योग का उद्देश्य : ‘योग’ शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ है, जुड़ना या एकजुट होना । गीता में योग को दो प्रकार से परिभाषित किया गया है-‘योगा: कर्मसु कौशलम्’ और ‘समत्वं योग उच्यते’। वस्तुत: जब इन दोनों को एक साथ जोड़ा जाए तो उसे योग कहते हैं । इसका परिणाम तब सामने आता है, जब हम -‘ब्रह्मणि आधायकर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति य:’। ब्रह्म का आश्रय और आधार मानकर अपने कार्यों को संपन्न करने से बुद्धि संतुलित बनी रहती है । आज कई लोग प्रश्न खड़ा करते हैं, कई विज्ञानवादी कहते हैं ईश्वर है कहाँ ? क्या सारी घटित बातें विज्ञान के माप पर चलती हैं । विज्ञान का आधार क्या है ? अनुमान ही न ! शून्य क्या है ? अक्षाँस और देशांन्तर रेखाएं कोई खींच कर बता सकता है ? बिन्दु और सरल रेखा का आधार क्या है ? बिन्दु वह है, जिसमें न लम्बाई है न चौड़ाई है । फिर कोई वैज्ञानिक इस बिन्दु को खींच सकता है ? यही बिन्दु वह ईश्वरीय सत्ता का आस्था बिन्दु है । जिसे खींचा नहीं, माना और अनुभूत किया जा सकता है । प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन कहता है- ‘विज्ञान की अपनी अन्तिम खोज करते समय हमें ईश्वर का अस्तित्व समझ में आया ।’ अत: कर्म को कुशलता से और समत्व भाव से जब हम करते हैं तो ‘योग’ होता है । वर्तमान समय में अपनी व्यस्त जीवन शैली के कारण लोग शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए योग करते हैं । आज योग विदेशों में भी प्रसिद्ध है । शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम कहा गया है अत: शरीर ठीक होना ही चाहिए किन्तु योग जिस कर्म की बात करता है वह रोटी , कपड़ा , मकान तो हो सकता है किन्तु उसकी यात्रा उसके आगे की है , जहां यह प्रश्न उठाता है की मैं कौन हूँ , कहाँ से आया हूँ कहाँ जाना है ? क्या यह शरीर, कपड़ा और मकान हमारे साथ जायेगा ? फिर क्या इसके की यात्रा भी आगे है ? उत्तर है, जी हैं । उस यात्रा को समझाने के लिए शरीर की यात्रा को समझना होगा । उसके 24 तत्वों, तीनों गुणों, पंचकोशों को भी समझना होगा । उसमें भू: प्राण, भुवःअपान, स्वःव्यान और मह अन्नं है का परिचय आता है ।
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस: 21 जून, 2015 को प्रथम अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया । इस अवसर पर 192 देशों और 47 मुस्लिम देशों में योग दिवस का आयोजन किया गया । इसमें 84 देशों के प्रतिनिधि मौजूद थे । इस अवसर पर भारत ने दो विश्व रिकॉर्ड बनाकर 'गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स' में अपना नाम दर्ज करा लिया है । पहला रिकॉर्ड एक जगह पर सबसे अधिक लोगों के एक साथ योग करने का बना, तो दूसरा एक साथ सबसे अधिक देशों के लोगों के योग करने का ।
योग सूत्र: योग सूत्र महर्षि पतंजलि द्वारा रचित है । यह ग्रंथ सूत्रों के रूप में लिखा गया है । सूत्र-शैली भारत की प्राचीन दुर्लभ शैली है, जिसमें विषय को बहुत संक्षिप्त शब्दों में प्रस्तुत किया जाता है । यह चार पदों में- समाधि ,साधन, विभूति और कैवल्य में विभक्त है, जिसमें 195 सूत्र निबद्ध है । इस ग्रंथ में महर्षि पतंजलि ने यथार्थ रूप में योग के आवश्यक आदर्शों और सिद्धांतों को प्रस्तुत किया है । समाधि पाद में 51, साधन पाद में 55, विभूति पद में 55 और कैवल्य पाद में 34 सूत्र हैं । कुल मिलाकर सम्पूर्ण योग सूत्र 195 सूत्रों में उपलब्ध होता है ।विषय की दृष्टि से चारों अध्यायों की विषय वस्तु को संक्षिप्त रूप से कुछ इस प्रकार समझ सकते हैं-(1) समाधि पाद- समाधि पाद के अन्तर्गत, समाधि से सम्बन्धित मुख्य-मुख्य विषयों को लिया गया है । इस अध्याय में सर्वप्रथम योग की परिभाषा बताई गयी है, जो कि चित्त की वृत्तियों का सभी प्रकार से निरुद्ध होने की स्थिति का नाम है । यहां पर भाष्यों के अन्तर्गत यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि यह योग समाधि है । समाधि के आगे दो भेद- सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात बताए गए हैं । दोनों ही प्रकार की समाधियों के अन्तर भेदों को भी विस्तार से बताया गया है । समाधि की स्थिति को प्राप्त करने के साधनों के विषय में भी विस्तार से चर्चा की गयी है । समाधिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के उद्देश्य और लक्षण क्या हैं और उसका साधन किस प्रकार होता है। (2) साधनपाद- साधनपाद में क्लेश, कर्मविपाक और कर्मफल आदि का विवेचन है। (3) विभूतिपाद-विभूतिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के अंग क्या हैं, उसका परिणाम क्या होता है और उसके द्वारा अणिमा, महिमा आदि अष्ट सिद्धियों की किस प्रकार प्राप्ति होती है। (4) कैवल्यपाद- कैवल्यपाद मेंकैवल्य या मोक्ष का विवेचन किया गया है। संक्षेप में योग दर्शन का मत यह है कि मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं, और उसे कर्म के फलों के अनुसार जन्म लेकर आयु व्यतीत करनी पड़ती है तथा भोग भोगना पड़ता है।
पतंजलि ने इन सबसे बचने और मोक्ष प्राप्त करने का उपाय योग बतलाया है और कहा है कि क्रमशः योग के अंगों का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ईश्वर के संबंध में पतंजलि का मत है कि वह नित्यमुक्त, एक, अद्वितीय और तीनों कालों से अतीत है और देवताओं तथा ऋषियों आदि को उसी से ज्ञान प्राप्त होता है। योगदर्शन में संसार को दुःखमय और हेय माना गया है । पुरुष या जीवात्मा के मोक्ष के लिये वे योग को ही एकमात्र उपाय मानते हैं । पतंजलि ने चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, निरुद्ध और एकाग्र ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ मानी है, जिनका नाम उन्होंने 'चित्तभूमि' रखा है। उन्होंने कहा है कि आरंभ की तीन चित्तभूमियों में योग नहीं हो सकता, केवल अंतिम दो में हो सकता है। इन दो भूमियों में संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ये दो प्रकार के योग हो सकते हैं । जिस अवस्था में ध्येय का रूप प्रत्यक्ष रहता हो, उसे संप्रज्ञात कहते हैं । यह योग पाँच प्रकार के क्लेशों का नाश करनेवाला है। असंप्रज्ञात उस अवस्था को कहते हैं, जिसमें किसी प्रकार की वृत्ति का उदय नहीं होता अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रह जाता, संस्कारमात्र बचा रहता है । यही योग की चरम भूमि मानी जाती है और इसकी सिद्धि हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है।
योगसाधन के उपाय में यह बतलाया गया है कि पहले किसी स्थूल विषय का आधार लेकर, उसके उपरांत किसी सूक्ष्म वस्तु को लेकर और अंत में सब विषयों का परित्याग करके चलना चाहिए और अपना चित्त स्थिर करना चाहिए । चित्त की वृत्तियों को रोकने के जो उपाय बतलाए गए हैं, वह इस प्रकार हैं-अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का प्रणिधान,प्राणायाम और समाधि, विषयों से विरक्ति आदि। यह भी कहा गया है कि जो लोग योग का अभ्यास करते हैं, उनमें अनेक प्रकार की विलक्षण शक्तियाँ आ जाती है, जिन्हें 'विभूति' या सिद्धि कहते हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठों योग के अंग कहे गए हैं, और योगसिद्धि के लिये इन आठों अंगों का साधन आवश्यक और अनिवार्य कहा गया है।
इनमें से प्रत्येक के अंतर्गत कई बातें हैं । कहा गया है जो व्यक्ति योग के ये आठो अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से छूट जाता है, अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है और अंत में कैवल्य (मुक्ति) का भागी बनता है। सृष्टितत्व आदि के संबंध में योग का भी प्रायः वही मत है जो सांख्य का है, इससे सांख्य को 'ज्ञानयोग' और योग को 'कर्मयोग' भी कहते हैं।
भारतीय ज्ञान परम्परा में योग छह आस्तिक दर्शनों में एक है । इसका परिचय भोजवृति और व्यास भाष्य में मिलता है । स्वामी आमानन्द के ‘पातंजलि योग प्रदीप एवं श्री हरिदास गोयन्दका जी का ‘पातंजलि योग दर्शन’ महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं । इनके अतिरिक्त अनेक पुस्तकें योग शास्त्र पर हैं । प्रत्येक योग प्रेमी को योग सीखने, करने के पूर्व कुछ महत्वपूर्ण शब्दों उनके निहितार्थ को समझना आवश्यक है ।
श्वेताश्वतरोपानिषद कहता है- ‘
‘यदाऽऽत्मतत्वेन तु ब्रह्मतत्वं दोपोपमेनेह युक्त: प्रपष्यते।
अजं धु्रवं सर्वतत्वैविशुद्वं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाषै:।।
जब योगी यहाँ दीपक के सदृश्य (प्रकाशमय) आत्मतत्व के द्वारा ब्रह्म तत्व को भली भांति प्रत्यक्ष देख लेता है, उस समय वह उस अजन्मा, निश्चल, समस्त तत्वों से विशुद्व परमदेव परमात्मा को जानकर सब बन्धनों से सदा के लिये छूट जाता है ।
योगशास्त्र से वर्णित साधनों का प्राय: उपनिषद, गीता, भागवत आदि सभी धर्मग्रंथ समर्थन करते हैं । योगशास्त्र में प्रवृत्ति के चौबीस भेद एवं आत्मा और ईश्वर-इस प्रकार कुल छब्बीस तत्व माने गये हैं । उसमें प्रकृति तो जड़ और परिणामशील है तथा मुक्त पुरुष और ईश्वर- ये दोनों नित्य, चेतन, स्वंप्रकाश, असंग, देशकालातीत तथा निर्विकार एवं अपरिणामी है । प्रकृति में बँधा पुरुष अल्पज्ञ, सुख-दु:खों का भोक्ता, अच्छी -बुरी योनियों में जन्म लेने वाला और देश कालातीत होते हुए भी एक देशी-सा माना गया है।
व्यायाम योग : योग मन, शरीर और आत्मा का मेल है । एक बार जीवन में जब इन तीनों में मेल हो जाता है, तो हम पूर्णता की और बढ़ते हैं । व्यायाम योग, योग का प्रथम चरण माना जा सकता है, जिससे शरीर सधता है । हम कोई भी शारीरिक व्यायाम करें उसका गहरा और स्थाई परिणाम होता है । इसलिए अगर व्यवस्थित और चरणबद्ध तरीके से पहले व्यायाम योग फिर आसन और फिर साँस -प्रस्वास आदि क्रियाएं करते हुए चलते हैं, तो योग की दिशा में बढ़ना प्रारम्भ होता है । व्यायाम योग के साथ प्रारम्भ कर योग करेंगे तो योग केवल चित्त, मन को ही शांत नहीं करता, बल्कि शरीर को भी स्वस्थ करता है और शरीर में शक्ति भी बढ़ाता है । व्यायाम योग के पहले शरीर संचालन की क्रिया करनी चाहिए । फिर द्रुति गति के व्यायाम योग अपनी क्षमता के आधार पर करना चाहिए ।
शारीरिक और मानसिक शक्ति बढ़ाने के नियम: योग केवल शरीर को खींचना ही नहीं है, शरीर को खींचते रहने से कार्य क्षमता में कमी आती है । योग कामकाजी शक्ति बढ़ाता है जो कि प्रतिदिन के कार्यों में जैसे- उठना, झुकना, बैठना, चलना आदि में सहायता करता है । अधिकतर योग मुद्राएं, विपरीत रूप से विशिष्ट श्वास पद्धति के साथ मिलकर केंद्रित और संकुचन की एक श्रृंखला बनाती हैं, जो लचीलेपन, गतिशीलता और शक्ति में लाभ पैदा करती हैं ।
आष्टांग योग :‘यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टवगांनि।।’इनमें पाँच वहिरंग हैं जो इस प्रकार हैं-(1)यम-‘अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:’ (अ) अहिंसा- मन, वाणी और शरीर से किसी प्राणी को कभी किसी प्रकार किचिंत मात्र भी दु:ख न देना ‘अहिंसा’ है ।परदोष दर्शन का सर्वथा त्याग भी इसी के अन्तर्गत है । ‘अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।’ जब योगी का अहिंसा भाव पूर्णतया दृढ़ स्थिर हो जाता है, तब उसके निकटवर्ती हिंसक जीव भी वैर भाव से रहित हो जाते हैं । इतिहास ग्रन्थों में जहाँ मुनियों के आश्रमों की शोभा का वर्णन आता है, वहाँ वन जीवों में स्वाभाविक बेर का अभाव दिखलाया गया है । यह उन ऋषियों के अहिंसा भाव की प्रतिष्ठा का द्योतक है। (ब) सत्य- सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम’ जो योगी सत्य का पालन करने में पूर्णतया परिपक्व हो जाता है, उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं रहती, उस समय वह स्वयं कर्तव्य पालन रूपी क्रियाओं के फल का आश्रय बन जाता है । जो कर्म किसी ने नहीं किया है, उसका भी फल उसे प्रदान कर देने की शक्ति उस यागी में आ जाती है, अर्थात जिसको जो वरदान, शाप या आशीर्वाद देता है, वह सत्य हो जाता है । इन्द्रिय और मन से प्रत्यक्ष देखकर, सुनकर या अनुमान करके जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही भाव प्रकट करने के लिये प्रिय और हितकर तथा दूसरे को उद्वेग उत्पन्न करने वाले जो वचन बोले जाते हैं उनका नाम सत्य है । (स) अस्तेय- ‘अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम’’। जब साधक में चोरी का अभाव पूर्णतया प्रतिष्ठित हो जाता है, तब पृथ्वी में जहाँ कहीं भी गुप्त स्थान में पड़े हुए समस्त रत्न उसके सामने प्रकट हो जाते है। अर्थात उसकी जानकारी में आ जाते हैं। दूसरे के स्वत्व का अपहरण करना, छल से या अन्य किसी उपाय से अन्याय पूर्वक अपना बना लेना ‘स्तेय’ चोरी है, इसमें सरकार की टैक्स की चोरी घूसखोरी भी सम्मिलित है। इन सब प्रकार की चोरियों का अभाव ‘अस्तेय’ है। (द) ब्रह्मचर्य- ‘ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यालाभ:’। जब साधक में ब्रह्मचर्य की पूर्णतया दृढ़ स्थिति हो जाती है तब उसके मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर में अपूर्व शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है। साधारण मनुष्य उनकी बराबरी नही कर पाते। मन, वाणी और शरीर से होनवाले सब प्रकार के मैथुनों की सब अवस्थाओं में सदा त्याग करके सब प्रकार से वीर्य की रक्षा करना ‘ब्रह्मचर्य’ हैं । ‘‘कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा। सर्वत्र मैथुनत्यागी ब्रह्मचर्य प्रचक्षते’’।। (गरुण.पूर्व.आचार 238.6) अत: साधक को चाहिये कि न तो कामदीपन करनेवाले पदार्थों का सेवन करे, न ऐसे दृष्यों को ही मन में लावे तथा स्त्रियों का और स्त्री साहित्य को पढ़े और न ही ऐसे पुरुषों का संग करे जो स्त्री पर आसक्त हों। (ई) अपरिग्रह- अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध:। जब योगी में अपरिग्रह का भाव पूर्णतया स्थिर हो जाता है, तब उसे अपना पूर्व और वर्तमान जन्म की सब बातें मालूम हो जाती हैं । यह ज्ञान भी संसार में वैराग्य उत्पन्न करनेवाला और जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए योगसाधना में प्रवृत करने वाला है। अपने स्वार्थ के लिये ममता पूर्वक धन, सम्पति और भोग-सामग्री का संचय करना ‘परिग्रह’ है, इसके अभाव का नाम अपरिग्रह है।
(2) नियम- ‘‘शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा:’’। (क) शौच- जल, मृतिकादि के द्वारा शरीर, वस्त्र और मकान आदि के मल को दूर करना बाहर की शुद्वि है, इसके सिवा अपने वर्णाश्रम और योग्यता के अनुसार न्यायपूर्वक धन को और शरीर निर्वाह के लिये आवश्यक अन्न आदि पवित्र वस्तुओं को प्राप्त करके उनके द्वारा शास्त्रानुकूल शुद्ध भोजनादि करना तथा सबके साथ यथा योग्य पवित्र बर्ताव करना यह भी बाहरी शुद्धि के ही अन्तर्गत है। जप, तप और शुद्ध विचारों के द्वारा एवं मैत्री आदि की भावना से अन्त:करण के राग-द्वेषादि मलों का नाश करना भीतर की पवित्रता है। (ख)संतोष- कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए उसका जो कुछ परिणाम हो तथा प्रारब्ध के अनुसार अपने-आप जो कुछ भी प्राप्त हो एवं जिस अवस्था और परिस्थिति में रहने का संयोग प्राप्त हो जाय, उसी में संतुष्ट रहना और किसी प्रकार की भी कामना या तृष्णा न करना संतोष है । (ग) तप- वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके करने में शारीरिक, मानसिक कष्ट सहने की सामर्थ्य ‘तप’ है । (घ) स्वाध्याय- अध्ययन (वेद, शास्त्र, महापुरूषों के जीवन चरित्र) तथा ऊँकार आदि किसी नाम का जप ‘स्वाध्याय’ है । (ड) ईश्वर प्राणिधान - ईश्वर के नाम, गुण, लीला, ध्यान, प्रभाव में अपने को पूर्णत: समर्पित कर देना ईश्वर प्राणिधान है। तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान के माध्यम से अर्थात नियमों के पालन अथवा क्रियायोग से हम अपने क्लेशों को नष्ट करते हैं या क्लेशों से मुक्त होते हैं।
(3) आसन :‘यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टवगांनि।।’इनमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, पाँच वहिरंग हैं । आसन का स्थान तृतीय है, इसके अंतर्गत-बैठना, बैठने का आधार, बैठने की विशेष प्रक्रिया, बैठ जाना इत्यादि आता है । जबकि गोरक्षपीठ द्वारा प्रवर्तित षडंगयोग (छः अंगों वाला योग) में आसन का स्थान प्रथम है । चित्त की स्थिरता, शरीर एवं उसके अंगों की दृढ़ता और कायिक सुख के लिए इस क्रिया का विधान मिलता है ।
विभिन्न ग्रन्थों में दिए आसन के लाभ - उच्च स्वास्थ्य की प्राप्ति, शरीर के अंगों की दृढ़ता, प्राणायाम आदि उत्तरवर्ती साधन क्रमों में सहायता, चित्त स्थिरता, शारीरिक एवं मानसिक सुख दायी आदि । पंतजलि ने मन की स्थिरता और सुख को लक्षणों के रूप में माना है । प्रयत्न शैथिल्य और परमात्मा में मन लगाने से इसकी सिद्धि बतलाई गई है । इसके सिद्ध होने पर द्वंद्वों का प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता। किन्तु पतंजलि ने आसन के भेदों का उल्लेख नहीं किया । उनके व्याख्याताओं ने अनेक भेदों का उल्लेख (जैसे-पद्मासन, भद्रासन आदि) किया है । इन आसनों का वर्णन लगभग सभी भारतीय साधनात्मक साहित्य में मिलता है ।
शरीर को पुष्ट करने वाले मुख्य यौगिक व्यायाम या मुद्राएं- त्रिकोणासन, वीरभद्रासन, गोमुखासन, नटराजासन , एकपादासन, वृक्षासन, ताडासन, उत्कटासन आदि हैं, जिन्हें तीन प्रकार से समझा जा सकता है- बैठकर : पद्मासन, वज्रासन, सिद्धासन, मत्स्यासन, वक्रासन, अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, गोमुखासन, पश्चिमोत्तनासन, ब्राह्म मुद्रा, उष्ट्रासन, गोमुखासन । पीठ के बल लेटकर : अर्धहलासन, हलासन, सर्वांगासन, विपरीतकर्णी आसन, पवनमुक्तासन, नौकासन, शवासन आदि । पेट के बल लेटकर : मकरासन, धनुरासन, भुजंगासन, शलभासन, विपरीत नौकासन आदि । पतञ्जलि के योगसूत्र के अनुसार - ‘स्थिरसुखमासनम्’ अर्थात् सुखपूर्वक स्थिरता से बैठने का नाम आसन है या जो स्थिर भी हो और सुखदायक अर्थात आरामदायक भी हो, वह आसन है । इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि आसन वह है जो आसानी से किए जा सकें तथा हमारे जीवन शैली में विशेष लाभदायक प्रभाव डाले ।
(4) प्राणायाम (अनुलोम-विलोम) :योग के माध्यम से योगी प्राणवायु को अपान वायु में और अपान वायु को प्राण वायु में हवन करते हैं । अन्य लोग परिमित भोजन सेवी होदर प्राण और अपान की गति को रोक कर प्राणायाम करते हुए इन्द्रियों को प्राणों में हवन करते हैं । प्राणायाम अर्थात प्राणवायु का विस्तार तीन प्रकार से होता है- पूरक, कुम्भक, और रेचक । जब वायु नाक और मुख से आती जाती रहती है तब उसे प्राण कहते हैं और जो वायु मल मूत्र को बाहर निकाल देती है वह अपान है । प्राण गति को रोकना ही कुम्भक है । पूरक, कुम्भक और रेचक ये तीन प्राणायाम के अंग हैं ।
अनुलोम का अर्थ सीधा और विलोम का अर्थ उल्टा होता है । यहां पर सीधा का अर्थ है नासिका या नाक का दाहिना छिद्र और उल्टा का अर्थ नाक का बायां छिद्र है । अर्थात अनुलोम-विलोम प्राणायाम में नाक के दाएं छिद्र से सांस खींचते हैं, तो बायीं नाक के छिद्र से सांस बाहर निकालते है । इसी तरह यदि नाक के बाएं छिद्र से सांस खींचते हैं, तो नाक के दाहिने छिद्र से सांस को बाहर निकालते हैं ।अनुलोम-विलोम प्राणायाम को कुछ योगीगण 'नाड़ी शोधक प्राणायाम' भी कहते हैं । (i) विधि: अपनी सुविधानुसार पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन अथवा सुखासन में बैठ जाएं । दाहिने हाथ के अंगूठे से नासिका के दाएं छिद्र को बंद कर लें और नासिका के बाएं छिद्र से 4 तक की गिनती में सांस को भरे और फिर बायीं नासिका को अंगूठे के बगल वाली दो अंगुलियों से बंद कर दें । तत्पश्चात दाहिनी नासिका से अंगूठे को हटा दें और दायीं नासिका से सांस को बाहर निकालें । अब दायीं नासिका से ही सांस को 4 की गिनती तक भरे और दायीं नाक को बंद करके बायीं नासिका खोलकर सांस को 8 की गिनती में बाहर निकालें । इस प्राणायाम को 5 से 15 मिनट तक कर सकते हैं । (ii) लाभ : फेफड़े शक्तिशाली होते हैं । सर्दी, जुकाम व दमा की शिकायतों से काफी हद तक बचाव होता है । हृदय बलवान होता है । गठिया के लिए फायदेमंद है । मांसपेशियों की प्रणाली में सुधार करता है । पाचन तंत्र को दुरुस्त करता है । तनाव और चिंता को कम करता है । पूरे शरीर में शुद्ध ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाता है । (iii) सावधानियां: कमजोर और एनीमिया से पीड़ित रोगी इस प्राणायाम के दौरान सांस भरने और सांस निकालने (रेचक) की गिनती को क्रमश: चार-चार ही रखें । अर्थात चार गिनती में सांस का भरना तो चार गिनती में ही सांस को बाहर निकालना है । स्वस्थ रोगी धीरे-धीरे यथाशक्ति पूरक-रेचक की संख्या बढ़ा सकते है । कुछ लोग समयाभाव के कारण सांस भरने और सांस निकालने का अनुपात 1:2 नहीं रखते । वे बहुत तेजी से और जल्दी-जल्दी सांस भरते और निकालते हैं । इससे वातावरण में व्याप्त धूल, धुआं, जीवाणु और वायरस, सांस नली में पहुंचकर अनेक प्रकार के संक्रमण को पैदा कर सकते हैं । अनुलोम-विलोम प्राणायाम करते समय यदि नासिका के सामने आटे जैसी महीन वस्तु रख दी जाए, तो पूरक व रेचक करते समय वह न अंदर जाए और न अपने स्थान से उड़े। अर्थात सांस की गति इतनी सहज होनी चाहिए कि इस प्राणायाम को करते समय स्वयं को भी आवाज न सुनायी पड़े ।
(5) प्रत्याहार : प्रत्याहार का मतलब है असंगता ।इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है । प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है । अतः चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं । सोते समय अदि तुम चिंता चिंताओं से घिर जाओ तो तुम्हें नीद नहीं आएगी , ऐसे में मन से आते विचारों को अलग करना प्रत्याहार है
: ।।
No comments:
Post a Comment