सरकार ! अब तो जागिए
रिआया को नहीं मतलब
दलगत राजनीति से
मजहवी
संन्तुष्टि से
तिकड़म से,
फरेब से
उसे वादा किया था
रोटी, कपड़ा, मकान,
विजली, सड़क, दुकान का
की भी थी पूर्ति सब
की
फिर जनता ने ही तो नकारा था ?
बदलने चाहिए सत्ता के
मलाई खाते सलाहकार
चादर से तस्वीर नहीं
छुपती
जब धूप में जनता है तपती
वही सुरभि सरसाने के लिए
तालाब का पानी लेने से
कहीं इंकार न कर दे मालिक !
भोली-चतुर-आरत रिआया
अहंकारी फौज ने
ही तो हकारा था ।
घोषणाओं से पेट नहीं भरता
काम और मजदूरी चाहिए
बड़े मगरमच्छों से
कहिये
घडिय़ाली आँसू सूखने लगे हैं
वह भ्रम में नहीं उसने देखा है
खा
रहे हैं जंगल-जमीन
पानी-पत्थर-खेत-रेत-हक
इन्ही वज़ीरों
ने ही तो दुत्कारा था ?
ये भूखे भी रहने को तैयार
हैं
अधिष्ठान के लिये
तो कुछ कीजिये
सुना है सरकार पूरे मूड
में
नये-नये प्रयोग कर रही है
किन्तु सलाहकारों की भीड़
में
न कोई विदुर न चाणक्य है
जो हैं उन्हें न आप की
चिन्ता है
न रिआया कि न ही सत्ता
की
जनता को नायक का ही तो सहारा है
जनता के बीच उन्हें नहीं
जाना है
सत्ता से भी उन्हें नहीं
जाना है
वे मुरझाये से दिखने का
अभ्यास
कर रहे हैं वर्षों से ले दृढ़ विश्वास
समय नहीं करता प्रतीक्षा मालिक !
प्रतिष्ठान तो मजबूत कर लीजिए
जनता ने फिर से आज दुलारा
है।
उमेश कुमार सिंह
21/07/2020
बहुत कटु सत्य लिख दिया है आपने, ....कुछ समझ नहीं आता, सब दिग्भ्रमित से हैं !
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