shrikant kautilya <kautilya69@gmail.com>
|
|
Sun, Nov 25, 2018,
11:14 PM
|
|
|
|
यह पुरस्कार, गल-हार, शाॅल,श्रीफल न हमारी हस्ती है।
माथे पर
कुमकुम-अक्षत का,
टीका न हमारी
मस्ती है॥
फिर थाल आरती का
क्यों है?
हम धूल-धूसरित
कंकर हैं,
यह जय-जयकार चरण
वन्दन की,
प्रथा बहुत ही
सस्ती है॥१॥
दायित्व बड़ा
अधिकार मान,
कुछ लोग पास में
आते हैं।
हो खड़े
व्यवस्थित बाजू में,
फिर वे फोटो
खिंचवाते हैं ॥
है चित्र खींचना
प्रतिबन्धित,
उनको बिल्कुल
स्वीकार नहीं,
तस्वीर बड़ी
करके उसकी,
फिर दर्शनार्थ
लगवाते हैं॥२॥
छाया-चित्र
पत्र-अभिनंदन ये सुस्मृति चिन्ह लगे देखे।
फिर अनगिन
धातु-पदक आले-अलमारी में हँसते देखे॥
यह किसकी
अभिरुचि है न्यारी,
यह किसकी
लोक-एषणा है ?
जो व्यापक घोर
प्रदर्शन-सा,
सम्मानों का
करते देखे॥३॥
यह
यशोगान-जयगान-कीर्ति का वर्णन किसकी उत्कण्ठा ?
खुद
आत्म-प्रशंसा का स्वभाव दुर्बल मानस की आशंका॥
कमजोरी दोष
पूर्ण भारी,
व्यक्तित्व
विनाशक ज्वाला है,
है निश्चित
राष्ट्र कार्य-बाधा,
ये साध्य-साधनों
की हन्ता॥४॥
किन्तु पक्ष में
खड़े हुए,
कुछ तर्क समर्थन
करने वाले।
अनुचित अनेक
गतिविधियों को,
वे उचित सत्य
कहने वाले॥
शंका है कुछ भी नया-नया,या रचनात्मक कर पायेंगे;
उलझे उसमें रह
जाएंगे,
प्र-स्तुति अपनी
सुनने वाले॥५॥
अपशब्द अनर्गल
भाषा में,
दुत्कार सदा
सहते आये।
निन्दा-विरोध-आरोप
प्रखर,
छाया में हम
रहते आये॥
हम लगे रहे
हठधर्मी से,
बाना यह
राष्ट्र-धर्म का धर,
बस, संघ कार्य जीवन अपना, यह ध्यान सदा रखते आये॥६॥
सम्मान-प्रतिष्ठा
भूख नहीं,
ना दबी हुई
आकांक्षा है।
यह मार्ग चयन इस
हेतु नहीं,
बस, माँ-पूजन की इच्छा है।
करना यदि हमें
यही होता,
उसके तो मार्ग
बहुत होते;
तिल-तिल कर देश
धर्म की बलि,यह संघ कार्य की शिक्षा है॥७॥
यह
मान-प्रतिष्ठा-अभिनन्दन,
स्वीकार नहीं, स्वीकार नहीं।
यह कृत्रिम है, अनपेक्षित भी,हमको इसका अधिकार नहीं॥
हम सदा स्वयं
जलते आये,
जलना कर्तव्य
हमारा है;
जब तक मिलता माँ
को जग में,
सम्मान नहीं, सत्कार नहीं॥८॥
क्या दो-दो भुजा
कटी जिसकी,
उसको दिव्यांग
कहेंगे हम ?
माता का मन्दिर
खण्डित है,
क्या पूजा आज
करेंगे हम ?
जब तक सर्वाङ्ग
भरत-भू हो,
तब तक यह सतत्
साधना है,
फिर उस अखण्ड जग-जननी को,नव नित्य सतत्
अर्चेंगे हम॥९॥
-----------------------------------------------------------------
अमृत छलका, भू पर टपका, सत्कृपा गरुड़ भगवान की।
अमृत बूँदों पर
कुम्भ सजें,
ये सूझ सन्त-ऋषि
ज्ञान की॥धृ॥
यह भारत वर्ष महान की............
इतना विशाल मेला भू पर, अद्भुत वैशिष्ट्य हमारा है ।
आमन्त्रण नहीं
प्रतीक्षा से,
आता जन-सागर सारा है ।
क्या महाकुम्भ
केवल भारत ?
भूमण्डल का
शुभ-दर्शन है।
आध्यात्म-तीर्थयात्रा-शुचिता-सौभाग्य-धन्यता का क्षण है।
आध्यात्म
देश का प्राण-बिन्दु,यह बात गर्व अभिमान की॥१॥
यह भारतवर्ष महान की...........
जाति-पाँति लवलेश अगोचर, समरसता की अमर साधना।
भगवद्भक्ति
पुण्य का अर्जन,
जन-मन-भावन
व्याप्त कामना।
बारह वर्ष अवधि
का चक्कर,
चारों कुम्भों
का आयोजन।
अवन्तिका-नाशिक-माया में, फिर प्रयाग संगम अभियोजन।
गंगा-गोदा-क्षिप्रा के तट, पावन घड़ियां सुस्नान की॥२॥
यह भारतवर्ष महान की...........
धर्माचार्य-सन्त-ऋषि
लाखों,
कोटि-कोटि मानस आवाहन।
चरण-वन्दना
तापसियों की,
करें प्राप्त
जीवन सुख - पावन।
साधु-सन्त-बटु-जती
सभी के,
उपदेश ज्ञानमय
श्रवण करें।
कुम्भ-स्नान
ज्ञान से - जल से,
पाकर जीवन-रस
ग्रहण करें।
यह ज्ञान-सरित
अविरल रस-धारा गूढ़ ज्ञान-विज्ञान की॥३॥
यह भारतवर्ष महान की...........
एक और उद्देश्य
कुम्भ का - मानव संस्कृति चिन्तन-मन्थन।
हो भविष्य का
भारत ऐसा,
बने मनुज निर्मल
अति पावन।
उन्नत से उन्नततर जीवन, गढ़े
श्रेष्ठता आदर्शों की।
विनिमय होता था
विचार का,
रचना होती सन्दर्शों की।
तब इन्हीं विमर्शों से प्रगटित ये गुरुता हिन्दुस्थान की॥४॥
यह भारतवर्ष महान की...........
इन कुम्भों के
कुछ रहस्य जो,
सोच-समझ दर्शन
से बाहर।
उनसे ही आता है
अनुभव,
कुम्भों का आयोजक ईश्वर।
आते - जाते दिख जाते हैं, जनता और जनार्दन हमको।
लाखों नागा ,किन्तु, कुम्भ में,
आते-जाते दिखते
किसको ?
यह गिरि-कन्दर
का भस्ममयी जग - राह भेद-विज्ञान की॥५॥
यह भारतवर्ष महान की...........
यही भेद है, संस्कृति यह ही, यह ही वह भारत का जीवन।
मोहित जिस पर
हुआ विश्व-मन,मोहक यह ही वह जग उपवन।
त्याग सभी भौतिक
आकर्षण,
आते जहाँ वही
वृन्दावन।
सबका
संरक्षण-पोषण भी,
करता आया यह
नन्दन-वन।
उन कुम्भों की
धरा भरत-भू ,जो कुम्भ-कथा सद्-ज्ञान की॥६॥
यह भारतवर्ष महान की...........
shrikant kautilya <kautilya69@gmail.com>
|
|
Sun, Nov 25, 2018,
11:12 PM
|
|
|
|
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?
फिर, कष्टों की गणना कैसी ?॥धृ॥
सिर पर काँटों
का ताज सजा,
कण्टक पथ ही
अपनाया हो ।
क्षण-क्षण मानस
में,
चिन्तन में,
नख-शिख तक ध्येय
समाया हो॥
उस ध्येय-मार्ग के राही को,
भौतिक सुख की
चिन्ता कैसी॥
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥१॥
जब कठिन मार्ग
पर बढ़े कदम,
पग-पग पर कंकड़ - पत्थर हों।
बीहड़ता कदम-कदम रोके,
गहरे नाले - सरिता - सर हों ॥
साहस से बढ़ने वालों को,
बाधाओं की चिन्ता कैसी ?
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥२॥
सम्मुख
प्रतिरोधक पवन बहे,
ओला-वृष्टी घन - घोर गिरे।
सूरज की आतप
अग्नि
तपे,
ज्वालामुखियों
का जोर घिरे॥
पर, कठिन-कर्म-पथ-पथिकों को,
सुविधाओं से
ममता कैसी ?
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥३॥
पग-पग पर संकट
के बादल,
पग-पग पर घन
अँधियारा हो।
आकाश भरा तारों से हो,
या सूरज का उजियारा हो॥
अँधियारे के उस राही को,
उजियारों की चिन्ता कैसी?
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥४॥
भौतिकता चमक-दमक
भारी,
आकर्षण मन को खींच रहे।
धन-वैभव के, सुख के साधन,
सुखवादी तन को सींच रहे॥
पर ध्येय -
समर्पित
रचना के,
मन में ये भौतिकता कैसी ?
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥५॥
कुछ रंग-बिरंगे पुष्पों की,
खिलती सुगन्धमय
बगिया हो।
सज्जित आवास-
महल भीतर,
कोमल मखमल की
दुनिया हो॥
पर कण्टक पथ के
राही को,
इन सेजों की
चिन्ता कैसी ?
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥६॥
यदि लगे रहे हम
भी केवल,
जगती के
भोग-विलासों में।
आकांक्षा की
प्रतिपूर्ति हेतु,
उद्योग अथक
अभ्यासों में ॥
निःस्वार्थ
साधना के मग में,
स्वारथ की
प्रीति पली कैसी?
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥७॥
ये
अष्ट-सिद्धियाँ युग-युग से,
अणिमा-महिमा-गरिमा-लघिमा।
फिर प्राप्ति और
प्राकाम्य तथा,
ईशित्व-वशित्व
बड़ी प्रतिमा ॥
इस कठिन परिश्रम
के पथ पर,
आराम सरलता कब
कैसी ?
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥८॥
पथ निर्जनता -
अँधियार लिये,
गहरी बीहड़ता भार लिये।
फिर ऊजड़ता-सा
तिरस्कार,
अपमानों का
संसार लिये ॥
अद्भुत
प्रसन्नता संकट में,
छा जाती वीर
शिवा जैसी॥
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥९॥
चाहे जितने
आकर्षण हों,
या पथ पर बिखरे
कण्टक हों।
काले घन घोर
निराशा के,
छाये जितने भी
संकट हों॥
राणा प्रताप के
अनुचर हम,
हर संकट की
ऐसी-तैसी॥
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥१०॥
हर संकट से लड़
सकते हैं,
हम सिंहों से
भिड़ सकते हैं।
जिनको कहते हैं
हम अपने,
उनसे कैसे लड़
सकते हैं ?
बस हुए पराजित
अपनों से,
हर ममता की
दुविधा ऐसी॥
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥११॥
अपनों से ही
चित्तौड़ गया,
अपनों से ही
दिल्ली भारी।
अपनों से ही
बंगाल बीच,
प्लासी की जंग
गई सारी॥
अपनों के कारण
भारत की,
दुर्गति हमने देखी ऐसी॥
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥१२॥
अपनों ने साथ
दिया होता,
अपनों ने प्यार
किया होता।
टूटे-फूटे हारे मन पर ,
साहस संस्कार
किया होता॥
सहयोग - सँभाल -
सुसज्जा को,
अपनी संस्कृति
तरसी ऐसी॥
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥१३॥
भवितव्य समझ अब
भी सँभलें,
अनुकूल बनें, खुद को बदलें।
फिर से न घटे
इतिहास वही,
मन में पक्का
निश्चय कर लें॥
देखेंगे भाग्य
भरत-भू का,
सुस्थिति जैसी
होगी वैसी॥
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥१४॥
अपनी उस प्रखर
प्रतिज्ञा में,
हम पुण्य ध्येय सुस्मरण करें।
अपने मन से अपने
मन का,
जीतें रण को, जय वरण करें॥
फिर सुने विजय
जय भारत की,
होगी वह प्रलय-ध्वनि जैसी॥
सुख - साधन की
चिन्ता कैसी ?॥१५॥