Sunday, 15 September 2019

गांधी और लिपि (भाग ६)

गांधी और लिपि (भाग ६)

  ‘हिन्द स्वराज्य’ में (गांधी के शब्द), ‘‘सारे हिंदुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिन्दी ही होनी चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट होनी चाहिए। हिंदू-मुसलमानों के संबंध ठीक रहें, इसलिए हिन्दुस्तानियों को इन दोनों लिपियों को जान लेना जरूरी है। ऐसा होने से हम आपस के व्यवहार में अंग्रेजी को निकाल सकेंगे।’’
२ फरवरी, १९४२ में प्रकाशित हरिजन के आलेख का एक अंश, ‘‘जो लोग राष्ट्रभाषा के हिमायती हैं, उन्हें उसके हिन्दी और उर्दू दोनों रूप सीखने चाहिए। इन्हीें लोगों की कोशिश से हमें वह भाषा मिलेगी, जो सब की भाषा कहलाएगी। भाषा का जो रूप अधिक लोकप्रिय होगा और जिसे लोग, फिर वे हिन्दू हों या मुसलमान, ज्यादा समझ सकेंगे, वेशक वहीं राष्ट्रभाषा बनेगी। लेकिन अगर लोग मेरी तज़बीज़ को आमतौर पर अपना लें तो फिर न तो भाषा का सवाल रहेगा और न वह किसी राजनीतिक झगड़े की जड़ ही बन सकेगा।’’
२७ फरवरी,१९४५ वर्धा में ‘अखिल भारतीय हिन्दुस्तानी प्रचार-सभा’ का उद्वोधन भाषा नीति के मतभेदों / पक्षों को उजागर करता है, जरा इसे पढ़े, ‘‘श्री आनंद कौसल्यायन ने जो कहा, वह मैं समझा। वे दब-दबकर बोले हैं। हिन्दी साहित्य सम्मेलन की तरफ से उन्होंने यह कहा कि दो लिपियों का बोझ हो सके तो निकाल दिया जाए। मैं आज भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हूँ। उसमें मैं अपने-आप नहीं गया था। जमनालाल जी जिस काम में जाते, उसमें अपने साथ मुझे भी घसीट ले जाते थे। वे मुझे इन्दौर ले गए। वहाँ मैंने सम्मेलन को एक नई चीज दी। उसे सब हजम कर गए। मैंने कहा था- ‘हिन्दी वह जबान है, जिसे हिन्दू-मुसलमान दोनों बोलते हैं और जिसे लोग दोनों लिपियों में लिखते हैं। मेरा यह ठहराव मंजूर हो गया। मैंने उसे सम्मेलन के नियमों में शामिल कर दिया। बाद में फिर वह नियम बदल दिया गया, तो दूसरी बात है’, इसलिए अब अगर मैं सम्मेलन में से निकल जाऊँ तो मुझे दु:ख न होगा।’’
२२ फरवरी,१९४६ मद्रास (प्रार्थनासभा),‘‘कल तो मुझे आपसे निराशा हुई। मैंने टूटी-फूटी हिन्दुस्तानी में अपनी बात समझाने की कोशिश की, लेकिन असफल रहा। जब मैं हिन्दुस्तानी में बोला, तब स्वयं राजाजी भी मेरी बात को पूरी तरह नहीं समझ पाए। इस मामले में राजा जी दोशी न. १ हैं। वे आपको तमिल में संबोधित करते हैं, लेकिन जब वे मद्रास से बाहर जाते हैं, तब अंग्रेजी में बात करते हैं।  यदि समुद्र का पानी अपना खारापन छोड़ दे तो उसे सुस्वादु कहाँ से बनाया जाएगा? देश भर में राजा जी की प्रतिष्ठा अंग्रेजी के एक अच्छे वक्ता के रूप में है, लेकिन उन्होंने हिन्दुस्तानी नहीं सीखी है। मैं आप सब लोगों से यहाँ और इसी समय यह वचन (और आप केवल वचन देगें ही नहीं, बल्कि वचन का पालन करने की प्रतिज्ञा भी करेंगे) लेना चाहता हूँ कि आप सब लोग हिन्दुस्तानी सीखेंगे। क्या आपको देश की स्वाधीनता के लिए इतना थोड़ा-सा भी नहीं करना चाहिए ? क्या आप तमिलनाडु के दो करोड़ लोगों से अंग्रेजी सीखने की अपेक्षा करते हैं ? अथवा क्या आप शेष भारत से आशा रखते हैं कि वे लोग आपसे संभाषण करने के लिए आपकी चार भाषाओं में से एक भाषा सीखेगे ? मैं कहता हूँ कि हिन्दुस्तानी सीखना आपका कर्म है जो दक्षिण को उत्तर भारत से मिला देगी।’’ यहाँ गांधी जी की स्वाधीनता की चिंता थोड़ा हिन्दू-मुसलमान से हट कर है जिसका मौन संदेश भी है कि देश की एकता के लिए भारत की अन्यभाषाओं का अन्त:सम्बन्ध व्यवहार में आना आवश्यक है, तभी हमारी स्वाधीनता टिक सकेगी।
आगे देखें, ‘‘हममें कई ऐसे हैं, जो हिन्दी और उर्दू को मिलाने की कोशिश करते हैं। कोई कहते हैं- ‘इसकी क्या आवश्यकता है।’ मैं तो सच्ची डेमोक्रसी (जनतंत्र या जमहूरियत) चाहता हूँ। सिर्फ हाँ-में-हाँ मिलाने से ‘डेमोक्रेसी’ ‘हिपोक्रेसी’ (कपट) बन जाती है। इसलिए मैंने कहा कि सिर्फ हाँ-में-हाँ न मिलाइए, अपनी सच्ची राय बताइए।’ यहाँ हिन्दुस्तानी की चिंता है। विचारणीय यह है कि क्या गाँधी की यह बात ‘हाँ-में-हाँ न मिलाइए’ आज कोई मान रहा है? और क्या गांधी स्वयं के लिए ‘हाँ में हाँ’ मिलाना अच्छा नहीं मानते थे ? आखिर गांधी  और टंडन जी के मतभेद का कारण यही न था ? यदि टंडन जी गांधी की बात में ‘हाँ में हाँ’ स्वीकार कर लेते या टंडन जी की बात गांधी जी स्वीकार कर लेते तो क्या बिगड़ता? जी, हाँ गांंंंधी के हाँ करने में शायद कुछ नहीं बिगड़ता बल्कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में ताकत ही मिलती किन्तु यदि टंडन जी हाँ में हाँ मिला देते तो आज हिन्दी की जगह हिन्दुस्तानी राजभाषा होती इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। गांधी जी हिन्दुस्तानी पर अड़े रहे और टंडन जी जैसे अनेक हिन्दी प्रेमी हिन्दी पर। गाँधी जी तो संविधान के अंतिम होने के पहले ही चल बसे और हम आज तक राष्ट्रभाषा न पा सके। राष्ट्र के इस दर्द को कौन समझे ?
‘लिपि और हिन्दुस्तानी’ को लेकर गांधी जी के और श्री पुरुषोत्तमदास टंडन के विरोध उभर कर आ गये थे जिसे गांधी के शब्दों में (सं.गां.वां, खण्ड-८२,पृ.१०६)देखें, ‘‘टंडन जी मेरे मित्र हैं। मैं उन्हें प्यार करता हूँ। हम दोनों बहुत अर्से तक एक साथ रहे हैं। लेकिन अब इस प्रश्र पर हम एक दूसरे के मार्ग में बाधा नहीं बनते। खुद मैं तो गंगा और जमुना के मिलन के बाद सरस्वती के दर्शन करना चाहता हूँ।’’
 वास्तव में उस समय (१९३५ ई.) से लेकर आज तक गांधी जी के इस गंगा-जमुना संस्कृति पर दो फाड़ बना हुआ है। ध्यान रहे गांधी जी ने इसी बात को लेकर २५ जुलाई, १९४५ में ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ से भाषा-नीति के विरोध में त्यागपत्र दे दिया था, जिसे मंजूर भी कर लिया गया! २५ जुलाई, १९४५ को गाँधी जी ने जो तर्क दिया वह भी कुछ लोगों की नजरों में आज भी गांधी जी के दुराग्रह का संदेश देनेवाला है, ‘‘मेरे पास उर्दू खत आते हैं, हिन्दी आते हैं और गुजराती। सब पूछते हैं, मैं कैसे ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ में रह सकता हूँ और ‘हिन्दुस्तानी सभा’ में भी?
 वे कहते हैं, सम्मेलन की दृष्टि से हिन्दी राष्ट्रभाषा हो सकती है, जिसमें नागरी लिपि ही को राष्ट्रीय स्थान दिया जाता है, जबकि मेरी दृष्टि में नागरी और फारसी-अरबी (उर्दू की लिपि) लिपि को स्थान दिया जाता है, जो भाषा न फारसीमयी है न संस्कृतमयी है। जब मैं सम्मेलन की भाषा और नागरी लिपि को पूरा राष्ट्रीय स्थान नहीं देता हूँ, तब मुझे सम्मेलन में से हट जाना चाहिए। ऐसी दलील मुझे योग्य लगती है। इस हालत में क्या सम्मेलन से हटना मेरा फर्ज नहीं होता है? ऐसा करने से लोगों को दुविधा न रहेगी और मुझे पता चलेगा कि मैं कहाँ हूँ।’’
‘मैं कहाँ हूँ।’ अपने को तौलना और साफगोई की वकालत करना भी गांधी जी का एक दृष्टिकोण रहा होगा। दूसरा मुझे लगता है विभाजन की रेखा गांधी के आँखों के सामने नाच रही थी और उसे वे किसी भी तरह बचाना चाहते थे, जिसमें भाषा और लिपि भी एक माध्यम बने, शायद यही उनका हठ रहा होगा, खैर।
हिन्दी साहित्य सम्मेलन को वे राष्ट्रभाषा के प्रतिकूल मानते हुए कहते हैं, ‘‘पहले पहल जब  ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ में मैंने हिन्दी की व्याख्या की, तब उसका विरोध नहीं के बराबर था। विरोध कैसे शुरू हुआ, इसका इतिहास बड़ा करुणाजनक है। मैं उसे याद भी नहीं रखना चाहता। मैंने यहाँ तक कहा था कि ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ नाम ही राष्ट्रभाषा के प्रचार के लिए सूचक नहीं था, न आज भी है। लेकिन मैं साहित्य के प्रचार की दृष्टि से सदर नहीं बना था। स्व. भाई जमनालाल जी और दूसरे अनेक मित्रों ने मुझे बताया था कि नाम चाहे कुछ भी हो, उन लोगों का मन साहित्य में नहीं था। उनका दिल राष्ट्रभाषा में ही था और इसीलिए मैंने दक्षिण में राष्ट्रभाषा का प्रचार बड़े जोरो से किया।’ (१८ जनवरी,१९४८)
लिपि पर गांधी जी के मत से हम असहमत हो सकते हैं किन्तु यह भी देखना होगा कि यह बात गांधी तब उठा रहे हैं जब इस देश में रोमन लिपि भी अपनी उपस्थिति जता रही है। गांधी जी रोमन लिपि से कतई सहमत नहीं थे, ‘‘रोमन लिपि तो मात्र मुठ्ठी भर अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों की है, जबकि फारसी कारोड़ों हिन्दू मुसलमाना लिखते हैं।’’
३ जुलाइ,१९३७ को गांघी जी लिखते हैं, ‘‘रोमन लिपि न तो हिंदुस्तान की सामन्य लिपि हो सकती है और न होनी चाएि। यह प्रतियोगिता तो फारसी और देवनागरी के बीच ही हो सकती है और उसके अपने मौलिक गुणों को अलग रख दें तो भी देवनागरी ही सारे हिन्दुस्तान की सामान्य लिपि होनी चाहिए।’’
गांधी जी संस्कृत से निकली विभिन्न भाषाओं के लिए भी एक ही लिपि चाहते थे, (१५ अगस्त, १९३६ ‘हरिजन में) ‘‘जो अलग-अलग भाषाएं संंस्कृत से निकली हैं, या जिनका उसके साथ गहरा सम्बन्ध रहा है, पर जो जुदा-जुदा लिपियों में लिखी जाती हैं, उनकी एक ही लिपि होनी चाहिए और वह लिपि निस्संदेह देवनागरी ही है।’’
वर्तमान गृहमंत्री जी का हिन्दी को लेकर दिया वयान एक आशा की किरण हैं। कुछ विरोधी स्वर उभर रहे हैं किन्तु यहाँ गांधी जी के दृष्टिकोण को समझना और उसको बाहर लाना आवश्यक है, गांधी जी मानते हैं कि राष्ट्रीय भाषा हिन्दी मुस्लिम विरोधी नहीं है(११ नवम्बर,१९१७), ‘‘ मैं यह कहता आया हूँ कि राष्ट्रीय भाषा एक होनी चाहिए और वह हिन्दी होनी चाहिए। मैंने सुना है कि इस सम्बन्ध में कई मुसलमान बंधुओं के मन में गलतफहमी है। उनमें बहुतेरों का ख्याल है कि ‘हिन्दी होनी चाहिए’ यह कहकर मैं उर्दू का विरोध करता हूँ। हिन्दी भाषा से मेरा मतलव उस भाषा से हैं, जिसे उत्तर भारत में हिन्दू और मुसलमान दोनों बोलते हैं और जो नागरी तथा उर्दू लिपि में लिखी जाती है। उर्दू के लिए मेरेे मन में कोई द्वेष नहीं है। मेरी तो यह मान्यता है कि दोनों भाषाएं एक ही है। मेरे ख्याल से तो दोनों भाषाओं का गठन, दोनों का ढंग, संस्कृत और अरबी शब्दों के भेद को छोडक़र, एक ही प्रकार का है। मेरा झगड़ा तो अंग्ररेजी के विरुद्ध है। मुझे द्वेष उससे भी कोई नहीं है, परंतु अग्रेजी भाषा के माध्याम से हम अपनी जनता से घुलमिल नहीं सकते और उनके साथ एक रस होकर काम नहीं कर सकते। मेरे कहने का आशय इतना ही है। हिन्दी को आप हिन्दी कहें या हिन्दुस्तानी, मेरे लिए तो दोनों एक ही हैं। हमारा कर्तव्य यह है कि हम अपना राष्ट्रीय कार्य हिन्दी भाषा में करें, लिपि के संबंध में वह होगा कि हिन्दू बालक नागरी में लिखेगा और मुसलमान उर्दू में। इससे किसी प्रकार की भी हानि नहीं है। पर दोनों ही दोनों लिपि सीखेंगे। हमारे बीच हमें अपने कानों में हिन्दी के ही शब्द सुनाई दें-अंग्रेजी के नहीं। इतना ही नहीं, हमारी धारासभाओं में जो वाद-विवाद होता है वह भी हिन्दी में होना चाहिए। ऐसी स्थिति लाने के लिए मैं जीवन-भर प्रयत्न करूँगा।’’
आज जिस हिन्दी का उपयोग साहित्य और शिक्षा संस्थानों मे हो रहा है उसमें विश्व के विभिन्न भाषाओं के शब्द घुलमिल गये हैं। हिन्दी संस्कृत उद्भूत होने (कुछ लोग ऐसा नहीं मानते) के कारण उसमें शब्द निर्माण की ही नहीं तो शब्द शोधन की अद्भुत सामथ्र्य है। कमी है तो संवैधानिक दर्जा प्राप्त होने की। आज राजभाषा हिन्दी जिस तरह उपेक्षित है उसमें चिंता होनी चाहिए। गांधी की चिंता अंग्रेजी की ज्यादा है जो आज भी उतनी ही आवश्यक और चिंतनीय है। आज जो थोड़ा बहुत आवाज दक्षिण या अन्य की आ रही है वह वोट और सत्ता का भ्रम है। जो देश को कम दलों के लिए ज्यादा घातक है। लिपि का विविधता से हिन्दी को कोई फर्क नहीं पड़ता। जहाँ तक परिनिष्ठिति हिन्दी का प्रश्र है वह साहित्य में बनी हुई है। जिस देश में अवधारणा है कि प्रत्येक तेरह कोस में वानी बदल जाती है, वहाँ बोलियों और उपबोलियों के सन्दर्भ को ध्यान में रखना होगा।
यहाँ आपका ध्यान मैं इस ओर भी खींचना चाहता हँू कि लेख का आशय भी यह है कि जब बड़े लोगों के ‘विचार / अहम / मैं कहाँ हूँ / हाँ-में हाँ’ आदि पर अटक जाते हैं तब भारत जैसे ‘नित्य नूतन चिरपुरातन’ की अवधारणावाला देश अपनी ‘वाणी’ भी नहीं पाता है। आज इसे गांधी काल से सबक लेते हुए छोडऩा ही होगा। काल की यही माँग है।
ध्यान देना होगा कि भौगोलिक स्वतंत्रता (अखण्डता) के साथ भाषिक स्वतंत्रता अभी बाकी हैं। विश्वास है जिस तरह सत्तर सालों बाद कई सुधार हो रहें हैं तो यह राष्ट्रभाषा का विवाद भी एक नियति को प्राप्त होगा। इसमें गांधी की भूमिका को भी आने वाली पीढ़ी स्मरण रखेगी। वर्तमान गृहमंत्री जी का हिन्दी को लेकर दिया वयान एक आशा की किरण हैं।











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