Friday, 31 July 2020

नई शिक्षा नीति

नई शिक्षा नीति का जिन्होंने गहराई से अध्ययन किया है उनसे कुछ समाधान चाहिए-
एक-
पांचवी तक की पढ़ाई अल्पसंख्यकों के विद्यालयों में किस माध्यम से होगी ?

दूसरा-
अल्संख्यकों की संस्थाओं में केवल अल्पसंख्यक ही पढ़ेंगे या अल्प अल्पसंख्यक शेष बहुसंख्यक,इस पर भी प्रकाश डालें?

तीसरा- यदि शहरी क्षेत्रों में कई भाषा-भाषी छात्र एक ही संस्था में प्रवेश लेंगे तो क्या अलग-अलग भाषा-भाषी के लिए अलग कक्षाएं होंगी या कोई सर्वमान्य क्षेत्राधारित भाषा में अध्यापन होगा?

अथवा भाषा के आधार पर पृथक- पृथक विद्यालय होंगे?

Tuesday, 28 July 2020

जीवन का श्रृंगार सजा कर


जीवन के प्याले को पीकर
सृजन हेतु नव भूमि बनाकर
उठो चलेंगे अब करने कुछ
नव जीवन श्रृंगार सजाकर
चलो आज चिंतन कर डालें
समरसता का भाव जगाकर।।



नहीं जानते विश्व  कुंज में
कैसी-कैसी कलियां खिलतीं
कहां-कहां जीवन  शब्दों में
विष-अमृत की पुड़िया ढलतीं
बढो आज उनको मथ डालें
तरल हृदय से गरल हटाकर।।


आज यहां संसार स्वत्व का
कौन कर रहा मधुमय दान
किरणों से पराग सिंचन का
माली करता नित अवदान
चलो हृदय से  उसे लगा लें
सुधा पिलाता कंठ जलाकर।। 

उमेश कुमार सिंह
28/07/20

राष्ट्र भाषा हिंदी

राष्ट्रभाषा हिन्दी नहीं सँस्कृत होना चाहिए -डॉ.उमेश कुमार सिंह
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भोपाल | राष्ट्रभाषा हिन्दी ही क्यों ,सँस्कृत क्यों नही ? सँस्कृत देवभाषा है ,हिंदी सँस्कृत की बेटी है,अन्य सभी भारतीय भाषाएं सँस्कृत से ही निकली हैं | यह उदगार हैं डॉ.उमेश कुमार सिंह ,निदेशक साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश के वे मध्यप्रदेश राष्ट्र भाषा प्रचार समिति हिंदी भवन भोपाल द्वारा आयोजित 25 वीं रजत जयंती पावस व्याख्यान माला के अवसर पर आयोजित विमर्श सत्र -05 की " राष्ट्रभाषा हिन्दी और चुनौतियां " विषय पर अपना अध्यक्षीय वक्तव्य दे रहे थे | उन्होंने इस अवसर पर बोलते हुए अनेक महत्वपूर्ण बातें कहीं | सरकार द्वारा पिछले विश्व हिंदी सम्मेलन जो कि भोपाल में आयोजित किया गया था ,में सरकार द्वारा जो संकल्प लिए गए थे,उनमें से जो कदम इस दिशा में उठाये गए हैं उनकी जानकारी दी,जैसे सभी शासकीय विभागों में अनुवादकों की नियुक्ति,हिंदी में उत्कृष्ट कार्य करने वालों को पुरस्कृत करना,इत्यादि | उन्होंने वक्ताओं द्वारा अंग्रेजी से लड़ने की कवायद का विरोध करते हुए कहा कि अंग्रेजी जैसे कद्दावर पहलवान से लड़ने की बजाय स्वयम को उससे शक्तिशाली बनने का अनुरोध किया | साथ ही उन्होंने कहा कि हमारे देशवासी मैकाले का क्यों विरोध करते हैं ,वह तो  अपने राष्ट्र  का पक्काभक्त था ,आप भी उस जैसे समर्पित राष्ट्र भक्त बनिये | आपने देश के स्वतंत्र होने के 70 साल हो गए क्या किया | सब कुछ सरकार करे | आप यहां सब बैठ हिंदी की बात कर रहे हैं ,आप अपने ह्रदय पर हाथ रख कर बोलिये आपकी संताने अंग्रेजी स्कूलों में तो नही पढ़ रहीं | सबको केरियर की चिंता है,देश भाड़ में जाये ,आपको केवल भाषा पर संकट  दिखाई दे रहा है ,मैँ कहता हूं पूरे देश पर ही संकट है | देश खत्म हो जाये ,केरियर बचा रहे ,ऐंसा नही चलेगा | केरियर बर्वाद हो जाये देश बचा रहे ,ऐंसी सोच और समर्पण वाले कितने लोग हैं हमारे बीच ,अंग्रेजी से हम क्यों लड़ें स्वयम को सबल बनाएं  | आज देश में लगभग हिंदी की सेवा करने वाली लगभग 162 संस्थाएं हैं ,जिनमें से लगभग 80 मध्यप्रदेश में ही है ,यह क्या कर रही हैं ,जिस ढंग से यह हिंदी सेवा का कार्य कर रही हैं ,उससे अगले 100 वर्षों में भी हिंदी देश की राष्ट्र भाषा नहीं बनने वाली | ऐंसे आयोजनों में असहाय श्रोता,और सबल वक्ता,और आयोजन समाप्त ,सुनाने की नहीं सुनने की भी आदत डालो,बात बताने की नहीं अपनाने की है,| सब अपना भाषण देकर चलते बनते हैं ,अरे भाई तीन दिन का आयोजन है ,तो रुकिए ,समय नहीं है तो न कहिये ,हवा में बातें की जा रही हैं मूल आधार को पकड़िए | आठवीं अनुसूची में बोलियां शामिल की जा रही है तो करने दीजिए ,यह बड़ा नाजुक मसला है,बोलियों का संरक्षण आवश्यक है,बोलियों में हमारे संस्कार हैं ,सँस्कृति है,बोलियों में हमारा लोक है,चित्र है, गीत है ,धर्म है, मानस है, शासन को चाहिए कि वह 18 बोलियों को ही आठवी अनुसूची में शामिल कर दे ,बोलियां मजबूत होंगी तो हिंदी भी मजबूत होगी यानी शरीर का कोई एक नहीं हर अंग मजबूत होना चाहिए, विरोध अगर करना है,तो किसी बोली को अष्टम अनुसूची में शामिल करने का मत करो ,विरोध करना है तो आठवी अनुसूची को खत्म करने का ही करो | आज हिंदी का स्वरूप क्या है आने वाले कल में क्या होगा ,वैसे भी 50 साल में बोली और 100 साल में भाषा का स्वरूप बदल ही जाता है | हम दुनिया को समझते हैं,स्वयम को नहीं समझते,हमें अंग्रेजी से नहीं स्वयम से लड़ना है | सच्चे मन से प्रयास करेंगे तो प्रभु राम सकारात्मक परिणाम भी देंगे | इसके पूर्व डॉ आनन्द त्रिपाठी ने "हिंदी की व्याप्ति " डर अमरनाथ ने "बोलियों का आठवीं अनुसूची के के लिए आग्रह " प्रो0 आशा शुक्ला " विश्व हिंदी सम्मेलनों की सार्थकता " डॉ जवाहर कर्नावट " सूचना प्रौद्योगिकी में हिंदी " विषय पर अपने वक्तव्य रखे | इन विद्वानों ने जो भी इन विषयों पर अपनी बात रखी डॉ उमेश जी ने सभी वक्तव्यों का अपने अध्यक्षीय उदबोधन में सारगर्भित व सार्थक उत्तर दिया ,उनके वक्तव्य को सुन अनेक बार करतल ध्वनि से सदन में उपस्तिथित जनों ने ह्रदय से उनकी बात का समर्थन किया ,दिनभर के थके हुए श्रोता, अध्यक्षीय उदबोधन सुन नई ऊर्जा से भर गए ।

Thursday, 23 July 2020

बाल कविताएं


 बाल कविताएं-


(एक)

बाल  कृष्ण-बलराम-राम-परशुराम
कविता बालपन की  करूँं प्रणाम।
गौरी-सुत-षठ्वदन दत्तात्रेय हनुमान
लव-कुश-ध्रुव-प्रहलाद बाल महान।


छाप तिलक सब छोड़ ऋषि करते ध्यान।
काम अगम  बनते आचरण से भगवान।।
जगत प्रेम भाटी बनी  भक्त करे रसपान।
मतवारे बन किया आचरण का आह्वान।


आदर्श आचरण संत-सागर फैला महान।
उत्ताल तरंगों  में डूबें  गायें  गर्वित गान।।
दरिया इनके प्रेम की उलटी इसकी धार।
घाट  बैठ  डूबा  रहा   जो गहरे सो पार।।


(दो) 

बालमन! बालमन! बालमन!

हाथ हो भले रिक्त
माथे पर धरे सिक्त
मचल रहा  सागर-धन
अतृप्त वासना भरा मन
पग बढ़ा मस्तासव पिए
मुठ्ठी  न कौड़ी के लिए
खोल मन!  खोल मन!  
बालमन! बालमन! बालमन!

तू अजेय शक्ति है
तू ही राष्ट्र भक्ति है
छल-छद्म आकर्षक
धर मन न विकर्षण 
ध्वज-थाम कंटक-पथ 
रुकें न पग प्रतिज्ञा-बद्ध
बालमन! बालमन! बालमन!

धार  तुझे मोडऩी है
आह तुझे छोडऩी है
अश्रु-श्वेद-रक्त सने 
श्रम सीकर धन बने
है महान! तू अक्षय धन
भारती सुत! समर्थ बन
बालमन! बालमन! बालमन!



(तीन)


आज  उन्हें  भी  अवसर दो।

उठा रहा जो नित गोबर-धन
काला-चेहरा  उज्ज्वल-मन
जिसका सखा गोवर्धनधारी
उन पर  कैसी  बिपदा भारी
ऐसे  बाल  सखाओं पर मांँ
अब तरसो बरसो हरषो  माँ
आज  उन्हें  भी  अवसर दो।
आज  उन्हें  भी  अवसर दो।

अक्षर ज्ञान सीखना जिनकों
समय  नहीं पढऩे को उनको
भरें गोबर की  लिए तगाड़ी
चौमासा-ठंडी-तपत दुपहरी
ऐसे  बाल  सखाओं पर मांँ
अब तरसो बरसो हरषो  माँ
आज  उन्हें  भी  अवसर दो।
आज  उन्हें  भी  अवसर दो।

भूले  ब्रजनन्दन  किलकारी
हुुआ बालपन जिनका भारी
साहू घर  बचपन गिरवी तो
कैसे गाये एक्के एक दुक्के दो
ऐसे  बाल  सखाओं पर मांँ
अब तरसो बरसो हरषो  माँ
आज  उन्हें  भी  अवसर दो।
आज  उन्हें  भी  अवसर दो।


गरम पकौड़ी खाता  टिंकू
आँख गड़ाए  देखे  हलकू
धनियांँ के शाला जाने को
गा-गणेश को  दुहराने को
ऐसे  बाल  सखाओं पर मांँ
अब तरसो बरसो हरषो  माँ
आज  उन्हें  भी  अवसर दो।
आज  उन्हें  भी  अवसर दो।


मुक्त कर दो राजपुरुष अब
सदियों से गिरवी अगुष्ठ को
राजधर्म और राजयुगल संग
चढ़ा सके वह इन्द्रधनुष को 
ऐसे  बाल  सखाओं पर मांँ
अब तरसो बरसो हरषो  माँ
आज  उन्हें  भी  अवसर दो।
आज  उन्हें  भी  अवसर दो।

                       प्रो उमेश कुमार सिंह




Monday, 20 July 2020

सरकार ! अब तो जागिए


सरकार ! अब तो जागिए

रिआया को नहीं मतलब
दलगत राजनीति से
मजहवी संन्तुष्टि से
तिकड़म से, फरेब से
उसे वादा किया था
रोटी, कपड़ा, मकान, 
विजलीसड़कदुकान का
की भी थी पूर्ति सब की
फिर जनता ने ही तो नकारा था ?

बदलने चाहिए सत्ता के 
मलाई खाते सलाहकार
चादर से तस्वीर नहीं छुपती
जब धूप में जनता है तपती 
 वही सुरभि सरसाने के लिए 
तालाब का पानी  लेने से
कहीं इंकार न कर दे मालिक ! 
भोली-चतुर-आरत रिआया
अहंकारी फौज ने ही तो हकारा था ।

घोषणाओं से पेट नहीं भरता
काम और  मजदूरी चाहिए
 बड़े मगरमच्छों से कहिये
 घडिय़ाली आँसू सूखने लगे हैं
वह भ्रम में नहीं उसने देखा है
खा रहे हैं जंगल-जमीन
पानी-पत्थर-खेत-रेत-हक
इन्ही वज़ीरों ने ही तो दुत्कारा था ?

ये भूखे भी रहने को तैयार हैं
अधिष्ठान के लिये तो कुछ कीजिये
सुना है सरकार पूरे मूड में 
नये-नये प्रयोग कर रही है
किन्तु सलाहकारों की भीड़ में
न कोई विदुर न चाणक्य  है
जो हैं उन्हें न आप की चिन्ता है
न रिआया कि न ही सत्ता की
जनता को नायक का ही तो सहारा है 

जनता के बीच उन्हें नहीं जाना है
सत्ता से भी उन्हें नहीं जाना है
वे मुरझाये से दिखने का अभ्यास
कर रहे हैं वर्षों से ले दृढ़ विश्वास
समय नहीं करता प्रतीक्षा मालिक !
प्रतिष्ठान तो मजबूत कर लीजिए
जनता ने फिर से आज दुलारा है। 

उमेश कुमार सिंह
21/07/2020

Thursday, 16 July 2020

आचार्य अभिनव गुप्त ने भारतीय वांगमय को एक नया क्षितिज दिया

आचार्य अभिनव गुप्त ने भारतीय वांगमय को एक नया क्षितिज दिया

  भारत वर्ष अनेकता में एकता का देश है। देश के अस्तित्वकाल से ही इस धरती पर ज्ञान-विज्ञान की अनेक धाराएँ बहती रही हैं। आगम और निगम के माध्यम से यहाँ अध्ययन अध्यापन की अनवरत परम्परा रही है। दर्शन हो या विज्ञान भारतीय दृष्टि में इनका महत्व संसार के दु:ख के विनाश का उपाय ढूढऩा है। संसार से मुक्ति का उपाय दर्शन शास्त्रों ने ढूढ़ा है। भारतीय दर्शन जहाँ मुक्ति का उपाय बताता है वहीं पाश्चात्य दर्शन केवल सिद्धांत की चर्चा करता है।

अभिनवगुप्त (975-1025) दार्शनिक, रहस्यवादी एवं साहित्य शास्त्र के मूर्धन्य आचार्य। कश्मीरी शैव और तन्त्र के पण्डित। वे संगीतज्ञ, कवि, नाटककार, धर्मशास्त्री एवं तर्कशास्त्री भी थे। आचार्य अभिनव गुप्त के पूर्वज अत्रि गुप्त (8वीं शताब्दी) कन्नौज प्रांत के निवासी थे। यह समय राजा यशोवर्मन का था। अभिनवगुप्त कई शास्त्रों के विद्वान थे और शैवशासन पर उनका विशेष अधिकार था। कश्मीर नरेश ललितादित्य ने 740 ई. जब कान्यकुब्ज प्रदेश को जीतकर काश्मीर के अंतर्गत मिला लिया तो उन्होंने अत्रिगुप्त से कश्मीर में चलकर निवास की प्रार्थना की। वितस्ता (झेलम) के तट पर भगवान शितांशुमौलि (शिव) के मंदिर के सम्मुख एक विशाल भवन अत्रिगुप्त के लिये निर्मित कराया गया। इसी यशस्वी कुल में अभिनवगुप्त का जन्म लगभग 200 वर्ष बाद (950 ई.) हुआ। उनके पिता का नाम नरसिंह गुप्त तथा माता का नाम विमला था। इनका कुल अपनी विद्या, विद्वता तथा तांत्रिक साधना के लिए कश्मीर में नितांत प्रख्यात था। इनके पितामह का नाम था वराह गुप्त तथा पिता का नरसिंह गुप्त जिन्हें लोग ‘चुखुल’ या ‘चुखुलक’ के घरेलू नाम से जानते थे। अभिनवगुप्त का व्यक्तित्व बड़ा ही रहस्यमय है। महाभाष्य के रचयिता पतंजलि को व्याकरण के इतिहास में तथा भामतीकार वाचस्पति मिश्र को अद्वैत वेदांत के इतिहास में जो गौरव तथा आदरणीय उत्कर्ष प्राप्त हुआ है वही गौरव अभिनव को भी तंत्र तथा अलंकार शास्त्र के इतिहास में प्राप्त है। इन्होंने रस सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक व्याख्या (अभिव्यंजनावाद) कर अलंकार शास्त्र को दर्शन के उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित किया तथा प्रत्यभिज्ञा और त्रिक दर्शनों को प्रौढ़ भाष्य प्रदान कर इन्हें तर्क की कसौटी पर व्यवस्थित किया। ये कोरे शुष्क तार्किक ही नहीं थे, प्रत्युत साधना जगत् के गुह्य रहस्यों के मर्मज्ञ साधक भी थे।

आचार्य अभिनव गुप्त के चिन्तन में भारतीय दर्शन की विभिन्न धाराएं आगम-निगम, योग-सौन्दर्य, ब्रम्ह-जगत, शैव-शाक्त सबके लिए जगह है। उनके चिन्तन में ब्रम्ह और जगत के बीच कोई अंतर नहीं है। वे जगत को ब्रम्ह का ही विस्तार मानते हैं। नैगमिक या निगम वेद अध्ययन की बात करते हैं तो आगम तंत्र साधना की बात करते हैं। दोनों धाराओं मेंं काल के प्रवाह के साथ अनेक प्रकार की धारओं का मिलन हुआ। ‘वे मानते हैं, वेद और तंत्र शब्दात्मक होने पर भी वस्तुत: एक ही ज्ञान की दो धाराएं हैं।’ अभिनवगुप्त तंत्र शास्त्र, साहित्य और दर्शन के प्रौढ़ आचार्य थे और इन तीनों विषयों पर इन्होंने 50 से ऊपर मौलिक ग्रंथों, टीकाओं तथा स्तोत्रों का निर्माण किया है। इनके सुदीर्घ जीवन को तीन काल विभागों में विभक्त किया जा सकता है-

(क) तान्त्रिक काल - जीवन के आरंभ में तंत्र को लेकर फैले भ्रम को तंत्रशास्त्रों का गहन अनुशीलन कर तथा उपलब्ध प्राचीन तंत्र ग्रंथों पर इन्होंने अद्धैतपरक व्याख्याएँ लिखकर उसका निवारण किया। क्रम, त्रिक तथा कुल तंत्रों का अभिनव ने अध्ययन कर ग्रंथों का निर्माण किया। इस युग की प्रधान रचनाएँ ये हैं- बोधपंचदशिका, मालिनीविजय कार्तिक, परात्रिंशिकाविवरण, तन्त्रालोक, तन्त्रसार, तंत्रोच्चय, तंत्रोवटधानिका। तंत्रालोकत्रिक तथा कुल तंत्रों का विशाल विश्वकोश ही है जिसमें तंत्रशास्त्र के सिद्धांतों, प्रक्रियाओं तथा तत्संबद्ध नाना मतों का पूर्ण, प्रामाणिक तथा प्रांजल विवेचन प्रस्तुत किया गया है। यह 37 परिच्छेदों में विभक्त विराट् ग्रंथराज है जिसमें बंध का कारण, मोक्षविषक नाना मत, प्रपंच का अभिव्यक्ति प्रकार तथा सत्ता, परमार्थ के साधक उपाय, मोक्ष के स्वरूप, शैवाचार की विविध प्रक्रिया आदि विषयों का सुंदर प्रामाणिक विवरण देकर अभिनव ने तंत्र के गंभीर तत्वों को वस्तुत: आलोकित कर दिया है।  

(ख) आलंकारिक काल - अभिनव गुप्त ने अलंकारग्रंथों का अनुशीलन तथा प्रणयन किया।  इससे संबद्ध तीन प्रौढ़ रचनाएं प्राप्त है- काव्य-कौतुक-विवरण, ध्वन्यालोकलोचन तथा अभिनवभारती। काव्यकौतुक अभिनव के नाट्यशास्त्र के गुरु भट्टतौत की अनुपलब्ध प्रख्यात कृति है, उपलब्ध नहीं। लोचन आनन्दवर्धन के ‘ध्वन्यालोक’ का प्रौढ़ व्याख्यान ग्रंथ है तथा अभिनव भारती, भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के पूर्ण ग्रंथ की पांडित्यपूर्ण प्रमेय बहुल व्याख्या है। यह नाट्यशास्त्र की एकमात्र टीका है।

(ग) दार्शनिक काल - अभिनवगुप्त ने परमत का तर्कपद्धति से खंडन और स्वमत का प्रौढ़ प्रतिपादन किया है।    भगवद्गीतार्थ संग्रह, परमार्थसार, ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिणी तथा ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विवृति-विमर्शिणी आदि उल्लेखनीय ग्रंथ हैं। अंतिम दोनें ग्रंथ अभिनवगुप्त के प्रौढ़ पांडित्य निकष हैं। ये उत्पलाचार्य द्वारा रचित ‘ईश्वरप्रत्यभज्ञ’ के व्याख्यान हैं।  

भारत की ज्ञान-परंपरा में आचार्य अभिनवगुप्त एवं कश्मीर की स्थिति को एक ‘संगम-तीर्थ’ के रुपक से बताया जा सकता है। जैसे कश्मीर (शारदा देश) संपूर्ण भारत का ‘सर्वज्ञ पीठ’ है, वैसे ही आचार्य अभिनव गुप्त संपूर्ण भारतवर्ष की सभी ज्ञान-विधाओं एवं साधनों की परंपराओं के सर्वोपरि समादृत आचार्य हैं। कश्मीर केवल शैवदर्शन की ही नहीं, अपितु बौद्ध, मीमांसक, नैयायिक, सिद्ध, तांत्रिक, सूफी आदि परंपराओं का भी संगम रहा है। आचार्य अभिनवगुप्त भी अद्वैत आगम एवं प्रत्यभिज्ञा दर्शन के प्रतिनिधि आचार्य तो हैं ही, साथ ही उनमें एक से अधिक ज्ञान-विधाओं का भी समाहार है। भारतीय ज्ञान दर्शन में यदि कहीं कोई ग्रंथि है, कोई पूर्व पक्ष और सिद्धांत पक्ष का निष्कर्ष विहीन वाद चला आ रहा है और यदि किसी ऐसे विषय पर आचार्य अभिनव गुप्त ने अपना मत प्रस्तुत किया हो तो वह ‘वाद’ स्वीकार करने योग्य निर्णय को प्राप्त कर लेता है। उदाहरण के लिए साहित्य में उनकी भरत मुनि कृत रस-सूत्र की व्याख्या देखी जा सकती है जिसे ‘अभिव्यक्तिवाद’ के नाम से जाना जाता है। भारतीय ज्ञान एवं साधना की अनेक धाराएं अभिनव गुप्तपादाचार्य के विराट् व्यक्तित्व में आ मिलती है और एक सशक्त धारा के रुप में आगे चल पड़ती है।

भगवान् पतञ्जलि की तरह आचार्य अभिनव गुप्त भी शेषावतार कहे जाते हैं। शेषनाग ज्ञान-संस्कृति के रक्षक हैं। अभिनव गुप्त के टीकाकार आचार्य जयरथ ने उन्हें ‘योगिनीभू’ कहा है। इस रुप में तो वे स्वयं ही शिव के अवतार के रुप में प्रतिष्ठित हैं। आचार्य अभिनव गुप्त के ज्ञान की प्रामाणिकता इस संदर्भ में है कि उन्होंने अपने काल के मूर्धन्य आचार्यों-गुरुओं से ज्ञान की कई विधाओं में शिक्षा-दीक्षा ली थी। उनके पितृवर श्री नरसिंह गुप्त उनके व्याकरण के गुरुथे। इसी प्रकार लक्ष्मण गुप्त प्रत्यभिज्ञा शास्त्र के तथा शंभुनाथ (जालंधर पीठ) उनके कौल-संप्रदाय साधना के गुरु थे। उन्होंने अपने ग्रंथों में अपने नौ गुरुओं का सादर उल्लेख किया है। भारतवर्ष के किसी एक आचार्य में विविध ज्ञान विधाओं का समाहार मिलना दुर्लभ है। यही स्थिति शारदा क्षेत्र काश्मीर की भी है। इस अकेले क्षेत्र से जितने आचार्य हुए हैं उतने देश के किसी अन्य क्षेत्र से नहीं हुए। जैसी गौरवशाली आचार्य अभिनव गुप्त की गुरु परम्परा रही है वैसी ही उनकी शिष्य परंपरा भी है। उनके प्रमुख शिष्यों में क्षेमराज , क्षेमेन्द्र एवं मधुराज योगी हैं। यही परंपरा सुभट दत्त (12वीं शताब्ती) जयरथ, शोभाकर-गुप्त महेश्वरानन्द (12वीं शताब्दी), भास्कर कंठ (18वीं शताब्दी) प्रभृति आचार्यों से होती हुई स्वामी लक्ष्मण जू तक आती है ।

दुर्भाग्यवश यह विशद एवं अमूल्य ज्ञान राशि इतिहास के घटनाक्रमों में धीरे-धीरे हाशिये पर चली गई।  यह केवल कश्मीर के घटनाक्रमों के कारण नहीं हुआ। चौदहवीं शताब्दी के अद्वैत वेदान्त के आचार्य सायण-माधव (माधवाचार्य) ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सर्वदर्शन संग्रह’ में सोलह दार्शनिक परम्पराओं का विनिवेचन शांकर-वेदांत की दृष्टि से किया है। आधुनिक विश्वविद्यालयीन पद्धति केवल षड्दर्शन तक ही भारतीय दर्शन का विस्तार मानती है और इन्हें ही आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन के द्वन्द्व-युद्ध के रूप में प्रस्तुत करती है। आगमोक्त दार्शनिक परम्पराएँ जिनमें शैव, शाक्त, पंचरात्र आदि हैं, वे कही विस्मृत होते चले गए। आज कश्मीर में कुछ एक कश्मीरी पंडित परिवारों को छोड़ दें, तो अभिनव गुप्त के नाम से भी लोग अपरिचित हैं। भारत को छोड़ पूरे विश्व में अभिनव गुप्त और काश्मीर दर्शन का अध्यापन आधुनिक काल में होता रहा है लेकिन कश्मीर विश्वविद्यालय में, उनके अपने वास-स्थान में उनकी अपनी उपलब्धियों को सजोनेवाला कोई नहीं है। काश्मीरी आचार्यों के अवदान के बिना भारतीय ज्ञान परंपरा का अध्ययन अपूर्ण और भ्रामक सिद्ध होगा। ऐसे कश्मीर और उनकी ज्ञान परंपरा के प्रति अज्ञान और उदासीनता कहीं से भी श्रेयस्कर नहीं है।

आचार्य अभिनवगुप्त ने अपने अस्सी वर्षों के सुदीर्घ जीवन को केवल तीन महत् लक्ष्यों के लिए समर्पित कर दिया-शिव भक्ति, ग्रंथ निर्माण एवं अध्यापन। उनके द्वारा रचित 42 ग्रंथ बताए जाते हैं, इनमें से केवल 20-22 ही उपलब्ध हो पाए हैं। शताधिक ऐसे आगम ग्रंथ हैं, जिनका उल्लेख-उद्धरण उनके ग्रंथों में तो है, लेकिन अब वे लुप्तप्राय हैं। अभिनवगुप्त के ग्रंथों की पांडुलिपियां दक्षिण में प्राप्त होती रही हैं, विशेषकर केरल राज्य में। उनके ग्रंथ संपूर्ण प्राचीन भारतवर्ष में आदर के साथ पढ़ाये जाते रहे थे।चौदहवीं शताब्दी के अद्वैत वेदान्त के आचार्य सायण -माधव (माधवाचार्य) ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सर्वदर्शन सङ्ग्रह’ में सोलह दार्शनिक परम्पराओं का विवेचन शांकर-वेदांत की दृष्टि से किया है। आधुनिक विश्वविद्यालयी पद्धति केवल षड्दर्शन तक ही भारतीय दर्शन का विस्तार मानती है और इन्हे ही आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन के द्वन्द्व-युद्ध के रूप में प्रस्तुत करती है। आगमोक्त दार्शनिक परम्पराएँ जिनमें शैव, शाक्त, पांचरात्र आदि हैं, वे कहीं विस्मृत होते चले गए।

80 वर्ष की अवस्था में जब उन्होंने महाप्रयाण किया तब उनके 10 हजार शिष्य काश्मीर में थे। श्रीनगर से गुलमर्ग जाने वाले मार्ग पर बडग़ाम के पास स्थित भैरव गुफा में अकेले प्रवेश कर उन्होंने सशरीर महाप्रयाण किया। वह गुफा भी आज उपेक्षित है और इसका अस्तित्व संरक्षित नहीं है। जिस महादेव गिरि के शिखरों पर अवतरित होकर स्वयं भगवान शिव ने आगमों का उपदेश किया, वे धवल शिखर संपूर्ण देश से आज भी अपनी प्रत्यभिज्ञा की आशा रखते हैं। प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है, स्वयं को विस्मृति के आवरणों से मुक्त कर स्वरूप को जानना, शिवोहं की प्रतीति। त्रिक अथवा प्रत्यभिज्ञा जैसे दर्शन की पुण्यभूमि है काश्मीर और प्रकारान्तर से ‘प्रत्यभिज्ञा’ हमारे देश का सबसे प्रासांगिक जीवन-दर्शन होना चाहिए। प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है, स्वयं को विस्मृति के आवरणों से मुक्त कर स्वरूप को जानना। हमें अपनी शक्तियों की प्रत्यभिज्ञा होनी ही चाहिए।

Monday, 13 July 2020

बदलती सत्ताएं और निष्ठा



बदलती सत्ताएं और निष्ठा

जैसे पञ्च तत्वों से इस शरीर का निर्माण होता है, उसी तरह पंच निष्ठाओं के पुंज को मनुष्य कहा जाता है। ये पंच निष्ठाएँ हैं, राष्ट्र-निष्ठा, जीव-निष्ठा, श्रम-निष्ठा, समय-निष्ठा और सत्य-निष्ठा। भारत की माटी पर इन पाँच तरह के सज्जनों की कभी भी कमी नहीं रही है। किन्तु इनके अन्दर की ‘राष्ट्रीय संगमनी’ को खोजने वाली ‘संगम दृष्टि’ जब-जब क्षीर्ण होती रही है, तब–तब न केवल समाज प्रभावित हुआ बल्कि राष्ट्रीय क्षति भी हुई है।

उसके बचने के दो आधार हैं- धर्म और संस्कृति । इन दोनों के आधार हमारे  जन और ऋषि रहे हैं। काल के प्रवाह में दोनों आधारों ने अपना स्वरुप बदला है। प्रायः यह कार्य अब शासन के हाथ में आ गया है।

मध्य प्रदेश के पिछले पंद्रह साल के शासन में (केवल पंद्रह महीने को छोड़ दे तो) सांस्कृतिक वातावरण का व्यापक विस्तार हुआ।

इस विषय को उठाने का कारण कल पोर्टब्लेयर से आया एक फ़ोन था जिसने न केवल मन को व्यथित किया, बल्कि पुराणी बातों को भी स्मरण करा गया जिसे शेयर कर रहा हूँ।

पंद्रह महीने पहले जब मैं साहित्य आकादमी भोपाल में निदेशक था तो एक तथाकथित कुलशील वरिष्ठ साहित्यकार की समाचार-पत्र पर कला-संस्कृति के कालम में टिप्पणी छपी थी। 

यद्यपि उस समय हमने तत्काल यह कहते हुए की यह चुके तथाकथित चिंतकों के पुरोधा की चुकी हुई टिप्पणी है, जो पुरस्कार लौटानेवालों के अगुआ महोदय हैं, अपनी सम्पादकीय टिप्पणी दी थी, तथापि यह आज फिर यहाँ कुछ अंशों के साथ आप से साझा कर रहा हूँ ।

स्पष्ट था कि यह साहित्यिक जगत के लिए राजनीतिक टिप्पणी थी। देशी लहजे में कहें तो खुंदक थी। फिर भी उस बहाने साक्षात्कार के पाठकों, स्वदेशी वैचारिकों, राष्ट्र-सर्वोपरि-मनीषियों से इसे सहभाग करने का एक उचित अवसर भी है, साथ ही टिप्पणीकारों की जमात के भ्रम निवारण का उचित समय भी, जो अपने को ‘गंगा जमुनी संगम दृष्टिपोषी’ मानते हैं।

अब जरा वरिष्ठ साहित्यकार की टिप्पणी के प्रमुख बिंदुओं का पुन:स्मरण कर लें और उनके इस पंद्रह माह की समीक्षा भी -
एक- मध्य प्रदेश कलाकारों का स्वर्ग रहा है, इसे बचाना होगा।
दो- इसे राजनीति से दूर रखना होगा। १९९० के पहले तक मध्य प्रदेश में कला और संस्कृति में राजनीति और सरकार का वैचारिक हस्तक्षेप नहीं जैसा था।
तीन- ‘साक्षात्कार’ जैसी पत्रिका को देखकर दुख होता है।
चौथा- भारत भवन में अज्ञात कुलशील लोग हैं।

उनके चारों आरोपों को समझने के पहले स्मरण कर लें जिस कालखण्ड को प्रदेश के कलाकारों का स्वर्ग कहा जा रहा है, वह कालखण्ड जाहिर है मध्यप्रदेश की स्व. पटवा सरकार के पहले का है ।

अब टिप्पणियों पर उत्तर समझें - पहली बात तो यह की भारतीय परम्परा में स्वर्ग में रहना बहुत अच्छा नहीं माना गया है। एक गीत की पंक्ति से समझना ठीक होगा- ‘तप तपस्या के सहारे इन्द्र बनना तो सरल है, किन्तु जग का ऐश्वर्य पाकर मद भुलाना ही कठिन है। साधना का पथ कठिन है।’

 साधना स्वर्ग में नहीं धरा पर होती है। जिस १९९० की परिस्थिति का उल्लेख किया जा रहा था, उस काल में महानुभाव को भारत भवन के आजीवन न्यासी सदस्य से हटा दिया गया था। तब से आज तक जब-जब महोदय के उनके प्रतिकूल विचारधारा की सरकार आती है तब – तब महानुभाव को भारत भवन में अज्ञात कुलशील लोग नजर आने लगे हैं, और राजनीतिक हस्तक्षेप भी।

 ‘साक्षात्कार’ को देखकर दु:ख हो रहा है, क्यों ? क्योंकि इसमें साहित्यकार तो छप रहें थे, किन्तु पुरस्कार लौटानेवालों की यह चारागाही स्वर्ग-भू छिन गई थी।  चूँकि उस सम्पादकीय में काफी तथ्यों को उजागर कर दिया गया था इसलिए यहाँ दुहराना उचित नहीं ।

किन्तु उनके विचरों को पिछले पंद्रह महीने की उनके अनुकूल सरकार पर नजर डाल कर इनके प्रमाण के साथ तथ्यों पर विचार करें-

एक – उनका सरकार पर हस्तक्षेप कितना था की मैं प्रतिनियुक्ति पर अकादमी में था और सत्ता में आते ही मात्र पंद्रह दिन के अंदर मुझें खंडवा, यह कह कर भेज दिया गया की ‘ये दीनदयाल वाले हैं ’ (एक पूर्व मुख्यमंत्री से अकादमी से हटाये जाने पर किसी के पूछने पर। साथ ही जिन दो तीन आकादमियों में (सिन्धी, मराठी और पञ्जबी) भी उनके विचार-चिंतन और कार्यप्रणाली से असहमत निदेशक थे, तत्काल हटा दिया गया। मुझे छोड़कर सभी अशासकीय व्यक्ति थे इसलिय उन्हें दंड स्वरुप उनके घर से दूर नहीं कर सके ।  

 दूसरा सभी अकादमियों के निदेशक पद पर पंद्रह महीने में किसी योग्य व्यक्ति की नियुक्ति न हो सकी बल्कि अपरोक्ष रूप से उन्हीं महोदय की शिष्य परम्परा के हाथ आ गई। 

महीने भर के अंदर साहित्य अकादमी के सभी पाठक मंच बदल दिए गए।

पुरस्कार की अकादमी की दीर्घ स्थापित परम्परा  ‘अलंकरण समारोह’ को न करके पुरस्कृत साहित्यकारों के घर जा कर राशि और प्रमाण-पत्र दिए गए।

 कल ही अंदमान से पुरस्कृत महानुभाव  का फोन आया (जिनके कारण टिप्पणी लिखनी पड़ी) की ‘राशी तो मिल गई प्रमाण-पत्र नहीं मिला’। सुन कर दुःख हुआ ।

साक्षात्कार की दुर्दशा करते हुए उसके मासिक अंक को त्रैमासिक संयुक्तांक  में बदल कर धुर वामपंथी अंक निकाल कर गुरु दाक्षिणा दी गई ।

 तात्पर्य यह की महोदय जिस हस्तक्षेप की बात कर रहे थे, वह पंद्रह महीने में ही दिख गया। 

जो साहित्य आकादमी पंद्रह वर्ष में देश में ही नहीं विदेशों में भी अपनी पहचान अनेक कार्यक्रमों और साहित्योत्स्व तथा साक्षात्कार के माध्यम से बनाई  थी, सब परदे के पीछे चली गई ।

 जहाँ तक भारत भवन का प्रश्र है वह केवल भारत भवन तक सीमित न होकर महोदय की पीड़ा की व्याप्ति निनौरा संवाद, उज्जयिनी महाकुंभ, विश्व हिन्दी सम्मेलन २०१०, लोकमंथन २०१६, शहीदों के स्मृति में किये जा रहे कार्य, लोक-कलाओं का लोक में बढ़ते व्याप की वह टीस थी, जिसे वे नहीं कर पाये थे।

मजे की बात यह है की पंद्रह महीने के पूर्व और पन्द्रह महीने बाद भी  उन्हीं की शिष्य परमपरा भारत भवन को नियंत्रित कर रही है । यह पिछले दस वर्षों के अन्त:कलह और महत्वाकांक्षा का परिणाम था ।

 अंतर यह था की पंद्रह महीने पहले के न्यासी सचिव और सदस्य,  शासन और प्रशासन ने मध्य प्रदेश को राष्ट्रचिन्तन का नैमिशारण्य बना दिया था तो  अब के न्यासी इन पंद्रह महीनो में हिंदुत्व विरोधी स्थापनायों में लगे थे । ये लिखित प्रमाण हैं।

इसलिए ध्यान आकर्षित करूँगा- संभवतः पंद्रह महीने में उनकी छटपटाहट को विराम मिला होगा ।

 वस्तुत: लोक-कला, संस्कृति, साहित्य को राष्ट्रीय अस्मिता के साथ जोडक़र विश्व कल्याण हेतु लोकाभिव्यक्ति होनी चाहिए। 
यह बात अलग है की पंद्रह महीने के पूर्व भी भारत भवन न तो अपना गैर-प्रशासनिक सचिव पा सका, न सभी अकादमियां निदेशक पा सकी थीं । स्वराज भवन तो सूना ही रहा। 

तीन महीने सरकार आने के बाद भी अभी भी विलम्ब का कारण सत्ता और उसके नियामक नियंता जाने।

 फिर भी अपेक्षा की जा सकती है की बदली परिस्थिति की  पुुन: लौटी सरकार संस्कृति विभाग और उसकी आकादमियों, भारत भवन, स्वराज भवन जैसी संस्थायों पर ध्यान देगी ।

थके स्वर से न तो सलाह लेने की आवश्यकता है न ही उलाहना सुनाने -सुनाने की । दोनों पक्षों को अच्छा है, कभी मिल बैठकर कल्याणकारी सुझाव (अपने – पराये के भेद से ऊपर उठकर ) दें, यदि नहीं दे सकते तो मौन होकर भूल-गलती के लिए पश्चाताप करना चाहिए।

अब न भारत भवन बिना सचिव के रहे और न अकादमियां । यही पञ्च निष्ठाओं - राष्ट्र-निष्ठा, जीव-निष्ठा, श्रम-निष्ठा, समय-निष्ठा और सत्य-निष्ठा का सन्देश है ।

Saturday, 11 July 2020

धर्म और संस्कृति (सूत्र)

                      
             धर्म और संस्कृति 

आस्तिक और नास्तिक मत से संबंधित है।

इसका सीधा अर्थ जैन, बौद्ध, इस्लाम और ईसाइयत मत (मतम्) से है।

धर्म मूलतः भारतीय शब्द है। जिसका संबंध धारणा से है।

दुनिया में रिलीजन और मत हुए हैं।

संप्रदाय मतों की शाखाएं हैं।

समुत्कर्ष और निह:श्रेयस धर्म के संबंध में हैं।

धर्म का प्रकटीकरण अध्यात्म से होता है।

भारत का अध्यात्म मोक्ष में समाप्त होता है।

इसीलिए पश्चिम और भारत के मृत्यु की धारणा में अंतर है।

सेमेटिक दर्शन में सुनवाई तक कब्र में प्रतीक्षा करनी होती है।

जबकि भारतीय दर्शन पूर्ण विराम ना मानकर जन्म का पूर्व चरण मानते हैं।

धर्म अनेक नहीं हैं। 

आपभी सहमत होंगे।

12/07/2020

Friday, 10 July 2020

shrikant ji ki kavitayen



shrikant kautilya <kautilya69@gmail.com>
Sun, Nov 25, 2018, 11:14 PM
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यह पुरस्कार, गल-हार, शाॅल,श्रीफल न हमारी हस्ती है।
माथे पर कुमकुम-अक्षत का, टीका न हमारी मस्ती है॥ 
फिर थाल आरती का क्यों है? हम धूल-धूसरित कंकर हैं
यह जय-जयकार चरण वन्दन की, प्रथा बहुत ही सस्ती है॥१॥
                                          
दायित्व बड़ा अधिकार मान, कुछ लोग पास में आते हैं।
हो खड़े व्यवस्थित बाजू में, फिर वे फोटो खिंचवाते हैं ॥
है चित्र खींचना प्रतिबन्धित, उनको बिल्कुल स्वीकार नहीं,
तस्वीर बड़ी करके उसकी, फिर दर्शनार्थ लगवाते हैं॥२॥

छाया-चित्र पत्र-अभिनंदन ये सुस्मृति चिन्ह लगे देखे।
फिर अनगिन धातु-पदक आले-अलमारी में हँसते देखे॥
यह किसकी अभिरुचि है न्यारी, यह किसकी लोक-एषणा है
जो व्यापक घोर प्रदर्शन-सा, सम्मानों का करते देखे॥३॥

यह यशोगान-जयगान-कीर्ति का वर्णन किसकी उत्कण्ठा ?
खुद आत्म-प्रशंसा का स्वभाव दुर्बल मानस की आशंका॥
कमजोरी दोष पूर्ण भारी, व्यक्तित्व विनाशक ज्वाला है,
है निश्चित राष्ट्र कार्य-बाधा, ये साध्य-साधनों की हन्ता॥४॥

किन्तु पक्ष में खड़े हुए, कुछ तर्क समर्थन करने वाले।
अनुचित अनेक गतिविधियों को, वे उचित सत्य कहने वाले॥ 
शंका है कुछ भी नया-नया,या रचनात्मक कर पायेंगे;
उलझे उसमें रह जाएंगेप्र-स्तुति अपनी सुनने वाले॥५॥

अपशब्द अनर्गल भाषा में, दुत्कार सदा सहते आये।
निन्दा-विरोध-आरोप प्रखर, छाया में हम रहते आये॥
हम लगे रहे हठधर्मी सेबाना यह राष्ट्र-धर्म का धर,
बस, संघ कार्य जीवन अपना, यह ध्यान सदा रखते आये॥६॥

सम्मान-प्रतिष्ठा भूख नहीं, ना दबी हुई आकांक्षा है।
यह मार्ग चयन इस हेतु नहीं, बस, माँ-पूजन की इच्छा है।
करना यदि हमें यही होता, उसके तो मार्ग बहुत होते;
तिल-तिल कर देश धर्म की बलि,यह संघ कार्य की शिक्षा है॥७॥

यह मान-प्रतिष्ठा-अभिनन्दन, स्वीकार नहीं, स्वीकार नहीं।
यह कृत्रिम है, अनपेक्षित भी,हमको इसका अधिकार नहीं॥
हम सदा स्वयं जलते आये, जलना कर्तव्य हमारा है;
जब तक मिलता माँ को जग में, सम्मान नहीं, सत्कार नहीं॥८॥

क्या दो-दो भुजा कटी जिसकी, उसको दिव्यांग कहेंगे हम ?
माता का मन्दिर खण्डित है, क्या पूजा आज करेंगे हम ?
जब तक सर्वाङ्ग भरत-भू हो, तब तक यह सतत् साधना है,
फिर उस अखण्ड जग-जननी को,नव नित्य सतत् अर्चेंगे हम॥९॥
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अमृत छलका, भू पर टपका, सत्कृपा गरुड़ भगवान की।
अमृत बूँदों पर कुम्भ सजें, ये सूझ सन्त-ऋषि ज्ञान की॥धृ॥

                                   यह भारत वर्ष महान की............          
 इतना विशाल मेला भू पर, अद्भुत वैशिष्ट्य  हमारा है ।
आमन्त्रण नहीं प्रतीक्षा से, आता जन-सागर  सारा  है ।
क्या महाकुम्भ केवल भारत ? भूमण्डल का शुभ-दर्शन है।
 आध्यात्म-तीर्थयात्रा-शुचिता-सौभाग्य-धन्यता का क्षण है। 
आध्यात्म देश का प्राण-बिन्दु,यह बात गर्व अभिमान की॥१॥  
    
                                  यह भारतवर्ष महान की........... 
जाति-पाँति लवलेश अगोचर, समरसता की अमर साधना।
भगवद्भक्ति पुण्य का अर्जन, जन-मन-भावन व्याप्त कामना।
बारह वर्ष अवधि का चक्कर, चारों कुम्भों का आयोजन।
अवन्तिका-नाशिक-माया में, फिर प्रयाग संगम अभियोजन। 
गंगा-गोदा-क्षिप्रा के तट, पावन घड़ियां सुस्नान की॥२॥

                                   यह भारतवर्ष महान की...........
धर्माचार्य-सन्त-ऋषि लाखों, कोटि-कोटि  मानस आवाहन।
चरण-वन्दना तापसियों की, करें प्राप्त जीवन सुख - पावन।
साधु-सन्त-बटु-जती सभी के, उपदेश ज्ञानमय श्रवण करें।
कुम्भ-स्नान ज्ञान से - जल से, पाकर जीवन-रस ग्रहण करें।
यह ज्ञान-सरित अविरल रस-धारा गूढ़ ज्ञान-विज्ञान की॥३॥

                                    यह भारतवर्ष महान की...........
एक और उद्देश्य कुम्भ का - मानव संस्कृति चिन्तन-मन्थन।
हो भविष्य का भारत ऐसा, बने मनुज निर्मल अति पावन।
उन्नत  से  उन्नततर  जीवन, गढ़े   श्रेष्ठता  आदर्शों    की।
विनिमय होता था विचार कारचना  होती सन्दर्शों  की।
तब  इन्हीं विमर्शों  से प्रगटित ये  गुरुता हिन्दुस्थान की॥४॥

                                    यह भारतवर्ष महान की...........
इन कुम्भों के कुछ रहस्य जो, सोच-समझ दर्शन से बाहर। 
उनसे ही आता है अनुभव, कुम्भों  का  आयोजक  ईश्वर। 
आते - जाते  दिख जाते  हैं, जनता और जनार्दन हमको।
लाखों नागा ,किन्तु, कुम्भ में, आते-जाते दिखते किसको ?
यह गिरि-कन्दर का भस्ममयी जग - राह भेद-विज्ञान की॥५॥

                                    यह भारतवर्ष महान की...........
यही भेद है, संस्कृति यह ही, यह ही वह भारत का जीवन।
मोहित जिस पर हुआ विश्व-मन,मोहक यह ही वह जग उपवन।
 त्याग सभी भौतिक आकर्षण, आते जहाँ वही वृन्दावन।
सबका संरक्षण-पोषण भी, करता आया यह नन्दन-वन।
उन कुम्भों की धरा भरत-भू ,जो कुम्भ-कथा सद्-ज्ञान की॥६॥
                                         यह भारतवर्ष महान की...........


shrikant kautilya <kautilya69@gmail.com>
Sun, Nov 25, 2018, 11:12 PM
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सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?
फिर, कष्टों की गणना कैसी ?॥धृ॥

सिर पर काँटों का ताज सजा,
कण्टक पथ ही अपनाया हो ।
क्षण-क्षण मानस में, चिन्तन में
नख-शिख तक ध्येय समाया हो॥
उस  ध्येय-मार्ग  के  राही  को,
भौतिक सुख की चिन्ता कैसी॥
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥१॥

जब कठिन मार्ग पर बढ़े कदम,
पग-पग  पर  कंकड़ - पत्थर हों।
बीहड़ता  कदम-कदम  रोके
गहरे  नाले - सरिता - सर हों ॥
साहस से बढ़ने  वालों को
बाधाओं  की  चिन्ता कैसी ?
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥२॥

सम्मुख प्रतिरोधक पवन बहे,
ओला-वृष्टी  घन - घोर  गिरे।
सूरज की आतप अग्नि  तपे,
ज्वालामुखियों का जोर घिरे॥ 
पर, कठिन-कर्म-पथ-पथिकों को,
सुविधाओं से ममता कैसी ?
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥३॥

पग-पग पर संकट के बादल,
पग-पग पर घन अँधियारा हो।
आकाश  भरा  तारों  से  हो,
या  सूरज  का  उजियारा  हो॥
अँधियारे  के  उस  राही  को,
उजियारों  की  चिन्ता  कैसी?
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥४॥

भौतिकता चमक-दमक भारी,
आकर्षण  मन को  खींच रहे।
धन-वैभव के, सुख के साधन,
सुखवादी  तन  को  सींच रहे॥ 
पर ध्येय - समर्पित  रचना के,
मन में  ये  भौतिकता  कैसी
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥५॥

कुछ  रंग-बिरंगे  पुष्पों  की
खिलती सुगन्धमय बगिया हो।
सज्जित आवास- महल भीतर,
कोमल मखमल की दुनिया हो॥
पर कण्टक पथ के राही को,
इन सेजों की चिन्ता कैसी ?
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥६॥

यदि लगे रहे हम भी केवल,
जगती के भोग-विलासों में।
आकांक्षा की प्रतिपूर्ति हेतु,
उद्योग अथक अभ्यासों में ॥
निःस्वार्थ साधना के मग में,
स्वारथ की प्रीति पली कैसी?
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥७॥

ये अष्ट-सिद्धियाँ युग-युग से,
अणिमा-महिमा-गरिमा-लघिमा।
फिर प्राप्ति और प्राकाम्य तथा,
ईशित्व-वशित्व बड़ी प्रतिमा ॥
इस कठिन परिश्रम के पथ पर,
आराम सरलता कब कैसी
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥८॥

पथ निर्जनता - अँधियार लिये,
गहरी  बीहड़ता  भार  लिये।
फिर ऊजड़ता-सा तिरस्कार
अपमानों का संसार लिये ॥
अद्भुत प्रसन्नता संकट में,
छा जाती वीर शिवा जैसी॥
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥९॥

चाहे जितने आकर्षण हों,
या पथ पर बिखरे कण्टक हों।
काले घन घोर निराशा के
छाये जितने भी संकट हों॥ 
राणा प्रताप के अनुचर हम,
हर संकट की ऐसी-तैसी॥
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥१०॥

हर संकट से लड़ सकते हैं,
हम सिंहों से भिड़ सकते हैं।
जिनको कहते हैं हम अपने,
उनसे कैसे लड़ सकते हैं ?
बस हुए पराजित अपनों से,
हर ममता की दुविधा ऐसी॥
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥११॥

अपनों से ही चित्तौड़ गया,
अपनों से ही दिल्ली भारी।
अपनों से ही बंगाल बीच,
प्लासी की जंग गई सारी॥
अपनों के कारण भारत की,
दुर्गति  हमने देखी  ऐसी॥
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥१२॥

अपनों ने साथ दिया होता,
अपनों ने प्यार किया होता।
टूटे-फूटे  हारे मन  पर ,
साहस संस्कार किया होता॥
सहयोग - सँभाल - सुसज्जा को
अपनी संस्कृति तरसी ऐसी॥
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥१३॥

भवितव्य समझ अब भी सँभलें,
अनुकूल बनें, खुद को बदलें।
फिर से न घटे इतिहास वही,
मन में पक्का निश्चय कर लें॥
देखेंगे भाग्य भरत-भू का,
सुस्थिति जैसी होगी वैसी॥
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥१४॥

अपनी उस प्रखर प्रतिज्ञा में,
हम पुण्य ध्येय  सुस्मरण करें।
अपने मन से अपने मन का,
जीतें रण को, जय वरण करें॥ 
फिर सुने विजय जय भारत की,
होगी वह  प्रलय-ध्वनि जैसी॥
सुख - साधन की चिन्ता कैसी ?॥१५॥