सच्चे अर्थों में बन्धु किसे कहते हैं-
उत्सेव व्यसने युद्धे दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे।
राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्ध्व:।। (हितोपदेश)
अर्थात् इन सात स्थानों पर यथा- १.विवाह आदि समारोह में, २.किसी दैवी संकट में,३.युद्ध में,४.दुर्भिक्ष में,५. राष्ट्र में
विद्रोह फैल जाने पर,६.
राजद्वार-न्यायालय, राजसत्ता द्वार
आदि, ७.श्माशान में साथ देने
वाला सच्चे अर्थों में बन्धु कहलाता है।
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यसञ्चय:।
ऐश्वर्य प्रियसंवासो मुह्येत्तत्र न पण्डित:।। (हितोपदेश)
अर्थात् - यौवन, रूप-सौन्दर्य, जीवन, धन-संग्रह,ऐश्वर्य तथा स्त्री-पुत्रादि प्रियजनों का संग आदि
सब अनित्य है। अत: बुद्धिमान व्यक्ति को इनमें कदापि आसक्ति नहीं रखनी चाहिए।
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयतां महोदधौ।
समेत्य च व्यपेयतां तद्धअद्भुतसमागम:।। (हितोपदेश)
अर्थात् - समुद्र में बहती दो लकडिय़ाँ संयोग से एक दूसरे से
मिल जाती हैं और फिर अलग हो जाती हैं, यही स्थिति प्राणियों के स्त्री-पुत्रादि परिवार और बन्धु-बान्धवों से
मिलने-बिछडऩे की है।
पञ्चभिर्निर्मिते देहे पञ्चत्वं च पुनर्गते।
स्वां स्वां योनिमनुप्राप्ते तत्र का परिदेवना ? (हितोपदेश)
पंच भूतों से निर्मित
इस शरीर के पांचों तत्त्वों-पृथ्वी, जल, अग्रि,वायु और आकाश -के अपने मूल में आने का नाम ही मृत्यु है। इसमें शोक करने
वाली कौन-सी बात है।
स्वदेशं पतितं कष्टे दूरस्था लोकयन्ति ये।
नैव च प्रतीकुर्वन्ति ते नरा: शत्रुनन्दना:।।
अर्थात् - जब देश संकट में पड़ा हो तो ,जो उदासीन भाव से दूर खड़े हो कर केवल देखते रहते
हैं और काई भी प्रतिकार नहीं करते ऐसे व्यक्ति अथवा समूह, शत्रु कोदेने वाले होते
हैं।
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