एक सभा में बोलते हुए जब मैंने राष्ट्रवाद शब्द पर आपत्ति की तो कई राष्ट्र पंथियों को भी अटपटा लगा।
मेरे वक्तव्य के बाद लोहिया जी के अनुयाई श्री रघु ठाकुर जी ने तो ऐसा लगा जैसे जानबूझ कर इस शब्द की वकालत करते हुए तीन चार बार प्रयोग किया। यद्यपि उन्होंने मेरे आपत्ति को ख़ारिज नहीं किया तथापि प्रकारांतर से राष्ट्रवाद का समर्थन ही किया।
सम्पूर्ण भारतीय वांग्मय जो विश्व का प्राचीनतम और तत्वबोध कराने वाला वांग्मय है, राष्ट्र और राष्ट्रीयता की ही बात करता है।
राष्ट्र शब्द वेद से आता है। जहां वह ज्ञान का भी प्रकाशक है। वेद के इस शब्द की व्याख्या दर्शन में मिलती है। जहां वादे-वादे जायते तत्व बोध: की बात होती है।
संवाद इसके प्रकटीकरण का माध्यम बनता है। विचार और चिंतन प्रणालियां दर्शन और वेदांग से पुष्ट होती है जिनमें आंतरिक एकात्मकता रहती है।
जबकि पश्चिमी अवधारणा में एक को काट कर दूसरे को स्थापित करने की चेष्टा होने से वह न केवल भौगोलिक रूप से सीमित होती है बल्कि किसी विशेष व्यक्ति की सोच की काल के साथ वाहक बन जाती है।
राष्ट्रवादी शब्द पश्चिमी अवधारणा का परिणाम।
राष्ट्र का अनुवाद जब नेशन नहीं है तो उसमें इज्म जोड़ कर संकर शब्द नहीं बना सकते।
नेशनलिज्म का उपयोग नेशन-स्टेट के साथ राज के लिए कर सकते हैं।
राज के अन्दर किसी मत -पंथ-व्यक्ति को लेकर वाद हो सकता है।
राष्ट्र सांस्कृतिक ईकाई होने से कल्चर-स्टेट की अवधारणा से भिन्न है।
जैसे संस्कृति कल्चर से भिन्न है , वैसे ही राष्ट्र नेशन से भिन्न है।
राज और राज्य सरकारों की चेतना राष्ट्रीय होनी चाहिए।
जो राजकीय सत्ता या राजनीतिक दलों से जुड़कर अपने को वाम या दक्षिण पंथी कहते हैं उन्हें अपने को राष्ट्रपंथी कहना चाहिए। राष्ट्रवादी नहीं। क्यो कि जब भारत जैसे सनातन राष्ट्र का कोई वाद ही नहीं तो राष्ट्र वाद क्यों?
ध्यान रखना होगा संसार में नेशन अनेक हैं किंतु राष्ट्र एक ही है। इसी के नाभि से दुनिया के सभी दर्शन जन्में जो प्रकारांन्तर से सरलीकृत होते हुए संसार में फैले और व्यक्ति की चिंतन धारा से श्रेय और प्रेय के रूप में आज सामने हैं।
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