Tuesday, 22 September 2020
जीवन के पुरुषार्थ
Friday, 18 September 2020
गांधी के स्वप्न की राष्ट्रभाषा या संविधान की राजभाषा- हिंदी
गांधी के स्वप्न की राष्ट्रभाषा या संविधान की राजभाषा-
हिंदी
प्रो.
उमेश कुमार सिंह
मेरे बौद्धिको !
आप के
स्वप्न में ‘हिंदी दिवस’ और मेरे जाग्रत में ‘राजभाषा दिवस’ एक साल के लिए बीत गया
और हमारा कर्मकांड भी इस सप्ताह समाप्त हो जायेगा।
इस दिवस के कुछ दिनों पहले और आज सप्ताह तक जो भी सुनने, पढ़ने को मिला वह सुखद भी
था और कष्टकर भी। सुखद इसलिए की भाषा के प्रति हमारा प्रेम स्थाई रूप से हमारे
अंदर बसता जा रहा है। कष्टकर यह कि देश की संवैधानिक राजभाषा (हिंदी) अपना स्थान इस
वर्ष भी अपने पहले पायदान पर नहीं पहुँच सकी।
फिर भी यह अवसर इसलिए अन्य वर्षों की तुलना में
महत्वपूर्ण है कि राष्ट्र को स्वतंत्र भारत की सबसे सुलझी और भविष्य की दृष्टि को
समाहित किये हुए ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ आई। जिसको सभी लोगों ने किन्तु-परन्तु के
साथ स्वीकार भी किया। इसी शिक्षा नीति ने ‘भाषा’ की महत्ता को प्रतिस्थापित किया
तो उसी ने प्रश्न भी निर्माण किये। और सबसे बड़ी बात भूल–सुधार का अवसर प्रदान किया।
इसलिए यह वर्ष राजभाषा या हिंदी दिवस के लिए थोड़ा ज्यादा महत्वपूर्ण था।
कारण जब कोई राष्ट्र अपने गौरव में वृद्धि करता है तो
वैश्विक दृष्टि से उसकी प्रत्येक विरासत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। जैसे धर्म, संस्कृति,
परम्पराएँ, नागरिक
दृष्टिकोण, पुरातत्व, चित्रकला और ‘भाषा’ आदि। इनमें ‘भाषा’ ही एक ऐसा माध्यम है जो उक्त सभी विरासतों के भावी
संभावनाओं के अभिव्यक्ति में महत्त्वपूर्ण कारक बनकर उभरती है। भारतीय दृष्टि को
समझने के लिए स्वाभाविक रूप से आवश्यक दिखता है कि ‘राजभाषा’ न केवल देश की सशक्त
भाषा बने बल्कि वैश्विक आकर्षण का केन्द्र भी बने। क्योंकि आज भारत की ‘राजभाषा’
होने के बाद भी राजकाज के काम में जिस तरह से पिछले सत्तर –बहत्तर वर्षों से ‘अंग्रेजी’
का दबाव है, वह हमारे भविष्य और युवाओं के लिए चिंता का विषय है।
सर्वेक्षण के अनुसार भारत की राजभाषा (हिंदी) भले ही विश्व की दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा बनने की ओर संकेत दे रही है, किन्तु उसे अपने ही देश के अंदर वह स्थान नहीं मिल पा रहा है जो मिलाना चाहिए। जबकि जो अंग्रेजी भारत में संविधान का दर्जा प्राप्त कर राजभाषा के पहले पायदान पर बैठी है, वह वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार भारत में केवल २ लाख, ६० हजार लोगों की मातृभाषा है, इसके बावजूद सम्पूर्ण देश अंग्रेजी के व्यामोह में डूबा जा रहा है। आज हम राजभाषा (अंग्रेजी या हिंदी ) और राष्ट्रभाषा के दुराहे पर खड़े हैं। एक बड़ा हिस्सा धीरे–धीरे ही सही अंग्रेजी का हिमायती होता जा रहा है। उसको अपनी संतानों का भविष्य ‘राजभाषा’ में नहीं दिख रहा है। इस मानसिकता से आज लड़ने की आवश्यकता है। अत: आवश्यक है कि पहले हम अपनी ‘राजभाषा’ को पूरे देश में स्वीकृति दिला सके, तभी भारत की ‘राजभाषा’ विश्वभाषा बनने की ताकत प्राप्त कर सकेगी, भले ही वह वैश्विक भाषा बनने की सम्पूर्ण योग्यता को पूरा कराती है। और तभी देश का आज का हमारा समाज और भावी पीढ़ी अंग्रेजी के आतंक से मुक्त हो सकेगी ।
अंग्रेजी के इस व्यामोह और आतंक के दो कारण साफ नजर आ रहे
हैं , एक- भाषा के प्रति स्वाभिमान की कमी और दूसरा – राजभाषा और राष्ट्रभाषा का
द्वंद्व ।
तो मेरे बौद्धिको! हमें समझना होगा कि आज हम २०२०-२१ में हैं, देश भी सक्षम भारत बन रहा है तो फिर आज भी राष्ट्रभाषा, राजभाषा के विवाद में क्यों ? दूसरा जब अनुसूची- आठ कह रही है कि देश में २२ अधिकारिक भाषाएँ है, तो हमें संविधान की बात स्वीकार क्यों नहीं ? जब कि व्यवहार में भी दिखाई देता है कि अपने-अपने प्रान्तों के काम अपनी–अपनी मातृभाषा में ही होता है। जीवन व्यवहार भी उसी से चलता है। तो समस्या क्या है ?
समस्या यह है की एक तो ‘राष्ट्रभाषा’ को लेकर हमारा
दृष्टिकोण साफ नहीं है। दूसरा ‘राजभाषा’ सम्पूर्ण देश में राजकीय कार्य की भाषा
बने यह आग्रह बहुत लिजलीजा और कमजोर है। जरा इसे भी समझें -
१९५३ से १४ सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ मनाते आ रहे हैं। इसका प्रभाव यह हो
रहा है कि अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में इसके प्रति उदासीनता बढ़ रही है। यह सत्य है
की गांधी जी ने हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ बनाने की वकालत की थी। और देश में कई
प्रान्तों में ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समितियां’ बनी। गांधी जी के जीवित रहने से आज
तक वे सभी ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समितियां’ ‘हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की
कर्मकांडी कोशिश कर भी रही हैं। आखिर क्यों ? यह गाँधी के प्रति आसक्ति है या
संविधान की व्यवस्था को तत्काल स्वीकार न कर पाने की मानसिकता या थोथी हठधर्मिता ?
जब की गाँधी जी भाषा को लेकर कई दफे अपना मत हिंदुस्तानी से लेकर हिंदी तक समय
और जनमत के आधार पर बदलते रहे हैं।
प्रश्न यह भी है कि गाँधी जी के जाने के बाद जब सविधान सभा
ने १४ सितम्बर, १९४९ को हिंदी को ‘राजभाषा’ स्वीकार किया तब हिंदी को ‘राजभाषा’ का
समुचित दर्जा दिलाने के प्रयत्न की जगह हम हिंदी को यह कह कर की हिंदी को राष्ट्र
ने ‘राष्ट्रभाषा’ स्वीकार किया है, उसे संवैधानिक दर्जा दिलाने के प्रयत्न में लगे
रहे? और ७२ साल बिता दिए। यह कहाँ तक ठीक है?
आज भी सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं। दरअसल भूल कहाँ
हुई, जब १४ सितम्बर, ४९ को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने घोषणा की
कि हिंदी देश की ‘राजभाषा’ होगी तब हम ऐसे जश्न में डूबे की हमें पता ही नहीं चला
की ‘राष्ट्रभाषा’ और ‘राजभाषा’ में अन्तर क्या है ? और जब तक पता चला तो राष्ट्रभाषा
तो छोड़िये ‘राजभाषा’ हिंदी का स्थान भी अग्रणी पंक्ति पर अंग्रेजी ले चुकी थी।
हमारी इस नासमझी का
परिणाम यह हुआ की 1953 से हम जैसे–जैसे
१४ सितम्बर को ‘हिंदी दिवस’ का वार्षिक कर्मकाण्ड करते रहे, देश के अन्य भाषा-
भाषी इससे दूर होते गए और अहिन्दी भाषी प्रान्तों में एक ऐसा वातावरण बन रहा है
मानो हिन्दी अन्य राष्ट्रीय भाषाओं की दुश्मन हो। १४ सितम्बर,२०२० में जब हम हिंदी
दिवस मना रहे थे तो उस दिन भी तमिल, कन्नड़, मलयालम भाषी कुछ लोग विरोधी वक्तव्य दे
रहे थे। यह ठीक है की आप उसे राजनीतिक कह कर ख़ारिज कर देंगे, पर यथार्थ से मुख
नहीं मोड़ सकते।
होना यह चाहिए था कि १४ सितंबर जो ‘राजभाषा दिवस’ है उसे ‘राजभाषा
दिवस’ के रूप में ही मनाते, हिंदी दिवस के रूप में नहीं, तभी इन विरोधी वक्तव्यों
को रोका जा सकता है क्योंकि तब हम कह सकते हैं कि हम ‘राजभाषा दिवस’ मना रहे हैं
और धीरे-धीरे ‘राजभाषा’ सम्पूर्ण देश में स्थापित हो सकेगी ।
दूसरी महत्वपूर्ण बात हमारे व्यवहार की है। अभी–अभी ‘राष्ट्रीय
शिक्षा नीति’ आई हमने बिना विचारे उसके अंग्रेजी संक्षिप्त ‘NEP’ को हमारे सामने रख दिया और हमने बिना विचार के कि इसके
आगे क्या परिणाम होंगे, उसे लिखना और बोलना प्रराम्भ कर दिया। जब कि होना यह चाहिए
था कि यह संज्ञा है, अत: इसे भारत की सभी भाषाओं में यथावत ‘राष्ट्रीय शिक्षा
नीति’ और उसका संक्षिप्ति कारन ‘रा.शि.नीति’ ही रहना चाहिए। ‘NEP’ नहीं। इसी तरह नीति के अन्तर्गत निकाय, आयोग आदि हैं, उनके नाम केवल राजभाषा में होने चाहिय। वैसे
भी संज्ञा का अनुवाद करना गलत है। अन्यथा हमें हाथ में आया यह दूसरा अवसर भी चला
जायेगा और अंग्रेजी शिर पर बोलती रहेगी और हम मातृभाषा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा के
शब्दों को दुहराते रह जायेंगे।
ध्यान रखना होगा संविधान में हमने भारत को ‘इंडिया’ कहा तो
आज तक नहीं बदल सके। किन्तु देश की लोकसभा और राज्यसभा
को स्वीकार कर लिया तो वह हमारे मुख में रच बस गया, कुछ अंग्रेजी दा को छोड़कर। ऐसे अनेक जहग दिखता है कि जिन संस्थाओं के नाम हमने
राजभाषा में स्वीकार कर लिया वह सहज स्वीकार हो गया। हमारे मानवतावादी बौद्धिक को यह समझना होगा कि वास्तविकता यह है जो अपनी राजभाषा को दर्जा नहीं दे सका, वह मनुष्य को
मनुष्य का दर्जा क्या देगा ? ध्यान रखना होगा कि संस्कार मातृभाषा ही सिखा सकती है, धाय
भाषा नहीं।
तात्पर्य यह कि ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020’ में फिर से एक अवसर आया है, ‘राजभाषा’ के प्रति अपनी
प्रतिबद्धता दिखाने की। मेकाले
को दोष देने वाले स्वतंत्र राष्ट्र के बौद्धिकों या तो मेकाले का नाम बन्द कर
दीजिये अथवा ‘NEP’ जैसे अंग्रेजी के संक्षिप्त शब्द को मानद संस्थाओं,
निकायों और परिषदों से हटाइये।
आज अगर NEP’ जैसे शब्द बिना मेकाले की उपस्थिति में आ रहे हैं तो मानना होगा कि हमारे प्रलाप और व्यवहार में अन्तर है। आज समय की मांग है कि हम अपनी मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा के साथ राजभाषा को उचित सम्मान दें और जब हम गाँधी की राष्ट्रभाषा की मांग को संविधान सभा में तिलांजलि देकर देश के लोगों की मातृभाषाओं को ही राष्ट्रीय भाषाएं स्वीकार कर लिया और राजभाषा को संवैधानिक स्वीकृत भी दे दी है तो उसे स्वीकार करते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति के भाषा सम्मान को भी आगे बढ़ाएं।
शब्दों का व्यवहार करते समय यह ध्यान रखना होगा की शब्दों
का अपना कुल गोत्र होता है, उसे बनाये रखने का संकल्प लेने का अवसर भी हमारी ‘राजभाषा’
दे रही है। और समय के साथ पूज्य गाँधी के स्वप्नों की राष्ट्रभाषा का भी यही उचित
सम्मान होगा।
Thursday, 17 September 2020
गाँधी की राष्ट्रभाषा (हिंदी)
गाँधी की राष्ट्रभाषा (हिंदी)
प्रो.
उमेश कुमार सिंह
मेरे बौद्धिको !
आप के
शब्दों में ‘हिंदी दिवस’ और मेरे मत से ‘राजभाषा दिवस’ एक साल के लिए बीत गया और
हमारा कर्मकांड भी इस सप्ताह समाप्त हो जायेगा ।
इस दिवस के कुछ दिनों पहले और आज दो दिन बाद तक जो भी सुनने, पढ़ने को मिला वह सुखद
भी था और कष्टकर भी । सुखद इसलिए की भाषा के प्रति हमारा प्रेम स्थाई रूप से हमारे
अंदर बसता है । कष्टकर यह कि देश की संवैधानिक राजभाषा (हिंदी) अपना स्थान इस वर्ष
अपने पहले पायदान पर नहीं पहुँच सकी ।
फिर भी यह अवसर इसलिए अन्य वर्षों की तुलना में
महत्वपूर्ण है कि राष्ट्र को स्वतंत्र भारत की सबसे सुलझी और भविष्य की दृष्टि को
समाहित किये हुए ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ आई । जिसको सभी लोगों ने किन्तु-परन्तु
के साथ स्वीकार भी किया । इसी शिक्षा नीति ने भाषा की महत्ता को प्रतिस्थापित किया
तो उसी ने प्रश्न भी निर्माण किये । और सबसे बड़ी बात भूल–सुधार को अवसर प्रदान
किया ।
जब कोई राष्ट्र अपने गौरव में वृद्धि करता है तो वैश्विक
दृष्टि से उसकी प्रत्येक विरासत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। धर्म, संस्कृति, परम्पराएँ, नागरिक दृष्टिकोण और ‘भाषा’। ‘भाषा’ ही एक ऐसा माध्यम है जो भावी संभावनाओं के अभिव्यक्त में महत्त्वपूर्ण
कारक बनकर उभरती है । भारतीय दृष्टि को समझने के लिए स्वाभाविक रूप से आवश्यक
दिखता है की ‘राजभाषा’ न केवल देश की सशक्त भाषा बने बल्कि वैश्विक आकर्षण का
केन्द्र भी बने। क्योंकि आज भारत की ‘राजभाषा’ होने के बाद भी राजकाज के काम में
जिस तरह से पिछले सत्तर –बहत्तर वर्षों से ‘अंग्रेजी’ का दबाव है, वह हमारे भविष्य
और युवाओं के लिए चिंता का विषय है।
सर्वेक्षण के अनुसार भारत की राजभाषा (हिंदी) भले ही विश्व
की दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा बनने की ओर संकेत दे रही है, किन्तु उसे
अपने ही देश के अंदर वह स्थान नहीं मिल पा रहा है जो मिलाना चाहिए। हम दुराहे पर
खड़े हैं। एक बड़ा हिस्सा धीरे–धीरे ही सही अंग्रेजी का हिमायती होता जा रहा है।
उसको अपनी संतानों का भविष्य ‘राजभाषा’ में नहीं दिख रहा है। इस मानसिकता से आज
लड़ने की आवश्यकता है । अत: मेरा मानना है की पहले हम अपनी ‘राजभाषा’ को पूरे देश
में स्वीकृति दिला सके तभी भारत की ‘राजभाषा’ विश्वभाषा बनाने की ताकत प्राप्त कर
सकेगी क्योंकि वह वैश्विक भाषा बनाने की सम्पूर्ण योग्यता को पूरा कराती है ।
वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार भारत में २ लाख ६० हजार लोगों
की मातृभाषा अंगरेजी है, इसके बावजूद सम्पूर्ण देश अंग्रेजी के आतक से कुंठित हो
रहा है ।
फिर भी मैं यहाँ यह नहीं बता रहा हूँ की विश्वभाषा के
मापदंड को भारत की राजभाषा पूरी करती है या नहीं ? और विश्वभाषा बनाने के सामान्य
मापदंड क्या हैं ? वैसे थोड़ी देर का अवकाश लेकर विचार भी कर ले तो यह बात उभर कर
आती है की राजभाषा विश्व के अधिकांश भू-भाग में बोली या समझी जाती है, इस भाषा की
अपनी वैज्ञानिक देवनागरी लिपि, विपुल शब्द-संपदा, पारिभाषिक शब्दावली, व्याकरण शास्त्र,
विश्व-मान्यता प्राप्त गंभीर सृजित साहित्य है, इसमें अनुवाद की क्षमता, शब्दों का विज्ञान–तकनीकी-संचार
के क्षेत्र में व्यवहार, आर्थिक विनिमय में सक्षमत़ा, विश्व के प्रमुख
राज्य-राष्ट्रों के विश्व विद्यालयों में अध्यन–अध्यापन भी किये जाते हैं। तब हम
पाते हैं कि दुनिया की अन्य भाषाओं की तुलना में न केवल हमारी राजभाषा आगे है,
बल्कि सभी मापदंडों पर खरी भी उतरती है।
हम यहाँ यह भी नहीं बताने जा रहे है की इसकी अपनी तत्सम
शब्दों की सम्पदा के साथ तद्भव, देशज और विदेशी यथा–
अंग्रेजी, फारसी, अरबी, पुर्तगाली, स्पेनिश, फ्रेंच आदि के शब्द इसमें बहुतायत में
आत्मसात हो चुके हैं। यह भी नहीं की राजभाषा हिंदी ने न केवल भारतीय उपमहाद्वीप के
देश नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश में लोकप्रिय है, बल्कि
अनेक मह्द्वीपों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है। सुदूर इंडोनेशिया, सूरीनाम,
मलेशिया, मारीशस, सुमात्रा, जावा बाली आदि देशों में बहुतायत मात्र में बोली जाती
है। यूरोप, अमरीका, कनाडा में इसकी उपस्थिति को देखा जा सकता है। सूरीनाम, मारीशस,
त्रिनिदाद, न्यूयार्क आदि में ‘विश्व हिंदी सम्मलेन’ हो चुके हैं।
हम यह भी नहीं बताना चाहते की संबिधान सभा में तत्कालीन
अहिन्दी भाषी राजनेताओं ने क्या कहा? क्योंकि यह सभी बातें हम सत्तर वर्षों से सुन
और पढ रहे हैं ? तो फिर आप कह सकते है की कहना क्या है?
तो सुनिए मेरे बौद्धिको ! आज हम २०२० में हैं, देश भी सक्षम
भारत बन रहा है तो फिर आज भी राष्ट्रभाषा, राजभाषा के विवाद में क्यों ? जब अनुसूची-
आठ कह रही है कि देश में २२ राष्ट्रीय भाषाएँ है, तो हमें संविधान की बात स्वीकार
क्यों नहीं ? जब की व्यवहार में भी दिखाई देता है की अपने-अपने प्रान्तों के काम
अपनी–अपनी मातृभाषा में ही होता है। जीवन व्यवहार भी उसी से चलता है। तो समस्या
क्या है ?
समस्या यह है की एक तो ‘राष्ट्रभाषा’ को लेकर हमारा
दृष्टिकोण साफ नहीं है। दूसरा ‘राजभाषा’ सम्पूर्ण देश में राजकीय कार्य की भाषा
बने यह आग्रह बहुत लिचलीचा और कमजोर है। जरा इसे भी समझें -
माना यह जाता है की १९५३ से १४ सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ मनाते आ रहे हैं। इसका प्रभाव यह हो
रहा है कि अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में इसके प्रति उदासीनता बढ़ रही है। यह सत्य है
की गांधी जी ने हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ बनाने की वकालत की थी। और देश में कई
प्रान्तों में ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समितियां’ बनी। गांधी जी के जीवित रहने से आज
तक वे सभी ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समितियां’ ‘हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की
कर्मकांडी कोशिश कर भी रही हैं । आखिर क्यों ?
प्रश्न यह है कि गाँधी जी के जाने के बाद सविधान सभा ने १४
सितम्बर, १९४९ को हिंदी को ‘राजभाषा’ स्वीकार किया तब हिंदी को ‘राजभाषा’ का
समुचित दर्जा दिलाने का प्रयत्न की जगह हम हिंदी को यह कह कर की हिंदी को राष्ट्र
ने ‘राष्ट्रभाषा’ स्वीकार किया है, उसे संवैधानिक दर्जा दिलाने के प्रयत्न में लगे
रहे और ७२ साल बिता दिए। आज भी सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं । दरअसल जब १४
सितम्बर, ४९ को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने घोषणा की की हिंदी
देश की ‘राजभाषा’ होगी तब हम ऐसे जश्न में डूबे की हमें पता ही नहीं चला की ‘राष्ट्रभाषा’
और ‘राजभाषा’ में अन्तर क्या है और जब पता चला तो ‘राजभाषा’ हिंदी का स्थान अग्रणी
पंक्ति पर अंग्रेजी ले चुकी थी।
हमारी इस नासमझी का
परिणाम यह हुआ की 1953 से हम जैसे–जैसे
१४ सितम्बर को ‘हिंदी दिवस’ का वार्षिक कर्मकाण्ड करते रहे, देश के अन्य भाषा-
भाषी इससे दूर होते गए। और अहिन्दी भाषी प्रान्तों में एक ऐसा वातावरण बन रहा है
मानो हिन्दी अन्य राष्ट्रीय भाषाओं की दुश्मन हो। २०२० में जब हम हिंदी दिवस मना
रहे थे तो आज भी तमिल, कन्नड़, मलयालम भाषी कुछ लोग विरोधी वक्तव्य दे रहे थे । यह
ठीक है की आप उसे राजनीतिक कह कर ख़ारिज कर देंगे पर यथार्थ से मुह नहीं मोड़ सकते ।
दूसरा हिंदी भाषा-भाषी और उसकी वकालत करने वाले आज भी दुविधाग्रस्त हैं ।
होना यह चाहिए था कि १४ सितंबर जो ‘राजभाषा दिवस’ है उसे ‘राजभाषा
दिवस’ के रूप में ही मनाते, हिंदी दिवस के रूप में नहीं, तभी इन विरोधी वक्तव्यों
को रोका जा सकता है क्योंकि तब हम कह सकते हैं कि हम राजभाषा दिवस मना रहे हैं और
धीरे-धीरे राजभाषा सम्पूर्ण देश में स्थापित हो सकेगी ।
दूसरी महत्वपूर्ण बात हमारे व्यवहार की है। अभी–अभी ‘राष्ट्रीय
शिक्षा नीति’ आई हमने बिना विचारे उसके अंग्रेजी संक्षिप्त ‘NEP’ को हमारे सामने रख दिया और हमने बिना विचार के कि इसके
आगे क्या परिणाम होंगे, उसे लिखना और बोलना प्रराम्भ कर दिया। जब कि होना यह चाहिए
था कि यह संज्ञा है, अत: इसे भारत की सभी भाषाओं में यथावत ‘राष्ट्रीय शिक्षा
नीति’ और उसका संक्षिप्ति कारन ‘रा.शि.नीति’ ही रहना चाहिए। ‘NEP’ कदापि नहीं ।
इसी तरह नीति के अन्तर्गत निकाय, आयोग आदि हैं, उनके नाम केवल राजभाषा में हों । वैसे भी
संज्ञा का अनुवाद करना गलत है।
ध्यान रखना होगा संविधान में हमने भारत को ‘इंडिया’ कहा तो
आज तक नहीं बदल सके । किन्तु देश की लोकसभा और राज्य
सभा को स्वीकार कर लिया तो वह हमारे मुख में रच बस गया कुछ अंग्रेजी दा को छोड़कर । ऐसे अनेक जहग दिखता है की जिन संस्थाओं के नाम हमने
राजभाषा में स्वीकार कर लिया वह सहज स्वीकार हो गया । जो बौद्धिक अपनी राजभाषा को दर्जा नहीं दे सका वह मनुष्य
को मनुष्य का दर्जा क्या देगा ? संस्कार मातृभाषा ही सिखा सकती है।
‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020’ में अवसर है, राजभाषा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने की । मेकाले को दोष देने वाले स्वतंत्र राष्ट्र के बौद्धिकों
या तो मेकाले का नाम बन्द करना चाहिये और ‘NEP’ शब्द हटाना चाहिए । शब्दों का अपना कुल गोत्र होता है, उसे बनाये रखने का संकल्प लेने का अवसर भी हमारी ‘राजभाषा’
दे रही है।
- प्रो उमेश कुमार सिंह
Saturday, 12 September 2020
राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020, में राजभाषा को अपेक्षित सम्मान मिले
राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020, में राष्ट्र भाषा को अपेक्षित सम्मान मिले
हम सब को स्मरण होगा ही कि ‘भारत’ यह इस देश का प्राचीन नाम है, जिससे हमारी सांस्कृतिक धरोहर प्रतिविम्बित होती है।
कहने को और नाम है आर्यावर्त, अजनाभ वर्ष, इंडिया आदि-आदि। किन्तु संविधान में दो नाम 'इंडिया' और 'भारत' आ जाने से और अपनी राजभाषा के प्रति उदासीनता के चलते स्वतंत्रता के समय से विदेशों में और विदेशिओं के साथ हमने अपना परिचय 'इंडिया' का दिया।
कारण अनेक हो
सकते हैं। किन्तु जैसे-जैसे हम स्वतंत्र से समर्थ्य भारत की और बढ रहे हैं देश की
तरुण स्वाभिमानी पीढ़ी अपने आप से प्रश्न कराती है कि हमारे ही देश के दो नाम क्यों
? और इससे भी कठोर प्रश्न आता ही कि 'इंडिया' नाम 'भारत' से अधिक महत्वपूर्ण क्यों ?
समझें, सांस्कृतिक और साहित्यिक जगत में इस देश की पहचान कभी भी 'इंडिया' की नहीं रही। हम प्रणाम भी करते हैं तो ‘वन्दे भारत मातरम्’, जयतु भारतं, 'भारत वन्दे', 'जय भारत वन्दे' आदि–आदि ही उच्चारित करते हैं।
भारत को माता कहते हैं। इंडिया की जय या इंडिया माता की जय नहीं बोलते क्यों ? क्योंकि हमने 'माता भूमिः पुत्रो अहम पृथिव्याः' कहा है। हमारा नाता माता और पुत्र का है। और इंडिया बोलने से यह भाव आता है क्या ? तो सहज उत्तर 'न' ही आयेगा।
हम आज भी लाख कोशिश के बाद 'इंडिया' की जगह 'भारत' क्यों नहीं कह और लिख पा रहे हैं ? आप में से अनेक कह सकते है कि 'इंडिया' और 'भारत' कहने से क्या फर्क पड़ता है। और चट शेक्सपियर का उदाहरण दे देंगे।
तो यह केवल फर्क की बात नहीं, अस्मिता की बात है, स्वाभिमान की बात है। फिर आप ने कभी इसके परिणाम समझने की कोशिश की होगी तो ध्यान में आया ही होगा की घर से राजभाषा गायब हो रही है। जिन संस्कारों से संस्कृति की आधार शिला खड़ी है, वह चरमरा रही है।
इस भूमिका को रखने के पीछे आप को कुछ पीछे तक ले जाना था। बात 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति' के सुझाव की है। जिसमें 'मातृभाषा' को प्राथमिक शिक्षा का माध्यम बनाने की बात कही गई है। यह मातृभाषा तो लागू हो भी जाएगी, भावनाओं की पूर्ती भी हो जाएगी। किन्तु क्या सपना पूरा होगा ?
इसे जरा समझे।
संविधान बनाते समय आमुख (प्रिएम्बल) में हमने एक वार 'इंडिया' लिख दिया और वह 'भारत' नाम के न चाहने वाले या यूं कहिये 'इंडिया' कहने में गौरव महसूस करने वालों को हथियार मिला हुआ है। कब सरकार सामर्थ्यवान होगी कब यह बदलाव आएगा, यह तो भविष्य ही बता सकता है।
किन्तु हम जिस शिक्षा नीति को स्वतंत्र भारत की वास्तविक रूप से पहली नीति कहते हैं और उसे हम दिलो–दिमाग से स्वीकारते हैं उसने हमें समझ से काम लेने का एक अवसर दिया है। यदि हमने इसको हलके में लेकर गवां दिया तो आने वाली पीढ़ी को हम समझा नहीं पाएंगे कि अब तो आप के पास अवसर था आप ने क्यों नहीं किया ?
जिस मूल गलती की और हमारा ध्यान नहीं जा रहा है, वह कितना दूरगामी अपरिणामकारी होगी आज ध्यान में नहीं आ रहा है ।
" अत: हमारा आग्रह है कि ‘चूकि नीति अभी संसद में जा रही है, तो वहां पर एक प्रस्ताव यह आना चाहिए कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020'. में जो संस्थानों / परिषदों / निकायों के नाम (संज्ञाएं) अंग्रेज़ी में आ रहें है और उनका संक्षिप्त रूप भी अंग्रेजी में आ रहा है, उन्हें राजभाषा में रखते हुए अंग्रेजी सहित सभी राष्ट्रीय भाषाओं में यथावत राजभाषा में ही रखा जाए, तथा उनका संक्षिप्त रूप भी राजभाषा में ही रहे ।"
इस शिक्षा नीति को वास्तविक रूप से तभी हम "मूल से जुड़े वैश्विक मानव बनाने , क्या से कैसे सोचें की ओर जाने और मातृभाषा आधारित आध्यामिक शिक्षा नीति कह सकते हैं ।"
नीचे नीति के मूल संस्थाओं के नाम संक्षिप्त के साथ देखने और समझने के लिए दिए जा रहें है, सूची को देंखे -
1. ‘शिक्षा विभाग’ (Education Ministry)
2. ‘राष्ट्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी मंच’ (National Educational Technology
3. ‘बुनियादी साक्षरता और
संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन’ (National Mission on Foundational
Literacy and Numeracy)
4. ‘राष्ट्रीय शोध संसथान’ की जगह 'national research foundation'
5. ‘भारतीय अनुवाद और व्याख्या
संस्थान’ (Indian Institute of Translation and Interpretation- IITI)
6. ‘फारसी, पाली और प्राकृत के लिये ‘राष्ट्रीय संस्थान (या संस्थनों)’ [National
Institute (or Institutes) for Pali, Persian and Prakrit]
7. आँगनवाड़ी / बाल वाटिका / प्री-स्कूल (Pre-School)
8. ‘प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल
और शिक्षा’ (Early Childhood Care and Education- ECCE)
9. ‘राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और
प्रशिक्षण परिषद’ (National Council of Educational Research and
Training- NCERT) द्वारा ‘स्कूली
शिक्षा के लिये ‘राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा’ [National Curricular
Framework for School Education, (NCFSE)
10. ‘फंडामेंटल
लिट्रेसी और न्यूमरेसी’ पर एक नेशनल मिशन, ‘मिनिस्ट्री ऑफ ह्यूमन रिर्सोस डेवलेपमेंट’ तैयार किया
जाएगा। जिसमें स्टूडेंट्स की हेल्थ (शारीरिक और
मानसिक )
11.‘राष्ट्रीय आकलन केंद्र’ (National
Assessment Centre)
12. ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ (Artificial
Intelligence- AI)
13. 'नेशनल क्यूरीकुलर एंड पैडेगॉजिकल फ्रेमवर्क
फॉर अर्ली चाइल्डहुड केयर एंड एजुकेशन ' (NCPFECCE)
14. 'अर्ली चाइल्डहुड केयर एंड एजुकेशन क्यूरीकुलम
' (ECCEC)
15. नेशनल प्रोफेशनल स्टैंडर्ड फॉर टीचर्स
16. नेशनल काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन (NCTE)
17. ‘शिक्षकों के लिये राष्ट्रीय व्यावसायिक मानक’ (National
Professional Standards for Teachers- NPST)
18. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा’ [[National
Curriculum Framework for Teacher Education (NCFTE),
19. राष्ट्रीय शैक्षिक टेक्नोलॉजी फोरम (NTTF)
20. ‘मल्टीपल एंट्री और एग्जिट ऑप्शंस’
21. ‘यूनिवर्सिटी एंट्रेंस एग्जाम्स’ के लिए
एन.टी.ए यानी ‘नेशनल टेस्टिंग एजेंसी’ एक हाई ‘क्वालिटी कॉमन एप्टीट्यूड टेस्ट’ आयोजित
करेगी, ‘कॉमन एप्टीट्यूड
टेस्ट’ के साथ ही ‘स्पेशलाइज्ड कॉमन सब्जेक्ट एग्जाम्स’
22. अपनी ‘एलिजबिलिटी और च्वॉइस’
‘23. परख’ (PARAKH) नामक एक नए ‘राष्ट्रीय आकलन केंद्र’ (National
Assessment Centre)
'24. नेशनल कमेटी फॉर द इंटीग्रेशन ऑफ वोकेशनल
एजुकेशन ' (NCIVE) का निर्माण करेगी
25. ‘एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट्स’
26. ‘एक्सटर्नल कमर्शियल बोर्रोविंग और विदेशी
निवेश (एफडीआई)’
27. ‘स्पेशली ऐबल्ड स्टूडेंट्स’
‘28. 360 डिग्री होलिस्टिक
रिपोर्ट कार्ड’
29. ‘राष्ट्रीय पुलिस यूनिवर्सिटी और राष्ट्रीय
फॉरेंसिक यूनिवर्सिटी’
30. ‘एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट’ (Academic
Bank of Credit)
31. भारत में जरूरी ‘वोकेशनल नॉलेज’ को ज्यादा से
ज्यादा विद्यार्थियों तक पहुंचाया जा सके। इसे ‘लोक विद्या’ नाम दिया गया है।
32. भारत उच्च शिक्षा आयोग (Higher
Education Commission of India -HECI)
33. राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामकीय परिषद् (National
Higher Education Regulatory Council- NHERC)
34. सामान्य शिक्षा परिषद् का गठन। (General
Education Council- GEC)
35. वित पोषण- उच्चतर
शिक्षा अनुदान परिषद् का गठन।(Higher Education Grants Council-HEGC)
36. प्रत्यायन- राष्ट्रीय
प्रत्यायन परिषद् (National Accreditation Council- NAC)
37. देश में आईआईटी (IIT) और आईआईएम (IIM) के समकक्ष वैश्विक मानकों
के ‘बहुविषयक शिक्षा एवं अनुसंधान विश्वविद्यालय’ (Multidisciplinary
Education and Research Universities- MERU) की स्थापना की
जाएगी।
एक तर्क और आएगा की यह तो विज्ञान की मानक शव्दावली है तो क्या हमारी अपनी राजभाषा की शव्दावली 'संज्ञा ' के लिए भी मानक और उपयोगी नहीं है ?
हम राजभाषा पखवाड़ा मना कर उसकी वकालत तो करते हैं , किन्तु व्यवहार में ?
यहां हिंदी की बात नहीं (अन्यथा भाषाओं की राजनीति होने लगे), संवैधानिक मुद्दा राजभाषा के अस्तित्व की बात कर रहे हैं।
ध्यान रखना होगा की पुरानी नीतिओं में जो शब्द आ गए थे उन्हें हम आज भी नहीं बदल पाए और न ही राजभाषा की मर्यादा के अनुरूप कोई नया शब्द प्रचलन में ला पाए, यथा हम UGC / NCERT आदि। UGC की जगह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग प्रयोग में पहले पायदान पर नहीं ला पाये हैं। लेकिन जहाँ चाह है वहां अधूरे शव्दों के साथ ही पर सफल हुए हैं' यथा - 'राजीव गाँधी शिक्षा मिशन'।
सादर
प्रो उमेश कुमार सिंह
Umeshksingh58@gmail.com