Sunday, 1 June 2025

प्रार्थना 2

 


केनोपनिषद्

ऊँ केनेषितं पतति प्रेषितं मन:

 केन प्राण: प्रथम: प्रेति युक्त:।

           केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षु: श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।

 (केन./1/1)

                इसे ही उपनिषदों ने कहा है -

            ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।

            पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिष्यते।।

 तब एक दिन मुण्डकोपनिषद का ऋषि फटकारता हुआ कहता है-

 परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो

   निर्वेदमायात् नास्ति अकृत: कृतेन।

  तद्धिज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत

 इस तरह से जीवन के सत्य को जानने की इच्छा ने शाश्वत, अविनाशी, असीम की खोज प्रारंभ की और एक दिन उन्होंने सत्य को जाना-

ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन

        देवात्मशक्तिं स्वगुणैनिगूढ़ाम।। (श्वे.1/13)

   -ध्यानयोग को विषय बनाकर मन की खोज प्रारंभ की। अपने गुणों में निहित ब्रह्म को देखा और गदगद कंठ से पुकार उठे-

 श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा

        आ ये धामानि दिव्यानि तस्यु:।

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम

       आदित्यवर्णं तमस: परस्तात।

          तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति

             नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।। (श्वेता.2/5,3/8)

     -अहो विश्व के निवासियो! अमृत पुत्रो! सुनो। दिव्य लोकों में रहने वाले देवताओं, तुम लोग भी सुनो। मैंने सूर्य के समान चमकीले उस महान् पुरुष को जान लिया है, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार से परे है। केवल उसी को जानकर मृत्यु की विभीषिका को पार किया जा सकता है। इससे भिन्न दूसरा रास्ता नहीं है। 

स्वर्ग प्राप्त की कामना से यज्ञ करना उचित नहीं -

      प्लवा हि एते अदृढा यज्ञरूपा

         अष्टादशेक्त्म् अवरं येशु कर्म।

     एतत् श्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढ़

            जरामृत्युं ते पुनरेवाति यन्ति।।   (मुण्ड.1/2/5)

  ऋषि कहता है, “अरे मूर्खों ! यदि तुमने यज्ञ को भव सागर पार करने की नौका माना है तो बड़ी भूल की है। यह यज्ञ रूपी नौका तुम्हारी जीर्ण शीर्ण है। इसमें सोलह ऋत्विज और यजमान एवं यजमान की पत्नी ऐसे अठारह लोग बैठे हैं, वे सब नीच कर्म करने वाले हैं और सबके सब मँझधार में डूबेगें। जो मूढ़ इस यज्ञ को कल्याणकर मानते हैं, वे बुढ़ापा और मृत्यु के फन्दे में बारम्बार फँसते हैं।”

ईशावास्य उपनिषद् में इस प्रकार के संकेत मात्र दिखाई देता है, जहाँ गुरु शिष्य से सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए कहता है-

  “ईषावास्यम्  इदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्। 

तेन त्येक्तेन भुञ्जिथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम।”

      कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।। (ईशो-1/1-2)

 अर्जुन से सभी कार्य को यज्ञ बना लेने को कहते हैं-

यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधन।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग: समाचर।।  (गीता-3/9) 

अर्थात सारा कर्म भगवत्समर्पित बुद्धि से कर्म करना। एक प्रश्न का और समाधान भगवान करते हैं, कहते हैं इस बहाने दुष्कर्म को भी भगवान को अर्पित कर किया जा सकता है क्या ? भगवान कहते हैं-

 किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:। 

ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽषुभात।। (गीता- 4/16)

  हे पार्थ! कर्म क्या है, अकर्म क्या है इस सम्बन्ध में मनीषी जन भी भ्रमित हैं। अत: मैं कर्म का मर्म तुझे समझाता हूँ, जिसे जानकर तू अशुभ से मुक्त हो जा-

 कर्मणो ह्यति बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:।  

अकर्मणश्च बोद्धव्यं    गहना कर्मणों गति:।।  (गीता-4/17)

  अर्थात कर्म के तीन रूप हैं- कर्म, अकर्म और विकर्म।  इसीलिए भगवान ने कहा-

       उद्धरेदात्मनात्मनं   नात्मनामवसादयेत।

       आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।।  (गीता-6/5)

   मनुष्य को चाहिए कि वह अपना स्वयं का उत्थान करे और अपने को गिरने न दे; क्योंकि वह स्वयं अपना मित्र और शत्रु भी है। इस प्रकार कर्म संस्कार उसको लिप्त न कर सकें। मनुष्य यह कर्म करता हुआ सौ वर्ष तक जिये-‘पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतमं श्रृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: शरद: शतम्।’ (शुक्ल यजु. 36/24)

  भगवान कहते हैं इसका प्रभाव यह होता है कि -

 नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यन् श्रृणवन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन् श्वसन्।।5.8।।

 प्रलपन् विसृजन् गृहणन उन्मिषन् निमिषन् अपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्। (गीता-5/8-9)

    अर्थात ऐसी समत्व एवं समर्पित बुद्धि से किया गया कार्य जब हम करते हैं तो हमारे यह सारे कार्य -देखना, सुनना, स्पर्श-करना, गंध लेना, खाना, चलना, सोना आदि सभी यज्ञमय हो जाते हैं। आगे कहते हैं -

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5/10

 जो ब्रह्म का आश्रय और आधार मानकर, आसक्ति का त्याग करते हुए, कर्तव्य कर्म करता है, वह जल में कमलपत्रवत् पाप से अलिप्त रहता है। यही गीता की चरमावस्था है, यही ब्रह्मनिष्ठा और स्थितप्रज्ञता है।

  गीता में योग को दो प्रकार से परिभाषित किया 

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । 
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।  

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥२॥

                केन-उपनिषद

ऊँ आप्यायनतु ममांगानि वाक् प्राणश्चक्षु:

श्रोत्रमयो बलम् इन्द्रियाणि च सर्वाणि।

सर्वं  ब्रह्मौपनिषदं, माहं ब्रह्म निराकुयां, मा मा ब्रह्म निराकरोद्,

अनिराकरणमस्तु, अनिराकरणं मेंऽस्तु।

तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्तेमयि सन्तु, ते मयि संन्तु।

ऊँ शांति शांति शांति:


              

    

 

कर्मकाण्ड और उपासना का समुच्चय होना चाहिए-

''अन्ध तम: प्रविशन्ति येऽपिद्यामुपासते।"

 विद्यायाम = देवतोपासना और अविद्यायाम= कर्मकाण्ड।

विद्या- ‘सा विद्या या विमुक्तये’।

‘विद्या चाविद्यां च यस्तद्वेदोभय सह।

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुतू’ -(ईष-11)

      देवताओं की पूजा करके आदमी सिद्धि को प्राप्त करता है- ईश्वरीय गुणों को ऐश्वर्य कहते हैं। 

आठ ऐश्वर्य या सिद्धियाँ इस प्रकार हैं-

“अणिमा महिमा गरिमा लघिमा तथा।

ईषित्वं च वषित्वं च प्राप्ति: प्रकाम्यमेव च।।”

अर्थात् शूक्ष्म हो जाना, विशाल हो जाना, भारी हो जाना, हल्का हो जाना, शासक बन जाना, वश में कर लेना, इच्छानुसार वस्तु की प्राप्ति और जैसा चाहे वैसा रूप बना लेना।

“सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेभीय सह।

विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते”

अर्थात्- जो संम्भूत अर्थात् कारण ब्रह्म तथा विनाश अर्थात् कार्य ब्रह्म (हिरण्यगर्भ) दोनों को साथ -साथ उपासना करने योग्य जानता है, वह कार्य-ब्रह्म की उपासना से मृत्यु को पार करके कारण-ब्रह्म की उपसना से अमृत अर्थात् प्रकृतिलय की अवस्था को प्राप्त करता है। (ईषा-14 )

 अर्थात् सभी जीव अपनी आत्मा ही हो जाते है” (‘आत्मा-एव-अभूद्-विजानत:’)

ऋषि कहता है-

“हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम।

तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।”

अर्थात्  हे जगत के पोशक! (पूषा) सूर्यदेव स्वर्णिम पात्र (हिरण्यगर्भ) के द्वारा सत्य (कार्यब्रह्म) का जो मुँह ढका हुआ है, मुझ सत्यधर्मा (उपासक) के दर्शन हेतु वह ढक्कन हटा दीजिए। (ईषा.15)

“पूषान्नेकर्षे यम सूर्य प्रजापत्य व्यूह रश्मीन्समूह तेजायत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुष: सोऽहमास्मि।।” (16 ईषा)

अर्थात् जगत का पोशण करने के कारण सूर्य को पूषा कहते है; अत: हे पूषा ! (गगन में) एकाकी विचरण करने के कारण वे एकर्षि कहे जाते हैं; (अत:) हे एकर्षि, प्राणों तथा रसों को खीच लेने के कारण वे सूर्य कहलाते हैं; (अत:) हे सूर्य! प्रजापति के पुत्र होने से वे प्राजापत्य हैं: (अत:) हे प्राजापत्य! अपनी रश्मियों को व्यूह अर्थात्  हटाइये। अपने तेज अर्थात् ताप देने वाले प्रकाश को एकत्र करके खीच लीजिए।(16, ईषा.)

“वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त शरीरम।

ऊँ क्रतो स्मर कृतँ स्मर क्रतो स्मर कृतँ स्मर।।”

अर्थात् अब मेरा प्राण सर्वव्यापी वायु में विलीन हो जाय; मेरा शरीर भस्म में परिणत हो जाय। ऊँ, हे मेरे मन ! अब तक अपने द्वारा किये हुए कर्म तथा उपासनाओं का स्मरण करो, स्मरण करो। (17 ईषा.)

व्याहृतियाँ- भू:, भुव: तथा स्व: ये तीन व्याहृतियाँ हैं। (तै.उ. 1/5/1) । इनमें से ‘भू:’ अर्थात्  पृथ्वी का सिर है, ‘भुव:’ अर्थात्  आकाश उसकी दो भुजाएं हैं और ‘स्व:’ अर्थात् स्वर्ग उसके दो चरण हैं। (बृ.उ.5/5/3)

“अग्रे नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठंते नम उक्तिं विधेम।।”18

अर्थात्  हे अग्नि! हे देव! आप हमारे समस्त कर्म फलों के ज्ञाता हैं; हमें अपने कर्मफलों का भोग कराने के लिए अच्छे मार्ग से ले चलिए। कुटिल पापों को हमसे दूर कीजिए। हम आपको बारम्बार नमन करते हैं।

इस तरह से ईषोपनिषद में ऋषि सूर्य और अग्नि देव से प्रार्थना करता है कि उसे अमृत की ओर ले चलो।

इस तरह से ऋषि अविद्या (कर्म) के द्वारा मृत्यु को पार करके विद्या (उपासना) के द्वारा अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है। वह विनाश के (कार्यब्रह्म) के द्वारा मृत्यु को पार करके, सम्भूति (कारणब्रह्म) की उपासना से अमृतत्व की प्राप्ति कर लेता है।

‘विद्यया देवलोका:’ अर्थात्  विद्या से देवलोक  मिलता है।- (बृउ.1.5.16)

‘विद्यया तदारोहन्ति’ अर्थात्  विद्या ऊपर उठाती है। (बृउ.1.5.)

‘कर्मणा पितृलोका’ अर्थात्  कर्म से पितृलोक मिलता है। (ईष.9)

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कुण्डलनी जागरण यानी 'तेजोऽस्मि'

श्वेताश्वतरोपानिषद कहता है- “यदाऽऽत्मतत्वेन तु ब्रह्मतत्वं दोपोपमेनेह युक्त: प्रपष्यते।

अजं ध्रुवं सर्वतत्वैविशुद्वं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाषै:।।”

ईश्वर कैसे मिलेगा- “नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन” (मुण्डको.)

अथ योगानुशासनम् -परम्परागत योग विषयक शास्त्र की चर्चा करते हैं।

योगश्चित्तिवृत्तिनिरोध:- चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है। अर्थात्  चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना योग है। यह स्थिति कब आती है ? “तदा द्रष्टु:स्वरूपेऽवस्थानम।” जब चित्त की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हो जाता है, उस समय द्रष्टा (आत्मा) अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है; अर्थात्  केवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है।

 चित्त वृत्तियाँवैसे तो चित्त वृत्तियाँ असंख्य हैं किन्तु मोटे तोर पर उन्हें पाँच प्रकार से बाँटा जा सकता है।

चित्त वृत्तियाँ पाँच हैं- “प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय:” (1) प्रमाण (2) विपर्यय (3) विकल्प, (4)निद्रा- स्वप्न (5) स्मृति।

 यह सभी वृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं- “वृत्तय:पंचतय: क्लिष्टाक्लिष्टा ।” 

क्लिष्ट - अर्थात्  अविद्या आदि क्लेषों को पुष्ट करने वाली और योगसाधना में विघ्नरूप होती हैं। 

अक्लिष्ट- क्लेशों को क्षय करने वाली और योगसाधन में सहायक होती हैं।

विपर्यय- ‘विपर्ययोंमिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम।।’ ‘तत:क्लेषकर्मनिवृति।’

विकल्प- ‘शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्प ।’ अर्थात जैसे कोई मनुष्य भगवान के रूप का ध्यान करता है पर जिस रूप का ध्यान करता है उसे न तो उसने देखा है, न वेद-शास्त्र सम्मत है, और न ही वह भगवान का वास्तविक स्वरुप है केवल कल्पना मात्र है, विकल्प है।

 निद्रा- ‘अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा’- ज्ञान के अभाव का ज्ञान जिस चित्तवृति के आश्रित रहता है, वह निद्रावृत्ति है।” निद्रा भी चित्त की वृत्तिविशेष है। कई दर्शनकार निद्रा को वृत्ति नही मानते, इसे सुषुप्ति अन्तर्गत मानते हैं। 

गीता में आया है-

युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।

स्मृति- अनुभूतिविषयासम्प्रमोष: स्मृति:।


चितवृत्तियों का निरोध- 

योगी कहता है- 

‘अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:।’ 

गीता कहती है- 

‘अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहयते’(6.35)

 चित्तवृत्तियों के निरोध के दो प्रकार हैं- अभ्यास और वैराग्य।

     अभ्यास क्या है-

“तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यास” 

अर्थात्  जो स्वभाव से चंचल है। उसको स्थिर रखने के यत्न का नाम अभ्यास है।

गीता कहती है-

 ‘स निश्चयेन  योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।’ 

योग का अभ्यास बिना उकताये बिना समय सीमा के निश्चित किये निष्ठापूर्वक करते रहना है। 

वैराग्य क्या है- ‘दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम।’ 

यहाँ दो शब्द हैं, दृष्टा और अनुश्रविक । विषयों में सर्वथा तृष्णारहित चित की जो वशीकार नामक अवस्था है, वह वैराग्य (तत्परमं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम) है। 

 (यदाहिनेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते, सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते)  

 सिद्धि क्या है - ‘श्रद्वावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक: ।’

श्रद्वा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक, (क्रम) से सिद्धि प्राप्त होती है।’

‘श्रद्वावान लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिभचिरेणधिगच्छति।।’ 

(4/39,गीता)

सिद्धि प्राप्त करने हेतु योगी को अभ्यास और वैराग्य में तीव्रता लानी होती है। 


              ईश्वर कौन है

-‘क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।’ 

क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से जो (अपरामृष्ठ) है, असम्बद्व है, वह ईश्वर है।

 ईश्वर ज्ञान वैर यश, ऐश्वर्य की पराकाष्ठा है। क्या ईश्वर इस कारण से मिलता है ?

‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन।’(मुण्ड.) 

ईश्वर स्वयं अनादि है क्योंकि वह सब के आदि है (योग,10-2-3) वह कालातीत है। उसका वाचक ‘प्रणव’ है।

 ‘तस्य वाचक: प्रणव:’

(प्रणव ऊँकार है) (प्रश्नोपनिषद में पाँचवे प्रश्नोत्तर में और माण्डूक्योपनिषद में ऊँकार की उपासना का विषय विस्तार से है) 

ऊँ, परमेश्वर का वेदोक्त नाम है।

 (गीता-17-23, कठो.1/2/15-17) साधक को ईश्वर के नाम का जप और उसके स्वरूप का स्मरण चिन्तन करना चाहिए।

भक्ति क्या है - महर्षि शाण्डिल्य ने कहा है-

 ‘सा परानुरक्त्रिीश्वरे।’ 

देवर्षि नारद ने भक्तिसूत्र में कहा है- ‘सात्वस्मिन परमप्रेमरूपा च।‘ 

अर्थात्   उस परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है। यह अमृत स्वरूपा है-

‘अमृतस्वरूपा च।‘’ 

ईश्वर की भक्ति में आयु, रूप आदि का कोई अर्थ नही होता है-

“व्याधस्याचरणं धुवस्य च वयो विद्या गजेन्दस्य का

 का जातिर्विदुरस्य यादवपतेरुप्रस्य किं पौरषम्।

कुव्जाया: कामनीरूपमधिकं किं तत्सुदाम्नो धनं

भक्त्या तुश्यति केवलं न च गुणैर्भक्ति प्रियो माधव:।।

श्रीमद्भागवत में प्रहलाद ने भक्ति के लिए कहा है-

‘श्रवणं कीर्तनं विष्णों: स्मरणंपादसेवनम।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम।।’(7/5/23)

 ऋतम्भरा बुद्वि के प्रकट होने पर साधक को प्रकृति के यथार्थ रूप का भान हो जाता है तब उसे वैराग्य होता है।

“तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीज: समाधि:।”

 क्लेश क्या है- “अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेषा: क्लेषा:।” अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच क्लेश कहलाते हैं।

अविद्या जिनका कारण हैं- 

‘अविद्या क्षेत्रमुत्तरेशां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोद्वाराणाम।’

अविद्या क्या है- “अनित्याशुचिदु:खानात्मसु नित्यशुचि सुखात्मख्यातिरविद्या ।” अनित्य, अपवित्र, दु:ख और अनात्मा में नित्य, पवित्र, सुख और आत्मा का आत्मभाव की अनुभूति ‘अविद्या’है।

अस्मिता क्या है-

“दृगदर्शन शक्त्योरेकात्मतेवास्मिता।” अविद्या के नाश होने से ‘अस्मिता’ का नाश होता  है। 

राग क्या है- ‘सुखानुशयी राग:।’ सुख की प्रतीत के पीछे रहने वाला क्लेष ‘राग’ है।

द्वेष क्या है- ‘दु:खानुशयी द्वेष।’ दु:ख की प्रतीत के पीछे रहने वाला क्लेश ‘द्वेष’ है।

  क्लेशों की स्थूल वृत्तियों को ‘ध्यानहेयास्तदृवत्तय:’ द्वारा सूक्ष्म बना दिया जाता है।

दु:ख के रूप- परिणाम दु:ख, ताप दु:ख, संस्कार दु:ख, गुणवृत्ति विरोध सब में विद्यमान रहते हैं।

  अष्टांग योग

‘यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टवगांनि।।’

इनमें पाँच वहिरंग हैं जो इस प्रकार हैं- (1)  यम- ‘अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:’

() अहिंसा -   अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।

(ख) सत्य- ‘सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम।’

(ग) अस्तेय- “अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम।”

(घ) ब्रह्मचर्य- ‘ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यालाभ:।’

मन, वाणी और शरीर से होनवाले सब प्रकार के मैथुनों की सब अवस्थाओं में सदा त्याग करके सब प्रकार से वीर्य की रक्षा करना ‘ब्रह्मचर्य’ हैं ।  “कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा। सर्वत्र मैथुनत्यागी ब्रह्मचर्य प्रचक्षते।।” (गरुण.पूर्व.आचार 238.6) 

(ड) अपरिग्रह- 

अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध:। 

(2) नियम- “शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा: ।”

 ‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन।’ (मुण्ड.)

अक्षर ब्रह्म - भारतीय दर्शन में परम ब्रह्म अक्षर है - अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसंज्ञित:। (8,3)

 गीता कहती है-

सहस्त्रयुगपर्यन्तमहृर्यद ब्रह्मणो बिन्दु:।

रात्रिं युगसहस्त्रन्तां तेऽहोरात्रविदो जना:।

अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा प्रभवन्त्यहरागमे।

रान्न्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त संज्ञके।।

भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

रान्न्यागमेऽवश: पार्थ  प्रभवन्त्यहरागमे।।

परस्तस्मातु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।

य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।

अव्यक्तोऽक्षर  इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्वाम परमं मम।।

(अर्थात)

              ऊँ विष्णुर्विष्णुविष्णु:। ऊँ नम: परमात्मने श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य  श्रीब्रह्मणों द्वितीय परार्द्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते आर्यावर्तान्तर्गत  ब्रह्मावर्तैकदेशे बौद्धावतारे अमुकनाम संवत्सरे अमुकायने (उत्तरायणे/दक्षिणायने) महामांगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमें अमुक मासे अमुकपक्षे (शुक्लपक्षे / कृष्णपक्षे) अमुक तिथौ अमुक वासरान्वितायां अमुक नक्षत्रै अमुक राषिस्थिते सूर्ये  अमुकराषिस्थिते चन्द्रे अमुकराषिस्थिते भौमें अमुकराषिस्थिते बुधे अमुकराषिस्थिते गुरौ अमुकराषिस्थिते शुक्रे अमुकराषिस्थिते शनौ सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेष विशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्रश्रुतिस्मृतपुराणोक्त फलप्राप्तिकाम: अमुकोऽहं ममात्मन: सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृतिराजकृतसर्वाविधपीड़ानिवृतिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायु: पुष्टिधनधान्यसृद्व्यर्थं सर्वापन्निवृति सर्वाभीष्टफलावाप्ति धर्मार्थकाममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थ द्वारा अमुक (राष्ट्र) देवताप्रीत्यर्थं पूजनपूर्वकं संकल्पं (अमुक कर्मं) करिष्ये।


परमसत्ता की अवधारणा -

 परमसत्ता की अवधारणा वेद के साथ चलती हैं। नासदीय सूक्त में अध्याय दस में श्लोक आता है -

नासदासीन्नोसदासीतदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत।

किमावरीव: कुह कस्य शर्मन्नम्भ: किमासीद  गहनं गभीरम।।

 यथा- को, अद्वा वेद क इह प्रवोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टि:।

        अर्वाग् देवा अस्य विसर्जनेनाथ को वेद यत आवभूव।। (1,128,6)

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।

यो अस्याध्यक्ष: परमे व्योमन्त्सो अंग वेद  यदि वा न वेद।।

              मुण्डकोपनिषद में कहा है- ‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन’ अर्थात आत्मज्ञान केवल तीव्र इच्छा शक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है।  यथा-‘मंत्र मूलं गुरुर्वाक्यं, पूजा मूलं गुरु:पदम्। ध्यान मूलं गुरु:मूर्ति, मोक्ष मूलं गुरु: कृपा।।’ सत चेतना हेतु पातंजलि योग दर्शन में कहा है- ‘सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च’ (3-49)

              कठोपनिषद में कहा है- ‘उतिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निवोधत’। क्षुरस्य धारा निशिता  दुरत्या। दुर्गं पंथस्यकवयो वदन्ति। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘सर्वधर्म परितज्यान मामेकम शरणं ब्रज’। अहं त्वाम सर्वपापेभ्यो मा शुच:। मैत्रेयोपनिषद में कहा गया है कि साधक छ: माह में आत्मसाक्षातकार कर सकता है।

              ऐतरेयोपनिषद में कहा है- 'स येतमेव सीमानं विदार्यैतया द्वारा प्रापद्यत। सैषा विदृतिर्नाम द्वास्तदेतन्नान्दम।। इसके अनुसार गर्भस्थ रूप में जीवात्मा सातवें महीने कपाल के बीच तालु से प्रवेश करती है, पहले यह कोमल होता है बाद में कठोर हो जाता है । 

              सुबालोपनिषद में कहा गया है- “स्थानानि, स्थानिभ्यों यच्छति नाड़ी तेषां निबन्धनम” । उसे यह बोध हो जाता है कि- 'मैं यह शरीर नहीं, बल्कि यह शरीर मेरा है गीता में कहा गया है- ‘देहोस्मिनाहं मम् देह इति स्मर’।

              भगवान कृष्ण कहते हैं- ''कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरति। योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगंत्यक्त्वात्मशुद्वये। अर्थात आत्मज्ञानी कभी अपने कर्मों का निर्वाह कम नही करता। 

 

 

 

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''विद्यया देवलोका: अर्थात विद्या से देवलोक  मिलता है।- बृ.1.5.16

''विद्यया तदारोहन्तिअर्थात विद्या ऊपर उठाती है। बृउ.1.5.

'कर्मणा पितृलोकाअर्थात कर्म से पितृलोक मिलता है।- ईष.9

कुण्डलनी जागरण यानी तेजोऽस्मि

श्वेताश्वतरोपानिषद कहता है- ''यदाऽऽत्मतत्वेन तु ब्रह्मतत्वं दोपोपमेनेह युक्त: प्रपष्यते।

अजं धु्रवं सर्वतत्वैविशुद्वं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाषै:।।

ईश्वर कैसे मिलेगा- ''नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन’ (मुण्डको.)

अथ योगानुशासनम् -परम्परागत योगविषयक शास्त्र की चर्चा करते हैं।

योगश्चित्तिवृत्तिनिरोध:- चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है। अर्थात चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना योग है। यह स्थिति कब आती है ? ''तदा द्रष्टु:स्वरूपेऽवस्थानम।जब चित्त की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हो जाता है, उस समय द्रष्टा (आत्मा) अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है; अर्थात केवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है। चित्त वृत्तियाँ-

वैसे तो चित्त वृत्तियाँ असंख्य हैं किन्तु मोटे तोर पर उन्हें पाँच प्रकार से बाँटा जा सकता है। 

चित्त वृत्तियाँ पाँच हैं- 

''प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय:’ (1) प्रमाण (2) विपर्यय (3) विकल्प, (4)निद्रा- स्वप्न (5) स्मृति। यह सभी वृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं- ''वृत्तय:पंचतय: क्लिष्टाक्लिष्टा । क्लिष्ट अर्थात अविद्या आदि क्लेषों को पुष्ट करने वाली और योगसाधना में विघ्नरूप होती हैं। अक्लिष्ट-क्लेशों को क्षय करने वाली और योगसाधन में सहायक होती हैं। 

विपर्यय-'विपर्ययोंमिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम।। 

'तत:क्लेषकर्मनिवृति 

विकल्प- 'शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्प। अर्थात जैसे कोई मनुष्य भगवान के  रूप का ध्यान करता है पर जिस रूप का ध्यान करता है उसे न तो उसने देखा है, न वेद-शास्त्र सम्मत है, और न ही वह भगवान का वास्तविक स्वरुप है केवल कल्पना मात्र है विकल्प है। 

 निद्रा- 'अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा’- ज्ञान के अभाव का ज्ञान जिस चित्तवृति के आश्रित रहता है, वह निद्रावृत्ति है।निद्रा भी चित्त की वृत्तिविशेष है। कई दर्शनकार निद्रा को वृत्ति नही मानते, इसे सुषुप्ति अन्तर्गत मानते हैं। गीता में आया है- 

युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। 

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।

स्मृति- अनुभूतिविषयासम्प्रमोष: स्मृति:- 

चितवृत्तियों का निरोध- योगी कहता है 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध: 

गीता कहती है- 'अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहयते’ (6.35)। चित्तवृत्तियों के निरोध के दो प्रकार हैं-अभ्यास और वैराग्य। 

              अभ्यास क्या है-'तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासअर्थात जो स्वभाव से चंचल है 

गीता कहती है- 'स निश्चयेन  योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा। योग का अभ्यास बिना उकताये बिना समय सीमा के निश्चित किये निष्ठापूर्वक करते रहना है।  

वैराग्य क्या है-

'दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम। यहाँ दो शब्द हैं, दृष्टा और अनुश्रविक । विषयों में सर्वथा तृष्णारहित चित की जो वशीकार नामक अवस्था है, वह वैराग्य (तत्परमं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम) है।  

 (यदाहिनेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते, सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते) 

 

 सिद्धि क्या है -  ''श्रद्वावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक:’। श्रद्वा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक, (क्रम) से सिद्धि प्राप्त होती है।

'श्रद्वावान लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिभचिरेणधिगच्छति।। (4/39,गीता)

सिद्धि प्राप्त करने हेतु योगी को अभ्यास और वैराग्य में तीव्रता लानी होती है।  

ईश्वर कौन है -

'क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:। क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से जो (अपरामृष्ठ) है, असम्बद्व है, वह ईश्वर है। ईश्वर ज्ञान वैर यश, ऐश्वर्य की पराकाष्ठा है। क्या ईश्वर इस कारण से मिलता है ? 'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन।’(मुण्ड.) ईश्वर स्वयं अनादि है क्योंकि वह सब के आदि है (योग,10-2-3) वह कालातीत है। उसका वाचक 'प्रणवहै। 'तस्य वाचक: प्रणव:’ (प्रणव ऊँकार है) (प्रश्नोपनिषद में पाँचवे प्रश्नोत्तर में और माण्डूक्योपनिषद में ऊँकार की उपासना का विषय विस्तार से है) ऊँ, परमेश्वर का वेदोक्त नाम है (गीता-17-23, कठो.1/2/15-17) साधक को ईश्वर के नाम का जप और उसके स्वरूप का स्मरण चिन्तन करना चाहिए। महर्षि शाण्डिल्य ने कहा है- ''सा परानुरक्त्रिीश्वरे। देवर्षि नारद ने भक्तिसूत्र में कहा है- 'सात्वस्मिन परमप्रेमरूपा च। अर्थात उस परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है। यह अमृत स्वरूपा है-'अमृतस्वरूपा च। ईश्वर की भक्ति में आयु, रूप आदि का कोई अर्थ नही होता है-

''व्याधस्याचरणं धुवस्य च वयो विद्या गजेन्दस्य का 

 का जातिर्विदुरस्य यादवपतेरुप्रस्य किं पौरषम्।

कुव्जाया: कामनीरूपमधिकं किं तत्सुदाम्नो धनं

भक्त्या तुश्यति केवलं न च गुणैर्भक्ति प्रियो माधव:।।

श्रीमद्भागवत में प्रहलाद ने कहा है-

'श्रवणं कीर्तनं विष्णों: स्मरणं् पादसेवनम।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम।।(7/5/23)

 ऋतम्भरा बुद्वि के प्रकट होने पर साधक को प्रकृति के यथार्थ रूप का भान हो जाता है तब उसे वैराग्य होता है।

''तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीज: समाधि:।

 क्लेश क्या है- 'अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेषा: क्लेषा:। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच क्लेश कहलाते हैं। 

अविद्या जिनका कारण हैं- ''अविद्या क्षेत्रमुत्तरेशां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोद्वाराणाम

 

अविद्या क्या है- ''अनित्याशुचिदु:खानात्मसु नित्यशुचि सुखात्मख्यातिरविद्या। अनित्य, अपवित्र, दु:ख और अनात्मा में नित्य, पवित्र, सुख और आत्मा का आत्मभाव की अनुभूति 'अविद्याहै।

अस्मिता क्या है- ''दृगदर्शन शक्त्योरेकात्मतेवास्मिता। अविद्या के नाश होने से 'अस्मिताका नाश होता  है।  

राग क्या है- 'सुखानुशयी राग:। सुख की प्रतीत के पीछे रहने वाला क्लेष 'रागहै।

द्वेष क्या है- 'दु:खानुशयी द्वेष। दु:ख की प्रतीत के पीछे रहने वाला क्लेश 'द्वेषहै।

  क्लेशों की स्थूल वृत्तियों को 'ध्यानहेयास्तदृवत्तय:द्वारा सूक्ष्म बना  दिया जाता है।

दु:ख के रूप- परिणाम दु:ख, ताप दु:ख, संस्कार दु:ख, गुणवृत्ति विरोध सब में विद्यमान रहते हैं।

  अष्टांग योग

'यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टवगांनि।।

इनमें पाँच वहिरंग हैं जो इस प्रकार हैं-

(1)  यम 'अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:

() अहिंसा -   अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।  

(ख) सत्य- सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम  

(ग) अस्तेय- 'अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम  

(घ) ब्रह््मचर्य- 'ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यालाभ:  

मन, वाणी और शरीर से होनवाले सब प्रकार के मैथुनों की सब अवस्थाओं में सदा त्याग करके सब प्रकार से वीर्य की रक्षा करना 'ब्रह्मचर्यहैं ।     ''कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा।

          सर्वत्र मैथुनत्यागी ब्रह्मचर्य प्रचक्षते।। (गरुण.पूर्व.आचार 238.6) 

 

(ड) अपरिग्रह- अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध:।  

(2) नियम- ''शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा:

  'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेन।’ (मुण्ड.)

भारतीय दर्शन में परम ब्रह्म अक्षर है - अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभवोऽध्यात्ममुच्यते। भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसंज्ञित:। (8,3) 

 गीता कहती है- 

सहस्त्रयुगपर्यन्तमहृर्यद ब्रह्मणो बिन्दु:। 

रात्रिं युगसहस्त्रन्तां तेऽहोरात्रविदो जना:।

अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा प्रभवन्त्यहरागमे।

रान्न्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त संज्ञके।।

भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

रान्न्यागमेऽवश: पार्थ  प्रभवन्त्यहरागमे।।

परस्तस्मातु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:। 

य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।

अव्यक्तोऽक्षर  इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्वाम परमं मम।।

(अर्थात)

 

ऊँॅ विष्णुर्विष्णुविष्णु:। ऊँ नम: परमात्मने श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य  श्रीब्रह््मणों द्वितीय परार्द्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमें कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते आर्यावर्तान्तर्गत  ब्रह्मावर्तैकदेशे बौद्धावतारे अमुकनाम संवत्सरे  अमुकायने (उत्तरायणे/दक्षिणायने) महामांगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमें  अमुक मासे अमुकपक्षे (शुक्लपक्षे/कृष्णपक्षे) अमुक तिथौ अमुक वासरान्वितायां अमुक नक्षत्रै अमुक राषिस्थिते सूर्ये  अमुकराषिस्थिते चन्द्रे अमुकराषिस्थिते  भौमें अमुकराषिस्थिते बुधे अमुकराषिस्थिते गुरौ अमुकराषिस्थिते शुक्रे अमुकराषिस्थिते शनौ सत्सु शुुभे योगे शुभकरणे एवं गुणविशेष विशिष्टायां शुुभ पुण्यतिथौ सकलशास्त्रश्रुतिस्मृतपुराणोक्त फलप्राप्तिकाम: अमुेकोऽहं ममात्मन: सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृतिराजकृतसर्वाविधपीड़ानिवृतिपूर्वकं नैरुज्यदीर्घायु: पुष्टिधनधान्यसृद्व्यर्थं सर्वापन्निवृति सर्वाभीष्टफलावाप्ति धर्मार्थकाममोक्षचतुर्विधपुरुषार्थ द्वारा अमुक (राष्ट्र) देवताप्रीत्यर्थं पूजनपूर्वकं संकल्पं (अमुक कर्मं) करिष्ये।

 परमसत्ता की अवधारणा वेद के साथ चलती हैं। नासदीय सूक्त में अध्याय दस में श्लोक आता है -

नासदासीन्नोसदासीतदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत।

किमावरीव: कुह कस्य शर्मन्नम्भ: किमासीद  गहनं गभीरम।।

 यथा-

को, अद्वा वेद क इह प्रवोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टि:।

अर्वाग् देवा अस्य विसर्जनेनाथ को वेद यत आवभूव।। (1,128,6)

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।

यो अस्याध्यक्ष: परमे व्योमन्त्सो अंग वेद  यदि वा न वेद।। 

मुण्डकोपनिषद में कहा है- 'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुनाश्रुतेनअर्थात आत्मज्ञान केवल तीव्र इच्छा शक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है।   यथा-

'मंत्र मूलं गुरुर्वाक्यं, पूजा मूलं गुरु:पदम्। ध्यान मूलं गुरु:मूर्ति, मोक्ष मूलं गुरु: कृपा।।

 सत चेतना हेतु पातंजलि योग दर्शन में कहा है- 

''सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च’ (3-49)

कठोपनिषद में कहा है- 'उतिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निवोधत। क्षुरस्य धारा निशिता  दुरत्या। दुर्गं पंथस्यकवयो वदन्ति।

  गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'सर्वधर्म परितज्यान मामेकम शरणं ब्रज। अहं त्वाम सर्वपापेभ्यो मा शुच:। मैत्रेयोपनिषद में कहा गया है कि साधक छ: माह में आत्मसाक्षातकार कर सकता है। 

 ऐतरेयोपनिषद में कहा है- 'स येतमेव सीमानं विदार्यैतया द्वारा प्रापद्यत। सैषा विदृतिर्नाम द्वास्तदेतन्नान्दम।।

इसके अनुसार गर्भस्थ रूप में जीवात्मा सातवें महीने कपाल के बीच तालु से प्रवेश करती है, पहले यह कोमल होता है बाद में कठोर हो जाता है।  

सुबालोपनिषद में कहा गया है- “स्थानानि, स्थानिभ्यों यच्छति नाड़ी तेषां निबन्धनम

 उसे यह बोध हो जाता है कि- “मैं यह शरीर नही, बल्कि यह शरीर मेरा हैगीता में कहा गया है- 'देहोस्मिनाहं मम् देह इति स्मर 

भगवान कृष्ण कहते हैं- ''कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरति। योगिन: कर्म कुर्वन्ति संगंत्यक्त्वात्मशुद्वये। अर्थात आत्मज्ञानी कभी अपने कर्मों का निर्वाह कम नही करता।  

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प्रार्थना

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

ईशावास्योपनिषद

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

केनोपनिषद्

ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोत् अनिराकरणमस्त्वनिराकरणं तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥

॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

प्रश्नोपनिषद्

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाः सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः !! शान्तिः !!!

मुण्डकोपनिषद्

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाःसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः !! शान्तिः !!!

 

माण्डूक्योपनिषद्

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा: सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!

ऐतरेयोपनिषद्

ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि। वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीः । अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधाम्यृतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥

ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!

तैत्तिरीयोपनिषद

ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् । अवतु वक्तारम्  

ॐ शान्तिः । शान्तिः शान्तिः ।

श्वेताश्वतरोपनिषद्

ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु ।

 सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै।

ॐ शान्तिः शान्तिः ॥ शान्तिः !!!

छान्दोग्योपनिषद्

ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि । सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु । तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥

ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!

बृहदारण्यकोपनिषद् -

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!

……………………………………………….

वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।

जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥

ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥

हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते ।

 गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तु ते ॥

तप्तकाञ्चनगौराङ्गि राधे वृन्दावनेश्वरि ।

वृषभानुसुते देवि प्रणमामि हरिप्रिये ।

हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे

हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे।

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं

विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाम्।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं

वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥

सशङ्खचक्रं सकिरीटकुण्डलं सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम्।

सहारवक्षःस्थलकौस्तुभश्रियं नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम्।

कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती।

करमूले तु गोविन्द: प्रभाते करदर्शनम।।

समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनमण्डले।

विष्णुपत्नि ! नमस्तुभ्यंपादस्पर्शं क्षमस्व मे ।

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । ।

 छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥

तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।

              मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः। (भगवद्गीता ८.७)।

यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

   तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥भगवद्गीता  (८.६)

विष्णुशक्तिः परा प्रोक्ता क्षेत्रज्ञाख्या तथा परा ।

 अविद्याकर्मसंज्ञान्या तृतीया शक्तिरिष्यते ॥ विष्णु पुराण  (६.७.६१)

यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्  तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ भगवद्गीता  (८.६)

             निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।

        द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥ (गीता 15/5)

अर्जुन उवाच

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।

एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात् स्थितिं स्थिराम् ।।भगवद्गीता (६.३३)।

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना

श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ।। (भगवद्गीता ६.४७)

श्रवणं कीर्तनं  स्मरणं विष्णो: पादसेवनम् ।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥(श्रीमद्भावतम १५.२३)

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥( भगवद्गीता 8.8)

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥ (भगवद्गीता ९.३२-३३):

गीता शास्त्रमिदं पुण्यं यः पठेत् प्रयतः पुमान्–(गीता माहात्म्य १) ।

गीताध्ययनशीलस्य प्राणायामपरस्य च ।

नैव सन्ति हि पापानि पूर्वजन्मकृतानि च ॥ (गीता माहात्म्य २)।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ भगवद्गीता (१८.६६)

मलिनेमोचनं पुंसां जलस्नानं दिने दिने ।

सकृद्गीतामृतस्नानं संसारमलनाशनम् ॥ (गीता  माहात्म्य ३)

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः ।

या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ॥ (गीता माहात्म्य ४) ।

भारतामृतसर्वस्वं विष्णुवक्त्राद्विनिःसृतम् ।

गीता-गङ्गोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥ " (गीता माहात्म्य ५) ।

एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् ।

 एको देवो देवकीपुत्र एव ।

एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि । 

कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ॥

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ॥

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥18/5

ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ।

सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः ।

इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।

मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन। 

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।

भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ।

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।

भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।


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