बदलती सत्ताएं
और निष्ठा
जैसे पञ्च तत्वों से इस शरीर का निर्माण होता है, उसी तरह पंच निष्ठाओं के
पुंज को मनुष्य कहा जाता है। ये पंच निष्ठाएँ हैं, राष्ट्र-निष्ठा, जीव-निष्ठा, श्रम-निष्ठा, समय-निष्ठा
और सत्य-निष्ठा। भारत की माटी पर इन पाँच तरह के सज्जनों की कभी भी कमी नहीं रही
है। किन्तु इनके अन्दर की ‘राष्ट्रीय संगमनी’ को खोजने वाली
‘संगम दृष्टि’ जब-जब क्षीर्ण होती रही है, तब–तब न केवल समाज प्रभावित
हुआ बल्कि राष्ट्रीय क्षति भी हुई है।
उसके बचने के दो आधार हैं- धर्म और संस्कृति । इन दोनों के आधार हमारे जन और ऋषि रहे हैं। काल के प्रवाह में दोनों आधारों
ने अपना स्वरुप बदला है। प्रायः यह कार्य अब शासन के हाथ में आ गया है।
मध्य प्रदेश के पिछले पंद्रह साल के शासन में (केवल पंद्रह महीने को छोड़ दे तो)
सांस्कृतिक वातावरण का व्यापक विस्तार हुआ।
इस विषय को उठाने का कारण कल पोर्टब्लेयर से आया एक फ़ोन था जिसने न केवल मन को
व्यथित किया, बल्कि पुराणी बातों को भी स्मरण करा गया जिसे शेयर कर रहा हूँ।
पंद्रह महीने पहले जब मैं साहित्य आकादमी भोपाल में निदेशक था तो एक तथाकथित कुलशील
वरिष्ठ साहित्यकार की समाचार-पत्र पर कला-संस्कृति के कालम में टिप्पणी छपी थी।
यद्यपि
उस समय हमने तत्काल यह कहते हुए की यह चुके तथाकथित चिंतकों के पुरोधा की चुकी हुई
टिप्पणी है, जो पुरस्कार लौटानेवालों के अगुआ महोदय हैं, अपनी सम्पादकीय टिप्पणी दी
थी, तथापि यह आज फिर यहाँ कुछ अंशों के साथ आप से साझा कर रहा हूँ ।
स्पष्ट था कि यह साहित्यिक जगत के लिए राजनीतिक टिप्पणी थी। देशी लहजे में कहें
तो खुंदक थी। फिर भी उस बहाने साक्षात्कार के पाठकों, स्वदेशी वैचारिकों, राष्ट्र-सर्वोपरि-मनीषियों
से इसे सहभाग करने का एक उचित अवसर भी है, साथ ही टिप्पणीकारों की जमात के भ्रम निवारण
का उचित समय भी, जो अपने को ‘गंगा जमुनी संगम दृष्टिपोषी’ मानते हैं।
अब जरा वरिष्ठ साहित्यकार की टिप्पणी के प्रमुख बिंदुओं का पुन:स्मरण कर लें और
उनके इस पंद्रह माह की समीक्षा भी -
एक- मध्य
प्रदेश कलाकारों का स्वर्ग रहा है,
इसे बचाना होगा।
दो- इसे राजनीति
से दूर रखना होगा। १९९० के पहले तक मध्य प्रदेश में कला और संस्कृति में राजनीति और
सरकार का वैचारिक हस्तक्षेप नहीं जैसा था।
तीन- ‘साक्षात्कार’ जैसी पत्रिका को देखकर दुख होता है।
चौथा- भारत भवन
में अज्ञात कुलशील लोग हैं।
उनके चारों आरोपों को समझने के पहले स्मरण कर लें जिस कालखण्ड को प्रदेश के कलाकारों
का स्वर्ग कहा जा रहा है, वह कालखण्ड जाहिर है मध्यप्रदेश की स्व. पटवा
सरकार के पहले का है ।
अब टिप्पणियों पर उत्तर समझें - पहली बात तो यह की भारतीय परम्परा में स्वर्ग में
रहना बहुत अच्छा नहीं माना गया है। एक गीत की पंक्ति से समझना ठीक होगा- ‘तप तपस्या
के सहारे इन्द्र बनना तो सरल है, किन्तु जग का ऐश्वर्य पाकर मद भुलाना ही कठिन
है। साधना का पथ कठिन है।’
साधना स्वर्ग में नहीं धरा पर होती है। जिस १९९० की परिस्थिति का उल्लेख किया जा रहा था,
उस काल में महानुभाव को भारत भवन के आजीवन न्यासी सदस्य से हटा दिया गया था। तब से
आज तक जब-जब महोदय के उनके प्रतिकूल विचारधारा की सरकार आती है तब – तब महानुभाव को
भारत भवन में अज्ञात कुलशील लोग नजर आने लगे हैं, और राजनीतिक हस्तक्षेप
भी।
‘साक्षात्कार’ को देखकर दु:ख हो रहा है, क्यों ? क्योंकि इसमें
साहित्यकार तो छप रहें थे, किन्तु पुरस्कार लौटानेवालों की यह चारागाही स्वर्ग-भू छिन
गई थी। चूँकि उस सम्पादकीय में काफी
तथ्यों को उजागर कर दिया गया था इसलिए यहाँ दुहराना उचित नहीं ।
किन्तु उनके विचरों को पिछले पंद्रह महीने की उनके अनुकूल सरकार पर नजर डाल कर
इनके प्रमाण के साथ तथ्यों पर विचार करें-
एक – उनका सरकार पर हस्तक्षेप कितना था की मैं प्रतिनियुक्ति पर अकादमी में था
और सत्ता में आते ही मात्र पंद्रह दिन के अंदर मुझें खंडवा, यह कह कर भेज दिया गया
की ‘ये दीनदयाल वाले हैं ’ (एक पूर्व मुख्यमंत्री से अकादमी से हटाये जाने पर किसी
के पूछने पर। साथ ही जिन दो तीन आकादमियों में (सिन्धी, मराठी और पञ्जबी) भी उनके विचार-चिंतन
और कार्यप्रणाली से असहमत निदेशक थे, तत्काल हटा दिया गया। मुझे छोड़कर सभी अशासकीय
व्यक्ति थे इसलिय उन्हें दंड स्वरुप उनके घर से दूर नहीं कर सके ।
दूसरा सभी अकादमियों के निदेशक पद पर
पंद्रह महीने में किसी योग्य व्यक्ति की नियुक्ति न हो सकी बल्कि अपरोक्ष रूप से
उन्हीं महोदय की शिष्य परम्परा के हाथ आ गई।
महीने भर के अंदर साहित्य अकादमी के
सभी पाठक मंच बदल दिए गए।
पुरस्कार की अकादमी की दीर्घ स्थापित परम्परा ‘अलंकरण समारोह’ को न करके पुरस्कृत
साहित्यकारों के घर जा कर राशि और प्रमाण-पत्र दिए गए।
कल ही अंदमान से पुरस्कृत
महानुभाव का फोन आया (जिनके कारण टिप्पणी लिखनी पड़ी) की ‘राशी तो मिल गई प्रमाण-पत्र नहीं मिला’। सुन कर दुःख हुआ ।
साक्षात्कार की दुर्दशा करते हुए उसके मासिक अंक को त्रैमासिक संयुक्तांक में बदल कर धुर वामपंथी अंक निकाल कर गुरु दाक्षिणा
दी गई ।
तात्पर्य यह की महोदय जिस हस्तक्षेप
की बात कर रहे थे, वह पंद्रह महीने में ही दिख गया।
जो साहित्य आकादमी पंद्रह वर्ष
में देश में ही नहीं विदेशों में भी अपनी पहचान अनेक कार्यक्रमों और साहित्योत्स्व
तथा साक्षात्कार के माध्यम से बनाई थी, सब
परदे के पीछे चली गई ।
जहाँ तक भारत भवन का प्रश्र है वह केवल
भारत भवन तक सीमित न होकर महोदय की पीड़ा की व्याप्ति निनौरा संवाद, उज्जयिनी महाकुंभ, विश्व हिन्दी
सम्मेलन २०१०, लोकमंथन २०१६, शहीदों के स्मृति
में किये जा रहे कार्य, लोक-कलाओं का लोक में बढ़ते व्याप की वह टीस थी, जिसे वे नहीं
कर पाये थे।
मजे की बात यह है की पंद्रह महीने के पूर्व और पन्द्रह महीने बाद भी उन्हीं की शिष्य परमपरा भारत भवन को नियंत्रित
कर रही है । यह पिछले दस वर्षों के अन्त:कलह और महत्वाकांक्षा का परिणाम था ।
अंतर यह था की पंद्रह महीने पहले के न्यासी
सचिव और सदस्य, शासन और प्रशासन ने मध्य प्रदेश को राष्ट्रचिन्तन का नैमिशारण्य बना दिया था
तो अब के न्यासी इन पंद्रह महीनो में
हिंदुत्व विरोधी स्थापनायों में लगे थे । ये लिखित प्रमाण हैं।
इसलिए ध्यान आकर्षित करूँगा- संभवतः पंद्रह महीने में उनकी छटपटाहट को विराम मिला
होगा ।
वस्तुत: लोक-कला, संस्कृति, साहित्य को राष्ट्रीय
अस्मिता के साथ जोडक़र विश्व कल्याण हेतु लोकाभिव्यक्ति होनी चाहिए।
यह बात अलग है
की पंद्रह महीने के पूर्व भी भारत भवन न तो अपना गैर-प्रशासनिक सचिव पा सका, न सभी
अकादमियां निदेशक पा सकी थीं । स्वराज भवन तो सूना ही रहा।
तीन महीने सरकार आने के बाद भी अभी भी विलम्ब का कारण सत्ता
और उसके नियामक नियंता जाने।
फिर भी अपेक्षा की जा सकती है की बदली
परिस्थिति की पुुन: लौटी सरकार संस्कृति विभाग और उसकी आकादमियों, भारत भवन, स्वराज भवन जैसी
संस्थायों पर ध्यान देगी ।
थके स्वर से न तो सलाह लेने की आवश्यकता है न ही उलाहना सुनाने -सुनाने की । दोनों
पक्षों को अच्छा है, कभी मिल बैठकर कल्याणकारी सुझाव (अपने – पराये
के भेद से ऊपर उठकर ) दें, यदि नहीं दे सकते तो मौन होकर भूल-गलती के लिए पश्चाताप
करना चाहिए।
अब न भारत भवन बिना सचिव के रहे और न अकादमियां । यही पञ्च निष्ठाओं - राष्ट्र-निष्ठा, जीव-निष्ठा, श्रम-निष्ठा, समय-निष्ठा
और सत्य-निष्ठा का सन्देश है ।
व्यवस्था की कलई खोलता हुआ लेख
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