नों की गहराई और व्यापकता से प्रभावित हूँ।
मुण्डक उपनिषद् में शौनक ऋषि की इस जिज्ञासा पर कि 'वह कौन सा ज्ञान है जिसे जानने पर सब कुछ जान लिया जाता है ?' महर्षि अंगिरा उत्तर देते हैं कि, " दो प्रकार की विद्यायें हैं- एक है परा व दूसरी है अपरा । अपरा विद्या के अन्तर्गत सभी प्रकार की विद्यायें, कला, संगीत, भौतिक, रसायन, जीव, वनस्पति विज्ञान आदि सब कुछ आ जाते हैं। इन सभी विद्याओं के द्वारा जीव और जगत् का विश्लेषण तो सम्भव है, परन्तु इससे अंतिम तत्त्व जिससे यह सारा अस्तित्व अभिव्यक्त हुआ है नहीं जाना जा सकता। अतः जो विद्या उस अंतिम तत्त्व का प्रतिपादन करे वह परा विद्या है।
अपरा विद्या के विश्लेषण में जीव और जगत् का विश्लेषण होता है। यह भिन्न-भिन्न उपनिषदों में प्रतिपादित किया गया है। उसका सार यह है कि एक तत्त्व है उसमें इच्छा हुई, मैं एक से बहुत हो जाऊँ 'एकोऽहं बहुस्याम् ।' इस एक से बहुत होने की प्रक्रिया का वर्णन छान्दोग्योपनिषद् प्रश्नोपनिषद्, माण्डूक्योपनिषद्, आदि में किया गया है। उन सबका सार यह है कि परमात्मा के ईक्षण से रयि और प्राण इन दो तत्त्वों का स्पन्दन होता है और जगत् बनने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। जगत् तीन स्तरों वाला है। एक स्थूल जगत् जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है। दूसरा सूक्ष्म जगत् जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं तथा तीसरा कारण जगत् जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है। जीव इस जगत् में आता है और इसमें फँस जाता है। इसका वर्णन करते हुए कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता से कहते हैं, "दो मार्ग हैं एक श्रेय का दूसरा प्रेय का प्रेय का मार्ग बंधन में डालता है तथा श्रेय का मार्ग मुक्ति की ओर ले जाता है।"
मनुष्य दुनिया में आकर इस तत्त्व को क्यों नहीं जान पाता? वह कौन सी बात है जिसके कारण वह अंतिम सत्य की खोज में न लगकर दुनियाँ के भोगों में फँस जाता है। इसका कारण बताते हुए कठोपनिषद् कहता है- पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभू स्तस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् । कश्चिद्वीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष- दावृत्तचक्षुरमुतत्वमिच्छन् 2-1-1) अर्थात् मानव के ज्ञान का साधन इन्द्रियों की सहज वृत्ति उस स्वयंभू न बहिर्मुखी बनाई है। अतः यह बाहर की वस्तुएँ ही देखती हैं। किसी बुद्धिमान मनुष्य में अमर पद पाने की इच्छा होती है तो वह इन्द्रियों को बाह्य विषयों से मोड़कर अन्दर देखता है।
जब अन्दर देखने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है उसके सम्बन्ध में वर्णन भिन्न- भिन्न उपनिषदों में आया है। इन्द्र जब ब्रह्मा से ज्ञान प्राप्ति हेतु जाते हैं, तो पहले शरीर फिर स्वप्नान्तर्गत जगत् और अंत में उस तत्त्व को जानने का वर्णन है। तैत्तिरीय उपनिषद् में पंचकोषों का वर्णन है। इसमें भी स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने का वर्णन है। अन्नमयकोष से सूक्ष्म प्राणमय, उससे सूक्ष्म मनोमय तथा उससे सूक्ष्म विज्ञानमय तथा उससे भी सूक्ष्म आनन्दमय कोष तथा सब कोषों से परे वह आत्मा इस प्रकार वर्णन आता है। मन, प्राण, बुद्धि का नियमन कर ध्यान योग का आश्रय ले जब मनुष्य अन्तरतम की गहराइयों में उतरता है तब वह सब कारणों के कारण उस एक तत्त्व को जान पाता है। इसका वर्णन श्वेताश्वतर उपनिषद् में आता है।वह तत्त्व कैसा है इसका वर्णन बृहदारण्यक उपनिषद् में आता है। जैसे मकड़ी में से जाल के तन्तु निःसृत होते हैं जैसे अग्नि में से स्फुलिंग निःसृत होते हैं, उसी प्रकार इस आत्मतत्व से सभी प्रकार के प्राण, सभी प्रकार के लोक, सभी प्रकार के देव तथा सम्पूर्ण भूत समुदाय निःसृत होते है। उसके पास जाओ वह सत्य का भी सत्य है प्राण सत्य है, पर यह प्राण का भी सत्य है ।
ज्ञान प्राप्त हुआ तो दृष्टि कैसी होगी इसका वर्णन ईशावास्य उपनिषद् के प्रथम मंत्र में आता है। "इस सम्पूर्ण जगत् में जो कुछ भी स्थावर और जंगम है वह ईश्वरमय है। अतः जगत् में त्यागपूर्वक भोग करते हुए रहो तथा दूसरों की वस्तु का लालच मत करो। इसकी चरम परिणिति श्वेताश्वर उपनिषद् में ऋषि की इस घोषणा में होती है जिसमें ऋषि घोषणा करता है कि, उसने उस तत्त्व को पा लिया है और आश्वासन देता है कि आप भी प्राप्त कर सकते हैं।
वृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानितस्थुः (श्वेताश्वर 2-5 ) वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय ।
(श्वेताश्वर 3-8) यह मंत्र अनादि अतीत, प्रत्यक्ष वर्तमान और अनन्त भविष्य के काल प्रवाह में मानवता के लिए आशा और विश्वास का संदेश देता हैं। ऋषि तूर्य स्वर में इस आनन्द संदेश की संसार के सामने घोषणा करता है, "हे अमृत पुत्रों ! सुनो सुनो है दिव्य-धाम वाली देवगण! तुम भी सुनो, मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को पा लिया है जो समस्त अज्ञान, अंधकार और माया के परे हैं केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो दूसरा कोई मार्ग नहीं है।
इस प्रकार वेद संहिताओं की यह संक्षिप्त जानकारी इसके व्यापक अध्ययन की प्रेरणा अंत:करण में जगाये इस कामना के साथ वैदिक वाङ्मय के अन्य ग्रन्थों पर विचार करते हैं।
पुराण
वेदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों एवं उपनिषदों में जगत् की उत्पत्ति, जीव का जगत् में व्यवहार तथा जीव एवं जगत् के मूलाधार परमात्मा का तत्त्वज्ञानात्मक विश्लेषण किया गया है। ये सारे तत्त्व सर्वमान्य व्यक्ति तक पहुँचे, साधारण से साधारण व्यक्ति के मन में सरलता से यह ज्ञान अंकित हो इस विचार से प्राचीन समय में पुराणों की रचना हुई। पुराण साहित्य में भारतीय संस्कृति का अजस्र प्रवाह दृष्टिगोचर होता है । पुराण साहित्य भारत के इतिहास को जानने की कुंजी है। पुराण केवल भारत ही नहीं अपितु सृष्टि की रचना, उसके विकास और विकास यात्रा के उतार-चढ़ावों की कहानी है। वे अत्यन्त प्राचीन होते हुए भी नित्य नूतन हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पुराण वेदों को समझने के लिए 'मेग्नीफाइंग ग्लास' है। जैसे मेग्नीफाइंग ग्लास छोटी चीज को बड़ी बनाकर दिखाता है, वैसे ही वेदों में कहीं गई सूत्ररूप बातों को पुराण विस्तार से समझाते हैं।
तथाकथित ब्रिटिश विद्वानों ने पुराणों के रूपकों, कथाओं के अन्दर छिपे संकेतों को न समझ पुराणों को अविश्वसनीय तथ्यों का संग्रह, काल्पनिक कथाओं का पुलिन्दा मानकर उसके प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करने का प्रयत्न किया। वर्तमान पीढ़ी इस भ्रम से निकल कर पुराणों से इतिहास, कला, संस्कृति, सभ्यता को जाने, इस हेतु प्रयत्न करना आज की महती आवश्यकता है।
साधारणतः यह माना जाता है कि महर्षि वेद व्यास ने 18 पुराणों की रचना की। ऐसा लगता है हमारे यहाँ व्यास पदनाम की परम्परा रही जिन्होंने इनक किया। सृष्टि के विकास क्रम के इतिहास को इन पुराणों में कथाओं, आख्यानों, जीवन चरित्रों, संवादों के माध्यम से व्यक्त किया गया है। पुराण की परिभाषा निरुक की व्याख्या के अनुसार पुराण का तात्पर्य है'पुराणमाख्यानं पुराणं" अर्थात् जिसमें पुरातन आख्यान हो वह पुराण है। एक अन्य व्याख्या में कहा गया है- 'पुरा अपि नवम् पुराणम्' अर्थात् जो पुराना होने पर भी नवीन हो, वह पुराण है। पुराण का महत्त्व देवी भागवत में पुराण शब्द की व्याख्या की गयी है जिससे पुराण शब्द का महत्त्व ध्यान में आता है। " श्रुति स्मृति उसे नेत्रे, पुराणं हृदय स्मृतम्' अर्थात् श्रुति और स्मृति दोनों ही नेत्र हैं और पुराण हृदय है।पुराणों की संख्या साधारणतः मुख्य पुराण 18 माने गये हैं। इन सभी पुराणों के नाम सर्वसाधारण व्यक्ति स्मरण रख सके इस हेतु एक श्लोक प्रचलित है जिसके सहारे 18 पुराणों का स्मरण सरलतापूर्वक किया जा सकता है।
म द्वयं भद्वयं चैवष्टत्रयं वचतुष्टयम्अनापलिंगकूस्कानि
पुराणानि पृथक् पृथक म द्वयं अर्थात् म नाम वाले दो पुराण है- मत्स्य पुराण तथा मार्कण्डेय पुराण। भ द्वयं अर्थात् भागवत पुराण एवं भविष्य पुराण ब्रत्रयं अर्थात् ब्रह्मपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण व चतुष्टयम्- अर्थात् वामन पुराण, विष्णु पुराण, वराह पुराण और वायु पुराण,अ- अर्थात् अग्नि पुराण । ना- अर्थात् नारद पुराण।प- अर्थात् पद्म पुराण ।लिं- अर्थात् लिंग पुराण।ग- अर्थात् गरुड़ पुराण,कू अर्थात् कूर्म पुराण ।स्क- अर्थात् स्कन्द पुराण।
इस प्रकार से ये भिन्न-भिन्न 18 पुराण हैं।
पुराणों के नामकरण- हमारे यहाँ माना गया है कि सम्पूर्ण विश्व एक तत्त्व की अभिव्यक्ति है। पर मनुष्य अपने सीमित मन, बुद्धि के द्वारा उस अनाकलनीय तत्त्व को धारणा करने का प्रयत्न करता है। इस प्रक्रिया में भिन्न-भिन्न स्वरूपों में उस तत्त्व को देखा गया और उन स्वरूपों को उस तत्त्व का अवतार माना गया। इसी आधार पर परमात्मा के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के आधार पर पुराणों के नाम रखे गये जो 18 पुराणों के नामों में हमें दिखाई देता है।
पुराणों के लक्षण- प्रत्येक भगवान के एक रूप को लेकर प्रतिपादन करता है। परन्तु कुछ सामान्य बातें सभी पुराणों में दृष्टिगोचर होती है। इसी आधार पर पुराणों के लक्षणों को बताने वाला एक श्लोक प्रचलित है-
सर्गश्च, प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितञ्चैव पुराणं पंचलक्षणम् ॥
अर्थात् सर्ग याने सृष्टि उत्पत्ति का क्रम, प्रति सर्ग याने सृष्टि का लय, देवता पितरों की वंशावली, समस्त मन्वन्तर ( किस मनु का कब अधिकार होता है) तथा वंशानुचरित याने सूर्य, चन्द्र आदि वंशों के राजाओं का संक्षिप्त विवरण।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि पुराण हमारे अध्यात्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, तंत्र-मंत्र शास्त्र, कलाशास्त्र को अभिव्यक्तियों हैं पुराण हमारे सामाजिक जीवन एवं इतिहास के कोश है। इसमें तीर्थों की सूची के साथ-साथ परलोक-विज्ञान, प्रेत-विज्ञान, जन्मान्तर कर्मरहस्य, कर्मफल निरूपण, नक्ष-विज्ञान, रत्न-विज्ञान, प्राणी-विज्ञान, आयुर्वेद आदि महत्त्वपूर्ण विषय दिये गये हैं। पुराणों के द्वारा प्राचीन राजनैतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक अवस्थाओं का अध्ययन करने में बहुमूल्य सहायता मिलती है। समाज जीवन में पुराणों का महत्त्व प्राचीन समय में गाँव-गाँव में पुराण कथाओं का आयोजन होता था। पुराणों का प्रचार करने वाले सूत कहलाते थे। पुराणों में भी वर्णन आता है, एकदा नैमिषारण्ये ऋषि मुनि एकत्रित हुए और बोले, 'सूत जी, सुनाइये यह घटना कैसे हुई? तो उत्तर में सूत जी बोलते थे । यही परम्परा भारत के गाँव-गाँव में प्रचलित रही और इन पुराण कथाओं के द्वारा सामाजिक जीवन को श्रेष्ठतम बनाने की प्रक्रिया चलती रहती थी कोई भी श्रेष्ठ तत्त्व उच्चारण मात्र से जीवन में गहरा असर नहीं कर पाता, जैसे वेदों में कहा गया है- 'सत्यं वद्' पर यह उतना गहरा असर नहीं करता। परन्तु जब सत्य के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले राजा हरिशचन्द्र की कथा सुनते हैं तो यह तत्त्व गहराई के साथ जीवन में उतरता है। दूसरा अगर दुःखी है तो स्वयं कष्ट उठाकर उसका दुःख दूर करना चाहिए यह तत्त्व मन को उतना प्रभावित नहीं करता परन्तु राजा रन्तिदेव की कथा सुनते है कि कैसे रन्तिदेव ने 46 दिन भूखे रहने पर भी अपना भाग द्वार पर आये भिक्षुक को दे दिया अथवा राजा शिवि ने कबूतर की रक्षा के लिए स्वयं अपने शरीर को देने की तैयारी की, तो यह परोपकार का तत्त्व जीवन में उतरता है। इस प्रकार सभी तत्त्वों को समाज जीवन में उतारने का प्रयास पुराणों के माध्यम से हुआ। पुराणों की कथाओं में तत्त्वज्ञान रहता था, व्यवहारशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिक उतार-चढ़ाव, इहलौकिक और पारलौकिक दृष्टि से दान, तप, का महत्त्व, तीर्थयात्राएँ, विभिन्न धार्मिक स्थल चार धाम, बायन शक्तिपीठ, द्वादशज्योतिर्लिंग, पवित्र नदियाँ आदि सबके महात्म्यों का वर्णन मिलता है, इससे समाज को एक दिशा मिलती थी।
पुराणों का वैशिष्ट्य- आज आवश्यकता इस बात की है कि पुराणों में निहित तत्यों का विश्लेषण कर युगानुकूल रूप में आज के समाज के सामने रखा जाय। पुराणों के रूपकों के द्वारा प्रतिपादन की शैली में निहित सार को समाज के सामने रखा जाय। इस दृष्टि से जैसे-जैसे पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर पुराणों की ओर देखते हैं तो आज दुनिया के वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित होते हैं कुछ तथ्य नीचे दिये जा रहे हैं ताकि वर्तमान पीढ़ी अपने पूर्वजों की विरासत से परिचित हो सके।
1. सन् 1850 तक अफ्रीका महाद्वीप यूरोपवासियों के लिए दुर्बोध्य था। यदि कोई यह कहता कि उसमें आदमी रहता है, तो वे हँसते थे। आगे चलकर नील नदी की खोज करने की दिशा में कार्य आरम्भ हुआ। ब्रिटिश संशोधक जॉनस्पीकी वर्ष 1856 में नील नदी की खोज की दिशा में आगे बढ़ा तथा सन् 1862 में उसकी खोज पूरी हुई। वर्ष 1863 में उसने अपनी सम्पूर्ण खोज का वृतान्त एक पुस्तक में लिखा जिसका नाम था 'जर्नल ऑफ दि डिस्कवरी ऑफ दि सोर्स ऑफ दि नाइल"।
जॉनस्पीकी को इस खोज में पुराणों से बहुत सहायता मिली। इसका वर्णन वह अपनी पुस्तक में इस प्रकार करता है- कर्नल रिग्बी ने मुझे एक मूल्यवान निबन्ध मानचित्र के साथ दिया जो नील नदी तथा चाँद के पहाड़ से सम्बन्धित था। वह निबन्ध कर्नल विलफोर्ड का लिखा हुआ था, जो उसने हिन्दुओं के पुराणों के आधार पर तैयार किया था। यह आश्चर्य की बात है कि हिन्दुओं को नील नदी के उद्गम का ज्ञान है इसलिए यह बात स्पष्ट है कि प्राचीन हिन्दुओं का अफ्रीका के विभिन्न भागों से सम्बन्ध था, "ऐसा समझने में हमें किसी प्रकार का भ्रम नहीं होना चाहिए। (जर्नल ऑफ दि डिस्कवरी ऑफ दि सोर्स ऑफ दि नाइल पेज-13)
नील नदी के बारे में इजिप्शन लोगों की जानकारी की हँसी उड़ाते हुए जॉनस्पीकी लिखता है, "नील नदी सम्बन्धी हमारे सारे ज्ञान का केन्द्र हिन्दू हैं बाकी मिश्र के भूगोल वेत्ताओं की बातें पाखण्ड और अनुमान है।" 2. ब्रिटिश साम्राज्य के बारे में कहा जाता था कि वह साम्राज्य इतना विशाल है कि उसमें सूर्य अस्त नहीं होता, परन्तु यह विशेषण हजारों वर्ष पूर्व महाराजा मान्धाता के राज्य के संदर्भ में भारत में प्रयुक्त हुआ था। विष्णुपुराण में उल्लेख आता है-यावत्र्त्स्य उदेत्यस्तं यावच्च प्रतितिष्ठति । सर्वं तयौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते ॥(विष्णुपुराण 4-2-65) - अर्थात् जहाँ सूर्य उदय होता है और जहाँ अस्त होता है वह सम्पूर्ण क्षेत्र युवनाश्व के पुत्र मान्धाता का है।
3. पुराणों में वर्णन आता है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर परमाणु के समान स्थित है। यह पढ़कर कुछ प्रगतिशील लोग हँसी उड़ाते हैं, परन्तु थोड़ा गहराई से विचार करेंगे तो ध्यान में आयेगा कि शेषशायी विष्णु के प्रतीक के रूप में ब्रह्माण्ड विज्ञान को ही समझाया गया है। विष्णु का अर्थ है 'विवर्धते इति विष्णु' जो फैल रहा है वह विष्णु। यह ब्रह्माण्ड भी फैल रहा है तथा विष्णु शेष पर लेटे हैं अतः शेष की व्याप्ति उनसे अधिक है। शेष का एक नाम अनंत भी है। सान्त ब्रह्माण्ड अनन्त में ही स्थित है। वैज्ञानिक तथ्य को सरल रूप में इस कथानक द्वारा समझाया गया है ।
4. श्रीमद्भागवत पुराण में परीक्षित शुकदेव मुनि से पूछते हैं, काल का स्वरूप क्या है ? इस पर शुकदेव मुनि उत्तर देते हैं- विषय का परिवर्तन ही काल का स्वरूप है । घटनाओं के परिवर्तन द्वारा ही उस अमूर्त काल को हम जानते हैं।
5. काल के मापन की सूक्ष्मतम और महत्तम इकाई के वर्णन को पढ़कर दुनिया का प्रसिद्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान कार्ल सेगन अपनी पुस्तक 'COSMOS' में लिखता है "विश्व में एक मात्र हिन्दु धर्म ही ऐसा धर्म है, जो इस विश्वास को समर्पित है कि ब्रह्माण्ड सृजन और विनाश का चक्र सतत् चल रहा है। तथा यही एक धर्म है जिसमें काल के सूक्ष्मतम नाम परमाणु से लेकर दीर्घतम माप ब्रह्म दिन और रात की कल्पना जो 8 अरब 64 करोड़ वर्ष तक बैठती है तथा जो आश्चर्यजनक रूप से हमारी आधुनिक गणनाओं से मेल खाती है।"
वर्तमान काल का सम्बन्ध गति से है। गति परिवर्तन से काल परिवर्तन हो जाता युग के महान् वैज्ञानिक आइंस्टीन ने अपने सापेक्षता सिद्धान्त में इसे प्रतिपादित किया है। इस सम्बन्ध में एक घटना का वर्णन मिलता है। एक बार कुछ पत्रकार सापेक्षता सिद्धान्त के बारे में जानने आइंस्टीन के घर गये। आइंस्टीन कहीं-बाहर गये थे, घर पर उनकी पत्नी थी। पत्रकारों ने उनसे ही सापेक्षता के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, मैं ज्यादा तो नहीं जानती पर मुझे समझाने में से एक घटना का वर्णन करते हैं। मान लीजिए की एक युवक है और एक युवती उनमें आपस में प्रेम है। एक झरने के किनारे थे बैठे हैं, चारों और हरियाली है, ठण्डी लग्डी हवा बह रही है और वे आपस में प्रेम भरी बातें कर रहे हैं, तो सुबह से शाम हो जायेगी। पता नहीं लगेगा और अंधेरा होने पर उनके मुँह से यह वाक्य निकलेगा, अरे अभी तो बैठे थे इतनी जल्दी अँधेरा हो गया। अर्थात् कई घण्टों का बीता समय उन्हें एक क्षण के समान लगेगा। परन्तु दूसरी और गर्मी के दिन हो और दोपहर को तपती हुई भट्टी के निकट काम करना पड़े तो कुछ क्षण कई घण्टों जैसे महसूस होंगे। यह अवधारणा ही सापेक्षता है।
पुराणों में एक कथा आती है। रैवतक राजा की पुत्री रेवती की लम्बाई अधिक थी अतः उसे कोई वर नहीं मिल रहा था। उसके पिता योगबल से अपनी पुत्री को लेकर ब्रह्मा जी के पास पहुँचे। जब वहाँ पहुँचे तो गंधर्वगान चल रहा था। अतः कुछ समय रुके, बाद में ब्रह्मा जी ने आने का कारण पूछा तो राजा ने कहा, 'आपने पुत्री तो दी पर इसके लिए कोई वर भी उत्पन्न किया है या नहीं? यह जानने आया हूँ।' इस पर ब्रह्मा जी हँसे और कहा- 'जितने समय तुम आये और गान सुना इतने समय में पृथ्वी पर 27 चतुर्युगियाँ व्यतीत हो गई हैं और 28 वीं चतुर्युगी का द्वापर समाप्त होने वाला है। तुम वहाँ जाओ और कृष्ण के भाई बलराम से इसका विवाह कर देना। इस कथा में यह वर्णन आता है कि ब्रह्माजी के कुछ क्षण पृथ्वी पर के कई लाख वर्षों के बराबर हो जाते हैं। पुराण एवं इतिहास पुराणों में इतिहास है। परन्तु हमारी इतिहास दृष्टि भिन्न थी। पश्चिमी विद्वान् ऐसे कोई भी बात जो ईसा पूर्व की हो ऐसा कोई भी वर्णन जो सामान्य ज्ञान के परे हो उसे इतिहास मानने से इन्कार करते रहे। उनके लिए इतिहास घटनाक्रम और राजाओं के उत्थान-पतन का वर्णन मात्र रहा। परन्तु भारतीय दृष्टि रही हमारे यहाँ केन्द्र बिन्दु धर्म रहा। अतः उसको केन्द्र बिन्दु मानकर सारा वर्णन किया गया। उनकी दृष्टि थी।
1. प्राचीन घटनाओं का वर्णन इसलिए किया ताकि वर्तमान पीढ़ी उससे कुछ सीख सकें। 2. जिन राजाओं ने ऋषियों ने महर्षियों ने धर्म के मार्ग पर चलकर उदाहरण प्रस्तुत किया उनका जीवन समाज के सामने आ सके।3. जो अधर्म के मार्ग पर चले उनके जीवन का समाज पर क्या परिणामहुआ तथा उनका अन्त कितना दुःखपूर्ण रहा यह भाव मन में उत्पन्न हो सके। इन्हीं बातों को लेकर पुराणों में आवश्यक इतिहास का वर्णन किया गया है।
वेदांग
वैदिक वाङ्मय को समझने के लिए सहायक छह अंगों का विकास हुआ। 1 इन्हें वेदांग कहा जाता है। पाणिनि ने एक रूपक के द्वारा इन अंगों का वर्णन किया है-
छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्ती कल्पोऽथ पठ्यते
ज्योतिषामयनं चक्षुः निरूक्तं श्रोत्रमुच्यते ।
शिक्ष. घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतं
तस्मात्साङ्गमधीत्येव ब्रह्मलोके महीयते। (पाणिनीय शिक्षा)
पाणिनी कहते हैं कि छन्द वेद के पाद है, कल्प हाथ है, ज्योतिष आँखे हैं, निरुक्त कान है, शिक्षा नासिका है और व्याकरण मुख है अतः इन अंगों के साथ वेदों का अध्ययन करने से ब्रह्मलोक में महत्त्व की प्राप्ति सम्भव है।
1. शिक्षा- जिस शास्त्र में स्वर वर्ण आदि के सही उच्चारण के नियम, विधि आदि का प्रतिपादन किया जाता है उसे शिक्षा कहा गया। वेदों के अध्ययन में वैदिक मंत्रों के शुद्ध उच्चारण को बहुत महत्त्व दिया गया है; क्योंकि स्वरभेद से अर्धभेद हो जाता है। अतः कहा जाता है कि वाणी भी वज्र के समान होती है। जिसका ठीक उच्चारण नहीं किया तो वह प्रयोग करने वाले का ही नाश कर देती है। तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षा वेदांग के छह अंग बताये गये हैं- वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम और सन्तान ।वर्ण पाणिनी के अनुसार संस्कृत वर्णमाला में 63 या 64 वर्ण है। स्वर- स्वर तीन प्रकार के माने गये हैं, उदात, याने ऊँचा, अनुदात्त, याने नीचा, स्वरित याने मध्यम । मात्रा- यह तीन प्रकार की होती है ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत बल - बल से वह स्थान अभिप्रेत है जहाँ वर्णों या शब्दों का उच्चारण करते समय वायु मुँह में टकराता है।साम माधुर्य आदि गुणों से युक्त निर्दोष उच्चारण साम कहलाता है। सन्तान- जब दो अलग शब्द वाक्य में एक दूसरे के पास रहते हैं और उच्चारण में एक साथ बोले जाते हैं, तब प्रायः उनमें सन्धि हो जाती है जैसे वायो, आयाहि इसमें दोनों पद अलग हैं परन्तु एक साथ बोलेंगे तो वायवायाहि यह रूप हो जायेगा इसे ही सन्तान कहते हैं। वर्तमान समय में याज्ञवल्क्य शिक्षा, वासिष्ठ शिक्षा, भारद्वाज शिक्षा, पाराशरी शिक्षा, पाणिनीय शिक्षा आदि ग्रन्थ मिलते हैं।
2. छन्द- वैदिक संहिताओं का बड़ा भाग पद्य में है। अतः छन्द का ज्ञानआवश्यक माना गया। भरतमुनि के अनुसार शब्द के बिना छन्द नहीं तथा छन्द के बिना शब्द नहीं हो सकते। प्रत्येक छन्द में निश्चित मात्रा में अक्षर रहते हैं। वेदों में प्रयुक्त प्रमुख छन्द निम्न हैं- गायत्री- 24 अक्षर, उष्णिक्- 28 अक्षर, अनुष्टुप 32 अक्षर, त्रिष्टुप - 44 अक्षर, जगति 48 अक्षर, अष्टि 64 अक्षर, प्रकृतिः 84 अक्षर, उत्कृति- 104 अक्षर छन्द शास्त्र के रचयिता महर्षि पिंगल माने जाते हैं।
3. निरुक्त- वेदों के कठिन शब्द निघण्टु में संग्रहित किये है, यह एक प्रकार का कोष है। प्रत्येक वैदिक शब्द की व्युत्पत्ति कैसे हुई, उसका सही अर्थ क्या है, इससे जाना जा सकता है निरुक्त निघण्टु की व्याख्या के रूप में है। महर्षि यास्काचार्य ने निरुक्त तथा निघण्टु का संग्रह किया। वेदों को समझने में निरुक्त का अप्रतिम योगदान है। महर्षि दयानन्द के अनुसार यास्काचार्य के निरुक्त के सहारे वेदों में निहित विज्ञान अभिव्यक्त किया जा सकता है।
4.व्याकरण- छह वेदांगों में व्याकरा का अप्रतिम स्थान है। इसीलिए व्याकरण को वेद का मुख कहा गया है।
प्राचीन कथा है कि पूर्व में वेद सुनकर स्मरण किया जाता था धीरे-धीरे क्षमता कम होने से कई शाखायें लुप्त हो गई। तब सनक, सनन्दन, सनत कुमार, ये सिद्ध दक्षिण में चिदम्बरम् गये और भगवान शिव से वेद को बचाने की प्रार्थना की। तब उन्होंने अपने स्वर्गीय नृत्य को बीच में रोकर अपने डमरू को 14 बार बजाया इससे 14 सूत्र निकले जिससे भाषा विज्ञान की उत्पत्ति हुई इसका वर्णन निम्न श्लोक में किया गया है- नृत्यावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम् । उद्धर्तुकामः सनकादि सिद्धान् एतत् विमर्शे शिवसूत्र जालम् ॥ (कौशिक सूत्र)
इन सूत्रों के आधार पर पाणिनी ने अपने अद्वितीय व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यायी की रचना की। वैसे सर्वप्रथम व्याकरण ग्रन्थ इन्द्र ने बनाया ऐसा उल्लेख तैत्तरीय संहिता में आता है। उसमें कहा गया है कि वाणी पहले अव्याकृत थी अर्थात् अरूप थी। उसका व्याकरण नहीं था। अतः देवों ने इन्द्र से कहा आप वाक् को व्याकरण दीजिये । इन्द्र ने देवों की प्रार्थना स्वीकार की और व्याकरण की रचना की। अतः वाणी अव्याकृत न रहकर व्याकृत हो गई। दक्षिण में ऐन्द्रव्याकरण का प्रभाव रहा है। लिखा। इसके अतिरिक्त महर्षि पतञ्जलि ने पाणिनी की अष्टाध्यायी पर महा भाष्य
5. ज्योतिष- ज्योतिष् को वेदों की आँख कहा गया है परन्तु आजकल इसके सम्बन्ध में बहुत भ्रम है। ज्योतिष् कहने के साथ लोग फलित ज्योतिष की कल्पना करते हैं। परन्तु प्राचीन समय में ज्योतिष के अन्तर्गत खगोल विज्ञान, काल विज्ञान, एवं गणित सम्मिलित था। भास्कराचार्य, ब्रह्मगुप्त, आर्यभट्ट आदि सब वेदांग ज्योतिष् के अध्येता थे।
इस दृष्टि से प्राचीन गणितज्ञों ने दश गुणोत्तर अर्थात् बादवाली संख्या पहले वाली से दस गुना अधिक, शतगुणोत्तर याने बाद वाली संख्या पहली वाली से सौ गुना अधिक आदि गणना पद्धतियों के अतिरिक्त बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति चल राशि कलन (डिफरेशियल कैलकुलस) आदि सभी विधाओं में विकास किया था। खगोल एवं काल विज्ञान में भारतीयों की गणनाएँ अचूक थीं। यूरोप के प्रसिद्ध खगोलवेत्ता बेली ने भारतीय पंचांगों में कलियुग प्रारम्भ के समय आकाशस्थ ग्रहों की . स्थिति के वर्णन और उनके निष्कर्षों को एकदम सटीक पाया है। फ्रांस के रॉयल एस्ट्रोनोमर प्लेफेयर ने भी भारत व स्याम देश के पंचांगों का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि भारत में छह-सात हजार वर्ष पूर्व खगोल व काल विज्ञान अत्यन्त विकसित रूप था। आर्यभट्ट द्वारा भिन्न-भिन्न ग्रहों की सूर्य से दी गयी दूरी आज के वैज्ञानिक निष्कर्षों के समान ही है।
हमारे यहाँ माना गया है कि मनुष्य के जन्म के समय की ग्रहस्थिति उसके जीवन पर प्रभाव डालती है। इसे कपोल कल्पना मानने वाले जरा आइंस्टीन के निष्कर्षो को सामने रखकर विचार करें। आइंस्टीन के कथनानुसार स्पेस या दिक् एकरस नहीं है। किसी भी पिण्ड के सम्पर्क में आने से स्पेस या दिक् वक्र हो जाता है। अतः जन्म के समय ग्रहों की स्थिति के अनुसार दिक् वक्र हुआ होगा और उस प्रकार की आकाशीय स्थिति उस व्यक्ति के अनुकूल रहती है। इसमें से ही आकाशीय पिण्डों के मानव पर पड़ने वाले प्रभावों का विज्ञान विकसित हुआ।
6. कल्प - प्राचीन समय से याज्ञिक कर्मकाण्ड और संस्कारों का महत्त्व जीवन में माना गया है। इनका विस्तृत विवेचन जिन ग्रन्थों में किया गया उन्हें कल्प .... सूत्र कहा गया है। कल्प सूत्र के तीन प्रकार माने गये हैं-
7. श्रौतसूत्र इसमें यज्ञ हेतु तीन प्रकार की दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य, अग्नि और आहनीय अग्नि का आह्वान कैसे किया जाय इसका वर्णन है साथ ही दैनिक या विशेष अवसरों पर किये जाने वाले यज्ञों का वर्णन इसमें आता है जैसे दर्शपौर्णमास यज्ञ । यह प्रत्येक पक्ष में किया जाता था। आग्रायणेष्टि यज्ञ अन्न की फसल तैयार हो जाने पर होता था। इसी प्रकार वाजपेय, राजसूय, गवामयन, अवश्मेघ, सोमयाग आदि भिन्न- भिन्न प्रकार के यज्ञों का आयोजन होता था ।
2. गृह्य सूत्र- भारतीय परम्परा में मानव जीवन को चार आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास में विभाजित किया गया है। इन्हीं का इसमें वर्णन हैं पोड्स संस्कार जीवन में संस्कारों का अप्रतिम महत्त्व माना गया है। अतः सोलह संस्कारों का विधान किया गया है। मानव के जन्म के पूर्व ही संस्कार प्रक्रिया प्रारम्भ होती थी। माता पिता हमें कैसी सन्तान चाहिए इसका विचार कर तदनुसार खान पान तथा आचार, विचार, व्यवहार प्रारम्भ करते, तदनुसार सर्वप्रथम गर्भाधान संस्कार होता था। उसके बाद दूसरा पुंसवन संस्कार, तीना सीमान्तोन्नयन। बच्चा पैदा होते समय नाल काटी जाती है तब जातकर्म नामक चौथा संस्कार होता था । बच्चा आठ दस दिन का होता तब पाँचवाँ नामकरण संस्कार किया जाता था। 3-4 मास का बालक होने पर छठा संस्कार निष्क्रमण करते थे। निष्क्रमण का अर्थ है बालक को घर से बाहर ले जाना। घर से बाहर किसी पवित्र स्थान पर बालक को ले जाते थे ताकि उस पर सत् संस्कार पड़े। बालक के 6-7 मास का होने पर व वह अन्न खाने लायक हो जाता था तब सातवाँ अन्नप्राशन नामक संस्कार करते थे। थोड़ा बड़ा होने पर सिर के बाल उतारने वाला चूड़ाकर्म नामक आठवाँ संस्कार होता था। फिर कर्णवेध नामक नवाँ संस्कार होता था। आजकल कान में कुछ पहना हो तो लगता है कि हम प्रगतिशीलता की दौड़ में कुछ पीछे रह गये हैं। परन्तु आधुनिक विज्ञान कहता है कि कान में कुण्डल पहनने से पाचन संस्थान नियंत्रण में रहता हैं। आठ वर्ष की आयु होने पर यज्ञोपवीत या उपनयन नाम से दसवाँ संस्कार होता था। उसके पश्चात् अध्ययन हेतु बालक गुरुकुल जाता था, तब गुरु के सानिध्य में वेदाध्ययन नाम ग्यारहवाँ संस्कार होता था । अध्ययन पूर्ण होने पर समावर्तन नामक बारहवाँ संस्कार होता था । समावर्तन के बाद स्नातक गुरु आज्ञा से घर लौटते थे। तब ब्रह्मचर्य आश्रम से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश की तैयारी होती थी और विवाह नामक तेरहवाँ संस्कार होता था जिसके द्वारा मनुष्य गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। 50 वर्ष की उम्र तक गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के बाद चौदहवाँ संस्कार वानप्रस्थ की दीक्षा का होता था। चिंतन, मनन और लोक कल्याण के लिए जीते हुए 75 वर्ष की उम्र में सन्यास दीक्षा नामक पन्द्रहवाँ संस्कार था और अंतिम मृत्यु के बाद अन्त्येष्टि नाम से सोलहवाँ संस्कार होता था। इसी का अर्थ होता है यज्ञ अर्थात् दाह संस्कार जो एक यज्ञ भी है। इस प्रकार सम्पूर्ण जीवन संस्कारमय था। संस्कारों की परम्परा जन्म लेने से पूर्व से प्रारम्भ होती थी और मृत्यु के बाद तक चलती थी।
विवाह के प्रकार- समाज में प्रजा वृद्धि एवं सुव्यवस्था हेतु विवाह संस्था अनिवार्य मानी गयी। परन्तु मानव विकारों के वश में होता है। उस अवस्था में भी समाज की व्यवस्था बनी रहे इस दृष्टि से आठ प्रकार के विवाहों का प्रावधान गया है- 1. ब्रह्म- चरित्रवान् व्यक्ति को पिता द्वारा निमंत्रित कर अपनी कन्या अलंकारों सहित दी जाती है तो ब्रह्मविवाह कहते हैं। 2. प्राजापत्य- दोनों पक्षों की सम्मति से जो विवाह हो वह । 3. आर्ष- प्रतीकात्मक रूप से कुछ राशि लेकर कन्या दी जाती है, तो उसे आर्षविवाह कहा गया है। 4. दैव- यह चार प्रकार के विवाह शास्त्रसम्मत माने गये। 5. असुर विवाह जब मनुष्य धन के द्वारा किसी कन्या को उसके पिता से प्राप्त करता है, तो वह आसुर विवाह कहलाता था। 6. गान्धर्व विवाह- आजकल जिसे प्रेम विवाह कहते है। यह गान्धर्व विवाह कहलाता था।
7. राक्षस- बलात, मारपीट कर जो विवाह किया जाय उसे राक्षस विवाह कहा गया है। 8. पैशाच अचेतावस्था में किसी कन्या से कोई दुर्व्यवहार करे उसे महान् पाप माना गया और उसे पैशाच विवाह कहा गया है।
पंचयज्ञ- हमारे पूर्वजों ने मानव जीवन को चार आश्रमों में बाँटा है। उसमें गृहस्थ आश्रम को श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि यह आश्रम शेष तीनों आश्रमों का आधार है। समाज में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ एवं संन्यासी का भरण-पोषण गृहस्थ ही करता है। अतः प्रत्येक गृहस्थ के कुछ अनिवार्य कर्तव्य बताये गये जिनके कारण समाज जीवन सुचारु रूप से चलता था । इस परम्परा में प्रत्येक गृहस्थ के लिए पाँच प्रकार के यज्ञ अनिवार्य माने गये थे 1. ब्रह्मयज्ञ वेद, शास्त्र तथा अन्य सत् साहित्य का अध्ययन, मनन, चिंतन करना।2. देवयज्ञ- देव पूजन, अर्चन करना। 3. पितृयज्ञ- पितरों को संतुष्टि के लिए आदि करना। 4. भूतयज्ञ पशु, पक्षी के भरण-पोषण हेतु कुछ देना। 5. नृयज्ञ मनुष्य के कल्याण के लिए कुछ करना
इस प्रकार व्यक्तिगत व पारिवारिक जीवन संस्कारी और उन्नत होने के साथ- साथ समाजोपयोगी कैसे हो इसका विधान गृहा सूत्रों में उपलब्ध होता है। आजकल मुख्यरूप से आश्वालायन, कौषीतकी, बौधायन, भरद्वाज, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशि, अग्निवेश्य, गोभिल, तथा जैमिनी तथा पारस्कर के गृह्यसूत्र उपलब्ध होते हैं।
धर्मसूत्र- व्यक्ति का परिवार और समाज से क्या सम्बन्ध रहे तथा परिवार एवं समाज के अंग के रूप में मनुष्य के क्या कर्तव्य है इन विषयों का प्रतिपादन धर्मसूत्रों में किया गया है। इन्हें स्मृति भी कहा जाता है। राज्य भी मनुष्य की सामाजिकता का ही एक रूप है। अतः राजा और प्रजा के कर्तव्य, दण्ड विधान, न्याय व्यवस्था और राजकीय कर आदि विषयों का स्मृतियों में उल्लेख आता है। इसके अतिरिक्त मनुष्यों के खान-पान, रहन-सहन, विवाह, उत्तराधिकार, ऋण, ब्याज आदि भी स्मृतियों की परिधि में आते हैं। वर्तमान में मनु याज्ञवल्क्य, नारद, शंख, लिखित, हारित, देवल आदि 27 से अधिक स्मृतियाँ उपलब्ध होती हैं। इस प्रकार छह वेदांगों का संक्षिप्त वर्णन समाप्त होता है।
रामायण
सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित करने वाले भगवान् राम के चरित्र का सर्वप्रथम चित्रण आदि कवि महर्षि वाल्मीकि ने किया। लगभग 24,000 श्लोकों में उन्होंने राम चरित्र का चित्रण किया। यह पहला महाकाव्य है। अतः इसे आदिकाव्य कहते हैं। इस ग्रन्थ के आधार पर ही कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य तथा भवभूति ने उत्तर राम चरित नाटक की रचना की।भारतीय जन जीवन पर भगवान् राम का कितना गहरा असर है, यह तथ्य इस बात से ही ध्यान में आयेगा कि परस्पर मिलने पर राम राम कहेंगे। आदमी की मृत्यु हो जाती है, तो उसे शमशान ले जाते समय 'राम नाम सत्य है,' बोला जाता है । वाल्मीकि रामायण में 7 काण्ड हैं- (1) बालकाण्ड, (2) अयोध्याकाण्ड,740(3) अरण्यकाण्ड, (4) किष्किंधाकाण्ड, (5) सुन्दरकाण्ड, 6. युद्धकाण्ड, (7) उत्तरकाण्ड ।सात काण्डों से युक्त इस ग्रन्थ में इतिहास, भूगोल, दर्शन, राजनीति, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद आदि सबका वर्णन मिलता है। राम का मर्यादायुक्त आदर्श जीवन, उनकी वचन पालन हेतु बड़े से बड़ा कष्ट उठाने की क्षमता, अधर्म के विरुद्ध संघर्ष हेतु बचपन में विश्वामित्र के साथ जाना, सुग्रीव के साथ मित्रता का निर्वाह, समाज के उपेक्षित वर्ग को सम्मान, वनों में रहने वाली जातियों में धर्म हेतु अपना सब कुछ न्योछावर करने की भावना उत्पन्न करना और सम्पूर्ण मानवता के लिए संकट बनी रावणी सत्ता को ध्वस्त करना आदि वर्णित है। हनुमान जब सीता की खोज में लंका में रात्रि में घूमते हैं, तो निद्रित स्त्रियों को देख अपने अंतःकरण की शुद्धता का अवलोकन करते हैं। रावण के मरने पर राम की टिप्पणी उनके उदार एवं महनीय व्यक्तित्व की झलक देती है जब वे कहते हैं कि यदि स्त्री लोलुपता का दोष न होता तो रावण में इन्द्रद को विभूषित करने की सामर्थ्य थी। साथ ही उसके मरने पर 'मरणान्तानि वैराणि' कहकर उसके मृत शरीर को प्रणाम किया तथा आदरपूर्वक उसका अंतिम संस्कार किया। इस परम्परा का प्रभाव वर्तमान काल तक चला आया जब शिवाजी ने अफजल खान को मारा तो उसकी कब्र आदर से बनायी; पर सम्भाजी की क्रूरतापूर्वक हत्या के बाद औरंगजेब ने शव के साथ सम्मान का व्यवहार नहीं किया। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने एक ओर लोकमर्यादा हेतु प्राण प्रिय पत्नी सीता को छोड़ा तो दूसरी ओर कालपुरुष के आने पर उनसे वार्तालाप के समय यदि कोई आयेगा तो वह दण्ड का भागी होगा इस नियम उल्लंघन करने पर कोई तकनीकी कमी निकालकर अपने भाई लक्ष्मण को बचाने के बजाय उन्हें निर्धारित दण्ड दिया। इस प्रकार मर्यादा और आदर्श के प्रतीक बने राम का जीवन सम्पूर्ण विश्व के लिए प्रेरणा का केन्द्र-बिन्दु बना। अतः राम कथा पर आधारित ग्रन्थों की रचना सम्पूर्ण विश्व में सभी काव्यों में होती रही है और आगे भी होती रहेगी।
दक्षिण में कम्ब की रामायण, पूर्व में यथा- बंगाल में कृत्तिवासा रामायण तो असम में माधव कन्दली की ओर विभिन्न जनजातियों की रामायणें, तेलुगू में रंगनाथ रामायण, कन्नड़ में पम्प रामायण, उड़िया में बलराम दास की रामायण, ब्रज में केशव की रामचंद्रिका, मराठी में एकनाथ की भावार्थ रामायण, अवधी में तुलसी की रामचरितमानस जिसने समूचे भारत पर अपना गहरा प्रभाव अंकित किया। इसके अतिरिक्त चीन, जापान, जावा, म्यांमा, कम्बोडिया, तिब्बत आदि देशों में भी रामकथा प्रचलित रही।
महाभारत एवं गीता महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत सम्पूर्ण भारतीय परम्परा का विश्वकोष तथा भारतीय उपाख्यानों का कल्पवृक्ष है। यह अकेला ग्रन्थ यूरोप के प्रसिद्ध दो महाकाव्य इलियड और ओडिसी से आठ गुनाबड़ा है। इसमें ज्ञान की परिधि इतनी व्यापक है कि स्वयं महाभारतकार ने कहा है-
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहासित न तत् क्वचित् ॥ ( आदि पर्व)
जो इसमें है वही सब जगह है और जो इसमें नहीं है वह कहीं नहीं विश्व प्रसिद्ध गीता ग्रन्थ महाभारत का ही एक हिस्सा है।
बेंगलोर के मेंटल साइंस इन्स्टिट्यूट के संस्थापक निदेशक गोविंदस्वामी ने दो वाक्यों के अन्दर महाभारत और गीता का सर्वांग सुन्दर वर्णन किया है। महाभारत क्या है ? इसका वर्णन करते हुए उन्होंने कहा Mahabharata is a greatest work on psycholpathology आज कल मनुष्य बीमार पड़ता है तो डॉक्टर खून की, मूत्र की जाँच करने को कहता है और पैथालोजीकल लेबोरेटरी में उसमें क्या-क्या है इसकी जाँच होती है। उसी प्रकार मानव का मन, उसकी प्रवृत्तियाँ कितने प्रकार की हो सकती हैं इसका चित्रण महाभारत में हैं। कोई मनुष्य कितना सज्जन, हो सकता है? कितना दुष्ट, कितना कुटिल, कितना निर्मोही, कितना दोहरे आचरण वाला हो सकता है ? इन सबका विश्लेषण इसमें है।
मेरी निष्ठा तो हस्तिनापुर के सिंहासन के साथ जुड़ी है। अतः तुम्हारा पक्ष याने पाण्डवों का ठीक होने पर भी मैं कौरवों की तरफ से लहूँगा । यह सोचने वाले भीष्म दिखायी देते हैं, तो दूसरी ओर धर्म की रक्षा के लिए व्यक्तिगत मान्यताओं और प्रतिज्ञाओं की कोई कीमत नहीं होती, यह विचार कर युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा तोड़कर शस्त्र उठाने वाले श्रीकृष्ण दिखायी देते हैं। एक ओर पुत्र मोह में फँस कर क्षेत्रों से ही नहीं तो मन से भी अंधे हुए धृतराष्ट दिखायी देते हैं, तो दूसरी ओर एक अंधे के साथ विवाह कर मेरी बहन को जीवन भर आँखों पर पट्टी बँधायी, अतः इस साम्राज्य को ही समाप्त करूँगा ऐसा सोच कर कुटिल वाले चलने वाला शकुनि है। धर्म की विजय के लिए यदि आवश्यक है तो अपनी सारी प्रतिष्ठा को दाँव पर लगाकर जीवन के गुप्त रहस्य को उजाकर करने वाली कुन्ती का एक रूप है, तो दूसरा रूप उनका तब दिखायी देता है, जब महाभारत युद्ध अनिवार्य दिखाई देने पर वह पाण्डवों को संदेश देती है कि, जिस दिन के लिए तुम्हें जन्म दिया, वह समय आ गया है, "तस्य कालः समागतः " स्त्री के स्वाभिमान की रक्षा के लिए घोरतम युद्ध को प्रेरित करने वाली द्वीपदी का एक तेजस्वी रूप है, तो दूसरी ओर महाभारत युद्ध की समाप्ति पर रात के अंधेरे में अधर्म से अपने पाँच पुत्रों को मारने वाले अवस्थामा को पकड़कर जब अर्जुन मारने को उद्यत होता है, तो उसके मरने पर उसके बच्चे अनाथ हो जायेंगे, अत: उसे छोड़ने का आग्रह करने वाली द्रौपदी का उदार रूप दिखायी देता है। कठोर प्रण मन में लिए बदला लेने के लिए दुःशासन की छाती फाड़कर उसका खून पीने वाली भीमसेन का विकराल रूप दिखायी देता है, तो बार-बार छले जाने पर भी सदैव कौरवों का हितचिंतन करने वाले युद्धिष्ठिर के भोलेपन का रूप भी दिखाई देता है। क्षणिक विजय के लिए अभिमन्यु को अधर्म से मारने वाले द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा जैसे सात महारथी इसमें दिखायी देते हैं, तो दूसरी ओर सदैव धर्म और नीति के पक्ष में खड़े विदुर दिखायी देते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि महाभारत को दी गई यह संज्ञा 'Greatest work on psycopathology' सार्थक है।
महाभारत ग्रन्थ में कुल 18 पर्व हैं- (1) आदिपर्व, (2) समापर्व, (3) वनपर्व, (4) विराट् पर्व, (5) उद्योग पर्व, (6) भीष्मपर्व, (7) द्रोणपर्व, (8) कर्णपर्व, (9) शल्यपर्व, (10) सौप्तिकपर्व, (11) स्त्रीपर्व, (12) शांतिपर्व, (13) अनुशासनपर्व, ( 14 ) आश्वमेधिक पर्व, (15) आश्रमवासिक पर्व, (16) मौसल पर्व (17) महाप्रास्थानिक पर्व, (18) स्वर्गारोहण पर्व ।
महाभारत में समाज में व्याप्त वर्णव्यवस्था का विवेचन आरण्यक पर्व के अजगर आख्यान में आता है । शान्तिपर्व में राज्य की उत्पत्ति तथा व्यवस्था सम्बन्धी विस्तार से वर्णन है। अश्वमेघ पर्व में भूगोल का वर्णन आ जाता है। उद्योग पर्व के अन्तर्गत नीति की व्याख्या विदुर ने की है, जो विदुर नीति के नाम से विख्यात है।
उद्योग पर्व के अर्न्तत प्रजागर पर्व आता है जिसमें पुरुषार्थ और नियतिवाद का सुन्दर चित्रण है। इसी में सनत् सुजातीय ऋषि के उपदेश में दर्शन का विवेचन है। भीष्मपर्व के भुवनकोष अध्याय में पृथ्वी तथा विशेषरूप में भारत के भूगोल का वर्णन है। इसी पर्व में विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ गीता है।
आगे भगवान् कहते हैं-
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः॥ (गीता 11-32)
इसी को उदधृत करके ओपनहाइमर ने कहा-I am become death, the shatterer of worlds
वेदांग- 1. शिक्षा, 2. कल्प, 3. व्याकरण, 4. निरुक्त, 5. छन्द, 6. ज्योतिष ।
बेंगलोर के मेण्टल साइंस इन्स्टीट्यूट के श्री गोविन्द स्वामी ने गीता का एक वाक्य में बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। वे कहते हैं Bhagavadgita is the greatest work on Psychotherapy महाभारत यदि जगत में विद्यमान सब प्रकार की मनोवृत्तियों का विश्लेषण हैं तो भगवद्गीता सभी प्रकार के लोगों के द्वंद्वों का, समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है। गीता में मानो सारा तत्त्वज्ञान केन्द्रीभूत हो गया है। इसलिए इसे उपनिषदों का सार बताते हुए एक रोचक श्लोक प्रचलित है-
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः । पार्थो वत्सः सुधर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतंमहत् ॥
अर्थात् सभी उपनिषद् गायें हैं जिन्हें दुहने वाले नन्दनंदन कृष्ण है। अर्जुन बछड़ा हैं जिसके माध्यम से सुधीजन गीतामृत का पान करते हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भगवद्गीता की विशेषता को व्यक्त करने वाला यह वाक्य Bhagawadagita is the greatest work on Psychco Therapy पूर्णतया सार्थक है।
दर्शन तथा फिलॉसोफी का अंतर साधारणतः व्यवहार में दर्शन के लिए अँग्रेजी के फिलॉसॉफी (Physlosophy) शब्द का प्रयोग होता है। कोई व्यक्ति थोड़ा गम्भीर हुआ तो मजाक में कहते हैं ये बड़ा फिलॉसफर (Phylosopher) है परन्तु दर्शन और फिलॉसोफी में मूलभूत अंतर है। 'फिलॉसोफी' लैटिन शब्द है और यह दो शब्दों के योग से बना है। फिलॉस (Philos) का अर्थ है प्रेम तथा सोफिया (Sophia) का अर्थ है बुद्धि इस प्रकार फिलॉसोफी का अर्थ हुआ बुद्धिप्रेम।
हमारे यहाँ दर्शन शब्द का प्रयोग हुआ है। दर्शन का अर्थ है 'दृश्यते अनेन इति दर्शनम्' अर्थात जिसके द्वारा देखा जाय और जो कुछ देखा जाय वह दर्शन है। इस प्रकार दर्शन में मात्र बौद्धिक धरातल पर विश्लेषण मात्र ही नहीं है अपितु प्रत्यक्ष अनुभूति का मार्ग भी उसमें है।
अतः भारत में दर्शनों का तात्त्विक विश्लेषण किया गया। अनेक प्रकार के तर्क वितर्क करते हुए दर्शन की यात्रा आगे बढ़ी। पर भारतीय चिन्तक मात्र इतने से सन्तुष्ट नहीं हुए। उन्हें तत्त्व चिंतन के बौद्धिक विलास मात्र से संतुष्टि नहीं थी, अपितु के प्रत्यक्ष अनूभूति करना चाहते थे। इस अभीप्सा में से ही विभिन्न साधना पद्धतियाँ विकसित हुई।
बुद्धि की मर्यादा पश्चिमी जगत् में अंतिम सत्य की खोज की यात्रा अधूरी सी दिखाई देती है। इसका कारण एक घटना से स्पष्ट हो सकता है- एक बार वर्तमान युग के महान् वैज्ञानिक आइंस्टीन से किसी ने पूछा कि हम अंतिम सत्य को क्यों नहीं जान पाते ? इस पर आइंस्टीन ने कहा- इसका कारण है हम अपनी इन्द्रियों और बुद्धि के उपकरण से सत्य जानने का प्रयत्न कर रहे हैं और यह दिक्- (Space), काल (Time) तथा निमित्त (Caused) की परिधि से बाहर नहीं जा सकती।
लिंकन वारनेट ने 'दी यूनवर्स एण्ड डॉक्टर आइंस्टीन' नामक एक सुन्दर पुस्तक लिखी है। इसमें वह कहता है "अंतिम सत्य जानने में मनुष्य के समक्ष सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि वह उस संसार का हिस्सा है जिसका वह उद्घाटन करना चाहता है। उसका शरीर और गर्वीला मस्तिष्क उन्हीं तत्वों से निर्मित है जिससे अन्तः नक्षत्रीय दिक् के मेघों का सृजन हुआ है। अन्ततः वह मौलिक दिक्, काल, क्षेत्र की ही एक क्षण भंगुर अभिव्यक्ति है।
किसके अधीन निश्चित व्यवस्था के अनुसार सुख-दुःख का अनुभव करते हैं? इन प्रश्नों के सन्दर्भ में आप अपने मत बताइये। इसके पश्चात् हरेक अपने चिंतन का निचोड़ प्रस्तुत करता है, जिसमें वे प्रतिपादन करते हैं।
कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या संयोग एषां न त्वात्मभावा- दात्माप्यनीशः सुख-दुःख हेतोः । श्वेताश्वतर -1-2
किसी ने कहा काल यह कारण है। काल से ही सब कुछ उत्पान होता है और काल में ही सब कुछ विलीन होता है। इसलिए सामान्य व्यवहार में कहते हैं समय बड़ा बलवान है। समय अनुकूल रहता है तो मिट्टी भी सोना हो जाती है। समय प्रतिकूल रहता है तो सोना भी मिट्टी हो जाता है। दूसरे ने कहा- जगत् में जो कुछ भी है उसका कारण स्वभाव है। आम मीठा क्यों और नीम कड़वा क्यों? क्योंकि यह उसका स्वभाव है। अग्नि उष्ण और जल शीतल क्यों हैं? स्वभाव के कारण चार्वाक लोग इस बात को मानते थे।
तीसरे ने कहा- यह सब एक निर्धारित प्रक्रिया है। जिससे किये गये कर्म परिणाम देते हैं और यह चक्र चलता रहता है। अतः उन्होंने कहा मूल कारण नियति है। चौथे ने कहा, यह सब आकस्मिक पैदा हो गया। आजकल के कुछ वैज्ञानिक भी मानते हैं कि अगम्य रासायनिक व भौतिक क्रियाओं से यह विविधतामय दुनिया बन गयी है। रूस में भी एक चिंतक हुए प्रिंस क्रोपातकिन। वे अराजकतावादी थे। वे उदाहरण देते थे- एक डब्बे में कुछ कंकड़ डालिये और उसे हिलाइये फिर डब्बे को देखिये तो कुछ न कुछ व्यवस्था बनी दिखेगी। ये दुनिया भी ऐसे ही बनी है।
पाँचवे ने कहा, पाँच महाभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश से दुनिया बनी। छठे ने कहा, जीवात्मा इसका कारण है परन्तु ध्यान में आया कि इस विश्लेषण में कमी है क्योंकि जड़ वस्तु अपने आप गति नहीं करती अतः काल से लेकर भूत समुदाय) तक कारण नहीं हो सकता, जीवात्मा भी कारण नहीं हो सकता, क्योंकि वह स्वयं सुख-दुःख में घूमता है। अतः सत्य को जानने के लिए मात्र बुद्धि या इन्द्रिय पर्याप्त उपकरण नहीं हो सकते। इस हेतु कोई अन्य मार्ग का अवलम्बन करना होगा और यह अन्य मार्ग ही भारतीय दर्शन को विलक्षणता प्रदान करता है। उपनिषद् कहता है, बुद्धि से परे जाने के लिए उन्होंने-
ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्
देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् ।
यः कारणानि लिखिलानि तानि
कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः । श्वेताश्वतर- 1-3
अर्थात् ऋषियों ने ध्यान योग का आश्रय लिया और इसके द्वारा परमात्मा की उस शक्ति का साक्षात्कार किया जो काल से लेकर जितने भी कारण पूर्व में कहे गये उनका कारण है और उसी को सामर्थ्य से वे सभी कारण अपने-अपने कार्यों को करने में समर्थ बनते हैं।
कौन ? इस प्रश्न के उत्तर तीन प्रकार से मिलते हैं- 1. एक मत के अनुसार जो वेद को मानता है यह आस्तिक है तथा जो वेद को नहीं मानता है वह नास्तिक है। इसके प्रमाण के रूप में मनु का यह वाक्य कहा जाता है- "नास्तिको वेदनिन्दकः " मनु 2/11
2. दूसरे मत के अनुसार जो परलोक को मानता है वह आस्तिक है तथा जो परलोक को नहीं मानता वह नास्तिक है। इसके प्रमाण के रूप में पाणिनि का वाक्य उद्धृत किया जाता है- "अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः " । पा. व्याकरण 4/61 3. तीसरे मत के अनुसार, जो ईश्वर को मानता है वह आस्तिक है तथा जो ईश्वर को नहीं मानता वह नास्तिक है। दूसरी श्रमण परम्परा । ब्राह्मण परम्परा वैदिक थी और श्रमण परम्परा अवैदिक थी। 1. अवैदिक दर्शन में मुख्यतः श्रमण परम्परा आती है, जिसमें अनेक दर्शन आते हैं परन्तु प्रमुख रूप से चार्वाक, जैन तथा बौद्ध दर्शन हैं। 2. वैदिक दर्शन में मुख्यतः षड् दर्शन आते हैं जिनके आधार पर आगे चलकर अनेक दर्शन बरे। वे छह दर्शन है- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा तथा वेदान्तअन्योक्तियों द्वारा वर्णन की भी ज्यादा चेष्टा नहीं की