गांधी की आत्मकथा
के मायने (भाग एक)
प्रो. उमेश कुमार
सिंह
गांधी की मानसिक विकास यात्रा उनके पूर्वजों से होते हुए माता-पिता के माध्यम
से उनके जीवन में आती है और सामाजिक अनुभव से पूर्ण होती है। मैंने एक मित्र की
कुछ दिन पहले फेसबुक में जिज्ञासा पढ़ी कि ‘पता नहीं गांधी जी ने रामचरित मानस
पढ़ा भी था कि नहीं ?’ इसकी बात मैं आगे करुँगा। अभी केवल इतना संकेत
देना ठीक होगा कि उनके घर में तुलसीदास दो पीढ़ी पहले प्रवेश कर चुके थे। गांधी जी
के ही शब्दों में, ‘ओता गांधी के एक के बाद दूसरा यों दो विवाह हुए
थे। पहले विवाह से उनके चार लड़के थे और दूसरे से दो। अपने बचपन को याद करता हूँ, तो मुझे खयाल नहीं
आता कि ये भाई सौतेले थे। इनमें पाँचवें करमचन्द अथवा कबा गांधी और आखिरी तुलसीदास
गांधी थे।’ ज़ाहिर है तुलसीदास का नाम कहीं न कहीं उस परिवार
में श्रद्धास्थान पर था।
अपने परिवार का परिचय देते हुए गांधी जी लिखते हैं, ‘कबा गांधी के भी
एक के बाद एक यों चार विवाह हुए थे। पहले दो से दो कन्यायें थीं, अन्तिम पत्नी
पुलतीवाई से एक कन्या और तीन पुत्र थे। उनमें अंतिम मैं हूँ।’ गांधी जी चार
विवाह का कारण स्पष्ट नहीं करते कि ये विवाह तीन माताओं की उपस्थिति में हुए थे या
मृत्यु पश्चात। अथवा पुत्र मोह इसमें हेतु था। खैर। पिता जी के स्वभाव को बताते
हुए गांधी जी संकेत अवश्य देते हैं, पर वह संकेत ही है।
करमचन्द जी के स्वभाव को समझने से गांधी के स्वभाव को समझा जा सकता है, ‘पिता कुटुम्ब-प्रेमी, सत्य-प्रिय, शूर, उदार, किन्तु क्रोधी
थे।.. थोड़ा विषयासक्त भी रहे होंगे। उनका आखिरी व्याह चालीसवें साल के बाद हुआ
था। हमारे परिवार और बाहर भी उनके विषय में यह धारणा थी कि वे रिश्वतखोरी से दूर
भागते हैं और इसलिए शुद्ध न्याय करते हैं। (ध्यान रहे गांधी यहाँ शुद्ध न्याय की
प्राथमिक शर्त की ओर भी ध्यान दिला रहे हैं) राज्य के प्रति वे बहुत वफादार थे।’
गांधी जी का यह स्पष्टीकरण भी प्रेरणा देता है, ‘ पिताजी ने धन
बटोरने का (शब्द पर ध्यान दें ‘बटोरने’ का) लोभ कभी नहीं
किया। इस कारण हम भाइयों के लिए वे बहुत थोड़ी सम्पत्ति छोड़ गये थे।’ यहाँ गांधी
पारिवारिक हालात तो स्पष्ट कर ही रहे हैं, धन की दृष्टि के प्रति उनका अपना नजरिया भी पिता
जी की तरह ही था, भी स्पष्ट कर रहे हैं। पिता जी की धन के प्रति लोभ
न होने को वे गर्व से वर्णन करते हैं, न कि हीनताबोध से।
पिता जी का परिचय देते हुए गांधी जीवन की बड़ी बारीक बात का उल्लेख करते हैं, ‘पिता जी की शिक्षा
केवल अनुभव की थी।.. इतिहास-भूगोल का ज्ञान तो बिकुल ही न था। फिर भी उनका
व्यावहारिक ज्ञान इतने ऊँचे दर्जे का था कि बारीक से बारीक सवालों को सुलझाने में
अथवा हजार आदमियों से काम लेने में भी उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी।’
गांधी जी आगे जो लिखते हैं वह उनके हिन्दुत्व की दृष्टि के विकास का मार्ग
निर्धारित करती है, ‘धार्मिक शिक्षा नहीं के बराबर थी, पर मन्दिरों में
जाने से और कथा बगैरा सुनने से जो धर्मज्ञान असंख्य हिन्दुओं को सहज भाव से मिलता
रहता है, वह उनमें था। आखारि के साल में एक विद्वान ब्राह्मण की सलाह से, जो परिवार के
मित्र थे, उन्होंने गीता पाठ शुरू किया था और रोज पूजा के
समय वे थोड़े-बहुत श्लोक ऊँचे स्वर से पाठ किया करते थे।’
अब जरा गांधी के ऊपर माता जी का प्रभाव समझने का प्रयत्न करें, ‘मेरे मन पर यह
छाप रही है कि माता साध्वी स्त्री थीं। वे बहुत श्रद्धालु थीं। बिना पूजा-पाठ के
कभी भोजन न करतीं। हमेशा हवेली (वैष्णव मंदिर) जातीं। जबसे मैंने होश सम्भाला तबसे
मुझे याद नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी चातुर्मास का व्रत तोड़ा हो। वे कठिन-से कठिन व्रत शुरू करती और उन्हें निर्बिघ्न
पूरा करती। ..मुझे याद है चन्द्रायन के व्रत में वे बीमार पड़ी पर व्रत नहीं
तोड़ा। ..मुझे ऐसे दिन याद हैं कि जब हम सूरज को देखते और कहते, ‘माँ-माँ, सूरज दिखा’ और माँ उतावली
होकर आतीं इतने में सूरज छिप जाता और माँ यह कहती हुई लौट जाती कि ‘कोई बात नहीं, आज भाग्य में भोजन
नहीं है, और अपने काम में डूब जाती।’ पाठकगण गांधी के
सत्याग्रह व्रती होने का कारण समझ सकते हैं।
एक घटना बार-बार बताई जाती है जिसको गांधी के शब्दों में समझना आवश्यक है। वे
लिखते हैं, ‘शिक्षक ने अपने बूट की नोक मारकर मुझे सावधान
किया। लेकिन मैं क्यों सावधान होने लगा?
..मैंने यह माना था कि शिक्षक तो यह देख रहे हैं कि
हम एक-दूसरे की पट्टी में देखकर चोरी न करें.. .. सब लड़कों के पाँचों शब्द सही निकले और अकेला मैं बेबकूफ
ठहरा.. .. शिक्षक ने मेरी बेवकूफी बाद में समझायी।’
गांधी जी यह लिखते हुए अपनी ईमानदारी की बात शायद अपने संस्कारों को स्पष्ट
करने के लिए बताते हैं जो सभी उम्र के मनुष्य के लिए आदर्श है, किन्तु कहीं न कहीं
यह चिन्ता भी है कि कहीं इस घटना का गुरुओं के प्रति बिपरीत प्रभाव न पड़े। इसलिए
आगे लिखते हैं, ‘इतने पर भी शिक्षक के प्रति मेरा विनय कभी कम नहीं हुआ।’ खैर।
किन्तु मैं यहाँ गांधी के जीवन की उन दो घटनाओं को ज्यादा महत्व देता हूँ जो
उनके अन्दर इस ईमानदार बालक का निर्माण करती हैं। पहली घटना ‘श्रवण-पितृभक्ति नाटक’, दूसरा-
हरिश्चन्द्र आख्यान। गांधी जी को संगीत का बचपन से शौक था। वे लिखते हैं, ‘किन्तु पिता जी
की खरीदी हुई एक पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ी। नाम था ‘श्रवण-पितृभक्ति नाटक’।..
मैं उसे बड़े चाव के साथ पढ़ गया।’ दूसरा ‘उन्हीं
दिनों शीशे में चित्र दिखानेवाले भी घर-घर आते थे। उनके पास मैंने श्रवण कुमार का
वह दृष्य भी देखा, जिसमें वह अपने माता-पिता को काँवर में बैठाकर
यात्रा पर ले जाता है। दोनों चीजों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। श्रवण की मृत्यु
पर उसके माता-पिता का विलाप मुझे आज भी याद है। उस ललित छन्द को मैंने बाजे पर
बजाना सीख लिया था। मुझे बाजा सीखने का शौक था और पिता जी ने एक बाजा दिला भी दिया
था।’ यदि आज के माता-पिता की तरह करमचंद गाँधी भी मोहनदास को कहते ‘ श्रवण कुमार
और हरिशंद को पढ़कर तुम्हें क्या मिलेगा ? संगीत वंगीत छोड़ों पढाई में ध्यान दो।
तुम्हें विद्यालय में टॉप करना है ? विचार करें तब क्या हम गाँधी को पाते ? गाँधी
के माता-पिता कभी टाप के चक्कर में नहीं पड़े ।
सात से बारह वर्ष गाँधी की शिक्षा कैसी थी ? आज हैसियत न होने पर भी माता–पिता
कैसे अबोध बालक को अंग्रेजी विद्यालयों में डालकर ‘ ग फार गधा’ सिखा रहे हैं ! गाँधी
के शव्दों को समझान होंगा, ‘मुझे राजकोट की ग्रामशाला में भारती किया गया। इस शाला के दिन मुझे अच्छी तरह
याद हैं। शिक्षकों के नाम-धाम भी। (‘नाम धाम भी’, बड़ा महत्वपूर्ण है ).. मैं
मुश्किल से साधारण श्रेणी का विद्यार्थी रहा होउंगा।’
गांधी की आजीवन सेवावृत्ति और पितृभक्ति का कारण श्रवण कुमार पर आधारित वह
ललित छन्द रचना है, जिसे वे जीवन भर नहीं भूले। यहाँ एक बात और स्मरण
रखना होगा कि संगीत और साहित्य कैसे बाल मन को संस्कारों से पुष्ट करते हैं किन्तु
दुर्भाग्य यह है कि आज की अंग्रेजी शिक्षा ने मातृभाषा से बचपन को जिस तरह से काटा
है उसके कारण न केवल बालमन विदू्रपता की ओर बढ़ रहा है बल्कि अपने परम्परागत
संस्कारों से भी निरन्तर दूर होता जा रहा है। क्या गांधी का स्मरण हमें अपनी
परम्परा का स्मरण भी करा सकेगा?
इसकी पुष्टि के लिए इस बात को और स्मरण रखना होगा जिसे वे लिखते हैं, ‘इन्हीं दिनों कोई
नाटक-कंपनी आयी थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। हरिश्चन्द्र आख्यान।’
वे लिखते हैं नाटक का प्रभाव इतना था कि वे बार-बार देखना चाहते थे किन्तु वह
सम्भव नहीं था। वे कहते हैं, ‘मुझे हरिश्चन्द्र के सपने आते। हरिश्चन्द्र की
तरह सब सत्यवादी क्यों नहीं बनते?’ हरिश्चन्द्र की विपत्तियों के समय सत्य को न छोड़ना
गांधी जी के जीवन का वह मोड़ था जिसे वे आजीवन पालन करते हैं। यहाँ दो बातें ध्यान
रखनी होगी। गांधी की उम्र उस समय सात से बारह वर्ष की थी। और हम जानते हैं कि
मनुष्य के जीवन निर्माण का वह श्रेष्ठतम कालखण्ड होता है।
गांधी लिखते हैं, ‘हरिश्चन्द्र के दु:ख देखकर, उनका स्मरण करके
मैं खूब रोया हूँ। .. ..मेरे विचार से हरिश्चन्द्र और श्रवण आज भी जीवित है। मैं
मानता हूँ कि आज भी उन नाटकों को पढूँ, वे मेरी आँखों से आँसू बह निकलेंगे।’
गांधी की इस प्रवल इच्छा को हम आज १५० वें वर्ष पर कितना सम्मान दे रहे हैं, आत्मावलोकन करने
का विषय है। भला हो राजनीति का जिसने गांधी को आज जिन्दा रखा है अन्यथा श्रवण
कुमार और राजा हरिश्चन्द्र तो हमारे शिक्षा व्यवस्था से ‘ईद के चाँद’ हो गये हैं जो कभी
कभार मुहावरों की तरह उल्लेख किये जाते हैं। गांघी के इस संदेश को हर माता-पिता को
समझना होगा। देश की राजनीति भी यदि कोई अवसर देती है तो उसका लाभ सजग समाज को
अवश्य उठाना चाहिए। वह गाँधी के बहाने ही क्यों न हो! (क्रमश:)
२७/०९/२०१९