Thursday, 10 September 2020

वैश्विक चेतना के राष्ट्र पुरुष स्वामी विवेकानंद

 

वैश्विक चेतना के राष्ट्र पुरुष स्वामी विवेकानंद

(11 सिप्तम्बर,1893 के परिपेक्ष्य में )

प्रो उमेश कुमार सिंह

     स्वामी विवेकानंद भारतीय-दर्शन, अध्यात्म और वैश्विक चेतना के साकार स्वरूप थे। बचपन से ही उनकी वाणी में तेज, हृदय में जिज्ञासाओं का महासागर विद्यमान था। स्वामी जी के आध्यामिक अमृत प्रकाश से आज भी न केवल भारत अपितु संपूर्ण संसार आलोकित हो रहा है। वे एक समाज सुधारक, वैश्विक चेतना के उन्नायक तो थे ही वंचित और दरिद्रनारायण के उपासक भी थे ।   

स्वामी रामकृष्ण परमहंस उन्हें बचपन से ही ध्यानसिद्ध पुरुष कहते थे।’ स्वामी विवेकानन्द ने परतंत्रता के काल में जहाँ देश के निवासियों से रूढ़िवादी विचारों, अंधविश्वासों को छोडने एवं पराधीनता को त्यागने, स्वाभिमान जगाने का आह्वान किया वहीँ विश्व समुदाय से सहिष्णुता और सर्व धर्म समभाव की बात कही और आने वाले समय के लिए चेतावनी के साथ दिशा भी दी।

उन्होंने गुलामी की मानसिकता से जकडे भारतीयों को बोध कराया की,भारत केवल भूमि नहीं वह हमारी माता है, पवित्र तीर्थ है, सर्वस्व है। भारत वह पुण्यभूमि है, जहाँ मानव प्रकृति एवं अन्तर्जगत् के रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे थे।’’ स्वामी जी का बोध था कि, ‘‘मानवधर्म भारतवर्ष की आत्मा है, इसका सहस्रों शताब्दियों से विकसित चारित्र्य है।’’ उनका देशवासियों से आह्वान था कि ‘‘चिन्तन मनन कर राष्ट्रचेतना जागृत करें तथा आध्यात्मिकता का आधार न छोडें।’’

स्वामी जी बाह्याडम्बर और अंधविश्वास के विरोधी थे। वे कहते थे, ‘‘सीखो, लेकिन अंधानुकरण मत करो। नयी और श्रेष्ठ चीजों के लिए जिज्ञासा लिए संघर्ष करो।’’ वे पाश्चात्य जगत के अमृत को भारत के लिए विष मानते थे। स्वामी जी दुनिया की सभ्यताओं को दो भागों में देखते थे, एक का आधार मानवधर्म, तो दूसरी का सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति मानते थे। वे कहते थे नासतः सत् जायते!’ अर्थात निरस्तित्व में से अस्तित्व का जन्म नहीं हो सकता। जिसका अस्तित्व है, उसका आधार निरस्तित्व नहीं हो सकता। शून्य में से कुछ सम्भव नहीं। यह कार्यकारण सिद्धान्तसर्वशक्तिमान है और देश कालातीत है। इस सिद्धान्त का ज्ञान उतना ही पुराना है, जितनी आर्य जाति। सर्वप्रथम आर्यजाति के पुरातन ऋषि-कवियों ने इसका ज्ञान प्राप्त किया, दार्शनिकों ने इसका प्रतिपादन किया और उसे आधार दिया जिसके ऊपर आज भी सम्पूर्ण विश्व के लिए कल्याणकारी सनातन जीवन का प्रासाद खडा है।

    स्वामी विवेकानन्द 1892 में कन्याकुमारी पहुँचे थे, वहाँ तट पर स्थित देवी शक्ति की वंदना कर समुद्र में तैरते हुए ढाई किलोमीटर दूर समुद्र में विशाल चट्टान पर पहुँचे, उसी चट्टान पर ध्यान लगा, चिंतन मनन में तन्मय हो गए। यहाँ स्वामी जी को दिशा-बोध हुआ, ज्ञान और प्रेरणा मिली। स्वामी विवेकानन्द यहीं से जलयान द्वारा अमरीका (शिकागो) पहुँचे थे, जहाँ उन्होंने विश्व को भारतीय दर्शन और अध्यात्म का सन्देश दे कर अवाक कर दिया था।

पाठक उस महासभा में पहुंचने तक की स्वामी जी के जीवन की गाथा कई वार पढ़ ही चुके होंगे। यहाँ दो बातों के साथ उनके भाषण पर चिंतन करूंगा। वस्तुतः दो जिज्ञासा हमारे पाठकों को होनी स्वाभाविक है कि यह सम्मलेन सितम्बर, 1893 को ही क्यों हुआ था। दूसरा क्या सचमुच में विवेकानंद जी ही ऐसे अकेले वक्ता थे जिनके भाषण में ही केवल ताली बजी थी और वह भी ‘भाईओं और बहनों’ कहने पर।

एक मत यह मानता है की है कोलंबस ने अगस्त, 1492 में अमरीका की खोज की थी, जिसकी याद में वह धर्म-सम्मेलन अपनी तैयारी की पूर्णता के साथ सितम्बर, 1893 मनाया जा रहा था।

स्वामी जी के भाषण को समझने के पहले यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है की यह क्रिस्टोफर कोलम्बस था कौन ? यह एक समुद्री–नाविक लुटेरा, आतंकवादी, उपनिवेशवादी, खोजीयात्री था। इसने अमरीका की चार वार यात्रा की थी। जिसका पूरा खर्च स्पेन की रानी इसाबेला ने उठाया था क्योंकि लूट के हिस्से में रानी का भी हिस्सा था। एक तरह से इसने अमरीका के मूल निवासियों को नष्ट कर इस द्वीप पर स्पेनी उपनिवेशवाद की नीव रखने का कार्य किया था। 

तथ्य यह भी है कि विवेकानंद जिस समय शिकागो गए थे उस वक्त अमेरिका गृहयुद्ध जैसी स्थिति से जूझ रहा था और तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति ने धार्मिक मान्यताओं की जड़ों को हिला दिया था। ऐसे में अमेरिकी लोग एक ऐसे दर्शन की प्रतीक्षा में थे जो उन्हें इस संकट से मुक्ति दिलाए। यह सम्मलेन उनकी इस प्रयोजनीयता की और भी संकेत करता है, जिसे विवेकानंद ने अपने विचारों से उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए आशा की किरण दिखाई।

स्पष्ट है यह ईसाईयों का धार्मिक विजयोत्सव था जो संसार भर को सन्देश देना था। उन्हें यह विश्वास था की दुनिया से आमंत्रित कोई भी वक्ता ईसाईयों के धार्मिक तर्कों का न तो खंडन करेगा और न ही उनके धर्म के वक्ताओं के सामने टिक सकेगा। इसीलिये यह कहना की स्वामी जी के ही भाषण पर ताली बजी थी, ठीक नहीं होगा। आप विचार करें क्या किसी भी देश का श्रोता ऐसा होगा जो अपने धर्म के वक्ताओं के लिए ताली नहीं बजाएगा ? तो फिर सत्य क्या है?

सत्य यही है की स्वामी विवेकानंद जी के उद्वोधन में ताली बजी थी और काफी देर तक बजी थी। इसके दो कारण समझना होगा। पहला- भाषण के दिन तक स्वामी जी की ख्याति वहां के लोगों तक पहुँच चुकी थी कि भारत से कोई ऐसा परिव्राजक आया है जिसके विद्वता का प्रमाण-पत्र ही उसका इस सभा के लिये आमंत्रण था। दूसरा स्वामी जी का युवा-साधना से तपा चेहरा और भेषभूषा। क्योंकि स्वामी जी के पहले भी भारत से गए हुए वक्ताओं और अन्य ने भी ‘सिस्टर एंड ब्रदर’ कहा था। तो यह ताली स्वामी जी के संबोधन के साथ उनके सरल युवा संन्यासी का व्यक्तित्व और उनकी उनके सभा में पहुँचने के पहले की ख्याति थी, जिसे आप सब जानते ही हैं।

वैसे तो उस सभा के बाद स्वामी जी के बहुत से सम्बोधन हुए थे जो बड़े प्रभावी भी थे, किन्तु उनका यह संबोधन ही क्यों इतना लोकप्रिय हुआ समझना आवश्यक है। स्वामी जी के इस ऐतिहासिक संबोधन (11 सितंबर, 1893) को     अपनी टिप्पणी के साथ यहाँ रख रहा हूँ -

अमेरिकावासी बहनो तथा भाइयों,

 आपने जिस सौहार्द्र और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूं, धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूं और सभी संप्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूं।

यह संबोधन जितना आत्मीय था उतना ही स्वामी जी का व्यक्तिगत न होकर सम्पूर्ण भारत की और से था। स्वामी जी ‘हम लोगों’ शब्द का प्रयोग ऐसे ही नहीं कर रहे हैं। वे यहाँ ‘मैं’ भी कह सकते थे। यह पुलकित ह्रदय की वह अभिव्यक्ति थी जो तालियों के लिए सभा में उपस्थित जनों को मजबूर करती है। स्वामी जी यहाँ तीन तरह से ‘धन्यवाद’ व्यक्त कर रहे हैं। पहला ‘संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा’ की ओर से, दूसरा- ‘धर्मों की माता’ की ओर से, तीसरा- ‘सभी संप्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिन्दुओं’ की ओर से।

मैंने इस आयोजन के बारे में कहा था की यह ईसाइयत के विजय का उत्सव था। स्वामी जी ने यहाँ उनके अंहकार को पहले चरण में ही यह कहकर तोड़ दिया कि मैं संसार के सबसे प्राचीन संन्यासी परम्परा का प्रतिनिधि हूँ अर्थात आप हमसे प्राचीन नहीं। दूसरा, हिन्दू धर्म ही दुनिया के सभी धर्मो की माता है। तीसरा, भारत में जो आप लोग धरमों के अनेक सम्प्रदाय देखते हैं वे सभी हिन्दुओं के ही हैं। अब आप ही बताइये इस नवीन अकल्पनीय व्याख्या से कौन रोमांचित नहीं होगा और कई-कई मिनट तक ताली आखिर क्यों नहीं बजेगी ?

     मैं इस मंच पर बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूं, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रसारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग सभी धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धत्तम अवशिष्ट अंश को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस दिन उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने महान जरथ्रुष्ट्र जाति के अवशेष अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है।

समझें प्राची के लोग सुदूर देश में किस बात का प्रचार करते है तो उसे ‘सहिष्णुता’ कहते हैं। आखिर यह बात क्यों कही तो हम जानते है की जिस अमरीका की खोज का यह उत्सव था उसमे करोडो अश्वेत लोगों की हत्या की जा चुकी थी और यह श्वेत गर्वोंन्ति जाति अत्यंत ही कट्टर थी जिसने यहुदियों के विशुद्धत्तम मंदिर को तोडा था, और वे निर्वासित कर दिए गए थे (‘उसी वर्ष शरण ली थी, जिस दिन उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से’)। यहाँ दो बातें कि हम केवल सहिष्णुता ही नहीं रखते तो सभी धर्मो का सामान आदर भी करते हैं।

हमारे पाठकों को याद होगा कुछ वर्ष पहले भारत में (मुंबई में) ईसाईयों के धर्म गुरु पोप का आगमन हुआ था, तब उनसे किसी पत्रकार ने पूछा था की आप सभी धर्मों पर विश्वास करते हैं कि नहीं ? तो पोप ने क्या कहा ? जो कहा था उसे  सुनकर स्वामी जी के उस समय के व्याखान की प्रासंगिकता आप को ख्याल में आएगी। पॉप ने कहा, ‘हम अपने ब्रांड का साबुन बेचने आये है।‘ तात्पर्य यह की सिकागो में प्रकारंतर से स्वामी जी कह रहे थे कि जिस धर्म पर तुम्हें अहंकार है, वह हिन्दू धर्म और उसकी सहिष्णुता के सामने कुछ भी नहीं।

वे आगे एकात्मता की बात समझाते हुए कहते हैं की- भाइयो, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियां सुनाता हूं, जिसकी आवृत्ति मैं अपने बचपन से कर रहा हूं और जिसकी आवृत्ति मेरे देश में प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं-

“रुचिनां वैचिर्त्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम।

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव च॥“

अर्थात जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।

स्वामी जी निर्भीकता और वेदांत की विश्वसनीयता का अद्भुत सन्देश बड़ी ही सद्भावना के साथ समझाते हैं कि तुम्हारा इस सभा को करने का कोई भी उदेश्य रहा हो किन्तु यह सर्वश्रेठ तो है ही, गीता के अद्भुत उपदेश को ही समझा रहा  है कि ईश्वर एक है - यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ सम्मेलनों में से एक है, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा है-

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तास्तंथैव भजाम्यहम।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

 -जो कोई मेरी ओर आता है , चाहे किसी प्रकार से हो , मैं उसको प्राप्त होता हूं। लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।

अब आगे देखें दुनियां में चल क्या रहा था? धर्म का नहीं सांप्रदायिक हठधर्मिता और उनकी पीढ़ी–दर–पीढ़ी वन्शधर धर्मान्धता। एक तो स्वामी जी यह बताते हैं कि तुम धर्मांध हो, दूसरा तुमने मानवता को कलंकित किया है; तुम्हारे क्रूर क्रिया से सम्पूर्ण दुनिया में निराशा है। अर्थात तुम्हारा दुनिया पर शासन दंभ और क्रूरता का है।      साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता, इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे-पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं।

और उस दिन के भाषण के अंत में देखिये एक भारतीय संन्यासी किस तरह आतताइयों के मंच से उन्हीं को चेतावनी दे रहा है - यदि ये वीभत्स दानवी नहीं होतीं, तो मानव समाज आज की अवस्था से कही अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया है, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूं कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई है, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाली सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्परिक कटुताओं का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।

अब आप समझ गए होंगे की स्वामी जी को वह स्थान अन्य धर्मावलम्बियों और भारत के विभिन्न मत-पंथ के अनुयायिओं के बीच क्यों मिला होगा, जिसे तालियों की गडगडाहट ने ही स्वागत नहीं किया बल्कि घंटा ध्वनि के निनाद ने किस तरह सनातन धर्म (हिंदुत्व) का निनाद किया की बस अब यह अन्याय, क्रूरता, अत्याचार दुनिया में नहीं चलेगा ।

  अंत में स्वामी जी की शिष्य परम्परा से भी इस यात्रा को समझ लें। विवेकानंद के भक्त अदीश्वरानंद ने लिखा है कि विवेकानंद ने अपने विचारों से अमेरिकी लोगों के दिल को छुआ। उन्होंने अपनी जादुई भाषण शैली, रूहानी आवाज और क्रांतिकारी विचारों से अमेरिका के आध्यात्मिक विकास पर गहरी छाप छोड़ी। विवेकानंद ने अमेरिका और इंग्लैंड जैसी महाशक्तियों को अध्यात्म का पाठ पढ़ाकर विश्व-गुरु के रूप में अपनी पहचान बनाई और अपने गुरु परमहंस की भविष्यवाणी को सही साबित किया।

     अदीश्वरानंद के मुताबिक विवेकानंद भारत के प्रतिनिधि के रूप में अमेरिका जाने वाले पहले हिन्दू भिक्षु थे। उनका संदेश वेदान्त का सन्देश था। उनका मानना था कि वेदांत ही भविष्य में मानवता का धर्म होगा। धार्मिक सौहार्द्र वेदान्त का सार है। उन्होंने लिखा है कि विवेकानंद ने सभी लोगों को अपने-अपने धर्म की डोर को मजबूती से थामने की शिक्षा दी।

आइये, संन्यासी के उस उद्वोधन को आत्मसात करें।

 

 

 

 

 

8 comments:

  1. A very analytical analysis of the speach of Swami Vivekanandji and informative about hindu rel

    ReplyDelete
  2. It is very about the philosophy of hindu religion and also explained about reasoning behind the organisation of this Chicago World wide submit. Congratulations sir keep it up. You have depth in your writings

    ReplyDelete
  3. एक ही ब्रह्म, एक ही धर्म, पथ अनेक लक्ष्य एक ।🙏

    ReplyDelete
  4. An enriching write-up on Swamiji's historical speech, his revelation of spiritual experiences, his universal appeal, his all inclusive approach, his love and respect for entire mankind and all religions, his anchoring with his roots.

    ReplyDelete
  5. विवेकानंद जी का भाषण और बीच में आपका विश्लेषण पढ़कर उनके विचारों को आत्मसात किया l बहुत अच्छा लगा l विदेशी भूमि पर भारतीय संस्कृति की सुगंध विखेरने वाले महान संत को नमन l आभार आपका

    ReplyDelete