Saturday, 14 September 2019

गाँधी और भाषा (भाग: तीन

गाँधी और भाषा (भाग: तीन)
१२/९/१९ (क्रमश:)

 २०/१०/१९१७ द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलन (भड़ौच) में मातृभाषा हो शिक्षा का माध्यम को लेकर दिया गया वक्तव्य, ‘‘यह बात सबको अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि इस दिशा में हमारा पहला काम है विचारपूर्वक शिक्षा का माध्यम निश्चित करना। इसके बिना और सब कोशिशें लगभग बेकर साबित हो सकती हैं। .. ..वैसे तो यह प्रश्र सारे भारत का है, किन्तु हर एक क्षेत्र अथवा प्रांत इस पर अपनी हद तक स्वतंत्र रूप से विचार कर सकता है। फिर भी ऐसा नहीं है कि जब तक भारत को सारे भाग एकमत न हो जाएं तब तक अकेला गुजरात आगे क दम बढ़ा ही नहीं सकता।’’

उनका मानना था कि ‘‘विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में दिमाग पर जो बोझ पड़ता है वह असह्य  है। वह बोझ हमारे बच्चे उठा तो सकते हैं, लेकिन उसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ती है। वे दूसरा बोझ उठाने के लायक नहीं रह जाते। इससे हमारे स्नातक अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और  कोरे नकलची बन जाते हैं। उनमें खोज करने की शक्ति, साहस, धीरज, वीरता, निर्भयता और अन्य गुण बहुत क्षीण हो जाते हैं। इससे हम नयी योजनाएँ नहीं बना सकते और यदि बनाते हैं तो उन्हें पूरा नहीं कर पाते। कुछ लोग, जिनमें उपर्युक्त गुण दिखाई देते हैं, अकाल ही काल के गाल में चले जाते हैं। ..हम मातृभाषी जगदीशचन्द्र बसु, प्रफुल्लचन्द्र राय को देखकर मोहान्ध हो जाते हैं। मुझे विश्वास है कि हमने पचास वर्ष तक मातृभाषा द्वारा शिक्षा पायी होती तो हममें इतने बसु और राय होते कि उन्हें देख कर हमें अचम्भा न होता।’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘माँ के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है। हम ऐसी शिक्षा के वशीभूत होकर मातृद्रोह करते हैं। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा देने से अन्य हानियाँ भी होती हैं। शिक्षित वर्ग और सामान्य जनता के बीच में अन्तर पड़ गया है। हम जनसाधारण को नहीं पहचानते। जनसाधारण हमें नहीं जानता। वे हमें साहब समझते हैं और हमसे डरते हैं। वे हम पर भरोसा नहीं करते। यदि यही स्थिति अधिक समय तक कायम रही तो एक दिन लार्ड कर्जन (जो १८९९-१९०५ तक भारत के वायसराय थे) का यह आरोप सही हो जाऐगा कि शिक्षित वर्ग जनसाधारण का प्रतिनिधि नहीं है।’’

२१/०४/१९२० को ‘यंग इण्डिया’ में गाँधी जी भाषा के पक्ष में ‘देशी भाषाओं का हित’ लेख में विदेशी विद्वान को उद्धृत करते हुए, ‘‘सेंट पॉल्स कैथिड्रल कॉलेज, कलकत्ता के प्रिंसिपल रेवनेंड डब्ल्यू. ई.एस.हालैंड अपनी गवाही में लिखते हैं कि ‘जापान ने अपनी भाषा के प्रयोग से एक ऐसी शिक्षा प्रणाली खड़ी कर दी है जिसका पाश्चात्य जगत सम्मान करता है।’’

‘हिन्द स्वराज्य’ में भाषा के प्रति उनके आग्रह को देखकर रोमांच होता है, ‘भारत की भाषा अंग्रेजी नहीं है, हिन्दी है। वह आपको सीखनी पड़ेगी।’
२० अक्टूबर,१९१७ में राष्ट्रभाषा के पक्ष में बड़े ही तार्किक ढंग से गांधी जी अपनी बात कहते हैं,
        ‘‘१. वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए।
   २. उस भाषा को ज्यादातर लोग बोलते हों।
   ३. उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और
            राजनीतिक कामकाज शक्य होना चाहिए।
      ४.  वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान होनी चाहिए।
      ५. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या अस्थायी स्थिति पर
       जोर न दिया जाए।’’

अंग्रेजी को वे इन पाँचों कसौटियों में खरा नहीं पाते। वे कहते हैं, ‘यह माने बिना काम चल ही नहीं सकता कि हिन्दी भाषा में ये सारे लक्षण मौजूद हैं। हिन्दी भाषा मैं उसे कहता हँू जिसे उत्तर में हिन्दू और मुसलमान बोलते हैं और देवनागरी या फारसी लिपि में लिखते हैं।’

११नवम्बर,१९१७ जरा गांँधी जी के आग्रह को समझने का प्रयत्न करें, ‘मैं कहता आया हूँ कि राष्ट्रीय भाषा एक होनी चाहिए और वह हिन्दी होनी चाहिए। हमारा कर्तव्य यह है कि हम अपना राष्ट्रीय कार्य हिन्दी भाषा में करें। हमारे बीच हम अपने कानों में हिन्दी के ही शब्द सुनाई दें, अंग्रेजी के नहीं। इतना ही नहीं, हमारी सभाओं में जो धारा प्रवाह वाद-विवाद होता है, वह भी हिन्दी में होना चाएि।  ऐसी स्थिति लाने के लिए मैं जीवनभर प्रयत्न करूँगा।’

३१ दिसम्बर कोलकाता विश्वद्यिालय में ‘‘देश सेवा करने के लिए उत्सुक सब हैं, परन्तु राष्ट्रसेवा तक तब सम्भव नहीं है जब तक कोई राष्ट्रभाषा न हो। दु:ख की बात है कि हमारे बंगाली भाई राष्ट्रभाषा का प्रयोग न करके राष्ट्रीय हत्या कर रहे हैं। इसके बिना देश की आम जनता के हृदयों तक नहीं पहुँचा जा सकता। इस अर्थ में बहुत लोगों के द्वारा हिन्दी को काम में लाया जाना मानवतावाद के क्षेत्र की बात हो जाती है।

कोलकाता में ही अखिल भारतीय समाज-सेवा-सम्मेलन में उनका भाषण, ‘पहली और सबसे बड़ी समाज-सेवा जो हम कर सकते हैं वह यह है कि हम इस स्थित से पीछे हटें, देशी भाषाओं को अपनायें, हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में उसके स्वाभाविक पद पर प्रतिष्ठित कर और सभी प्रांत अपना-अपना समस्त कार्य अपनी देशी भाषाओं में तथा राष्ट्र का कार्य हिंदी में प्रारम्भ कर दें।’’                              (क्रमश:)

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