Saturday, 14 September 2019

गाँधी और भाषा (भाग: दो)

गाँधी और भाषा (भाग: दो)

दूसरी बात कि ‘‘जब वेल्स जैसी उपेक्षित भाषा के उद्धार के लिए वहां के लोग प्रयत्न कर सकते हैं, तब भारतवासी भी क्यों नहीं अपनी भाषाओं के विकास के लिए प्रयत्नशील हों। अंग्रेजी शिक्षण को स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है।’’

वे हिन्द स्वराज में लिखते हैं, ‘‘हमें अपनी सभी भाषाओं को चमकाना चाहिए।.. जो अंग्रेजी पुस्तकें काम की हैं, हमें उनका अनुवाद करना होगा। बहुत शास्त्र सीखने का दम्भ और भ्रम हमें छोडऩा होगा। सबसे पहले धर्म नीति की ही शिक्षा दी जानी चाहिए।’’

२८/५/१९१० को ‘इंडियन ओपिनियन’ में शिक्षा में मातृभाषा का स्थान विषय पर कहते हैं, ‘‘भारतीय युवक संस्कार सम्पन्न भारतीय की भांति अपनी मातृभाषा पढ़ या बोल नहीं सकता तो उसे शर्म आनी चाहिए। भारतीय बच्चों और उनके माता पिताओं में अपनी भाषाएँ पढऩे के बारे में जो लापरवाही देखी जाती है, वह अक्षम्य है। इससे तो उनके मन में अपने राष्ट्र के प्रति रत्ती-भर भी अभिमान नहीं रहेगा।’’

१९/८/१९११ को ‘इंडियन ओपिनियन’ में क्या लिखते हैं, ‘‘हम लोगों में बच्चों को अंग्रेज बनाने की प्रवृत्ति पायी जाती है। मानो उन्हें शिक्षित करने का और साम्राज्य की सच्ची सेवा के योग्य बनाने का वही सबसे उत्तम तरीका है। हमारा ख्याल है कि समझदार से समझदार अंग्रेज भी यह नहीं चाहेगा कि हम अपनी राष्ट्रीय विशेषता अर्थात् परम्परागत प्राप्त शिक्षा और संस्कृति को छोड़ दें अथवा यह कि हम उनकी नकल किया करें। .. इसलिए जो अपनी मातृभाषा के प्रति-चाहे वह कितनी ही साधारण क्यों न हो-इतने लापरवाह हैं, वे एक विश्वव्यापी धार्मिक सिद्धांत को भूल जाने के खतरा मोल ले रहे हैं।’’

  ४ फरवरी, १९१६ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का उद्घाटन समारोह वक्तव्य (जहाँ गांधी जी को छोडक़र शेष लोगों ने अंग्रेजी में भाषण दिया था), ‘‘इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बोलना पड़े, यह अत्यन्त अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है। .. मुझे आशा है कि इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबन्ध किया जाएगा। हमारी भाषा हमारा ही प्रतिबिम्ब है और इसलिए यदि आप मुझसे यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्ति किये ही नहीं जा सकते तब तो हमारा संसार में उठ जाना ही अच्छा है। क्या कोई व्यक्ति स्वप्र में भी यह सोच सकता है कि अंग्रेजी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। (श्रोताओं की..नहीं..नहीं।) फिर राष्ट्र के पाँवों में यह बेड़ी किसलिए ? यदि हमें पिछले पचास वर्षों में देशी भाषाओं द्वारा शिक्षा दी गयी होती, तो आज हम किस स्थिति में होते। हमारे पास एक आजाद भारत होता, हमारे पास अपने शिक्षित आदमी होते जो अपनी ही भूमि में विदेशी जैसे न रहे होते, बल्कि जिनका बोलना जनता के हृदय पर प्रभाव डालता।’’

पूज्य बापू ने १५/१०/१९१७ को बिहार के भागलपुर शहर में छात्रों के एक सम्मेलन में अध्यक्ष पद से बोलते हुए कहा, ‘‘मातृभाषा का अनादर माँ के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अपमान करता है, वह स्वेदश भक्त कहलाने लायक नहीं है। बहुत से लोग ऐसा कहते सुने जाते हैं कि ‘हमारी भाषा में ऐसे शब्द नहीं, जिनमें हमारे ऊँचे विचार प्रकट नहीं किये जा सकते।’

गांधी जी कहते हैं, ‘‘जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाये जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं हो सकेगा। यह तो स्वयं सिद्ध है कि :
 १. सारी जनता को नये ज्ञान की जरूरत है।
 २. सारी जनता कभी अंग्रेजी नहीं समझ सकती।
 ३. यदि अंग्रेजी पढऩे वाला ही नया ज्ञान प्राप्त कर सकता है,तो सारी जनता को नया ज्ञान मिलना असम्भव है।’’

मातृभाषा और शिक्षा पर गांधी जी के क्या विचार थे, उनके भागलपुर के भाषण से समझें- ‘‘ मुझे अंग्रेजी भाषा से बैर नहीं है। इस भाषा का भंडार अटूट है। यह राजभाषा है और ज्ञान की निधि से भरी-पूरी है। फिर भी मेरी राय है कि हिन्दुस्तान के सब लोगों को इसे सीखने की जरूरत नहीं है। किन्तु इस बारे में मैं ज्यादा नहीं कहना चाहता। जो विद्यार्थी अंग्रेजी पढ़ रहे हैं और जब तक दूसरी योजना प्रचलित नहीं होती और राज्य की शालाओं में परिवर्तन नहीं होता, तब तक विद्यार्थियों के लिए दूसरा कोई उपाय नहीं। इसलिए मैं मातृभाषा के इस बड़े विषय को यही समाप्त कर देता हूँ। मैं केवल इतना ही प्रार्थना करूँगा कि आपस के व्यवहार में और जहाँ जहाँ हो सके वहाँ सब लोग मातृभाषा का ही उपयोग करें। और विद्यार्थियों के सिवा जो महाशय यहाँ आये हैं, वे मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का भगीरथ प्रयत्न करें।’’ (क्रमश:)

११सितम्बर,२०१९

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