स्व से स्वदेशी की अनवरत यात्रा
(ऋषि परम्परा -कूका राम सिंह -वीर सावरकर और गांधी )
* भारतीय परम्परा में दृष्टि श्रेय और प्रेय की है।
* श्रेय के हकदार ऋषि हैं तो प्रेय में क्रमशः कूका राम सिंह, वीर सावरकर और गांधी तक के सभी वे जिन्होंने यह यात्रा आगे बढ़ाई।
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भारत की मानवता के कल्याण की दृष्टि -
* भारत के प्रथम परमाणु वैज्ञानिक महर्षि कणाद ने वैशेषिक दर्शन में कहा है, ‘दृष्टनां दृष्ट प्रयोजनानां दृष्टाभावे प्रयोगोऽभ्युदयाय’ । अर्थात् ‘प्रत्यक्ष देखे हुए और अन्यों को दिखाने के उद्देश्य से अथवा स्वयं और अधिक गहराई से ज्ञान प्राप्त करने हेतु किये गये प्रयोगों से ‘अभ्युदय’ का मार्ग प्रशस्त होता है ।
* कण से लेकर ब्रह्मांड तक के प्रयोजनों को जानने के लिए महर्षि गौतम ने न्याय दर्शन में सोलह चरण की प्रक्रिया बताई हैं । और बताया कि इस प्रक्रिया से पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक्काल, मन और आत्मा को जानना चाहिए ।
* गीता के 7वें अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं कि ‘ब्रह्म के समग्र रूप को जानने के लिए ज्ञान-विज्ञान दोनों को जानना चाहिए, क्योंकि इन्हें जानने के बाद कुछ जानना शेष नहीं रहता ।’
* भृगु संहिता में भारतीय शिल्प शास्त्र में पूरे विज्ञान सम्पदा और उसकी भारतीय खोजों- विद्युत शास्त्र, यंत्र विज्ञान, धातु शास्त्र, विमान विद्या, नौका शास्त्र, वस्त्रु शास्त्र, गणित शास्त्र, काल गणना, खगोल सिद्धांत, स्थापत्य शास्त्र, रसायनशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, कृषि विज्ञान, प्राणि विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, घ्वनि विज्ञान, लिपि विज्ञान, सनातन राष्ट्र की उपलब्धियों का परिचय है ।’
* इसलिए यह बोध होना आवश्यक है की विज्ञान की श्रेष्ठ परम्परा उस समय से हैं जब पश्चिम ठीक से अस्तित्व में भी नहीं आया था । यह भारत की स्वदेशी विरासत है।
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राम सिंह कूका से गाँधी तक :.
* १८५७ का स्वातंत्र्य समर स्वदेशी ‘स्व’ शब्द से आया । १८५७ में पंजाब के कूका राम सिंह ने स्वदेशी की बात की और अंग्रेजों की डाक व्यवस्था का विरोध कर स्वदेशी कूका व्यवस्था लागू की ।
* वीर सावरकर ने १२ वर्ष की उम्र में ‘हितेच्छु’ में ‘स्वदेशी की फटकार’ लेख लिखा । २२ वर्ष की उम्र में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई ।
* वर्ष १९०५ के बंग-भंग विरोधी जनजागरण से स्वदेशी आन्दोलन को बल मिला । अरविन्द घोष, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, विनायक दामोदर सावरकर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, और लाला लाजपत राय स्वदेशी आन्दोलन के मुख्य उद्घोषक थे । बंगभंग आन्दोलन में ‘बंदेमातरम्’ ने धूम मचा दी । समझना होगा तब तक गांधी यहां अनुपस्थिति हैं।
* पूर्वजों की विरासत गांधी में छाया बन कर दिखी। परिणामत: कांग्रेस को १९३० में रावी के तट पर ‘पूर्ण स्वराज’ का प्रस्ताव पारित करना पड़ा ।
* रा.स्व. संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने इसके लिए कांग्रेस को धन्यवाद पत्र भी भेजा था । तात्पर्य संघ का स्वदेशी प्रकटीकरण।
* यही स्वदेशी आन्दोलन स्वतन्त्रता आन्दोलन का केन्द्र-बिन्दु बना । जिसे गाँधी ने ‘स्वराज की आत्मा’ कहा।
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विदेशियों की नज़र में भारत -
* स्वदेशी से समृद्ध भारत का संकेत प्रसिद्ध स्विस लेखक बजोरन लेण्डस्ट्राम अपनी पुस्तक ‘भारत एक खोज’ में देता है- ‘‘ मार्ग और साधन कई थे, परन्तु उद्देश्य सदा एक ही रहा- प्रसिद्ध भारत भूमि पर पहुँचने का, जो देश सोना चाँदी, कीमती मणियों और रत्नों, मोहक खाद्यों, मसालों, कपड़ों से लबालब भरा पड़ा है।’’
* सार यह कि आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में भारत के पास ये क्षमताएँ उस समय से थीं, जब पश्चिम के कई देशों का जन्म भी नहीं हुआ था ।
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परिधान में भारतीय दृष्टि -
* भारतवर्ष में उत्तर से लेकर दक्षिण तक परिधानों/वस्त्रों के प्रयोग में जलवायु भिन्नता के कारण विविधता दिखाती है । किन्तु वे सब भारतीय भेषभूषा ही हैं ।
* भारतीय परिधान का अर्थ है , भारत की पारंपरिक वेशभूषा । कपड़ों का पहनना अपनी ‘स्व’ की पहचान हैं । यह सिर्फ कपड़े पहनने का तरीका नहीं है । यह भारत की संस्कृति, परम्परा और क्षेत्रीय पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है ।
* यह विभिन्न क्षेत्रों, मत-पंथों और सामाजिक- सांस्कृतिक समूहों के बीच विविधता, सामाजिक स्थिति को दर्शाता है ।
* कूका राम सिंह से लेकर गांधी तक का खादी का आग्रह स्वदेशी और स्वाभिमान का आग्रह तो था ही, स्वरोजगार, कुटीर उद्योगों के अस्तित्व के लिए भी था ।
* गांधी का चरखा स्वदेशी यंत्रों के उपयोग का प्रतीक था ।
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स्वदेशी वर्तमान में प्रासंगिक क्यों -
(१) भारत की सुरक्षा एवं एकता को सुनिश्चित करना। (२) आर्थिक और सामरिक रूप से आत्मनिर्भर राष्ट्र का निर्माण । (३) भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को बढावा देना । (४) प्राकृतिक संपदा का संरक्षण। (५) सभी क्षेत्रों एवं सभी समाजों का संतुलित विकास ।
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स्व का व्यवहारिक सूत्र स्वदेशी -
* स्वदेशी की सफलता उसके क्रियात्मक स्वरुप पर निर्भर करता है । ‘स्व’ सिद्धांत है तो स्वदेशी उसका व्यावहारिक स्वरूप ।
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‘स्व’ का जागरण और स्वदेशी प्रकटीकरण के क्षेत्र -
* (१) भाषा, (२) भूषा, (३) भजन, (४) भोजन, (५) भेषज ।
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शाश्वत और परिवर्तनशील : युगानुकुल प्रयोग:
* तीन स्तर पर करना अपेक्षित है -
(१) व्यक्तिगत जीवन में आचरण करना ।
(२) परिवार में स्वबोध और स्वदेशी का उपयोग ।
(३) अपने कार्यक्षेत्र में स्वाबलंबी बनाने की प्रकिया में ‘स्व’ और स्वदेशी का चिंतन,अनुशंधान तथा युगानुकूल प्रयोग।
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