आचार्य अभिनव गुप्त ने भारतीय वांगमय को एक नया क्षितिज दिया
भारत वर्ष अनेकता में एकता का देश है। देश के अस्तित्वकाल से ही इस धरती पर ज्ञान-विज्ञान की अनेक धाराएँ बहती रही हैं। आगम और निगम के माध्यम से यहाँ अध्ययन अध्यापन की अनवरत परम्परा रही है। दर्शन हो या विज्ञान भारतीय दृष्टि में इनका महत्व संसार के दु:ख के विनाश का उपाय ढूढऩा है। संसार से मुक्ति का उपाय दर्शन शास्त्रों ने ढूढ़ा है। भारतीय दर्शन जहाँ मुक्ति का उपाय बताता है वहीं पाश्चात्य दर्शन केवल सिद्धांत की चर्चा करता है।
अभिनवगुप्त (975-1025) दार्शनिक, रहस्यवादी एवं साहित्य शास्त्र के मूर्धन्य आचार्य। कश्मीरी शैव और तन्त्र के पण्डित। वे संगीतज्ञ, कवि, नाटककार, धर्मशास्त्री एवं तर्कशास्त्री भी थे। आचार्य अभिनव गुप्त के पूर्वज अत्रि गुप्त (8वीं शताब्दी) कन्नौज प्रांत के निवासी थे। यह समय राजा यशोवर्मन का था। अभिनवगुप्त कई शास्त्रों के विद्वान थे और शैवशासन पर उनका विशेष अधिकार था। कश्मीर नरेश ललितादित्य ने 740 ई. जब कान्यकुब्ज प्रदेश को जीतकर काश्मीर के अंतर्गत मिला लिया तो उन्होंने अत्रिगुप्त से कश्मीर में चलकर निवास की प्रार्थना की। वितस्ता (झेलम) के तट पर भगवान शितांशुमौलि (शिव) के मंदिर के सम्मुख एक विशाल भवन अत्रिगुप्त के लिये निर्मित कराया गया। इसी यशस्वी कुल में अभिनवगुप्त का जन्म लगभग 200 वर्ष बाद (950 ई.) हुआ। उनके पिता का नाम नरसिंह गुप्त तथा माता का नाम विमला था। इनका कुल अपनी विद्या, विद्वता तथा तांत्रिक साधना के लिए कश्मीर में नितांत प्रख्यात था। इनके पितामह का नाम था वराह गुप्त तथा पिता का नरसिंह गुप्त जिन्हें लोग ‘चुखुल’ या ‘चुखुलक’ के घरेलू नाम से जानते थे। अभिनवगुप्त का व्यक्तित्व बड़ा ही रहस्यमय है। महाभाष्य के रचयिता पतंजलि को व्याकरण के इतिहास में तथा भामतीकार वाचस्पति मिश्र को अद्वैत वेदांत के इतिहास में जो गौरव तथा आदरणीय उत्कर्ष प्राप्त हुआ है वही गौरव अभिनव को भी तंत्र तथा अलंकार शास्त्र के इतिहास में प्राप्त है। इन्होंने रस सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक व्याख्या (अभिव्यंजनावाद) कर अलंकार शास्त्र को दर्शन के उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित किया तथा प्रत्यभिज्ञा और त्रिक दर्शनों को प्रौढ़ भाष्य प्रदान कर इन्हें तर्क की कसौटी पर व्यवस्थित किया। ये कोरे शुष्क तार्किक ही नहीं थे, प्रत्युत साधना जगत् के गुह्य रहस्यों के मर्मज्ञ साधक भी थे।
आचार्य अभिनव गुप्त के चिन्तन में भारतीय दर्शन की विभिन्न धाराएं आगम-निगम, योग-सौन्दर्य, ब्रम्ह-जगत, शैव-शाक्त सबके लिए जगह है। उनके चिन्तन में ब्रम्ह और जगत के बीच कोई अंतर नहीं है। वे जगत को ब्रम्ह का ही विस्तार मानते हैं। नैगमिक या निगम वेद अध्ययन की बात करते हैं तो आगम तंत्र साधना की बात करते हैं। दोनों धाराओं मेंं काल के प्रवाह के साथ अनेक प्रकार की धारओं का मिलन हुआ। ‘वे मानते हैं, वेद और तंत्र शब्दात्मक होने पर भी वस्तुत: एक ही ज्ञान की दो धाराएं हैं।’ अभिनवगुप्त तंत्र शास्त्र, साहित्य और दर्शन के प्रौढ़ आचार्य थे और इन तीनों विषयों पर इन्होंने 50 से ऊपर मौलिक ग्रंथों, टीकाओं तथा स्तोत्रों का निर्माण किया है। इनके सुदीर्घ जीवन को तीन काल विभागों में विभक्त किया जा सकता है-
(क) तान्त्रिक काल - जीवन के आरंभ में तंत्र को लेकर फैले भ्रम को तंत्रशास्त्रों का गहन अनुशीलन कर तथा उपलब्ध प्राचीन तंत्र ग्रंथों पर इन्होंने अद्धैतपरक व्याख्याएँ लिखकर उसका निवारण किया। क्रम, त्रिक तथा कुल तंत्रों का अभिनव ने अध्ययन कर ग्रंथों का निर्माण किया। इस युग की प्रधान रचनाएँ ये हैं- बोधपंचदशिका, मालिनीविजय कार्तिक, परात्रिंशिकाविवरण, तन्त्रालोक, तन्त्रसार, तंत्रोच्चय, तंत्रोवटधानिका। तंत्रालोकत्रिक तथा कुल तंत्रों का विशाल विश्वकोश ही है जिसमें तंत्रशास्त्र के सिद्धांतों, प्रक्रियाओं तथा तत्संबद्ध नाना मतों का पूर्ण, प्रामाणिक तथा प्रांजल विवेचन प्रस्तुत किया गया है। यह 37 परिच्छेदों में विभक्त विराट् ग्रंथराज है जिसमें बंध का कारण, मोक्षविषक नाना मत, प्रपंच का अभिव्यक्ति प्रकार तथा सत्ता, परमार्थ के साधक उपाय, मोक्ष के स्वरूप, शैवाचार की विविध प्रक्रिया आदि विषयों का सुंदर प्रामाणिक विवरण देकर अभिनव ने तंत्र के गंभीर तत्वों को वस्तुत: आलोकित कर दिया है।
(ख) आलंकारिक काल - अभिनव गुप्त ने अलंकारग्रंथों का अनुशीलन तथा प्रणयन किया। इससे संबद्ध तीन प्रौढ़ रचनाएं प्राप्त है- काव्य-कौतुक-विवरण, ध्वन्यालोकलोचन तथा अभिनवभारती। काव्यकौतुक अभिनव के नाट्यशास्त्र के गुरु भट्टतौत की अनुपलब्ध प्रख्यात कृति है, उपलब्ध नहीं। लोचन आनन्दवर्धन के ‘ध्वन्यालोक’ का प्रौढ़ व्याख्यान ग्रंथ है तथा अभिनव भारती, भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के पूर्ण ग्रंथ की पांडित्यपूर्ण प्रमेय बहुल व्याख्या है। यह नाट्यशास्त्र की एकमात्र टीका है।
(ग) दार्शनिक काल - अभिनवगुप्त ने परमत का तर्कपद्धति से खंडन और स्वमत का प्रौढ़ प्रतिपादन किया है। भगवद्गीतार्थ संग्रह, परमार्थसार, ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिणी तथा ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विवृति-विमर्शिणी आदि उल्लेखनीय ग्रंथ हैं। अंतिम दोनें ग्रंथ अभिनवगुप्त के प्रौढ़ पांडित्य निकष हैं। ये उत्पलाचार्य द्वारा रचित ‘ईश्वरप्रत्यभज्ञ’ के व्याख्यान हैं।
भारत की ज्ञान-परंपरा में आचार्य अभिनवगुप्त एवं कश्मीर की स्थिति को एक ‘संगम-तीर्थ’ के रुपक से बताया जा सकता है। जैसे कश्मीर (शारदा देश) संपूर्ण भारत का ‘सर्वज्ञ पीठ’ है, वैसे ही आचार्य अभिनव गुप्त संपूर्ण भारतवर्ष की सभी ज्ञान-विधाओं एवं साधनों की परंपराओं के सर्वोपरि समादृत आचार्य हैं। कश्मीर केवल शैवदर्शन की ही नहीं, अपितु बौद्ध, मीमांसक, नैयायिक, सिद्ध, तांत्रिक, सूफी आदि परंपराओं का भी संगम रहा है। आचार्य अभिनवगुप्त भी अद्वैत आगम एवं प्रत्यभिज्ञा दर्शन के प्रतिनिधि आचार्य तो हैं ही, साथ ही उनमें एक से अधिक ज्ञान-विधाओं का भी समाहार है। भारतीय ज्ञान दर्शन में यदि कहीं कोई ग्रंथि है, कोई पूर्व पक्ष और सिद्धांत पक्ष का निष्कर्ष विहीन वाद चला आ रहा है और यदि किसी ऐसे विषय पर आचार्य अभिनव गुप्त ने अपना मत प्रस्तुत किया हो तो वह ‘वाद’ स्वीकार करने योग्य निर्णय को प्राप्त कर लेता है। उदाहरण के लिए साहित्य में उनकी भरत मुनि कृत रस-सूत्र की व्याख्या देखी जा सकती है जिसे ‘अभिव्यक्तिवाद’ के नाम से जाना जाता है। भारतीय ज्ञान एवं साधना की अनेक धाराएं अभिनव गुप्तपादाचार्य के विराट् व्यक्तित्व में आ मिलती है और एक सशक्त धारा के रुप में आगे चल पड़ती है।
भगवान् पतञ्जलि की तरह आचार्य अभिनव गुप्त भी शेषावतार कहे जाते हैं। शेषनाग ज्ञान-संस्कृति के रक्षक हैं। अभिनव गुप्त के टीकाकार आचार्य जयरथ ने उन्हें ‘योगिनीभू’ कहा है। इस रुप में तो वे स्वयं ही शिव के अवतार के रुप में प्रतिष्ठित हैं। आचार्य अभिनव गुप्त के ज्ञान की प्रामाणिकता इस संदर्भ में है कि उन्होंने अपने काल के मूर्धन्य आचार्यों-गुरुओं से ज्ञान की कई विधाओं में शिक्षा-दीक्षा ली थी। उनके पितृवर श्री नरसिंह गुप्त उनके व्याकरण के गुरुथे। इसी प्रकार लक्ष्मण गुप्त प्रत्यभिज्ञा शास्त्र के तथा शंभुनाथ (जालंधर पीठ) उनके कौल-संप्रदाय साधना के गुरु थे। उन्होंने अपने ग्रंथों में अपने नौ गुरुओं का सादर उल्लेख किया है। भारतवर्ष के किसी एक आचार्य में विविध ज्ञान विधाओं का समाहार मिलना दुर्लभ है। यही स्थिति शारदा क्षेत्र काश्मीर की भी है। इस अकेले क्षेत्र से जितने आचार्य हुए हैं उतने देश के किसी अन्य क्षेत्र से नहीं हुए। जैसी गौरवशाली आचार्य अभिनव गुप्त की गुरु परम्परा रही है वैसी ही उनकी शिष्य परंपरा भी है। उनके प्रमुख शिष्यों में क्षेमराज , क्षेमेन्द्र एवं मधुराज योगी हैं। यही परंपरा सुभट दत्त (12वीं शताब्ती) जयरथ, शोभाकर-गुप्त महेश्वरानन्द (12वीं शताब्दी), भास्कर कंठ (18वीं शताब्दी) प्रभृति आचार्यों से होती हुई स्वामी लक्ष्मण जू तक आती है ।
दुर्भाग्यवश यह विशद एवं अमूल्य ज्ञान राशि इतिहास के घटनाक्रमों में धीरे-धीरे हाशिये पर चली गई। यह केवल कश्मीर के घटनाक्रमों के कारण नहीं हुआ। चौदहवीं शताब्दी के अद्वैत वेदान्त के आचार्य सायण-माधव (माधवाचार्य) ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सर्वदर्शन संग्रह’ में सोलह दार्शनिक परम्पराओं का विनिवेचन शांकर-वेदांत की दृष्टि से किया है। आधुनिक विश्वविद्यालयीन पद्धति केवल षड्दर्शन तक ही भारतीय दर्शन का विस्तार मानती है और इन्हें ही आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन के द्वन्द्व-युद्ध के रूप में प्रस्तुत करती है। आगमोक्त दार्शनिक परम्पराएँ जिनमें शैव, शाक्त, पंचरात्र आदि हैं, वे कही विस्मृत होते चले गए। आज कश्मीर में कुछ एक कश्मीरी पंडित परिवारों को छोड़ दें, तो अभिनव गुप्त के नाम से भी लोग अपरिचित हैं। भारत को छोड़ पूरे विश्व में अभिनव गुप्त और काश्मीर दर्शन का अध्यापन आधुनिक काल में होता रहा है लेकिन कश्मीर विश्वविद्यालय में, उनके अपने वास-स्थान में उनकी अपनी उपलब्धियों को सजोनेवाला कोई नहीं है। काश्मीरी आचार्यों के अवदान के बिना भारतीय ज्ञान परंपरा का अध्ययन अपूर्ण और भ्रामक सिद्ध होगा। ऐसे कश्मीर और उनकी ज्ञान परंपरा के प्रति अज्ञान और उदासीनता कहीं से भी श्रेयस्कर नहीं है।
आचार्य अभिनवगुप्त ने अपने अस्सी वर्षों के सुदीर्घ जीवन को केवल तीन महत् लक्ष्यों के लिए समर्पित कर दिया-शिव भक्ति, ग्रंथ निर्माण एवं अध्यापन। उनके द्वारा रचित 42 ग्रंथ बताए जाते हैं, इनमें से केवल 20-22 ही उपलब्ध हो पाए हैं। शताधिक ऐसे आगम ग्रंथ हैं, जिनका उल्लेख-उद्धरण उनके ग्रंथों में तो है, लेकिन अब वे लुप्तप्राय हैं। अभिनवगुप्त के ग्रंथों की पांडुलिपियां दक्षिण में प्राप्त होती रही हैं, विशेषकर केरल राज्य में। उनके ग्रंथ संपूर्ण प्राचीन भारतवर्ष में आदर के साथ पढ़ाये जाते रहे थे।चौदहवीं शताब्दी के अद्वैत वेदान्त के आचार्य सायण -माधव (माधवाचार्य) ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सर्वदर्शन सङ्ग्रह’ में सोलह दार्शनिक परम्पराओं का विवेचन शांकर-वेदांत की दृष्टि से किया है। आधुनिक विश्वविद्यालयी पद्धति केवल षड्दर्शन तक ही भारतीय दर्शन का विस्तार मानती है और इन्हे ही आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन के द्वन्द्व-युद्ध के रूप में प्रस्तुत करती है। आगमोक्त दार्शनिक परम्पराएँ जिनमें शैव, शाक्त, पांचरात्र आदि हैं, वे कहीं विस्मृत होते चले गए।
80 वर्ष की अवस्था में जब उन्होंने महाप्रयाण किया तब उनके 10 हजार शिष्य काश्मीर में थे। श्रीनगर से गुलमर्ग जाने वाले मार्ग पर बडग़ाम के पास स्थित भैरव गुफा में अकेले प्रवेश कर उन्होंने सशरीर महाप्रयाण किया। वह गुफा भी आज उपेक्षित है और इसका अस्तित्व संरक्षित नहीं है। जिस महादेव गिरि के शिखरों पर अवतरित होकर स्वयं भगवान शिव ने आगमों का उपदेश किया, वे धवल शिखर संपूर्ण देश से आज भी अपनी प्रत्यभिज्ञा की आशा रखते हैं। प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है, स्वयं को विस्मृति के आवरणों से मुक्त कर स्वरूप को जानना, शिवोहं की प्रतीति। त्रिक अथवा प्रत्यभिज्ञा जैसे दर्शन की पुण्यभूमि है काश्मीर और प्रकारान्तर से ‘प्रत्यभिज्ञा’ हमारे देश का सबसे प्रासांगिक जीवन-दर्शन होना चाहिए। प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है, स्वयं को विस्मृति के आवरणों से मुक्त कर स्वरूप को जानना। हमें अपनी शक्तियों की प्रत्यभिज्ञा होनी ही चाहिए।
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