गांधी के स्वप्न की राष्ट्रभाषा या संविधान की राजभाषा-
हिंदी
प्रो.
उमेश कुमार सिंह
मेरे बौद्धिको !
आप के
स्वप्न में ‘हिंदी दिवस’ और मेरे जाग्रत में ‘राजभाषा दिवस’ एक साल के लिए बीत गया
और हमारा कर्मकांड भी इस सप्ताह समाप्त हो जायेगा।
इस दिवस के कुछ दिनों पहले और आज सप्ताह तक जो भी सुनने, पढ़ने को मिला वह सुखद भी
था और कष्टकर भी। सुखद इसलिए की भाषा के प्रति हमारा प्रेम स्थाई रूप से हमारे
अंदर बसता जा रहा है। कष्टकर यह कि देश की संवैधानिक राजभाषा (हिंदी) अपना स्थान इस
वर्ष भी अपने पहले पायदान पर नहीं पहुँच सकी।
फिर भी यह अवसर इसलिए अन्य वर्षों की तुलना में
महत्वपूर्ण है कि राष्ट्र को स्वतंत्र भारत की सबसे सुलझी और भविष्य की दृष्टि को
समाहित किये हुए ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ आई। जिसको सभी लोगों ने किन्तु-परन्तु के
साथ स्वीकार भी किया। इसी शिक्षा नीति ने ‘भाषा’ की महत्ता को प्रतिस्थापित किया
तो उसी ने प्रश्न भी निर्माण किये। और सबसे बड़ी बात भूल–सुधार का अवसर प्रदान किया।
इसलिए यह वर्ष राजभाषा या हिंदी दिवस के लिए थोड़ा ज्यादा महत्वपूर्ण था।
कारण जब कोई राष्ट्र अपने गौरव में वृद्धि करता है तो
वैश्विक दृष्टि से उसकी प्रत्येक विरासत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। जैसे धर्म, संस्कृति,
परम्पराएँ, नागरिक
दृष्टिकोण, पुरातत्व, चित्रकला और ‘भाषा’ आदि। इनमें ‘भाषा’ ही एक ऐसा माध्यम है जो उक्त सभी विरासतों के भावी
संभावनाओं के अभिव्यक्ति में महत्त्वपूर्ण कारक बनकर उभरती है। भारतीय दृष्टि को
समझने के लिए स्वाभाविक रूप से आवश्यक दिखता है कि ‘राजभाषा’ न केवल देश की सशक्त
भाषा बने बल्कि वैश्विक आकर्षण का केन्द्र भी बने। क्योंकि आज भारत की ‘राजभाषा’
होने के बाद भी राजकाज के काम में जिस तरह से पिछले सत्तर –बहत्तर वर्षों से ‘अंग्रेजी’
का दबाव है, वह हमारे भविष्य और युवाओं के लिए चिंता का विषय है।
सर्वेक्षण के अनुसार भारत की राजभाषा (हिंदी) भले ही विश्व की दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा बनने की ओर संकेत दे रही है, किन्तु उसे अपने ही देश के अंदर वह स्थान नहीं मिल पा रहा है जो मिलाना चाहिए। जबकि जो अंग्रेजी भारत में संविधान का दर्जा प्राप्त कर राजभाषा के पहले पायदान पर बैठी है, वह वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार भारत में केवल २ लाख, ६० हजार लोगों की मातृभाषा है, इसके बावजूद सम्पूर्ण देश अंग्रेजी के व्यामोह में डूबा जा रहा है। आज हम राजभाषा (अंग्रेजी या हिंदी ) और राष्ट्रभाषा के दुराहे पर खड़े हैं। एक बड़ा हिस्सा धीरे–धीरे ही सही अंग्रेजी का हिमायती होता जा रहा है। उसको अपनी संतानों का भविष्य ‘राजभाषा’ में नहीं दिख रहा है। इस मानसिकता से आज लड़ने की आवश्यकता है। अत: आवश्यक है कि पहले हम अपनी ‘राजभाषा’ को पूरे देश में स्वीकृति दिला सके, तभी भारत की ‘राजभाषा’ विश्वभाषा बनने की ताकत प्राप्त कर सकेगी, भले ही वह वैश्विक भाषा बनने की सम्पूर्ण योग्यता को पूरा कराती है। और तभी देश का आज का हमारा समाज और भावी पीढ़ी अंग्रेजी के आतंक से मुक्त हो सकेगी ।
अंग्रेजी के इस व्यामोह और आतंक के दो कारण साफ नजर आ रहे
हैं , एक- भाषा के प्रति स्वाभिमान की कमी और दूसरा – राजभाषा और राष्ट्रभाषा का
द्वंद्व ।
तो मेरे बौद्धिको! हमें समझना होगा कि आज हम २०२०-२१ में हैं, देश भी सक्षम भारत बन रहा है तो फिर आज भी राष्ट्रभाषा, राजभाषा के विवाद में क्यों ? दूसरा जब अनुसूची- आठ कह रही है कि देश में २२ अधिकारिक भाषाएँ है, तो हमें संविधान की बात स्वीकार क्यों नहीं ? जब कि व्यवहार में भी दिखाई देता है कि अपने-अपने प्रान्तों के काम अपनी–अपनी मातृभाषा में ही होता है। जीवन व्यवहार भी उसी से चलता है। तो समस्या क्या है ?
समस्या यह है की एक तो ‘राष्ट्रभाषा’ को लेकर हमारा
दृष्टिकोण साफ नहीं है। दूसरा ‘राजभाषा’ सम्पूर्ण देश में राजकीय कार्य की भाषा
बने यह आग्रह बहुत लिजलीजा और कमजोर है। जरा इसे भी समझें -
१९५३ से १४ सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ मनाते आ रहे हैं। इसका प्रभाव यह हो
रहा है कि अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में इसके प्रति उदासीनता बढ़ रही है। यह सत्य है
की गांधी जी ने हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ बनाने की वकालत की थी। और देश में कई
प्रान्तों में ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समितियां’ बनी। गांधी जी के जीवित रहने से आज
तक वे सभी ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समितियां’ ‘हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की
कर्मकांडी कोशिश कर भी रही हैं। आखिर क्यों ? यह गाँधी के प्रति आसक्ति है या
संविधान की व्यवस्था को तत्काल स्वीकार न कर पाने की मानसिकता या थोथी हठधर्मिता ?
जब की गाँधी जी भाषा को लेकर कई दफे अपना मत हिंदुस्तानी से लेकर हिंदी तक समय
और जनमत के आधार पर बदलते रहे हैं।
प्रश्न यह भी है कि गाँधी जी के जाने के बाद जब सविधान सभा
ने १४ सितम्बर, १९४९ को हिंदी को ‘राजभाषा’ स्वीकार किया तब हिंदी को ‘राजभाषा’ का
समुचित दर्जा दिलाने के प्रयत्न की जगह हम हिंदी को यह कह कर की हिंदी को राष्ट्र
ने ‘राष्ट्रभाषा’ स्वीकार किया है, उसे संवैधानिक दर्जा दिलाने के प्रयत्न में लगे
रहे? और ७२ साल बिता दिए। यह कहाँ तक ठीक है?
आज भी सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं। दरअसल भूल कहाँ
हुई, जब १४ सितम्बर, ४९ को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने घोषणा की
कि हिंदी देश की ‘राजभाषा’ होगी तब हम ऐसे जश्न में डूबे की हमें पता ही नहीं चला
की ‘राष्ट्रभाषा’ और ‘राजभाषा’ में अन्तर क्या है ? और जब तक पता चला तो राष्ट्रभाषा
तो छोड़िये ‘राजभाषा’ हिंदी का स्थान भी अग्रणी पंक्ति पर अंग्रेजी ले चुकी थी।
हमारी इस नासमझी का
परिणाम यह हुआ की 1953 से हम जैसे–जैसे
१४ सितम्बर को ‘हिंदी दिवस’ का वार्षिक कर्मकाण्ड करते रहे, देश के अन्य भाषा-
भाषी इससे दूर होते गए और अहिन्दी भाषी प्रान्तों में एक ऐसा वातावरण बन रहा है
मानो हिन्दी अन्य राष्ट्रीय भाषाओं की दुश्मन हो। १४ सितम्बर,२०२० में जब हम हिंदी
दिवस मना रहे थे तो उस दिन भी तमिल, कन्नड़, मलयालम भाषी कुछ लोग विरोधी वक्तव्य दे
रहे थे। यह ठीक है की आप उसे राजनीतिक कह कर ख़ारिज कर देंगे, पर यथार्थ से मुख
नहीं मोड़ सकते।
होना यह चाहिए था कि १४ सितंबर जो ‘राजभाषा दिवस’ है उसे ‘राजभाषा
दिवस’ के रूप में ही मनाते, हिंदी दिवस के रूप में नहीं, तभी इन विरोधी वक्तव्यों
को रोका जा सकता है क्योंकि तब हम कह सकते हैं कि हम ‘राजभाषा दिवस’ मना रहे हैं
और धीरे-धीरे ‘राजभाषा’ सम्पूर्ण देश में स्थापित हो सकेगी ।
दूसरी महत्वपूर्ण बात हमारे व्यवहार की है। अभी–अभी ‘राष्ट्रीय
शिक्षा नीति’ आई हमने बिना विचारे उसके अंग्रेजी संक्षिप्त ‘NEP’ को हमारे सामने रख दिया और हमने बिना विचार के कि इसके
आगे क्या परिणाम होंगे, उसे लिखना और बोलना प्रराम्भ कर दिया। जब कि होना यह चाहिए
था कि यह संज्ञा है, अत: इसे भारत की सभी भाषाओं में यथावत ‘राष्ट्रीय शिक्षा
नीति’ और उसका संक्षिप्ति कारन ‘रा.शि.नीति’ ही रहना चाहिए। ‘NEP’ नहीं। इसी तरह नीति के अन्तर्गत निकाय, आयोग आदि हैं, उनके नाम केवल राजभाषा में होने चाहिय। वैसे
भी संज्ञा का अनुवाद करना गलत है। अन्यथा हमें हाथ में आया यह दूसरा अवसर भी चला
जायेगा और अंग्रेजी शिर पर बोलती रहेगी और हम मातृभाषा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा के
शब्दों को दुहराते रह जायेंगे।
ध्यान रखना होगा संविधान में हमने भारत को ‘इंडिया’ कहा तो
आज तक नहीं बदल सके। किन्तु देश की लोकसभा और राज्यसभा
को स्वीकार कर लिया तो वह हमारे मुख में रच बस गया, कुछ अंग्रेजी दा को छोड़कर। ऐसे अनेक जहग दिखता है कि जिन संस्थाओं के नाम हमने
राजभाषा में स्वीकार कर लिया वह सहज स्वीकार हो गया। हमारे मानवतावादी बौद्धिक को यह समझना होगा कि वास्तविकता यह है जो अपनी राजभाषा को दर्जा नहीं दे सका, वह मनुष्य को
मनुष्य का दर्जा क्या देगा ? ध्यान रखना होगा कि संस्कार मातृभाषा ही सिखा सकती है, धाय
भाषा नहीं।
तात्पर्य यह कि ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020’ में फिर से एक अवसर आया है, ‘राजभाषा’ के प्रति अपनी
प्रतिबद्धता दिखाने की। मेकाले
को दोष देने वाले स्वतंत्र राष्ट्र के बौद्धिकों या तो मेकाले का नाम बन्द कर
दीजिये अथवा ‘NEP’ जैसे अंग्रेजी के संक्षिप्त शब्द को मानद संस्थाओं,
निकायों और परिषदों से हटाइये।
आज अगर NEP’ जैसे शब्द बिना मेकाले की उपस्थिति में आ रहे हैं तो मानना होगा कि हमारे प्रलाप और व्यवहार में अन्तर है। आज समय की मांग है कि हम अपनी मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा के साथ राजभाषा को उचित सम्मान दें और जब हम गाँधी की राष्ट्रभाषा की मांग को संविधान सभा में तिलांजलि देकर देश के लोगों की मातृभाषाओं को ही राष्ट्रीय भाषाएं स्वीकार कर लिया और राजभाषा को संवैधानिक स्वीकृत भी दे दी है तो उसे स्वीकार करते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति के भाषा सम्मान को भी आगे बढ़ाएं।
शब्दों का व्यवहार करते समय यह ध्यान रखना होगा की शब्दों
का अपना कुल गोत्र होता है, उसे बनाये रखने का संकल्प लेने का अवसर भी हमारी ‘राजभाषा’
दे रही है। और समय के साथ पूज्य गाँधी के स्वप्नों की राष्ट्रभाषा का भी यही उचित
सम्मान होगा।
सत्य है। हिंदी को उन्नत करने का षड्यंत्र तो राजभाषा अधिनियम 1963 के माध्यम से दिया गया था। निज भाषा पर गौरव करने के राष्ट्र के पास अनेक कारण हैं। विश्व की तृतीय सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोले जाने वाली भाषा,एक अरब लोगों के व्यवहार की भाषा, वैश्विक परिदृश्य में महत्वपूर्ण संपर्क भाषा, आधुनिक, तकनीक, व्याकरण की दृष्टि से समृद्धि हिंदी का महत्त्व भारतीय जन जाने कब समझेंगे। अन्यथा अंग्रेजी का हारमोनियम तो बज ही रहा है।
ReplyDeleteसर राष्ट्रभाषा की अपरिहार्यता और महत्व को सशक्त तरीके से स्पष्ट किया ...धन्यवाद , बधाई ।
ReplyDeleteA very informative and meaningful article in many respects.
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ReplyDeleteआपने बहुत गंभीरता से हिंदी के पिछड़ने की समस्याओं का उल्लेख किया है। वस्तुतः वर्ष-दर-वर्ष हम हिंदी दिवस मनाते तो रहते हैं, किंतु पिछले वर्षों की ही बातों को रस्मी तौर पर दोहराते रहते हैं। कुछ नया नहीं करते हैं और न ही नया स्वीकार करते हैं, जिससे हिंदी से जुड़ने वाले नए लोगों को यही लगता है कि बस यही हिंदी है। आपका यह सुझाव भी सराहनीय है कि 'हिंदी दिवस' के स्थान पर 'राजभाषा दिवस' मनाया जाना चाहिए। इतनी अच्छी वैचारिकी के लिए आपको साधुवाद!
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