कंकाल
समाज की वर्तमान विसंगतियों (हनीताप)
जयशंकर प्रसाद कृत कंकाल (1930) भारतीय समाज का यथार्थ
चित्रण प्रस्तुत करता है। कंकाल का अर्थ होता है- ‘अस्थि-पंजर का ढांचा’। ऊपर से स्वर्णिम दिखाई
देने वाला भारतीय समाज और इसकी सभी संस्थायें जब रूढ़ियों से ग्रसित हो जाती है तब
वे एक कंकाल ही तो हैं। कंकाल उपन्यास में प्रसाद जी इन्हीं मानवीय मूल्यों के
क्षरण को दिखाते हैं। इस उपन्यास का स्थान प्रयाग, काशी, हरिद्वार, मथुरा और वृन्दावन के
आसपास के क्षेत्र हैं।
प्रसादकालीन समाजिक परिस्थितियाँ– प्रत्येक लेखक अपनी
तात्कलीन परिस्थिति के आधार पर उसके कुरीतियों के सुधार और गुणों को बढ़ने के लिए ही साहित्य रचता है । सनातन
हिन्दू समाज इस्लाम के आक्रमण के बाद से निरंतर आडम्बरों से घिरता जा रहा था। धर्म
के नाम पर लोग पाखंडों में लिप्त दिखाई दे रहे थे। इस समाज में हिंदू धर्म धारक
अपने को श्रेष्ठ समझते थे। कुरीतियों का प्रभाव केवल सामान्य समाज पर ही नहीं तो
धर्म का आवरण ओढ़ने वाले साधु-संतों पर भी था । वे स्त्री विशेषत: विधवा स्त्री से
अवैध संतानें उत्पन्न करते थे।
इधर समाज में धर्म-परिवर्तन बड़े पैमाने पर हो
रहा था। इसाई संप्रदाय अपराध करके पश्चाताप को महत्व देते थे।
सामान्य और गरीब जनता को सेवा और शिक्षा के नाम पर धर्मपरिवर्तन कर रहे थे।
हिंदू धरम को माननेवाले गरीबों को दलित मन
लिया गया था। हिन्दुओं का यह बड़ा समुदाय गरीबी में जी रहा था। वह सम्पनों की जूठन
पर आश्रित था। समाज में स्त्री को मात्र भोग की वस्तु माना जाता था। बाल-विवाह
तत्कालीन समाज में प्रचलित था। जिस कारण बाल विधवायें थीं। विधवा स्त्री के लिये
कट्टर-नियम कानून बने हुए थे। तत्कालीन समाज में विभिन्न समाज सुधारकों का भी
प्रभाव था।
अच्छी बात यह थी की युवा वर्ग अपने समाज में
व्याप्त बुराईयों को समझ रहा था और शिक्षा को महत्व देते हुए धर्म के आडंबर को
तोड़ने की कोशिश कर रहा था। इस प्रकार कहा जा सकता है की प्रसादकालीन समाज एक
संक्रमण काल से गुजर रहा था। प्रसाद के इसी समाज का वर्णन हमें कंकाल में मिलता
है।
कहने में कोई संकोच नहीं की ‘कंकाल समाज की रूढ़िग्रत
धार्मिकता तथा थोथी नैतिकता पर बडा गहरा व्यंग्य है। ऊपरी सामाजिक व्यवस्था के
भीतर कितना भंयकर खोखलापन है, इसे ‘प्रसाद’ ने प्रत्यक्ष कर दिया है।
आदर्श-प्रधान निवृति-मूलक साधना के प्रति ‘प्रसाद’ ने पूर्ण अनास्था प्रकट की
है’।
कंकाल
के पत्र - कंकाल उपन्यास के सभी
पात्र किसी न किसी वर्ग को दर्शाते हैं। श्रीचंद व्यवसायी वर्ग का है। समाज के
कारण अपने प्रेम से अलग किशोरी अपनी चारित्रिक दुर्बलताओं को लिये हुए एक अमीर औरत
की स्थिति का चित्रण करती है। वह समाज में दिखावा करके यश कमाने वाले वर्ग की
प्रतिनिधि है। निरंजन ऐसा पात्र है जो परिवार की मनौती के फलस्वरूप साधु बन जाता
है। यमुना एक साधारण स्त्री है जो पुरूषों द्वारा शोषण का शिकार होती है। जूठ्न
पाने के लिये लड़ने वाले लोग दलित वर्ग से हैं। बाथम इसाई है। मंगल समाज सेवक है पर
शोषक है।
उपन्यास में श्रीचंद और किशोरी पति-पत्नी
हैं। वे संतान कामना का आशीर्वाद लेने के लिये निरंजन के पास आते हैं जो कि एक साधू
है और किशोरी का बाल सखा भी। दोनों का परिचय बढ़ता है। बालपन का प्रेम साधू और परे
स्त्री का बंधन तोड़ देती है। किशोरी उससे संतान उत्पन्न करती है और अपने पति से
अलग रहने लगती है। यहाँ किशोरी भारतीय नारी के उस रूप का चित्रण करती है जो अपने
प्रेम को द्वंद में जीती है और स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर सकती।
प्रसाद जी तत्कालीन भारतीय समाज में पवित्र कहलाये जाने वाली जगहों पर किस तरह के अनीतिपूर्ण काम किये जाते थे इसे धिकने का प्रयत्न करते हैं। विचारणीय विषय यह है की प्रसाद के लिए यह मनोरंजन का विषय नहीं बल्कि एक पीड़ा है जिसे वे उजागर का आनेवाली पीढ़ी को सचेत करते हैं।
निरंजन एक साधु है। उसे किशोरावस्था में उसके
माता-पिता ने एक बाबा को दे दिया था क्योंकि उसके जन्म के लिए ऐसी ही मनौती माँगी
गई थी। वह ब्रह्मचारी बन कर जीवन काटता है। किशोरी से वह ‘विजय’ और रामा से ‘यमुना’ का पिता बना। उस समाज में
प्रचलित था कि संतान आशीर्वाद से उत्पन्न होती है। इसलिये निरंजन के माता-पिता और
किशोरी-श्रीचंद सन्तान प्राप्ति के लिये साधुओं के पास जाते हैं। ऐसे ही तथाकथित
बाबा समाज की भोली-भाली जनता को उल्लू बना कर अपनी जेब गर्म करते हैं। कभी –कभी
लगता है रचनाकार आने वाले समय की आहात को भी पहचानता है, जिसे आज भी हम देख और
महसूस कर रहे है। उपन्यास की यही सफलता भी ।
कंकाल में तत्कालीन समाज में वेश्यावृत्ति का
भी रूप देखने को मिलता है। तीर्थ स्थान कैसे स्त्री के लिए अभिशाप बन जाता है यह
तारा के द्वारा समझा जाता सकता है। ‘‘तुम्हारे सामने जिस दुष्टा ने मुझे फँसाया था, वह स्त्रियों का व्यापार
करने वाली एक संस्था की कुटनी थी। मुझे ले जाकर उन सबों ने एक घर में रखा, जिसमें मेरी ही जैसी कई
अभागिनें थीं, परंतु उनमें सब मेरी जैसी
रोनेवाली न थीं। बहुत-सी स्वेच्छा से आयी थीं और कितनी ही कलंक लगने पर अपने
घरवालों से ही मेले में छोड़ दी गयी थीं”।
कलंक लगने का अर्थ स्त्री की यौन शुचिता खत्म
हो जाना है। भारतीय समाज पितृसत्तात्मक विचारों वाला है। यहाँ विवाह पूर्व संबंध
बनाने की मनाही है। मंगल कहता है- ‘‘यह स्त्री कुचरियों के फेर
में पड़ गयी थी; परन्तु इसकी पवित्रता में
कोई अंतर नहीं पड़ा”।
स्त्री की दुर्दशा का कारण समाज है- स्त्री की पवित्रता उसकी
देह है। तारा वेश्यालय में रही इसलिये अब वह घर में रखने योग्य नहीं है। उपन्यास
की यह घटना भारतीय समाज के यथार्थ को बताती है। यहाँ अनेक स्त्रियाँ समाज के
नियमों के कारण वेश्यावृत्ति में लिप्त होती हैं। भारतीय समाज में बाल-विवाह की
प्रथा काफी पुरानी है। यहाँ बच्चों को नासमझी की आयु में ब्याह दिया जाता है।
बाल-विवाह का दुष्परिणाम बाल-विधवा है। जो लड़की संसार को जानती तक नहीं वही विधवा
होकर उसके कठोर नियमों का पालन करने के लिए मजबूर हो जाती है। कंकाल में घंटी एक
बाल-विधवा है। वह समाज के कारण भले ही अपनी भावनाओं को दबाये पर उसकी भावनाएं मरती
नहीं हैं। घंटी ब्रज में अपनी चंचल मनोवृत्ति के कारण कुख्यात हुई। घंटी जैसी
बाल-विधवा को कुरीतियों से भरे भारतीय समाज में कहीं आशय नहीं था। वह कभी भीख
माँगती है तो कभी विभिन्न पुरुषों के आशय में रहती है। उसका कोई नहीं है पर वह
सबकी सम्पत्ति बन जाती है। कंकाल में तत्कालीन समाज में आ रहे बदलाव के फलस्वरूप
विधवा के पुनर्विवाह के प्रश्न को भी उठाया गया।
तत्कालीन समाज में अंधविश्वासों का बोलबाला
था। पुत्र की लालसा उनके अंधविश्वासों को प्रबलता देती है। यथा- ‘विधवा धनी थी उसको पुत्र
की बड़ी लालसा थी; पंरतु पति नहीं थे, पुनर्विवाह असंभव था। उसके
मन में किसी तरह यह बात बैठ गई कि बाबा जी अगर चाहेंगे तो यही पुत्री पुत्र बन
जायेगी’।
कंकाल उपन्यास में प्रसाद जी ने धर्म
परिवर्तन को भी चित्रित किया है। विभिन्न धर्मों के तथाकथित संरक्षक तत्कालीन समाज
में लोगों को बहलाकर, पाप-पुण्य के फेर में
उलझाकर धर्म परिवर्तन करवा रहे थे।कंकाल में जयशंकर प्रसाद हिंदु धर्म की आडम्बर
भरी नीतियों को सामने लाते हैं। उस समय समाज दलित और सवर्ण, गरीब-अमीर में बँटा हुआ
था। कुछ लोग धर्म के नाम पर धन लुटा रहे थे और कुछ खाने को भी तरस रहे थे। प्रसाद
भारतीय समाज की आडम्बर पूर्ण नीतियों पर व्यंग्य करते हैं। यथा- ‘‘जिन्हें आवश्यकता नहीं, उनको बिठाकर आदर से भोजन
कराया जाये, केवल इस आशा से कि परलोक
में वे पुण्य संचय का प्रमाण-पत्र देंगे, साक्षी देंगे, और इन्हें जिन्हें पेट ने
सता रखा है, जिनको भूख ने अधमरा बना
दिया है, जिनकी आवश्यकता नंगी होकर
वीभत्स नृत्य कर रही है-वे मनुष्य, कुत्तों के साथ जूठी
पत्तलों के लिये लड़े; यही तो तुम्हारे धर्म का
उदाहरण है’’।
समाज में कैसे गरीबी की एक जाति खड़ी हो जाती
है- ‘’दासियाँ जूठी पत्तल बाहर फेंक रही थी। ऊपर की छत से पूरी और
मिठाईयों के टुकड़ों से लदी हुई पत्तलें उछाल दी जाती थीं। नीचे कुछ अछूत डोम और
डोमनियाँ खड़ी थीं जिनके सिर पर टोकरियाँ थीं, हाथ में डण्डे थे जिनसे वे
कुत्तों को हटाते थे और आपस में मार-पीट, गाली-गलौच करते हुए उस
उच्छिष्ट की लूट मचा रहे थे-वे पुश्त-दर-पुश्त के भूखे’’।
प्रसाद जी के कंकाल में चित्रित सामाजिक
यथार्थ पर प्रेमचंद कहते हैं- ‘‘प्रसाद जी ने इस उपन्यास
में समकालीन सामाजिक समस्याओं को हल करने की चेष्टा की है और खूब की है ’
विजय भी विधवा घंटी से स्नेह रखता है पर वह
विवाह की बात स्वीकार नहीं करना चाहता। वह कहता है- “घंटी, जो कहते हैं अविवाहित जीवन
पाशव है, उच्छृंखल है, वे भ्रांत है। हृदय का सम्मिलन
ही तो ब्याह है। मैं सर्वस्व तुम्हें अर्पण करता हूँ और तुम मुझे। इसमं, किसी मध्यस्थ की आवश्यकता
क्यों – मंत्रों का महत्व कितना।”
सारांश- इस प्रकार 1930 में प्रकाशित ‘कंकाल’ तत्कालीन भारतीय समाज को
चित्रित करता है। उस समाज में परिवर्तन और कुरीतियों की जो लहर थी वह उपन्यास में
दिखाई देती है। कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी के यथार्थ
का उद्घाटन भी करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस
स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं। आकस्मिकता और कौतूहल
के साथ-साथ मानव मन के भीतरी पर्तों पर होने वाली हलचल इस उपन्यास को गहराई प्रदान
करती है। ह्रदय परिवर्तन और सेवा भावना स्वतंत्रताकालीन मूल्यों से जुड़कर इस
उपन्यास में संघर्ष और अनुकूलन को भी सामाजिक कल्याण की दृष्टि का माध्यम बना देते
हैं। उपन्यास अपने समय के राजनेताओं और स्वयंसेवकों के चरित्र और व्यव्हार के
माध्यम से समाज में व्याप्त दोहरी जीवन पारम्पर और सभ्यता को दर्शाते हैं।
प्रसाद मुख्यतया आदर्श की
भूमिका पर कार्य करने वाले रचनाकार हैं किंतु 'कंकाल' उनकी एक ऐसी कृति है
जिसमें पूर्णतया यथार्थ का आग्रह है। इस दृष्टि से उनका यह उपन्यास विशेष स्थान
रखता है।'कंकाल' में देश की सामाजिक और
धार्मिक स्थिति का अंकन है और अधिकांश पात्र इसी पीठिका में चित्रित किये गये हैं।
नायक विजय और नायिका तारा के माध्यम से प्रेम और विवाह जैसे प्रश्नों से लेकर
जाति-वर्ण तथा व्यक्ति-समाज जैसी समस्याओं पर लेखक ने विचार किया है।
इस उपन्यास की कथावस्तु मुख्यतया मध्यमवर्ग से सम्बन्ध रखती है और
समाज के पर्याप्त चित्रों को उभारा गया है जिनमें वर्तमान का एक सश्लिष्ट चित्र
प्रस्तुत हो सके। वेश्यालयों की स्थिति के साथ ही काशी, प्रयाग, हरिद्वार जैसे
तीर्थस्थानों के साधु-संतों का वर्णन एक विरोध प्रतीत होता है पर यथार्थ को
विस्तार देने की दृष्टि से ऐसा करना नितांत आवश्यक था। यथार्थ-सामाजिक यथार्थ को
उपन्यास में अंकित करने के लिए प्रसाद ने कहीं-कहीं व्यंग्य का आश्रय भी ग्रहण
किया है, जो उनकी प्रवृत्ति के अधिक अनुकूल नहीं, पर यथार्थ की सार्थकता तीखे व्यंग्य में ही होती है। 'कंकाल' में ऐसा समाज अंकित है जिसकी आधारभूमि हिल
गयी हो। पुरानी मान्यताएँ और विश्वास इसमें धराशायी हैं। बड़े कुलीन घरानों में
क्या हाल है, इसे नायक-नायिका के जीवन में देखा जा सकता है।
धर्म के ठेकेदार पादरी किसी युवती की परिस्थिति का लाभ उठाकर उसे प्रेमपाश में
आबद्ध करने की चेष्टा करते हैं, समाज में स्त्रियों की
स्थिति का संकेत करती हुई घण्टी एक स्थल पर कहती है-
"हिन्दू स्त्रियों का समाज ही कैसा है, इसमें उनके
लिए कोई अधिकार हो तब तो सोचना-विचारना चाहिए...।" .। इसी प्रकार यमुना कहती है -"कोई समाज
स्त्रियों का नहीं बहन! सब पुरुषों के हैं, स्त्रियों
का एक धर्म है,
आघात सहन करने की क्षमता..।"
कथाशिल्प की दृष्टि से 'कंकाल'
एक ऐसे रचनाकार की कृति है जो मुख्यतया कवि है। यथार्थ का
चित्रण होते हुए भी इसमें प्रसाद की भावुकता कहीं-कहीं झलकती है और लम्बे उद्धरणों में जहाँ
विचारों का क्रम है, यह अधिक स्पष्ट है। उपन्यास में घटनाओं की
संख्या अधिक है और कथाक्रम की सुन्दर योजना में कुछ बाधा पड़ती है। कुछ लोग इसे
प्रसाद की प्रचारात्मक दृष्टि कह सकते हैं, पर सामाजिक यथार्थ का विश्लेषण करने वाला लेखक अपने विचारों
को किसी न किसी प्रकार प्रकट करेगा ही। 'कंकाल'
की शक्ति उसका समाज-दर्शन है, जिसमें
निश्चित रूप से व्यक्ति की प्रतिष्ठा है पर व्यक्ति का यह स्वातंत्र्य सामाजिक
दायित्व तथा व्यापक मानवीयता पर आधारित है।
बीसवीं शती
में जो सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना देश में विकसित हुई है, उसका प्रभाव
कंकाल पर स्पष्ट है जो आज इक्कसवीं सदी में भी उतन ही प्रासंगिक है, यथा-‘‘समग्र संसार अपनी स्थिति रखने के लिए चंचल है, रोटी का प्रश्न सबके सामने
हैं, फिर भी मूर्ख हिन्दू अपनी पुरानी
असभ्यताओं का प्रदर्शन कराकर पुण्य-संचय किया चाहते हैं।’’ ‘‘जब संसार की अन्य जातियाँ
सार्वजनिक भ्रातृभाव और साम्यवाद को लेकर खड़ी हैं, तब आपके इन खिलौनों (मूर्तियों) से भला उनकी सन्तुष्टि होगी?’’ कहना न होगा कि करीब पचपन
वर्ष पूर्व इस उपन्यास के पृष्ठों में अंकित प्रसादजी के ये शब्द भारतीय समाज के
सन्दर्भ में आज भी प्रासंगिक है। संक्षेप में, उनका यह महत्त्वपूर्ण
उपन्यास धर्म के नाम पर होनेवाले शोषण और स्त्रिायों के प्रति अमानवीय व्यवहार को
गहन संवेदनशीलता से उद्घाटित करता है, धर्म-संस्थाओं, अन्धविश्वासों, कपटाचरण और भेदभाव के विरुद्ध कितने ही तीखे प्रश्न उठाता है या कहें कि
भारतीय समाज की सँड़ाध पर पड़ी राख को खुरचना है और कुछ इस कौशल से कि हमारा हृदय
लोकमंगल की भावना से भर उठता है-एक ऐसी आध्यात्मिकता से जो
हमें वास्तविक अर्थों में रूढ़िमुक्त करती है और युगीन सच्चाइयाँ हमारे भीतर आन्तरिक
वास्तव सहित उतरती चली जाती है।
सार्थक विवेचना।
ReplyDeleteआभार
Deleteउत्कृष्ट आलेख
ReplyDeleteआभार
ReplyDeleteकंकाल उपन्यास का बहुत सारगर्भित तथ्यपूर्ण और विस्तृत विश्लेषण है इस आलेख में ।
ReplyDeleteतत्कालीन समाजिक परिस्थितियों और तानों बानों पर लिखा प्रसाद जी का यह उपन्यास आज भी प्रासंगिक है ।
कृ.अपना नाम एवं मोबाइल नम्बर दें
Deleteज़बरदस्त। बधाई।
ReplyDeleteआभार
Delete'कंकाल' में वर्तमान के तत्वों को रेखांकित करते हुए इस उत्तम लेख के लिए बधाई 🙏
ReplyDeleteदुख है कि विसंगतियों में समाज की संलिप्तता आज भी जारी है...
सधा शब्द चयन,आपका गम्भीर लेखन सदैव धैर्य के साथ पढ़तीं हूँ। समाज में विसंगतियाँ सदैव रहीं हैं, वर्तमान के परिपेक्ष्य में कंकाल उपन्यास की सटीक एवं सारगर्भित समीक्षा ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDelete