हिन्द स्वराज की भूमिका से: भाग -दो
प्रो.उमेश कुमार सिंह
(क्रमशः आगे) गांधी जी ने ' हिन्द स्वराज के बारे में' शीर्षक से यह अभिमत किल डोनन कैसल में 22 नवंबर, 1909 में लिखी थी।
जनवरी 1929 में ' यंग इंडिया ' के गुजराती अंक में 'हिंद स्वराज' के बारे में अपना विचार रखते हुए फिर लिखते हैं-" मेरी छोटी सी किताब विशाल जनसंख्या का ध्यान खींच रही है, यह सचमुच ही मेरा सौभाग्य है। यह मूल तो गुजराती में लिखी गई है। इसका जीवन- क्रम अजीब है। यह पहले- पहल दक्षिण अफ्रीका में छपने वाले साप्ताहिक' इंडियन ओपिनियन' में प्रकट हुई थी।
1909 लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जहाज पर हिंदुस्तानियों के हिंसावादी पंथ को और उसी विचारधारा वाले दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को जवाब के रूप में लिखी गई थी। लंदन में रहने वाले हर एक नामी अराजकतावादी हिंदुस्तानी के संपर्क में मैं आया था। उनकी शूरवीरता का असर मेरे मन पर पड़ा था,लेकिन मुझे लगा कि उनके जोश ने उल्टी राह पकड़ ली है।
मुझे लगा कि हिंसा हिंदुस्तान के दुखों का इलाज नहीं है, और उसकी संस्कृत को देखते हुए उसे आत्मरक्षा के लिए कोई अलग और प्रकार का शस्त्र काम में लाना चाहिए।
दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह उस वक्त मुश्किल से 2 साल का बच्चा था। लेकिन उसका विकास इतना हो चुका था कि उसके बारे में कुछ हद तक आत्मविश्वास से लिखने की मैंने हिम्मत की थी। मेरी वह लेख- माला पाठक वर्ग को इतनी पसंद आई कि वह किताब के रूप में प्रकाशित की गई।
यहां गांधी जी एक मजे की बात लिखते हैं " हिंदुस्तान में उसकी ओर लोगों का कुछ ध्यान गया ।मुंबई सरकार ने उसके प्रचार की मनाही कर दी। उसका जवाब मैने किताब का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करके दिया। मुझे लगा कि अपने अंग्रेज मित्रों को इस किताब के विचारों से वाकिफ कराना उनके प्रति मेरा फर्ज है"।
समझना होगा गांधीजी एक ओर अंग्रेजों की मानसिकता का संकेत दे रहे हैं तो दूसरी ओर भारत के अंग्रेजी दा लोगों की मानसिकता को भी जाहिर कर रहे हैं, जिन्हें कोई भी बात तब प्रमाणित लगती है, जब वह अंग्रेजी में कही या लिखी जखती है।
(पाठकों ने हमारे ब्लॉग के आलेख में गांधी जी के मातृभाषा के आग्रह को यदि पढ़ा होगा तो यहां गांधी जी की भावना को समझने में कठिनाई नहीं होगी।)
किताब की विशेषता बताते समय गांधीजी लिखते हैं " मेरी राय में यह किताब ऐसी है कि वह बालक के हाथों में भी दी जा सकती है। वह द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है। पशु बल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। "
(प्रसन्नता का विषय है की गांधी जी की 150वीं जयन्ती पर भारत सरकार ने जो प्रयास उनके विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए किया , प्रदेश सरकारों ने भी उसमेंअपनी महती भूमिका निभाई)।
'हिन्द स्वराज' का परिचय देते हुए गांधीजी लिखते हैं " इस किताब में 'आधुनिक सभ्यता' की सख्त टीका की गई है। यह 1909 में लिखी गई थी। इसमें मेरी जो मान्यता प्रकट की गई है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है।
मुझे लगता है कि अगर हिंदुस्तान' आधुनिक सभ्यता' का त्याग करेगा, तो उससे उसे लाभ होगा।"
(मैं नहीं जानता गांधी जी की उक्त इच्छा का आज कितना पालन संभव है!)
फिर भी गांधीजी लिखते हैं, जो एक बड़ी बात है,
" लेकिन मैं पाठकों को यह चेतावनी देना चाहता हूं, वे ऐसा न मान ले कि इस किताब में जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वह स्वराज कायम करने के लिए आज मेरी कोशिशें चल रही है। जानता हूं कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है।"
फिर भी वे आगे लिखते हैं " ऐसा कहने में शायद ढिठाई का भास हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्वास है कि इसमें जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खींची है, वैसा स्वराज पाने की मेरी निजी कोशिश जरूर चल रही है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पार्लियामेंट्री ढंग का स्वराज पाना है।"
गांधी जी अपने स्वराज में आधुनिकता या आधुनिक यांत्रिकता के विरोधी नहीं है ।वे कहते हैं, " रेल या अस्पताल दोनों में से किसी का भी नाश करने का ध्येय मेरे मन में नहीं है, अगरचे उनका कुदरती नाश हो तो मैं जरूर उसका स्वागत करूंगा।"
वास्तव में गांधीजी स्वराज में स्वदेशी के हिमायती हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे आधुनिक मशीनों के विरोधी है।
उनकी शर्त इतनी है जो इस बात से स्पष्ट होती है - " दोनों में से एक भी हमारी राष्ट्र की नैतिक ऊंचाई में 1 इंच की भी बढ़ती नहीं करती। उसी तरह अदालतों के स्थाई नाश का ध्येय मन में नहीं रखता, हालांकि ऐसा नतीजा आए तो मुझे अवश्य बहुत अच्छा लगेगा। यंत्रों और मिलों के नाश के लिए तो मैं उससे कम कोशिश करता हूं। उसके लिए लोगों की आज जो तैयारी है उससे कहीं ज्यादा सादगी और त्याग की जरूरत रहती है।"
गांधी के विचारों को आज के परिपेक्ष में समझने की आवश्यकता है। ध्यान रखना चाहिए गांधीजी सेवा के नाम पर शोषण, सुविधा-संसाधन के नाम पर शोषण और अदालतों में व्याप्त विदेशी कानूनों के विरोधी थे। न्याय में वे पंच परमेश्वर के हिंदुस्तानी परंपरा के हिमायती थे। ग्राम स्वराज उनका सपना था।
गांधीजी बहुत महत्व की बात लिखते हैं," आज के आंदोलन को बदनाम करने के लिए इस पुस्तक में से बहुत सी बातों का हवाला दिया जाता है, मैंने देखा है। मैंने इस मतलब के लेख भी देखे हैं कि मैं कोई गहरी चाल चल रहा हूं, आज की उथल- पुथल से लाभ उठाकर अपने अजीब ख्याल भारत के सिर देने की कोशिश कर रहा हूं और हिंदुस्तान को नुकसान पहुंचा कर अपने धार्मिक प्रयोग कर रहा हूं। इसका मेरे पास यही जवाब है कि सत्याग्रह ऐसी कोई कच्ची खोखली चीज नहीं है। उसमें कुछ भी दुराव छुपाव नहीं है। ''
(पाठकों को ध्यान रखना होगा कि उनके राष्ट्रपिता, महात्मा और बापू की टांग भी आज के राष्ट्रप्रेमी प्रधान की तरह ही खींची जाती रही है। )
आगे कहते हैं," हिंद स्वराज' में बताए हुए संपूर्ण जीवन सिद्धांत के एक भाग को आचरण में लाने की कोशिश हो रही है, इसमें कोई शक नहीं है। ऐसा नहीं है कि उसमें समुच्चय सिद्धांत का अमल करने में जोखिम है, लेकिन आज देश के सामने जो प्रश्न है, उसके साथ जिस हिस्सों का कोई संबंध नहीं है ऐसे ही से मेरे लेखों में से देकर लोगों को भड़काने मैं न्याय हरगिज़ नहीं है।"
अंत में हिंदू स्वराज पर दिया गया गांधी जी का संदेश यहां उल्लेख करते हुए भूमिका में आई बातों का समापन किया जा रहा है। अंग्रेजी मासिक' आर्यन पाथ' के सितंबर, 1938 में प्रकट हुए हिंद स्वराज अंक के लिए भेजा हुआ गांधी जी का यह संदेश कुछ इस प्रकार है- " जिन सिद्धांतों के समर्थन के लिए ' हिंद स्वराज ' लिखा गया था, सिद्धांतों की आप जाहिरात करना चाहती हैं मुझे अच्छा लगता है । मूल पुस्तक गुजराती में लिखी गई थी ; अंग्रेजी आवृत्ति गुजराती का तर्जुमा है यह पुस्तक अगर आज मुझे फिर से लिखनी हो तो कहीं- कहीं मैं उसकी भाषा बदलूंगा। लेकिन इसे लिखने के बाद जो 30 साल मैंने अनेक आंधियों में बिताए हैं,उनमें मुझे इस पुस्तक में बताये हुए विचारों में फेरबदल करने का कुछ भी कारण नहीं मिला। पाठक इतना ख्याल में रखें कि कुछ कार्यकर्ताओं के साथ जिनमें एक कट्टर अराजकतावादी थे , मेरी जो बातें हुई थी, वे जैसी की तैसी मैंने इस पुस्तक में दे दी है । पाठक इतना भी जान ले कि दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों में जो सड़न दाखिल होने वाली ही थी उसे इस पुस्तक ने रोका था, इसके विरुद्ध दूसरे पल्ले में रखने के लिए पाठक मेरे एक स्वर्गीय मित्र की यह राय भी जान लें की " यह एक मूर्ख आदमी की रचना है।"
देखना होगा दक्षिण अफ्रीका के हिन्दुस्तानियों को सड़न से बचाने वाली यह पुस्तक एशिया महाद्वीप के आसन्न युद्ध को गांधी जी के 150वीं जयन्ती के माध्यम से बुद्ध में बदलने की कितनी सार्थक भूमिका निभाती है।
सादर
10/09/2019
खंडवा
प्रो.उमेश कुमार सिंह
(क्रमशः आगे) गांधी जी ने ' हिन्द स्वराज के बारे में' शीर्षक से यह अभिमत किल डोनन कैसल में 22 नवंबर, 1909 में लिखी थी।
जनवरी 1929 में ' यंग इंडिया ' के गुजराती अंक में 'हिंद स्वराज' के बारे में अपना विचार रखते हुए फिर लिखते हैं-" मेरी छोटी सी किताब विशाल जनसंख्या का ध्यान खींच रही है, यह सचमुच ही मेरा सौभाग्य है। यह मूल तो गुजराती में लिखी गई है। इसका जीवन- क्रम अजीब है। यह पहले- पहल दक्षिण अफ्रीका में छपने वाले साप्ताहिक' इंडियन ओपिनियन' में प्रकट हुई थी।
1909 लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जहाज पर हिंदुस्तानियों के हिंसावादी पंथ को और उसी विचारधारा वाले दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को जवाब के रूप में लिखी गई थी। लंदन में रहने वाले हर एक नामी अराजकतावादी हिंदुस्तानी के संपर्क में मैं आया था। उनकी शूरवीरता का असर मेरे मन पर पड़ा था,लेकिन मुझे लगा कि उनके जोश ने उल्टी राह पकड़ ली है।
मुझे लगा कि हिंसा हिंदुस्तान के दुखों का इलाज नहीं है, और उसकी संस्कृत को देखते हुए उसे आत्मरक्षा के लिए कोई अलग और प्रकार का शस्त्र काम में लाना चाहिए।
दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह उस वक्त मुश्किल से 2 साल का बच्चा था। लेकिन उसका विकास इतना हो चुका था कि उसके बारे में कुछ हद तक आत्मविश्वास से लिखने की मैंने हिम्मत की थी। मेरी वह लेख- माला पाठक वर्ग को इतनी पसंद आई कि वह किताब के रूप में प्रकाशित की गई।
यहां गांधी जी एक मजे की बात लिखते हैं " हिंदुस्तान में उसकी ओर लोगों का कुछ ध्यान गया ।मुंबई सरकार ने उसके प्रचार की मनाही कर दी। उसका जवाब मैने किताब का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करके दिया। मुझे लगा कि अपने अंग्रेज मित्रों को इस किताब के विचारों से वाकिफ कराना उनके प्रति मेरा फर्ज है"।
समझना होगा गांधीजी एक ओर अंग्रेजों की मानसिकता का संकेत दे रहे हैं तो दूसरी ओर भारत के अंग्रेजी दा लोगों की मानसिकता को भी जाहिर कर रहे हैं, जिन्हें कोई भी बात तब प्रमाणित लगती है, जब वह अंग्रेजी में कही या लिखी जखती है।
(पाठकों ने हमारे ब्लॉग के आलेख में गांधी जी के मातृभाषा के आग्रह को यदि पढ़ा होगा तो यहां गांधी जी की भावना को समझने में कठिनाई नहीं होगी।)
किताब की विशेषता बताते समय गांधीजी लिखते हैं " मेरी राय में यह किताब ऐसी है कि वह बालक के हाथों में भी दी जा सकती है। वह द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है। पशु बल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। "
(प्रसन्नता का विषय है की गांधी जी की 150वीं जयन्ती पर भारत सरकार ने जो प्रयास उनके विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए किया , प्रदेश सरकारों ने भी उसमेंअपनी महती भूमिका निभाई)।
'हिन्द स्वराज' का परिचय देते हुए गांधीजी लिखते हैं " इस किताब में 'आधुनिक सभ्यता' की सख्त टीका की गई है। यह 1909 में लिखी गई थी। इसमें मेरी जो मान्यता प्रकट की गई है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है।
मुझे लगता है कि अगर हिंदुस्तान' आधुनिक सभ्यता' का त्याग करेगा, तो उससे उसे लाभ होगा।"
(मैं नहीं जानता गांधी जी की उक्त इच्छा का आज कितना पालन संभव है!)
फिर भी गांधीजी लिखते हैं, जो एक बड़ी बात है,
" लेकिन मैं पाठकों को यह चेतावनी देना चाहता हूं, वे ऐसा न मान ले कि इस किताब में जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वह स्वराज कायम करने के लिए आज मेरी कोशिशें चल रही है। जानता हूं कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है।"
फिर भी वे आगे लिखते हैं " ऐसा कहने में शायद ढिठाई का भास हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्वास है कि इसमें जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खींची है, वैसा स्वराज पाने की मेरी निजी कोशिश जरूर चल रही है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पार्लियामेंट्री ढंग का स्वराज पाना है।"
गांधी जी अपने स्वराज में आधुनिकता या आधुनिक यांत्रिकता के विरोधी नहीं है ।वे कहते हैं, " रेल या अस्पताल दोनों में से किसी का भी नाश करने का ध्येय मेरे मन में नहीं है, अगरचे उनका कुदरती नाश हो तो मैं जरूर उसका स्वागत करूंगा।"
वास्तव में गांधीजी स्वराज में स्वदेशी के हिमायती हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे आधुनिक मशीनों के विरोधी है।
उनकी शर्त इतनी है जो इस बात से स्पष्ट होती है - " दोनों में से एक भी हमारी राष्ट्र की नैतिक ऊंचाई में 1 इंच की भी बढ़ती नहीं करती। उसी तरह अदालतों के स्थाई नाश का ध्येय मन में नहीं रखता, हालांकि ऐसा नतीजा आए तो मुझे अवश्य बहुत अच्छा लगेगा। यंत्रों और मिलों के नाश के लिए तो मैं उससे कम कोशिश करता हूं। उसके लिए लोगों की आज जो तैयारी है उससे कहीं ज्यादा सादगी और त्याग की जरूरत रहती है।"
गांधी के विचारों को आज के परिपेक्ष में समझने की आवश्यकता है। ध्यान रखना चाहिए गांधीजी सेवा के नाम पर शोषण, सुविधा-संसाधन के नाम पर शोषण और अदालतों में व्याप्त विदेशी कानूनों के विरोधी थे। न्याय में वे पंच परमेश्वर के हिंदुस्तानी परंपरा के हिमायती थे। ग्राम स्वराज उनका सपना था।
गांधीजी बहुत महत्व की बात लिखते हैं," आज के आंदोलन को बदनाम करने के लिए इस पुस्तक में से बहुत सी बातों का हवाला दिया जाता है, मैंने देखा है। मैंने इस मतलब के लेख भी देखे हैं कि मैं कोई गहरी चाल चल रहा हूं, आज की उथल- पुथल से लाभ उठाकर अपने अजीब ख्याल भारत के सिर देने की कोशिश कर रहा हूं और हिंदुस्तान को नुकसान पहुंचा कर अपने धार्मिक प्रयोग कर रहा हूं। इसका मेरे पास यही जवाब है कि सत्याग्रह ऐसी कोई कच्ची खोखली चीज नहीं है। उसमें कुछ भी दुराव छुपाव नहीं है। ''
(पाठकों को ध्यान रखना होगा कि उनके राष्ट्रपिता, महात्मा और बापू की टांग भी आज के राष्ट्रप्रेमी प्रधान की तरह ही खींची जाती रही है। )
आगे कहते हैं," हिंद स्वराज' में बताए हुए संपूर्ण जीवन सिद्धांत के एक भाग को आचरण में लाने की कोशिश हो रही है, इसमें कोई शक नहीं है। ऐसा नहीं है कि उसमें समुच्चय सिद्धांत का अमल करने में जोखिम है, लेकिन आज देश के सामने जो प्रश्न है, उसके साथ जिस हिस्सों का कोई संबंध नहीं है ऐसे ही से मेरे लेखों में से देकर लोगों को भड़काने मैं न्याय हरगिज़ नहीं है।"
अंत में हिंदू स्वराज पर दिया गया गांधी जी का संदेश यहां उल्लेख करते हुए भूमिका में आई बातों का समापन किया जा रहा है। अंग्रेजी मासिक' आर्यन पाथ' के सितंबर, 1938 में प्रकट हुए हिंद स्वराज अंक के लिए भेजा हुआ गांधी जी का यह संदेश कुछ इस प्रकार है- " जिन सिद्धांतों के समर्थन के लिए ' हिंद स्वराज ' लिखा गया था, सिद्धांतों की आप जाहिरात करना चाहती हैं मुझे अच्छा लगता है । मूल पुस्तक गुजराती में लिखी गई थी ; अंग्रेजी आवृत्ति गुजराती का तर्जुमा है यह पुस्तक अगर आज मुझे फिर से लिखनी हो तो कहीं- कहीं मैं उसकी भाषा बदलूंगा। लेकिन इसे लिखने के बाद जो 30 साल मैंने अनेक आंधियों में बिताए हैं,उनमें मुझे इस पुस्तक में बताये हुए विचारों में फेरबदल करने का कुछ भी कारण नहीं मिला। पाठक इतना ख्याल में रखें कि कुछ कार्यकर्ताओं के साथ जिनमें एक कट्टर अराजकतावादी थे , मेरी जो बातें हुई थी, वे जैसी की तैसी मैंने इस पुस्तक में दे दी है । पाठक इतना भी जान ले कि दक्षिण अफ्रीका के हिंदुस्तानियों में जो सड़न दाखिल होने वाली ही थी उसे इस पुस्तक ने रोका था, इसके विरुद्ध दूसरे पल्ले में रखने के लिए पाठक मेरे एक स्वर्गीय मित्र की यह राय भी जान लें की " यह एक मूर्ख आदमी की रचना है।"
देखना होगा दक्षिण अफ्रीका के हिन्दुस्तानियों को सड़न से बचाने वाली यह पुस्तक एशिया महाद्वीप के आसन्न युद्ध को गांधी जी के 150वीं जयन्ती के माध्यम से बुद्ध में बदलने की कितनी सार्थक भूमिका निभाती है।
सादर
10/09/2019
खंडवा
उत्कृष्ट एवं चिंतनीय लेख हेतु बधाई
ReplyDeleteउत्कृष्ट एवं चिंतनीय लेख हेतु बधाई. डॉ मृगेंद्र राय मुंबई
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