Thursday, 17 September 2020

गाँधी की राष्ट्रभाषा (हिंदी)

 

गाँधी की राष्ट्रभाषा  (हिंदी)

प्रो. उमेश कुमार सिंह

मेरे बौद्धिको !

आप के शब्दों में ‘हिंदी दिवस’ और मेरे मत से ‘राजभाषा दिवस’ एक साल के लिए बीत गया और हमारा कर्मकांड भी इस सप्ताह समाप्त हो जायेगा । इस दिवस के कुछ दिनों पहले और आज दो दिन बाद तक जो भी सुनने, पढ़ने को मिला वह सुखद भी था और कष्टकर भी । सुखद इसलिए की भाषा के प्रति हमारा प्रेम स्थाई रूप से हमारे अंदर बसता है । कष्टकर यह कि देश की संवैधानिक राजभाषा (हिंदी) अपना स्थान इस वर्ष अपने पहले पायदान पर नहीं पहुँच सकी ।

  फिर भी यह अवसर इसलिए अन्य वर्षों की तुलना में महत्वपूर्ण है कि राष्ट्र को स्वतंत्र भारत की सबसे सुलझी और भविष्य की दृष्टि को समाहित किये हुए ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ आई । जिसको सभी लोगों ने किन्तु-परन्तु के साथ स्वीकार भी किया । इसी शिक्षा नीति ने भाषा की महत्ता को प्रतिस्थापित किया तो उसी ने प्रश्न भी निर्माण किये । और सबसे बड़ी बात भूल–सुधार को अवसर प्रदान किया ।  

जब कोई राष्ट्र अपने गौरव में वृद्धि करता है तो वैश्विक दृष्टि से उसकी प्रत्येक विरासत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। धर्म, संस्कृति, परम्पराएँ, नागरिक दृष्टिकोण और भाषा भाषा ही एक ऐसा माध्यम है जो भावी संभावनाओं के अभिव्यक्त में महत्त्वपूर्ण कारक बनकर उभरती है । भारतीय दृष्टि को समझने के लिए स्वाभाविक रूप से आवश्यक दिखता है की ‘राजभाषा’ न केवल देश की सशक्त भाषा बने बल्कि वैश्विक आकर्षण का केन्द्र भी बने। क्योंकि आज भारत की ‘राजभाषा’ होने के बाद भी राजकाज के काम में जिस तरह से पिछले सत्तर –बहत्तर वर्षों से ‘अंग्रेजी’ का दबाव है, वह हमारे भविष्य और युवाओं के लिए चिंता का विषय है।    

सर्वेक्षण के अनुसार भारत की राजभाषा (हिंदी) भले ही विश्व की दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा बनने की ओर संकेत दे रही है, किन्तु उसे अपने ही देश के अंदर वह स्थान नहीं मिल पा रहा है जो मिलाना चाहिए। हम दुराहे पर खड़े हैं। एक बड़ा हिस्सा धीरे–धीरे ही सही अंग्रेजी का हिमायती होता जा रहा है। उसको अपनी संतानों का भविष्य ‘राजभाषा’ में नहीं दिख रहा है। इस मानसिकता से आज लड़ने की आवश्यकता है । अत: मेरा मानना है की पहले हम अपनी ‘राजभाषा’ को पूरे देश में स्वीकृति दिला सके तभी भारत की ‘राजभाषा’ विश्वभाषा बनाने की ताकत प्राप्त कर सकेगी क्योंकि वह वैश्विक भाषा बनाने की सम्पूर्ण योग्यता को पूरा कराती है ।

वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार भारत में २ लाख ६० हजार लोगों की मातृभाषा अंगरेजी है, इसके बावजूद सम्पूर्ण देश अंग्रेजी के आतक से कुंठित हो रहा है ।

फिर भी मैं यहाँ यह नहीं बता रहा हूँ की विश्वभाषा के मापदंड को भारत की राजभाषा पूरी करती है या नहीं ? और विश्वभाषा बनाने के सामान्य मापदंड क्या हैं ? वैसे थोड़ी देर का अवकाश लेकर विचार भी कर ले तो यह बात उभर कर आती है की राजभाषा विश्व के अधिकांश भू-भाग में बोली या समझी जाती है, इस भाषा की अपनी वैज्ञानिक देवनागरी लिपि, विपुल शब्द-संपदा, पारिभाषिक शब्दावली, व्याकरण शास्त्र, विश्व-मान्यता प्राप्त गंभीर सृजित साहित्य है,  इसमें अनुवाद की क्षमता, शब्दों का विज्ञान–तकनीकी-संचार के क्षेत्र में व्यवहार, आर्थिक विनिमय में सक्षमत़ा, विश्व के प्रमुख राज्य-राष्ट्रों के विश्व विद्यालयों में अध्यन–अध्यापन भी किये जाते हैं। तब हम पाते हैं कि दुनिया की अन्य भाषाओं की तुलना में न केवल हमारी राजभाषा आगे है, बल्कि सभी मापदंडों पर खरी भी उतरती है।

हम यहाँ यह भी नहीं बताने जा रहे है की इसकी अपनी तत्सम शब्दों की   सम्पदा के साथ तद्भव, देशज और विदेशी यथा– अंग्रेजी, फारसी, अरबी, पुर्तगाली, स्पेनिश, फ्रेंच आदि के शब्द इसमें बहुतायत में आत्मसात हो चुके हैं। यह भी नहीं की राजभाषा हिंदी ने न केवल भारतीय उपमहाद्वीप के देश नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश में लोकप्रिय है, बल्कि अनेक मह्द्वीपों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है। सुदूर इंडोनेशिया, सूरीनाम, मलेशिया, मारीशस, सुमात्रा, जावा बाली आदि देशों में बहुतायत मात्र में बोली जाती है। यूरोप, अमरीका, कनाडा में इसकी उपस्थिति को देखा जा सकता है। सूरीनाम, मारीशस, त्रिनिदाद, न्यूयार्क आदि में ‘विश्व हिंदी सम्मलेन’ हो चुके हैं।

हम यह भी नहीं बताना चाहते की संबिधान सभा में तत्कालीन अहिन्दी भाषी राजनेताओं ने क्या कहा? क्योंकि यह सभी बातें हम सत्तर वर्षों से सुन और पढ रहे हैं ? तो फिर आप कह सकते है की कहना क्या है?

तो सुनिए मेरे बौद्धिको ! आज हम २०२० में हैं, देश भी सक्षम भारत बन रहा है तो फिर आज भी राष्ट्रभाषा, राजभाषा के विवाद में क्यों ? जब अनुसूची- आठ कह रही है कि देश में २२ राष्ट्रीय भाषाएँ है, तो हमें संविधान की बात स्वीकार क्यों नहीं ? जब की व्यवहार में भी दिखाई देता है की अपने-अपने प्रान्तों के काम अपनी–अपनी मातृभाषा में ही होता है। जीवन व्यवहार भी उसी से चलता है। तो समस्या क्या है ?

समस्या यह है की एक तो ‘राष्ट्रभाषा’ को लेकर हमारा दृष्टिकोण साफ नहीं है। दूसरा ‘राजभाषा’ सम्पूर्ण देश में राजकीय कार्य की भाषा बने यह आग्रह बहुत लिचलीचा और कमजोर है। जरा इसे भी समझें -   

माना यह जाता है की १९५३ से १४ सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ मनाते आ रहे हैं। इसका प्रभाव यह हो रहा है कि अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में इसके प्रति उदासीनता बढ़ रही है। यह सत्य है की गांधी जी ने हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ बनाने की वकालत की थी। और देश में कई प्रान्तों में ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समितियां’ बनी। गांधी जी के जीवित रहने से आज तक वे सभी ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समितियां’ ‘हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कर्मकांडी कोशिश कर भी रही हैं । आखिर क्यों ?

प्रश्न यह है कि गाँधी जी के जाने के बाद सविधान सभा ने १४ सितम्बर, १९४९ को हिंदी को ‘राजभाषा’ स्वीकार किया तब हिंदी को ‘राजभाषा’ का समुचित दर्जा दिलाने का प्रयत्न की जगह हम हिंदी को यह कह कर की हिंदी को राष्ट्र ने ‘राष्ट्रभाषा’ स्वीकार किया है, उसे संवैधानिक दर्जा दिलाने के प्रयत्न में लगे रहे और ७२ साल बिता दिए। आज भी सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं । दरअसल जब १४ सितम्बर, ४९ को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने घोषणा की की हिंदी देश की ‘राजभाषा’ होगी तब हम ऐसे जश्न में डूबे की हमें पता ही नहीं चला की ‘राष्ट्रभाषा’ और ‘राजभाषा’ में अन्तर क्या है और जब पता चला तो ‘राजभाषा’ हिंदी का स्थान अग्रणी पंक्ति पर अंग्रेजी ले चुकी थी।

 हमारी इस नासमझी का परिणाम यह हुआ की 1953 से हम जैसे–जैसे १४ सितम्बर को ‘हिंदी दिवस’ का वार्षिक कर्मकाण्ड करते रहे, देश के अन्य भाषा- भाषी इससे दूर होते गए। और अहिन्दी भाषी प्रान्तों में एक ऐसा वातावरण बन रहा है मानो हिन्दी अन्य राष्ट्रीय भाषाओं की दुश्मन हो। २०२० में जब हम हिंदी दिवस मना रहे थे तो आज भी तमिल, कन्नड़, मलयालम भाषी कुछ लोग विरोधी वक्तव्य दे रहे थे । यह ठीक है की आप उसे राजनीतिक कह कर ख़ारिज कर देंगे पर यथार्थ से मुह नहीं मोड़ सकते । दूसरा हिंदी भाषा-भाषी और उसकी वकालत करने वाले आज भी दुविधाग्रस्त हैं ।

होना यह चाहिए था कि १४ सितंबर जो ‘राजभाषा दिवस’ है उसे ‘राजभाषा दिवस’ के रूप में ही मनाते, हिंदी दिवस के रूप में नहीं, तभी इन विरोधी वक्तव्यों को रोका जा सकता है क्योंकि तब हम कह सकते हैं कि हम राजभाषा दिवस मना रहे हैं और धीरे-धीरे राजभाषा सम्पूर्ण देश में स्थापित हो सकेगी ।

दूसरी महत्वपूर्ण बात हमारे व्यवहार की है। अभी–अभी ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ आई हमने बिना विचारे उसके अंग्रेजी संक्षिप्त NEP’ को हमारे सामने रख दिया और हमने बिना विचार के कि इसके आगे क्या परिणाम होंगे, उसे लिखना और बोलना प्रराम्भ कर दिया। जब कि होना यह चाहिए था कि यह संज्ञा है, अत: इसे भारत की सभी भाषाओं में यथावत ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ और उसका संक्षिप्ति कारन ‘रा.शि.नीति’ ही रहना चाहिए। ‘NEP’ कदापि नहीं ।

इसी तरह नीति के अन्तर्गत निकाय, आयोग आदि हैं, उनके नाम केवल राजभाषा में हों । वैसे भी संज्ञा का अनुवाद करना गलत है।

ध्यान रखना होगा संविधान में हमने भारत को ‘इंडिया’ कहा तो आज तक नहीं बदल सके । किन्तु देश की लोकसभा और राज्य सभा को स्वीकार कर लिया तो वह हमारे मुख में रच बस गया कुछ अंग्रेजी दा को छोड़कर । ऐसे अनेक जहग दिखता है की जिन संस्थाओं के नाम हमने राजभाषा में स्वीकार कर लिया वह सहज स्वीकार हो गया । जो बौद्धिक अपनी राजभाषा को दर्जा नहीं दे सका वह मनुष्य को मनुष्य का दर्जा क्या देगा ? संस्कार मातृभाषा ही सिखा सकती है।

‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में अवसर है, राजभाषा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने की । मेकाले को दोष देने वाले स्वतंत्र राष्ट्र के बौद्धिकों या तो मेकाले का नाम बन्द करना चाहिये और ‘NEP शब्द हटाना चाहिए । शब्दों का अपना कुल गोत्र होता है, उसे बनाये रखने का संकल्प लेने का अवसर भी हमारी ‘राजभाषा’ दे रही है।

- प्रो उमेश कुमार सिंह 

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