Monday, 12 August 2024

योग का उद्देश्य

 

योग का उद्देश्य :  ‘योग’ शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ हैजुड़ना या एकजुट होना । गीता में योग को दो प्रकार से परिभाषित किया गया है-योग: कर्मसु कौशलम्और समत्वं योग उच्यते। वस्तुत: जब इन दोनों को एक साथ जोड़ा जाए तो उसे योग कहते हैं । इसका परिणाम तब सामने आता हैजब हम -ब्रह्मणि आधायकर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति य:। ब्रह्म का आश्रय और आधार मानकर अपने कार्यों को संपन्न करने से बुद्धि संतुलित बनी रहती है । आज कई लोग प्रश्न खड़ा करते हैं,  कई विज्ञानवादी कहते हैं ईश्वर है कहाँ ? क्या सारी घटित बातें विज्ञान के माप पर चलती हैं । विज्ञान का आधार क्या है ? अनुमान ही न ! शून्य क्या है ? अक्षाँश और देशांन्तर रेखाएं कोई खींच कर बता सकता है ? बिन्दु और सरल रेखा का आधार क्या है ? बिन्दु वह है, जिसमें न लम्बाई है न चौड़ाई है । फिर कोई वैज्ञानिक इस बिन्दु को खींच सकता है ? यही बिन्दु वह ईश्वरीय सत्ता का आस्था बिन्दु है । जिसे खींचा नहींमाना और अनुभूत किया जा सकता है । प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन कहता है- विज्ञान की अपनी अन्तिम खोज करते समय हमें ईश्वर का अस्तित्व समझ में आया ।अत: कर्म को कुशलता से और समत्व भाव से जब हम करते हैं तो योगहोता है ।

 वर्तमान समय में अपनी व्यस्त जीवन शैली के कारण लोग शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए योग करते हैं । आज योग विदेशों में भी प्रसिद्ध है । 'शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम' कहा गया है अत: शरीर ठीक होना ही चाहिए किन्तु योग जिस कर्म की बात करता है, वह रोटी , कपड़ा , मकान तो हो सकता है किन्तु उसकी यात्रा उसके आगे की है , जहां यह प्रश्न उठाता है की मैं कौन हूँ , कहाँ से आया हूँ कहाँ जाना है ? क्या यह शरीर, कपड़ा और मकान हमारे साथ जायेगा ? फिर क्या इससे की यात्रा भी आगे है ? उत्तर है, जी है 

 उस यात्रा को समझने के लिए शरीर की यात्रा को समझना होगा । उसके 24 तत्वों, तीनों गुणों, पंचकोशों को भी समझना होगा । उसमें भू: प्राण, भुवः,अपान, स्वःव्यान और मह अन्नं है का परिचय आता है ।

 भारतीय ज्ञान परम्परा में योग-

             भारतीय ज्ञान परम्परा में योग छह आस्तिक दर्शनों में एक है । इसका परिचय भोजवृति और व्यास भाष्य में मिलता है । स्वामी आमानन्द के पतंजलि योग प्रदीप एवं श्री हरिदास गोयन्दका जी का पतंजलि योग दर्शनमहत्वपूर्ण ग्रंथ हैं । इनके अतिरिक्त अनेक पुस्तकें योग शास्त्र पर हैं । प्रत्येक योग प्रेमी को योग सीखनेकरने के पूर्व कुछ महत्वपूर्ण शब्दों उनके निहितार्थ को समझना आवश्यक है ।

श्वेताश्वतरोपानिषद कहता है-

  ‘‘यदाऽऽत्मतत्वेन तु ब्रह्मतत्वं दोपोपमेनेह युक्त: प्रपष्यते। 

अजं ध्रुवम सर्वतत्वैविशुद्वं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाषै:।।

       जब योगी यहाँ दीपक के सदृश्य (प्रकाशमय) आत्मतत्व के द्वारा ब्रह्म तत्व को भली भांति प्रत्यक्ष देख लेता हैउस समय वह उस अजन्मानिश्चलसमस्त तत्वों से विशुद्व परमदेव परमात्मा को जानकर सब बन्धनों से सदा के लिये छूट जाता है । 

योगशास्त्र से वर्णित साधनों का प्राय: उपनिषदगीताभागवत आदि सभी धर्मग्रंथ समर्थन करते हैं । योगशास्त्र में प्रकृत्ति के चौबीस भेद एवं आत्मा और ईश्वर-इस प्रकार कुल छब्बीस तत्व माने गये हैं । उसमें प्रकृति तो जड़ और परिणामशील है तथा मुक्त पुरुष और ईश्वर- ये दोनों नित्य,  चेतनस्वंप्रकाशअसंगदेशकालातीत तथा निर्विकार एवं अपरिणामी है । प्रकृति में बँधा पुरुष अल्पज्ञसुख-दु:खों का भोक्ताअच्छी -बुरी योनियों में जन्म लेने वाला और देश कालातीत होते हुए भी एक देशी-सा माना गया है। 


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