गाँधी और भाषा (भाग: चार)
१३/९/१९ (क्रमश:)
२१ जनवरी,१९१८ को गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को लिखे पत्र में उनकी हिन्दी के लिए भविष्य की इच्छा और चिंता दोनों हैं, वे लिखते हैं, ‘‘मैं मार्च में इन्दौर में होने वाले ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के अधिवेशन में अपने भाषण के लिए कुछ प्रश्रों पर विचारवान नेताओं के मत एकत्र करना चाहता हूँ, वे प्रश्र इस प्रकार हैं-
१. क्या हिन्दी अन्त:प्रान्तीय व्यवहार तथा अन्य राष्ट्रीय कार्रवाई के लिए उपयुक्त एकमात्र
सम्भव राष्ट्रीय भाषा नहीं है।
२. क्या हिन्दी काँग्रेस के आगामी अधिवेशन में मुख्यत: उपयोग में लाई जाने वाली भाषा न
होनी चाहिए।
३. क्या हमारे विद्यालयों और महाविद्यालयों मे ऊँची शिक्षा देशी भाषाओं के माध्यम से देना
वांछनीय और सम्भव नहीं है ?
४. और क्या हमें प्रारम्भिक शिक्षा के बाद अपने विद्यालयों में हिन्दी को अनिवार्य द्वितीय
भाषा नहीं बना देना चाहिए ?
मैं महसूस करता हूँ, कि यदि हमें जनसाधारण तक पहुँचना है और यदि राष्ट्रीय सेवकों को
सारे भारतवर्ष के जन साधारण से सम्पर्क करना है, तो उपर्युक्त प्रश्र तुरन्त हल किय जाने
चाहिए। ’’
मार्च १८, इन्दौर के भाषण में वे कहते हैं, ‘‘जैसे अंग्रेज अपनी मादरी जबान अंग्रेजी में ही बोलते और सर्वथा उसे ही व्यवहार में लाते हैं, वैस ही मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्रदान करें। हिन्दी सब समझते हैं। इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। .. .. साहित्य का प्रदेश भाषा की भूमि जानने पर ही निश्चित हो सकता है। यदि हिन्दी भाषा की भूमि सिर्फ उत्तर प्रांत की होगी, तो साहित्य का प्रदेश संकुचित रहेगा। यदि हिन्दी भाषा राष्ट्रीय भाषा होगी, तो साहित्य का विस्तार भी राष्ट्रीय होगा। जैसे भाषक वैसी भाषा। भाषा-सागर में स्नान करने के लिए पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण से पुनीत महात्मा आएंगे, तो सागर का महत्त्व स्नान करने वालों के अनुरूप होना चाहिए।
(उसी सभा में) ..सबसे कष्टदायी मामला द्रविड़ भाषाओं के लिए है। वहाँ तो कुछ प्रयत्न भी नहीं हुआ है। हिन्दी भाषा सिखाने वाले शिक्षकों को तैयार करना चाहिए। ऐसे शिक्षकों की बड़ी ही कमी है।’’
तब वे २५ मई, १९१८ को हनुमंत राव को पत्र लिखते हैं, ‘‘तुम हिन्दी का अध्ययन कर लोगे तो अपने काम का क्षेत्र व्यापक कर सकोगे। .. मैं नहीं जानता कि तुम्हारा इस ओर ध्यान गया है या नहीं, मेरा तो गया ही है। द्रविड़ों और अन्य भारतीयों के बीच लगभग न पटनेवाली खाई पड़ गयी है। निश्चय ही हिन्दी भाषा उसे पाटने वाला छोटे-से-छोटा और कारगर सेतु है। अंग्रेजी कभी उसको स्थान नहीं ले सकती। हिन्दी में कई ऐसी अवर्णनीय वस्तु है जिससे वह सीखने में आसान होती है। हिन्दी व्याकरण के साथ जितनी छूट ली जा सकती है, उतनी मैंने और किसी भाषा के व्याकरण के साथ ली जाती नहीं देखी। इसलिए मैं कहता हूँ कि राष्ट्रीय काम करने के लिए हिन्दी का ज्ञान नितान्त आवश्यक है।’’
स्वराज, स्वदेशी और राष्ट्रभाषा गाँधी के राष्ट्रीय जागरण के अंग थे। १६जून,१९२० को ‘यंग इण्डिया’ में वे क्या लिखते हैं जरा देखें, ‘‘मुझे पक्का विश्वास है कि किसी दिन हमारे द्रविड़ भाई-बहन गम्भीर भाव से हिन्दी का अध्ययन करने लगेंगे। आज अंग्रेजी भाषा पर अधिकार प्राप्त करने के लिए वे कितनी मेहनत करते हैं, उसका आठवाँ हिस्सा भी हिन्दी सीखने में करें, तो बाकी हिन्दुस्तान जो आज उनके लिए बन्द किताब की तरह है, उससे वे परिचित होंगे और हमारे साथ उनका ऐसा तादात्य स्थापित हो जाएगा जैसा पहले कभी न था।’’
१३/९/१९ (क्रमश:)
२१ जनवरी,१९१८ को गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को लिखे पत्र में उनकी हिन्दी के लिए भविष्य की इच्छा और चिंता दोनों हैं, वे लिखते हैं, ‘‘मैं मार्च में इन्दौर में होने वाले ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के अधिवेशन में अपने भाषण के लिए कुछ प्रश्रों पर विचारवान नेताओं के मत एकत्र करना चाहता हूँ, वे प्रश्र इस प्रकार हैं-
१. क्या हिन्दी अन्त:प्रान्तीय व्यवहार तथा अन्य राष्ट्रीय कार्रवाई के लिए उपयुक्त एकमात्र
सम्भव राष्ट्रीय भाषा नहीं है।
२. क्या हिन्दी काँग्रेस के आगामी अधिवेशन में मुख्यत: उपयोग में लाई जाने वाली भाषा न
होनी चाहिए।
३. क्या हमारे विद्यालयों और महाविद्यालयों मे ऊँची शिक्षा देशी भाषाओं के माध्यम से देना
वांछनीय और सम्भव नहीं है ?
४. और क्या हमें प्रारम्भिक शिक्षा के बाद अपने विद्यालयों में हिन्दी को अनिवार्य द्वितीय
भाषा नहीं बना देना चाहिए ?
मैं महसूस करता हूँ, कि यदि हमें जनसाधारण तक पहुँचना है और यदि राष्ट्रीय सेवकों को
सारे भारतवर्ष के जन साधारण से सम्पर्क करना है, तो उपर्युक्त प्रश्र तुरन्त हल किय जाने
चाहिए। ’’
मार्च १८, इन्दौर के भाषण में वे कहते हैं, ‘‘जैसे अंग्रेज अपनी मादरी जबान अंग्रेजी में ही बोलते और सर्वथा उसे ही व्यवहार में लाते हैं, वैस ही मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्रदान करें। हिन्दी सब समझते हैं। इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। .. .. साहित्य का प्रदेश भाषा की भूमि जानने पर ही निश्चित हो सकता है। यदि हिन्दी भाषा की भूमि सिर्फ उत्तर प्रांत की होगी, तो साहित्य का प्रदेश संकुचित रहेगा। यदि हिन्दी भाषा राष्ट्रीय भाषा होगी, तो साहित्य का विस्तार भी राष्ट्रीय होगा। जैसे भाषक वैसी भाषा। भाषा-सागर में स्नान करने के लिए पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण से पुनीत महात्मा आएंगे, तो सागर का महत्त्व स्नान करने वालों के अनुरूप होना चाहिए।
(उसी सभा में) ..सबसे कष्टदायी मामला द्रविड़ भाषाओं के लिए है। वहाँ तो कुछ प्रयत्न भी नहीं हुआ है। हिन्दी भाषा सिखाने वाले शिक्षकों को तैयार करना चाहिए। ऐसे शिक्षकों की बड़ी ही कमी है।’’
तब वे २५ मई, १९१८ को हनुमंत राव को पत्र लिखते हैं, ‘‘तुम हिन्दी का अध्ययन कर लोगे तो अपने काम का क्षेत्र व्यापक कर सकोगे। .. मैं नहीं जानता कि तुम्हारा इस ओर ध्यान गया है या नहीं, मेरा तो गया ही है। द्रविड़ों और अन्य भारतीयों के बीच लगभग न पटनेवाली खाई पड़ गयी है। निश्चय ही हिन्दी भाषा उसे पाटने वाला छोटे-से-छोटा और कारगर सेतु है। अंग्रेजी कभी उसको स्थान नहीं ले सकती। हिन्दी में कई ऐसी अवर्णनीय वस्तु है जिससे वह सीखने में आसान होती है। हिन्दी व्याकरण के साथ जितनी छूट ली जा सकती है, उतनी मैंने और किसी भाषा के व्याकरण के साथ ली जाती नहीं देखी। इसलिए मैं कहता हूँ कि राष्ट्रीय काम करने के लिए हिन्दी का ज्ञान नितान्त आवश्यक है।’’
स्वराज, स्वदेशी और राष्ट्रभाषा गाँधी के राष्ट्रीय जागरण के अंग थे। १६जून,१९२० को ‘यंग इण्डिया’ में वे क्या लिखते हैं जरा देखें, ‘‘मुझे पक्का विश्वास है कि किसी दिन हमारे द्रविड़ भाई-बहन गम्भीर भाव से हिन्दी का अध्ययन करने लगेंगे। आज अंग्रेजी भाषा पर अधिकार प्राप्त करने के लिए वे कितनी मेहनत करते हैं, उसका आठवाँ हिस्सा भी हिन्दी सीखने में करें, तो बाकी हिन्दुस्तान जो आज उनके लिए बन्द किताब की तरह है, उससे वे परिचित होंगे और हमारे साथ उनका ऐसा तादात्य स्थापित हो जाएगा जैसा पहले कभी न था।’’
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