सियासत में आज उदासी लग रही है,
तेरे घर की घटाएं प्यासी लग रही हैं।
किस सौदेबाजी में उलझ गये हो तुम,
चुपड़ी रोटी भी अब बासी लग रही है।
मायूस हैं सिपाही तुम्हारे पाले के,
सत्ता आज उन्हें दासी लग रही है।
उधर हाथों में तिकड़म के हजार फंदे,
बावफा़ कारिन्दों को फांसी लग रही है।
हिचकियाँ सताती थीं जो याद में ,
आज वही कोरोना-खांसी लग रही हैं।
बदनज़र से गया है कोई घूर घर को
ताबीज़ मुझे अब रुआंसी लग रही है।
बात तेरे काम की आज न हो सही,
सियासी आहट उधर की तरासी लग रही है!
उमेश कुमार सिंह
०२/०७/२०२०
प्रासंगिक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteNice poem Sir
Deleteआज का सटीक आकलन है हिचकियों से खुश होने की जगह कोरोना की आहट सुनाई देती है गहरे अर्थ को समेटे सामयिक रचना है आपकी लेखनी को नमन
Deleteआभार
Deleteबहुत बढ़िया रचना है, तीखा कटाक्ष भी और सही विश्लेष्ण भी ! 'हिचकियाँ सताती थीं ...'' यही हाल है इस समय ! डर लोगों के दिमाग पर हावी हो गया है ! और ''चुपड़ी रोटी भी ..' सटीक व्यंग्य है ! साधुवाद है आपको !
ReplyDeleteशानदार
ReplyDeleteशानदार सामयिक यथार्थ परक
ReplyDeleteसर जी बहुत सार्थक और वर्तमान समय को चरित्रार्थ करता कटाक्ष,शुभ कामनाओं के साथ
ReplyDelete-डॉ संध्या प्रसाद प्राध्यापक
समसामयिक उत्कृष्ट रचना
ReplyDeleteसमसायिक सार्थक रचना
ReplyDeleteलाज़बाब
ReplyDeleteसार्थक अभिवक्ति
ReplyDeleteडॉ आर के शर्मा