हठ छोड़ संविधान
और गांधी की मंशा ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी’ को आत्मसात करें
डॉ उमेश कुमार
सिंह
केन्द्र की पहल पर नुक्ताचीनी करने वाले अपने
को गाँधी के साथ दक्षिण के संतों के आयने में देखें तो उन्हें ध्यान में आ जायेगा
कि भारत की भाषा के लिए पूर्वजों का क्या सपना था? आज देश 70 साल में भी हिन्दी भाषा को मान्यता नहीं दे पा रहा है? इसका कारण देश की
जनता नहीं उनके हठी और सत्ता-राजनीति के स्वार्थी नेता और प्रशासन के चिपकू व्यूरोक्रेट और टेक्रोक्रेट तथा छद्म
बुद्धिजीवी और अंग्रेजी के पालतू गुलाम हैं।
१५ सितम्बर के समाचार पत्रों, इलेक्ट्रानिक
मीडिया और सोसल मीडिया में कुछ लोग हिन्दी दिवस पर भारत सरकार के गृहमंत्री के
सीधे-साधे वयान पर छाती पीटते नजर आये। आखिर गृहमंत्री का वह वयान कौन सा है, देखें- “हमारे देश की सभी भाषाओं की व्यापकता और
समृद्धता विश्व की किसी भी भाषा से बहुत अधिक है। मैं देशवासियों से आह्वान करता
हूँ कि आप अपने बच्चों से, अपने सहकर्मियों से अपनी भाषा में बात कीजिए
क्योंकि अगर हम ही अपनी भाषाओं को छोड़ देंगे तो उन्हें लम्बे समय तक जीवित कैसे
रखा जायेगा। .. भारत की अनेक भाषाएं और बोलियाँ हमारी सबसे बड़ी ताकत हैं। लेकिन
देश की एक भाषा ऐसी हो, जिससे विदेशी भाषाएँ हमारे देश पर हावी ना हों इसलिए
हमारे संविधान निर्माताओं ने एकमत से हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकर किया।“
अब जरा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी का देशवासियों के नाम १४ सितम्बर का
संदेश भी देखें-“हिन्द दिवस पर आप सभी को बहुत-बहुत बधाई। भाषा की सरलता,सहजता और शालीनता
अभिव्यक्ति को सार्थकता प्रदान करती है। हिन्दी ने इन पहलुओं को खूबसूरती से
समाहित किया है।“
अब राजनेताओं की प्रतिक्रियाएँ-
‘अगर केंन्द्र ने एक तरफा रूप से हिन्दी थोपी तो न सिर्फ तमिलनाडु बल्कि बंगाल, कर्नाटक और
आंध्रप्रदेश जैसे राज्यों में इसकी प्रतिक्रिया (विपरीत) होगी और समर्थन नहीं
मिलेगा।’ - (के .पंडीराजन-तमिलनाडु, संस्कृति मंत्री)
‘हम लगातार हिन्दी को थोपे जाने का विरोध कर रहे हैं। अमित शाह की टिप्पणी से
हमें आघात पहुँचा है, यह देश की एकता को प्रभावित करेगा। हम माँग करते
हैं कि वह बयान वापस लें।’- (एम के स्टालित द्रमुक प्रमुख)
‘अगर भारत को सिर्फ हिन्दी का ही देश बनाना हैे तो सिर्फ हिन्दी भाषी राज्य ही
इसका हिस्सा होंगे। तमिलनाडु और पूर्वाेत्तर जैसे कई अन्य क्षेत्र इसका हिस्सा
नहीं होंगे।’- (वाइको एमडीएमके प्रमुख)
‘पहचान नहीं हो सकती.. हिन्दी को वैश्विक स्तर पर भारत की पहचान बनाने के लिए
अन्य भाषाओं की पहचान छीनने की कोशिश क्या निन्दनीय नहीं है?’- (एस रामदास पीएमके
प्रमुख)
‘ हिन्दी राष्ट्रभाषा है,यह झूठ बोला जाना
बंद होना चाहिए। सभी को पता होना चाहिए कि कन्नड़ की तरह यह भी भारत की २२
अधिकारिक भाषाओं में से एक है। झूठ बोलकर या गलत जानकारी देकर एक भाषा को बढ़ावा
नहीं दिया जा सकता।’- (सिद्धारमैंया, पूर्व सीएम कर्नाटक)
इसी प्रकार अनेक टिप्पणियाँ आईं जिनका विस्तार भय से जिक्र सम्भव नहीं। सभी
सुधीजनों ने पढ़ी ही होंगी।
१४ सितम्बर (हिन्दी दिवस) की दो खबर भोपाल की- एक ,‘प्रदेश निर्वाचन
आयोग ने हिन्दी को समय, धन नष्ट करने वाली भाषा बताया। निकाय चुनाव में
अभ्यार्थी आवेदन में अंग्रेजी में लिखेंगे अपना नाम।’ (यह खबर आर टी आई
से प्राप्त अजय दुबे के हवाले से आई है।) प्रश्र है जिस निकाय का आप चुनाव कराने
जा रहे हैं उसमें क्या सभी अंग्रेजी के जानने वाले हैं। यदि आप अगूठाछाप या केवल
हिन्दी के जानकार का फार्म अंग्रेजी में भरवायेंगे तो जाहिर है वह दूसरे द्वारा
भरा गया होगा और उसमें केवल उसके या तो अँगूठा लगा होगा या हिन्दी में हस्ताक्षर
किया होगा।
मुझे इस अवसर पर गांधी याद आ रहे हैं, १९/८/१९११ को “इंडियन ओपिनियन’ में क्या लिखते
हैं, ‘‘हम लोगों में बच्चों को अंग्रेज बनाने की प्रवृत्ति पायी जाती है। मानो उन्हें
शिक्षित करने का और साम्राज्य की सच्ची सेवा के योग्य बनाने का वही सबसे उत्तम
तरीका है। हमारा ख्याल है कि समझदार से समझदार अंग्रेज भी यह नहीं चाहेगा कि हम
अपनी राष्ट्रीय विशेषता अर्थात् परम्परागत प्राप्त शिक्षा और संस्कृति को छोड़ दें
अथवा यह कि हम उनकी नकल किया करें। .. इसलिए जो अपनी मातृभाषा के प्रति-चाहे वह
कितनी ही साधारण क्यों न हो-इतने लापरवाह हैं, वे एक विश्वव्यापी
धार्मिक सिद्धांत को भूल जाने के खतरा मोल ले रहे हैं।”
दूसरी समाचार, अटलबिहारी वाजपेयी विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में
बोलते हुए प्रदेश के मा. राज्यपाल महोदय ने हिन्दी विश्वद्यिालय को विशेष दर्जा
देने की सलाह दी जिसे वहां उपस्थित उच्च शिक्षा मंत्री ने तत्काल सरकार की ओर से
सहमति दे दी।
इस सुखद समाचार को जब हम आप से साझा कर रहे हैं तब भी हमें बापू ही याद आ रहे
हैं। उनके कूछ भाषणों / आलेख के अंशों को उद्धृत करना यहाँ समीचीन होगा।
गांधी जी कहते हैं, “जब तक हमारी
मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तक
वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाये जा सकते, तब तक राष्ट्र को
नया ज्ञान नहीं हो सकेगा। यह तो स्वयं सिद्ध है कि :
१. सारी जनता को
नये ज्ञान की जरूरत है।
२. सारी जनता कभी
अंग्रेजी नहीं समझ सकती।
३. यदि अंग्रेजी
पढऩे वाला ही नया ज्ञान प्राप्त कर सकता है,तो सारी जनता को
नया ज्ञान मिलना असम्भव है।”
“हिन्द स्वराज्य” में भाषा के प्रति उनके आग्रह को देखकर रोमांच
होता है, ‘भारत की भाषा अंग्रेजी नहीं है, हिन्दी है। वह
आपको सीखनी पड़ेगी।’
२० अक्टूबर,१९१७ में
राष्ट्रभाषा के पक्ष में बड़े ही तार्किक ढंग से गांधी जी अपनी बात कहते हैं,
१. वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी
चाहिए।
२. उस भाषा को
ज्यादातर लोग बोलते हों।
३. उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और
राजनीतिक
कामकाज शक्य होना चाहिए।
४.
वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान होनी चाहिए।
५. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या
अस्थायी स्थिति पर जोर न
दिया जाए।”
अंग्रेजी को वे इन पाँचों कसौटियों में खरा नहीं पाते।
३१ दिसम्बर कोलकाता विश्वद्यिालय में ‘‘देश सेवा करने के लिए उत्सुक सब हैं, परन्तु राष्ट्रसेवा
तक तब सम्भव नहीं है जब तक कोई राष्ट्रभाषा न हो। दु:ख की बात है कि हमारे बंगाली
भाई राष्ट्रभाषा का प्रयोग न करके राष्ट्रीय हत्या कर रहे हैं। इसके बिना देश की
आम जनता के हृदयों तक नहीं पहुँचा जा सकता। इस अर्थ में बहुत लोगों के द्वारा
हिन्दी को काम में लाया जाना मानवतावाद के क्षेत्र की बात हो जाती है। यह तो बात
शिक्षा जगत के लिए रही।
अब जरा नेताओं, समाजसेवकों से राष्ट्रभाषा की गांधी की अपेक्षा को
समझे, कोलकाता में ही
अखिल भारतीय समाज-सेवा-सम्मेलन में उनका भाषण, “पहली और सबसे
बड़ी समाज-सेवा जो हम कर सकते हैं वह यह है कि हम इस स्थित से पीछे हटें, देशी भाषाओं को
अपनायें, हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में उसके स्वाभाविक पद पर प्रतिष्ठित कर और
सभी प्रांत अपना-अपना समस्त कार्य अपनी देशी भाषाओं में तथा राष्ट्र का कार्य
हिंदी में प्रारम्भ कर दें।”
इन उत्तर
से लेकर दक्षिण भारतीय विभिन्न भाषा-भाषी नेताओं, समाजसुधारकों और
व्यूरोक्रेट़स के लिए उस संत का और क्या अपेक्षा हो सकती है?
स्मरण रखें देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने कोई अपना एजेण्डा देश के
सामने नहीं रखा है, बल्कि वे उसी बात का आग्रह कर रहे हैं जिसे गांधी, रवीन्द्रनाथ जी से
कह रहे हैं। यह उनके मन की नहीं देश के अन्तरात्मा की आवाज थी। २१ जनवरी,१९१८ को गुरुदेव
रवीन्द्रनाथ ठाकुर को लिखे पत्र में उनकी हिन्दी के लिए भविष्य की इच्छा और चिंता
दोनों हैं, बापू लिखते हैं, मैं मार्च में
इन्दौर में होने वाले “हिन्दी साहित्य सम्मेलन” के अधिवेशन में
अपने भाषण के लिए कुछ प्रश्रों पर विचारवान नेताओं के मत एकत्र करना चाहता हूँ, वे प्रश्र इस
प्रकार हैं-
१. क्या हिन्दी
अन्त:प्रान्तीय व्यवहार तथा अन्य राष्ट्रीय कार्रवाई के लिए उपयुक्त एकमात्र
सम्भव राष्ट्रीय भाषा नहीं है।
२. क्या हिन्दी
काँग्रेस के आगामी अधिवेशन में मुख्यत: उपयोग में लाई जाने वाली भाषा न
होनी चाहिए।
३. क्या हमारे
विद्यालयों और महाविद्यालयों में ऊँची शिक्षा देशी भाषाओं के माध्यम से देना
वांछनीय और सम्भव नहीं है ?
४. और क्या हमें
प्रारम्भिक शिक्षा के बाद अपने विद्यालयों में हिन्दी को अनिवार्य द्वितीय भाषा
नहीं बना देना चाहिए ?
मैं महसूस करता हूँ, कि यदि हमें जनसाधारण तक पहुँचना है और यदि
राष्ट्रीय सेवकों को सारे भारतवर्ष के जन साधारण से सम्पर्क करना है, तो उपर्युक्त प्रश्र
तुरन्त हल किय जाने चाहिए।”
दक्षिण भारत के क्षेत्रीय नेताओं / तथाकथित बुद्धिजीवियों को गृहमंत्री के
वयान पर प्रतिक्रिया देने वाले को गांधी जी की दक्षिण से अपेक्षा को समझना चाहिए-
वे २५ मई, १९१८ को हनुमंत राव को पत्र लिखते हैं, “तुम हिन्दी का
अध्ययन कर लोगे तो अपने काम का क्षेत्र व्यापक कर सकोगे। .. मैं नहीं जानता कि
तुम्हारा इस ओर ध्यान गया है या नहीं, मेरा तो गया ही है। द्रविड़ों और अन्य भारतीयों के
बीच लगभग न पटनेवाली खाई पड़ गयी है। निश्चय ही हिन्दी भाषा उसे पाटने वाला
छोटे-से-छोटा और कारगर सेतु है। अंग्रेजी कभी उसको स्थान नहीं ले सकती। हिन्दी में
कई ऐसी अवर्णनीय वस्तु है जिससे वह सीखने में आसान होती है। हिन्दी व्याकरण के साथ
जितनी छूट ली जा सकती है, उतनी मैंने और किसी भाषा के व्याकरण के साथ ली
जाती नहीं देखी। इसलिए मैं कहता हूँ कि राष्ट्रीय काम करने के लिए हिन्दी का ज्ञान
नितान्त आवश्यक है।”
२२ जनवरी, १९२१ “जो बात मैं जोर देकर आपसे कहना चाहता हूँ वह
यह कि आप सबकी एक सामान्य भाषा होनी चाहिए, सभी भारतीयों की एक सामान्य भाषा होनी चाहिए, ताकि वे भारत के
जिस हिस्से में भी जाएँ, वहाँ के लोगों से बातचीत कर सकें। इसके लिए आपको
हिन्दी अपनाना चाहिए।”
२३ मार्च,१९२१ विजयनगर, “हिन्दी पढऩा
इसलिए जरूरी है कि उससे देश में भाईचारे की भावना पनपती है। हिन्दी को देश की
राष्ट्रभाषा बना देना चाहिए। हिन्दी आम जनता की भाषा होनी चाहिए। आप चाहते हैं कि
हमारा राष्ट्र एक ओर संगठित हो, इसलिए आपको प्रान्तीयता के अभियान को छोड़ देना
चाहिए। हिन्दी तीन ही महीनों में सीखी जा सकती है।”
‘यंग इण्डिया’ नवम्बर १०,१९२१ “हिन्दी के भावनात्मक अथवा राष्ट्रीय महत्त्व
की बात छोड़ दें, तो भी यह दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक महत्त्वपूर्ण होता
जा रहा है कि तमाम राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को हिन्दी सीख लेनी चाहिए और राष्ट्र की
तमाम कार्यवाही हिन्दी में ही की जानी चाहिए।”
२४ मार्च,१९२५ मद्रास, “मेरी राय में
भारत में सच्ची राष्ट्रीयता के विकास के लिए हिन्दी का प्रचार एक जरूरी बात है, विषेष रूप से
इसलिए कि हमें उस राष्ट्रीयता को आम जनता के अनुरूप साँचे में ढालना है।”
२१ दिसम्बर, १९३३ पैराम्बदूर
की मजदूर-सभा में, “साथी मजदूरो, यदि आप सारे भारत
के मजदूरों के दु:ख सुख को बाँटना चाहते हैं, उनके साथ
तादात्म्य् स्थापित करना चाहते हैं, तो आपको हिन्दी सीख लेनी चाहिए, जब तक आप ऐसा नहीं
करते, तब तक उत्तर और
दक्षिण में कोई मेल नहीं हो सकता।”
राजगोपालाचारी मद्रास प्रान्त के मुख्यमंत्री के नाते १९३७ में मद्रास में
स्कूलों में हिन्दी पढ़ाई जाना अनिवार्य की तो ‘मातृभाषा खतरे में
है’ के नाम पर आन्दोलन
शुरु हो गया तब गांधी जी राजा साहब के पक्ष में उतर आये, १०/९/१९३८ (हरिजन)
में, “ हमने बार-बार घोषणा की है कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा या
प्रान्तों के आपसी व्यवहार की सामान्य भाषा है या होनी है , यदि हमारी इस
घोषणा के पीछे ईमानदारी है, तो हिन्दी के ज्ञान को अनिवार्य बनाने में बुराई
कहाँ है ? ‘मातृभाषा खतरे में है’ यह नारा या तो
अज्ञान रूप है या एक पाखंड है और जहाँ इसके पीछे ईमानदारी है, वहाँ भी उन लोगों
की देशभक्ति के लिए अपवादमय चीज है।.. .. यदि हमें अखिल भारतीय राष्ट्रीयता के
धर्म तक पहुँचना है, तो प्रान्तीयता के आचरण को भेदना होगा। भारत एक
देश और एक राष्ट्र है अथवा अनेक देश और अनेक राष्ट्र ? जो मानते हों कि
यह एक देश है उन्हें राजाजी को अपना पूरा समर्थन देना चाहिए।“
इसके अतिरिक्त अब
जरा विचार करें, यदि हमें सुब्रह्मण्यम् भारती को पढऩा है, तो उनकी पुस्तकें-
वाचालि सपथम्, कुयिलु पट्टु, कण्णन पाट्टु, और ज्ञानरथ को
कैसे पढ़ें? हमें अंग्रेजी नहीं आती तो कम-से कम हिन्दी अनुवाद
तो सारा देश पढ़ सकता है?
महर्षि रमण
तमिलनाडु के मदुरै शहर में जन्में। जरा उनके जीवन को समझें। रमण सोलह वर्ष के थे
तभी उनके चाचा के यहाँ ‘तिरूवन्नमलाई’ से एक अतिथि
पधारे। वैंकटरमण ने पूछा यह गाँव कहाँ है? अतिथि ने बताया अरुणाचल में। सहसा रमण का ध्यान
कुलोतुग के ‘पेरिसपुरण’ की तमिल कविताओं में पढ़ी कविताओं के कारण शैव
संतों के विचारों ने रमण के मन-बुद्धि को झकझोर डाला। ‘क्या मेरा भी सपना सच होगा, मैं भी उन संतों
के समान बन सकूँगा।’
रमण के सम्पूर्ण
जीवन को समझने के लिए यदि हमें तमिल और अंग्रेजी नहीं आती तो उनकी पुस्तक ‘चालीस कविताएँ’ को हिन्दी न होती
तो हम कैसे पढ़ पाते। आखिर कैसे उनके श्रेष्ठ आध्यात्मिक जीवन को समझ पाते। और यदि
रमण को हम केवल तमिल या अंग्रेजी तक ही सीमितकर लें और उन्हें भी यदि संस्कृत भाषा
का ज्ञान नहीं होता तो आखिर तमिलभाषिओं को
शंकराचार्य की ‘ विवेक चूणामणि‘ का तमिल में आनन्द
कैसे मिलता ?
हम क्यों
भूल जाते हैं कि आज सारा देश यदि श्रीनिवास रामानुजम को स्मरण कर पा रहा है तो
केवल तमिल के कारण नहीं तो हिन्दी का उसमें बड़ा योगदान है। इसी तरह क्या दक्षिण
भारतीय केवल अपनी भाषा बोध के कारण महर्षि अरविन्द, रवीन्द्र नाथ टैगोर, बंकिमचन्द्र, प्रसाद, प्रेमचन्द को समझ
सकते थे? रामानुजाचार्य, तिरुवल्लुवर, बल्लभाचार्य
(तेलुगु), नायन्मार संतों को सारा देश कैसे समझ पाता?भारतीय संविधान की
आंठवी अनुसूची की सभी भाषाओं का ही नहीं तो बोलिओं और उपबोलियों का भी मनुष्य जीवन
के निर्माण में अतुलनीय भूमिका है।
रवीन्द्र नाथ टैगोर, की कविता का
हिन्दी अनुवाद -
“इस धरा पर वह
महान आत्मा उतर रही है
तो घासों की पत्तियाँ, सिहर-सिहर उठती
हैं इस संभावना में
स्वर्ग में नगाड़े बजने लगते हैं..
काली रात का दुर्ग धूल में मिल जाता है
और फैल जाता है, भोर का उजाला
एक नए जीवन का आश्वासन ‘कोई भय नहीं’
और आकाश
में प्रतिध्वनित होने लगता है यह मंत्र
एक नए मान की विजय का हो रहा है आगमन।”
तमिलनाडु के तिरुवल्लुवर की कृति ‘तिरुक्कुलरल’ को हम कैस पढ़ सकते थे यदि
हिन्दी अनुवाद हमारे समाने न होता। उनके छंदों के कुछ हिन्दी अनुवाद पढऩा आवश्यक
है- ‘जैसे पानी जिस
मिट्टी में वो बहता है उसके अनुसार बदलता है, इसी प्रकार
व्यक्ति अपने मिलने वालों के चरित्र को आत्मसात करता है।.. यहाँ तक की उत्तम पुरुष जो मन की पूरी अच्छाई रखत है वह भी
पवित्र संग से और मजबू होता है।’
यदि हिन्दी नहीं होती और हिन्दी प्रेमी को तमिल
और बंगला नहीं आती होती तो क्या देश बंगला और तमिल के इस अनुवाद का रसास्वादन पा
सकता है? क्या इस संदेश को हमारे नेता/ ब्यूरोक्रेट्स/
टेक्रोक्रेट्स/ वामपंथी/ प्रगतिशील (जिनकी रोटी-रोजी ही हिन्दी और अनुवाद पर चल रही
है) समझ सकेंगे।
रवीन्द्रनाथ की एक अनुदूति कविता और तिरुवल्लुवर के दो अनूदित उक्त उपदेशों को
रख कर अपनी बात इस आशा से समाप्त करुँगा कि भारत एक राष्ट्र है, एक गणतंत्र है।
दोनों रूपों में उसकी एक राष्ट्रभाषा और एक राजभाषा आवश्यक है। आज अंग्रेजी को हम
सहन कर सकते हैं किन्तु हिन्दी को नहीं, इससे अधिक इस देश की विडम्बना और क्या हो सकती है।
देश की भोली भाली जनता का उसके मातृभाषा से पृथक कर, उसे अपना वोट बैंक
साधने वाले नेताओं को खास तौर से दक्षिण भारत के नेताओं को यदि युगानुकूल भाषा की
चेतना नहीं आई, यदि हठ नहीं छोड़ा तो दस साल के अन्दर हिन्दी
प्रेमी राजनीतिक दल पूरे दक्षिण की राजनीति पर कब्जा करेगा। गांधी के संदेश को
स्वीकारने के अलावा ‘नान्या: पंथा:।’
सर्वप्रथम तो में यह जानना चाहूंगा कि भारत की ओर से हिंदी प्रतिनिधित्व नही करेगी तो कोनसी भाषा करेगी।।
ReplyDeleteअंग्रेजी भारत का प्रतिनिधित्व करती है तो कोई विरोध नही ये कैसी भाषायी विविधता।
राजनीतिक अन्धकारिता ओर विरोधात्मक प्रकृति के कारण ही हिंदी का विरोध है।
अगर हिंदी का विरोध तो अंग्रेजी क्यों स्वीकार????
हिन्दी के बारे सार के साथ कनेक्ट किया है
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