कृषि में भारतीय संदर्भ की समग्र अभिव्यक्ति के लिए, इसे वैदिक जैविक कृषि कहना उचित होगा ।
जैविक में ‘वैदिक’ शब्द वेद - ज्ञान (समग्र ज्ञान ) को इंगित करता है ।
‘वैदिक’ शब्द जोड़ने का अर्थ है, समग्र ज्ञान की संगठन शक्ति को कृषि के क्षेत्र में लागू करना ।
‘वैदिक जैविक’ का अर्थ है प्रकृति के पोषक तत्वों से समृद्ध जैविक कृषि।
प्राकृतिक ध्वनियों के पोषण से संरक्षित वे तत्व जो ‘आदित्य’ के ‘पूषा’ स्वरुप से पोषित हैं ।
जैविक कृषि में जोड़ा गया 'वैदिक' तत्व बुद्धिमत्ता की एक परिघटना है।
समष्टि की चेतना की एक परिघटना है।
प्रकृति की वह रचनात्मक बुद्धिमत्ता की एक परिघटना जो पौधे और उसके भीतर के पोषक तत्वों के विकास के विभिन्न चरणों को संरक्षित और वर्धित कराती है ।
पारंपरिक कृषि और जैविक कृषि के बीच का अंतर ही वैदिक कृषि है ।
इससे हमारे द्वारा खाए जाने वाले भोजन में संपूर्ण पौष्टिक मूल्य और संपूर्ण पौष्टिक शक्ति का लाभ मिलता है।
इसलिए वैदिक जैविक कृषि भोजन की सबसे पौष्टिक गुणवत्ता युक्त तत्वों को प्रदान करती है।
महर्षि महेश योगी का मानना है, “ पौधे के बीज से अंकुरित होकर पत्तियों, फूलों और फलों में विकसित होने की पूरी प्रक्रिया को सुखदायक संगीत और धुनों से पोषण मिलता पाया गया है; सूर्य, चंद्रमा, ग्रहों और तारों के बढ़े हुए मौसमी प्रभावों से, और पर्यावरण में सद्भाव और सुखदता के बढ़ते गुणों से। यह अब विश्वव्यापी वैज्ञानिक अनुसंधान के माध्यम से काफी अच्छी तरह से स्थापित हो चुका है। इस प्रभाव को उत्पन्न करने के लिए हमारे पास भारत के वैदिक विशेषज्ञ होंगे जिनकी पारंपरिक धुनें और वैदिक पाठ सबसे प्रभावी हैं।”
इस वैदिक कृषि की मूल अवधारणा को और स्पष्ट समझने के लिए भोजन करने के पूर्व बोले जाने वाले कुछ मन्त्रों को समझना चाहिए-
(i) ‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना।’
मंत्र की अभिव्यक्ति में हम ध्यान करते हैं कि भोजन स्वयं ब्रह्म है, जिसे अग्नि में आहूत किया गया है, और इसका सेवन करने वाले का भी लक्ष्य ब्रह्म में लीन होना है। यह भोजन को एक पवित्र कर्म के रूप में देखता है।
(ii) ‘ॐ सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु, सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥’
भाव यह कि हम सब साथ में रक्षा करें, साथ में भोजन करें, साथ में बलशाली बनें, हमारे अध्ययन तेज हों, और हम एक-दूसरे से द्वेष न करें।
(iii) ‘अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर प्राण वल्लभे। ज्ञान वैराग्य सिद्धार्थं भिक्षां देहि च पार्वति।।’
यह देवी अन्नपूर्णा से अत्यंत महत्वपूर्ण प्रार्थना है जिसमें अन्न्मय कोष से आनंद मय कोष की सम्पूर्ण अवधारणा निहित है।
इसमें स्पष्ट है कि भोजन का अंतिम लक्ष्य भूख मिटाना नहीं है।
अत: यहाँ अन्नपूर्णा भगवती से ज्ञान व वैराग्य के लिए भिक्षा प्रदान करने की प्रार्थना है ।
यही भारतीय वैदिक जैविकी है।
जैविक खेती की अवधारणा के साथ मां अन्नपूर्णा का आशीर्वाद भारतीय संदर्भ को एक परिपूर्णता प्रदाय करता है
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ReplyDeleteआपकी बात सही है।
Deleteमहत्त्वपूर्ण और उपयोगी जानकारी। सहज और गहन विवेचन। हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं
ReplyDelete👍🙏🌹
ReplyDeleteहरिर्दाता हरिर्भोक्ता हरिर्अन्नं प्रजापति,
ReplyDeleteहरिर्विप्र शरीरस्तु भुंक्ते भोजयते हरि: ।
हरि,दाता हैं।हरि ही भोजन करने वाले हैं। हरि ही स्वयं अन्न हैं और प्रजापति भी हैं। हरि, विद्वान लोगों की देह के पोषण के लिए भोजन को पचाते हैं।
जैविक कृषि को वैदिक साहित्य के साथ जोड़कर जो विश्लेषण किया गया है वह सार गर्वित एवं तार्किक है
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