मानवी चेतना को पाँच भागों में विभक्त किया गया है। इस विभाजन को पाँच कोश कहा जाता है। प्राणियों का स्तर इन चेतनात्मक परतों के अनुरूप ही विकसित होता है। कृमि कीटकों की चेतना इन्द्रियों की प्रेरणा के इर्द गिर्द घूमती रहती है। शरीर ही उनका सर्वस्व होता है।
उनका ‘स्व’ काया की परिधि में ही सीमित रहता है। इससे आगे न उनकी इच्छा होती है, न विचारणा न क्रिया।
प्रत्येक कोश का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।
वे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य यह छः शत्रु और ममता, तृष्णा आदि दुष्प्रवृत्तियाँ मनोमय कोश में छिपी रहती है। कोश साधना से उन सब का निराकरण होता है। ये पाँच कोश इस प्रकार हैं -
(1) अन्नमयकोश -अन्नमय कोश का अर्थ है, इन्द्रिय चेतना ।अन्न से शरीर और मस्तिष्क निर्मित होता है ।सम्पूर्ण दृश्यमान जगत, ग्रह-नक्षत्र, तारे और पृथ्वी, आत्मा की परम सत्ता की अभिव्यक्ति है । वैदिक ऋषियों ने अन्न को ब्रह्म कहा है । यह प्रथम कोश है, जहाँ आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करती रहती है । इस जड़-प्रकृति जगत से बढ़कर भी कुछ है । जड़ का अस्तित्व मानव और प्राणियों से पहले का है। पहले पाँच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश) की सत्ता ही विद्यमान थी। यह सभी अन्नमय कोष के आधार तत्व हैं।
(2) प्राणमयकोश -प्राणमय कोश अर्थात् जीवनी शक्ति। प्राण पांच प्रकार के होते हैं- प्राण, समान, उदान, व्यान,अपान ।
उपनिषद का ऋषि कहता है - तुम (शरीर ) और आत्मा (हृदय) प्राण में प्रतिष्ठित हो । प्राण अपान में प्रतिष्ठित है । अपान व्यान में प्रतिष्ठित है । व्यान उदान में प्रतिष्ठित है । उदान सामान में प्रतिष्ठित है , जिसको नेति -नेति कहकर वर्णन किया गया है ।
यह प्राणमय कोश सभी वनस्पतियों, पशु और मानव दो भागों को मिलाकर भौतिक और आध्यात्मिक स्वरूप प्राणों से जुड़े हुए हैं ।
उसी प्रकार वाणी का मन से, मन का अपान से, प्राण का अपान से, मृत्यु का अपान से, पांच तत्वों का तीन गुणों( सत, रज , तम) से, गुणों का महतत्व से, महतत्व का आत्मा से और अनंत आत्मा का परमात्मा से समलय होता है ।
प्राणमय कोश की क्षमता जीवनी शक्ति के रूप में प्रकट होती है।
(3) मनोमयकोश–विचार बुद्धि मनोमय कोष आत्मा को साधारणतया मन और बुद्धिः के संयोग को माना जाता है ।
मन का अर्थ है संकल्प और विकल्प । हम जो देखते, सुनते हैं अर्थात हमारी इन्द्रियों द्वारा जब कोई सन्देश हमारे मस्तिष्क में जाता है तो उसके अनुसार वहाँ सूचना एकत्रित हो जाती है और मस्तिष्क से हमारी भावनाओं के अनुसार रसायनों का श्राव होता है जिससे हमारे विचार बनते हैं, जैसे विचार होते हैं उसी तरह से हमारा मन स्पंदन करने लगता है और इस प्रकार प्राणमय कोश के बाहर एक आवरण बन जाता है यही हमारा मनोमय कोश होता है।
मनोमय स्थिति विचारशील प्राणियों की होती है। यह और भी ऊँची स्थिति है।
मननात्-मनुष्य: । मनुष्य नाम इसलिए पड़ा कि वह मनन कर सकता है। मनन अर्थात् चिन्तन।
(4) विज्ञानमयकोश -इसमें अचेतन सत्ता का भाव प्रवाह होता है ।इसका निर्माण अन्तर्ज्ञान या सहजज्ञान से होता है ।इसे भाव-संवेदना का स्तर कह सकते हैं ।
दूसरों के सुख-दुख में भागीदार बनने की सहानुभूति के आधार पर इसका परिचय प्राप्त किया जा सकता है। आत्मभाव का आत्मीयता का विस्तार इसी स्थिति में होता है। अन्तःकरण विज्ञानमय कोश का ही नाम है।
दयालु, उदार, सज्जन, सहृदय, संयमी, शालीन और परोपकार परायण व्यक्तियों का अन्तराल ही विकसित होता है। उत्कृष्ट दृष्टिकोण और आदर्श क्रियाकलाप अपनाने की महानता इसी क्षेत्र में विकसित होती है। महामानवों का यही स्तर समुन्नत रहता है।
(5) आनंदमयकोश -आत्म बोध-आत्म जागृति, आनंदमय कोश आत्मा की उस मूलभूत स्थिति की अनुभूति है जिसे आत्मा का वास्तविक स्वरूप कह सकते हैं।
आनंदमय कोश जागृत होने पर जीव अपने को अविनाशी ईश्वर अंग, सत्य, शिव, सुन्दर, मानता है। शरीर, मन और साधन एवं सम्पर्क परिकर को मात्र जीवनोद्देश्य के उपकरण मानता है। यह स्थिति ही आत्मज्ञान कहलाती है। यह उपलब्ध होने पर मनुष्य हर घड़ी सन्तुष्ट एवं उल्लसित पाया जाता है।
No comments:
Post a Comment