Wednesday, 1 July 2020

उलझी-सुलझी



सियासत में  आज उदासी लग रही है,
तेरे घर की घटाएं  प्यासी लग रही हैं।

किस सौदेबाजी में उलझ गये हो तुम,
चुपड़ी रोटी भी अब बासी लग रही है।
 
मायूस हैं सिपाही तुम्हारे पाले के,
सत्ता आज उन्हें दासी लग रही है।

उधर हाथों में तिकड़म के हजार फंदे,
बावफा़ कारिन्दों को फांसी लग रही है।

हिचकियाँ सताती थीं जो याद में ,
आज वही कोरोना-खांसी लग रही हैं।

बदनज़र से गया है कोई घूर घर को
ताबीज़ मुझे अब रुआंसी लग रही है।
  
बात तेरे काम की आज  न हो सही, 
सियासी आहट उधर की तरासी लग रही है!

उमेश कुमार सिंह
०२/०७/२०२०

12 comments:

  1. प्रासंगिक अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
    Replies
    1. आज का सटीक आकलन है हिचकियों से खुश होने की जगह कोरोना की आहट सुनाई देती है गहरे अर्थ को समेटे सामयिक रचना है आपकी लेखनी को नमन

      Delete
  2. बहुत बढ़िया रचना है, तीखा कटाक्ष भी और सही विश्लेष्ण भी ! 'हिचकियाँ सताती थीं ...'' यही हाल है इस समय ! डर लोगों के दिमाग पर हावी हो गया है ! और ''चुपड़ी रोटी भी ..' सटीक व्यंग्य है ! साधुवाद है आपको !

    ReplyDelete
  3. शानदार सामयिक यथार्थ परक

    ReplyDelete
  4. सर जी बहुत सार्थक और वर्तमान समय को चरित्रार्थ करता कटाक्ष,शुभ कामनाओं के साथ
    -डॉ संध्या प्रसाद प्राध्यापक

    ReplyDelete
  5. समसामयिक उत्कृष्ट रचना

    ReplyDelete
  6. समसायिक सार्थक रचना

    ReplyDelete
  7. सार्थक अभिवक्ति
    डॉ आर के शर्मा

    ReplyDelete