Friday, 27 September 2019

गांधी की आत्मकथा के मायने (भाग एक)


गांधी की आत्मकथा के मायने (भाग एक)
प्रो. उमेश कुमार सिंह
गांधी की मानसिक विकास यात्रा उनके पूर्वजों से होते हुए माता-पिता के माध्यम से उनके जीवन में आती है और सामाजिक अनुभव से पूर्ण होती है। मैंने एक मित्र की कुछ दिन पहले फेसबुक में जिज्ञासा पढ़ी कि ‘पता नहीं गांधी जी ने रामचरित मानस पढ़ा भी था कि नहीं ? इसकी बात मैं आगे करुँगा। अभी केवल इतना संकेत देना ठीक होगा कि उनके घर में तुलसीदास दो पीढ़ी पहले प्रवेश कर चुके थे। गांधी जी के ही शब्दों में, ‘ओता गांधी के एक के बाद दूसरा यों दो विवाह हुए थे। पहले विवाह से उनके चार लड़के थे और दूसरे से दो। अपने बचपन को याद करता हूँ, तो मुझे खयाल नहीं आता कि ये भाई सौतेले थे। इनमें पाँचवें करमचन्द अथवा कबा गांधी और आखिरी तुलसीदास गांधी थे।’ ज़ाहिर है तुलसीदास का नाम कहीं न कहीं उस परिवार में श्रद्धास्थान पर था।
अपने परिवार का परिचय देते हुए गांधी जी लिखते हैं, ‘कबा गांधी के भी एक के बाद एक यों चार विवाह हुए थे। पहले दो से दो कन्यायें थीं, अन्तिम पत्नी पुलतीवाई से एक कन्या और तीन पुत्र थे। उनमें अंतिम मैं हूँ।’ गांधी जी चार विवाह का कारण स्पष्ट नहीं करते कि ये विवाह तीन माताओं की उपस्थिति में हुए थे या मृत्यु पश्चात। अथवा पुत्र मोह इसमें हेतु था। खैर। पिता जी के स्वभाव को बताते हुए गांधी जी संकेत अवश्य देते हैं, पर वह संकेत ही है।
करमचन्द जी के स्वभाव को समझने से गांधी के स्वभाव को समझा जा सकता है, ‘पिता कुटुम्ब-प्रेमी, सत्य-प्रिय, शूर, उदार, किन्तु क्रोधी थे।.. थोड़ा विषयासक्त भी रहे होंगे। उनका आखिरी व्याह चालीसवें साल के बाद हुआ था। हमारे परिवार और बाहर भी उनके विषय में यह धारणा थी कि वे रिश्वतखोरी से दूर भागते हैं और इसलिए शुद्ध न्याय करते हैं। (ध्यान रहे गांधी यहाँ शुद्ध न्याय की प्राथमिक शर्त की ओर भी ध्यान दिला रहे हैं) राज्य के प्रति वे बहुत वफादार थे।’
गांधी जी का यह स्पष्टीकरण भी प्रेरणा देता है, ‘ पिताजी ने धन बटोरने का (शब्द पर ध्यान दें ‘बटोरने’ का) लोभ कभी नहीं किया। इस कारण हम भाइयों के लिए वे बहुत थोड़ी सम्पत्ति छोड़ गये थे।’ यहाँ गांधी पारिवारिक हालात तो स्पष्ट कर ही रहे हैं, धन की दृष्टि के प्रति उनका अपना नजरिया भी पिता जी की तरह ही था, भी स्पष्ट कर रहे हैं। पिता जी की धन के प्रति लोभ न होने को वे गर्व से वर्णन करते हैं, न कि हीनताबोध से।
पिता जी का परिचय देते हुए गांधी जीवन की बड़ी बारीक बात का उल्लेख करते हैं, ‘पिता जी की शिक्षा केवल अनुभव की थी।.. इतिहास-भूगोल का ज्ञान तो बिकुल ही न था। फिर भी उनका व्यावहारिक ज्ञान इतने ऊँचे दर्जे का था कि बारीक से बारीक सवालों को सुलझाने में अथवा हजार आदमियों से काम लेने में भी उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी।’
गांधी जी आगे जो लिखते हैं वह उनके हिन्दुत्व की दृष्टि के विकास का मार्ग निर्धारित करती है, ‘धार्मिक शिक्षा नहीं के बराबर थी, पर मन्दिरों में जाने से और कथा बगैरा सुनने से जो धर्मज्ञान असंख्य हिन्दुओं को सहज भाव से मिलता रहता है, वह उनमें था। आखारि के साल में एक विद्वान ब्राह्मण की सलाह से, जो परिवार के मित्र थे, उन्होंने गीता पाठ शुरू किया था और रोज पूजा के समय वे थोड़े-बहुत श्लोक ऊँचे स्वर से पाठ किया करते थे।’
अब जरा गांधी के ऊपर माता जी का प्रभाव समझने का प्रयत्न करें, ‘मेरे मन पर यह छाप रही है कि माता साध्वी स्त्री थीं। वे बहुत श्रद्धालु थीं। बिना पूजा-पाठ के कभी भोजन न करतीं। हमेशा हवेली (वैष्णव मंदिर) जातीं। जबसे मैंने होश सम्भाला तबसे मुझे याद नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी चातुर्मास का व्रत तोड़ा हो।  वे कठिन-से कठिन व्रत शुरू करती और उन्हें निर्बिघ्न पूरा करती। ..मुझे याद है चन्द्रायन के व्रत में वे बीमार पड़ी पर व्रत नहीं तोड़ा। ..मुझे ऐसे दिन याद हैं कि जब हम सूरज को देखते और कहते, ‘माँ-माँ, सूरज दिखा’ और माँ उतावली होकर आतीं इतने में सूरज छिप जाता और माँ यह कहती हुई लौट जाती कि ‘कोई बात नहीं, आज भाग्य में भोजन नहीं है, और अपने काम में डूब जाती।’ पाठकगण गांधी के सत्याग्रह व्रती होने का कारण समझ सकते हैं।
एक घटना बार-बार बताई जाती है जिसको गांधी के शब्दों में समझना आवश्यक है। वे लिखते हैं, ‘शिक्षक ने अपने बूट की नोक मारकर मुझे सावधान किया। लेकिन मैं क्यों सावधान होने लगा? ..मैंने यह माना था कि शिक्षक तो यह देख रहे हैं कि हम एक-दूसरे की पट्टी में देखकर चोरी न करें.. .. सब लड़कों के  पाँचों शब्द सही निकले और अकेला मैं बेबकूफ ठहरा.. .. शिक्षक ने मेरी बेवकूफी बाद में समझायी।’
गांधी जी यह लिखते हुए अपनी ईमानदारी की बात शायद अपने संस्कारों को स्पष्ट करने के लिए बताते हैं जो सभी उम्र के मनुष्य के लिए आदर्श है, किन्तु कहीं न कहीं यह चिन्ता भी है कि कहीं इस घटना का गुरुओं के प्रति बिपरीत प्रभाव न पड़े। इसलिए आगे लिखते हैं, ‘इतने पर भी शिक्षक के प्रति मेरा विनय कभी कम नहीं हुआ।’ खैर।
किन्तु मैं यहाँ गांधी के जीवन की उन दो घटनाओं को ज्यादा महत्व देता हूँ जो उनके अन्दर इस ईमानदार बालक का निर्माण करती हैं। पहली घटना ‘श्रवण-पितृभक्ति नाटक’, दूसरा- हरिश्चन्द्र आख्यान। गांधी जी को संगीत का बचपन से शौक था। वे लिखते हैं, ‘किन्तु पिता जी की खरीदी हुई एक पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ी। नाम था ‘श्रवण-पितृभक्ति नाटक’।.. मैं उसे बड़े चाव के साथ पढ़ गया।’ दूसरा ‘उन्हीं दिनों शीशे में चित्र दिखानेवाले भी घर-घर आते थे। उनके पास मैंने श्रवण कुमार का वह दृष्य भी देखा, जिसमें वह अपने माता-पिता को काँवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाता है। दोनों चीजों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। श्रवण की मृत्यु पर उसके माता-पिता का विलाप मुझे आज भी याद है। उस ललित छन्द को मैंने बाजे पर बजाना सीख लिया था। मुझे बाजा सीखने का शौक था और पिता जी ने एक बाजा दिला भी दिया था।’ यदि आज के माता-पिता की तरह करमचंद गाँधी भी मोहनदास को कहते ‘ श्रवण कुमार और हरिशंद को पढ़कर तुम्हें क्या मिलेगा ? संगीत वंगीत छोड़ों पढाई में ध्यान दो। तुम्हें विद्यालय में टॉप करना है ? विचार करें तब क्या हम गाँधी को पाते ? गाँधी के माता-पिता कभी टाप के चक्कर में नहीं पड़े ।
सात से बारह वर्ष गाँधी की शिक्षा कैसी थी ? आज हैसियत न होने पर भी माता–पिता कैसे अबोध बालक को अंग्रेजी विद्यालयों में डालकर ‘ ग फार गधा’ सिखा रहे हैं ! गाँधी के शव्दों को समझान होंगा, ‘मुझे राजकोट की ग्रामशाला में  भारती किया गया। इस शाला के दिन मुझे अच्छी तरह याद हैं। शिक्षकों के नाम-धाम भी। (‘नाम धाम भी’, बड़ा महत्वपूर्ण है ).. मैं मुश्किल से साधारण श्रेणी का विद्यार्थी रहा होउंगा।’
गांधी की आजीवन सेवावृत्ति और पितृभक्ति का कारण श्रवण कुमार पर आधारित वह ललित छन्द रचना है, जिसे वे जीवन भर नहीं भूले। यहाँ एक बात और स्मरण रखना होगा कि संगीत और साहित्य कैसे बाल मन को संस्कारों से पुष्ट करते हैं किन्तु दुर्भाग्य यह है कि आज की अंग्रेजी शिक्षा ने मातृभाषा से बचपन को जिस तरह से काटा है उसके कारण न केवल बालमन विदू्रपता की ओर बढ़ रहा है बल्कि अपने परम्परागत संस्कारों से भी निरन्तर दूर होता जा रहा है। क्या गांधी का स्मरण हमें अपनी परम्परा का स्मरण भी करा सकेगा?
इसकी पुष्टि के लिए इस बात को और स्मरण रखना होगा जिसे वे लिखते हैं, ‘इन्हीं दिनों कोई नाटक-कंपनी आयी थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। हरिश्चन्द्र आख्यान।’
वे लिखते हैं नाटक का प्रभाव इतना था कि वे बार-बार देखना चाहते थे किन्तु वह सम्भव नहीं था। वे कहते हैं, ‘मुझे हरिश्चन्द्र के सपने आते। हरिश्चन्द्र की तरह सब सत्यवादी क्यों नहीं बनते? हरिश्चन्द्र की विपत्तियों के समय सत्य को न छोड़ना गांधी जी के जीवन का वह मोड़ था जिसे वे आजीवन पालन करते हैं। यहाँ दो बातें ध्यान रखनी होगी। गांधी की उम्र उस समय सात से बारह वर्ष की थी। और हम जानते हैं कि मनुष्य के जीवन निर्माण का वह श्रेष्ठतम कालखण्ड होता है।
गांधी लिखते हैं, ‘हरिश्चन्द्र के दु:ख देखकर, उनका स्मरण करके मैं खूब रोया हूँ। .. ..मेरे विचार से हरिश्चन्द्र और श्रवण आज भी जीवित है। मैं मानता हूँ कि आज भी उन नाटकों को पढूँ, वे मेरी आँखों से आँसू बह निकलेंगे।’
गांधी की इस प्रवल इच्छा को हम आज १५० वें वर्ष पर कितना सम्मान दे रहे हैं, आत्मावलोकन करने का विषय है। भला हो राजनीति का जिसने गांधी को आज जिन्दा रखा है अन्यथा श्रवण कुमार और राजा हरिश्चन्द्र तो हमारे शिक्षा व्यवस्था से ‘ईद के चाँद’ हो गये हैं जो कभी कभार मुहावरों की तरह उल्लेख किये जाते हैं। गांघी के इस संदेश को हर माता-पिता को समझना होगा। देश की राजनीति भी यदि कोई अवसर देती है तो उसका लाभ सजग समाज को अवश्य उठाना चाहिए। वह गाँधी के बहाने ही क्यों न हो!  (क्रमश:)
२७/०९/२०१९

Wednesday, 25 September 2019

समाज की वर्तमान विसंगतियो और प्रसाद की दूरदृष्टि (हनीताप)


कंकाल
समाज की वर्तमान विसंगतियों (हनीताप) 
जयशंकर प्रसाद कृत कंकाल (1930) भारतीय समाज का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करता है। कंकाल का अर्थ होता है- अस्थि-पंजर का ढांचा। ऊपर से स्वर्णिम दिखाई देने वाला भारतीय समाज और इसकी सभी संस्थायें जब रूढ़ियों से ग्रसित हो जाती है तब वे एक कंकाल ही तो हैं। कंकाल उपन्यास में प्रसाद जी इन्हीं मानवीय मूल्यों के क्षरण को दिखाते हैं। इस उपन्यास का स्थान प्रयागकाशीहरिद्वारमथुरा और वृन्दावन के आसपास के क्षेत्र हैं।
प्रसादकालीन समाजिक परिस्थितियाँ– प्रत्येक लेखक अपनी तात्कलीन परिस्थिति के आधार पर उसके कुरीतियों के सुधार  और गुणों को बढ़ने के लिए ही साहित्य रचता है । सनातन हिन्दू समाज इस्लाम के आक्रमण के बाद से निरंतर आडम्बरों से घिरता जा रहा था। धर्म के नाम पर लोग पाखंडों में लिप्त दिखाई दे रहे थे। इस समाज में हिंदू धर्म धारक अपने को श्रेष्ठ समझते थे। कुरीतियों का प्रभाव केवल सामान्य समाज पर ही नहीं तो धर्म का आवरण ओढ़ने वाले साधु-संतों पर भी था । वे स्त्री विशेषत: विधवा स्त्री से अवैध संतानें उत्पन्न करते थे।
इधर समाज में धर्म-परिवर्तन बड़े पैमाने पर हो रहा था। इसाई   संप्रदाय अपराध करके पश्चाताप को महत्व देते थे। सामान्य और गरीब जनता को सेवा और शिक्षा के नाम पर धर्मपरिवर्तन कर रहे थे।
हिंदू धरम को माननेवाले गरीबों को दलित मन लिया गया था। हिन्दुओं का यह बड़ा समुदाय गरीबी में जी रहा था। वह सम्पनों की जूठन पर आश्रित था। समाज में स्त्री को मात्र भोग की वस्तु माना जाता था। बाल-विवाह तत्कालीन समाज में प्रचलित था। जिस कारण बाल विधवायें थीं। विधवा स्त्री के लिये कट्टर-नियम कानून बने हुए थे। तत्कालीन समाज में विभिन्न समाज सुधारकों का भी प्रभाव था।
अच्छी बात यह थी की युवा वर्ग अपने समाज में व्याप्त बुराईयों को समझ रहा था और शिक्षा को महत्व देते हुए धर्म के आडंबर को तोड़ने की कोशिश कर रहा था। इस प्रकार कहा जा सकता है की प्रसादकालीन समाज एक संक्रमण काल से गुजर रहा था। प्रसाद के इसी समाज का वर्णन हमें कंकाल में मिलता है।
 कहने में कोई संकोच नहीं की ‘कंकाल समाज की रूढ़िग्रत धार्मिकता तथा थोथी नैतिकता पर बडा गहरा व्यंग्य है। ऊपरी सामाजिक व्यवस्था के भीतर कितना भंयकर खोखलापन हैइसे प्रसाद’ ने प्रत्यक्ष कर दिया है। आदर्श-प्रधान निवृति-मूलक साधना के प्रति प्रसाद’ ने पूर्ण अनास्था प्रकट की है
 कंकाल के पत्र - कंकाल उपन्यास के सभी पात्र किसी न किसी वर्ग को दर्शाते हैं। श्रीचंद व्यवसायी वर्ग का है। समाज के कारण अपने प्रेम से अलग किशोरी अपनी चारित्रिक दुर्बलताओं को लिये हुए एक अमीर औरत की स्थिति का चित्रण करती है। वह समाज में दिखावा करके यश कमाने वाले वर्ग की प्रतिनिधि है। निरंजन ऐसा पात्र है जो परिवार की मनौती के फलस्वरूप साधु बन जाता है। यमुना एक साधारण स्त्री है जो पुरूषों द्वारा शोषण का शिकार होती है। जूठ्न पाने के लिये लड़ने वाले लोग दलित वर्ग से हैं। बाथम इसाई है। मंगल समाज सेवक है पर शोषक है।
उपन्यास में श्रीचंद और किशोरी पति-पत्नी हैं। वे संतान कामना का आशीर्वाद लेने के लिये निरंजन के पास आते हैं जो कि एक साधू है और किशोरी का बाल सखा भी। दोनों का परिचय बढ़ता है। बालपन का प्रेम साधू और परे स्त्री का बंधन तोड़ देती है। किशोरी उससे संतान उत्पन्न करती है और अपने पति से अलग रहने लगती है। यहाँ किशोरी भारतीय नारी के उस रूप का चित्रण करती है जो अपने प्रेम को द्वंद में जीती है और स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर सकती।

प्रसाद जी तत्कालीन भारतीय समाज में पवित्र कहलाये जाने वाली जगहों पर किस तरह के अनीतिपूर्ण काम किये जाते थे इसे धिकने का प्रयत्न करते हैं। विचारणीय विषय यह है की प्रसाद के लिए यह मनोरंजन का विषय नहीं बल्कि एक पीड़ा है जिसे वे उजागर का आनेवाली पीढ़ी को सचेत करते हैं।
निरंजन एक साधु है। उसे किशोरावस्था में उसके माता-पिता ने एक बाबा को दे दिया था क्योंकि उसके जन्म के लिए ऐसी ही मनौती माँगी गई थी। वह ब्रह्मचारी बन कर जीवन काटता है। किशोरी से वह विजय’ और रामा से यमुना’ का पिता बना। उस समाज में प्रचलित था कि संतान आशीर्वाद से उत्पन्न होती है। इसलिये निरंजन के माता-पिता और किशोरी-श्रीचंद सन्तान प्राप्ति के लिये साधुओं के पास जाते हैं। ऐसे ही तथाकथित बाबा समाज की भोली-भाली जनता को उल्लू बना कर अपनी जेब गर्म करते हैं। कभी –कभी लगता है रचनाकार आने वाले समय की आहात को भी पहचानता है, जिसे आज भी हम देख और महसूस कर रहे है। उपन्यास की यही सफलता भी ।
   कंकाल में तत्कालीन समाज में वेश्यावृत्ति का भी रूप देखने को मिलता है। तीर्थ स्थान कैसे स्त्री के लिए अभिशाप बन जाता है यह तारा के द्वारा समझा जाता सकता है। ‘तुम्हारे सामने जिस दुष्टा ने मुझे फँसाया थावह स्त्रियों का व्यापार करने वाली एक संस्था की कुटनी थी। मुझे ले जाकर उन सबों ने एक घर में रखाजिसमें मेरी ही जैसी कई अभागिनें थींपरंतु उनमें सब मेरी जैसी रोनेवाली न थीं। बहुत-सी स्वेच्छा से आयी थीं और कितनी ही कलंक लगने पर अपने घरवालों से ही मेले में छोड़ दी गयी थीं 
 कलंक लगने का अर्थ स्त्री की यौन शुचिता खत्म हो जाना है। भारतीय समाज पितृसत्तात्मक विचारों वाला है। यहाँ विवाह पूर्व संबंध बनाने की मनाही है। मंगल कहता है- यह स्त्री कुचरियों के फेर में पड़ गयी थीपरन्तु इसकी पवित्रता में कोई अंतर नहीं पड़ा 
स्त्री की दुर्दशा का कारण समाज है- स्त्री की पवित्रता उसकी देह है। तारा वेश्यालय में रही इसलिये अब वह घर में रखने योग्य नहीं है। उपन्यास की यह घटना भारतीय समाज के यथार्थ को बताती है। यहाँ अनेक स्त्रियाँ समाज के नियमों के कारण वेश्यावृत्ति में लिप्त होती हैं। भारतीय समाज में बाल-विवाह की प्रथा काफी पुरानी है। यहाँ बच्चों को नासमझी की आयु में ब्याह दिया जाता है। बाल-विवाह का दुष्परिणाम बाल-विधवा है। जो लड़की संसार को जानती तक नहीं वही विधवा होकर उसके कठोर नियमों का पालन करने के लिए मजबूर हो जाती है। कंकाल में घंटी एक बाल-विधवा है। वह समाज के कारण भले ही अपनी भावनाओं को दबाये पर उसकी भावनाएं मरती नहीं हैं। घंटी ब्रज में अपनी चंचल मनोवृत्ति के कारण कुख्यात हुई। घंटी जैसी बाल-विधवा को कुरीतियों से भरे भारतीय समाज में कहीं आशय नहीं था। वह कभी भीख माँगती है तो कभी विभिन्न पुरुषों के आशय में रहती है। उसका कोई नहीं है पर वह सबकी सम्पत्ति बन जाती है। कंकाल में तत्कालीन समाज में आ रहे बदलाव के फलस्वरूप विधवा के पुनर्विवाह के प्रश्न को भी उठाया गया।
तत्कालीन समाज में अंधविश्वासों का बोलबाला था। पुत्र की लालसा उनके अंधविश्वासों को प्रबलता देती है। यथा- विधवा धनी थी उसको पुत्र की बड़ी लालसा थीपंरतु पति नहीं थेपुनर्विवाह असंभव था। उसके मन में किसी तरह यह बात बैठ गई कि बाबा जी अगर चाहेंगे तो यही पुत्री पुत्र बन जायेगी
कंकाल उपन्यास में प्रसाद जी ने धर्म परिवर्तन को भी चित्रित किया है। विभिन्न धर्मों के तथाकथित संरक्षक तत्कालीन समाज में लोगों को बहलाकरपाप-पुण्य के फेर में उलझाकर धर्म परिवर्तन करवा रहे थे।कंकाल में जयशंकर प्रसाद हिंदु धर्म की आडम्बर भरी नीतियों को सामने लाते हैं। उस समय समाज दलित और सवर्णगरीब-अमीर में बँटा हुआ था। कुछ लोग धर्म के नाम पर धन लुटा रहे थे और कुछ खाने को भी तरस रहे थे। प्रसाद भारतीय समाज की आडम्बर पूर्ण नीतियों पर व्यंग्य करते हैं। यथा- ‘जिन्हें आवश्यकता नहींउनको बिठाकर आदर से भोजन कराया जायेकेवल इस आशा से कि परलोक में वे पुण्य संचय का प्रमाण-पत्र देंगेसाक्षी देंगेऔर इन्हें जिन्हें पेट ने सता रखा हैजिनको भूख ने अधमरा बना दिया हैजिनकी आवश्यकता नंगी होकर वीभत्स नृत्य कर रही है-वे मनुष्यकुत्तों के साथ जूठी पत्तलों के लिये लड़ेयही तो तुम्हारे धर्म का उदाहरण है

समाज में कैसे गरीबी की एक जाति खड़ी हो जाती है- दासियाँ जूठी पत्तल बाहर फेंक रही थी। ऊपर की छत से पूरी और मिठाईयों के टुकड़ों से लदी हुई पत्तलें उछाल दी जाती थीं। नीचे कुछ अछूत डोम और डोमनियाँ खड़ी थीं जिनके सिर पर टोकरियाँ थींहाथ में डण्डे थे जिनसे वे कुत्तों को हटाते थे और आपस में मार-पीटगाली-गलौच करते हुए उस उच्छिष्ट की लूट मचा रहे थे-वे पुश्त-दर-पुश्त के भूखे 

प्रसाद जी के कंकाल में चित्रित सामाजिक यथार्थ पर प्रेमचंद कहते हैं- प्रसाद जी ने इस उपन्यास में समकालीन सामाजिक समस्याओं को हल करने की चेष्टा की है और खूब की है
कंकाल में जयशंकर प्रसाद बदलते समाज को चित्रित करते हैं। विवाह भारत की एक महत्वपूर्ण संस्था है। पर जब विवाह ही चूर-चूर हो जाये तबश्रीचंद और किशोरी पति-पत्नी थे पर वास्तव में उन्हें एक दूसरे से लगाव न था। किशोरी का मोह निरंजन से थातो श्रीचंद का लगाव व्यापार और चंदा से। जब विवाह के बाद भी संबंध न के बराबर हो तो विवाह की आवश्यकता ही क्याविवाह एक आडंबर ही तो है जो लोगों को एक बंधन में रखता है। प्रसाद बदलते भारतीय समाज को चित्रित करते हुए तारा (यमुना) के माध्यम से कहते हैं- ‘मैं ब्याह करने की आवश्यकता यदि न समझूँ तो’?.
विजय भी विधवा घंटी से स्नेह रखता है पर वह विवाह की बात स्वीकार नहीं करना चाहता। वह कहता है- “घंटीजो कहते हैं अविवाहित जीवन पाशव हैउच्छृंखल हैवे भ्रांत है। हृदय का सम्मिलन ही तो ब्याह है। मैं सर्वस्व तुम्हें अर्पण करता हूँ और तुम मुझे। इसमंकिसी मध्यस्थ की आवश्यकता क्यों – मंत्रों का महत्व कितना।” 
सारांश-  इस प्रकार 1930 में प्रकाशित कंकाल’ तत्कालीन भारतीय समाज को चित्रित करता है। उस समाज में परिवर्तन और कुरीतियों की जो लहर थी वह उपन्यास में दिखाई देती है। कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी के यथार्थ का उद्घाटन भी करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं। आकस्मिकता और कौतूहल के साथ-साथ मानव मन के भीतरी पर्तों पर होने वाली हलचल इस उपन्यास को गहराई प्रदान करती है। ह्रदय परिवर्तन और सेवा भावना स्वतंत्रताकालीन मूल्यों से जुड़कर इस उपन्यास में संघर्ष और अनुकूलन को भी सामाजिक कल्याण की दृष्टि का माध्यम बना देते हैं। उपन्यास अपने समय के राजनेताओं और स्वयंसेवकों के चरित्र और व्यव्हार के माध्यम से समाज में व्याप्त दोहरी जीवन पारम्पर और सभ्यता को दर्शाते हैं।
  प्रसाद मुख्यतया आदर्श की भूमिका पर कार्य करने वाले रचनाकार हैं किंतु 'कंकाल' उनकी एक ऐसी कृति है जिसमें पूर्णतया यथार्थ का आग्रह है। इस दृष्टि से उनका यह उपन्यास विशेष स्थान रखता है।'कंकाल' में देश की सामाजिक और धार्मिक स्थिति का अंकन है और अधिकांश पात्र इसी पीठिका में चित्रित किये गये हैं। नायक विजय और नायिका तारा के माध्यम से प्रेम और विवाह जैसे प्रश्नों से लेकर जाति-वर्ण तथा व्यक्ति-समाज जैसी समस्याओं पर लेखक ने विचार किया है।
इस उपन्यास की कथावस्तु मुख्यतया मध्यमवर्ग से सम्बन्ध रखती है और समाज के पर्याप्त चित्रों को उभारा गया है जिनमें वर्तमान का एक सश्लिष्ट चित्र प्रस्तुत हो सके। वेश्यालयों की स्थिति के साथ ही काशीप्रयागहरिद्वार जैसे तीर्थस्थानों के साधु-संतों का वर्णन एक विरोध प्रतीत होता है पर यथार्थ को विस्तार देने की दृष्टि से ऐसा करना नितांत आवश्यक था। यथार्थ-सामाजिक यथार्थ को उपन्यास में अंकित करने के लिए प्रसाद ने कहीं-कहीं व्यंग्य का आश्रय भी ग्रहण किया है, जो उनकी प्रवृत्ति के अधिक अनुकूल नहीं, पर यथार्थ की सार्थकता तीखे व्यंग्य में ही होती है। 'कंकाल' में ऐसा समाज अंकित है जिसकी आधारभूमि हिल गयी हो। पुरानी मान्यताएँ और विश्वास इसमें धराशायी हैं। बड़े कुलीन घरानों में क्या हाल है, इसे नायक-नायिका के जीवन में देखा जा सकता है। धर्म के ठेकेदार पादरी किसी युवती की परिस्थिति का लाभ उठाकर उसे प्रेमपाश में आबद्ध करने की चेष्टा करते हैं, समाज में स्त्रियों की स्थिति का संकेत करती हुई घण्टी एक स्थल पर कहती है-
"हिन्दू स्त्रियों का समाज ही कैसा है, इसमें उनके लिए कोई अधिकार हो तब तो सोचना-विचारना चाहिए..." .इसी प्रकार यमुना कहती है -"कोई समाज स्त्रियों का नहीं बहन! सब पुरुषों के हैं, स्त्रियों का एक धर्म है, आघात सहन करने की क्षमता.."
कथाशिल्प की दृष्टि से 'कंकाल' एक ऐसे रचनाकार की कृति है जो मुख्यतया कवि है। यथार्थ का चित्रण होते हुए भी इसमें प्रसाद की भावुकता कहीं-कहीं झलकती है और लम्बे उद्धरणों में जहाँ विचारों का क्रम है, यह अधिक स्पष्ट है। उपन्यास में घटनाओं की संख्या अधिक है और कथाक्रम की सुन्दर योजना में कुछ बाधा पड़ती है। कुछ लोग इसे प्रसाद की प्रचारात्मक दृष्टि कह सकते हैं, पर सामाजिक यथार्थ का विश्लेषण करने वाला लेखक अपने विचारों को किसी न किसी प्रकार प्रकट करेगा ही। 'कंकाल' की शक्ति उसका समाज-दर्शन है, जिसमें निश्चित रूप से व्यक्ति की प्रतिष्ठा है पर व्यक्ति का यह स्वातंत्र्य सामाजिक दायित्व तथा व्यापक मानवीयता पर आधारित है।
बीसवीं शती में जो सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना देश में विकसित हुई है, उसका प्रभाव कंकाल पर स्पष्ट है जो आज इक्कसवीं सदी में भी उतन ही प्रासंगिक है, यथा-‘‘समग्र संसार अपनी स्थिति रखने के लिए चंचल है, रोटी का प्रश्न सबके सामने हैं, फिर भी मूर्ख हिन्दू अपनी पुरानी असभ्यताओं का प्रदर्शन कराकर पुण्य-संचय किया चाहते हैं।’’ ‘‘जब संसार की अन्य जातियाँ सार्वजनिक भ्रातृभाव और साम्यवाद को लेकर खड़ी हैं, तब आपके इन खिलौनों (मूर्तियों) से भला उनकी सन्तुष्टि होगी?’’ कहना न होगा कि करीब पचपन वर्ष पूर्व इस उपन्यास के पृष्ठों में अंकित प्रसादजी के ये शब्द भारतीय समाज के सन्दर्भ में आज भी प्रासंगिक है। संक्षेप में, उनका यह महत्त्वपूर्ण उपन्यास धर्म के नाम पर होनेवाले शोषण और स्त्रिायों के प्रति अमानवीय व्यवहार को गहन संवेदनशीलता से उद्घाटित करता है, धर्म-संस्थाओं, अन्धविश्वासों, कपटाचरण और भेदभाव के विरुद्ध कितने ही तीखे प्रश्न उठाता है या कहें कि भारतीय समाज की सँड़ाध पर पड़ी राख को खुरचना है और कुछ इस कौशल से कि हमारा हृदय लोकमंगल की भावना से भर उठता है-एक ऐसी आध्यात्मिकता से जो हमें वास्तविक अर्थों में रूढ़िमुक्त करती है और युगीन सच्चाइयाँ हमारे भीतर आन्तरिक वास्तव सहित उतरती चली जाती है।







Sunday, 15 September 2019

गांधी और लिपि (भाग ६)

गांधी और लिपि (भाग ६)

  ‘हिन्द स्वराज्य’ में (गांधी के शब्द), ‘‘सारे हिंदुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिन्दी ही होनी चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट होनी चाहिए। हिंदू-मुसलमानों के संबंध ठीक रहें, इसलिए हिन्दुस्तानियों को इन दोनों लिपियों को जान लेना जरूरी है। ऐसा होने से हम आपस के व्यवहार में अंग्रेजी को निकाल सकेंगे।’’
२ फरवरी, १९४२ में प्रकाशित हरिजन के आलेख का एक अंश, ‘‘जो लोग राष्ट्रभाषा के हिमायती हैं, उन्हें उसके हिन्दी और उर्दू दोनों रूप सीखने चाहिए। इन्हीें लोगों की कोशिश से हमें वह भाषा मिलेगी, जो सब की भाषा कहलाएगी। भाषा का जो रूप अधिक लोकप्रिय होगा और जिसे लोग, फिर वे हिन्दू हों या मुसलमान, ज्यादा समझ सकेंगे, वेशक वहीं राष्ट्रभाषा बनेगी। लेकिन अगर लोग मेरी तज़बीज़ को आमतौर पर अपना लें तो फिर न तो भाषा का सवाल रहेगा और न वह किसी राजनीतिक झगड़े की जड़ ही बन सकेगा।’’
२७ फरवरी,१९४५ वर्धा में ‘अखिल भारतीय हिन्दुस्तानी प्रचार-सभा’ का उद्वोधन भाषा नीति के मतभेदों / पक्षों को उजागर करता है, जरा इसे पढ़े, ‘‘श्री आनंद कौसल्यायन ने जो कहा, वह मैं समझा। वे दब-दबकर बोले हैं। हिन्दी साहित्य सम्मेलन की तरफ से उन्होंने यह कहा कि दो लिपियों का बोझ हो सके तो निकाल दिया जाए। मैं आज भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हूँ। उसमें मैं अपने-आप नहीं गया था। जमनालाल जी जिस काम में जाते, उसमें अपने साथ मुझे भी घसीट ले जाते थे। वे मुझे इन्दौर ले गए। वहाँ मैंने सम्मेलन को एक नई चीज दी। उसे सब हजम कर गए। मैंने कहा था- ‘हिन्दी वह जबान है, जिसे हिन्दू-मुसलमान दोनों बोलते हैं और जिसे लोग दोनों लिपियों में लिखते हैं। मेरा यह ठहराव मंजूर हो गया। मैंने उसे सम्मेलन के नियमों में शामिल कर दिया। बाद में फिर वह नियम बदल दिया गया, तो दूसरी बात है’, इसलिए अब अगर मैं सम्मेलन में से निकल जाऊँ तो मुझे दु:ख न होगा।’’
२२ फरवरी,१९४६ मद्रास (प्रार्थनासभा),‘‘कल तो मुझे आपसे निराशा हुई। मैंने टूटी-फूटी हिन्दुस्तानी में अपनी बात समझाने की कोशिश की, लेकिन असफल रहा। जब मैं हिन्दुस्तानी में बोला, तब स्वयं राजाजी भी मेरी बात को पूरी तरह नहीं समझ पाए। इस मामले में राजा जी दोशी न. १ हैं। वे आपको तमिल में संबोधित करते हैं, लेकिन जब वे मद्रास से बाहर जाते हैं, तब अंग्रेजी में बात करते हैं।  यदि समुद्र का पानी अपना खारापन छोड़ दे तो उसे सुस्वादु कहाँ से बनाया जाएगा? देश भर में राजा जी की प्रतिष्ठा अंग्रेजी के एक अच्छे वक्ता के रूप में है, लेकिन उन्होंने हिन्दुस्तानी नहीं सीखी है। मैं आप सब लोगों से यहाँ और इसी समय यह वचन (और आप केवल वचन देगें ही नहीं, बल्कि वचन का पालन करने की प्रतिज्ञा भी करेंगे) लेना चाहता हूँ कि आप सब लोग हिन्दुस्तानी सीखेंगे। क्या आपको देश की स्वाधीनता के लिए इतना थोड़ा-सा भी नहीं करना चाहिए ? क्या आप तमिलनाडु के दो करोड़ लोगों से अंग्रेजी सीखने की अपेक्षा करते हैं ? अथवा क्या आप शेष भारत से आशा रखते हैं कि वे लोग आपसे संभाषण करने के लिए आपकी चार भाषाओं में से एक भाषा सीखेगे ? मैं कहता हूँ कि हिन्दुस्तानी सीखना आपका कर्म है जो दक्षिण को उत्तर भारत से मिला देगी।’’ यहाँ गांधी जी की स्वाधीनता की चिंता थोड़ा हिन्दू-मुसलमान से हट कर है जिसका मौन संदेश भी है कि देश की एकता के लिए भारत की अन्यभाषाओं का अन्त:सम्बन्ध व्यवहार में आना आवश्यक है, तभी हमारी स्वाधीनता टिक सकेगी।
आगे देखें, ‘‘हममें कई ऐसे हैं, जो हिन्दी और उर्दू को मिलाने की कोशिश करते हैं। कोई कहते हैं- ‘इसकी क्या आवश्यकता है।’ मैं तो सच्ची डेमोक्रसी (जनतंत्र या जमहूरियत) चाहता हूँ। सिर्फ हाँ-में-हाँ मिलाने से ‘डेमोक्रेसी’ ‘हिपोक्रेसी’ (कपट) बन जाती है। इसलिए मैंने कहा कि सिर्फ हाँ-में-हाँ न मिलाइए, अपनी सच्ची राय बताइए।’ यहाँ हिन्दुस्तानी की चिंता है। विचारणीय यह है कि क्या गाँधी की यह बात ‘हाँ-में-हाँ न मिलाइए’ आज कोई मान रहा है? और क्या गांधी स्वयं के लिए ‘हाँ में हाँ’ मिलाना अच्छा नहीं मानते थे ? आखिर गांधी  और टंडन जी के मतभेद का कारण यही न था ? यदि टंडन जी गांधी की बात में ‘हाँ में हाँ’ स्वीकार कर लेते या टंडन जी की बात गांधी जी स्वीकार कर लेते तो क्या बिगड़ता? जी, हाँ गांंंंधी के हाँ करने में शायद कुछ नहीं बिगड़ता बल्कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में ताकत ही मिलती किन्तु यदि टंडन जी हाँ में हाँ मिला देते तो आज हिन्दी की जगह हिन्दुस्तानी राजभाषा होती इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। गांधी जी हिन्दुस्तानी पर अड़े रहे और टंडन जी जैसे अनेक हिन्दी प्रेमी हिन्दी पर। गाँधी जी तो संविधान के अंतिम होने के पहले ही चल बसे और हम आज तक राष्ट्रभाषा न पा सके। राष्ट्र के इस दर्द को कौन समझे ?
‘लिपि और हिन्दुस्तानी’ को लेकर गांधी जी के और श्री पुरुषोत्तमदास टंडन के विरोध उभर कर आ गये थे जिसे गांधी के शब्दों में (सं.गां.वां, खण्ड-८२,पृ.१०६)देखें, ‘‘टंडन जी मेरे मित्र हैं। मैं उन्हें प्यार करता हूँ। हम दोनों बहुत अर्से तक एक साथ रहे हैं। लेकिन अब इस प्रश्र पर हम एक दूसरे के मार्ग में बाधा नहीं बनते। खुद मैं तो गंगा और जमुना के मिलन के बाद सरस्वती के दर्शन करना चाहता हूँ।’’
 वास्तव में उस समय (१९३५ ई.) से लेकर आज तक गांधी जी के इस गंगा-जमुना संस्कृति पर दो फाड़ बना हुआ है। ध्यान रहे गांधी जी ने इसी बात को लेकर २५ जुलाई, १९४५ में ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ से भाषा-नीति के विरोध में त्यागपत्र दे दिया था, जिसे मंजूर भी कर लिया गया! २५ जुलाई, १९४५ को गाँधी जी ने जो तर्क दिया वह भी कुछ लोगों की नजरों में आज भी गांधी जी के दुराग्रह का संदेश देनेवाला है, ‘‘मेरे पास उर्दू खत आते हैं, हिन्दी आते हैं और गुजराती। सब पूछते हैं, मैं कैसे ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ में रह सकता हूँ और ‘हिन्दुस्तानी सभा’ में भी?
 वे कहते हैं, सम्मेलन की दृष्टि से हिन्दी राष्ट्रभाषा हो सकती है, जिसमें नागरी लिपि ही को राष्ट्रीय स्थान दिया जाता है, जबकि मेरी दृष्टि में नागरी और फारसी-अरबी (उर्दू की लिपि) लिपि को स्थान दिया जाता है, जो भाषा न फारसीमयी है न संस्कृतमयी है। जब मैं सम्मेलन की भाषा और नागरी लिपि को पूरा राष्ट्रीय स्थान नहीं देता हूँ, तब मुझे सम्मेलन में से हट जाना चाहिए। ऐसी दलील मुझे योग्य लगती है। इस हालत में क्या सम्मेलन से हटना मेरा फर्ज नहीं होता है? ऐसा करने से लोगों को दुविधा न रहेगी और मुझे पता चलेगा कि मैं कहाँ हूँ।’’
‘मैं कहाँ हूँ।’ अपने को तौलना और साफगोई की वकालत करना भी गांधी जी का एक दृष्टिकोण रहा होगा। दूसरा मुझे लगता है विभाजन की रेखा गांधी के आँखों के सामने नाच रही थी और उसे वे किसी भी तरह बचाना चाहते थे, जिसमें भाषा और लिपि भी एक माध्यम बने, शायद यही उनका हठ रहा होगा, खैर।
हिन्दी साहित्य सम्मेलन को वे राष्ट्रभाषा के प्रतिकूल मानते हुए कहते हैं, ‘‘पहले पहल जब  ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ में मैंने हिन्दी की व्याख्या की, तब उसका विरोध नहीं के बराबर था। विरोध कैसे शुरू हुआ, इसका इतिहास बड़ा करुणाजनक है। मैं उसे याद भी नहीं रखना चाहता। मैंने यहाँ तक कहा था कि ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ नाम ही राष्ट्रभाषा के प्रचार के लिए सूचक नहीं था, न आज भी है। लेकिन मैं साहित्य के प्रचार की दृष्टि से सदर नहीं बना था। स्व. भाई जमनालाल जी और दूसरे अनेक मित्रों ने मुझे बताया था कि नाम चाहे कुछ भी हो, उन लोगों का मन साहित्य में नहीं था। उनका दिल राष्ट्रभाषा में ही था और इसीलिए मैंने दक्षिण में राष्ट्रभाषा का प्रचार बड़े जोरो से किया।’ (१८ जनवरी,१९४८)
लिपि पर गांधी जी के मत से हम असहमत हो सकते हैं किन्तु यह भी देखना होगा कि यह बात गांधी तब उठा रहे हैं जब इस देश में रोमन लिपि भी अपनी उपस्थिति जता रही है। गांधी जी रोमन लिपि से कतई सहमत नहीं थे, ‘‘रोमन लिपि तो मात्र मुठ्ठी भर अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों की है, जबकि फारसी कारोड़ों हिन्दू मुसलमाना लिखते हैं।’’
३ जुलाइ,१९३७ को गांघी जी लिखते हैं, ‘‘रोमन लिपि न तो हिंदुस्तान की सामन्य लिपि हो सकती है और न होनी चाएि। यह प्रतियोगिता तो फारसी और देवनागरी के बीच ही हो सकती है और उसके अपने मौलिक गुणों को अलग रख दें तो भी देवनागरी ही सारे हिन्दुस्तान की सामान्य लिपि होनी चाहिए।’’
गांधी जी संस्कृत से निकली विभिन्न भाषाओं के लिए भी एक ही लिपि चाहते थे, (१५ अगस्त, १९३६ ‘हरिजन में) ‘‘जो अलग-अलग भाषाएं संंस्कृत से निकली हैं, या जिनका उसके साथ गहरा सम्बन्ध रहा है, पर जो जुदा-जुदा लिपियों में लिखी जाती हैं, उनकी एक ही लिपि होनी चाहिए और वह लिपि निस्संदेह देवनागरी ही है।’’
वर्तमान गृहमंत्री जी का हिन्दी को लेकर दिया वयान एक आशा की किरण हैं। कुछ विरोधी स्वर उभर रहे हैं किन्तु यहाँ गांधी जी के दृष्टिकोण को समझना और उसको बाहर लाना आवश्यक है, गांधी जी मानते हैं कि राष्ट्रीय भाषा हिन्दी मुस्लिम विरोधी नहीं है(११ नवम्बर,१९१७), ‘‘ मैं यह कहता आया हूँ कि राष्ट्रीय भाषा एक होनी चाहिए और वह हिन्दी होनी चाहिए। मैंने सुना है कि इस सम्बन्ध में कई मुसलमान बंधुओं के मन में गलतफहमी है। उनमें बहुतेरों का ख्याल है कि ‘हिन्दी होनी चाहिए’ यह कहकर मैं उर्दू का विरोध करता हूँ। हिन्दी भाषा से मेरा मतलव उस भाषा से हैं, जिसे उत्तर भारत में हिन्दू और मुसलमान दोनों बोलते हैं और जो नागरी तथा उर्दू लिपि में लिखी जाती है। उर्दू के लिए मेरेे मन में कोई द्वेष नहीं है। मेरी तो यह मान्यता है कि दोनों भाषाएं एक ही है। मेरे ख्याल से तो दोनों भाषाओं का गठन, दोनों का ढंग, संस्कृत और अरबी शब्दों के भेद को छोडक़र, एक ही प्रकार का है। मेरा झगड़ा तो अंग्ररेजी के विरुद्ध है। मुझे द्वेष उससे भी कोई नहीं है, परंतु अग्रेजी भाषा के माध्याम से हम अपनी जनता से घुलमिल नहीं सकते और उनके साथ एक रस होकर काम नहीं कर सकते। मेरे कहने का आशय इतना ही है। हिन्दी को आप हिन्दी कहें या हिन्दुस्तानी, मेरे लिए तो दोनों एक ही हैं। हमारा कर्तव्य यह है कि हम अपना राष्ट्रीय कार्य हिन्दी भाषा में करें, लिपि के संबंध में वह होगा कि हिन्दू बालक नागरी में लिखेगा और मुसलमान उर्दू में। इससे किसी प्रकार की भी हानि नहीं है। पर दोनों ही दोनों लिपि सीखेंगे। हमारे बीच हमें अपने कानों में हिन्दी के ही शब्द सुनाई दें-अंग्रेजी के नहीं। इतना ही नहीं, हमारी धारासभाओं में जो वाद-विवाद होता है वह भी हिन्दी में होना चाहिए। ऐसी स्थिति लाने के लिए मैं जीवन-भर प्रयत्न करूँगा।’’
आज जिस हिन्दी का उपयोग साहित्य और शिक्षा संस्थानों मे हो रहा है उसमें विश्व के विभिन्न भाषाओं के शब्द घुलमिल गये हैं। हिन्दी संस्कृत उद्भूत होने (कुछ लोग ऐसा नहीं मानते) के कारण उसमें शब्द निर्माण की ही नहीं तो शब्द शोधन की अद्भुत सामथ्र्य है। कमी है तो संवैधानिक दर्जा प्राप्त होने की। आज राजभाषा हिन्दी जिस तरह उपेक्षित है उसमें चिंता होनी चाहिए। गांधी की चिंता अंग्रेजी की ज्यादा है जो आज भी उतनी ही आवश्यक और चिंतनीय है। आज जो थोड़ा बहुत आवाज दक्षिण या अन्य की आ रही है वह वोट और सत्ता का भ्रम है। जो देश को कम दलों के लिए ज्यादा घातक है। लिपि का विविधता से हिन्दी को कोई फर्क नहीं पड़ता। जहाँ तक परिनिष्ठिति हिन्दी का प्रश्र है वह साहित्य में बनी हुई है। जिस देश में अवधारणा है कि प्रत्येक तेरह कोस में वानी बदल जाती है, वहाँ बोलियों और उपबोलियों के सन्दर्भ को ध्यान में रखना होगा।
यहाँ आपका ध्यान मैं इस ओर भी खींचना चाहता हँू कि लेख का आशय भी यह है कि जब बड़े लोगों के ‘विचार / अहम / मैं कहाँ हूँ / हाँ-में हाँ’ आदि पर अटक जाते हैं तब भारत जैसे ‘नित्य नूतन चिरपुरातन’ की अवधारणावाला देश अपनी ‘वाणी’ भी नहीं पाता है। आज इसे गांधी काल से सबक लेते हुए छोडऩा ही होगा। काल की यही माँग है।
ध्यान देना होगा कि भौगोलिक स्वतंत्रता (अखण्डता) के साथ भाषिक स्वतंत्रता अभी बाकी हैं। विश्वास है जिस तरह सत्तर सालों बाद कई सुधार हो रहें हैं तो यह राष्ट्रभाषा का विवाद भी एक नियति को प्राप्त होगा। इसमें गांधी की भूमिका को भी आने वाली पीढ़ी स्मरण रखेगी। वर्तमान गृहमंत्री जी का हिन्दी को लेकर दिया वयान एक आशा की किरण हैं।











हठ छोड़ संविधान और गांधी की मंशा ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी’ को आत्मसात करें


हठ छोड़ संविधान और गांधी की मंशा ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी’ को आत्मसात करें

डॉ उमेश कुमार सिंह

  केन्द्र की पहल पर नुक्ताचीनी करने वाले अपने को गाँधी के साथ दक्षिण के संतों के आयने में देखें तो उन्हें ध्यान में आ जायेगा कि भारत की भाषा के लिए पूर्वजों का क्या सपना था? आज देश 70 साल में भी हिन्दी भाषा को मान्यता नहीं दे पा रहा है? इसका कारण देश की जनता नहीं उनके हठी और सत्ता-राजनीति के स्वार्थी नेता और प्रशासन के चिपकू  व्यूरोक्रेट और टेक्रोक्रेट तथा छद्म बुद्धिजीवी और अंग्रेजी के पालतू गुलाम हैं।

  १५ सितम्बर के समाचार पत्रों, इलेक्ट्रानिक मीडिया और सोसल मीडिया में कुछ लोग हिन्दी दिवस पर भारत सरकार के गृहमंत्री के सीधे-साधे वयान पर छाती पीटते नजर आये। आखिर गृहमंत्री का वह वयान कौन सा है, देखें-  “हमारे देश की सभी भाषाओं की व्यापकता और समृद्धता विश्व की किसी भी भाषा से बहुत अधिक है। मैं देशवासियों से आह्वान करता हूँ कि आप अपने बच्चों से, अपने सहकर्मियों से अपनी भाषा में बात कीजिए क्योंकि अगर हम ही अपनी भाषाओं को छोड़ देंगे तो उन्हें लम्बे समय तक जीवित कैसे रखा जायेगा। .. भारत की अनेक भाषाएं और बोलियाँ हमारी सबसे बड़ी ताकत हैं। लेकिन देश की एक भाषा ऐसी हो, जिससे विदेशी भाषाएँ हमारे देश पर हावी ना हों इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने एकमत से हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकर किया।“

अब जरा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी का देशवासियों के नाम १४ सितम्बर का संदेश भी देखें-“हिन्द दिवस पर आप सभी को बहुत-बहुत बधाई। भाषा की सरलता,सहजता और शालीनता अभिव्यक्ति को सार्थकता प्रदान करती है। हिन्दी ने इन पहलुओं को खूबसूरती से समाहित किया है।“

अब राजनेताओं की प्रतिक्रियाएँ-
‘अगर केंन्द्र ने एक तरफा रूप से हिन्दी थोपी तो न सिर्फ तमिलनाडु बल्कि बंगाल, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश जैसे राज्यों में इसकी प्रतिक्रिया (विपरीत) होगी और समर्थन नहीं मिलेगा।’ - (के .पंडीराजन-तमिलनाडु, संस्कृति मंत्री)

‘हम लगातार हिन्दी को थोपे जाने का विरोध कर रहे हैं। अमित शाह की टिप्पणी से हमें आघात पहुँचा है, यह देश की एकता को प्रभावित करेगा। हम माँग करते हैं कि वह बयान वापस लें।’- (एम के स्टालित द्रमुक प्रमुख)

‘अगर भारत को सिर्फ हिन्दी का ही देश बनाना हैे तो सिर्फ हिन्दी भाषी राज्य ही इसका हिस्सा होंगे। तमिलनाडु और पूर्वाेत्तर जैसे कई अन्य क्षेत्र इसका हिस्सा नहीं होंगे।’- (वाइको एमडीएमके प्रमुख)

‘पहचान नहीं हो सकती.. हिन्दी को वैश्विक स्तर पर भारत की पहचान बनाने के लिए अन्य भाषाओं की पहचान छीनने की कोशिश क्या निन्दनीय नहीं है?- (एस रामदास पीएमके प्रमुख)

हिन्दी राष्ट्रभाषा है,यह झूठ बोला जाना बंद होना चाहिए। सभी को पता होना चाहिए कि कन्नड़ की तरह यह भी भारत की २२ अधिकारिक भाषाओं में से एक है। झूठ बोलकर या गलत जानकारी देकर एक भाषा को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता।’- (सिद्धारमैंया, पूर्व सीएम कर्नाटक)

इसी प्रकार अनेक टिप्पणियाँ आईं जिनका विस्तार भय से जिक्र सम्भव नहीं। सभी सुधीजनों ने पढ़ी ही होंगी।

१४ सितम्बर (हिन्दी दिवस) की दो खबर भोपाल की- एक ,‘प्रदेश निर्वाचन आयोग ने हिन्दी को समय, धन नष्ट करने वाली भाषा बताया। निकाय चुनाव में अभ्यार्थी आवेदन में अंग्रेजी में लिखेंगे अपना नाम।’ (यह खबर आर टी आई से प्राप्त अजय दुबे के हवाले से आई है।) प्रश्र है जिस निकाय का आप चुनाव कराने जा रहे हैं उसमें क्या सभी अंग्रेजी के जानने वाले हैं। यदि आप अगूठाछाप या केवल हिन्दी के जानकार का फार्म अंग्रेजी में भरवायेंगे तो जाहिर है वह दूसरे द्वारा भरा गया होगा और उसमें केवल उसके या तो अँगूठा लगा होगा या हिन्दी में हस्ताक्षर किया होगा।

मुझे इस अवसर पर गांधी याद आ रहे हैं, १९/८/१९११ को “इंडियन ओपिनियनमें क्या लिखते हैं, ‘‘हम लोगों में बच्चों को अंग्रेज बनाने की प्रवृत्ति पायी जाती है। मानो उन्हें शिक्षित करने का और साम्राज्य की सच्ची सेवा के योग्य बनाने का वही सबसे उत्तम तरीका है। हमारा ख्याल है कि समझदार से समझदार अंग्रेज भी यह नहीं चाहेगा कि हम अपनी राष्ट्रीय विशेषता अर्थात् परम्परागत प्राप्त शिक्षा और संस्कृति को छोड़ दें अथवा यह कि हम उनकी नकल किया करें। .. इसलिए जो अपनी मातृभाषा के प्रति-चाहे वह कितनी ही साधारण क्यों न हो-इतने लापरवाह हैं, वे एक विश्वव्यापी धार्मिक सिद्धांत को भूल जाने के खतरा मोल ले रहे हैं।”

दूसरी समाचार, अटलबिहारी वाजपेयी विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में बोलते हुए प्रदेश के मा. राज्यपाल महोदय ने हिन्दी विश्वद्यिालय को विशेष दर्जा देने की सलाह दी जिसे वहां उपस्थित उच्च शिक्षा मंत्री ने तत्काल सरकार की ओर से सहमति दे दी।

इस सुखद समाचार को जब हम आप से साझा कर रहे हैं तब भी हमें बापू ही याद आ रहे हैं। उनके कूछ भाषणों / आलेख के अंशों को उद्धृत करना यहाँ समीचीन होगा।

गांधी जी कहते हैं, “जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाये जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं हो सकेगा। यह तो स्वयं सिद्ध है कि :
 १. सारी जनता को नये ज्ञान की जरूरत है।
 २. सारी जनता कभी अंग्रेजी नहीं समझ सकती।
 ३. यदि अंग्रेजी पढऩे वाला ही नया ज्ञान प्राप्त कर सकता है,तो सारी जनता को नया ज्ञान मिलना असम्भव है।”

“हिन्द स्वराज्य” में भाषा के प्रति उनके आग्रह को देखकर रोमांच होता है, ‘भारत की भाषा अंग्रेजी नहीं है, हिन्दी है। वह आपको सीखनी पड़ेगी।’

२० अक्टूबर,१९१७ में राष्ट्रभाषा के पक्ष में बड़े ही तार्किक ढंग से गांधी जी अपनी बात कहते हैं,
      १. वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए।
           २. उस भाषा को ज्यादातर लोग बोलते हों।
          ३. उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक
      कामकाज शक्य होना चाहिए।
     ४.  वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान होनी चाहिए।
      ५. उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या अस्थायी स्थिति पर जोर न
     दिया जाए।”
अंग्रेजी को वे इन पाँचों कसौटियों में खरा नहीं पाते।

३१ दिसम्बर कोलकाता विश्वद्यिालय में ‘‘देश सेवा करने के लिए उत्सुक सब हैं, परन्तु राष्ट्रसेवा तक तब सम्भव नहीं है जब तक कोई राष्ट्रभाषा न हो। दु:ख की बात है कि हमारे बंगाली भाई राष्ट्रभाषा का प्रयोग न करके राष्ट्रीय हत्या कर रहे हैं। इसके बिना देश की आम जनता के हृदयों तक नहीं पहुँचा जा सकता। इस अर्थ में बहुत लोगों के द्वारा हिन्दी को काम में लाया जाना मानवतावाद के क्षेत्र की बात हो जाती है। यह तो बात शिक्षा जगत के लिए रही।

अब जरा नेताओं, समाजसेवकों से राष्ट्रभाषा की गांधी की अपेक्षा को समझे, कोलकाता में ही अखिल भारतीय समाज-सेवा-सम्मेलन में उनका भाषण, “पहली और सबसे बड़ी समाज-सेवा जो हम कर सकते हैं वह यह है कि हम इस स्थित से पीछे हटें, देशी भाषाओं को अपनायें, हिन्दी को राष्ट्रभाषा के  रूप में उसके स्वाभाविक पद पर प्रतिष्ठित कर और सभी प्रांत अपना-अपना समस्त कार्य अपनी देशी भाषाओं में तथा राष्ट्र का कार्य हिंदी में प्रारम्भ कर दें।”

     इन उत्तर से लेकर दक्षिण भारतीय विभिन्न भाषा-भाषी नेताओं, समाजसुधारकों और व्यूरोक्रेट़स के लिए उस संत का और क्या अपेक्षा हो सकती है?

स्मरण रखें देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने कोई अपना एजेण्डा देश के सामने नहीं रखा है, बल्कि वे उसी बात का आग्रह कर रहे हैं जिसे गांधी, रवीन्द्रनाथ जी से कह रहे हैं। यह उनके मन की नहीं देश के अन्तरात्मा की आवाज थी।  २१ जनवरी,१९१८ को गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को लिखे पत्र में उनकी हिन्दी के लिए भविष्य की इच्छा और चिंता दोनों हैं, बापू लिखते हैं, मैं मार्च में इन्दौर में होने वाले “हिन्दी साहित्य सम्मेलन” के अधिवेशन में अपने भाषण के लिए कुछ प्रश्रों पर विचारवान नेताओं के मत एकत्र करना चाहता हूँ, वे प्रश्र इस प्रकार हैं-
१. क्या हिन्दी अन्त:प्रान्तीय व्यवहार तथा अन्य राष्ट्रीय कार्रवाई के लिए उपयुक्त एकमात्र
  सम्भव राष्ट्रीय भाषा नहीं है।
२. क्या हिन्दी काँग्रेस के आगामी अधिवेशन में मुख्यत: उपयोग में लाई जाने वाली भाषा न
   होनी चाहिए।
३. क्या हमारे विद्यालयों और महाविद्यालयों में ऊँची शिक्षा देशी भाषाओं के माध्यम से देना
  वांछनीय और सम्भव नहीं है ? 
४. और क्या हमें प्रारम्भिक शिक्षा के बाद अपने विद्यालयों में हिन्दी को अनिवार्य द्वितीय भाषा नहीं बना देना चाहिए ?
मैं महसूस करता हूँ, कि यदि हमें जनसाधारण तक पहुँचना है और यदि राष्ट्रीय सेवकों को सारे भारतवर्ष के जन साधारण से सम्पर्क करना है, तो उपर्युक्त प्रश्र तुरन्त हल किय जाने चाहिए।”

दक्षिण भारत के क्षेत्रीय नेताओं / तथाकथित बुद्धिजीवियों को गृहमंत्री के वयान पर प्रतिक्रिया देने वाले को गांधी जी की दक्षिण से अपेक्षा को समझना चाहिए- वे २५ मई, १९१८ को हनुमंत राव को पत्र लिखते हैं, “तुम हिन्दी का अध्ययन कर लोगे तो अपने काम का क्षेत्र व्यापक कर सकोगे। .. मैं नहीं जानता कि तुम्हारा इस ओर ध्यान गया है या नहीं, मेरा तो गया ही है। द्रविड़ों और अन्य भारतीयों के बीच लगभग न पटनेवाली खाई पड़ गयी है। निश्चय ही हिन्दी भाषा उसे पाटने वाला छोटे-से-छोटा और कारगर सेतु है। अंग्रेजी कभी उसको स्थान नहीं ले सकती। हिन्दी में कई ऐसी अवर्णनीय वस्तु है जिससे वह सीखने में आसान होती है। हिन्दी व्याकरण के साथ जितनी छूट ली जा सकती है, उतनी मैंने और किसी भाषा के व्याकरण के साथ ली जाती नहीं देखी। इसलिए मैं कहता हूँ कि राष्ट्रीय काम करने के लिए हिन्दी का ज्ञान नितान्त आवश्यक है।”

२२ जनवरी, १९२१ “जो बात मैं जोर देकर आपसे कहना चाहता हूँ वह यह कि आप सबकी एक सामान्य भाषा होनी चाहिए, सभी भारतीयों की एक सामान्य भाषा होनी चाहिए, ताकि वे भारत के जिस हिस्से में भी जाएँ, वहाँ के लोगों से बातचीत कर सकें। इसके लिए आपको हिन्दी अपनाना चाहिए।”
२३ मार्च,१९२१ विजयनगर, “हिन्दी पढऩा इसलिए जरूरी है कि उससे देश में भाईचारे की भावना पनपती है। हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा बना देना चाहिए। हिन्दी आम जनता की भाषा होनी चाहिए। आप चाहते हैं कि हमारा राष्ट्र एक ओर संगठित हो, इसलिए आपको प्रान्तीयता के अभियान को छोड़ देना चाहिए। हिन्दी तीन ही महीनों में सीखी जा सकती है।”
‘यंग इण्डिया’ नवम्बर १०,१९२१ “हिन्दी के भावनात्मक अथवा राष्ट्रीय महत्त्व की बात छोड़ दें, तो भी यह दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है कि तमाम राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को हिन्दी सीख लेनी चाहिए और राष्ट्र की तमाम कार्यवाही हिन्दी में ही की जानी चाहिए।”

२४ मार्च,१९२५ मद्रास, “मेरी राय में भारत में सच्ची राष्ट्रीयता के विकास के लिए हिन्दी का प्रचार एक जरूरी बात है, विषेष रूप से इसलिए कि हमें उस राष्ट्रीयता को आम जनता के अनुरूप  साँचे में ढालना है।”

          २१ दिसम्बर, १९३३ पैराम्बदूर की मजदूर-सभा में, “साथी मजदूरो, यदि आप सारे भारत के मजदूरों के दु:ख सुख को बाँटना चाहते हैं, उनके साथ तादात्म्य् स्थापित करना चाहते हैं, तो आपको हिन्दी सीख लेनी चाहिए, जब तक आप ऐसा नहीं करते, तब तक उत्तर और दक्षिण में कोई मेल नहीं हो सकता।”

राजगोपालाचारी मद्रास प्रान्त के मुख्यमंत्री के नाते १९३७ में मद्रास में स्कूलों में हिन्दी पढ़ाई जाना अनिवार्य की तो मातृभाषा खतरे में हैके नाम पर आन्दोलन शुरु हो गया तब गांधी जी राजा साहब के पक्ष में उतर आये, १०/९/१९३८ (हरिजन) में, हमने बार-बार  घोषणा की है कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा या प्रान्तों के आपसी व्यवहार की सामान्य भाषा है या होनी है , यदि हमारी इस घोषणा के पीछे ईमानदारी है, तो हिन्दी के ज्ञान को अनिवार्य बनाने में बुराई कहाँ है ? ‘मातृभाषा खतरे में हैयह नारा या तो अज्ञान रूप है या एक पाखंड है और जहाँ इसके पीछे ईमानदारी है, वहाँ भी उन लोगों की देशभक्ति के लिए अपवादमय चीज है।.. .. यदि हमें अखिल भारतीय राष्ट्रीयता के धर्म तक पहुँचना है, तो प्रान्तीयता के आचरण को भेदना होगा। भारत एक देश और एक राष्ट्र है अथवा अनेक देश और अनेक राष्ट्र ? जो मानते हों कि यह एक देश है उन्हें राजाजी को अपना पूरा समर्थन देना चाहिए।“

इसके अतिरिक्त अब जरा विचार करें, यदि हमें सुब्रह्मण्यम् भारती को पढऩा है, तो उनकी पुस्तकें- वाचालि सपथम्, कुयिलु पट्टु, कण्णन पाट्टु, और ज्ञानरथ को कैसे पढ़ें? हमें अंग्रेजी नहीं आती तो कम-से कम हिन्दी अनुवाद तो सारा देश पढ़ सकता है?

महर्षि रमण तमिलनाडु के मदुरै शहर में जन्में। जरा उनके जीवन को समझें। रमण सोलह वर्ष के थे तभी उनके चाचा के यहाँ ‘तिरूवन्नमलाई’ से एक अतिथि पधारे। वैंकटरमण ने पूछा यह गाँव कहाँ है? अतिथि ने बताया अरुणाचल में। सहसा रमण का ध्यान कुलोतुग के पेरिसपुरणकी तमिल कविताओं में पढ़ी कविताओं के कारण शैव संतों के विचारों ने रमण के मन-बुद्धि को झकझोर डाला।  क्या मेरा भी सपना सच होगा, मैं भी उन संतों के समान बन सकूँगा।’

रमण के सम्पूर्ण जीवन को समझने के लिए यदि हमें तमिल और अंग्रेजी नहीं आती तो उनकी पुस्तक चालीस कविताएँको हिन्दी न होती तो हम कैसे पढ़ पाते। आखिर कैसे उनके श्रेष्ठ आध्यात्मिक जीवन को समझ पाते। और यदि रमण को हम केवल तमिल या अंग्रेजी तक ही सीमितकर लें और उन्हें भी यदि संस्कृत भाषा का ज्ञान नहीं होता तो आखिर तमिलभाषिओं को  शंकराचार्य की ‘ विवेक चूणामणि‘ का तमिल में आनन्द कैसे मिलता ?

           हम क्यों भूल जाते हैं कि आज सारा देश यदि श्रीनिवास रामानुजम को स्मरण कर पा रहा है तो केवल तमिल के कारण नहीं तो हिन्दी का उसमें बड़ा योगदान है। इसी तरह क्या दक्षिण भारतीय केवल अपनी भाषा बोध के कारण महर्षि अरविन्द, रवीन्द्र नाथ टैगोर, बंकिमचन्द्र, प्रसाद, प्रेमचन्द को समझ सकते थे? रामानुजाचार्य, तिरुवल्लुवर, बल्लभाचार्य (तेलुगु), नायन्मार संतों को सारा देश कैसे समझ पाता?भारतीय संविधान की आंठवी अनुसूची की सभी भाषाओं का ही नहीं तो बोलिओं और उपबोलियों का भी मनुष्य जीवन के निर्माण में अतुलनीय भूमिका है।

           रवीन्द्र नाथ टैगोर, की कविता का हिन्दी अनुवाद -
 “इस धरा पर वह महान आत्मा उतर रही है
 तो घासों की पत्तियाँ, सिहर-सिहर उठती हैं इस संभावना में
 स्वर्ग में नगाड़े बजने लगते हैं..
 काली रात का दुर्ग धूल में मिल जाता है
 और फैल जाता है, भोर का उजाला
 एक नए जीवन का आश्वासन कोई भय नहीं
 और आकाश  में प्रतिध्वनित होने लगता है यह मंत्र
 एक नए मान की विजय का हो रहा है आगमन।”

तमिलनाडु के तिरुवल्लुवर की कृति ‘तिरुक्कुलरल’ को हम कैस पढ़ सकते थे यदि हिन्दी अनुवाद हमारे समाने न होता। उनके छंदों के कुछ हिन्दी अनुवाद पढऩा आवश्यक है- जैसे पानी जिस मिट्टी में वो बहता है उसके अनुसार बदलता है, इसी प्रकार व्यक्ति अपने मिलने वालों के चरित्र को आत्मसात करता है।.. यहाँ तक की  उत्तम पुरुष जो मन की पूरी अच्छाई रखत है वह भी पवित्र संग से और मजबू होता है।’

 यदि हिन्दी नहीं होती और हिन्दी प्रेमी को तमिल और बंगला नहीं आती होती तो क्या देश बंगला और तमिल के इस अनुवाद का रसास्वादन पा सकता है? क्या इस संदेश को हमारे नेता/ ब्यूरोक्रेट्स/ टेक्रोक्रेट्स/ वामपंथी/ प्रगतिशील (जिनकी रोटी-रोजी ही हिन्दी और अनुवाद पर चल रही है) समझ सकेंगे।

रवीन्द्रनाथ की एक अनुदूति कविता और तिरुवल्लुवर के दो अनूदित उक्त उपदेशों को रख कर अपनी बात इस आशा से समाप्त करुँगा कि भारत एक राष्ट्र है, एक गणतंत्र है। दोनों रूपों में उसकी एक राष्ट्रभाषा और एक राजभाषा आवश्यक है। आज अंग्रेजी को हम सहन कर सकते हैं किन्तु हिन्दी को नहीं, इससे अधिक इस देश की विडम्बना और क्या हो सकती है। देश की भोली भाली जनता का उसके मातृभाषा से पृथक कर, उसे अपना वोट बैंक साधने वाले नेताओं को खास तौर से दक्षिण भारत के नेताओं को यदि युगानुकूल भाषा की चेतना नहीं आई, यदि हठ नहीं छोड़ा तो दस साल के अन्दर हिन्दी प्रेमी राजनीतिक दल पूरे दक्षिण की राजनीति पर कब्जा करेगा। गांधी के संदेश को स्वीकारने के अलावा ‘नान्या: पंथा:।’